Suparna Yaudheya (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan
सुपर्ण यौधेय (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन
12. सुपर्ण यौधेय
काल : ४२० ई०
1.
मेरा भी भाग्यचक्र कैसा है। कभी एक जगह पैर जम नहीं सका। संसार के थपेड़ों ने मुझे सदा चंचल और विहल रखा। जीवन में मिठास के दिन भी आये, यद्यपि कटुता के दिनों से कम। और परिवर्तन तो जैसे वर्षान्त के बादलों की भाँति जरा दूर पर पानी, जरा दूर पर धूप। जान नहीं पड़ता यह परिवर्तन-चक्र क्यों घुमाया जा रहा है। पश्चिमी उत्तरापथ गन्धार में अब भी मधुपर्क में वत्समांस दिया जाता है, किन्तु मध्यप्रदेश (युक्तप्रान्त-बिहार) में गोमांस का नाम लेना भी पाप है—वहाँ गो-ब्राह्मण रक्षा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। मुझे समझ में नहीं आता, आखिर धर्म में इतनी धूप-छाँह क्यों ? क्या एक जगह का अधर्म दूसरी जगह धर्म होकर चलता रहेगा, अथवा एक जगह परिवर्तन पहले आया है, दूसरी जगह उसी का अनुकरण किया जायेगा।
मैं अवन्ती (मालवा) के एक गाँव में क्षिप्रा के तट पर पैदा हुआ। मेरे कुलवाले अपने को मुसाफिर की तरह समझते थे, यद्यपि वहाँ उनके अपने खेत थे, अपने घर थे, जिन्हें वह अपने कन्धे पर उठाकर नहीं ले जा सकते थे ! मेरे कुलवालों के डीलडौल, रंगरूप में गाँव के और लोगों से कुछ अन्तर था—वह ज्यादा लम्बे-चौड़े, ज्यादा गौर, साथ ही दूसरों की शान न सहने वाले थे। मेरी माँ गाँव की सुन्दरतम् स्त्री थीं, उनके गौर मुखमंडल पर भूरे बाल बडे सुन्दर लगते थे। हमारे परिवार के लोग अपने को ब्राह्मण कहते थे, किन्तु मैं देखता था, गाँव वालों को इस पर सन्देह था। सन्देह की चीज भी थी। वहाँ के ब्राह्मणों में सुरा पीना महापाप था, किन्तु मेरे घर में वह बार-बार बनती और पी जाती थी। और उच्चकुलों में स्त्री-पुरुष का सम्मिलित नाच सुना भी नहीं जाता था, किन्तु मेरे कुल के सात परिवार जो कि एक से ही बढ़े थे-शाम से ही अखाड़े में जुट जाते थे। अत्यन्त बचपन में मैंने समझा, सभी जगह ऐसा ही होता होगा, किन्तु जब मैं गाँव के और लड़कों के साथ खेलते उनके व्यंग्य वचनों को समझने लगा तो मालूम हुआ कि वह हमें अद्भुत तरह के आदमी समझते हैं, और हमारी कुलीनता को मानते हुए भी हमारे ब्राह्मण होने में सन्देह करते हैं। हमारा गाँव एक बड़ा गाँव था, जिसमें दूकानें और बनियों के घर भी थे। वहाँ कुछ नागर परिवार थे, इन्हें लोग बनियाँ कहते, किन्तु वह स्वयं हमारी भाँति अपने को ब्राह्मण कहते। कई नागर कन्याएँ हमारे कुल में आई थी, यह भी एक कारण था, कि गाँव वाले हमें ब्राह्मण मानने के लिए तैयार न थे। उनके ख्याल में हम ब्राह्मणों के खान-पान, शादी-ब्याह के नियमों की अवहेलना करके कैसे ब्राह्मण हो सकते हैं ? मेरे साथी लड़के जब कभी नाराज हो जाते तो मुझे "जुझवा” कहकर चिढ़ाते। मैं माँ से बराबर पूछता, किन्तु वह टाल देती।
अब मैं कुछ सयाना हो गया था, दस साल की उम्र थी, और गाँव में एक ब्राह्मण गुरु की पाठशाला में पढ़ने जाता था। मेरे सहपाठी प्रायः सभी ब्राह्मण थे-लोगों के कहने के अनुसार सभी पक्के ब्राह्मण, और मैं तथा दो नागर विद्यार्थी थे जिन्हें हमारे साथी कच्चे ब्राह्मण, कहते थे। मैं गुरुजी का तेज विद्यार्थी था और उनका मुझपर, विशेष स्नेह रहता था। हमारे कुलवालों का स्वभाव मुझमें भी था, और किसी की बात को न सहकर मैं झगड़ पड़ता था। उस दिन मेरे किसी साथी ने ताना मारा-“ब्राह्मण बना है, जुझवा कहीं का।” मेरे चाचा के सरपुत (साले के पुत्र) ने मेरा पक्ष लेना चाहा, उसे भी कहा-"यवन कहीं का नागर ब्राह्मण बना है !" बचपन से छोटे बच्चों को भी ताना मारते सुनता था; किन्तु, उस वक्त वह न उतना चुभता था, न उसके भीतर इतनी कल्पना उठने लगती थी। पाठशाला में हम तीनों को छोड़ बाकी तीस विद्यार्थी थे। चार कन्याएँ भी थीं। जिनका रंग हम लोगों जैसा गोरा; शरीर हम जैसा लम्बा न था, तो भी हम देखते उनके सामने तीनों लोग झुकने के लिए तैयार थे।
उस दिन घर लौटते वक्त मेरा चेहरा बहुत उदास था। माँ ने मेरे सूखे ओंठों को देख मुँह चूमकर कहा-
"बेटा ! आज इतना उदास क्यों है?"
मैंने पहले टालना चाहा, किन्तु, बहुत आग्रह करने पर कहा- “माँ हमारे कुल के बारे में कोई बात है, जिसके कारण लोग हमें ब्राह्मण नहीं मानना चाहते !'
