Sumer (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan
सुमेर (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन
20. सुमेर
काल : १९४२ई०
1.
अगस्त (१९४१) का महीना था। अबकी वर्षा बहुत जोर से हो रही थी, और कितनी ही बार कितने ही दिनों तक सूर्य का दर्शन नहीं होता था। पटना में गंगा बहुत बढ़ गई थी और हर वक्त बाँध तोड़कर उसके शहर के भीतर आने का डर बना रहता था। ऐसे समय बाँध को चौकसी की भारी जरूरत होती है, और पटना के तरुणों ने-जिनमें छात्रों की संख्या अधिक थी-बाँध की रखवाली का जिम्मा अपने ऊपर लिया था। सुमेर पटना कॉलेज के एम० ए०, प्रथम वर्ष का छात्र था। उसकी ड्यूटी दीघाघाट के पास थी। आज आधी रात को मालूम हुआ, कि गंगा बढ़ती जा रही है। सबेरे भी उसका बढ़ना रुका नहीं था, और बाँध की बारी एक बीते से भी कम पानी से ऊपर थी। लोगों में भारी आतंक छाया हुआ था, और हजारों आदमी जहाँ-तहाँ कुदाल-टोकरी लिए खड़े थे, यद्यपि इसमें सन्देह था कि ईंट के बाँध को वह एक अंगुल भी ऊँचा कर सकते । सुमेर भी सवेरे ही से बहुत चिन्तित हो बाँध पर टहल रहा था। दोपहर को पानी धीरे-धीरे उतरने लगा, चिन्ता के मारे दबे जाते सुमेर के दिल को कुछ सान्त्वना मिली। अपने पास वाले हिस्से में सुमेर ने एक और सौम्य मूर्ति को बाँध की रखवाली करते कितनी ही बार देखा था, और कभी-कभी उसे इच्छा भी हुई थी कि उससे बात करे, किन्तु बाढ़ की चिन्ता ने इधर इतना परेशान कर रखा था कि उसे बात छेड़ने की हिम्मत न हुई। आज जब बाढ़ उतरने लगी और आकाश में बादल भी फटने लगे, सुमेर को अपने पड़ोसी प्रहरी को सामने देख बात करने की इच्छा हो आई।
दोनों में एक का रंग गेहुँआ दूसरे का काला था, किन्तु कद एक-सा ही मँझोला। उम्र में जहाँ सुमेर इक्कीस साल का छरहरा जवान था, वहीं दूसरा चालीस साल का ढीला-ढाला कुछ स्थूल शरीर का आदमी मालूम होता था। सुमेर के शरीर पर खाकी हाफपैंट, उलटे कालर की खाकी हाफशर्ट, कन्धे पर बरसाती, पैर में रबर की काली गुर्गाबी थी। उसके साथी के बदन पर खद्दर की सफेद धोती, वैसा ही कुर्ता, गाँधी टोपी और एक कम्बल था, पैर नंगा था। सुमेर और आगे बढ़ गया, और मुँह पर हँसी की रेखा लाकर बोला-"शुक्र है, आज बाढ़ उतर रही है।"
"और बादल भी फट रहा है।"
"हाँ, हम लोग कितने चिन्तित थे। मैंने एक बार पढ़ा था कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब पाटलिपुत्र (पटना) बसाया जा रहा था, तो गौतम बुद्ध ने और तरह से इसे समृद्ध नगर होने की बात करते हुए पाटलिपुत्र के तीन शत्रु बतलाये थे-आग, पानी और आपस की फूट।"
"तो आप इतिहास के विद्यार्थी हैं?"
"विद्यार्थी तो मैं राजनीति का हूँ, किन्तु इतिहास में भी शौक है, खासकर मूल के अनुवादों के पढ़ने का।"
"हाँ, पानी शत्रु को तो हम आज कई दिन से देख ही रहे हैं।"
"और आग का भय उस वक्त रहा होगा, जब कि पाटलिपुत्र के मकान अधिकतर लकड़ी के बनते रहे होंगे। शाल के जंगलों की अधिकता के वक्त यह होना ही था।"
"और फूट ने तो सारे भारत की लक्ष्मी को बर्बाद कर दिया। अच्छा, मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?"
"मेरा नाम सुमेर है, मैं पटना कॉलेज के पंचम वर्ष का विद्यार्थी हूँ।"
"और मेरा नाम रामबालक ओझा है। मैं भी एक वक्त पटना कॉलेज का विद्यार्थी रह चुका हैं, किन्तु उसे बीस साल से ऊपर हुए। एक मित्र ने जोर दिया, नहीं तो मैं एम० ए० किये बिना ही असहयोग कर रहा था। खैर ! वैसा होने पर भी मुझे अफसोस न होता। मुझे इन वर्षों में साफ मालूम होने लगा है कि यह स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई अनर्थकारी विद्या है।"
"तो आपने वह विद्या भुला दी होगी ?"
"करीब-करीब बिल्कुल भूल जाती, मैं कोरी सलेट हो जाता, तो कितना अच्छा होता। उस वक्त मैं सच्चाई को अच्छी तरह पकड़ पाता।"
"अर्थात् बुद्धि के नहीं, बल्कि श्रद्धा के पथ पर आँख मूँदकर आरूढ़ होते ?"
"श्रद्धा के पथ को आप बुरा समझते हैं, सुमेर बाबू ?"
