सुनसान-बियाबाँ : गुरबचन सिंह भुल्लर
Sunsaan-Biyabaan : Gurbachan Singh Bhullar
बड़ी मुश्किल से उसकी आँख लगी थी। कहर बरपाती गर्मी, जैसे वह किसी भट्ठी के पास लेटा हो। आँख लगे पता नहीं कितनी देर हुई थी। उसे लगा जैसे ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक उसकी नींद में किसी ने कुछ चुभो दिया हो। किसी बच्चे के रोने की आवाज थी-दूर, काफी दूर। यह सपना था कि जैसे कहीं दूर कोई बच्चा सचमुच रो रहा था। उसने करवट ली और पैरों के पास पड़ी सफेद चादर में पिंडली फँसाकर फिर सो गया। वह सोने की कोशिश जरूर कर रहा था, लेकिन नींद आ नहीं रही थी और यदि आ जाती तो शायद वह एकदम गहरी नींद में सो जाता।
कुछ देर बाद उसे लगा जैसे रोता हुआ बच्चा उसके एकदम नजदीक आ गया हो और अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उसकी बाजू को झिंझोड़ रहा हो।
"ऊँ हूँ..." उसने उनींदी हालत में कहा। लेकिन रोता हुआ बच्चा उसकी बाजू को जोर-जोर से झिंझोड़ने लगा था। उसने आँखें खोली।
"बस, घोड़े बेचकर सो जाते हैं, बेशक कुछ भी हो जाए..." उसकी पत्नी कह रही थी। उसने चौंक कर पूरी आँखें खोल दी और उठकर बैठ गया। उसकी बाँह को उसकी पत्नी झिंझोड़ रही थी और गोदी में उठाया हुआ ज्योति रो रहा था।
"क्या हुआ?" वह परेशान होकर उठ गया।
"ज्योति कितनी देर से रोता जा रहा है।" वह रुआँसी खड़ी थी। उसने अपने माथे पर हाथ फेरा। पसीने की बूंदें चू रही थीं।
“गर्मी बहुत है।" उसने जैसे ज्योति के रोने का कारण बताया,
"हम लोग जलने लगते हैं, इस बेचारे फूल का क्या हाल होता होगा...लाओ मुझे दे दो..."
उसने ज्योति को कंधे से लगाकर पंखा झुलाया। लेकिन वह उसी तरह टाँगें हिला रहा था, वह उसी प्रकार चीखें मार रहा था।
"इसे पानी पिला दो," उसने अपने सूख रहे होठों पर जीभ फेर कर अपनी पत्नी से कहा।
"कितनी बार मुँह लगा चुकी हूँ।" पत्नी ने सुराही से लेकर कटोरी में पानी डाल कर पकड़ाया। उसने कटोरी ज्योति के मुँह के पास की। ज्योति ने
गुस्से से कटोरी पर जोर से हाथ दे मारा और उसके बालों को पकड़कर खींच लिया। उसने अपने बाल छुड़ाकर ज्योति को उसकी माँ की ओर बढ़ाया,
"लो पकड़ो इसे, कंधे से लगाकर इसको झूला झुला दे, मैं हवा करता हूँ...लगता है इसके सिर या पेट-कहीं पर दर्द हो रहा है..."
