सुकून की तलाश में (कहानी) : डॉ पद्मा शर्मा

Sukoon Ki Talash Mein (Hindi Story) : Dr. Padma Sharma

साल का आखिरी महीना... तारीख पन्द्रह...।
ये देखिए ... निर्मला देवी का टू बीएचके फ्लैट, जिसमें निर्मला देवी अकेली रहती थीं... सुबह कामवाली बाई शान्ता के बैल बजाने पर वो नहीं उठीं। शायद वो देर तक जागी हों इसलिए देर से उठेंगी ... यह सोचकर शान्ता बाई चली गयी। दो घण्टे बाद फिर शान्ता बाई आती है ... बैल बजाती है ... पर दरवाजा नहीं खुलता। वह दरवाजे की कुण्डी खटखटाती है ... पर यह क्या ? ... दरवाजा उढ़का हुआ था ... वह अन्दर जाती है और देखती है कि सारा सामान बिखरा पड़ा है... और जमीन पर उनकी खून से सनी लाश ... वह डर से चीख उठी। ...पड़ौसियों को बुलाया ...फिर पुलिस को ... ।

इनसेट में देखिए निर्मला की खून से लथपथ लाश ...
न्यूज चैनल का संवाददाता अपनी ही रौ में इस वृत्तांत को सुनाए जा रहा था।...
... चैन से सोना है तो कुछ सावधानियाँ बरतिए ... और सुरक्षित रहिए।

अब हम आपको इस घटना का डैमो दिखाते हैं।
सुजाता ने रिमोट से टी व्ही बंद कर दिया। उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह निर्मला की क्षत-विक्षत लाश देखे। मौत तक को बाजार बना दिया , जिसे सरेआम भुनाया जा रहा है। हर न्यूज चैनल पर वही मौत का खेल दिखाया जा रहा था।

समाचार पत्र की सुर्खियाँ और न्यूज चैनल की रेटिंग आज इन सब पर ही निर्भर हो गयी है।
सोसायटी के बगीचे में सुजाता, निर्मला और आशा तीनो साथ बैठकर योग के कुछ आसन करतीं, बतियातीं, हँसती-मुस्करातीं, दु:ख दर्द बांटतीं। आपस की मुस्कराहट.टॉनिक का काम करती... एक दूसरे के व्यंग्य और कमेंट तरोताजा करते ... एक दूसरे का साथ हिम्मत पैदा करता... ।

तीन साल पहले ...सुबह के झुरपुटे में आशा ने ही निर्मला से इसी बगीचे में मुलाकात करायी थी। दो-चार मिनट के आपसी वार्तालाप के बाद निर्मला ने बताया था कि वह अपने बेटा-बहू के साथ रहती है। दो दिन में ही उन दोनों की आपस में खूब पटने लगी थी। दोनों दुनिया जहान की बातें करती, मन्दिर हो आतीं, सब्जी वाली हाट भी।
आज सुबह की ही तो बात है ....

सुजाता हमेशा की भाँति निर्मला की प्रतीक्षा मे टकटकी लगाए बैठी थी। बदहवासी से भरी आशा ने आकर बताया था कि रात को किसी ने निर्मला का बेरहमी से कत्ल कर दिया है। ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गयी। धमनियों में रक्त संचार रुक गया...कश्मीर की घाटियों में वर्फबारी के समय पानी नलकूपों में जम जाता है जैसे...। उसे याद आया आजकल निर्मला अकेली थी उनके बेटे बहू एक माह के लिए बाहर गए हैं। हत्यारे को पता होगा कि बुढ़िया अकेली है। वह कांप गयी।
... कौन मार सकता है निर्मला को... हत्यारा घर में कहाँ से घुसा होगा ? क्या किया होगा? कैसे मारा होगा ?