"मैं बाबू नहीं हूँ, ओझा जी ! मैं एक साधारण चमार को लड़का हूँ। मेरे घर में एक धूर भर भी जमीन नहीं है; थी, किन्तु जमींदार ने जबरदस्ती दखल कर वहाँ अपना बगीचा बनवा लिया। माँ कूट-पीसकर अब भी पेट पालती है। मुझे पहले एक सज्जन की कृपा, फिर स्कालरशिप यहाँ तक लाई। इस तरह आप समझ सकते हैं कि मैं बाबू शब्द का मुश्तहक नहीं हूँ।"
"आदतवश समझिए, सुमेर जी ! लेकिन मुझे आपका जो परिचय अभी मिला है, उससे मुझे बड़ी खुशी हुई है। जानते हैं गाँधीजी के एक शिष्य को, हरिजन-तरुण को इस प्रकार संग्राम करते देख कितना आनन्द होता होगा।"
"ओझा जी ! मैं आपसे और बातें करना चाहता हूँ और स्नेह के साथ। इसलिए यदि आप मेरे मतभेद को पहले ही से जाने लें, तो मैं समझता हूँ, अच्छा होगा। मैं हरिजन नाम से सख्त घृणा करता हूँ। मैं 'हरिजन' पत्र को पुराणपन्थी भारत को अन्धकार युग की ओर खींचने वाला - पत्र समझता हूँ, और गाँधीजी को अपनी जाति का जबरदस्त दुश्मन ।"
"आप अपनी जाति पर गाँधीजी का कोई उपकार नहीं मानते ?"
"उतना ही उपकार मानता हूँ; जितना मजदूर को मिल-मालिक का मानना चाहिए।"
"गाँधी जी मालिक बनने के लिए नहीं कहते ।"
"जमींदारों, पूँजीपतियों, राजाओं को वली-संरक्षक-गार्जियन-कहने का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है ? गाँधी जी का हमारे साथ प्रेम इसीलिए है कि हम हिन्दुओं में से निकल न जायें। पूना में आमरण अनशन इसीलिए किया था कि हम हिन्दुओं से अलग अपनी सत्ता न कायम कर लें। हिन्दुओं को हजार वर्षों से सस्ते दासों की जरूरत थी, और हमारी जाति ने उसकी पूर्ति की। पहले हमें दास ही कहा जाता था, अब गाँधीजी 'हरिजन' कहकर हमारा उद्धार करने की बात करते हैं। शायद हिन्दुओं के बाद हरि ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन रहा है। आप खुद समझ सकते हैं, ऐसे हरि का जन बनना हम कब पसन्द करेंगे ?"
"तो आप भगवान् को भी नहीं मानते ?"
"किस उपकार पर ? हजारों वर्षों से हमारी जाति पशु से भी बदतर, अछूत, अपमानित समझी जा रही है, और उसी भगवान् के नाम पर जो हिन्दुओं की बड़ी जातियों की जरा-जरा-सी बात पर अवतार लेता रहा, रथ हाँकता रहा; किन्तु सैकड़ों पीढ़ियों से हमारी स्त्रियों की इज्जत बिगाड़ी जाती रही। हम बाजारों में, सोनपुर के मेले में पशुओं की तरह बिकते रहे; आज भी गाली-मार खाना, भूखे मरना ही हमारे लिए भगवान् की दया बतलाई जाती है। इतना होने पर भी जिस भगवान् के कान पर हूँ तक नहीं रेंगी, उसे माने हमारी बला ।"
"तो आप डॉक्टर अम्बेदकर के रास्ते को पसन्द करते होंगे ?"
"गलत। डाक्टर अम्बेदकर भुक्तभोगी हैं। मुझे भी प्रथम-द्वितीय वर्ष में हिन्दू लड़कों ने होस्टल में नहीं रहने दिया, किन्तु मैं अम्बेदकर के रास्ते और काँग्रेसी अछूत-नेताओं के रास्ते में कोई अन्तर नहीं देखता। और मेरी समझ में वह रास्ता गाँधी-बिड़ला-बजाज रास्ते से भी मिल जाता है। उसका अर्थ है, अछूतों में से भी कुछ पाँच-पाँच, छै-छै हजार महीना पाने वाले बन जायें। अछूतों में भी बिड़ला-बजाज नहीं तो हजारीमल ही बन जायें। अछूतों के पास यदि एक-दो देशी रियासतें नहीं, तो एक-दो छोटी-मोटी जमींदारियाँ ही आ जायँ। मगर इससे दस करोड़ अछूतों की दयनीय दशा दूर नहीं की जा सकती।"
"तो आपका मतलब है, शोषण बन्द होना चाहिए ?"
"हाँ, गरीबों की कमाई पर मोटे होने वालों का भारत में नामो-निशान यदि न रहे, तभी हमारी समस्या हल हो सकती है।"
"गाँधीजी इसीलिए तो हाथ के कपड़े, हाथ के गुड़, हाथ के चावल-सभी हाथ की चीजों के इस्तेमाल करने पर जोर देते हैं।"
"हाँ, बिड़ले और बजाजों के रुपये के बल पर ! जब खादी संघ को लाख, दो लाख का घाटा होता, तो कोई सेठ उठकर चेक काट देता है। यदि यकीन होता है, कि गाँधी के चर्खे-कर्षे से उनकी मिलें बन्द हो जायेंगी और मोती के हार और रेशम की साड़ियाँ सपना हो जायेंगी, तो याद रखिये ओझा जी ! कोई सेठ-सेठानी गाँधीजी की आरती उतारने न आते।"
"तो आप गाँधीवादियों को दलाल समझते हैं ?"
"मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। जो कुछ कोर-कसर थी, उसे उन्होंने 'घर-फेंक' नीति के विरुद्ध हिन्दुस्तानी सेठों के हुआँ- हुआँ में शामिल हो पूरा कर दिया।"
"तो आप चाहते हैं, जहाँ जापानी पैर रखने वाले हों, वहाँ के कल-कारखानों को जलाकर खाक कर दिया जाय ? भारतीयों ने कितने संकट, कितने श्रम के साथ ये कारखाने कायम किये । जरा आप इस पर भी विचार कीजिए, सुमेर जी!"
