Suraiya (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

सुरैया (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

16. सुरैया
काल : १६०० ई०

1.

वर्षा के मटमैले पानी की धार चारों ओर फैली दिखलाई पड़ रही थी। पानी समतल भूमि पर धीरे-धीरे फैलता, ढलुआँ जमीन पर दौड़ता और नालों-नदियों में खेलती पहाड़ी नदियों के विस्तृत जल का रूप धारण कर रहा था। वृक्षों ने मानों वर्षा को अब भी रोक रक्खा था, उनसे बड़ी-बड़ी बूंदें अब भी टपाटप गिर रही थीं। वैसे वर्षा अब फुहारों की शकल में परिणत हो गई थी।

अकेले छोंकुरे (शमी) के दरख्त से कुछ हटकर श्वेतवसना तरुणी खड़ी थी। उसके सिर की सफेद चादर खिसक गई थी, जिससे भ्रमर से काले द्विधा-विभक्त केशों के बीच हिमालय की अरण्यानी से बहती गंगा की रुपहली धार खिंची हुई थी। उसके कानों के पास काले कुंचित काकुलों से अब भी एकाध बूंद गिर पड़ती थी। उसके हिम-श्वेत गंभीर मुख पर बड़ी-बड़ी काली आँखें किसी चीज का मानस प्रत्यक्ष कर रही थीं। उसके घुटनों तक लटकता रेशमी कुर्ता भींग कर वक्षस्थल से सट गया था, जिसके नीचे लाल अँगिया में बँधे उसके नारंगी से दोनों स्तनों का उभार बहुत सुन्दर मालूम होता था। कुर्ते के घिरावे में भूली कमर के नीचे पायजामा था, जिसके पतले सटे निम्न भाग में तरुणी की पेंडुली की चढ़ाव-उतार-आकृति साफ मालूम पड़ रही थी। मिट्टी से रँगे सफेद मोजे के ऊपर लाल जूतियाँ थीं जो भींगकर और नरम, और शायद चलने के अयोग्य हो गई थीं। तरुणी के पास एक तरुण आता दिखाई पड़ा। उसकी छज्जेदार पगड़ी, अचकन, पायजामा-जो सभी सफेद थे? भीगे हुए थे। नजदीक आ जाने पर भी उसने देखा, तरुणी उसकी ओर देख नहीं रही है। पैरों की आहट को रोक कर वह तरुणी की बगल में दो हाथ पर जा खड़ा हो गया। तरुणी एकटक थोड़ी दूर पर बहते नाले के मटमैले पानी को देख रही थी। तरुण सोच रहा था, उसकी सहचरी अब उसकी ओर देखेगी किन्तु युगों के बराबर के कितने ही मिनट बीत गये, तरुणी के अंग-नेत्र अब भी निश्चल थे; फुहारों से झरते जलकण को भी भौहों से पोंछने का उसे ख्याल न था। तरुण ने और प्रतीक्षा करने में अपने को असमर्थ देख तरुणी के कन्धे पर धीरे से हाथ रख दिया, तरुणी ने मुँह फेरा। उसकी दूर गई दृष्टि लौट आई, और उन बड़ी-बड़ी काली आँखों से किरणें फूट निकलीं। उसके प्रकृत लाल ओंठों पर मुस्कान थी, और भीतर से दिखलाती पतली दन्त-रेखा चमक रही थी। उसने तरुण के हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा-

"कमल ! तुम देर से खड़े थे ?"

"जान पड़ता है युगों से, तब से जबकि स्रष्टा ने अभी-अभी पानी से पृथ्वी को बनाना शुरू किया था, अभी वह गीली थी, और इतनी दृढ़ न थी कि पर्वत, वृक्षों और प्राणियों के भार को सहन कर सकती।"

"जाने दो, कमल ! तुम तो हमेशा कविता करते हो !"

"काश, सुरैया ! तुम्हारी बात सच निकलती, लेकिन जान पड़ता है, कविता मेरे भाग्य में नहीं बदी है।"

"सुरैया किसी दूसरी नारी को अपने साथ रखना पसन्द नहीं करेगी।"

"यह हृदय भी कहता है। किन्तु, ध्यान-मग्न हो तुम क्या सोच रही थी, मेरी सुरैया ?"

"सोच रही थी, बहुत दूर-बहुत दूर-समुद्र कितना दूर है कमल !"

"सबसे नजदीक है सूरत में, और वह एक मास के रास्ते पर है।"

"और यह जल कहाँ जाता है ?"

"बंगाल की ओर वह तो और दूर है, शायद दो महीने के रास्ते पर ।"

"इस बेचारे मटमैले जल को इतना बड़ा सफ़र करना पड़ेगा। तुमने समुद्र को देखा है, कमल ?"

"पिताजी के साथ उड़ीसा गया था प्यारी ! उसी वक्त देखा था।"

"कैसा होता है ?"

"सामने आकाश तक छाई काली तरंगित घटा।"

"इस जल के भाग्य में वह समुद्र है। क्या वहाँ इसका मटमैला रंग रहेगा ?"

"नहीं प्यारी ! वहाँ सिर्फ एक रंग है घननील या काला।"

"किसी वक्त मैं भी समुद्र देखेंगी, यदि तुम दिखाना चाहोगे !"