अब तो बुजुर्गों का अकेले रहना खतरनाक होता जा रहा है ... फ्लैट तो इसीलिए खरीदा था कि यहाँ अपार्टमेंट में किसी न किसी फ्लैट में हर समय किसी न किसी का आना जाना होता रहता है, आवा जाही रहती है तो सुरक्षा रहती है, पर यहाँ भी जीवन सुरक्षित नहीं ... कई प्रश्नों से जूझती, उनमें डूबती-उतरती सुजाता के मन में भय व्याप्त होने लगा ...। वह हड़बड़ा कर उठी, अपने फ्लैट की ओर चल दी।वहाँ पहुंचकर उसने दरवाजे का ताला लगा दिया, खिड़कियाँ बन्द कर दीं । लेकिन दरवाजे की संधों में से ... रोशनदान के घेरों से भय लरजता हुआ कमरे में फैलता हुआ फर्श, मेज-कुर्सी, पलंग, पर्दे कूलर की आवाज में ... समूचे घर में विचरने लगा। दिल दिमाग दहशतजदा होने लगे। जीने का भय मरने के भय से अधिक यातनामयी होता है... भय में हर आहट खटका बनकर उपस्थित होती है।

वह भी डर रही थी अपने डर को हराने के लिए उसने वाट्सअप के ‘साहित्य की बात’ समूह’ को खोला।
लगा शरद कोकास की कविता उसके डर को अभिव्यक्त कर रही है।

वे आजाद हवा से खौफ खाते हैं
वे गुलाम हवा से खौफ खाते हैं
खौफ खाते हैं कैद हवा से
हवा न होने पर भी खौफ खाते हैं

वे हवाओं से डर डर कर जीते हैं
डरते-डरते मर जाते हैं एक दिन

उसका मन मोबाइल के साहित्य समूह में भी नहीं लगा। भय हृदय पर हावी होने लगा। दुश्मन की बजाय अपनों का भय अधिक खतरनाक होता है। शत्रु से भय तो पूर्व निर्धारित होता है, पर अपनों से भय मन को पहले अचंभित फिर दुःखी कर देता है। जीवन का ये अकेलापन गाहे बगाहे कभी भी भय की छाया निर्मित कर देता है ... इस काली छाया से ... अंधकार से प्रकाश तक का सफर बड़ा दुश्कर होता है।

कोई भी तो नहीं पास, जो प्यार के दो शब्द बोल दे ... मन को ढांढस बंधा दे। स्मृति के पन्ने फड़फड़ाने लगे ...

सुजाता एक स्वावलम्बी लड़की ... रिटायर पिता बेबसी में भाईयों के आगे हाथ न फैलाए इसलिए ग्रेजुएट होने के बाद खुद ने प्रायवेट स्कूल में नौकरी कर ली। अपने बूते पर आगे की पढ़ाई का संकल्प लिए मेहनत करती रही। पिता जीवन भर प्रायवेट नौकरी में थे सो पेंशन की कोई आशा नहीं थी। उसे पता था सफलता का रास्ता मेहनत की ईंटों से ही निर्मित होता है। दुःख और कष्ट उसके जीवन को निखारते रहे और मेहनत का माद्दा बढ़ाते रहे। एम ए हिन्दी से करने के बाद बी. एड. भी कर लिया। भाई माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बनता तो सुजाता भी अपना घर बसा लेती। उसका भरोसा कैसे करती जिसका ख्याल वक्त के साथ बदल गया ... भरोसा उसका किया जाता है जिसका ख्याल तब भी वैसा हो जब हमारा वक्त बदल जाए। भाई की गृहस्थी में भूचाल न आए इसलिए व्याख्याता की सरकारी नौकरी पाते ही वह माता-पिता को अपने साथ ले आयी। आखिरकार वक्त ने उसे जिंदगी का फलसफा सिखा ही दिया। युवावस्था माता-पिता की वृद्धावस्था को समर्पित कर दी। विवाह के लिए कोई भी लड़का ऐसा न मिला जो उसके माता-पिता का दायित्व निर्वाह करने की स्वीकृति देता। ‘बेटी देकर बेटा लेते हैं’ यह कहावत गलत साबित होती रही।

समय की चाल बड़ी तेज होती है... गुजरे क्षण ... आनंद की प्रतीक्षा के लमहे ... सुरमई सपने ... सब लरजते आँसुओं के साथ बह गए। बेटा बनकर पुत्री का फर्ज पूरा किया।

माता-पिता ने जब साथ छोड़ा युवावस्था भी साथ छोड़ चुकी थी। जिन्दगी कई अंधेरे दिखा रही थी ... विवाह के लिए प्रयास भी किया पर सभी रिश्ते उसके मान-सम्मान के बजाय उसकी नौकरी का पैसा, बैंक बेलेन्स के लिए नए प्रतिमान गढ़ रहे थे।