"मैंने संकट और श्रम पर विचार किया है, और इस पर भी कि गाँधीवादी मशीनों के अस्तित्व को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं करने की बात करते रहे हैं। साथ ही यह भी जानता हूँ-सेठ लोग चाहते हैं कि हमारे कारखाने सुरक्षित ही जापानियों के हाथों में चले जायँ। जापानी पूँजीवाद के जबरदस्त समर्थक हैं। जापानी रेडियो को सुनकर सेठों को विश्वास है, कि जापानी शासन में कारखाने के मालिक वहीं रहेंगे। यह छोड़ बतलाइए. उनके दिल में और कौन-से उच्च आदर्श के निमित्त त्यागभाव छलछला आया है?"
"देश की अर्जित सम्पत्ति की वह रक्षा करना चाहते हैं।"
"ओझा जी ! मत जले पर नमक छिड़किए। सेठों को देश की सम्पत्ति को नहीं अपनी सम्पत्ति का ख्याल है। उनके लिए देश जाये चूल्हा-भाड़ में। वह चाहते हैं, ज्यादा से ज्यादा नफा कमाना। मजदूरों की चार पैसा मजदूरी बढ़ाने की जगह जो लोग हड़तालियों को मोटर से कुचलवा देते हैं, उनके लिए देश की सम्पत्ति के अर्जन-रक्षण की बात न कीजिए।"
"यदि उनके बारे में यह मान भी लिया जाये, तो गाँधीजी की ईमानदारी पर तो आपको संदेह नहीं होना चाहिए।"
"मैं ईमान को आदमी के काम से, उसके वचन से तौलता हूँ। मैं गाँधीजी को दूध पीने वाला बच्चा नहीं मानता। इंड्रूज के फंड के लिए उन्हें पाँच लाख की जरूरत थी। पाँच ही दिन में बम्बई के सेठों ने गाँधी जी के चरणों में सात लाख अर्पित कर दिये। सेठों का जितना बड़ा काम वह कर रहे हैं, उनके लिए इंग्लैंड-अमेरिका के सेठ सात करोड़ की थैली पेश कर सकते थे, यह तो अत्यन्त सस्ता सौदा रहा।"
"इनका मतलब है रिश्वत।"
"सेट भगवान् को भी कुछ चढ़ाते हैं, तो सिर्फ उसी ख्याल से। उनके द्वार पर 'लाभ शुभ’ लिखा रहता है।"
"तो चर्खे-कर्षे को आप शोषण का शत्रु नहीं मानते ?"
"उलटा मैं उन्हें शोषण का जबरदस्त पोषक मानता हूँ।"
"तब तो मिल को भी आप शोषण का शत्रु समझते होंगे।"
"सुनिए भी तो, मैं क्यों शोषक मानता हूँ। दुनिया जिस तरह पत्थर के हथियारों को छोड़कर बहुत आगे चली आई है, उसी तरह चर्खे-कर्षे से भी बहुत आगे चली आई है। मैंने पटना म्युजियम में हजार वर्ष पुरानी तालपत्र पर लिखी पुस्तकें देखी हैं। उस वक्त सेठों के बही-खाते, तथा नालंदा के विद्यार्थियों की पुस्तकें और नोटबुकें इसी तालपत्र पर लिखी जाती थीं। गाँधीजी सात जन्म तक कहते रह जायें, लौट चलो तालपत्र के युग में, मगर दुनिया टीटागढ़ के कागज, मोनो-टाइप, रोटरी छापेखाने के युग से लौटकर तालपत्र के युग में नहीं जायेगी। न जाने में ही उसका कल्याण है, क्योंकि इससे सेवाग्राम की भजनावली के फैलने में भले ही दिक्कत न हो, किन्तु हर एक व्यक्ति को शिक्षित-सो भी आज तक के अर्जित ज्ञान-विज्ञान में देखना असम्भव होगा। फ़ासिस्ट लुटेरों के टैंकों, हवाई जहाजों, पनडुब्बियों, गैसों के मुकाबले में यदि गाँधीजी पत्थर के हथियारों की ओर लौटने की कोई बात करें, तो इसे रत्ती भर अकल रखने वाली जाति भी नहीं मान सकेगी, क्योंकि वह सीधी आत्महत्या होगी।"
"तो आप अहिंसा के महान् सिद्धान्त को भी नहीं मानते ?"
"गाँधी जी की अहिंसा, खुदा बचाये उससे । जो अहिंसा किसानों और मजदूरों पर काँग्रेसी सरकारों द्वारा चलाई जाती गोलियों का समर्थन करे और फासिस्ट लुटेरों के सामने निहत्था बन जाने के लिए कहे, उसे समझना हमारे लिए असम्भव । मैं आपके पहले प्रश्न को खतम कर देता हूँ। सेठ जानते हैं कि चर्खे-कर्षे से उनके कारखानों का बाल बाँका नहीं हो सकता-चर्खे-कर्षे जब तक मिलों के माल से सस्ते और अच्छे कपड़े बाजार में नहीं ला सकते, तब तक उनका अस्तित्व सेठों के दान पर निर्भर है। चर्खा-कर्घावाद शोषण की असली दवा साम्यवाद के रास्ते में भारी बाधक हैं। कितने ही लोग बेवकूफी से समझते हैं, कि शोषण रोकने के लिए साम्यवाद कल-कारखानों पर जनता के अधिकार-से अच्छी दवा चर्खा-कर्घावाद है। इसी नीयत से दुनिया को मिल का कपड़ा पहनाने वाले सेठ चर्खा के भक्त हैं और गाँधीजी इसे भली-भाँति समझते हैं।"
"यह उनकी नीयत पर हमला है ?"
