Sudas (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

सुदास् (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

7. सुदास्
देश : कुरु-पंचाल (पश्चिमी युक्त प्रान्त)
जाति : वैदिक आर्य
काल : १५०० ई० पू०

1.

बसन्त समाप्त हो रहा था। चनाव (चन्द्रभागा) की कछार में दूर तक पके गेहुँओं के सुनहले पौधे खड़े हवा के झोकों से लहरा रहे थे, जिनमें जहाँ तहाँ स्त्री-पुरुष गीत गाते खेत काटने में लगे हुए थे। कटे खेतों में उगी हरी घास चरने के लिए बहुत-सी बछेड़ों वाली घोड़ियाँ छोड़ी हुई थीं। धूप में एक पान्थ आगे की ओर अपने भूरे केशों के जूट को दिखलाते हुए सिर में फटे कपड़ों की उष्णीष (पगड़ी) बाँधे, शरीर पर एक पुरानी चादर लपेटे, घुटनों तक की धोती (अन्तरवासक) पहने हाथ में लाठी लिए मन्दगति से चला जा रहा था। प्यास के मारे उसका तालू सूख रहा था। पथिक ने हिम्मत बाँधी थी अगले गाँव में पहुँचने की; किन्तु मार्ग के बगल एक कच्चे कुएँ तथा छोटे से शमी वृक्ष को देखकर उसकी हिम्मत टूट गई। उसने पहले अपने उष्णीय वस्त्र, फिर नंगे होकर धोती, तथा एक बार दोनों को जोड़कर छोर को पानी में डुबाने की कोशिश की; किन्तु वह सफल नहीं हुआ। अन्त में निराश हो पास के वृक्ष के सहारे बैठ रहा। उसे जान पड़ने लगा कि फिर इस जगह से उठना नहीं होगा। उसी वक्त एक कन्धे पर मशक, दूसरे कन्धे पर रस्सी तथा हाथ में चमड़े की बाल्टी लिए एक कुमारी उधर आती दिखाई पड़ी। पान्थ की छूटी आशा लौटने लगी। तरुणी ने कुएँ पर आकर मशक को रख दिया, और जिस वक्त वह बाल्टी को कुएँ में डालने जा रही थी, उसी वक्त उसकी नजर यात्री के चेहरे पर पड़ी। उसका चेहरा मुरझाया हुआ था, ओठ फटे, गाल चिपके, आँखें कोटरलीन, पैर नंगे धूल-भरे थे। किन्तु इन सबके पीछे से उसकी तरुणाई की झलक भी आ रही थी।

पथिक ने स्वर्णकेशों पर कुमारियों की संजा, शरीर पर उत्तरासंग (चादर), कंचुक और अन्तरवासक (लुँगी) के साधारण, किन्तु विनीत वेश को देखा। धूप में चलने के कारण तरुण का मुख अधिक लाल हो गया था, और ललाट तथा ऊपरी ओठ पर कितने ही श्रमबिन्दु झलक रहे थे। कुमारी ने थोड़ी देर उस अपरिचित पुरुष की ओर निहार कर माद्रियों की सहज मुस्कराहट को अपने सुन्दर ओठों पर ला तरुण की आधी प्यास को बुझाते हुए मधुर स्वर में कहा-

‘‘मैं समझती हूँ तू प्यासा है भ्रातर !"

पथिक ने साहसपूर्वक अपने गिरते कलेजे को दृढ़ करने में असफल होते हुए कहा-"हाँ, मैं बहुत प्यासा हूँ।"

“तो मैं पानी लाती हूँ।"

तरुणी ने बाल्टी में पानी भरा। तब तक तरुण भी उसके पास आकर खड़ा हो गया था। उसका दीर्घ गोत्र और मोटी हडि्डयाँ बतला रही थीं कि अभी उनके भीतर से असाधारण पौरुष लुप्त नहीं हुआ है। मशक से लटकते चमड़े के गिलास को पथिक के हाथ में दे तरुणी ने उसमें बाल्टी से पानी भर दिया। पथिक ने बड़ी घूँट भरी और गले से उतारने के बाद नीचे मुँहकर बैठ गया। फिर एक सँस में गिलास के पानी को पी गया। गिलास उसके हाथ से छूट गया और अपने को सँभालते-सँभालते भी वह पीछे की ओर गिर पड़ा। तरुणी जरा देर के लिए अवाक् रह गई। फिर देखा, तरुण की आँखें उलट गई हैं, वह बेहोश हो गया है। तरुणी ने झट से अपने सिर से बँधे रुमाल को पानी में डुबा तरुण के मुख और ललाट को पोंछना शुरु किया। कुछ क्षण में उसने आँखें खोलीं फिर तरुण कुछ लज्जित--सा हो क्षीण स्वर में बोला-‘‘मुझे अफसोस है कुमारि ! मैंने तुझे कष्ट दिया।”

"मुझे कष्ट नहीं है, पर मैं तो डर गई थी, ऐसा क्यों हुआ ?"

"कोई बात नहीं, खाली पेट था, प्यास में बहुत पानी पी गया। किन्तु अब कोई हर्ज नहीं।"

"खाली पेट ?"-कह पथिक को बोलने का कुछ भी अवसर दिये बिना तरुणी वहाँ से दौड़ गई और थोड़ी देर में एक कटोरे में दही, सत्तू और मधु लेकर आ उपस्थित हुई । तरुण के चेहरे पर संकोच और लज्जा की रेखा फिरी देख

कुमारी ने कहा-"तू संकोच न कर पथिक ! मेरा भी एक भाई कई साल हुए घर से निकल गया है। यह थोड़ी-सी तेरी सहायता करते वक्त मुझे अपना भाई याद आ रहा है।"

पथिक ने कटोरे को ले लिया। तरुणी ने बाल्टी से जल दिया। तरुण सत्तू घोल कर धीरे-धीरे पी गया। पीने के बाद उसके चेहरे की आधी मुरझाहट जाती रही और अपने संयत मुख की मूक मुद्रा से कृतज्ञता प्रकट करते हुए वह कुछ बोलने की सोच ही रहा था, कि तरुणी ने मानों उसके भावों को समझकर कहा-"संकोच करने की जरुरत नहीं भ्रातर ! तू दूर से आया मालूम होता है ?"