"इस जल के साथ चलने को तैयार हूँ, प्यारी सुरैया ! तुम्हारी आज्ञा चाहिए।"

सुरैया ने कमल के गले में हाथ डाल दोनों भीगे कपोलों को मिला दिया, फिर कमल के उत्फुल्ल नेत्रों की ओर देखते हुए कहा- "हमें समुद्र में चलना होगा, किन्तु इस जल के साथ नहीं।"

"मटमैले जल के साथ नहीं, प्यारी ?'

"मटमैला न कहो, कमल ! मटमैला यह नहीं है। जब यह आकाश से गिरा, तब क्या मटमैला था ?"

"नहीं, उस वक्त इसकी निर्मलता सूरज और चाँद से भी बढ़कर थी। देखो, इन तुम्हारी सुन्दर अलकों को इसने कितना चमका दिया ? तुम्हारे चन्द्रश्वेत कपोलों को इसने कितना मनोरम बना दिया ? आकाश से सीधे जहाँ-जहाँ पड़ा, वहाँ-वहाँ इसने तुम्हारे सौन्दर्य को निखार दिया।"

"हाँ, तो इसका मटमैलापन अपना नहीं है, यह इसे उनके संघर्ष से बनना पड़ा है, जो कि इसे सागर-संगम से रोकते हैं। क्या सागर में सीधी गिरती बँदें ऐसी मटमैली होती हैं, कमल ?"

"नहीं प्यारी।"

"इसीलिए मैं इसके मटमैलेपन को दूषण नहीं, भूषण समझती हूँ। तुम्हारी राय क्या है, कमल ?"

"सुरैया ! तुम्हारे ओंठ मेरे ही हृदय के अक्षरों को प्रकट कर रहे हैं।"

2.

आसमान की नीलिमा की छाया, अतल, पुष्करिणी के जल को और नील बना रही है। उस नीलिमा के गिर्द अमल श्वेत संगमर्मर के घाट और भी श्वेत मालूम होते हैं। पुष्पकरिणी की ओर हरी दूब के फर्श के बीच शिखरदार हरित सरो देखने में बड़े सुन्दर मालूम होते हैं, खासकर इस वसन्त के मध्याह्न समय में । दूर-दूर तक वृक्षों की पाँती, लता-मंडप तथा चलते फ़ौवारों से उद्यान सजाया हुआ है। आज शाही बाग तरुण-तरुणियों के वसन्तोत्सव के लिए खुला हुआ है और इस उन्मुक्त संसार में स्वर्गीय प्राणियों की भाँति वह घूम रहे हैं।

बाग के किनारे, किन्तु पुष्करिणी से दूर एक लाल पत्थरों की बारादरी के बाहर चार आदमी खड़े हैं। सभी के सिर पर चङ-सी आगे की ओर जरा-सी निकली पगड़ी एक-से, घुट्टी तक लटकते चुने घिरावेदार बगलबंदी जामे, एक-से सफेद कमरबन्द हैं। सभी के मुख पर एक-सी मूँछे हैं, जिनके अधिकांश बाल सफेद हो गए हैं। वह कुछ देर से बाग की ओर देख रहे थे, फिर जाकर चारों ओर से खुली बारादरी में बिछे गद्दे पर बैठ गये। चारों ओर नीरवता थी, इन वृद्धों के सिवा वहाँ और कोई न था। नीरवता को भंग करते हुए किसी ने कहा-

"बादशाह सलामत !-"

"क्या फ़जल ! इस वक्त भी हम दरबार में बैठे हुए हैं ? क्या मनुष्य कहीं भी मनुष्य के तौर पर रहने लायक नहीं है ?"

"भूल जाता हूँ-"

"जलाल कहो या अकबर कहो–अथवा दोस्त कहो।"

"कितनी मुश्किल है, मित्र जलाल ! हम लोगों को दोहरी जिन्दगी रखनी पड़ती है।"

"दोहरी नहीं, चौहरी भाई फ़ज़लू !"

"भाई बीरू ! मैं तो तेरी तारीफ करूँगा, तू तो मालूम होता है, हर बात के लिए हर वक्त तैयार रहता है, हम तो एक दुनिया से जब दूसरी दुनिया में आते हैं, तो कितनी देर स्मृति ठीक करने में लग जाती है। क्यों टोंडू भाई ! ठीक कह रहा हूँ न ?"

"हाँ, मुझे ताअज्जुब होता है फ़ज़लू ! यह बीरू क्या करता है। इसका कितना बड़ा दिमाग है.."

"बीरबल ही को न सब लोग हिन्दुस्तान के एक-एक खेत पर लग्गी चलाने वाला मानते हैं ?