वह उस रोते बच्चे को कंधे से लगा, “अरे मेरा बच्चा. मेरा राजा बेटा" की लोरी गा रही थी और वह पंखी से हवा कर रहा था, लेकिन ज्योति था कि चुप होने का नाम नहीं ले रहा था।
चारों ओर खामोशी व्याप्त थी। गरमी को कोसते हुए आखिर सभी लोग सो गए थे। बस सड़कों की बत्तियाँ जग रही थीं या कहीं-कहीं गलियों में घूमते चौकीदार की सड़क पर पड़ती लाठी की ठक-ठक सुनाई दे रही थी या कहीं-कहीं दूर किसी बड़ी सड़क से गुजरते किसी ट्रक या मोटर की धीमी आवाज सुनाई दे रही थी।
उन्होंने चारों ओर की छतों पर निगाह दौड़ाई। चन्द्रमा की पीली चाँदनी में सभी लोग लंबी तानकर सो रहे थे।
कुछ पल ऊँ हूँ करने के बाद ज्योति ने एकदम से चीख भारी, जैसे उसका पैर किसी गर्म चीज पर आ टिका हो। उसका ध्यान फिर से ज्योति की ओर चला गया। चारों तरफ लोग सोए हुए थे और ज्योति चीखें मार रहा था। कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। आस-पास से कोई भी कुछ पूछ नहीं रहा था। कोई कुछ भी नहीं सुझा रहा था।
अपने गाँव से यहाँ लाखों की आबादी वाले इस बड़े शहर में नौकरी करते हुए उसे तीन महीने हो गए थे। इन तीन महीनों में उसने सभी पर अच्छा प्रभाव डाला था। उसके अंदर एक एहसास यह भी था कि वह कोई ऐसी बात न करे जिससे मुहल्ले वाले कहने लगें, "गँवई जो है।" सारा मूहल्ला शहरियों का ही था। इतवार के अलावा बाकी छः दिन वह सुबह-सवेरे दफ्तर जाता और शाम को सरकारी बसों में धक्के खाते घर लौटता। इतवार या किसी और छुट्टी वाले दिन, जब वह दिन के समय भी घर में होता तब गली से आते-जाते पड़ोसियों के साथ रस्मी बातचीत होती, "कहिए चावला साहब, क्या हाल है? क्यों भई बाबा, सेहत कैसी है? माता जी, क्या गुड्डी स्कूल जाने लगी है..." आदि।
अभी सभी लोग गहरी नींद में सो रहे थे और उसका बच्चा रो रहा था। अचानक उसे लगा, जैसे अभी सब्जी मंडी का मुनीम रूलदू राम अपनी चारपाई पर बैठा होगा और उनकी ओर मुँह कह कर के कहेगा, “क्या मुसीबत है। अभी-अभी तो आँख लगी थी और सुबह तीन बजे उठकर काम पर जाना है। किसी दूसरे का भी तो ख्याल करो..." या दमे का मरीज लद्धा सिंह खाँसेगा और कहेगा, "बड़ी मुश्किल से नींद आई थी। इस बच्चे ने परेशान कर दिया है। मुझे अब इतने जोर से खाँसी लगेगी कि मेरी रगें भी उल्टी हो जायेंगी। ओए खुद लंबी तानकर सो रहे हो, बच्चे को तो चुप करवाओ..." या हर मंगलवार अपने घर में कीर्तन करवाने वाली बुढ़िया रामरखी बोलेगी, "हमने चौदह बच्चे पैदा किए और पाल-पोस कर जवान किए। आजकल एक-दो ही जनमती हैं और उन्हें भी सँभालने की अक्ल नहीं है।"
उसे पसीना आ गया। यदि लोग सचमुच उठ गए और अपने-अपने बिस्तरों पर बैठे ही उसे गालियाँ देने लगे तो?
"ज्योति को नीचे ले चल, पंखे के नीचे कमरे में..." उसने सहमी हुई आवाज में अपनी पत्नी से कहा, "लाओ, इसे मुझे पकड़ा दो। तुम चलकर ताला खोलो।"
उसके मन आया कि वह ज्योति के मुँह पर हाथ रख दे। वह इकठे ही दो-दो सीढ़ियाँ लाँघता नीचे जा पहुँचा। ज्योति जैसे रो-रो कर थक गया था।
आँगन में चारपाइयों पर बाकी तीन परिवारों के लोग खिचड़ी जैसे बिखरे हुए थे। कमरों में पंखों के नीचे सोने वाले जोड़ों के अलावा बूढ़े-बढ़ियाँ, बच्चे, अनब्याहे लड़के-लड़कियाँ दो-दो, तीन-तीन इकट्ठे ही चारपाइयों पर सो रहे थे। किसी की चोटी नीचे लटक रही थी, किसी की बाँह। किसी का मुँह खुला हुआ था और कोई गर्मी में भी चादर ताने सो रहा था।
पत्नी के द्वारा दरवाजे के पल्ले खोलते समय चूं-धूं की आवाज के समय उसने आँगन में सोए पड़े लोगों की ओर देखा और कमरे में जाकर पंखे का स्विच दबा दिया। "दरवाजा बंद कर दो, बाहर शोर न जाए। लोग ऐसे ही जाग जाएंगे। इसके मुँह में कोई चूर्ण चटा दे, कोई हाजमे की खराबी न हो गई हो।"