"हाँ, बहुत दूर पूरब से-पंचाल से ।"

"कहाँ जायेगा ?"

"यहाँ, वहाँ कहीं भी।”

"तो भी।"

"अभी तो कोई काम चाहता हूँ, जिसमें अपने तन और कपड़ों की व्यवस्था कर सकूँ।”

"खेतों में काम करेगा?"

"क्यों नहीं ? मैं खेत काट-बो-जोत सकता हूँ। खलिहान का काम कर सकता हूँ। घोड़े-गाय की चरवाही कर सकता हूँ। मेरे शरीर में बल है; अभी सूख गया है । किन्तु थोड़े ही समय में मैं भारी बल के काम को भी करने लगा। कुमारि ! मैंने कभी अपने किसी मालिक को नाराज नहीं किया।”

"तो मैं समझती हूँ, पिता तुझे काम पर रख लेंगे। पानी भरती हूँ, मेरे साथ चलना ।"

तरुण ने मशक ले चलने की बहुत कोशिश की; किन्तु तरुणी राजी न हुई। खेत में एक लाल तम्बू लगा था, जिसके बाहर चालीस के करीब स्त्री-पुरुष बैठे थे। तरुण पहचान नहीं सकता था कि इनमें कौन तरुणी का पिता है। सबके एक-से सादे वस्त्र, एक-से पीले केश, गोरा शरीर, अदीन मुख। तरुणी ने मशक और बाल्टी को उतार बीच में बिछे चमड़े पर रखा, फिर साठ वर्ष के एक बूढ़े किन्तु स्वस्थ बलिष्ठ आदमी के पास जाकर कहा-

"यह परदेशी तरुण काम करना चाहता है, पितर ।"

"खेतों में दुहितर ?"

"हाँ, कहीं भी।"

“तो यहाँ काम करे। वेतन जो यहाँ दूसरे पुरुषों को मिलेगा, वही इसे भी मिल जायेगा।"

तरुण सुन रहा था। वृद्ध ने यही बात उसके सामने दुहराई, जिसे उसने स्वीकार किया। फिर वृद्ध ने कहा-"आ तरुण ! तू भी आ जा। हम सब मध्यान्ह भोजन कर रहे हैं।"

"अभी मैंने सत्तू पिया है, तेरी दुहिता ने दिया था, आर्य !"

“आर्य-वार्य नहीं मैं जेता ऋभु-पुत्र माद्र हूँ। तू जो कुछ भी खा-पी सके खा-पी। अपाला ! मैरेय (कच्ची शराब ) देना, अश्विनीक्षीर का । धूप में अच्छा होता है। तरुण ! बात शाम को कराँगा, इस वक्त नाम-भर जानना चाहता हूँ।"

"सुदास् पांचाल" ।

"सुदास् नहीं, सुदाः-सुन्दर दान देने वाला। तुम पूरब वाले भाषा भी ठीक से बोलना नहीं जानते ? पंचाल जनपद से ? अच्छा अपाले ! यह पूरब वाले लज्जालु होते हैं। इसे खिलाना, जिसमें शाम तक कुछ काम करने लायक हो जाय।"

सुदास् ने अपाला के आग्रह पर मेरय के दो-तीन प्याले पिये और एकाध टुकड़ा रोटी का गले से नीचे उतारा। दो दिन से भूखे रहने के कारण उसकी भूख मर-सी गई थी।

जैसे-जैसे सूर्य की प्रचण्डता मन्द होती जा रही थी, वैसे ही वैसे सुदास् अपने भीतर नई स्फूर्ति आती देख रहा था, और शाम को काम छोड़ने से पहले गेहूँ काटने में वह किसी से कम न था।

रात को लोग वहाँ से दूर खलिहान-घरों के पास गए। जेता की खेती बड़ी थी, वह खलिहान में रात को जमा हुए दो सौ से ऊपर कमकर बतला रहे थे। खलिहान के घरों में खाना बनाने वाले अपने काम में लगे हुए थे। एक भारी बैल मारा गया था, जिसकी हड्डियों, अँतड़ियों और कुछ माँस को एक-बड़े देग में तीन घंटा दिन रहते ही चढ़ा दिया गया था। बाकी आध-आध सेर के टुकड़े नमक के साथ उबाले जा रहे थे। घरों के बाहर एक भारी चिकना मैदान खलिहान के लिए था, जिसके एक ओर एक पक्का कुआँ तथा पानी से भरा कुण्ड था। स्त्री-पुरुषों ने कण्ड पर जाकर हाथ-मुंह धोये । जिन्हें शरीर धोने की इच्छा थी, उन्होंने शरीर भी धोया।अँधेरा होने के साथ पाँती से बैठे स्त्री-पुरुषों के सामने रोटी, माँस खंड और सुराभांड रखे गए। सुदास की लज्जा का ख्याल कर अपाला-पानी लाने वाली–ने उसे अपने पास बैठाया, यद्यपि इसमें उसकी लज्जा का उतना ख्याल न था; जितना कि परदेश गए भाई की स्मृति का । भोजन-पान के बाद गान नृत्य शुरू हुआ जिसमें यद्यपि सुदास् आज सम्मिलित नहीं हो सका; किन्तु आगे चलकर वह सर्वप्रिय गायक और नर्तक बना।

