सुख-दुःख के साथी (कहानी) : पन्नालाल पटेल
Sukh-Dukh Ke Sathi (Gujrati Story in Hindi) : Pannalal Patel
"अन्धी को कोई पैसा-दो पैसा देना, माई-बाप !" फुटपाथ के किनारे बैठी एक औरत गुहार रही थी।
"अरे माई-बाप, कोई इस लूले-लंगड़े पर दया करो, मालिक!" पास से दोनों पैरों से लंगड़े की आवाज आयी।
"कौन जाने नासपीटे कहाँ से आ धमकते हैं ! जहाँ भी जाऊँ पीछे-पीछे लगे..."
बड़बड़ाती हुई वह अन्धी औरत उठी और दीवार टटोलती हुई चलने लगी।
"अरे बैठ, बैठ, मैं ही चला जाता हैं।" उस लँगड़े अपाहिज ने घिसटते हए कहा।
'तेरे बाप का रस्ता है?' कहने के बजाय ऐसा कहते किसी इंसान को सुनकर उस औरत को मजाक लगा । धीरे-धीरे चलते हुए उसने कहा, “जाना ही था तब क्या अपनी जड़ खुदवाने यहाँ पास आ घुसा था?"
"नहीं नहीं, सच कहता हूँ, बैठ जा।" और फिर हँसते-हँसते जोड़ा, "और वैसे भी नोची हुई जड़ों की जड़ क्यों खोदती हो?" इतने में राह चलते एक धार्मिक आदमी को देख अपना अन्नपूर्णा-सा कटोरा बढ़ाते बोल उठा, "लंगड़े को कुछ देना, माई-बाप!"
"अन्धी को पैसा-दो पैसा देना, माई-बाप !" कहते हुए अन्धी ने भी पलटकर कटोरा बढ़ाया। उस सेठ ने लँगड़े के कटोरे में पाई डाली। खनखनाहट सुनते फिर वह औरत गिड़गिड़ाने लगी। सेठ को आगे बढ़ते देख लँगड़े ने सिफारिश की, “इस अन्धी को कुछ देते जाओ, सेठ !"
सेठ को दया आयी और फिर जेब से पाई निकालते-निकालते पूछा, "क्यों, तेरी औरत है क्या ?"
"हs...हाँ...माई-बाप!" लँगड़ा बोल पड़ा और वह औरत कुछ कहे उसके पहले कटोरे में कुछ बज उठा । शब्द जुबान पर ही रहे । उफनता हुआ गुस्सा हवा हो गया।
सेठ के जाने के बाद, दूर-दूर तक निगाह डालकर लँगड़े ने अभी तक खड़ी उस औरत को फिर से कहा, "लो, बैठो, मैं जाता हूँ।"
औरत बैठ गयी और लँगड़े के घिसटने की आवाज आते ही बोली, "तू भी बैठ । तू मेरे भाग से ले थोड़े ही लेगा?"
"फिर मेरी जड़ खोदने लगी तो?"
"तू ही तो कह रहा था कि जड़ रहे ऐसा तो कुछ भी नहीं ?" हौले से मुस्कराते हुए औरत बोली और फिर उसने सेठ को जो कहा था वह याद आते मुंह फुलाते हुए जोड़ा, "और हाँ, देख उस सेठ को कहा ऐसा फिर कहा तो?"
"अरे पगली, ऐसा कहा तो पाई मिली। उसमें तेरा क्या गया?"
औरत ने उसकी ओर सिर्फ चेहरा घुमाया, लँगड़े ने उसकी नाचती पलकों पर से चीन्हा कि उस अन्ध आँखों में मोहिनी है।
फिर उसने अपना काम शुरू किया, "अन्धी पर कोई दया करो माई-बाप...पाई-दो पाई..."
"क्यों फालतू में मुंह दुःखाती है ? कोई आता होगा तो क्या मैं नहीं बोलूंगा? तब तू भी बोलना।"
औरत को भी यह बात जंच गयी। फिर भी आदतन बोल उठती थी। और जब वह लंगड़ा बोलता था तब वह दुगुने जोर से बोलती।
इस तरह अंधेरा हो गया। वह औरत उठकर चलने लगी।
"कहाँ जायेगी? तेरा कोई ठौर-ठिकाना है ?" लँगड़े ने पूछा।
"तुझे क्या ? मैं जहाँ भी जाऊँ। भिखारी के क्या कोई ठौर-ठिकाने !" चलते-चलते वह बोली । उत्तर की आशा थी पर व्यर्थ।
लँगड़ा कुछ नहीं बोला। वह भी इन दिनों जिसे नया घर माना था उसकी ओर सरकने लगा।
दूसरे दिन सूरज के आने से पहले लँगड़ा उस जगह आ बैठा और उस औरत की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद दूर से वह औरत आती दिखी। लँगड़ा दुगुने जोर से चिल्लाया, "कोई दया करो, मालिक ! इस लँगड़े को पाई-दो पाई..."