"हम परदेशी ब्राह्मण हैं, बेटा इसीलिए वह ऐसा ख्याल करते हैं।"
"ब्राह्मण ही नहीं अब्रह्मण भी माँ ! हमारे ब्राह्मण होने पर सन्देह प्रकट करते हैं।"
"इन्हीं ब्राह्मणों के कहने पर।"
"हमारे यजमान भी नहीं हैं। दूसरे ब्राह्मण पुरोहिती करते हैं। ब्रह्मभोज में जाते हैं, हमारे कुल में वह भी नहीं देखा जाता। और तो और ब्राह्मण हमें एक पंक्ति में खिलाते भी नहीं । माँ जानती हो तो बतलाओ।"
माँ ने बहुत समझाया, किन्तु मुझे सन्तोष नहीं हुआ। मेरा चित्त जब इस प्रकार चंचल रहता, उस वक्त मेरे नागर सहपाठियों और सम्बन्धियों की सहानुभूति मेरे साथ रहती थी, अथवा हम सभी एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित कर लिया करते थे।
2.
समय और बीता; मैं तेरह वर्ष का हो गया और पाठशाला की पढ़ाई समाप्त होने वाली थी–मैंने अपने वेद, ऋग्वेद, ऐतरेय ब्राह्मण, व्याकरण, निरुक्त तथा कुछ काव्य पढे । गुरुजी का स्नेह मुझपर बढ़ता ही गया था। उनकी कन्या विद्या मुझसे चार वर्ष छोटी थी, पाठ याद करने में मैं उसकी सहायता करता था। और गुरुजी तथा गुरु-पत्नी के व्यवहार को देखकर विद्या भी मुझे बहुत मानती, मुझे भैया सुपर्ण कहती। मुझे गुरु-परिवार से कभी कोई शिकायत नहीं हो सकती थी, क्योंकि गुरु-पत्नी का स्नेह मेरे लिए माँ के समान था।
इसी वक्त फिर किसी सहपाठी ने मुझे ‘जुझवा' का ताना मारा; और अकारण, क्योंकि अब मैं हर तरह से बचकर रहता था। कारण इसके सिवाय और कोई न था, कि पढ़ने-लिखने में बहुत तेज होने से मेरे सहपाठियों को मुझसे ईर्ष्या रहती थी। अब मेरी प्रकृति गम्भीर होती जा रही थी। मन उत्तेजित न होता हो यह बात न थी, किन्तु मैंने धीरे-धीरे अपने पर नियंत्रण करना सीखा था। मेरे दादा की आयु सत्तर वर्ष से ज्यादा थी, कितनी ही बार उनसे देश-विदेश, युद्ध-शान्ति की बातें सुनी थीं। मैं यह भी सुन चुका था कि इस ग्राम्य में पहले वही अपने भाइयों के साथ आये थे। मैंने आज दादा से अपने कुल के बारे में असली बात जानने का निश्चय कर लिया। गाँव से पूरब की ओर हमारा आमों का एक बाग था। आम खूब फले हुए थे, यद्यपि उनके पकने में देर थी; किन्तु अभी से सोना दासी ने वहाँ अपनी झोपड़ी लगा ली थी। मैंने सुन रखा था कि जब मेरे दादा गाँव में आये, उसी वक्त उन्होंने सोना को चालीस रौप्य मुद्रा (रुपये) में किसी दक्खिनी व्यापारी से खरीदा था-उस वक्त दक्खिन से दास-दासियों को बेचने के लिए कितने ही व्यापारी आया करते थे। सोना उस वक्त युवती थी, नहीं, तो दासियाँ उतनी महँगी न थीं। काली-कलूटी सोना के चमड़े अब झूल गये थे, उसके चेहरे पर चम्बल, बेतवा के टेढ़े-मेढ़े नाले खिंचे हुए थे, किन्तु कहा जाता है, जवानी में वह सुन्दर थी। दादा के वह मुँह लगी रहती, खासकर जब वही दोनों रहते ! घनिष्ठता का लोग और-और अर्थ भी लगाते थे-एक विधुर स्वस्थ प्रौढ़ व्यक्ति के ऊपर वैसा सन्देह स्वाभाविक था।
शाम को दादा बाग जाया करते; एक दिन मै भी उनके साथ हो लिया ! दादा अपने मेधावी पोते पर बहुत स्नेह रखते थे। और बातें करते-करते मैंने कहा- "दादा ! मैं अपने कुल के बारे में तुमसे सच्ची बातें जानना चाहता हूँ। क्यों लोग हमें पक्का ब्राह्मण नहीं समझते, "जुझवा” कहकर चिढ़ाते हैं ? माँ से मैंने कई बार पूछा, किन्तु वह मुझे ठीक से बतलाना नहीं चाहती।"
"इसके पूछने की क्या जरूरत है, बच्चा ?”
"बहुत जरूरत है दादा ! यदि मैं असली बात को ठीक से जानता रहूँगा, तो अपने कुल पर होने वाले आक्षेपों का प्रतिकार कर सकँगा। मैं अब ब्राह्मणों के बारे में काफी पढ़ चुका हूँ दादा ! मुझमें इतना विद्याबल है, कि मैं अपने कुल में सम्मान को कायम रख सकूँ।"
"सो तो मुझे विश्वास है, किन्तु बच्चा ! तुम्हारी माँ बेचारी खुद हमारे कुल के बारे में नहीं जानती, इसलिए वह बतलाना नहीं चाहती है यह बात न समझो। जहाँ लोक में हमारे कुल की स्थिति का सम्बन्ध है, वह तो अब नागरों के सम्बन्ध ने तय कर दिया है। हमारी ब्याह-शादी उनके साथ होती है। अवन्ती और लाट (गुजरात) में उनकी संख्या भी बहुत है, इसलिए हमें तो उनके साथ डूबना-उतराना है, तुम्हारी पीढ़ी वस्तुतः यौधेय की अपेक्षा नागर ज्यादा है।"
"यौधेय क्या दादा ?”
"हमारे कुल का नाम है बच्चा ! इसी को लेकर लोग हमें 'जुझवा' कहते हैं।"
"यौधेय ब्राह्मण थे, दादा ?"
"ब्राह्मणों से अधिक शुद्ध आर्य ।"
"लेकिन ब्राह्मण नहीं ।"
"इसका उत्तर, 'हाँ' या 'नहीं' के एक शब्द में कहने की जगह अच्छा होगा कि मैं यौधेयों का परिचय ही तुम्हें दे दें। यौधेय शतद् (सतलज) और यमुना के बीच हिमालय से मरुभूमि के पास तरु के निवासी और स्वामी थे,सारे यौधेय स्वामी थे।"
"सारे यौधेय।"
"हाँ, उनमें कोई एक राजा न था, उनके राज्य को गण-राज्य कहा जाता था। गण या पंचायत सारा राजकाज चलाती थी। वह एक आदमी राजा के-राज्य के बड़े विरोधी थे।"
"ऐसा राज्य होना तो मैंने कभी नहीं सुना, दादा !"