खेत की कटाई, ढोलाई और दॆवाई डेढ़ महीने तक चलती रही; किन्तु दो सप्ताह बीतते बीतते ही सुदास् पहचाना नहीं जा सकता था। उसकी बड़ी-बड़ी नीली आँखें उभर आई थीं। उसके गालों पर स्वाभाविक लाली दौड़ चुकी थी। उसके शरीर की नसें व हड्डियाँ पेशियों से ढंक रही थीं ।

जेता ने सप्ताह बाद ही उसे नए कपड़े दे दिए थे। खलिहान करीब-करीब उठ चुका था। छ:-सात आदमियों-जिनमें बाप-बेटी और सुदास् भी थे-को छोड़ बाकी लोग अपने अनाज को लेकर चले गए थे। इन लोगों के पास खेत थोड़े थे, इसलिए अपने खेतों को काटकर वह जेता के खेतों में काम करने आए थे। इन डेढ़ महीनों में जेता और उसकी लड़की अपने तरुण कमकर के सरल, हँसमुख स्वभाव से परिचित हो चुके थे। एक दिन संध्या-सुरा के बाद जेता ने सुदास् से पूरब वालों की बात छेड़ दी। अपाला भी पास बैठी सुन रही थी। जेता ने कहा-"सुदाः ! पूरब में मैं बहुत दूर तक तो नहीं गया हैं, किन्तु पंचालपुर (अहिच्छत्र) को मैंने देखा है। मैं अपने घोड़ों को लेकर जाड़ों में गया था।”

"पंचाल (रुहेलखंड) कैसा लगा, आर्यवृद्ध ?"

"जनपद में कोई दोष नहीं। वह मद्र-जैसा ही स्वस्थ-समृद्ध है, बल्कि उसके खेत यहाँ से अधिक उपजाऊ मालूम हुए; किन्तु..."

"किन्तु क्या ?"

क्षमा करना सुदाः ! वहाँ मानव नहीं बसते ।"

"मानव नहीं बसते ? तो क्या देव या दानव बसते हैं ?"

"मैं इतना ही कहूँगा कि वहाँ मानव नहीं बसते ।

"मैं नाराज नहीं होऊँगा, आर्यवृद्ध ! तुझे क्यों ऐसा ख्याल हुआ ?"

“सुदाः! तूने देखा, मेरे खेतों में काम करने वाले दो सौ नर-नारियों को ?"

"हाँ।"

"क्या मेरे खेत में काम करने, मेरे हाथ से वेतन पाने के कारण उन्हें जरा भी मेरे सामने दैन्य प्रकट करते देखा ?"

"नहीं, बल्कि मालूम होता था, सभी तेरे परिवार के आदमी हैं ।"

"हाँ, इनको मानव कहते हैं। ये मेरे परिवार के हैं। सभी मद्र और माद्रियाँ हैं। पूरब में ऐसी बात को देखने को जी तरसता है। वहाँ दास या स्वामी मिलते हैं, मानव नहीं मिलते, बन्धु नहीं मिलते।"

"सत्य कहा, आर्यवृद्ध ! मानव का मूल्य मैंने शतद्रु (सतलज) पारकर- खासकर इस मद्रभूमि में आकर देखा। मानव में रहना आनन्द, अभिमान और भाग्य की बात है।"

"मुझे खुशी है, पुत्र ! तूने बुरा नहीं माना। अपनी-अपनी जन्मभूमि का सबको प्रेम होता है।”

" किन्तु प्रेम का अर्थ दोषों से आँख मींचना नहीं होना चाहिए ।"

"मैंने कुरु-पंचाल की यात्रा करते वक्त बहुत बार सोचा, यहाँ के भी पंडितों से चर्चा की । मुझे इस दोष के आने का कारण तो मालूम हुआ किन्तु प्रतिकार नहीं । ।

"क्या कारण, आर्यवृद्ध ?"

"यद्यपि पंचाल जनपद पंचालों का कहा जाता है, किन्तु उसके निवासियों में आधे भी पंचाल-जन नहीं हैं।"

"हाँ, आगन्तुक बहुत हैं।"

"आगन्तुक नहीं पुत्र ! मूल निवासी बहुत हैं। वहाँ की शिल्पी जातियाँ, वहाँ के व्यापारी, वहाँ दास पंचाल-जनों के उस भूमि पर पग रखने से बहुत पहले से मौजूद थे। उनका रंग देखा है न ?"

"हाँ, पंचाल-जनों से बिल्कल भिन्न काला, साँवला या ताम्रवर्ण ।”

"और पंचाल-जनों का वर्ण मद्रों-जैसा गौर होता है ?"

"बहुत कुछ ।"

"हाँ बहुत कुछ ही, क्योंकि दूसरे वर्ण वालों के साथ मिश्रण होने से वर्ण (रंग) में विकार होता ही है। मैं समझता हूँ, यदि मद्र की भाँति वहाँ भी आर्य-पिंगलकेश-ही बसते, तो शायद मानव वहाँ भी दिखलाई पड़ते । आर्य और आर्य-भिन्नों के ऊँच-नीच भाव में तो भिन्न वर्ण होना कारण हो सकता है।”

"और शायद, आर्यवृद्ध ! तुझको मालूम होगा कि इन आर्य-भिन्नों –जिन्हें पूर्वज असुर कहते थे-मैं पहले ही से ऊँच-नीच और दास-स्वामी होते आते थे।"

"हाँ, किन्तु पंचाल तो आर्य-जन थे, एक खून, एक शरीर से उत्पन्न।"