"लेकिन टोडरमल ने भी तो बीरू भाई ! हर जगह लग्गी नहीं घुमाई ।"

बीरबल-"घुमाई हो या न घुमाई हो, दुनिया यही जानती है। और इस दिमाग की दाद तो हमारा जल्लू भी देगा।"

अकबर-"जरूर, और यह उन किस्सों में नहीं है, जो बादशाह जलालुद्दीन अकबर से भेस बदलकर गाँव-गाँव में घूमने के बारे में मशहूर हैं।"

बीरबल-"यह अच्छी याद दिलाई जलुआ भाई ने। और मैं भी इसके साथ मारा जा रहा हूँ। बीरबल और अकबर के नाम से कोई भी किस्सा गढ़कर कह डालना आम बात हो गई है। मैंने ऐसे बहुत से किस्से जमा किये हैं। एक किस्से के लिए एक अशर्फी मुकर्रर कर रखी है।"

अकबर-"कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी अशर्फी के लिए किस्से दिमाग से सीधे तुम्हारे पास पहुँचते हों।"

बीरबल-"हो सकता है, किन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तब भी तो यह पता लगेगा कि क्या-क्या खुराफातें हम दोनों के नाम से रची जा रही हैं।"

बीरबल-"अबे फ़ज़ला ! जाने दे, मैं सेठ छदामीमल की तरह का मक्खीचूस नहीं हूँ।"

अबुल फ़ज्ल-"नहीं, बीरू ! मुझ पर नाहक नाराज न हो। और भाई ! तेरे किस्सों से मैं बहुत डरता हूँ।"

बीरबल-"हाँ, मैंने ही न आईने-अकबरी जैसा पोथा लिखकर रख दिया है।

अबुल फ़ज्ल-"आईने-अकबरी के पढ़ने वाले कितने मिलेंगे, भई टोडू ! तू ही ईमान-धरम से कह; और कितने होंगे बीरबल के किस्सों को दुहराने वाले?"

टोडरमल-"यह बीरू भी जानता है।"

अबुल फ़ज्ल-"अच्छा बीरू ! अपने अशर्फी वाले किसी किस्से को भी तो सुना।"

बीरबल-"लेकिन, तुम सबने तो पहले ही तय कर लिया है, कि यह किस्सा मेरी अशर्फ़ी का नहीं, बल्कि मेरे दिमाग का होगा।"

अकबर-"लेकिन, बिना बतलाये भी हम परख सकते हैं, कौन असली सिक्का है, कौन खोटा।"

बीरबल-"गोया मेरे हर किस्से पर ठप्पा लगा रहता है। अच्छा भाई ! तुम्हारी मौज, किस्सा तो सुना ही देता हैं, किन्तु संक्षेप में सिर्फ़ मतलब की बात। अकबर को एक बार बहुत शौक हुआ हिन्दू बनने का । उसने बीरबल से कहा। बीरबल बड़े संकट में पड़ा। बादशाह से नहीं भी नहीं कर सकता था, और हिन्दू बनाने का उसे क्या अधिकार था ? कई दिन गायब रहा। एक दिन शाम को बादशाह के महल की खिड़की के पास 'हिछ-छो-ो 'हिछ-छ-' की आवाज जोर-जोर से सुनाई दी। बादशाह को यहाँ और इस वक्त कभी कपड़ा धोने की आवाज नहीं सुनाई पड़ी थी। उसका कौतूहल बढ़ा। वह एक मजदूर का कपड़ा पहन जमुना के किनारे गया। कितना ही रूप क्यों न बदला हो; बादशाह बीरू को पहचानने में गलती नहीं कर सकता। और वहाँ कपड़ा पाटे पर नहीं पटका जाता था, बल्कि एक मोटे--ताजे गदहे को रेह और रीटे से मल-मल कर धोया जा रहा था। बादशाह ने अपनी मुस्कराहट को दबा, स्वर बदलकर पूछा--

"क्या कर रहे हो, चौधरी !

"अपना काम कर भाई ! तुझे क्या पड़ी है ?"

"बड़े बेवक्त जाड़े - पाले में ठिठुर रहे हो चौधरी !"

"मरना ही होगा, कल ही इसे घोड़ा बना बादशाह को देना है।"

"गदहे को घोड़ा बना !"

"क्या करना है, बादशाह का यही हुक्म ।

बादशाह ने हँसकर अपनी आवाज में कहा-"चलो, बीरबल ! मैं समझ गया, मुसलमान का हिन्दू होना गदहे से घोड़ा बनने के बराबर है !"

"भाई फ़ज्ल ! इस कहानी को सुनकर जान पड़ा, शरीर में साँप डँस गया।"

अकबर-"और यह कहानी हमें अपने जीवन की संध्या में सुनने को मिल रही है ! क्या हमारे सारे जीवन के प्रयत्न का यही परिणाम होगा।"

"अबुल् फ़ज्ल-जलाल ! हम अपनी एक ही पीढ़ी का जिम्मा ले सकते हैं। हमारे प्रयत्न को सफल-असफल बनाना बाग में वसन्तोत्सव मनाती इन सूरतों के हाथ में है।"

टोडरमल-"देखिए, भाई ! हमने मुसलमान को हिन्दू या हिन्दू को मुसलमान बनाना नहीं चाहा।"

अबुल् फ़ज्ल-"हमने तो दोनों को एक देखना चाहा, एक जात, एक बिरादरी बनाना चाहा।"

बीरबल-"लेकिन, मुल्ले और पंडित हमारी तरह नहीं सोचते । हम चाहते हैं, हिन्दुस्तान को मजबूत देखना। हिन्दुस्तान की तलवार में ताकत है, हिन्दुस्तान के मस्तिष्क में प्रतिभा है, हिन्दुस्तान के जवानों में हिम्मत है। किन्तु, हिन्दुस्तान का दोष, कमजोरी है, उसका बिखराव टुकड़े-टुकड़े बँटा होना। काश यदि हिन्दुस्तान की तलवारें इकट्ठा हो जातीं ?"