"उनकी एक-एक हरकत मुझे शोषितों-और भारत में सबसे अधिक शोषित हमारी जाति के लिए खतरनाक है। हमें दिमागी गुलामी के अड्डे, शोषकों के जबरदस्त पोषक पुरोहितों की दुकानों-इन मन्दिरों में ताला लगवाना चाहिए और उलटे हमें फँसाने के लिए गाँधीजी उन्हें खुलवाना चाहते हैं। पुरानी पोथियों, अमीरों के टुकड़ों से पलने वाले संतों की वाणियों को यदि हम आग में नहीं जलाते, तो सात ताले में तो बन्द कर देना चाहिए; किन्तु उन्हीं की दुहाई देकर गाँधीजी हमें गुमराह कर देना चाहते हैं। वर्ण-व्यवस्था जैसी मरण-व्यवस्था का भारत में नाम नहीं रहने देना चाहिए, किन्तु गाँधीजी उसकी अनासक्ति योग से लच्छेदार व्याख्या करते हैं । इन सबके बाद हरिजन-उद्धार सिर्फ ढोंग नहीं तो क्या है ? इससे कुछ ऊँची जाति के हरिजन-उद्धारकों को जीविका भले ही मिल जाये, मगर उद्धार की आशा अन्धा ही कर सकता है।"
"तो आप नहीं चाहते कि अछूत सवर्ण सब एक हो जायँ ?"
"काल ने हमें एक कर दिया है; किन्तु गाँधी जी के प्रिय धर्म, भगवान्, पुराण-पंथिता उसे हमें समझने नहीं देती। मुझे देखिये, ओझा जी ! मेरा रंग गेंहुँआ, नाक ज्यादा पतली, ऊँची और आपका रंग काला, नाक बिलकुल चिपटी। इसका क्या अर्थ है ? मेरे में आर्य रक्त अधिक है। आप में मेरे पूर्वजों का रक्त अधिक है। आपके पूर्वजों ने वर्ण-व्यवस्था की लोहे की दीवार खड़ी कर बहुत चाहा, कि रक्त- सम्मिश्रण न होने पाये, किन्तु चाह नहीं पूरी हुई, इसके सबूत हम आप मौजूद हैं। वोल्गा और गंगा तट के खून आपस में मिश्रित हो गये हैं। आज वर्ण (रंग) को लेकर झगड़ा नहीं है-आपको कोई ब्राह्मण जाति से खारिज करने के लिए तैयार नहीं है। सारी बातें ठीक हो जायें, यदि धर्म, भगवान, पुराणपंथिता हमारा पिंड छोड़ दे; और यह तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि शोषक और गाँधीजी जैसे उनके पोषक मौजूद हैं !"
"मैं आपके तीखे शब्दों को सुनकर नाराज नहीं होता।"
"जला हुआ दिल और जवानी उसके पीछे है, ओझा जी ! इसलिए मेरी बात से कष्ट हुआ हो तो क्षमा कीजियेगा।"
"नहीं, मैं बुरा नहीं मानता। किन्तु यदि चखें -कर्षे जैसी भारत की चीज को आप फिर से स्थापित होना सम्भव नहीं समझते तो क्या विदेशी साम्यवाद के लिए भारत की भूमि को उर्वर समझते हैं ?"
"शोषकों को जो बात पसन्द नहीं, वहीं विदेशी और असम्भव है। चूँकि इनकी कृपा से करोड़पति हो गये, इसलिए सेठ लोगों के लिए चीनी की मिलें, विदेशी जहाज, मोटर, काँच, फाउन्टेनपेन, जूते ...... की बिजली या भाप से चलने वाली लाखों-करोड़ों की फैक्टरियाँ विदेशी नहीं रही। रेडियो, टेलीविजन (दूरदर्शक रेडियो), फिल्म, टैंक आदि जैसे ही सेठों के पाकेट में मजदूरों की कमाई के करोड़ों रुपये चुपके से डालने लगेंगे.. वैसे ही उनकी विदेशीयता जाती रहेगी। शोषण में सहायक सारे विदेशी यंत्र उनके लिए स्वदेशी हैं, किन्तु शोषक-ध्वंशक उपाय-साम्यवाद-सदा विदेशी बर रहेगा। ईमानदारी इसे कहते हैं, ओझाजी !"
"साम्यवाद धर्म का विरोधी है, और भारत सदा से धर्मप्राण रहा है, जरा इस दिक्कत का भी ख्याल करें, सुमेर जी !"
"आप कॉलेज की सारी पढ़ी-पढ़ाई विद्या को भूल गया कहते हैं इसलिए मैं क्या कहूँ ? जब धर्म का नाम आप लोग लेते हैं, तो आपके सामने सिर्फ हिन्दू धर्म रहता है। गाँधीजी ने बजाजजी के गोसेवा-मंडलों को भी आशीर्वाद दिया है, जिसमें माँस छोड़ सब चीज गाय की ही खाने की प्रतिज्ञा कराई जाती है–पेशाब और पाखाने की भी। यदि गोभक्षक, अगोभक्षक का भेद करें, तो भारत में, गोभक्षक आधे से बढ़ जायेंगे। हमारी जाति भी गोभक्षक है, आप जानते हैं। वैसे भी तो भारत में एक चौथाई के करीब लोग मुसलमान हैं। करोड़ के करीब ईसाई, और कुछ लाख बौद्ध । यदि इन धर्मों को भी आप धर्म में शुमार करते हैं; तो पृथ्वी का कौन देश है जहाँ धर्म के पक्के विश्वासी नहीं हैं ? गाँधीजी के मित्र भूतपूर्व लार्ड इर्विन तथा आज के लाड हैलीफेक्स एक जबरदस्त ईसाई संत हैं। आज तक धर्म की दुहाई देकर ही धर्मप्राण अँग्रेजों को साम्यवाद से दूर रहने के लिए यह संत लोग प्रचार करते रहे। अरब, तुर्की, ईरान, अफगानिस्तान के मुसलमान हिन्दी मुसलमानों से कम धर्मप्राण नहीं हैं। लाखों सुन्दरियों के स्वेच्छा से कटवाये केशों के रस्से से जहाँ मन्दिर बनाने के लिए लकड़ियाँ ढोई गईं उस जापान को आप कम धर्मप्राण नहीं कह सकते। सभी शोषक जबरदस्त धर्मप्राण होते हैं, ओझा जी ! और सभी शोषण-शत्रु धर्म-शत्रु घोषित किये जाते हैं। यदि साम्यवाद को विदेशी ही मान लें, तो भी ईसाई, इस्लाम जैसे विदेशी धर्म, रेल, तार, हवाई-जहाज, कल-कारखाने जैसी विदेशी चीजें हमारी आँखों के सामने स्वदेशी बनकर मौजूद हैं, वैसे ही साम्यवाद भी स्वदेशी हो जायेगा-बल्कि हो गया है।"
2.