उसकी पत्नी ने अँगुली के पोटे पर चूर्ण लगाया और ज्योति के तालू से चटा दिया। थके हुए ज्योति ने एक चीख मारी, जैसे कह रहा हो-नीम हकीमो, तकलीफ मुझे कुछ है, दवाई मुझे कोई और दे रहे हो।
"उल्टा-सीधा तो कुछ खाया ही नहीं, पता नहीं इसे क्या हो गया है?" उसकी पत्नी ने घबराए हुए कहा।
“इसे चौथाई हिस्सा एनासीन चम्मच में घोलकर दे दे, क्या पता सिर दुख रहा हो या दाँत-दाढ़ के साथ कोई मसूड़ा दुख रहा हो।" ।
"गर्मी पहले ही बहुत है। एनासीन तो मुई सयानों का भी गला सुखा देती है। साथ ही इसने पहले कभी भी कड़वी दवाई नहीं ली।" उसकी पत्नी ने बेबसी से जवाब दिया।
"नहीं, नहीं, चौथाई हिस्से से कुछ नहीं होगा। मुँह में उड़ेलकर ऊपर से शहद चटा दे।"
पति-पत्नी हर संभव यत्न कर रहे थे, लेकिन ज्योति शांत नहीं हो रहा था। कभी वह हिचकी भरता, कभी आहें, कभी वह रोने लगता तो कभी लार छोड़ने लगता। बंद कमरा और दोनों हैरान-परेशान। लेकिन लगातार रोता हुआ ज्योति चुप होने का नाम नहीं ले रहा था।
“आखिर कहाँ तकलीफ हो रही है इसे?" उसकी पत्नी ने डरते हुए पूछा, “इस पर कोई 'छाया तो नहीं पड़ गई।"
"पानी पिला दिया। चूर्ण दिया। एनासीन दी। क्या मालूम, इसे क्या तकलीफ है?" उसने भी सहम कर जवाब दिया।
बंद कमरे में वे दोनों हैरान-परेशान हो रहे थे। कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। कमरे के अंदर तो दूर से गुजरते ट्रकों की आवाज़ या चौकीदार की लाठी की ठक-ठक भी सुनाई नहीं देती थी। आहिस्ता-आहिस्ता कराहते ज्योति ने फिर जोर से चीख मार अपनी माँ के बाल हथेली में कस लिए और उसकी कमर में टाँगें मारने लगा।
"ओह हो, तू..." वह झुंझला कर बाल छुड़ाती हुई बोली, "घर में कोई सयानी बुढ़िया हो तो..." वह जैसे रुआंसी हो आई।
सयानी बुढ़िया के नाम पर उसे अपनी माँ की याद आ गई। वह बेचारी तो उसके होने वाले बच्चों की इच्छा दिल में ही लेकर चली गई थी। फिर अचानक उसे ताई शामो की याद आ गई, दादी रतनी याद आई, मौसी मराजो, ताई लहरो....
एक बार उसका छोटा भाई इसी प्रकार आधी रात के समय रोने लगा था। एक पल, दो पल...चार पल । चारों ओर से फिक्रमंद आवाजें आने लगी थीं।
"बहू, इसे कंधे से लगाकर थपथपा दे," दादी रतनी बोली।
"मैं इसे कंधे से लगाकर ही घूम रही हूँ, अम्मा जी," उसकी माँ ने बच्चे को जोर-जोर से हो-हो...करते हुए बताया।
"ऐसे ही कभी-कभी बच्चे तंग करने लगते हैं, अपना स्तन दे दो मुँह में," ताई लहरो ने कहा था।
"दाँत मार रहा है", उसकी माँ दूध पिलाने का यत्न कर चुकी थी।
"कोई छोटा-मोटा दुख होगा बच्चे को," मौसी मराजो ने कहा।
"ओ बेटी, इसके चित्तड़े पर जलन हो रही होगी। राख की चुटकी पीठ पर मल दे। इसे चैन आ जायेगा।" ताई शामो ने सुझाया था।
"लो राख दे देती हूँ, बेबे जी," उसकी माँ ने जवाब दिया।
"ठहरो, मैं अभी आती हूँ," ताई शामो की छत उनकी छत से ही लगी हुई थी। उसने रोते हुए बच्चे को अपने कंधों पर उल्टा डाल उसकी पीठ पर राख की चुटकी मल दी। "यह जलन बहुत तंग करती है। बच्चा परेशान हुआ पड़ा है।"
फिर स्वयं ही लड़के को कंधे से लगाकर हिलोरें देती लोरी गाने लगीं थीं। लड़का रोते-रोते चुप होने लगा था।
"बस, वही बात होगी, लड़का शांत हो गया," ताई लहरो ने ताई शामो के सयानेपन की दाद दी।
“लड़के को ही क्यूँ, मुझे भी बचपन में वहाँ जलन हुआ करती थी।" दादी रतनी ने अपना किस्सा छेड़ा।
"लो अम्मा की बात सुनो," मौसी मराजो ने कहा, "अम्मा जी, यदि अभी भी वहाँ जलन होती है तो बता दो, राख अभी ले आती हैं। सभी हँस पड़ी थीं। ताई शामो ने मौसी मराजो को घूर कर डाँटा।
"बस करो बेशर्म। सभी सो रहे हैं। आदमी भी जागते होंगे, बोलते हुए शर्म नहीं आती।"
"मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही बेबे," मौसी मराजो ने भोलेपन से कहा, "बड़े-बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते हैं।"
सभी हँसते-हँसते सोने चल दी थीं। उसका भाई तो कब का चुप हो, सो गया था...