अकबर-"बस मेरी एक मात्र यही इच्छा थी मेरे प्यारे साथियों ! हमने इसके लिए इतने समय तक संघर्ष किया। जिस वक्त हमने काम शुरू किया था, उस वक्त चारों ओर अंधेरा था, किन्तु अब वही बात नहीं कह सकते । एक पीढ़ी जितना कर सकती थी, उतना हमने किया, किन्तु यह गदहे - घोड़े की बात मेरे दिल पर पत्थर की तरह बैठी रही है।"

अबुल फ़जल-- "भाई जलाल ! हमें निराश नहीं होना चाहिए । मिलाओ, इसे खानखाना के समय से। उस वक्त क्या जोधाबाई तुम्हारी स्त्री बनकर महलेसरा में विष्णु की मूर्ति पूज सकतीं ?"

अकबर-"फ़र्क है फ़ज्ल ! किन्तु हमें मंजिल कितनी दूर चलनी है ? मैंने फिरंगी पादरियों से एक बार सुना, कि उनके मुल्क में बड़े से बड़ा बादशाह भी एक से अधिक औरतों से ब्याह नहीं कर सकता। मुझे यह रिवाज कितना पसन्द आया, इसे टोडर ! तुमने उस वक्त मेरी बातों में सुना होगा। यदि यह कहीं मैं कर सकता ! किन्तु, बादशाह बुराइयों के करने की जितनी स्वतंत्रता रखते हैं, उतनी भलाइयों की नहीं; यह कैसी बिडम्बना है। यदि हो सकता तो मैं रनिवास में सलीम की माँ को छोड़ किसी को न रखता। आज यदि सलीम के लिए भी ऐसा कर पाया होता !"

बीरबल-"प्रेम तो जलाल ! सिर्फ एक से ही हो सकता है। जब मैं हंसों के मनोहर जोड़ों को देखता हूँ, मुझे मालूम होता है कि उनका जीवन कितना सुन्दर है। वह जिस तरह आनन्द के साथी होते हैं, उसी तरह बिपदा के भी साथी।"

अकबर-"मेरी आँखों में एक बार आँसू निकल आये थे, भाई बीरू ! मैं शेर के शिकार में गया था, गुजरात में । हाथी पर चढ़कर तुफंग (पलीते वाली बन्दूक) से शेर को मारना कोई बहादुरी नहीं है, इसे मैं मानता हूँ। तुम्हारे पास शेर-जैसे पंजे और जबड़े नहीं हैं, तुम भी ढाल तलवार लेकर उसके बराबर हो सकते हो, किन्तु इससे ज्यादा रखना वीरता के खिलाफ है। मैंने शेर को तुफंग से मारा। गोली उसके सिर में लगी। शेर कूदकर वहीं गिर गया। उसी वक्त मैंने देखा, झाड़ी में से छलॉग मारती शेरनी ने एक बार मेरी ओर घृणा की दृष्टि से देखा, फिर मेरी तरफ पीठकर वह शेर के गालों को चाटने लगी। मैंने तुरन्त शिकारियों को गोली रोकने का हुक्म दिया और हाथी वहाँ से लौटा लाया। उस वक्त मेरे मन पर ऐसी चोट लगी थी, कि यदि शेरनी मुझ पर हमला भी करती, तो मैं हाथ न छोड़ता। मैं कितने ही दिनों तक गमगीन रहा। उस वक्त मैंने समझा, यदि शेर की भी हजार पाँच सौ शेरनियाँ होतीं, तो क्या वह उस वक्त शेर के गाल को इस प्रकार चाटती?"

अबुल फ़ज़ल-"हमारे देश को कहाँ तक चलना है, और हमारी गति कितनी मन्द रही है ! फिर हमें यह भी मालूम नहीं कि जब चलने के लिए हमारे पैर नहीं रहेंगे, तो कोई हमारे भार को वहन करने वाला होगा भी।"

अकबर-"मैंने चाहा, तलवार चलाने वाली दोनों हिन्दू-मुस्लिम जातियों के खून का समागम हो, इसी समागम की ओर ध्यान कर मैंने प्रयाग की त्रिवेणी पर किला बनाया। गंगा-यमुना की धाराओं का वह संगम जिसने मेरे दिल में एक विराट संगम का विचार पैदा किया। लेकिन देखता हूँ, कि मैं उसमें कितना कम कामयाब रहा। वस्तुतः जो बात पीढ़ियों के प्रयत्न से हो सकती है, उसे एक पीढ़ी नहीं कर सकती। किन्तु मुझे इसका सदा अभिमान रहेगा, कि जैसे साथी मुझे मिले, वैसे साथी बहुत कम के भाग्य में बदे होंगे। मैं देखना चाहता था घर-घर में अकबर और जोधाबाई, मेहरुन्निसा और कौन जिसे मैं पा नहीं सका।"

टोडरमल-"हिन्दू इसमें ज्यादा नालायक साबित हुए।"

बीरबल-"और अब गदहे को धोकर घोड़ा बनाने की कथा गढ़ रहे हैं। लेकिन, यदि हिन्दू मुसलमानों में इतना फ़र्क है, तो घोड़ा गदहा कैसे हो जाता है ? क्या हजारों हिन्दू मुसलमान हुए नहीं देखे जाते?"