पटना में शाम के वक्त घूमने के लिए लान और हार्डिग- पार्क दो ही जगह हैं, और दोनों ही को ऐसी मनहूस हालत में रखा गया है, कि वह स्वयं किसी को खींच लाने का सामर्थ्य नहीं रखते, तो भी जिनकी दिल बहलाव, चहलकदमी, दोस्तों से मिलने की ख्वाहिश होती है, वे इन्हीं जगहों में पहुँचते हैं। अँधेरा हो रहा था, तो भी तीन तरुणों की बात खतम् नहीं हो रही थी और वे बाँकीपुर (पटना) के लान-मैदान–में डटे हुए थे।
एक कह रहा था-
"साथी सुमेर ! मैं फिर भी कहूँगा-तुम एक बार फिर सोचो, तुम बहुत भारी कदम उठाने जा रहे हो।"
"मौत से खेलने से बढ़कर कदम उठाने की क्या बात हो सकती है? और रूप ! इसे तो पक्का समझो, कि मैंने जल्दी नहीं की है। कदम ही यह जल्दी का नहीं हो सकता था।"
"हवा में उड़ना भाई । मुझे तो कोठे की छत के किनारे खड़ा होने में भी डर लगता है।
"कितने ही लोगों को साइकिल पर चढ़ने में भी डर लगता है, और तुम उसे दोनों हाथ छोड़कर दौड़ाते हो ।"
"खैर, लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि मजदूरिन के लड़के सुमेर को इस साम्राज्यवादी लड़ाई में जान देने की क्या सूझी?"
"इसलिए कि इसी लड़ाई के साथ मजदूरिन के लड़के और उसकी सारी जमात का भविष्य बँधा हुआ है। इसीलिए कि यह लड़ाई अब सिर्फ साम्राज्यों का ही फैसला नहीं करेगी बल्कि शोषण का भी फैसला करेगी।"
"तो क्या तुम इसे कबूल नहीं करते, कि इस लड़ाई के लिए सबसे बड़े दोषी अँग्रेज पूँजीपति हैं ?"
"बाल्डविन्, चेम्बरलेन किनके स्वार्थ के प्रतिनिधि थे ? हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ। उन्होंने ही मुसोलिनी, हिटलर को पोसकर बड़ा किया, जिसमें साम्यवादियों से शोषक वर्ग को त्राण मिले। लेकिन भस्मासुर ने पहले बैजनाथ ही पर हाथ साफ करना चाहा, और जब तक यह तमाशा होता रहा, तब तक मैंने भी इस बड़े कदम को उठाने का निश्चय नहीं किया। लेकिन आज भस्मासुर बैजनाथ पर नहीं हमारे ऊपर हाथ रखना चाहता है।"
"हमारे ऊपर ! मुझे तो कोई अन्तर नहीं मालूम होता, पहले से।"
"आपको अन्तर नहीं मालूम होता क्योंकि आपका वर्ग-सेठ-वर्ग फासिस्ट शासन में भी घी-चुपड़ी की आशा रखता है। क्रुप मित्सुई की पांचों घी में हैं इस लड़ाई के होने से; किन्तु, सोवियत के पराचित होने पर शोषितों-मजदूरों, किसानों-को कोई आशा नहीं। कसाई हिटलर और तोजो के राज्य में किसान कोश्त की लड़ाई नहीं लड़ सकते, रूपकिशोर बाबू ! न ही मजदूर बड़े-से-बड़े अत्याचार के लिए हड़ताल कर सकते हैं। फासिज्म मजदूर-किसानों को पक्के मानी में दास बनाना चाहता है। हमारे लिए सोवियत बहुत से राष्ट्रों में एक नहीं, बल्कि वही एकमात्र राष्ट्र है। उसे ही दुनिया के किसान-मजदूर अपनी आशा, अपना राष्ट्र कह सकते हैं। डेढ़ शताब्दी के लाखों-करोड़ों कुर्बानियों के बाद मानवता के लिए, सनातन शोषितों के लिए यह साम्यवादी प्रदीप पृथ्वी पर आलोकित हुआ। एक बार इस प्रदीप को बुझ जाने दीजिए, फिर देखिए कितने दिनों के लिए दुनिया अँधेरे में चली जाती है। हम जीते जी इस भीषण कांड को अपनी आँखों के सामने होते चुपचाप नहीं देख सकते।"
"लेकिन, सुमेर भाई ! और भी तो समाजवादी देश में हैं; वे भी दुनिया से शोषण को मिटाना चाहते हैं।"
"जिनको सेवाग्राम से फैलता अंधकार ही प्रकाश मालूम होता है; ऐसे समाजवादियों से शैतान बचाये। ऐसे तो हिटलर भी अपने को समाजवादी कहता है। गाँधीजी के चेले भी उन्हें समाजवादी कहते हैं। समाजवादी कहने से कोई समाजवादी नहीं होता। जानते हैं हिटलर, तोजो की विजय से हिन्दुस्तान का पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग बर्बाद नहीं, बल्कि कहीं और मजबूत होगा; किन्तु फासिस्ट दस्यु मजदूरों, किसानों को साँस तक लेने नहीं देंगे, और साम्यवादियों की क्या हालत होगी, इसके लिए, इटली और जर्मनी का हाल का इतिहास देखिये। वही क्यों ? सिर्फ फ्रांस में हर रोज जो कम्युनिस्ट गोली से उड़ाये जा रहे हैं, उन्हीं को देख लीजिये। जो अपने को मार्क्सवादी कहकर अपने को इस युद्ध से अलग रखना चाहता है वह या तो अपने को धोखा दे रहा है या दूसरों को । हिटलर और तोजो के शासन में मार्क्सवादी समाजवादियों की जान की कीमत एक गोली मात्र है, इसे हम सब अच्छी तरह जानते हैं। फिर कोई समाजवादी यदि अपने को तटस्थ कह सकता है, तो चमगादड़ की नीति से ही। सोवियत के ध्वंस के बाद जो समाजवाद का झंडा उड़ाने की हाँक रहे हैं, उन्हें हम तो पागल कह सकते हैं या धोखेबाज ।" "तो आपका ख्याल है, इस युद्ध में कोई तटस्थ रही नहीं सकता ?"