"लेकिन ऐसा होता था बच्चा ! मेरे पास यौधेय गण के तीन रुपये हैं, मेरे पिता से वह मुझे मिले। देश से भागते वक्त उनके पास जो रुपये थे; उन्हीं में से यह हैं।"
"तो दादा ! तुम यौधेयों के देश में नहीं पैदा हुए !"
"मैं दस वर्ष का था जब मेरे पिता-माती को देश छोड़ना पड़ा, मेरे दो बड़े भाई थे, जिनके वंशजों को तुम यहाँ देखते हो।"
"देश क्यों छोड़ना पड़ा, दादा ?"
"पुरातन काल से वह यौधेयों की अपनी भूमि थी ! बड़े-बड़े प्रतापी राजा चक्रवर्ती-मौर्य, यवन, शक-भारतभूमि पर पैदा हुए. किन्तु किसी ने थोड़ा-सा कर ले लेने के सिवाय हमारे गण को नहीं छेड़ा। यही गुप्त, हाँ, इसी चन्द्रगुप्त-जो अपने को विक्रमादित्य कहता है, और जिसका दरबार कभी-कभी उज्जयिनी में भी लगा करता है-का वंश चक्रवर्ती बना; तो उसने यौधेयों का उच्छेद कर दिया। यौधेय सबल चक्रवर्ती को कुछ भेट दे दिया करते थे, किन्तु गुप्त राजा इससे राजी नहीं हुआ। उसने कहा.-हम यहाँ अपना उपरिक (गवर्नर) नियुक्त करेंगे, यहाँ हमारे कुमारामात्य (कमिश्नर) रहेंगे; जिस तरह हम अपने सारे राज्य का शासन करते हैं, वैसा ही यहाँ भी करेंगे। हमारे गणनायकों ने बहुत समझाया, कि यौधेय अनादि काल से गण छोड़ दूसरे प्रकार के शासन को जानते नहीं हैं। किन्तु राजमत्त वह इसे क्यों मानने लगा ? आखिर यौधेयों ने अपनी इष्ट गणदेवी के सामने शपथ ले तलवार उठाई। उन्होंने बहुत बार गुप्तों की सेना को मार भगाया और यदि वह चौगुनी पँचगुनी तक ही रहती तो वह उनके सामने न टिकती। किन्तु लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) से मरुभूमि तक फैले उसके महान् राज्य की सारी सेना के मुकाबिले में यौधेय कहाँ तक अपने को बचा पाते । यौधेय जीतते-जीतते हार गये, जन-हानि इतनी अधिक हुई ! गुप्तों ने हमारे नगर, गाँव सभी बर्बाद कर दिये, नर-नारियों का भीषण संहार किया। हमारे लोग तीस साल तक लड़ते रहे वह अधिक कर देने के लिए तैयार थे, किन्तु चाहते थे कि उनके देश की गण-शासन-प्रणाली अक्षुण्ण रहे।"
"कैसा रहा होगा वह गण-शासन दादा ?"
"उसमें हर एक यौधेय सिर ऊँचा करके चलता था, किसी के सामने दीनता दिखलाना वह जानता न था। युद्ध उनके लिए खेल था, इसीलिए उसके वंश का नाम यौधेय पड़ा था।"
"तो हमारी तरह और भी यौधेय होंगे न दादा ?"
"होंगे बच्चा ! किन्तु, वह तो सूखे पत्तों की भाँति हवा में बिखेर दिये गये हैं और हमारी तरह किसी नागर वंश में मिलकर आत्म-विस्मृत बन जाने वाले हैं ?"
"हम अपने को ब्राह्मण क्यों कहते हैं, दादा ?"
"यह और पुरानी कहानी है बच्चा ! पहले सब जगह राजा नहीं, गण ही का राज्य था । उस वक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय का फर्क नहीं था !"
"ब्राह्म-क्षत्र एक ही वर्ण था, दादा ?"
"हाँ, जब जरूरत होती तो आदमी पूजा-पाठ करता, जब जरूरत होती खड्ग उठाता । किन्तु, पीछे विश्वामित्र, वशिष्ठ ने आकर वर्ण बाँटना शुरू किया।"
"तभी तो एक पिता के दो पुत्रों में कोई रन्तिदेव की भाँति क्षत्रिय, कोई गौरिवीति की भाँति ब्राह्मण ऋषि होने लगा।"
"ऐसा लिखा है, बच्चा ?"
"हाँ दादा ! वेद और इतिहास में ऐसा मिलता है कि संकृति ऋषि के ये दोनों पुत्र थे। यही नहीं, और भी कितनी ही विचित्रताएँ इन पुराने ग्रन्थों में मिलती हैं, जिन्हें आजकल के लोग विश्वास नहीं करेंगे, चर्मण्वती (चम्बल) के किनारे दशपुर को देखा है, दादा ?"
"हाँ, बच्चा ! कई बार। अवन्ती (मालवा) में ही तो है। मैं कितनी ही बार बारात गया हूँ। वहाँ नागरों के बहुत से घर हैं, जिनमें कितने ही भारी व्यापारी सार्थवाह हैं।"
"यही दशपुर रन्तिदेव की राजधानी थी। और चर्मण्वती नाम क्यों पड़ा, यह तो और अचरज की बात है।"
"क्या बच्चा ?"
"ब्राह्मण संकृति के पुत्र, किन्तु स्वतः क्षत्रिय राजा रन्तिदेव अपनी अतिथि-सेवा के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं, वह सतयुग के सोलह महान् राजाओं में हैं। रन्तिदेव के भोजनालय में प्रतिदिन दो हजार गायें मारी जाती थीं। उनका गीला चमड़ा, रसोई में रखा जाता था, उसी का टपका हुआ जल जो बहा, वही एक नदी बन गया। चर्म से निकलने के कारण उसका नाम चर्मण्वती पड़ा।"
"क्या सच ही यह पुराने ग्रन्थों में लिखा है. बच्चा ?"