अकबर-"मेरी आँखें तरसती ही रह गईं, कि हिन्दू तरुण भी मुसलमान तरुणियों से ब्याह करें, बिना अपने नाम और धर्म को छोड़े।"

अबुल फ़ज्ल-"यहाँ मैं एक खुशखबरी सुनाऊँ भाई जलाल ! मेरी सुरैया ने वह काम किया जो हम नहीं कर सके।"

सब उत्सुक हो अबुल फ़ज्ल की ओर देखने लगे।

"तुम लोग उत्सुक हो आगे सुनने को। जरा-सा मुझे बाहर हो आने दो-" कह अबुल् फ़ज्ल ने बाहर कठघरे के किनारे खड़ा हो देखा, फिर आकर कहा-

"सुनाना नहीं, दिखाना अच्छा होगा, मेरे साथ चलो।"

सब उसी कठघरे के पास पहुँचे। अबुल् फ़ज्ल ने हरे अशोक के नीचे पत्थर की चौकी पर बैठी दो तरुण मूर्तियों की ओर अँगुली करके कहा-"वह देखो, मेरी सुरैया।"

टोडरमल-"और मेरा कमल ! दुनिया हमारे लिए अँधेर नहीं है, भाई फ़ज्ल ! कह टोडरमल ने अबुल् फ़ज्ल को दोनों हाथों में बाँध, गले लगा लिया।

दोनों मिलकर जब अलग हुए तो देखा चारों की आँखें गीली हैं।

अकबर ने मौन को भंग करते हुए कहा- "मैंने तरुणों का यह वसन्तोत्सव कितने वर्षों से कराया, किन्तु असली वसन्तोत्सव आज इतने दिनों के बाद हुआ। मेरा दिल कहता है, बुलाकर उन दोनों की पेशानी को चूमूँ। कितना अच्छा होता, यदि वह जानते कि हम उनके इस गंगा-यमुना-संगम को हृदय से पसंद करते हैं।"

अबुल फ़ज्ल-"सुरैया को यह मालूम नहीं है कि उसके माँ-बाप इस प्रणय को कितनी खुशी की बात समझते हैं।"

टोडरमल-"कमल को भी नहीं मालूम, मगर तुम बड़े खुशकिस्मत हो, फ़ज्ल ! जो कि सुरैया की माँ भी तुम्हारे साथ है। कमल की माँ और सुरैया की माँ दोनों पक्की सखियाँ हैं, तो भी कमल की माँ कुछ पुराने ढर्रे की है। कोई हर्ज नहीं, मैं कमल और सुरैया को आशीर्वाद दूँगा।"

अकबर-"सबसे पहले आशीर्वाद देने का हक़ मुझे मिलना चाहिए।"

बीरबल-"और मुझे जल्लू ! अपने साथ नहीं रखोगे?"

अकबर-"जरूर, ऐसा धोबी कहाँ मिलेगा ?"

बीरबल-"और ऐसा घोड़ा बनाने वाला गदहा भी कहाँ ?"

अकबर-"और आज की हमारी गोष्टी कितनी आनन्द की रही। कहीं इस तरह का आनंद महीने में एक दिन के लिए भी मिला करता!"

3.

छत पर चारों ओर किवाड़ लगा एक सजा हुआ कमरा है, जिसकी छत से लाल, हरे, सफेद झाड़ टंगे हुए हैं। दरवाजों पर दुहरे पर्दे हैं, जिनमें भीतरी पर्दे बुटेदार गुलाबी रेशम के हैं। फर्श पर सुन्दर ईरानी कालीन बिछा हुआ है। कमरे के बीच में सफेद गद्दी पर कितने ही गाव-तकिये लगे हुए हैं। गद्दी पर तरुणियाँ बैठी शतरंज खेल रही हैं, जिनमें एक वही हमारी परिचिता सुरैया है, और दूसरी लाल घाघरे, हरी चोली तथा पीली ओढ़नी वाली फूलमती-बीरबल की १३ वर्ष की लड़की।

वह दोनों चाल सोचने में इतनी तल्लीन थीं, कि उन्हें गद्दी पर बैठते पैरों की आहट नहीं मालूम हुई। "सुरैया!" की आवाज पर दोनों ने नजर ऊपर उठाई और फिर खड़ी हो गई। सुरैया ने "चाची !" कहा, और कमल की माँ ने गले से लगा उसके गालों को चूम लिया। सुरैया की माँ ने कहा-

"बेटी ! जा, कमल तेरे लिए लाल मछलियाँ लाया है, हौज में डालने के लिए; तब तक मैं मुन्नी से शतरंज खेलती हूँ।"

"मुन्नी बड़ी होशियार है, अम्मा ! मुझे दो बार मात कर चुकी है, इसे छोटी छोकरी न समझना"-कह सुरैया चादर को ठीक करती जल्दी से कमरे से बाहर निकल गई।

महल के पिछले बाग में हौज के पास कमल खड़ा था। उसके पास एक नई मिट्टी की हँडिया पड़ी हुई थी। सुरैया ने जाकर कमल के हाथ को अपने हाथों में लेकर कहा-

"लाल-पीली मछलियाँ लाये हो, कमल भाई !"