"हाँ यह मेरी पक्की राय है, कि जिसका मस्तिष्क ठीक से काम कर रहा है, उसने अपने लिए एक पक्ष स्वीकार कर लिया है, क्योंकि इस लड़ाई का परिणाम शोषण-विरोधी शक्तियों को या तो खतम करना होगा या उनकी शक्ति को इतना प्रबल कर देगा, कि फिर मुसोलिनी, हिटलर, तोजो या उनके पिताओं-बाल्डविन, चेम्बरलेन, हैलीफैक्सों के लिए दुनिया में जगह नहीं रह जायेगी। हिन्दुस्तान में सुभाषचन्द्र और उनके अनुयायियों ने अपना स्थान चुन लिया है; और जिनको आप तटस्थ समझते हैं, वह भी तय कर चुके हैं। उनकी तटस्थता सिर्फ ऊपरी दिखावा है, क्योंकि फासिस्टों के रवैये से वह नावाकिफ नहीं हैं।"
"लेकिन हमारे यहाँ के अँग्रेज शासकों के मनोभाव को देख रहे हो न ?"
"अन्धे हैं ये लोग, तीस बरस पहले के जमाने में अब भी अपने को रखने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन क्या समझते हो, लड़ाई के बाद की दुनिया इन पुरानी फोसीलों के लिए जीती जा रही है। हम जानते हैं, ये लोग हमारी युद्ध की तैयारी में पग-पग पर बाधा डालेंगे, क्योंकि वह हर एक चीज को गुजरे जमाने की दृष्टि से देखते हैं।"
"हाँ, देख नहीं रहे हो, जिन लोगों की सूरतें अमन-सभाओं में ही शोभा देती थीं, अब वही राष्ट्रीय मोर्चे के नायक बनकर जनता के सामने दहाड़ रहे हैं। हमारे गवर्नर, गवर्नर-जनरल जनता को कुर्बानियाँ करने का उपदेश दे रहे हैं, जबकि उनके अपने खर्चे को देखकर हमारा माथा चकराता है। हमारे यहाँ कम-से-कम मजदूरी है एक आना रोज, जिसके हिसाब से २५) सालाना आमदनी हुई और इनकी तनख्वाह ?-"
वाइसराय २,५०,८०० रुपया अर्थात् घुरहू मजदूर की आमदनी का १०,००० गुना
बंगाल गवर्नर १,२०,००० रुपया घुरहू से ४,८०० गुना
युक्तप्रान्त गवर्नर १,२०,००० रुपया घुरहू से ४,८०० गुना
बिहार गवर्नर १,००,००० रुपया घुरहू से ४,००० गुना
"यह बाकी खर्च छोड़ने पर है, यदि दूसरे खर्च भी लिए जायँ, तो मार्ग-व्यय और छुट्टी-व्यय छोड़कर भी बंगाल-गवर्नर का सालाना खर्च है। ६,०७,२०० रुपया अर्थात् घुरहू मजदूर की आमदनी का ४२,२६१ गुना। इससे जरा मिलाइए इंग्लैंड के मजदूर को जिसकी अल्पतम मजदूरी ८५ शिलिंग (साढ़े ५६ रु० से अधिक) या ७८ शिलिंग (५२ रु० से अधिक) प्रति सप्ताह कोयले के खानों में मंजूर हुई है। खेती के मजदूर भी ४५ रु० सप्ताह से ज्यादा पाते हैं। जिसका अर्थ है २०० या १२१ पौंड वार्षिक मजदूरी और महामंत्री इस हिसाब से सिर्फ ३६ गुना ज्यादा तनख्वाह पाता है। सोवियत में १२,००० रुबल महामंत्री को मिलता है, और मजदूरों की बहुत भारी तादाद है जो इतना वेतन पाती है, जबकि सबसे कम तनख्वाह पाने वाला मजदूर उससे छठे हिस्से से कम नहीं पाता। अब मिलाइए-
भारत में बंगाल गवर्नर घुरहू से ४२,२६२ गुना
इंग्लैंड में महामंत्री घुरहू से ३६ गुना
सोवियत रूस में घुरहू से ६ गुना
"और सेठों की आमदनी से घुरहू की आमदनी को मिलाओगे तो कलेजा फटने लगेगा।"
"यह सरासर लूट है भाई सुमेर ।"
"इसीलिए मैं कहता हूँ, हिन्दुस्तान में नौकरी करने वाले स्वार्थी, कायर, दूर तक देखने में असमर्थ इन अँग्रेजों से हम कोई आशा नहीं कर सकते। हम इनके लिए इस लड़ाई को लड़ने और जीतने नहीं जा रहे हैं। हम मर रहे हैं उस दुनिया के लिए जो इस पृथ्वी के छठे हिस्से पर है। और जिसको फासिस्ट खतम करने जा रहे हैं। हम उस आने वाली दुनिया के लिए मरने जा रहे हैं, जिसमें कि मानवता स्वतन्त्र और समृद्ध होगी।" समद अब तक चुप था, अब उसने भी कुछ पूछने की इच्छा से कहा-
"साथी सुमेर ! तुमसे कितनी ही बातों में मैं सहमत हैं, और कितनी ही बातों में असहमत । किन्तु तुम्हारी राय की मैं कितनी इज्जत करता हूँ। यह तुमसे छिपा नहीं है। मैं भी समझता हूँ, इस संसार-व्यापी संघर्ष में हम तटस्थ नहीं रह सकते। लेकिन दोस्त ! जब चुनाव आदि तय होकर तुम भरती हो गये, तब तुमने हमें खबर दी; कुछ पहले तो बतलाना चाहिए ?"