"हाँ, दादा ! महाभारत१ में साफ लिखा है।"
(१. "राज्ञो महान् से पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज !
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा।"
“समांसं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः।
अतुला कीर्तिरभन्नृवपस्य द्विजसत्तम !”-वनपर्व, २०८ ८-१०
"महानदी चर्मराशेरुक्लेदात् संसृजे यतः।
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी ।" - शान्तिपर्व, २६-१२३)
"महाभारत में, पाँचवें वेद में ? गोमांस-भक्षण !"
"रन्तिदेव के यहाँ अतिथियों के खाने के लिए इस गोमांस के पकाने वाले दो हजार रसोइये थे दादा ! और जिस पर भी ब्राह्मण अतिथि इतने बढ़ जाते कि रसोइयों को मांस की कमी के कारण सूप ज्यादा ग्रहण करने की प्रार्थना करनी पड़ती थी।"
"ब्राह्मण गोमांस खाते थे, क्या कहते हो, बच्चा ?"
"महाभारत२ , पाँचवाँ वेद झूठ कह सकता है, दादा ?"
(२. "सांकृति रन्तिदेवं च मृतं सञ्जय ! शुश्रुम।
आसन् द्विशत्साहस्रा तस्य सूदा महात्मनः ।।
गृहानभ्यागतान् विप्रान् अतिथीन् परिवेषकाः ।'-द्रोणपर्व, ६७ ॥१-२
“तत्र स्म सूदाः क्रोशान्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः ।।
सूपं भूयिष्टमश्नीध्वं नाद्य मांसं यथा पुरा।" द्रोणपर्व, ६६ ॥१५-१६
"सूपं भूमिष्टमश्नीध्वं नाद्य भोज्यं यथा पुरा ।।'-शान्तिपर्व, २७-२८)
"क्या दुनियाँ इतनी उलट-पलट गई है?"
"उलटी-पुलटी जाती है, दादा ! तो भी अपने को पक्का ब्राह्मण कहने वाले यह दिवान्ध सबकी आँखें मुँदवाना चाहते हैं। मुझे विश्वास हो गया कि हमारे पूर्वज यौधेय लोग ब्राह्मणों के छलछंद फैलने से पहले के रीति-रिवाज, धर्म-कर्म पर चलते थे।"
"हाँ, और वह ब्राह्मणों को कभी अपने से ऊँचा नहीं मानते थे।"
"यहाँ आकर दादा ! तुमने अपने लड़कों-भतीजों की शादी आवन्तक (मालवीय) ब्राह्मणों को छोड़ नागरों में क्यों की ?”
"दो कारण थे: एक तो ये ब्राह्मण हमारे कुल के बारे में संदेह कर रहे थे, किन्तु उससे कुछ नहीं होता, चाहते तो हम खास ब्राह्मण कन्याओं से ब्याह कर लेते । हमने नागरों से ब्याह-शादी इसीलिए करनी शुरू की, कि वह भी हमारी भाँति ज्यादा गौर होते हैं, और हमारी ही भाँति ब्राह्मणों के न मानने पर भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं।"
"नागर कौन हैं, दादा ?"
"ब्राह्मण, सिर्फ ब्राह्मण कहने से तो नहीं मानते, वह तो पूछते हैं कहाँ के ब्राह्मण, कौन गोत्र ! ये हमारे सम्बन्धी लोग नगरों में बसते थे, इसलिए इन्होंने अपने को नागर ब्राह्मणप कहना शुरू किया, जैसे कि हम अपने को यौधेय ब्राह्मण कहते हैं।"
"लेकिन वह वस्तुतः हैं कौन, दादा ?"
"समुद, तीर के यवन हैं, बच्चा। उनमें बहुत से ब्राह्मण नहीं, बौद्ध धर्म को मानते हैं। उज्जयिनी में जाने पर मालूम होगा। अभी तो ऐसे भी बहुत से हैं, जो अपने को साफ यवन कहते हैं। ब्राह्मण इन्हें क्षत्रिय मानने के लिए बहुत कह रहे हैं।"
"तो वर्ण और जातियाँ इस मानने-मनवाने पर चल रही हैं, दादा ?"
"देखने में तो ऐसा ही आ रहा हे, बच्चा !"
3.
मैं अब बीस साल का बलिष्ठ सुन्दर तरुण था और अपने गाँव में पढ़ना समाप्त कर उज्जयिनी के बड़े-बड़े विद्वानों का विद्यार्थी था। मेरी माँ के ननिहाल के लोग उज्जयिनी के धनाढय नागरों में से थे, और उन्होंने आग्रह करके मुझे अपने पास रखा था। मेरे जैसे गाँव के विद्यार्थी के लिए उज्जयिनी विस्तृत संसार को देखने के लिए गवाक्षसी थी। कालिदास का नाम और उनकी कुछ कविताओं को मैं पहले पढ़ चुका था, किन्तु यहाँ कुछ दिन उस महान् कवि के पास पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कवि का चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में बहुत मान था, इसलिए वह बहुत समय उज्जयिनी से अनुपस्थित रहते थे। मुझे अपने कविगुरु का अभिमान था; किन्तु कालिदास के राजा के सम्बन्ध की दास-मनोवृत्ति बहुत बुरी लगती थी। उस समय कवि "कुमारसम्भव" लिख रहे थे, मुझे उन्होंने बतलाया था, कि विक्रमादित्य के पुत्र कुमारगुप्त को ही मैं यहाँ शंकरपुत्र कुमार कार्तिकेय के नाम से अमरता प्रदान करना चाहता हूँ। मेरे निस्संकोच कटाक्ष से उसके कड़वा होते भी कवि नाराज न होते थे। मैंने एक दिन कहा-
"आचार्य ! आपकी काव्य-प्रतिभा का राज्य अनन्त काल के लिए है, और चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त का राज्य सिर्फ उनके जीवन भर के लिए, फिर अपने को क्यों राजाओं के सामने इतना अकिंचन बनाते हैं ?”
"विक्रमादित्य वस्तुतः धर्म का संस्थापक है, सुपर्ण ! उसने देखो, हूणों से भारतभूमि को मुक्त किया।"
"किन्तु, उत्तरापथ (पंजाब) और कश्मीर में अब भी हूण हैं, आचार्य !”