"हाँ, और सुनहरी भी।"

"देखें तो"-कह सुरैया, झुककर हँडिया में झाँकने लगी।

"मैं इन्हें हौज में डालता हूँ, उसमें देखने में ज्यादा सुन्दर मालूम होंगी, बिल्लौरी हौज की चमकती तह में उन्हें देखो, सुरैया ।"

सुरैया ओठों और आँखों में हँसी को विकसित करते हुए हौज के पास खड़ी हो गई। कमल ने हँडिया की मछलियों को हौज में उड़ेल दिया। सचमुच बिल्लौरी हौज में उनका लाल-गुलाबी-सुनहरा रंग बहुत साफ मालूम होता था।

कमल ने गम्भीरता से समझाते हुए कहा-

"अभी छोटी हैं, सुरैया ! लेकिन बढ़ने पर भी छै अँगुल से छोटी ही रहेंगी!"

"अभी भी सुन्दर हैं, कमल।"

"यह देखो, सुरैया ! इसका कैसा रंग है?"

"गुलाबी।"

"जैसे तुम्हारे गाल, सुरैया ?"

"बचपन में भी तुम ऐसे ही कहा करते थे, कमल भाई !"

"बचपन में भी ऐसे ही थे, सुरैया!"

"बचपन में भी तुम मीठे लगते थे, कमल।"

"और अब ?"

"अब बहुत मीठे !'

"बहुत और कम क्यों ?" ।

"न जाने क्यों, जबसे तुम्हारा स्वर, बदला तबसे ओठों पर हल्की काली-सी रोमों की पाँती उठने लगी, तभी से, जान पड़ता है, प्रेम और भीतर तक प्रविष्ट कर गया।"

"और तभी से, कमल को तुमने दूर-दूर रखना शुरू किया।"

"दूर-दूर रखना !"

"क्यों नहीं ? पहले कैसे उछलकर मेरे कन्धे से लटकती, हाथों को तोड़ती.."

"सारी शिकायतों का खसरा मत पेश करो, कमल ! कहो, कोई नई खबर?"

"नई खबर है, सुरैया ! हमारा प्रेम प्रकट हो गया।"

"कहाँ?"

"हमारे दोनों घरों में और आला हजरत बादशाह सलामत तक।"

"बादशाह सलामत तक !"

"क्यों डर तो नहीं गई, सुरैया!"

"नहीं, प्रेम कभी न कभी प्रकट होने ही वाला था। लेकिन, अभी कैसे हुआ ?"

इतना विवरण तो मैं भी नहीं जानता, किन्तु पता लगा कि चाचा-चाची ने ही पहले स्वागत किया फिर पिता और बादशाह सलामत ने, और सबसे पीछे माँ ने ।"

"माँ ने ?"

"माँ से लोगों को डर था, जानती हो वह बड़े पुराने विचारों की स्त्री हैं।"

"लेकिन, अभी मेरे गालों से चाची के चुम्बन के दाग मिटे न होंगे ?"

"हाँ, ख्याल गलत निकला, जब उनसे पिताजी ने कहा तो वह बहुत खुश हुईं।"

"तो हमारे प्रेम का स्वागत हुआ है ?"

"जो हमारे हैं, उन सभी घरों में । किन्तु बाहरी दुनिया इसके लिए तैयार नहीं है।"

"इस बाहरी दुनिया की तुम परवाह करते हो, कमल ?"

"बिल्कुल नहीं, सुरैया ! हाँ, हम परवाह करते हैं आने वाली दुनिया की, जिसके लिए हम एक पथ-प्रदर्शन करने जा रहे हैं।"

"भाभी साहिबा को भी मालूम है, कमल ! मुझे अब साफ जान पड़ रहा है। रात में उनके घर गई थी, उन्होंने मजाक में कहा-"ननद! मैं, नन्दोई के लिए तरस रही थी, किन्तु सुरैया मेरी ननद ! अब मेरी साध पूरी होने जा रही है। उन्होंने तुम्हारा नाम नहीं लिया।"

"इसका मतलब है, भाई साहब ने भाभी को बतलाया, और दोनों को हमारा प्रेम पसन्द है।"

"तो तुम्हारी सारी ससुराल तुम्हारे कदमों में है, कमल !"

"और तुमने माँ को अपने पक्ष में करके कमाल किया !"

चाची की पूजा-पाठ का तुम लोग ख्याल करते हो, कमल ! यदि तुम्हें पता होता कि वह मुझे कितना प्यार करती हैं, तो शायद उन पर सन्देह भी न होता।"

"इसीलिए उन पर चलाने के लिए पिताजी ने अन्तिम हथियार तुम्हीं को रखा था। किन्तु, उस हथियार के पहले ही किला फतेह हो गया। अब हम लोगों का ब्याह होने जा रहा है।"

"कहाँ ?"