"पहले बतलाता, और चुनाव में छँट जाता। इसलिए भरती के बाद चौबीस घंटे की उड़ान करके मैंने मित्रों से कहा। अब कहने में कोई हर्ज भी नहीं, क्योंकि परसों ही मैं जा रहा हूँ अम्बाला उड़न्तू स्कूल में ।"
"और माँ को खबर दे दी ?"
"माँ के लिए जैसा पटना वैसा ही अम्बाला, जब तक मैं खोलकर साफ न लिख दें कि मैं लड़ाई में मृत्यु के मुँह में जा रहा हूँ, बल्कि उसके लिए एक-सा ही है। खोलकर लिखने का मतलब है, सदा के लिए उसकी नींद को हराम कर देना। मैंने निश्चय किया है कि जब तक जीवित रहूँगा, पत्र लिखता रहूँगा, उसी से उसको संतोष रहेगा।"
"मुझे तुम्हारे साहस का बार-बार ख्याल आता है?"
"मानव होने की कीमत को हमें हर वक्त चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए, समद ! और फिर एक आदर्शवादी मानव होने पर तो हमारी जिम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं ?"
"तो तुम्हारा विश्वास है, यह लड़ाई जबरदस्त उथल-पुथल लायेगी।"
"पिछली लड़ाई ने भी कुछ कम नहीं किया, सोवियत रूस का अस्तित्व-दुनिया के छठे हिस्से पर समानता का राज्य-यह कम चीज नहीं है; किन्तु इस लड़ाई के साथ जो परिवर्तन उपस्थित होगा, वह नई धरती, नये आसमान को लायेगा, दोस्त ! जिधर सोवियत राष्ट्र है, जिधर लाल सेना है; जिधर की विजय के लिए आज चीन, इंग्लैण्ड, अमेरिका की जनता सर्वस्व की बाजी लगाकर लड़ रही है, उस पक्ष की जीत में मुझे जरा भी सन्देह नहीं है।"
समद और रूपकिशोर की इधर पाकिस्तान को लेकर बहस चल रही थी; आज रूपकिशोर ने फिर उसी सवाल को छेड दिया-
"गाँधीवादी स्वराज्य हो या साम्यवादी, इसमें हमारा और तुम्हारा मित्र, सुमेर ! मतभेद हो सकता है, किन्तु स्वराज्य भारत के लिए होगा, इसमें तो सन्देह नहीं ?"
"भारत भी एक निराकार शब्द है, रूप बाबू ! जिसके नाम पर बहुत-सी भूल-भुलैयों में डाला जा सकता है, स्वराज्य भारतीयों के लिए चाहिए, जिसमें भारतीय अपने भाग्य का आप निर्णय करें, और उसमें भी आसमान से टपका स्वराज्य जल्द बड़े आदमियों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए ।"
रूप-"खैर, वैसे भी ले लीजिए, किन्तु स्वराज्य में जीवित भारत को टुकड़े-टुकड़े तो खंडित नहीं होने देना चाहिए।"
सुमेर-"तुम फिर भूल-भुलैया के शब्द को इस्तेमाल कर रहे हो। भारत का खंडित और अखंड रहना, उसके निवासियों पर निर्भर है। मौर्यों के समय हिन्दूकुश से परे आमू दरिया भारत की सीमा थी, और भाषा, रीति-रिवाज, इतिहास की दृष्टि से अफगान जाति (पठान) भारत के अन्तर्गत है। दसवीं सदी तक काबुल हिन्दू-राज्य रहा, इस तरह हिन्दुस्तान की सीमा हिन्दूकुश है। क्या अखंड हिन्दुस्तान वाले हिन्दूकुश तक दावा करने के लिए तैयार हैं ? यदि अफगानों की इच्छा के विरुद्ध नहीं कहो; तो सिन्धु के पश्चिम बसने वाले सरहदी अफगानों (पठानों) को भी उनकी इच्छा के विरुद्ध अखंड हिन्दुस्तान में नहीं रखा जा सकता। फिर वही बात सिन्धु, पंजाब, कश्मीर, पूर्वी बंगाल में क्यों नहीं लेनी चाहिए?
रूप-"अर्थात् उन्हें भारत से निकल जाने देना चाहिए ?"