लेकिन ज्योति चुप नहीं हो रहा था। उसने कहा, “उठ, पाउडर वाला डिब्बा लाकर दे।"
"क्यों?" उसकी पत्नी ने शीशे के पास पड़ा पाउडर वाला डिब्बा उठा लिया। "राख तो है नहीं। इसकी पीठ पर जलन न हो रही हो. पाउडर लगा देते हैं।"
और कुछ ही पलों में ज्योति शांत हो गया। उसकी पत्नी ने उसे पलंग पर डाल लिया और थपकने लगी।
“आपको अचानक यह बात कैसे सूझी?" उसने ज्योति की ओर देख खुश होकर पूछा।
"ताई शामो राख लगाती थी।" उसने बताया।
"हम तो अभी स्वयं ही अनाड़ी हैं। सयानी बूढ़ी औरत घर में होनी चाहिए, यदि माँ जी होते..." उसकी पत्नी ने ज्योति को सीने से लगा थपकते हुए कहा।
उसे अपनी माँ की याद आने लगी, फिर ताई शामो, दादी रतनी, मौसी मराजो, ताई लहरो...
कहीं से कोई भी आवाज़ नहीं आ रही थी। ज्योति शांत हो कर सो गया था। शायद उसकी पत्नी की भी आँख लग गई थी या उसने वैसे ही अपनी आँखें बंद कर ली थीं।
कहीं से कोई भी आवाज नहीं आ रही थी। दरवाजा बंद होने के कारण सड़क से गुजरती मोटरों की ध्वनि और चौकीदार की सड़क पर पड़ती लाठी की ठक-ठक भी सुनाई नहीं दे रही थी।
कहीं से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। माँ, ताई, दादी, मौसी, पता नहीं सब की सब कहाँ चली गई थीं...
"हम तो अभी स्वयं ही अनाड़ी हैं।"
वह छोटा सा है-मुश्किल से तीन-चार वर्ष का होगा। एकदम नग्न। नीचे तगड़ी। चारों ओर सुनसान-बियाबाँ। आधी रात । उसे वहाँ लाकर अकेले किसने छोड़ दिया है? वह इधर-उधर नज़र दौड़ाता है, लेकिन वहाँ पर कोई भी नहीं है। दूर तक कोई नहीं है। शा...शा करती रात बीतती जा रही है। उसका मन डोल रहा है, दिल करता है, भाग कर माँ के सीने से जा लगे, ताई की गोदी में चढ़ जाए, दादी की बगल में दुबक जाए, मौसी की टाँग से लिपट जाए। वह बावरा सा घूम रहा है। बिल्कुल अकेला। डर से उसकी जान ही निकलने लगी है। वर्षों का खोल उतार कर छोटे बच्चे जैसा रह गया उसका अंतर्मन चीख उठा। लेकिन उसकी चीख होठों से बाहर नहीं निकल सकी। वह उम्र के वर्षों की ठंडी दीवारों से टकराती हुई और रास्ता भूलती हुई आँखों में से दो मूक बूंदें बनकर गिर जाती है।