स्वावलम्बन का अध्याय सुजाता के मन में अमिट स्याही से लिखा जा चुका था। सहते विपत्सहस्त्रं मानी नैवापमानलेशमपि (स्वाभिमानी व्यक्ति हजारों विपत्तियाँ सहन कर सकते हैं परन्तु अपमान को लेशमात्र भी सहन नहीं कर सकते)। किसी से अपना काम करवाना उसकी गैरत के खिलाफ था। उसका पैसा अब भाई के मन में संवेदना और सहानुभूति की हरियाली पैदा कर रहा था। भाई ने अपने अठारह वर्षीय बेटे को उसके साथ रखने की सलाह दी ‘‘ तुम अकेली कहाँ परेशान होगी, ये बाजार हाट के काम भी कर दिया करेगा।’’

भतीजा साथ रहने आ गया। जिंदगी जिस ढर्रे पर चलने लगती है उसकी आदत हो जाती है। सुजाता को अपने जीवन में किसी दूसरे का दखल ...उसकी उपस्थिति ... उसके क्रियाकलाप सब मन को उद्वेलित कर रहे थे। वह उसके साथ अपना सामंजस्य बिठाए या भतीजा चैतन्य उसके हिसाब से चले ... दो प्रतिकूल बिंदु अपने-अपने रास्ते चल रहे थे ।

सर्द भरी रात ... कहीं बारिश होने से आसपास के इलाके भी उसी वातावरण की गिरफ्त में आ गये थे। हवा के थपेड़े भय का निर्माण कर रहे थे। इस भयावह रात में सुजाता चैतन्य का इन्तजार कर रही थी। दीवार घड़ी का पेंडुलम खड़कने लगा ... एक ... दो ... तीन ... पूरे बारह बार खड़का पेंडुलम । हर खड़के से रोम - रोम खडा हो जाता मानो आघात सीधा हृदय पर पड़ रहा हो। तभी डोर बेल बजी। उनींदी आँखों से उसने दरवाजा खोला ... एक बदबूदार भभका नथुनों के अन्तिम छोर से होता हुआ मस्तिष्क को हिला गया।
‘‘चैतन्य इतनी रात कहाँ से आ रहे हो ?’’

वह लड़खड़ाते हुए कदमों से अन्दर आया और मुँह पर तर्जनी रखकर इशारा करते हुए बोला- ‘‘श... श ... चुप, शोर नहीं ... आसपास के लोग जाग जायेंगे’
‘‘तुम शराब पीकर आए हो ?’’ सुजाता ने चिन्तित स्वर में पूछा।वह कुछ दिनों से उसमें बदलाव देख रही थी।

कहकहा लगाकर हँसते हुए बोला ‘‘नो .... इसे देवरस कहते हैं .... सोमरस ... बुआ तुम पियोगी ... ?’’ कोट की जेब से शराब की छोटी बोतल निकालते हुए चैतन्य ने कहा - ‘‘... पी लो ... जिन्दगी रंगीन हो जायेगी ... कोई चिन्ता नहीं ... कोई फिकर नहीं ... आसमान में उड़ोगी ... ’’
उसने तर्जनी से ऊपर की ओर इशारा किया।
उसने चिन्तातुर होकर कहा-‘‘खाना लगा दूँ?’’
‘‘क्या खिलाओगी ? वही साग भाजी ?’’
‘‘तुम्हारे पसन्द की मटर पनीर की सब्जी बनायी है।’’
"आज तो मैं पार्टी करके आ रहा हूँ’’ कहकर वह अपने कमरे की ओर चल दिया।

शराब व्यक्ति के भीतर छुपी बैठी हैवानियत को बाहर निकालने का काम बखूबी करती है। सुजाता ने सोचा इससे सुबह बात करुँगी इस समय यह होश में नहीं है और वह अपने कमरे मे जाकर सो गयी। उसका मन मानने को तैयार नहीं था कि शराब पीकर व्यक्ति को होश नहीं रहता। यदि शराब पीकर व्यक्ति को होश नहीं रहता तो वह दूसरे के घर की बैल क्यों नही बजाता ... शराबी जिससे नाराज हो उसे बड़ी शान से खरी-खोटी सुनाता है ... तब भी लोग कहते हैं कि पीकर बक रहा है .. अभी होश में नहीं है ... ।