"हाँ, फिर वहाँ उनमें भी ऊँच-नीच का भाव वैसा ही पाया जाता है। पंचाल-राज दिवोदास् ने मेरे कुछ घोड़े खरीद थे, इसके लिए एक दिन मैं उसके सामने गया। उसका पुष्ट गौर तरुण शरीर सुन्दर था; किन्तु उसके सिर पर लाल-पीली भारी-भरकम डलिया (मुकुट), फटे कानों में बड़े-बड़े छल्ले, हाथों और गले में भी क्या-क्या तमाशे थे। यह सब देखकर मुझे उस पर दया आने लगी। जान पड़ा, चन्द्रमा को राहु ग्रस रहा है। उसके साथ उसकी स्त्री भी थी, जो रूप में मद्र-सुन्दरियों से कम न थी; किन्तु इन लाल-पीले बोझों से बेचारी झुकी जा रही थी।"

सुदास् का हृदय वेग से चलने लगा था। उसने अपने भावों से चेहरे को न प्रभावित होने देने के लिए पूरा प्रयत्न किया; किन्तु असफल होते देख बात को बदलने की इच्छा से कहा-

"पंचाल-राज ने घोडों को लिया न, आर्यवृद्ध ?”

"लिया और अच्छा दाम भी दिया। याद नहीं, कितने हिरण्य; किन्तु वहाँ यह देखकर ज्वर आ रहा था कि पंचाल-जन भी उसके सामने घुटने टेककर वन्दना करते, गिड़गिड़ाते हैं। मर जाने पर भी कोई मद्र ऐसा नहीं कर सकता, पुत्र !"

"तुझे तो ऐसा नहीं करना पड़ा, आर्यवृद्ध ?"

"मैं तो लड़ पड़ता, यदि मुझे ऐसा करने को कहा जाता । पूरबे वाले राजा हमें वैसा करने को नहीं कहते। यह सनातन से चला आया है।"

"क्यों ?"

"क्यों पूछता है पुत्र ! इसकी बड़ी कहानी है। जब पश्चिम से आगे बढ़ते-बढ़ते पंचाल-जन यमुना, गंगा, हिमवान् के बीच (उत्तर-दक्षिण के पंचालों) की इस भूमि में गए, तो वह बिल्कुल मद्रों की ही भाँति एक परिवार-एक बिरादरी-की तरह रहते थे। असुरों से संसर्ग बढ़ा, उनकी देखा-देखी इन आर्य-पंचालों में से कुछ सरदार, राजा और पुरोहित बनने के लिए लालायित होने लगे।"

"लालायित क्यों होने लगे ?"

"लोभ के लिए, बिना परिश्रम के दूसरे की कमाई खाने के लिए। इन्हीं राजाओं और पुरोहितों ने पंचालों में भेद-भाव खड़ा किया, उन्हें मानव नहीं रहने दिया।"-कहते-कहते जेता किसी काम से उठ गए।

2.

मद्रपुर (शाकला या स्यालकोट) में जेता के कुल में रहते सुदास् को चार वर्ष बीत गए थे । जेता की स्त्री मर चुकी थी। उसकी विवाहिता बहनों और बेटियों में से दो-एक बराबर उसके घर रहती थीं, किन्तु घर के स्थायी निवासी थे जेता, सुदास् और अपाला । अपाला अब बीस साल की हो रही थी। उनके व्यवहार से पता लगता था कि अपाला और सुदास् का आपस में प्रेम है। अपाला मद्रपुर की सुन्दरियों में गिनी जाती थी और उसके लिए वहाँ सुन्दर तरुणों की कमी न थी। उसी तरह सुदास् जैसे तरुण के लिये भी वहाँ सुन्दरियों की कमी न थी; किन्तु लोगों ने सदा सुदास को अपाला और अपाला को सुदास के ही साथ नाचते देखा । जेता को भी इसका पता था, और वह इसे पसन्द करता, यदि सुदास् मद्रपुर में रहने के लिए तैयार हो जाता। किन्तु सुदास् कभी-कभी अपने माता-पिता के लिए उत्कंठित हो जाता था। जेता जानता था कि सुदास् अपने माँ-बाप का अकेला पुत्र है।

एक दिन अपाला और सुदास्, प्रेमियों की नदी चन्द्रभागा (चनाब) नदी में नहाने गए। नहाते वक्त कितनी ही बार सुदास् ने अपाला के नग्न अरुण शरीर को देखा; किन्तु आज पचासों नग्न सुन्दरियों के बीच उसके सौन्दर्य की तुलना कर उसे पता लगा, जैसे आज ही उसने अपाला के लावण्य की पूरी परख पाई है। रास्ते में लौटते वक्त उसे मौन देखकर अपाला ने कहा-“सुदास् ! आज तू बोलता नहीं, थक गया है क्या ? चन्द्रभागा की धार को दो बार पार करना कम मेहनत की बात नहीं है।"

"तू भी तो अपाले ! आर-पार तैर गई, और मैं तो दो क्या, समय हो तो दस बार चन्द्रभागा को पार कर सकता हूँ।"

"बाहर निकलने पर मैंने देखा, तेरे वक्ष कितने फूले हुए थे? तेरी बॉहों और जॉघों की पेशियाँ तो दुनी मोटी हो गई थीं ।"

"तैरना भारी व्यायाम है। यह शरीर को बलिष्ठ और सुन्दर बनाता है।"

"किन्तु तेरे सौन्दर्य में क्या वृद्धि होगी, अपाले ! तू तो अभी भी तीनों लोकों की अनुपम सुन्दरी है।"

“अपनी आँखों से कहता है न, सुदास् ?"

"किन्तु मोह से नहीं अपाले ! तू यह जानती है।"

"हाँ, तूने चुम्बन तक कभी मुझसे नहीं माँगा, यद्यपि मद्र-तरुणियाँ इसके वितरण में बहुत उदार होती हैं।"

“बिना माँगे भी तो तूने उसे देने की उदारता की है।"

“किन्तु उस वक्त, जबकि मैं तुझमें भैया श्वेतश्रवा को देखा करती थी।"

"और अब क्या न देगी ?"