वह औरत भी उससे कुछ दूर बैठी दयालुओं को गुहारती रही ।
धूप चढ़ी। ग्राहकों की आवाजाही कम होने पर लँगड़े ने औरत की ओर सरकते पूछा, "कितने पैसे आये?"
"एक आना और दो पाई। तेरे कितने हुए ?" औरत ने पूछा।
"मेरे तो एक आने में भी दोपाई कम हैं।" इसी बीच लँगड़ा एकदम करीब आया।
कुछ देर खामोशी छा गयी।
"तेरा नाम क्या है ?" लँगड़े ने पूछा ।
"तुझे क्या काम है ? अपना नाम बता न !"
"मेरा नाम तो चमन है।"
"और मेरा नाम जमनी।" कहकर जमनी ने उसकी ओर चेहरा घुमाया।
जमनी के चेहरे पर हँसी देख हिम्मत करके चमन ने कहा, "जमनी के बदले चमनी नाम कर ले।"
"मैं क्यों करूँ, तू कर ले जमन!"
इतने में चमन ने दो-चार ग्राहक जैसे आते देख बोलना शुरू कर दिया, "लंगड़े को कोई..."
"अन्धी को कोई !" जमनी भी बोलने लगी।
दोपहर ढलते दोनों ने दो-दो पैसे के चने लेकर ठेले वाले का फायदा कर दिया।
शाम होते फिर हिसाब-किताब किया और जाने की तैयारी की। जाते-जाते चमन ने पूछा, "कल एकादशी है। भदरकाली माता के मन्दिर चलेगी?"
"मैं कैसे आऊँ ? कहीं भटक जाऊँ तो?"
"तू यहाँ आना, फिर अपन दोनों चलेंगे।"
"अच्छा!" कहकर जमनी ने कदम बढ़ाये ।
दोनों पर काल की कुल्हाड़ी बहुत नहीं चली थी, होंगे अट्ठाईस-तीस के करीब । पर भूख की कुल्हाड़ी ने देह को छिन्न-भिन्न कर तोड़ मरोड़ दिया था।
फिर दिन उगा और उसी रास्ते पर आकर लँगड़ा जमनी की राह देखते बैठा रहा । कुछ देर बाद जमनी भी आ पहुंची।
"देख, मेरे पीछे-पीछे चली आ।" कहकर चमन घिसटने लगा। जिस रास्ते को काटने में रोज बहुत देर लगती, वह आज उससे जल्दी-जल्दी कट रहा था। आज उसे अपनी चाल पर काबू रखना पड़ा। राह में कहीं उतरने का या चढ़ने का आता तो चमन जमनी को आगाह करता, "देखना ढलान है" "यहाँ पर चढ़ाई है" और राह पार करते मोटर या तांगा दिखता तो बोल उठता, "जमनी, रुक जा, मोटर आ रही है।" और इस तरह दोनों ने निश्चित ठिकाने पर आकर, देवी माता के आँगन में धूनी रमायी-"माई-बाप...कोई...?"
शाम होते ही दोनों जन उठे । आज उनमें गाढ़ी कमाई का उछाह था और उसमें भी जमनी में विशेष ।
"वही जगह आने पर बताना, हैं !" जमनी ने कहा।
बिजली के बल्ब, अपना कलेजा जला-जलाकर रास्तों को जगमगा रहे थे। चमन ने राह के आसपास गरजते अन्धकार को देखकर जाना कि रात हो गयी। जमनी ने माहौल को बोलता सुनकर जामा कि रात हो गयी।
जमनी के दिल में हल्का-हल्का-सा डर था, "कहीं चमन उलटे रास्ते पर तो नहीं ले जा रहा !" और सुबह जिस राह से गुजरी थी उसकी थाह लेने के लिए घड़ी-घड़ी हाथ को दीवार की ओर बढ़ा तसल्ली कर लेती थी, "वह दीवार आयी या नहीं?"
"यह लो, आ गयी तेरी हद, जमनी! तू हमेशा इस ओर से ही आती थी।"
"हांss, ठीक है यही।" जमनी ने ठहरकर दीवार को उँगलियों से ही देखकर कहा । और दिमाग में अपने रोज़ के रास्ते का नक्शा भी सोचती रही । और फिर इस देवी माता के मन्दिर जाने का नक्शा बनाने की भी थोड़ी-बहुत कोशिश करने लगी। इतने में चमन की आवाज़ आयी, "जमनी ! तू कहाँ रहती है ? अगर अच्छी जगह न हो तो मैंने एक अच्छा ठिकाना खोज निकाला है। वहाँ न तो भिखारी तंग करेंगे और न पुलिस वालों का दखल ।” और जमनी को चुप देखकर दुबारा पूछा, "चल, चलती है ?"