रात का लगभग एक बज रहा था। सुजाता को अपने कमरे के दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। कान सुनने की मुद्रा मे आवाज तक पहुँचने का प्रयास करने लगे। फिर वही दस्तक ... सुजाता ने पूछा- ‘‘कौन ?’’
‘‘अरे बुआ ! दरवाजा खोलो ... ’’
जितनी तेज पुकारने की आवाज ... उतना ही तेज दरवाजे पर दस्तक का शोर। आवाजें भी सन्नाटे को चीरती बहुत कुछ आभास करा रही थीं।
सुजाता ने जैसे ही दरवाजा खोला चैतन्य ने उसकी गर्दन पर चाकू रखकर कागज आगे बढ़ा दिया और धमकी भरे लहजे में बोला-‘‘बुआ इन कागजों पर दस्तखत कर दो।’’
‘‘क्या है ये ?’’
‘‘ये वसीयत के कागज हैं’’ -हँसते हुए बोला ।
उसकी हँसी दिल को डँसती चली गयी ...

हर इंसान अपनी जुबां के पीछे छुपा है ... अगर उसे समझना है तो उसे बोलने दो... चैतन्य के भीतर छिपी बैठी उसकी हैवानियत बाहर आ रही थी। यह तो वह जानती थी कि घर के कामों के लिए दिए जाने वाले रुपये पैसों में वह हेराफेरी करता है पर आज इतना भयावह कदम उठा लेगा इसकी आशंका उसे नहीं थी। आज चैतन्य होश में नहीं ... नशा करके वह अचेतन अवस्था में आ गया है। ‘‘सुबह बात करते हैं, चल अभी तो सो जा’’ सुजाता ने प्यार से समझाना चाहा।
‘‘नहीं अभी साइन चाहिए, रात गयी बात गयी’’ उसने लगभग धमकी देते हुए कहा।
‘‘ अभी रात बहुत हो गयी है ’’
‘‘तभी तो ... समय का कोई भरोसा नहीं ... तुम रात में मर गयीं तो
‘‘ ... ’’
‘‘क्या करोगी इस प्रॉपर्टी का ? मिलनी तो हमें .ही है’’

आँखें सब कह देती हैं ... प्यार, ग्लानि, ईर्ष्या, लज्जा, बेबसी, दहशत ...। चैतन्य की आँखें दहशत उगल रही थीं ,उनमें चालबाजी साफ दिखाई दे रही थी। सुजाता के भीतर अंधेरा पसरता जा रहा था ...
‘‘तो अभी क्यों नहीं कर देतीं सब मेरे नाम ? तुम बुढ़ापे में क्या करोगी इस जायदाद का ’’

सुजाता ने उसे पिता का भय दिखाते हुए कहा-‘‘ ये सब ठीक नहीं कर रहे चैतन्य, भैया को मालूम पड़ेगा तो वो भी तुम्हें डांटेंगे।’’
‘‘मेरा बाप ! हा हा हा ... वो मुझसे परेशान था इसीलिए तो तुम्हारे गले मढ़ दिया’’

बुद्धि, बल, विवेक, धैर्य सब सुजाता का साथ छोड़ रहे थे ... क्रोध उफान पर आ रहा था और उमड़-घुमड़कर समुद्र की भाँति सफेद फेन बना रहा था। मानव का सुधरना बिगड़ना उसके स्वभाव पर निर्भर होता है पर माहौल भी उसके लिए बहुत कुछ उत्तरदायी होता है। वो दृश्य याद आ गया जब पिता की अर्थी घर में रखी रही और भाई ने हाथ झाड़ दिए थे कि वो तो जल्दबाजी में आ गये ... पैसा लेकर नहीं आये। सुजाता ने फिर किसी भी कार्य में उनसे पैसे नहीं लिए। वो ही बेटा बनकर पूरे काम करती रही।
‘‘हाँ सब तुम लोगों के लिए ही तो है, ला पढ़ने दे मुझे क्या लिखा है ?’’ उसने हाथ बढ़ाकर कागज लेने की कोशिश की।

जोर का धक्का पीठ पर लगा , उसने जल्दी से दरवाजे का सहारा लिया नहीं तो औंधे मुँह गिरती। उसकी मंशा सुजाता समझ चुकी थी। अठारह वर्षीय युवा की बलिष्ठ भुजाओं का दबाव उसकी साठ वर्षीय खाल छोड़ती हड्डियाँ कहाँ सहन कर पातीं। चाणक्य कहते हैं ‘भूखे शेर, कामांध व्यक्ति, भेड़ सी चलित भीड़ और नशे में धुत्त धूर्त का कोई विवेक नहीं होता। उसने कागज पेन लेकर साइन कर दिए। एक झटके के साथ चैतन्य ने सुजाता को मुक्त किया। वह जल्दी ही अपने कमरे में कैद हो गयी। भयावह रात ... अनिष्ट की आशंका ... कोई आशान्वित सहारा न हो तो एक-एक पल बड़ी मुश्किल से कटता है। यह सबक तो किताबों में भी दर्ज न था जो जिन्दगी ने उसे सिखाया था।