"माँगने पर चुम्बन क्यों न दूँगी?"

"और माँगने पर तू मेरी-"

"यह मत कह, सुदास् ! इनकार करके मुझे दुःख होगा।”

"किन्तु उस दुःख को न आने देना तेरे हाथ में है ?"

“मेरे नहीं, तेरे हाथ में है।"

"कैसे ?"

"क्या तू सदा के लिए मेरे पिता के घर में रहने के लिए तैयार है ?"

"सुदास् को कितनी ही बार उन कोमल ओठों से इन कठोर अक्षरों के निकलने का डर था, आज अशनि (बिजली) की भाँति एकाएक वह उसके कानों को छेदकर हृदय पर पड़े। कुछ देर के लिए उसका चित्त उद्विग्न हो उठा, किन्तु वह नहीं चाहता था, कि अपाला उसके नग्न हृदय को देखे। क्षण भर के बाद उसने स्वर पर संयम करके कहा-“मैं तुझे कितना प्रेम करता हूँ, अपाले ?"

"यह मैं जानती हैं, और मेरी भी बात तुझे मालूम है। मैं सदा के लिए तेरी बनना चाहती हूँ। पिता भी इससे प्रसन्न होंगे; किन्तु फिर तुझे पंचाल से मुँह मोड़ना होगा।” पंचाल से मुँह मोड़ना कठिन नहीं है; किन्तु वहाँ मेरे वृद्ध माता-पिता हैं। मुझे छोड़ माँ का दूसरा पुत्र नहीं है। माँ ने वचन लिया है कि मरने के पहले मैं उसे एक बार जरुर देखें।”

"मैं माँ के वचन को तुड़वाना नहीं चाहती। मैं तुझे सदा प्रेम करूंगी, सुदास् ! तेरे चले जाने पर भी । मुझे मालूम है, मैं तेरे लिए रोया करूंगी, जीवन के अन्त तक। किन्तु हमें दो वचनों को नहीं तोड़ना चाहिए-तुझे अपनी माँ के और मुझे अपने हृदय के वचन को ।”

“तेरे हृदय का वचन क्या है, अपाले ?"

"कि मानव-भूमि से अमानव-भूमि में न जाऊँगी।"

"अमानव-भूमि पंचाल-जनपद ?"

"हाँ, जहाँ मानव का मूल्य नहीं, स्त्री को स्वातन्त्र्य नहीं ।"

"मैं तुझसे सहमत हूँ।"

"और इसके लिए मैं तुझे चुम्बन देती हूँ।”-कह अश्रु-सिक्त कपोल को अपाला ने सुदास् के ओठों पर रख दिया । सुदास् के चुम्बन कर लेने पर उसने फिर कहा—तू जा, एक बार माँ का दर्शन कर आ; मैं तेरे लिए मद्रपुर में प्रतीक्षा करूँगी।"

अपाला के भोले-भाले शब्दों को सुनकर सुदास् को अपने प्रति ऐसी अपार घृणा हो गई, जिसे वह फिर कभी अपने दिल से नहीं निकाल सका। माँ-बाप को देखकर लौट आने की बात कहकर ही सुदास् जेता से घर जाने के लिए आज्ञा माँग सकता था। जेता और अपाला दोनों ने इसे स्वीकार किया।

प्रस्थान के एक दिन पहले अपाला ने अधिक से अधिक समय सुदास् के साथ बिताया। दोनों के उत्पल-जैसे नीले नेत्र निरन्तर अश्रुपूर्ण रहते । उन्होंने इसे छिपाने की भी कोशिश न की। दोनों घंटों अधरों को चूमते, आत्म-विस्मृत हो आलिंगन करते अथवा नीरव अश्रुपूर्ण नेत्रों से एक-दूसरे को देखते रहते ।

चलते वक्त अपाला ने फिर आलिंगनपूर्वक कहा-"सुदास् ! मैं तेरे लिए मद्रपुर में प्रतीक्षा कहँगी।"

अपाला के ये शब्द सारे जीवन के लिए सुदास् के कलेजे में गड़ गये।

3.

सुदास् का अपनी माँ से भारी स्नेह था। सुदास् का पिता दिवोदास प्रतापी राजा था, जिसकी प्रशंसा में वशिष्ठ, विश्वामित्र और भारद्वाज जैसे महान् ऋषियों ने मंत्र पर मंत्र बनाये; किन्तु ऋग्वेद में जमा कर देने मात्र से उनके भीतर भरी चापलूसी छिपाई नहीं जा सकती। सुदास् का स्नेह केवल अपनी माता से था। वह जानता था कि दिवोदास की उस जैसी कितनी ही पत्नियाँ, कितनी ही दासियाँ हैं। वह उसके ज्येष्ठ पुत्र-पंचाल-सिंहासन का उत्तराधिकारी–की माँ है, इसके लिए वह थोड़ा-सा ख्याल भले ही करे; किन्तु दिवोदास् कितनी ही तरुण सुन्दरियों से भरे रनिवास में उस बुढ़िया के दन्तहीन मुख के साथ प्रेम क्यों करने लगा ? माँ का एक पुत्र होने पर भी वह पिता का एकमात्र पुत्र न था। उसके न रहने पर प्रतर्दन दिवोदास् का उत्तराधिकारी होता।

वर्षों बीत जाने पर माँ पुत्र से निराश हो चुकी थी, और रोते-रोते उसकी आँखों की ज्योति मन्द पड़ गई थी । सुदास् एक दिन चुपचाप बिना किसी को खबर दिए. पिता से बिना मिले, माँ के सामने जाकर खड़ा हो गया। निष्प्रभ आँखों से उसे अपनी ओर विलोकते देख सुदास् ने कहा-

"माँ ! मैं हूँ तेरा सुदास् ।’

उसकी आँखें प्रभायुक्त हो गईं, फिर भी मंच से बिना हिले ही उसने कहा-“यदि तू सचमुच मेरा सुदास् है, तो विलीन होने के लिए वहाँ क्यों खड़ा है ? क्यों नहीं मेरे कंठ से आ लगता ? क्यों नहीं अपने सिर को मेरी गोद में रखता.......”