"न पंडित के पास न मुल्ला के पास।"

"हमारे अपने पैगम्बर के पास, जो हिन्द में नई त्रिवेणी का नया दुर्ग निर्माण कर रहा है।"

"जो गढ़े-गढ़हियों, नदी-नालों को निर्मल समुद्र बनाना चाहता है।"

"परसों ऐतवार को, सुरैया !"

"परसों !" कहते-कहते सुरैया की आँखों में, नर्गिस् में शबनम की तरह आँसू भर आये। कमल ने उसका अनुसरण कर उसकी आँखों को चूम लिया। दोनों को नहीं पता था, कि कहीं छिपी चार आँखें भी उन्हीं की भाँति आनन्दाश्रु बहा रही हैं।

4.

वसन्त की गुलाबी सर्दी, सन्ध्या की बेला, डूबते सूर्य की गिरती लाल किरणों से आग लगा सागर-देखने में कितना सुन्दर दृश्य था। समुद्र के बालू पर बैठे दो तरुण- हृदय इसका आनन्द ले रहे थे। ललाई, के चरम-सीमा पर पहुँच जाने पर एक ने कहा- "सागर ! हमारा इष्टदेव, कितना सुन्दर है !"

"हम सागर की सन्तानें हैं, अब इसमें कुछ सन्देह रहा, प्रिये ?"

"नहीं, मेरे कमल, जैसे कमल ! हमने क्या कभी ख्याल भी किया था, सागर ने अपने गर्भ में ऐसे स्वर्गलोक को छिपा रखा है ?"

"पूर्ण न हो, किन्तु वेनिस को आदमियों ने स्वर्ग बनाया है, प्रिये ! इसमें सन्देह नहीं ।"

"मैं साधुनी पर विश्वास नहीं करती थी, जब वह कहती थी हमारे देश में कुल-वधुएँ, कुल- कन्यायें ऐसे ही स्वच्छन्द, अवगुंठन-रहित घूमती हैं, जैसे पुरुष। और आज इस स्वर्ग में रहते हमें दो साल हो गये। मिलाओ, प्रिये ! वेनिस को दिल्ली से !"

"क्या हम कभी विश्वास करते. सुरैया ! यदि कोई कहता, कि बिना राजा के भी फलोरेन्स- जैसा समृद्ध राज्य चल सकता है।"

"और वेनिस जैसी नगरों की रानी हो सकती है ?"

"क्या सुरैया ! दिल्ली में हम इस तरह स्वच्छन्द विहार कर सकते हैं ?"

"बुर्के के बिना ! पालकी के भीतर मूँद-माँदकर जाना पड़ता; प्रिय कमल ! और यहाँ हमें हाथ में हाथ मिलाये चलते देखकर कोई नजर भी उठाकर नहीं देखता ।"

"किन्तु गुजरात में हमने देखा था अनावृत्तमुखी कुलांगनाओं को, सुना था, दक्षिण में भी पर्दा नहीं होता।"

"इससे जान पड़ता है, किसी समय हिन्द की ललनाएँ भी पर्दे से मुक्त थीं। क्या हमारा देश फिर वैसा हो सकेगा, कमल ?"

"हमारे पिताओं ने तो अपने जीवन-भर कोशिश की। यह छोटा-सा फ्लोरेन्स देश जिसे तीन दिन में आर-पार किया जा सकता है, जरा देखो, इसकी ओर सुरैया ! यहाँ के लोग कितने अभिमान के साथ सिर उन्नत किये चलते हैं। यह किसी के सामने सिज्दा, कोर्निश करना जानते ही नहीं । राजा का नाम सुनकर थूकते हैं, इनके लिए राजा शैतान या आग उगलने वाला नाग है।"

"लेकिन, कमल ! क्या इसमें कुछ सत्यता नहीं है? फ्लोरेन्स के किसानों से तुलना करो हिन्द के किसानों की । क्या यहाँ वह नंगे-सूखे हाड़ कहीं दिखलाई पड़ते हैं ?"

"नहीं, प्रिये ! और इसीलिए कि यहाँ शान-शौकत पर करोड़ों खर्च नहीं करना पड़ता।"

"वेनिस में धनकुबेर हैं, और कितने ही हमारे जगत्-सेठों को मात करते हैं।"

"हमारे जगत्-सेठ लाख पर लाख झंडियाँ गाड़ने वाले ! मैं सोचा करता था, यह चहबच्चे के रुपये और अशर्फियाँ अँधेरे में पड़ी-पड़ी क्या करती हैं ? इन्हें हवा खाना चाहिए. एक हाथ से दूसरे हाथ में जाना चाहिए। इनके बिना मिठाई अपनी जगह पड़ी-पड़ी सूखती है, फल अपनी जगह सड़ते हैं, कपड़ों को गोदामों में कीड़े खाते हैं। और इन्हें गाड़ कर हमारे सेठ लाल झंडियाँ गाड़ते हैं। लोग देखकर कहते हैं, सौ झंडियाँ हैं, सेठ करोड़ीमल हैं।"

सूर्य की लाली कब की खतम हो गयी थी अब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। समुद्र की लहरों के किनारे के पत्थरों पर से टकराने की आवाज लगातार आ रही थी। तरुण-तरुणी अभी भी बालू पर से उठना नहीं चाहते थे। वह सागर को सचमुच अपना प्रिय संबंधी समझते थे। यद्यपि उन्हें स्वयं स्थल के रास्ते सफर करना पड़ा था, किन्तु उन्हें मालूम था कि उनके सामने के समुद्र का छोर हिन्द से लगा हुआ है, इसीलिए उनके मन में कभी-कभी ख्याल आता था, क्या इस पार से उस पार को मिलाया नहीं जा सकता।

कितनी ही रात गये दोनों लौट रहे थे। उस अँधियारी रात और अपने हृदय की अवस्था देखकर सुरैया ने कहा-

"हमारे बादशाह ने अपने राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिए भारी प्रयत्न किया, और उसमें उन्हें बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हुई; किन्तु क्या वहाँ अँधेरी रात में हम इस प्रकार निःशंक घूम सकते। यह क्यों ?"