नशे में धुत्त चैतन्य वसीयतनामा लिखवाकर चैन की नींद सो रहा था ... लाट्साहब बनने के सपने में डूबता-उतराता ... ।

सुबह होते ही सुजाता बदहवास सी पार्क में पहुँची। सबसे पहले निर्मला ने ही उसे हिम्मत बंधाई। खुद सूखकर भरभरा रही थी पर सुजाता को अंक में भरकर अपनत्व, स्नेह और अहसास से पुनर्जीवित कर दिया।

निर्मला सुजाता के साथ थाने गयी और रिपोर्ट लिखवाई। पुलिस ने उसके भाई को बुलाया और भाई ने माजरा देखा तो मिन्नत करने लगा कि बेटे का भविष्य बर्बाद हो जायेगा। रिश्ते की दुहाई दे रहा था। निर्मला ने उसे डांटते हुए कहा था- ‘‘अपने वो नहीं होते, जो रोने पर आते हैं अपने वो होते हैं, जो रोने नहीं देते ...’’

सुजाता ने रिपोर्ट वापस लेने से मना किया तो निर्मला ने ही उसे समझाया था- ‘‘ अकड़ तो सबमें होती है झुकता वही है जिसे रिश्तों की फिक्र होती है। किसी के दिल को चोट पहुँचाकर माफी मांगना बहुत आसान है लेकिन खुद चोट खाकर किसी को माफ करना बहुत मुश्किल है। पुलिस जब चैतन्य को थाने लेकर आयी उसका नशा हिरन हो चुका था। वह घिघिया रहा था। सुजाता की आँखों से आँसू बह रहे थे। गहरी सांस लेकर वह बोली
-‘‘अपनों का धोखा गहरे जख्म देता है। मैंने तुम्हारा बहुत ख्याल रखा पर तुमने रिश्ते तार-तार कर दिये।’’

भैया बीच में बोले-‘‘सुजाता विश्वास करो अब तुम्हें कोई परेशान नही करेगा।’’ उनकी आँखों में बेटे का भविष्य तैर रहा था।

‘‘ विश्वास ! विश्वास ने ही तो दुःख की मीनार खड़ी कर दी। डर के साथ कैसे पूरी रात कैसे काटी है मैंने इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते आप।अपने ही घर में कैद थी मैं ...’’ कहकर सुजाता फूटफूटकर रोने लगी। थोड़ी देर चुप्पी छायी रही। आँखें पोंछती हुयी बोली- ‘‘मेरे ही कमाई गयी धन-सम्पत्ति पर ये कब्जा जमाना चाह रहा था। प्यार से मैं इस सब दे देती, पर भय से या धोखे से इसे कुछ हासिल नहीं होगा।’’

फिर भैया की ओर मुखातिब होकर बोली-‘‘ भैया आपने ही अपना फर्ज निभाया होता तो मुझे आज ये दिन न देखना पड़ते।’’ आज सुजाता ने अपने जीवन का सत्य भैया से कह ही दिया।

घर आकर भी निर्मला दिनभर साथ रही और उसे ढांढस बंधाती रही - ‘‘तुम हिम्मत क्यों हारती हो ? हम सब है तुम्हारे साथ।’’
‘‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि चैतन्य ऐसा काम करेगा’’
जब रिेश्ते ही स्वार्थी हो जाएं , रिश्तों में जंग लगने लगे तो उसे अपने से दूर कर देना बेहतर है।’’
‘‘समस्याएँ कब मेरा पीछी छोड़ेंगी ...’’
‘‘हर समस्या का हल होता है’’
‘‘पर मुझे नहीं लगता’’ कहकर सुजाता शून्य में देखने लगी।

समस्याएँ इतनी ताकतवर नहीं होतीं जितना हम मान लेते हैं ... कभी सुना है कि अंधेरों ने सुबह नहीं होने दी’’ मुस्कराकर बोली निर्मला।

ज्यों ज्यों दिन बीते एक अजीब से डर से उसका मन भयाक्रांत होने के कारण शरीर अशक्त सा होने लगा। बाजार हाट के काम करने में भी परेशानी होने लगी। स्वावलंबन किसी के आगे याचक नहीं बनने दे रहा था।

और आज ...