सुदास् ने माँ की गोद में अपने सिर को रख दिया। माँ ने हाथ लगा कर देखा, वह हाथ में विलीन होने वाला नहीं, बल्कि ठोस सिर था। उसने उसके मुँह, गाल, ललाट और केशों को बार-बार चूम आँसुओं से सींचा, अनेक बार कंठ लगाया। माँ की अश्रुधारा को बन्द न होते देख सुदास् ने कहा-"माँ! मैं तेरे पास आ गया हूँ, अब क्यों रोती है?"

"आज ही के दिन भर वत्स ! आज ही घड़ी भर पुत्र ! यह अंतिम आँसू है, सुदास् ! मेरी आँखों के तारे !"

अन्तःपुर से सूचना राजा तक पहुँची। वह दौड़ा हुआ आया और सुदास् को आलिंगन कर आनन्दाश्रु बहाने लगा। दिन बीतते-बीतते महीने हो गए, फिर महीने दो साल में परिणत हो गए। माँ-बाप के सामने सुदास् प्रसन्नमुख बनने की कोशिश करता; किन्तु एकान्त मिलते ही उसके कानों में वह वज्रच्छेदिका ध्वनि आती “मैं तेरे लिए मद्रपुर में प्रतीक्षा कहँगी" और उसके सामने वही हिलते लाल अधर आ जाते तब तक ठहरते, जब तक कि आँखों के आँसू उसे ओझल नहीं कर देते । सुदास् के सामने दो स्नेह थे-एक ओर अपाला का वह अकृत्रिम प्रेम और दूसरी ओर वृद्धा माँ का वात्सल्यपूर्ण हृदय । माँ के असहाय हृदय को विदीर्ण करना उसे अत्यन्त नीच स्वार्थान्धता जान पड़ी, इसीलिए उसने माँ के जीवन भर पंचाल न छोड़ने का निश्चय किया। लेकिन राजपुत्र के आमोद-प्रमोदपूर्ण जीवन को स्वीकार करना, उसे अपनी सामर्थ्य से बाहर की बात मालूम होती थी। पिता के प्रति वह सदा सम्मान दिखलाता था और उसकी आज्ञा के पालन में तत्परता भी।

वृद्ध दिवोदास ने एक दिन पुत्र से कहा-"वत्स सुदास् ! मैं जीवन के अन्तिम तट पर पहुँच गया हूँ, मेरे लिए पंचाल का भार उठाना अब सम्भव नहीं है।"

"तो आर्य ! क्यों न यह भार पंचालों को ही दे दिया जाय ?"

"पंचालों को ! पुत्र, तेरा अभिप्राय मैंने नहीं समझा।”

"आखिर आर्य ! यह राज्य पंचालों का है। हमारे पूर्वज पंचाल-जन के साधारण पुरुष थे। उस समय पंचाल का कोई राजा न था। पंचाल-जन ही सारा शासन चलाता था, जैसे आज भी मल्ल में, मद्र में, गंधार में वहाँ के जन चलाते हैं । फिर हमारे दादा वर्ध्यश्व के किसी पूर्वज को लोभ-भोग का लोभ, दूसरों के परिश्रम की कमाई के अपहरण का लोभ-हुआ वह जनपति या सेनापति के पद पर रहा होगा और जन के लिए किसी युद्ध को जीत कर जन के प्रेम, विश्वास और सम्पत्ति को प्राप्त किया होगा; जिसके बल पर उसने जन से विश्वासघात किया। जन का राज्य हटा कर उसने असुरों की भाँति राजा का राज्य स्थापित किया, असुरों की भाँति वशिष्ठ, विश्वामित्र के किसी विस्मृत पूर्वज को पुरोहित-पदवी रिश्वत में दी, जिसने जन की आँखों में धूल झोंक कर कहना शुरू किया इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, विश्वेदेव ने इस राजा को तुम्हारे ऊपर शासन करने के लिए भेजा. उसकी आज्ञा मानो, इसे बलि-शुल्क-कर दो। यह सरासर बेईमानी थी, चोरी थी पिता ! जिससे अधिकार मिला, उसके नाम तक को भूल जाना, उसके लिए कृतज्ञता के एक शब्द को भी जीभ पर न लाना !"

"नहीं पुत्र ! विश्न (=सारे) जन को हम अपना राजकृत (=राजा बनाने वाला) स्वीकार करते हैं। अभिषेक की प्रतिज्ञा के वक्त वही हमें राजचिह्न पलाश-दण्ड देते हैं।"

"अभिषेक-प्रतिज्ञा अब समज्या (=तमाशा) जैसी है। किन्तु, क्या सचमुच जन राजा के स्वामी हैं ? नहीं, यह तो स्पष्ट हो जाता है, जबकि हम देखते हैं-राजा अपने जन के बीच बराबर में बैठ नहीं सकता, उनसे सहभोज, सहयोग नहीं रखता। क्या मद्र या गन्धार का जन-पति ऐसा कर सकता है ?"