"यहाँ सब खुशहाल हैं। किसानों के खेत अंगूर, सेब, गेहूँ पैदा करते हैं।"

"हमारे भी खेत सोना बरसाते हैं ?"

"तो सोने के लूटने वाले हमारे यहाँ ज्यादा हैं, सुरैया !"

"और कमल ! देखते हो, यहाँ किसी के घर में जाने पर कैसी बेतकल्लुफी से गिलास और बोतल मेज पर आ जाती हैं।"

"हिन्द में पिताजी इसीलिए बदनाम थे, कि वह बादशाह के साथ पानी पी लेते थे।"

"और मुझे मेरी दाइयाँ सिखलाया करती थीं कि राजपूतनियाँ बड़ी नज्स (गन्दी) होती हैं, उनके घर में सूअर पकता है। काश कि वहाँ के अंधे यहाँ आकर देखते। इस दुनिया में छोटी-बड़ी जात नहीं ।"

"इस दुनिया में खाने-पीने की छूत-छात नहीं ।"

"फ्लोरेन्स एक है, कभी हिन्द भी इसी तरह एक होगा, कमल !"

"यह तभी होगा, जब हम सागर की शरण लेंगे, सागर-विजय प्राप्त करेंगे।"

"सागर-विजय !"

"वेनिस् सागर-विजयिनी नगरी है, सुरैया ! वेनिस की यह नहरों की सड़कें, ये ऊँचे-ऊँचे प्रासाद उसी सागर-विजय के प्रासाद हैं ! आज वेनिस् सागर-विजय में अकेली नहीं है, उसके कितने ही और भी प्रतिद्वंदी हैं, किन्तु मुझे यह साफ मालूम होता है, अब सागर-विजयियों का ही संसार पर शासन होगा। मैं अपने को सौभाग्यवान् समझता हूँ, जो मेरे हृदय में इसकी ओर प्रेरणा हुई ।"

"तुम क्या-क्या किताबें लिये रात-रात पड़े रहते हो, प्रिय ! और पुस्तके यहाँ कितनी सुलभ हैं ?"

"हमारे यहाँ भी सीसा है प्रिये ! हमारे यहाँ भी कागज है, हमारे यहाँ भी कुशल लोहार- मिस्त्री हैं; किन्तु हम अभी तक पुस्तकें छापना नहीं जानते। यदि छापाखाना हमारे यहाँ खुल जायें, तो ज्ञान कितना सुलभ हो जाये। और यह जो पुस्तकें मैं पढ़ रहा हूँ, हफ्तों मल्लाहों के साथ गायब रहता हूँ, इसने मुझे निश्चय करा दिया, कि सागर-विजयी देश विश्व-विजयी होकर रहेगा। इन फिरंगियों को हमारे देश वाले नहाने-धोने की बेपरवाही के कारण गन्दे जंगली कहते हैं, किन्तु इनकी जिज्ञासा को देखकर मन प्रशंसा किये बिना नहीं रहता। इन्होंने भूगोल के किस्से नहीं गढ़ बल्कि जाकर हर जगह की जानकारी प्राप्त की। इनके नक्शे मैंने तुम्हें दिखाये थे, सुरैया !"

"सागर मुझे कितना अच्छा लगता है, कमल !"

"अच्छा ही नहीं, सुरैया ! सागर ही के हाथों में देशों का जीवन होगा।"

"तुमने देखा, इन लकड़ी के जहाजों पर लगी तोपों को। ये चलते-फिरते किले हैं। मंगोलों को उनके घोड़ों ने जिताया था और बारूद ने भी। अब दुनिया में जिसके पास वे युद्धपोत होंगे, वह जीतेगा। इसीलिए मैंने इस विद्या को सीखना तय किया, सुरैया।"

कमल और सुरैया की इच्छा पूरी नहीं हुई। वह भारत के लिए रवाना हुए किन्तु वह समुद्री डाकुओं का युग था। सूरत पहुँचने से दो दिन पहले उनके जहाज पर समुद्री डाकुओं ने हमला किया। अपने दूसरे साथियों के साथ मिलकर कमल ने भी अपनी तोपों और बन्दूकों को डाकुओं के ऊपर भिड़ा दिया किन्तु डाकू संख्या में अधिक थे। कमल का जहाज तोप के गोले से जर्जर हो जल-निमग्न होने लगा। सुरैया उसके पास थी, और उसके मुस्कराते ओठों पर अंतिम शब्द थे-"सागर – विजय।"

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