"बहुत भाग से उन्हें निकाला।"
"राजा इस तरह एक-दूसरे को निकाला ही करते हैं, और दूसरे की जगह अपने राज्य को स्थापित करते हैं।"
"किन्तु, गुप्त-वंश गो-ब्राह्मण-रक्षक है।"
"आचार्य ! मूढ़ों को भरमाने वाली ऐसी बातों के सुनने की आशा मैं आपसे नहीं रखता। आप जानते हैं, हमारे पूर्वज ऋषि गोरक्षा करते थे, किन्तु गोभक्षण के लिए 'मेघदूत३'में आप ही ने चर्मण्वती (चम्बल) को गाय मारने से उत्पन्न रन्तिदेव की कीर्ति लिखा है।"
"तुम धृष्ट हो सुपर्ण ! मेरे प्रिय शिष्य !"
(३. "व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानविष्यन् ।
स्त्रोतोमूत्र्या भूविपरिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम् ।"-मेघदूत १४५)
"यह मैं सुनने के लिए तैयार हैं, लेकिन मैं यह सहने के लिए तैयार नहीं हूँ कि मेरा अनन्त काल का चक्रवर्ती इन धर्मध्वंसक गुप्त राजाओं के सामने घुटने टेके ।"
"तुम उनको धर्मध्वंसक कहते हो सुपर्ण ?"
"हाँ, जरूर। नन्दों, मौर्यो, यवनों, शकों और हूणों ने भी जो पाप नहीं किया, वह इन गुप्तों ने किया। भारतमही से इन्होंने गण-राज्यों का नाम मिटा दिया।"
"गण-राज्य इस युग के अनुकूल न थे सुपर्ण ! यदि समुद्रगुप्त ने इन गुणों को कायम रखा होता, तो उन्होंने हूणों तथा दूसरे शत्रुओं को परास्त करने में सफलता न पाई होती।"
"सफलता अपना राज्य स्थापित करने की, दूसरे चन्द्रगुप्त मौर्य बनने की ! लेकिन चाणक्य की अप्रतिम बुद्धि की सहायता से स्थापित और व्यवस्थापित मौर्य साम्राज्य भी बहुत दिनों नहीं चला। विक्रमादित्य और कुमारगुप्त के वंशज भी यावच्चन्द्र दिवाकर शासन नहीं करेंगे; फिर इन्होंने प्रजा के शासन के चिन्हों तक को जो मिटा दिया, यह किस धर्म-काम के लिए ? क्या अनादि काल से चले आते गणों में प्रजा-शासन का उच्छेद करना महान् अधर्म नहीं है ?"
"लेकिन, राजा विष्णु का अंश है।"
"कुमारगुप्त भी अपने साथ मोर का चित्र खिंचवाएगा, और कल को कोई कवि उसे कुमार का अवतार कहेगा। यह धोखा, यह पाखंड किसलिए ? गंधशालि का भात और मधुर मांस-सूप के लिए, राष्ट्र की सारी सुन्दरियों को रनिवास में भरने के लिए, कृषि और शिल्प के काम में मरने वाली प्रजा की गाढ़ी कमाई को मौज करने में करने पानी की तरह बहाने के लिए ! और इसके लिए आप गुप्तों को धर्म-संस्थापक राजा कहते हैं। विष्णु ? हाँ, गुप्त वैष्णव कहलाने का बड़ा ढोंग रच रहे हैं. ब्राह्मण उन्हें विष्णु का अंश बना रहे हैं, उनके सिक्के पर लक्ष्मी की मूर्ति अंकित की जा रही है। विष्णु की मूर्तियों और देवालयों पर प्रजा को भूखा मारकर, लूट कर खूब रुपये खर्च किये जा रहे हैं, इस आशा पर कि गुप्त-वंश का राज्य प्रलय-काल तक कायम रहे।"
"लेकिन, क्या कह रहे हो सुपर्ण! तुम राजा के विरुद्ध इतनी कड़ी बात कह रहे हो।"
"अभी आचार्य ! सिर्फ तुम्हारे सामने कह रहा हूँ, फिर किसी समय परमभट्टारक महाराजाधिराज कुमारगुप्त के सामने भी कहूँगा। मेरे लिए इस ढोंग को जीते जी बर्दाश्त करना मुश्किल है। किन्तु, वह आगे और शायद दूर की बात है, मैं तो चाहता हूँ कि आप भी अश्वघोष के चरणों पर चलते ।"
"किन्तु प्रिय ! मैं सिर्फ कवि हूँ, अश्वघोष महापुरुष और कवि दोनों थे। उनके लिए संसार के भोग कोई मूल्य न रखते थे, मेरे लिए विक्रमादित्य के रनिवास जैसी सुन्दरियाँ चाहिए, जदम्बरवर्ण (लाल) द्राक्षी सुरा चाहिए, प्रासाद और परिचारक चाहिए। मैं कैसे अश्वघोष बन सकता हूँ ? मैंने 'रघुवंश' के बहाने गुप्तों के रघुवंशित्व की प्रशंसा की जिससे प्रसन्न हो विक्रमादित्य ने यह प्रासाद दिया, कांचनमाला जैसी यवन-सुन्दरी प्रदान की, जो पन्द्रह साल से मेरे पास रहने पर भी अपने पिंगल-केशों में मुझे बाँधे फिरती है। मैंने यह 'कुमारसम्भव' की नींव रखी है, देख यह भी क्या मेरे पास लाता है।"
"मैं नहीं समझता आचार्य ! यदि आप 'बुद्धचरित’ और ‘सौंदरानन्द' ही लिखते, तो भूखों मरते, या भोग से सर्वधा वंचित होते, पर आपको भ्रम है, कि बिना राजाओं की चापलूसी के आपका जीवन बिल्कुल नीरस होता। आपने आने वाले कवियों के लिए बुरा उदाहरण रखा, सभी कालिदास के अनुकरण के नाम पर अपने दोषों को छिपायेंगे।"
"मैं उस तरह के भी काव्य लिखूँगा।"
"किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं लिखेंगे जिसमें गुप्तों के पापघट पर प्रहार होगा !"
"वह हमसे नहीं होगा, सुपर्ण ! हम इतने सुकुमार हो गये हैं।"
"और राजाओं के हर पाप के लिए धर्म की दोहाई भी देंगे ?"