फुटपाथ की एक दीवार से लगे पेड़ के दो जबरदस्त तने, उनके बीच सो सकें उतनी जगह, कुछ दूर पानी का नल, जमनी ने इस तरह अपने घर और मोहल्ले को याद किया। और फिर रात भर अपने जागते होने की गवाही देते, भौंकते दो कुत्तों को याद किया । उसे जाना नहीं भाया । "नहीं, मेरी तो अच्छी जगह है।"
"तो फिर तू अपनी जाने, हालांकि वैसे यह जगह अच्छी थी।" चमन उदास होते बोला । और फिर घिसटते हए कहा, "अच्छा, तो जा।"
जमनी चमन की उदासी पहचान गयी। उसे भी आज, जिसे दोनों पैरों से लँगड़ा माना था और आवाज़ से जिसकी कल्पना की थी, उस चमन को छोड़कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था। आखिर अपनी राह पकड़ते जमनी ने पूछा, "कल आयेगा न?"
"फिर तू गालियाँ तो नहीं देगी?"
"ऐसा क्यों बोलता है। मैंने तुझे कब गाली दी?" चेहरे पर कृत्रिम रोष था।
“अच्छा, चल ।" चमन ने हँसते-हँसते कहा और फिर पेड़-तले के अपने घर को कोई हड़प न कर गया हो उस चिन्ता में हाथ से चौकड़ी भरता वह सरकने लगा।
गर्मियों का समय था इसलिए दोनों को बिस्तर का झंझट कम था।
फिर तो रोज जमनी और चमन उस रास्ते पर बैठते और फुर्सत की घड़ी में बातचीत भी करते।
एक दिन जमनी पुकार रही थी, “माई-बाप ! कोई..." इतने में कटोरे में कुछ बज उठा । जमनी ने हाथ छूकर देखा और पाई-पैसे के बदले कंकड़ हाथ आने पर पास में बैठे चमन को मारते कहा, “शैतान कहीं का!" और उल्टी दिशा से चमन को खुलकर हँसता सुन बोली, "अब आना मेरे पास !" चमन तो हँस ही रहा था।
आज जमनी का अक्षयपात्र रूठा था। शाम ढलने तक सिर्फ चार पाई मिली थीं। साड़ी के आँचल की तिजोरी में बँधे चार आने में से खाना पड़ेगा, इस सोच में वह उदास थी। चमन को भी आज पैसा ही मिला था। पर उसे तो अपने पास साबुत पड़े दो रुपये की गरमी थी।
"चल अब, बखत हो गया। जाना नहीं ?" चमन ने पूछा।
"बैठ न ! कोई दयालु आ जाय तो।" जमनी बोली।
चमन जमनी की उदासी का कारण समझ गया।
इतने में जमनी के कानों ने जूते की आवाज़ सुनी। “कोई अन्धी को दो, माईबाप !" कटोरे में कुछ पड़ता सुन, "जीते रहो सेठ, भगवान् तुम्हारा वंश आगे बढ़ाये ।" और कटोरे में से पैसा हाथ में आने पर चेहरे पर खुशी नाच उठी।
"जमनी ! वंश आगे कैसे बढ़े, जब बीवी ही न हो? ऐसा बोल कि भगवान् औरत दे।" कहकर चमन हँसने लगा।
जमनी समझ गयी। वह जूते तो सीधे चले जाते सुने थे। हो न हो, यह करतूत चमन की है, यह सोच जमनी बोली, “यह ले अपना पैसा।"
"पैसे का क्या करूँ ? मुझे तो औरत मिले, ऐसी दुआ चाहिए।"
"वह भी मिलेगी, ले।" चमन की ओर पैसा लिये बढ़ा हाथ यों ही रख जमनी बोली।
"दान में दिया हुआ वापस नहीं लेते।"
“अँ एँ...तुझे लेना ही होगा।"
"एक शर्त पर लूं।" जरा करीब खिसकते चमन ने कहा।
धरती के आंगन में अन्धकार गरज रहा था पर दोनों में से किसी को भी सुध नहीं थी।
"क्या ?" जमनी ने उत्सुकताभरी आवाज से पूछा।
"तू आज मेरे घर मेहमान बन।" चमन ने छाती पर हाथ रख कहा।
जमनी सोच में पड़ी और थोड़ी देर बाद बोली, "पर तू ही मेरे साथ चल न !"