सुमेर-"हाँ, यदि वे इसी पर तुले हुए हैं। हम जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसका अर्थ है, किसी देश की जनता को उसकी इच्छा के विरुद्ध राजनीतिक परतन्त्रता में नहीं रखा जा सकता। पाकिस्तान को फैसला हिन्दुओं को नहीं करना है, उसकी निर्णायक है मुस्लिम बहुमत-प्रान्तों की जनता। यदि हम भारत में जनता का नहीं, शोषकों का शासन कायम करना चाहते हैं, तो पाकिस्तान होकर रहेगा। यदि दिमागी और शारीरिक श्रम करने वाली जनता का शासन कायम करना चाहते हैं, तो भारत अनेक स्वतन्त्र जातियों का एक अखंड देश रहेगा। एक जाति, एक जातीयता के लिए एक भाषा, एक खान-पान, एक ब्याह-शादी सम्बन्ध की जरूरत है, जो साम्यवाद ही करा सकता है। इस पर भी भाषाओं के ख्याल से हमें ८० से ऊपर स्वतन्त्र जातियाँ माननी पड़ेगी।"
"अस्सी से ज्यादा ! तुमने तो पाकिस्तान को भी मात कर दिया ।"
"भाषाओं को मैंने नहीं बनाया। जनता के राज्य में उसकी मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाना होगा, और मातृभाषा वही है, जिसके व्याकरण में बच्चा भी कभी गलती नहीं करता। सोवियत-संघ ७० जातियों का एक बहुजातिक राष्ट्र है, उससे दूनी जनसंख्या वाला भारत यदि ८० जातियों का बहुजातिक राष्ट्र है, तो आश्चर्य की क्या जरूरत ?"
"तो तुम पाकिस्तान के पक्ष में हो ?"
"जब तक मुस्लिम जनता का उसके लिए आग्रह है। आज हर विचार के मुस्लिम नेता एकमत हैं, कि पाकिस्तान की माँग को मान लेना चाहिए और मैं समझता हूँ, गैर-मुस्लिमों को इस न्याय की माँग को ठुकराने का कोई हक नहीं। जिस मुसलमान बहुमत प्रान्त की बहुसंख्यक जनता भारतीय संघ से अलग जाना चाहती है, उसे वह अधिकार होना चाहिए ।"
3.
नीचे काला समुद्र है, जिसके शान्त जल पर कहीं जीवन का चिह्न नहीं मालूम होता और सामने दूर सफेद बादलों का एक विशाल क्षेत्र। वहाँ आसमान में अपनी गति के जानने का कोई साधन नहीं, सिवाय गति-मापक यंत्र के जो कि सुमेर के आगे लगा हुआ है। तीन सौ मील प्रति घंटे की चाल से बने यान का उड़ाना ! सुमेर का ख्याल एक बार उस युग में चला गया, जब कि मनुष्य पत्थर के अनगढ़ हथियारों को ही अपना सबसे बड़ा अविष्कार, सबसे बड़ी शक्ति समझता था, किन्तु आज वह आकाश का राजा है। मानवता कितनी उन्नत हुई है। किन्तु, उसी वक्त उसका ख्याल मानवता के शत्रुओं-फासिस्टों की ओर गया, जो कि मनुष्य के दिमाग की इस अद्भुत देन को मानवता के पैरों में गुलामी की बेड़ियाँ डालने में लगा रहे हैं। सुमेर का बदन सिहर गया जब ख्याल आया कि जापानी फासिस्ट भारत के पड़ोसी बर्मा में आ गये हैं। उस वक्त उसकी नजरों के सामने कदमकुआँ के वह घर और उनमें रहने वाली वे स्त्रियाँ एक-एक कर आने लगीं; जिनमें एक उसकी प्रिया है। दूसरी भी कितनी ही हैं, जिन्होंने इस अछूत माँ के मेधावी आदर्शवादी लड़के को बेटा और भाई के तौर पर ग्रहण किया। फासिस्टों के लिए अपार घृणा से उसका दिल खौलने लगा। उसी वक्त उसे सामने तीन सूर्य वाले विमान उड़ते दीख पड़े। सुमेर ने अपने मशीन गनर को फोन से कहा, और दो मिनट में फासिस्ट विमानों के बीच में पहुँच गया। बात करने में देर लगती है लिखने में तो और भी, किन्तु पता नहीं लगा, सुमेर के गनर शरीफ ने किस तरह अपनी मशीनगन को ट्र-ट्र- ट्र किया, और किस तरह सुमेर ने अपने विमान को ठीक जगह पर पहुँचाया, और किस तरह दस मिनट के भीतर ही तीनों फासिस्ट विमान परकटी चील की भाँति समुद्र में गिरे।
सुमेर को अपना जौहर दिखलाने का यह पहला मौका था, किन्तु इस सफलता पर उसे बहुत संतोष हुआ। उसने विमान से लौटते वक्त शरीफ से कहा-
"शुरू भाई ! हमने अपनी कीमत अदा करा ली। हममें से हर एक यदि तीन-तीन फासिस्टों को खत्म करे, तो कितना अच्छा हो ?" "मेरा मन भी अब बड़ा हलका मालूम होता। अब मरना मुफ्त नहीं कहा जायेगा।"
"अब हम जितने दिन जियेंगे, जापानी फासिस्टों को मार-मार नफे पर नफे कमाते रहेंगे।"
सुमेर दो सौ दिन जीता रहा। उसने सौ जापानी विमानों को नष्ट किया। अंतिम दिन बंगाल की खाड़ी में उसे काम मिला। अंडमन के पच्छिम जापानी जंगी बेड़ा जा रहा था। सुमरे ने चालीस हजार टन का एक जंगी महापोत देखा। बेड़े के आस-पास रक्षक विमान उड़ रहे थे, किन्तु दूर बादलों में से झाँकती सुमेर की आँखों को उन्होंने नहीं देखा।
सुमेर ने अपने गनर को टारपीडो तैयार रखने की आज्ञा दी। बादल वहाँ से बेड़े के ऊपर तक चला गया था। सुमेर ने पूरी गति से अपने विमान को चलाया, दुश्मन के विमानों को पता नहीं लग सका, कि कब कोई विमान जंगी पोत के ऊपर पहुँचा, कब भारतीय विमान-वाहक ने टारपीडो के लिए अपने विमान को महापोत पर झोंक दिया। सुमेर और उसके गनर का पता नहीं लगा, किन्तु अपने साथ ही वह उस जंगी महापोत को भी लेते गये।