"उसकी तो जरूरत है, बिना उसके राजशक्ति दृढ़ नहीं हो सकती। वशिष्ठ, और विश्वामित्र ने भी ऐसा करना जरूरी समझा।"
"वशिष्ठ और विश्वामित्र भी कवि कालिदास ही की भाँति प्रासाद और सुन्दरी के लिए यह सब पाप करने पर उतारू थे।"
"सुपर्ण ! पुस्तक की विद्या के अतिरिक्त सुना है, तुम युद्ध-विद्या भी सीख रहे हो। यदि तुम्हारी सम्मति हो, तो परमभट्टारक से कहूँ, तुम्हें कुमारामात्य या सेनानायक के पद पर देखकर मुझे बहुत खुशी होगी, महाराज भी पसन्द करेंगे।"
"मैं किसी को अपना शरीर न बेचूँगा, आचार्य !"
"अच्छा राज-पुरोहितों में स्थाने कैसा रहेगा ?"
"ब्राह्मणों के स्वार्थीपन से मुझे बहुत चिढ़ है।"
"तो क्या करोगे ?”
"अभी विद्या और पढ़ने को है।"
4.
उज्जयिनी में रहते मैंने अपनी विद्या की पिपासा को तृप्त करने का ही मौका नहीं पाया, बल्कि जैसा कि मैंने कहा, मुझे विस्तृत संसार को जानने का भी मौका मिला। वहाँ मैंने नजदीक से देखा, किस तरह ब्राह्मणों ने अपने को राजाओं के हाथों में पूर्णतया बेच डाला है। कोई समय था, जबकि दूसरों के न स्वीकार करने पर भी मुझे ब्राह्मण होने का भारी अभिमान था, गाँव छोड़ने से पहले ही यह अभिमान जाता रहा था। गाँव से नगर में आने पर मैंने असली यवनों को देखा, जोकि भरुकच्छ (भड़ोच) से अक्सर उज्जयिनी आते थे, और वहाँ उनकी कितनी ही बड़ी-बड़ी पण्यशालाएँ थी; मैं कितने ही शक-आभीर परिवारों में गया, जिनके पूर्वज शताब्दी ही पहले उज्जयिनी, लाट (गुजरात) और सौराष्ट्र (काठियावाड़) के शासक महाक्षत्रप थे। मैंने पक्के नारंग-स्पर्धा गाले, रोमहीन मुख, गोल-गोल आँखों वाले हूणों को भी देखा । युद्ध में वह निपुण हो सकते थे, किन्तु वैसे उन्हें प्रतिभा का धनी नहीं पाया। इस तरह के पुरुषों के देखने के सबके अच्छे स्थान बौद्धों के विहार (मठ) थे, जो एक से अधिक संख्या में उज्जयिनी के बाहर मौजूद थे। मेरे मातुल-कुल के लोग बौद्ध थे, और कितने ही नागर भिक्षु भी इन मठों में रहते थे, इसलिए मुझे अक्सर वहाँ जाना पड़ता था।
पुस्तक की पढ़ाई समाप्त कर मैंने देशाटन द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहा, उसी वक्त मुझे पता लगा कि विदर्म में अचिन्त्य (अजन्ता) विहार नाम का एक बहुत प्रसिद्ध विहार है, जहाँ संसार के सभी देशों के बौद्ध भिक्षु रहते हैं। मैं वहाँ गया।
अब तक मैं जहाँ गया था पास में काफी संबल, तथा सहायक साथियों के साथ गया था, अब की बार यह पहला समय था कि मैं निस्सहाय निस्संबल निकला था। रास्ते में चोरों का डर न था, गुप्तों के इस प्रबंध की प्रशंसा करनी होगी। किन्तु क्या गुप्त-शासन ने देश के प्रत्येक परिवार को इतनी समृद्ध कर दिया है, जिससे कि बटमारी-राजनी उठ गई ? नहीं, गुप्त राजाओं ने कर उगाहने में अपने पहले के सारे शासकों को मात कर दिया, राज-प्रासादों के बनाने पर कभी इतना धन नहीं खर्च किया गया होगा और उनके सजाने में तो और भी हद की गई। पहाड़ों, नदियों, पुष्करिणियों, समुद्रों को सशरीर उठाकर उन्होंने अपने रम्य प्रासादों के पास रखने के कोशिश की। उनके क्रीड़ा-वन वस्तुतः वन से मालूम होते हैं- जिनमें पिंजड़ों में हिंस-पशु रहते, और बाहर मृग गवय घूमते । क्रीड़ा-पर्वत में स्वाभाविक शैल-पार्वत्य, वन, जल-प्रपात बनाये जाते । सरोवरों को पतली नहरों से मिला सेतु और नावें दिखलाई जातीं। प्रासाद के भीतर के सामान में हाथी, सोना, रूपा, नाना रत्न, चीनाशुक (रेशमी वस्त्र), महार्घ कालीन आदि प्रचुर परिमाण में होते। प्रासादों को सजाने में चित्रकार अपनी तूलिका का चमत्कार दिखलाते, मूर्तिकार पाषाण या धातु की सुन्दर मूर्तियों का यथास्थान विन्यास करते। विदेशी यात्रियों और राजदूतों के मुख से इन चित्रों और मूर्तियों की मैंने भूरि-भूरि प्रशंसा सुनी है, जिससे मेरा सिर गर्वोन्नत जरूर हुआ; किन्तु जब मैं क्षुद्र गाँवों के गरीब घरों की अवस्था देखता तो उज्जयिनी के उन प्रासादों पर जल-भुन जाता– मानो, पास के गढ़े-गड़हियाँ जैसे गाँव में उनी दीवारों और टीलों के कारण होती हैं, उसी तरह यह दरिद्रता उन्हीं प्रासादों के कारण है।