"ऐसी जगह वहाँ नहीं होगी, जमनी ! यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है। इन कोऽयों से कुछ दूर खुले में एक नीम है । वहाँ कोई नाम तक नहीं लेगा।" और कुछ देर खामोश रहकर फिर आगे कहा, "आज न जंचे तो कल मत आना।"
"अच्छा तो फिर चल।" कहते जमनी उठी।
चमन का दिल काँप उठा, मानो भक्त के घर भगवान् पधार रहे हों।
"ठहर जरा, कुछ पकौड़ियाँ ले लें। तू यहाँ खड़ी रह । मैं तो यूँ गया और यूं आया।" हाथों से चौकड़ियाँ भरता चमन बोला और नजदीक होटल में से सेर पकौड़ियाँ लेकर कन्धे से लिपटे कपड़े में बाँधकर थोड़ी ही देर में लौट आया।
"अब चल", चमन आगे होता बोला। पीछे आवाज़ की लाठी से राह टटोलती जमनी चल दी।
चमन का घर आ गया। धरती माँ ने जिसे आत्मा का अमृत पिलाकर पाला था, प्रकृति ने जिसे नन्हीं हल्की पंखुड़ियों से ढंका था, अनिल जिसे हमेशा हँसाता था, खिलाता था और बीमारी जिससे तौबा करती थी, ऐसी नीम के नीचे उसका घर था। चारों ओर मैदान का खुला आँगन था। नीचे हमेशा बिछी रहती धूल की शैया पर फैलते चमन ने जमनी से कहा, "बैठो।"
फिर पकौड़ियों की पुड़िया खोल दोनों खाने लगे। जमनी की भूख आज कहीं भाग गयी थी । पर पकौड़ियों के स्वाद से कुछ जग उठी थी। उसने हाथ से टटोलते पूछा, "तू कुछ खा भी रहा है या नहीं?"
"खा रहा हूँ न !" चमन ने जमनी के हाथ को छूते हुए पकौड़ी उठाते कहा। उसे तो आज मानो जिन्दगी भर की कामना पूरी हुई हो, ऐसा लग रहा था।
कुछ देर बाद फिर जमनी बोली, "चण्ट कहीं के ! पकौड़ियाँ तो उतनी हो लग रही हैं।" और "नहीं-नहीं, खा रहा हूँ न !" सुनकर चमन से पूछा, “खा मेरी कसम ?" पर जब चमन कुछ नहीं बोला तब, "ऐसे नहीं, चल आधे-आधे बाँट लें।" कहकर दोनों हाथों से हिस्से कर अपनी पकौड़ियों पर एक हाथ रखकर खाने लगी।
"तूने तो कम ली?"
"मुझे ज्यादा नहीं खाना है।" जमनी ने कहा।
खा-पीकर निपटने के बाद चमन जमनी को कुछ दूर बने नल पर ले गया। दोनों जने पानी पीकर लौटे और लेटकर देर रात तक बातें करते-करते सो गये।
फिर तो जमनी और चमन साथ-साथ माँगने जाते, साथ ही खाते और साथ ही रहने लगे।
बारिश शुरू हो गयी थी। चमन को मकान बदलने की जरूरत लगी। "तू बैठ, मैं कुछ ठीक जगह देख आऊँ।" कहकर चमन दोनों हाथों के बीच देह झुलाता निकला।
"देख, बहुत दूर मत जाना । थक जायेगा और जल्दी वापस आना।" जमनी ने कहा और फिर ग्राहकों से दया की याचना करने लगी।
घर खोजकर चमन देर से लौटा । और कुछ देर बाद आकाश का अगिन-गोला क्षितिज के जबड़ों में जश्य होने पर दोनों उठे।
कुछ दूर जाने के बाद दूर से ढाबा देखकर चमन के मुंह में पानी आ गया। "जमनी ! दो पैसे मेरे पास हैं । अगर एक आना दे तो दाल-चावल ले आऊँ । बहुत दिन हो गये, आज जी कर रहा है।"
साथ रहने के बाद दोनों की लक्ष्मी जमनी की साड़ी की गांठ में बँधी रहती।
"यह ले, मैं कहाँ ना करती हैं ? पर लायेगा किसमें ?"
"एक दोना मैंने छिपा रखा है ढाबे के पास, गटर के छेद में । तू नहीं थी तब किसी-किसी दिन वहाँ खाने जाता था।"
"पर तू कैसे ला पायेगा? चल, मैं भी आती हूँ।" जमनी बोली।
ढाबे के पास जाकर चमन ने फुटपाथ के किनारे पानी जाने के लिए बने छेद में से दोना निकालकर एक लड़के से कहा, "भाई, छह पैसे के दाल-चावल देना जरा!"