"यहाँ यदि हमें वैसा करें, तो किसी दिन भी शत्रु मार देगा या विष दे देगा।”

"यह भय भी चोर-अपहारक को ही हो सकता है। जन-पति चोर नहीं होते, अपहारक नहीं होते। वह वस्तुतः अपने को जन-पुत्र समझते हैं, वैसा ही व्यवहार भी करते हैं, इसलिए उनको डर नहीं। राजा चोर है, जन--अधिकार के

"अपहारक हैं, इसलिए उनको हर वक्त डर बना रहता है। राजाओं का रनिवास, राजाओं का सोना-रुपा-रत्न, राजाओं की दास-दासियाँ-राजाओं का सारा भोग-अपना कमाया नहीं होता, यह सब अपहरण से आया है।"

"पुत्र ! इसके लिए तू मुझे दोषी ठहराता है ?"

“बिल्कुल नहीं, आर्य ! तेरी जगह पर आने पर मुझे भी इच्छा या अनिच्छा से वही करना होगा। मैं अपने पिता दिवोदास् को इसके लिए दोषी नहीं ठहराता ।"

"तू राज्य को जन के पास लौटाने की बात कहता है, क्या यह सम्भव है ? तुझे समझना चाहिए पुत्र ! जन के भोग का अपहारक सिर्फ पंचाल राज दिवोदास ही नहीं है। वह अनेक अपहारक-चोर सामन्तों में से एक है। वह बड़ा हो सकता है, किन्तु उनके सम्मिलित बल के सामने पंगु है। अनेक प्रदेश-पति, उग्र राजपुत्र (राजवंशिक). सेनापति के अतिरिक्त सबसे भारी सामन्त तो पुरोहित हैं।" हाँ, मैं जानता हूँ पुरोहित की शक्ति को। राजा के छोटे पुत्र राजपद तो पा नहीं सकते, इसलिए वह पुरोहित (ब्राह्मण) बन जाते हैं। मैं समझता हूँ, मेरा छोटा-भाई प्रतर्दन भी वैसा ही करेगा। अभी राजा और पुरोहित में सिंहासन-वेदी

"और यज्ञ-वेदी का ही अन्तर है; किन्तु क्या जाने; आगे चलकर क्षत्रिय, ब्राह्मण दो अलग बल, दो अलग श्रेणियाँ बन जायें। मद्र-गंधार में खड्ग और स्त्रुवा दोनों को एक ही साथ सँभाल सकता है; किन्तु पंचालपुर में स्त्रुवा विश्वामित्र के हाथ में होगा और खड्ग वर्य्यश्व पत्र दिवोदास के हाथ में। जन का बँटवारा तो अभी यहाँ तीन भागों में हो चुका है-सामन्त के नाते, जन-भोग-अपहारक होने के नाते, आवाह-विवाह-सम्बन्ध के नाते। माता-पिता के नाते भी चाहे राजा और पुरोहित एक हों, किन्तु दोनों के नाम-क्षत्रिय, ब्राह्मण-अभी ही अलग-अलग गिने जाने लगे हैं, और दोनों के स्वार्थों में टक्कर भी लगने लगी है, इसीलिए ब्रह्मक्षत्र-बल में मैत्री स्थापित करने की भारी कोशिश की जा रही है। एक कुल के इन दोनों वर्गों के बाहर जन की भारी संख्या है, यह तीसरा वर्ग है। आज इस महजन का नाम बदलकर उसे विश् (विट) या प्रजा रख दिया गया है। कैसी विडम्बना है। जो जन (पिता) था उसे ही आज प्रजा (पुत्र) कहा जाता है। आर्य ! यह क्या सरासर वंचना नहीं है?"

"और पुत्र ! तूने एक भारी संख्या को नहीं गिना ।

"हाँ, आर्य-जन से भिन्न प्रजा - शिल्पी, व्यापारी, दास-दासी - शायद इन्हीं के कारण जन को अधिकार से वंचित करने में सामन्त सफल हुए। अपने शासक जन को अपने ही समान किसी के द्वारा परतंत्र हुआ देख आर्य-भिन्न प्रजा को संतोष हुआ। इसे ही राजा ने अपना न्याय कहा।"

"शायद, पुत्र ! तू गलती नहीं कर रहा है; किन्तु यह तो बता, राज्य किसको लौटाया जाय ? चोरों-अपहारकों-सामन्तों और व्यापारियों को भी ले ले - को छोड़ देने पर आर्य-जन और अनार्य-प्रजा सबसे भारी संख्या में हैं, क्या वे राज्य सँभाल सकते हैं? और इधर धर्म-सामन्त और राज-सामन्त के गिद्ध मेरे छोड़ते ही प्रजा को नोच खाने के लिए तैयार हैं। कुरु-पंचाल जन के हाथ से राज्य छिने छै ही सात पीढ़ियाँ बीती हैं, इसलिए हम जन के दिनों को भूले नहीं हैं। उस वक्त इस भूमि को दिवोदास् राज्य नहीं पंचालाः (सारे पंचाल वाले) कहते और समझते थे, किन्तु आज तो मुझे वहाँ लौटने का रास्ता नहीं दीखता।"

"हाँ, रास्ते में ये वशिष्ठ, विश्वामित्र-जैसे ग्राह जो वैठे हुए हैं ?"

"इसे हमारी परवशता समझ, हम काल को पलट नहीं सकते, और कल कहाँ पहुँचेंगे, इसका भी हमें पता नहीं ! मुझे इससे संतोष है कि मुझे सुदास्- जैसा पुत्र मिला है। मैं भी किसी वक्त तरुण था। अभी उस वक्त तक वशिष्ठ और विश्वामित्र की कविताओं, उनके प्रजा की मति को हरने वाले धर्मों-कर्मों का मायाजाल इतना नहीं फैला था। मैं सोचता था--राजा की इस दस्युवृत्ति को कम करूं, किन्तु वैसा करने में अपने को असमर्थ पाया। उस वक्त मेरे लिए माँ ही सब कुछ थी; किन्तु पीछे जब मैं भग्नमनोरथ, निराश हो गया, तो इन पुरोहितों ने अपनी कविताओं के ही नहीं, कन्याओं के फन्दे में मुझे फंसाया; इन्द्राणी से दासियों की उपमा दे सैकड़ों दासियों से रनिवास भर दिया। दिवोदास् के पतन से शिक्षा ले तू सजग रहना, प्रयत्न करना, शायद कोई रास्ता निकल आये और दस्युवृत्ति हट जाय। किन्तु सुदास् जैसे सहृदय दस्यु को हटाकर प्रतर्दन जैसे हृदयहीन वंचक दस्यु के हाथ में पंचाल को दे देना अच्छा न होगा। मैं पितृलोक से देखता रहूँगा। तेरे प्रयत्न को और बड़े सन्तोष के साथ पुत्र !"