नगरों, निगमों (कस्बों) ही नहीं गाँवों में भी चतुर शिल्पी नाना भाँति की वस्तुएँ बनाते-कातने वाली सूक्ष्म तन्तुओं, तन्तुवाय सूक्ष्म वस्त्रों को तैयार करते, स्वर्णकार, लौहकार, चर्मकार कपनी-अपनी वस्तुओं के बनाने में कौशल दिखलाते, राजप्रासादों की कलापूर्ण वस्तुओं के तैयार करने वाले हाथ इन्हीं हाथों के सगे सम्बन्धी हैं, किन्तु जब मैं उनके शरीरों, उनके घरों को देखता हूँ तो पता लगता कि अनके हाथ के निर्मित सारे पदार्थ उनके लिए सिर्फ सपने की माया हैं। वह गाँवों से सिमिट-सिमिट कर नगरों, निगमों के सौधों, प्रासादों या पण्यागारों में चले जाते; फिर वहाँ से भी उनका बहुत-सा भाग पश्चिमी समुद्र के भरुकच्छ आदि तीर्थों से पारस्य (ईरान) या मिस्र का रास्ता लेता या पूर्वी समुद्र के ताम्रलिप्त (तमलुक) से यवद्वीप (जावा). सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) पहुँच जाता। भारत का सामुद्रिक वाणिज्य इतना प्रबल कभी नहीं हुआ, और अपने पण्यों के लिए समुद्र पार की लक्ष्मी कभी भारत में इतनी मात्रा में नहीं आई होगी, किन्तु उससे लाभ किसको ? सबसे अधिक गुप्त राजाओं को, जो हर पण्य पर भारी कर लेते हैं, फिर सामन्तों को, जो बड़े-बड़े राजपदों या जागीरों के स्वामी हैं, और शिल्पियों और बनियों दोनों से लाभ उठाते हैं। सार्थवाहों तथा बनियों का नाम अन्त में आने पर भी वह इस लूट के छोटे हिस्सेदार नहीं हैं। इस सबके देखने से मुझे साफ हो गया कि गाँव के कृषक और शिल्पी क्यों इतने गरीब हैं, और मार्गों और राजपथों को सुरक्षित रखने के लिए गुप्त राजा क्यों इतने तत्पर मालूम होते हैं।
गाँवों में दरिद्रता है, किन्तु, एक दिल दहलाने वाला दृश्य वहाँ कम दिखलाई पड़ता। वहाँ, पशुओं की भाँति बिकने वाले दास-दासियों का हाट न लगता, न उनके नंगे शरीरों पर कोड़े पड़ने के दृश्य दिखलाई देते। मेरे गुरु कालिदास ने एक प्रसंग में कहा था, दास-दासी पुरुविले कर्म से होते हैं। जिस दिन मैंने उनके मुँह से यह बात सुनी, उसी दिन पुरुविले जन्म से मेरा विश्वास उठ गया। गुप्तों ने जिस तरह धर्म को सैकड़ों तरह से अपनी सत्ता दृढ़ करने के लिए इस्तेमाल करने में उतावलापन दिखलाया, उससे इस समय यह ख्याल हर समझदार के मन में आना स्वाभाविक था। किन्तु जब मैं साधारण प्रजा को देखता तो वह इस तरफ से बिल्कुल उदास थी। क्यों ? शायद वह अपने को बेबस पाती थी। ग्रामवासी सिर्फ अपने गाँव भर की दुनिया की खोज-खबर लेते थे, गाँव की अंगुल भर भूमि के लिए वह उसे तरह लड़ सकते थे, जिस तरह कि शायद कुमारगुप्त भी अपनी किसी भुक्ति (प्रान्त, सूस) के लिए न लड़ता। किन्तु देखें, गाँव की सीमा के बाहर कुछ भी होता हो, उसकी उन्हें पर्वाह नहीं। मुझे एक गाँव की घटना याद है, एस गाँव में चालीस के करीब घर थे, सभी फूस की छतों वाले । गर्मी में चूल्हे से एक घर में आग लग गई। सारे गाँव के लोग पानी ले-लेकर उस घर की ओर दौड़ गये, किन्तु, एक घर के दम्पति घड़ों में पानी भर अपने घर के पास बैठे रहे। सौभाग्य से उस गाँव में ऐसा घर एक ही था। नहीं तो गाँव का एक घर भी भी न बचता। इस वक्त मुझे यौधेयी का गण याद आया, जहाँ एक राष्ट्र के सभी घर अपने सारे राष्ट्र के लिए मरने-जीने को तैयार थे। वैसे तो समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त की दिग्विजयों के लिए भी लाखों ने प्राण दिये, किन्तु दासों की भाँति दूसरे के लाभ के लिए, स्वतंत्र मानव की भाँति अपने और अपनों के हित के लिए नहीं। मेरा रोआँ काँप उठता, जबकि प्रजा पर सिर्फ एक सौ वर्ष के इस गुप्त शासन के प्रभाव को ख्याल करता। मैं सोचता यदि ऐसा शासन शताब्दियों तक चलता रहा, तो यह देश सिर्फ दासों का देश रह जायेगा, जो सिर्फ अपने राजाओं के लिए लड़ना-मरना भर जानेंगे, उनके मन से यह ख्याल ही दूर हो जायेगा, कि मानव के भी कुछ अधिकार हैं।
अचिन्त्य विहार बड़ा ही रमणीय विहार था। एक हरितवसना पर्वत-स्थली को एक अर्धचन्द्राकार प्रवाह वाली नदी काट रही थी, इसी क्षुद्र किन्तु, सदानीरा सरिता के बायें तट पर अवस्थित शैल को काट कर शिल्पियों ने कितने ही गुहामय सुन्दर प्रतिमागेह, निवास-स्थान तथा सदा-भवन बनाये हैं। इन गुहाओं को भी प्रासादों की भाँति चित्रों, मूर्तियों से सजाया गया है, यद्यति वह कई पीढ़ियों में और शायद सैकड़ों पीढ़ियों के लिए। अचिन्त्य विहार के भित्ति-चित्र सुन्दर हैं, पाषाण-शिल्प सुन्दर हैं; किन्तु वह गुप्त राजप्रासादों का मुकाबिला नहीं कर सकते, इसलिए वह मेरे लिए उतने आकर्षक नहीं थे। हाँ, मेरे लिए आकर्षक थी यहाँ की भिक्षु-मंडली, जिनमें देशान्तरों के व्यक्ति बड़े प्रेमाभाव से एक साथ एक परिवार की तरह रहते। वहाँ मैंने सुदूर चीन के भिक्षु को देखा, पारसीक और यवन भिक्षुओं को देखा, सिंहल, यव, सुवर्ण, द्वीप वाले भी वहाँ मौजूद थे; चम्पा द्वीप, कम्बोज-द्वीप के नाम और सजीव मूर्तियाँ वहीं सुनने और देखने में आई। कपिशा, उद्यान, तुषार, कूचा के सर्वपिंगल पुरुष भिक्षुओं के कषाय को पहने वहीं मिले।