कुछ देर बाद लड़का दाल-चावल डालने आया।
"सब्जी नहीं लाये, भाई सा'ब?" चमन ने सिर्फ दाल-चावल देख पूछा।
"लेना हो तो ले, वरना चलता बन । साली जात भिखारी की और स्वाद के चटखारे तो देखो।" गल्ले पर बैठे सेठ ने कहा।
चमन ने दोना बढ़ाया।
"अरे, पैसे लिये ?" सेठ ने पूछा।
लड़के ने पहले पैसे रखवाये और फिर दाल-चावल दोने में डाल पैसे लेकर चल दिया। चमन-जमनी की टूटी-फूटी गाड़ी भी चल दी।
बारिश की बूंदों से बचाने के लिए दोने पर पल्ल ढंकती जमनी को चमन ने कहा, "गिरने दे? दाल-चावल बढ़ जायेगा । कहीं गिर-पिर जायेगी।"
एक दीवार पर नाग के फन की तरह झुके पेड़ के नीचे थमते चमन बोला, "बैठ, देख यहाँ एक बूंद भी नहीं गिरती है !"
"अच्छा ढूंढ़ निकाला है ! एकदम सूखा है।" जमनी ने बैठते हुए कहा ।
"मैंने तो पिछले साल भी यहाँ बारिश काटी थी।" चमन ने कहा। और जमनी का कन्धा हिलाते हुए जोड़ा, "पर उस वक्त जमनी नहीं थी। रात मानो काटने दौड़ती थी।" फिर दोनों जन, बीच में कटोरा रख खाने लगे।
"तू दीवार की तरफ़ सो जा।" जमनी ने फुटपाथ के किनारे की तरफ़ खिसकते हुए चमन से कहा।
"नहीं, उस ओर तू सो जा।" चमन ने कहा ।
और इस तरह काफ़ी झिकझिक के बाद जमनी दीवार की तरफ़ सोयी। बगल में चमन सोया।
इस तरह दीवाली के दिन आये। जमनी को पहले वाली रोज की जगह पर छोड़ चमन अपने दोनों हाथों के घोड़े पर सवार होकर दूर-दूर के मन्दिर में भटककर सुखी लोगों की दया से पाई-पैसा पाकर, उसकी मिठाई खरीदकर शाम को जमनी को डेरे पर ले जाकर उसके सामने रखता।
"तू खा न !" जमनी कहती।
"मैंने तो खाया है, तू खा।" कहकर चमन इनकार करता।
"न, खाया है तो भी दुबारा खा । पर इस तरह अकेली मैं नहीं खाऊँगी।" और इस तरह जब चमन को खाना ही पड़ता, तब जमनी पलकें नचाकर कहती, "मैं तुझे पहचानती हूँ ? पर कल से तू मत जाना। इस तरह भटकते-भटकते तू कहीं किसी मोटर गाड़ी के नीचे आ जायेगा। आग लगे इस खाने में । जीभ को तो स्वाद करवाओ उतने कम।"
"बस यह दो दिन । फिर कहाँ ऐसे चार-चार आने मिलेंगे और कहाँ ऐसा खायेंगे!"
"न मिले न सही ! थोड़ा मिलेगा तो सस्ता खायेंगे।"
दीवाली भी बीत गयी।
एक दिन रात में सर्दी बढ़ते देख चमन ने बगल में सोयी जमनी से पूछा, "जमनी, कितने पैसे हैं ?"
"दो रुपये और एक अठन्नी बंधे हैं। कुछ और पाई हैं। क्यों, किस लिए पूछा?"
कल हाट में से एक ओढ़ना और लहँगा ले आऊँ" फिर जमनी की देह पर नजर दौड़ाते हुए जोड़ा, "देख, तेरे कपड़े ! इसमें से एक टुकड़ा भी साबुत न निकले।"
"तेरे भी कहाँ अच्छे हैं ?" और लेटे हए चमन के शरीर पर हाथ फेरते, "यह''यह, जैसे-तैसे गाँठे लगाकर तो टिकाया है।"
"मेरी बात तो और है।"
"नहीं, अगर लाये तो दोनों के लिए लाना, वरना मैं नहीं पहनूंगी, हाँ!" जमनी ने कहा।
बढ़ती सर्दी में दिन उगने से पहले जमनी और चमन रोज़ की जगह पर आ बैठे थे। देवी शरीर में आयी हो, ऐसे कांप रहे थे। मुंह गुहार रहा था, "कोई दयालु, दया करो सेठ !" पर दयालु की शामत आयी थी जो ऐसे समय में जेब से हाथ बाहर निकाले ?
अखबार वाले तेज चाल से सर्दी को मात देते पुकार रहे थे, "जगह-जगह पर हिमवर्षा ! पाले में फसल का सर्वनाश..."