उस संकट की घड़ी में उसका साथ देने वाली निर्मला आज खुद शांत पड़ी थी।

सुजाता सोच रही थी कि यदि उस रात मैंने साइन न किये होते तो हो सकता है मैं भी अखबारी सुर्खियाँ और टी व्ही चैनल का मुख्य समाचार बन गयी होती।

उसने फिर से टी व्ही ऑन किया... निर्मला देवी पर ही न्यूज चल रही थी। अभी तक गुनहगारों का पता नही चल पाया था। सुजाता के मन में अनिष्ट की आशंका घर कर करने लगी ... जब किसी भी निकटस्थ व्यक्ति के साथ हृदयविदारक घटनाएँ घटती है तो संबंधित व्यक्ति कई दिनों तक आकुल-व्याकुल रहता है। अच्छे दिनों की खुशगवारी और छाप जल्दी विस्मृत हो जाती है पर कठिन और भयसिक्त घटनाएँ स्मृति पर आसन जमा लेती हैं। उसने डायरी निकाली जो निर्मला देवी ने उसे उपहार में दी थी। निर्मला की सुन्दर हैण्डराइटिंग में लिखी वह पंक्तियां बुदबुदाने लगी -

My best years of life in the past and long gone ... मेरे जीवन के सबसे अच्छे वर्ष बीत गए ।
But ‘its the fear of death makes us want to live on ... मैं मृत्यु से भयभीत हूँ , मैं और जीना चाहती हूँ।
Old age is a punishment as some do say ... वृद्धावस्था का ये त्रासद दंड बिना निष्कर्ष के भोग रही हूँ।

व्यक्ति जब कठिन परिस्थितियों की आशंका में स्वयं को अकेला महसूस करता है तब वह मानसिक रूप से भी असहज और कमजोर हो जाता है। सुजाता के पास भी अपने के नाम पर कोई भी तो नहीं था। मां-बाप की सेवा करते उमर निकल गयी, न ब्याह किया न किसी से रिलेशनशिप...
बच्चों का तो सवाल ही नही। घर में नौकर रखना भी परेशानी का सबब था।आजकल ज्यादातर दुर्घटनाओं में नौकरों के हाथ रहते हैं। फिर चैतन्य ने ही धोखा दिया तो बाहर के लोगों पर कैसे विश्वास किया जाये। जिस क्षण से मौत के मंजर को सुजाता ने करीब से देखा था उसे मौत का भय सताने लगा था। इस अपार्टमेन्ट में रहने में अब डर लग रहा था... दूसरे निर्मलादेवी की घटना भी मन में गहरे बैठ गयी थी।

अनायास हाथ में रिमोट उठा उसने टेलीविजन खोल लिया और सिटी चैनल खोजने लगी, वह जानना चाहती थी कि निर्मलादेवी की घटना का शहर में क्या असर हुआ है ? सिटी चैनल पर डिवेट चल रही थी ... एक समाजशास्त्री, एक प्रोफेसर, युवा पत्रकार और एक बुजुर्ग महिला के बीच । टी व्ही एंकर कह रही थी-‘‘आज जबकि चीन और भारतवर्ष में सबसे ज्यादा बुजुर्गों की संख्या मौजूद है , इनमें से एकाकी वृद्ध महिलाएँ असुरक्षित हैं ... तब समाज को क्या करना चाहिये ? समाजशास़्त्री अपनी शांत और गंभीर आवाज में बोला- ‘‘देखिये साहब, सन् दो हजार के बाद शहरों में रहने वाले परिवारों में से हमारे देश के युवा अपने घर रहना पसंद नही कर रहे, कोई बैंगलौर, मुम्बई या पुणे जा रहा है, तो मौका मिलने पर कोई अवार्ड भी ।
अब घर कौन रहेगा साहब?अपने कस्बे और शहर मे अनुकूल जॉब मिलना आसान नहीं, युवा पीड़ी के सामने बड़े पैकेज हैं, सुनहरे मौके हैं जिन्हे स्वीकार करने के लिए उन लोगों मे ंगलाकाट प्रतियोगिता है। इसलिये हमारी नियति यही है कि मां बाप अपना देखें, हम अपना देखते हैं। युवा लोग चल देते हैं अपने जॉब पर पराये शहरों में, उनके अभिभावक रह जाते हैं वहाँ जहाँ कि जीवन भर रहे। ये उनकी मजबूरी भी है और समाज का चलन भी यही है। इस वजह से हर कॉलोनी में, हर बंगले में रहने वाले बुजुर्गों की संख्या तेजी से बढ़ रही है ।’