मुझे बाहर के देशों के बारे में जानने की बड़ी लालसा थी, और यदि यह विदेशी भिक्षु एक-एक करके मिले होते, तो मैं उनके पास एक-एक साल बिता देता, किन्तु यहाँ इकट्ठे इतनी संख्या में मिल जाने के कारण दरिद्र की निधि की भाँति मैं आपको सँभालने में असमर्थ समझने लगा।
दिङ्नाग का नाम मैंने अपने गुरु के मुख से सुना था। कालिदास गुप्तराज, राजतंत्र तथा उसके परम-सहायक ब्राह्मण धर्म के जबरदस्त समर्थक थे; और किसी अभिप्राय से यह मैं पहले बतला चुका हूँ। वह दिङ्नाग को इस काम में जबरदस्त बाधक समझते थे। वह कहते थे, इस द्रविड़ नास्तिक के सामने विष्णु क्या, तैंतीस कोटि देवताओं का सिंहासन हिलता है। धर्म के नाम पर राजा और ब्राह्मणों के स्वार्थ के लिए हम जो कुछ कूट मंत्रणा कर रहे हैं, उसका रहस्य इससे छिपा नहीं है। मुश्किल यह थी, कि उसे बूढ़ा वसुबन्धु जैसा गुरु मिल गया था। वसुबन्धु को कालिदास ज्ञान-वारिधि कहते थे। भदन्त वसुबन्धु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय की राजधानी अयोध्या में दरबारी के तौर पर नहीं, बल्कि स्वतंत्र सम्मनित गुरु के तौर पर कई साल रहे, और पीछे गुप्तों की नीच भावना से निराश हो अपनी जन्म-भूमि पुरुषपुर (पेशावर) चले गये। दिङ्नाग ने लोहे के तीर या खड्ग को नहीं, बल्कि उससे भी तीक्ष्ण ज्ञान और तर्क के शस्त्र को वितरण करने का व्रत लिया है। उनसे आधा घण्टा बात कर लेने ही में ब्राह्मणों का सारा मायाजाल काई की भाँति बँट जाता है। मैं छैः मास अचिन्त्य विहार में रहा, और प्रतिदिन दिङ्नाग के मुख से चारों ओर प्रकाश के फैलाने वाले उनके उपदेशों को सुनता था, मुझे इस बात का अभिमान है, कि मुझे दिङ्नाग जैसा गुरु मिला। उनका ज्ञान अत्यन्त गम्भीर है, उनके वचन आग के दहकते अंगारों की भाँति थे। मेरी ही भाँति वह संसार के पाखंड, माया-जाल को देख क्रोधोन्मत्त हो जाते। एक दिन वह कह रहे थे-
"सुपर्ण ! प्रजा के ही बल पर हम कुछ कर सकते थे, किन्तु प्रजा दूर तक बहक चुकी है। तथागत (बुद्ध) ने जाति-वर्ण के भेद को उठा डालने के लिए भारी प्रयास किया था। उसमें कुछ अंश में उन्हें सफलता भी हुई। देश के बाहर से यवन, शक, गुर्जर, आभीर, जो लोग आये, उन्हें ब्राह्मण म्लेच्छ कहकर घृणा करते थे; किन्तु तथागत के संघ ने उन्हें मानवता के समान अधिकार को प्रदान किया। कुछ सदियों तक जान पड़ा कि भारत से सारे भेद-भाव मिट जायेंगे, किन्तु भारत के दुर्भाग्य से इसी वक्त ब्राह्मणों के हाथ में गुप्त राजसत्ता आ गई। गुप्त स्वयं जब पहले आये थे, तो ब्राह्मण उन्हें म्लेच्छ कहते थे, किन्तु कालिदास ने उनके गौरव को बढ़ाने के लिए ‘रघुवंश’ और कुमारसंभव' लिखा है। गुप्त अपने राजवंश को प्रलय तक कायम रखने की चिन्ता में पागल हैं, ब्राह्मण उन्हें इसका विश्वास दिला रहे हैं। हमारे भदन्त वसुबन्धु ऐसा विश्वास नहीं दिला सकते थे, वह खुद लिच्छिवियों के गणतंत्र के आधार पर निर्मित भिक्षु संघ के सच्चे अनुयायी थे। बौद्धों को ब्राह्मण जबरदस्त प्रतिद्वन्दी समझते हैं, वह जानते हैं कि सारे देशों के बौद्ध गोमांस खाते है, जिसे वह नहीं छोड़ेंगे, इसलिए इन्होंने भारत में धर्म के नाम पर गोमांस वर्जन-गो-ब्राह्मण-रक्षा का प्रचार शुरू किया है। बौद्ध जाति वर्ण-भेद को उठाना चाहते हैं। ब्राह्मणों ने अब वर्ण-बहिष्कृत यवन, शक आदि को ऊँचे-ऊँचे वर्ण देने शुरू किये हैं। यह जबरदस्त फन्दा है, जिसमें कितने ही बौद्ध गृहस्थ भी फँसते जा रहे हैं। यह फूट से प्रजा की शक्ति को छिन्न-भिन्न कर वह राजशक्ति और ब्राह्मण-शक्ति को दृढ़ करना चाहते हैं, किन्तु इसका परिणाम घातक होगा, सुपर्ण । देश के लिए, क्योंकि दासों की शक्ति के बल पर कोई राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता।"
मैंने अपने यौधेयों के आत्मोत्सर्ग की कहानी कही, तो आचार्य का हृदय पिघल गया। जब मैंने यौधेयगण के पुनरुज्जीवन की अपनी लालसा को उनके सामने प्रकट किया, तो उन्होंने कहा-"मेरी सदिच्छा और आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। उद्योगी पुरुष सिंह को विध्न-बाधाओं से नहीं डरना चाहिए।
उनके आशीर्वाद को लेकर मैं जा रहा हूँ यौधेयों की भूमि की ओर, चाहे तो उस मृत भूमि का फिर से उत्थान करूँगा, या रेत के पद-चिह्न की भाँति मिट जाऊँगा।