"आज तो कड़ाके की ठण्ड है, जमनी ! गुदड़ी लपेटी है फिर भी कलेजा काँप रहा है !" चमन ने बजते हुए दाँत से बात कही।
"यहाँ मेरे पास सटकर बैठ न !"
"ना रे ना, कोई पाई-पैसा दे रहा होगा वो भी नहीं देगा।" चमन ने चुटकी लेते हुए कहा।
"तो फिर कहीं धूप में जाकर बैठ। अब तो धूप निकल आयी होगी।" जमनी ने कहा । और खुद लपेटी हुई करीब चार सेर वज़न के चिथड़ों की गुदड़ी निकाल कर बोली, “ले, यह गुदड़ी ले जा।"
"अरे ना, तू रहने दे। वहाँ धूप में जाकर बैठता हूँ।" कहकर चमन सरकने लगा, धीरे-धीरे । आज उसके हाथ स्थिर नहीं रहते थे ।
दोपहर होने को आयी तब भी चमन की ठण्ड गयी नहीं। जमनी को शक हुआ। “कहीं बुखार तो नहीं ?" कहते चमन के शरीर को हाथ लगाते बोल पड़ी, "हाय राम ! क्या ठण्ड-ठण्ड लगा रखी है ? शरीर तो बुखार में झुलस रहा है !"
"वह तो ऐसे ही।" जमनी का चेहरा जर्द होता देख चमन ने कहा।
"ऐसे ही क्या, तेरा सिर ! यह ले गुदड़ी और सो जा ओढ़कर।"
इस बार चमन इनकार न कर सका। इनकार करना उसे उचित न लगा और दोनों गुदड़ियाँ ओढ़कर दीवार से लगकर काँपता हुआ लेट गया।
बीच-बीच में जमनी ने दो-तीन बार, "पानी-वानी पीना है ?" "सोडा ले आऊँ?" आदि पूछा और रोज़ के समय से पहले चमन को लेकर डेरे पर आ गयी।
चमन के शरीर पर रोटियां सेंक लो, उतना बुखार था। जमनी ने उसे दीवार से सटकर लिटाया, दोनों गुदड़ियाँ ओढ़ायीं और चमन के दूसरी तरफ़ खुद सारी रात जागती रहकर उसे गरमाहट देती रही।
"जमनी, बेला हो गयी, तू जा।" सुबह होने पर चमन ने कहा।
"तुझे ऐसे ही छोड़कर ?" जमनी ने कहा।
"तू जा जमनी ! मैं तो यहीं लेटा रहूँगा। मुझे तो कुछ भी नहीं होने का। मेरी बात और है, पर तु क्या खायेगी ? और तो और, तू तो कल से एकदम भूखी है, चल जा।" कहकर चमन ने उसे जबरदस्ती ढकेला।
अगर बचे-खुचे पैसे कपड़े और गुदड़ी में खर्च कर नहीं डाले होते तो जमनी नहीं जाती और पेट को कभी लाज-शरम होती है ? और फिर उसके बैठे रहने से भी क्या? थोड़े ही कुछ दवा-दारू या कुछ सेक-वेक करना है ? पर फिर भी वहाँ से हटने का उसका दिल नहीं था। आखिर में जब चमन ने बोलना बन्द नहीं किया तब, "देख, सिर ढंक के लेटे रहना। और पानी पीना पड़े तो कटोरे में तुम्हारे सिरहाने भरकर रखा है।" कहकर जमनी उठी और रोज़ के ठिकाने पर जाकर भीख मांगने की नौकरी पर चढ़ गयी । मन चमन में था और जुबान रोजमर्रा की राह पर चल रही थी, "अन्धी पर कोई दया करो, माई-बाप !..." पर मन किसी की चाल सुनने में या बातचीत के परख में नहीं था।
कुछ देर हुई होगी उतने में कान में आवाज़ आयी, “अन्धी, उठ इधर से..." जमनी समझी नहीं, कौन किसे कह रहा है। उसने तो बोलना जारी रखा, “कोई दयालु.." पर यह वाक्य पूरा न हो सका । “साली मानती ही नहीं है ! उठ इधर से।" एकदम करीब से आवाज आयी। जमनी समझ गयी कि पुलिस चाचा है।
"सा'ब ! अन्धी हूँ ! भीख मांगकर पेट भरती हैं ! क्यों..."
"अबे उठ, जा दूसरी जगह पर बैठ, गवर्नर सा'ब इधर से निकलेंगे, तुम्हें पता नहीं ! उठ वरना अभी लगाता हूँ।"
जमनी उठी। और अपने घर की ओर मुड़ी। इतने में फिर से वही आवाज़ आयी, “अबे उधर कहाँ जाती है, इस तरफ़ जा !"