4.

दिवोदास् देवलोक को चला गया। सुदास् अब पंचालकों का राजा हुआ। ऋषि-मंडली अब उसके गिर्द मँडराती थी। सुदास् को अब पता लगा कि इन्द्र, वरुण, अग्नि, सोम के नाम से इन सफ़ेद दाढ़ियों ने लोगों को कितना अन्धा बनाया है। उनके कठोर फन्दे में सुदास् अपने को जकड़ा पाता था। जिनके लिए यह कुछ करना चाहता था, वह उसके भाव को उलटा समझने के लिए, उसे अधार्मिक राजा घोषित करने के लिए तैयार थे। सुदास् को वह दिन याद आ रहे थे, जबकि वह नंगे पैर फटे कपड़ों के साथ अज्ञात देशों में घूमता था। उस वक्त वह अधिक मुक्त था। सुदास् की हार्दिक व्यथा को समझने वाला, उससे सहानुभूति रखने वाला वहाँ एक भी आदमी न था। पुरोहित-ऋषि-उसके पास अपनी तरुण पोतियों, पर-पोतियों को भेजते थे और राजन्य—प्रादेशिक सामन्त-अपनी कुमारियों को, किन्तु सुदास् अपने को आग लगे घर में बैठा पाता था । वह चन्द्रभागा के तीर प्रतीक्षा करती उन नीली आँखों को भूल नहीं सकता था।

सुदास ने सारे जन-आर्य-अनार्य दोनों की सेवा करने की ठानी थी, किन्तु इसके लिए देवताओं के दलदल में आपाद-निमग्न जने को पहले यह विश्वास दिलाना था कि सुदास् पर देवताओं की कृपा है। और कृपा है, इसका सबूत इसके सिवाय कोई न था, कि ऋषि-ब्राह्मण-उसकी प्रशंसा करें । अंत में ऋषियों की प्रशंसा पाने के लिए उसे हिरण्य-सुवर्ण, पशु-धान्य, दासीदास दान देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं सूझा। पीवर गोवत्स के माँस और मधुर सोमरस से तोंद फुलाये इन ऋषियों की राय में वह वस्तुतः अब सुदास् (बहुत दान देने वाला) हुआ। इन चाटुकार ऋषियों की बनाई सुदास् की 'दान-स्तुतियों में कितनी ही अब भी ऋग्वेद में मौजूद हैं, किन्तु यह किसको पता है कि सुदास् इन दान-स्तुतियों को सुनकर उनके बनाने वाले कवियों को कितनी घृणा की दृष्टि से देखता था।

सुदास् का यशोगान सारे उत्तर-पंचाल (रुहेलखंड) में ही नहीं, दूर-दूर तक होने लगा था। अपने भोग-शून्य जीवन से वह जो कुछ हो सकता था, विश्व-जन का हित करता था। पिता के कितने ही साल बाद सुदास की माँ मरी। वर्षों से जो घाव साधारण तौर से बहते रहने के कारण अभ्यस्त-सा हो गया था, अब जान पड़ा. उसने भारी विस्फोट का रुप धारण कर लिया है। उसे मालूम होता था, अपाला हर क्षण उसके सामने खड़ी है और अश्रुपूर्ण नेत्रों, कम्पित अधरों से कह रही है-"मैं तेरे लिए मद्रपुर में प्रतीक्षा करूँगी।" उस व्यथा की आग को सुदास् आँसुओं से बुझा नहीं सकता था।

हिमवान् में शिकार करने का बहाना कर सुदास् एक दिन पंचालपुर (अहिच्छत्र) से निकल पड़ा। मद्रपुर (स्यालकोट) में वह घर मौजूद था, जहाँ उसे अपाला का प्रेम प्राप्त हुआ था; किन्तु न अब वहाँ जेता था, न उसकी प्रिया अपाला । दोनों मर चुके थे. अपाला एक ही साल पहले । उस घर में अपाला का लुप्त-पुनःप्राप्त भाई और उसका परिवार रहता था। सुदास् को साहस नहीं हुआ कि उस घर से और स्नेह बढ़ाए। अपाला की एक सखी से वह मिला। उसने अपाला के उन रंगीन नए वस्त्रों-अन्तखासक, उत्तरीय (चादर), कंचुक और उष्णीष को सामने रख आँखों में आँसू भरकर-‘मेरी सखी ने इन वस्त्रों को अन्तिम समय में पहना था और उसके ओठों पर अन्तिम शब्द था :

"मैंने सुदास् को वचन दिया है, बहन, कि मैं तेरे लिए मद्रपुर में प्रतीक्षा करूँगी।"

सुदास् ने उन कपड़ों को उठाकर अपनी छाती और आँखों से लगाया, उनसे अपाला के शरीर की सुगन्धि आ रही थी।

*****

(यह आज से १४४ पीढी, पहले के आर्य-जन की कहानी है। इसी समय पुरातनम् ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना कर रहे थे, इसी समय आर्य-पुरोहितों की सहायता में कुरु-पंचालक के आर्य-सामन्तों ने जनता के अधिकार पर अंतिम और सबसे जबरदस्त प्रहार किया।)

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