टीवी पर अब उस युवा गंभीर पत्रकार का चेहरा था ‘ देखिये सर, हम कब तक ज्वाइंट फेमिली और तीन पीड़ियों के आसरे वाले घर की कल्पना करेंगे। भले ही इस पांच हजार सालों में हम सामाजिक हो गये हों, लेकिन मनुष्य भी आखिरकार दुनिया के अन्य जीवों की तरह एक प्राणी है। दूसरे जीवों में पिता के घर में कोई नही रहता-न परिन्दे न दरिन्दे। हर पक्षी उड़ना सीखते ही अपना अलग घोंसला बनाता है, हर शेर सबसे पहले अपनी मां की मांद को त्यागता है, यही पश्चिम में है, युवा होते ही वहां के बेटे सबसे पहले अपने मां बाप को बाय-बाय कह के चल देते हैं। इसलिये इस पर क्या रोना कि नयी पीड़ी मां बाप के पास नही रहती ।’

‘गांव और कस्बे के लोग तो रहते है।’बुजुर्ग महिला ने उसे टोका।
‘ उनकी स्क्लि कैपिसिटी बहुत अच्छी नही होती मैडम। जब हमको इस भूंडलीकरण को अपनाना है तो अपनी मानसिकता बदलनी होगी। अब हमे सामुदायिक आवास बनाने होंगे जिनमें एक दूसरे के सहारे बुजुर्ग लोग रह सकें। ’ पत्रकार का फण्डा क्लियर था।

‘एक मिनट सर, रुकिये आप सब मूल मुद्दे से हट रहे हैं। मुख्य समस्या है कि आजकल जो एकाकी लोग रह रहे हैं जिनमें महिलाएँ भी हैं वे लोग किस सोसायटी में रहें कि उनका जीवन सुरक्षित रह सके’’ टी वी ऐंकर ने उन्हे टोका तो वे लोग रुके।

प्रोफेसर ने कहा- ‘‘बिल्कुल ठीक टोका आपने। ऐसे लोग फ्लैट में रह सकते हैं जहाँ वॉचमेन रहते हैं।’’
वृद्ध महिला ने थोड़े रोष में कहा- ‘‘आज का ही उदाहरण देख लीजिए ... निर्मलादेवी फ्लैट में ही रहती थीं। उनका मर्डर हो गया और अभी तक हत्या का कोई सुराग नहीं लगा। कहीं न कहीं तो चूक हो ही रही है न ... हमारी पुलिस व्यवस्था भी उतनी चाक चैबन्द नहीं है’’
इस बात पर सभी का क्र्रोध बाहर निकलने को उद्यत हो उठा। सभी ने अपने-अपने माइक उठाकर बोलना शुरु कर दिया।
‘‘इन सोसायटी में चपरासी भी चोरों और शातिरों से मिले होते हैं ...’’
‘‘फ्लैट में सोसायटी को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए और आने-जाने वाले पर कड़ी नजर रखना चाहिए ... ’’
‘‘सी सी टी व्ही कैमरे लगाना चाहिए ... ’’

समाजशास़्त्री, प्रोफेसर और बुजुर्ग महिला तो एकाएक आपा खो बैठे और उस पत्रकार को अपना निशाना बना, सब लगभग चीखने से लगे, शोरगुल होने लगा, आवाजें आपस में गड्ड मड्ड होने लगी।

सुजाता देखती रही फिर जाने क्या हुआ कि एकाएक उसके मन की निराशा कम होने लगी। उसे यह संतोष होने लगा कि उस जैसे अकेले रहने वालों की चिन्ता समाज को है, उसकी घुटन खत्म होने लगी। उसने मुस्कराते हुए रिमोट से टीवी बंद किया और अपने घर की बिखरी चीजों को सम्हालने मे जुट गयी।उसके होंठों पर अपना प्रिय फिल्मी गीत गूंज रहा था ‘दूर कहीं जब दिन ढल जाये..’

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