"सा'ब...!"
"सूनती नहीं और सा'ब-सा'ब करती है ?" पुलिस चाचा भड़क गये और हाथ पकडकर विपरीत दिशा में घुमाते हुए बोले, “जा इधर से होकर जल्दी निकल जा!"
जमनी को लाचार होकर उलटी दिशा पकड़नी पड़ी। कुछ दूर गयी होगी कि दूसरी आवाज आयी, “ए निकल जल्दी।" जमनी के प्राण चमन में बसे हए थे । अन्धे पैर अनजान राहों पर आगे ही आगे बढ़ते ही जा रहे थे । बारबार अलग-अलग आवाज, पर वही वाक्य टकराते थे, “अबे, चल जल्दी निकल !" तो फिर एक दूसरी आवाज़, "बिचारी अन्धी है । कहाँ जायेगी?" ऐसी आवाज सुनकर हिया जुड़े न जुड़े इतने में सुना, "अरे मियाँ, गवर्नर सा'ब के आने का वक्त हो गया है !" और फिर उसी से मुखातिब आवाज़, "चल-चल, जल्दी चल..."
जमनी कहीं दुबककर बैठने का विचार कर हाथ से दीवार टटोलने लगी। इतने में एक गली जैसा लगते जमनी सीधे अन्दर चली तो वहाँ सुना, “यहाँ कहाँ जा रही है ? बाहर जा।" लाचार होकर वापस टूटी हुई दीवार का छोर ढूँढ़ निकाला और चलने लगी। आवाज तो आ ही रही थी, "चल, जल्दी चल।" . जमनी को समझ में न आया कि यह 'गवंडर' ऐसा कैसा आदमी होगा कि जगह-जगह पर पुलिस चाचा खड़े हैं और वह खुद उनका क्या बिगाड़ लेगी? और फिर जैसे-जैसे कदम बढ़ाती वैसे-वैसे चमन की याद आ रही थी। मन में चिन्ता गहरे में पैठ गयी थी-उसकी ऐसी दशा होगी, तो वह कहाँ जायेगा, क्यों कर जायेगा? इतने में दीवार ने धोखा दे दिया। जमनी को विश्वास था कि धरती दगा नहीं देगी और अन्दाजन वह सीधे चलने लगी। इतने में आवाज़ आयी, "वहाँ उधर दाएँ हाथ पर गली में मुड़ जा !" मोड़ आते गली में मुड़ गयी और दूर तक गयी तब तक आवाज़ आती रही, "उधर मत बैठना और आगे जा।" और इस तरह जमनी किसी गहरी और गहरी गुफा में जा रही हो, उस तरह चलने लगी। कुछ देर कोई आवाज नहीं सुनायी देने पर छुटकारे की साँस लेकर बैठ गयी और अपने जैसी चमन की स्थिति सोचकर आँसू बहाने लगी। अच्छा था कि देखने की राह बन्द थी, आँसू बहाने की नहीं !
जमनी का सोचना ग़लत नहीं था। उसके जाने के कुछ देर बाद चमन को कोई राक्षसी हाथों से झंझोड़ता हुआ कहने लगा, “उठ, अबे उल्लू ! अभी तक सोता है ?"
चमन ने आँख खोलकर देखा तो पुलिस चाचा के ही पैर झंझोड़ रहे थे । वह उठे न उठे इतने में तो दुबारा उनका पैर चला। "चल, उठ। देखता क्या है ? उठा ये सब।"
"सा'ब बुखार...आया है ! यहाँ बैठने दें..."
“अबे चल, बैठने वाले की जोरू, बुखार आया है तो जा अस्पताल । चल, उठ जल्दी ।"
चमन ने पुलिस चाचा की लातों का स्वाद कई बार खाया था। उसने जाने की तैयारी की । वह ठण्ड से काँप रहा था । बुखार की भट्ठी रोम-रोम में सुलग रही थी। हाथ के पंजे में तिनका उठाने की भी ताक़त नहीं थी। सम्पत्ति के नाम पर गुदड़ी और कटोरा छोड़कर जाने का उसे मन न हुआ। पर पुलिस चाचा उस शोभा को थोड़े ही रहने देते ! "चल हटा सब, कितनी देर...चल !"
चमन ने पीठ पर गुदड़ियाँ लादी और 'हे राम!' कहकर खिसकने लगा। उसने सोचा, चलो जमनी की तरफ़ जाऊँ, कुछ दूर से बुलाकर कहूँगा, इतने में तो पुलिस चाचा बोले, "ऐ, उधर कहाँ जाता है ? इस रास्ते पर तो अभी गवर्नर सा'ब निकलने वाले हैं, उधर जा और उस गली में मुड़ जाना।"
चमन लौटा और चींटी की चाल से चलने लगा । बार-बार उस पुलिस चाचा की आवाज़ धक्के दे रही थी, "चल, जल्दी निकल जा।" आखिर गली में मुड़ने पर एक पानी के नल लगे पक्के चबूतरे की आड़ देखकर वह उसके पीछे छिप गया। हाँफना इतना तेज़ था कि वह पूरी साँस भी नहीं ले पा रहा था। बुखार मानो घोड़े पर चढ़कर आया था। अंग-अंग पेड़ की पत्तियों की तरह काँप रहा था । आँखों की रोशनी गहरे में डूबने लगी। जान जमनी में जाकर अटक गयी। जबान के बदले दिल कहने लगा, "जमनी, जमनी!" कुछ देर बाद ठण्ड कम हुई, दिल ने एकाध-दो पछाड़ें खायौं, 'जमनी, जमनी' और बुखार चेतना लेकर चंपत हो गया ! देह लकड़ी जैसी होकर पड़ी रही।
दिन काफी चढ़ आया होगा। ऐसे में जमनी ने जूते की आवाज करने वाले से पूछा, "सेठ, गवंडर सा'ब गये ?" उस आदमी को जरा आश्चर्य हुआ पर पूछने की फुरसत न थी, "हाँ, चले गये।"
जमनी फटाफट उठी और दिमाग से पूछती-पूछती गिरती-पड़ती चलने लगी, उसी रास्ते पर जहाँ से आयी थी। ठिकाने पर आ पहुँचने पर उसके दिल ने चैन की साँस लेते कहा, "अब कोई फिकर नहीं। अब तो पहुँच जाऊंगी।" और धड़कते दिल से लम्बे-लम्बे डग भरती घर की ओर बढ़ी। दिल बार-बार शक कर रहा था, "चमन वहाँ होगा या नहीं?" मन ढाढ़स बँधाता, "और कहाँ जायेगा, होगा! ऐसे बुखार में तड़पते आदमी को कोई निकाल तो नहीं देगा? और निकाला होगा तब भी यहीं कहीं होगा।" इस तरह घर-सोने का ठिकाना आ गया। जमनी ने बुलाया, “चमन ! ओ चमन !" और हाथ द्वारा दस-दस हाथ धरती टटोल डाली । पर हो तब न ! उसने जोर से पुकारा, "चमन ! ओ चमन !" जवाब न मिलने पर दिल तड़प उठा। उसे आँखों का न होना जितना आज अखरा, उतना शायद कभी नहीं अखरा । गले में कुछ फंस गया। आँखें छलकने लगीं। कुछ दूर जाकर फिर बड़ी मुश्किल से उसने पुकारा, "चमन!"
राह चलते एक-दो जनों ने आवाज़ सुनी, “पागल लगती है।" जमनी ने उससे पूछा, “सेठ, यहाँ कहीं चमन को देखा? पैर से लँगड़ा है, सेठ?" चले जाते सेठ का उत्तर आया, "नहीं।" जमनी का दिल पंगु हो गया। उसने चलना जारी रखते हुए एकदम आँसू भरी आवाज से फिर पुकारा, "चमन ! कहाँ गया? ऐ चमन !"
"अरे क्यों कब से चिल्ला रही रही है ? किसे ढूंढ़ रही है ?" एक सन्तरा बेचने बैठे मुसलमान ने पूछा।
"तुमने उसे देखा कहीं, दोनों पैर से लँगड़ा है ? उसे बुखार आ रहा था। कौन जाने कहाँ..."
"अरे, हाँ, पास में दो गुदड़ी थी न ? और एक तसला और दोनों पैर से लँग..."
"हाँ-हाँ, सेठ ! वही, वह कहाँ है, सेठ ? मुझ अन्धी को..!"
"अरे उसे तो अभी म्युनिसिपालिटी की गाड़ी में डालकर ले गये । थानेदार सा'ब भी अभी गये । उधर नल के पास मरा हुआ पड़ा था।" उस मुसलमान ने कहा।
"क्या? चमन मर गया? क्या यह सच्ची बात है, सेठ?" जमनी ढेर होती हुई फटी आवाज से पूछ बैठी और फिर पलकों के किनारे से वेग से बहते आँसुओं के साथ डूबती आवज़ में, "चमना ! तू...मर ग...!!" बोलते-बोलते गिर पड़ी।
मियाँ ने कन्धे पर सन्तरे की टोकरी रखी, "इस साली बला को मैंने क्यों कह दिया? मर जायेगी तो बला सिर पड़ेगी! न लेना, न देना, खामख्वाह...' बड़बड़ाते चल दिया।
प्रकाशन वर्ष : 1940
(अनुवाद : डॉ० बिन्दु भट्ट)