स्पर्श (मराठी कहानी) : जयवंत दलवी

Sparsh (Marathi Story) : Jaywant Dalvi

सायंकाल की सुनहरी किरणें, अब तक ज़मीन पर उतरी नहीं थी। इस बड़े पीपल की, शाखों के बीच से, छन कर आती लग रही थी। हवा के स्पर्श से पूरा वृक्ष, गुदगुदा कर मानों हँस रहा था। तने के, एक खोखल में से एक तोता चोंच निकाले, झाँक रहा था। एक शाख पर, लंबा-सा घोंसला, लटक रहा था। किस पक्षी का था कौन जाने?

वृक्ष के नीचे, आसमान की ओर ताकते, रामाराव खड़े थे। उनकी आँखों के आँसू, आँखों तक ही सिमट रहे थे, इसका किसी को पता न था।

आज आँखें, न जाने क्यों भर आ रही हैं। चार वर्ष पूर्व जब नानी आश्रम गई थी, तब भी आँखें, इतनी तो नम नहीं थी। आज तो वह ठीक होकर, वापस आ रही हैं, आज तो मन में, आनंद होना चाहिए। पर आनंद हो रहा है क्या?

पीपल के नीचे, एक पूरी मंडली, नानी की बाट जोह रही थी। नानी का बेटा, वीनू। उसकी पत्नी अनुराधा। उनका आठ वर्ष का बेटा रंगा, आस-पड़ोस की औरतें और बच्चे सभी जमा हुए थे।
''रंगा, दादी के बुलाने पर भी, पास नहीं जाना समझे!'' अनुराधा, रंगा को बार-बार समझा रही थी।
रामाराव को यह अच्छा नहीं लगा। डॉक्टरों ने तो कह ही दिया है कि वो, अब पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी है।
''भैयाराम और उन्हें, अब तक आ जाना चाहिए था।''
''रुको, बस की आवाज़ आ रही है।'' पड़ोस की काकू सबको चुप कराती हुई, कान लगाकर सुनने लगी।
पर, रामाराव को ऐसा नहीं लगा। पिछले एक घंटे में उन्हें गाड़ी की आवाज़, कई बार सुनाई पड़ी थी।
''आ गई रे, आ गई!'' काकू फिर चिल्लाई। सचमुच इस बार आवाज़ आई थी। चबूतरे पर बैठी मंडली, खड़ी हो गई।

रामाराव दगड़, पत्थर की तरह खड़े थे। उनकी दृष्टि पीपल के नीचे, गणेश जी की पुरानी मूर्ति पर पड़ी। वहाँ दीप जलाना, दगड़ परिवार का नियम था।
''अनु अंधेरा हो रहा है, मूर्ति के सामने दीया जला दो उसे अच्छा लगेगा।''
''जी, अच्छा!

अनु ने, गणपति के सामने दीप जलाकर रख दिया। दीये की मंद लौ, हवा के झोंके में लहरा रही थी। उस प्रकाश में मूर्ति, कितनी शांत दिखाई दे रही थी। मूर्ति के हाथों की उँगलियाँ, पानी और हवा की मार से घिस-सी गई थी। सूँड के ऊपर भी खरोंच जैसे निशान थे। लंबे कान भी टूट-फूट गए थे। न जाने कब से रामाराव इसे देखते आ रहे थे। पर इसके भीतर स्थित शक्ति का आभास उन्हें आज से पहले, कभी नहीं हुआ था।

बस, फाटक के पास आकर रुक गई।
पहले भैयाराम उतरा, फिर उसने सहारा देकर, नानी को उतार लिया।
''इतनी देर कैसे हो गई भैयाराम?'' वीनू ने दूर से ही पूछ लिया।
''टायर पंचर हो गया था...!'' भैयाराम सामान उतारते हुए बोला।
''नकटी की शादी मे लाखों विघ्न!'' कहकर नानी खिल-खिलाकर हँस पड़ी।
उनके हँस पड़ने से सारा वातावरण उज्ज्वल हो गया।

चार वर्ष पहले नानी जब अपना घर छोड़कर अमरावती आश्रम गई थीं तो सोचा था कि शायद अब लौटकर कभी न आ सके। जाते समय घर की प्रत्येक वस्तु को अंतिम स्पर्श कर गई थीं। गणेश जी को प्रणाम और हाथ से स्पर्श कर, दो पल उनके सम्मुख बैठी थी।
उसी घर में लौट आने पर उनका आनंदित होना स्वाभाविक ही था। नानी के होंठ उनके मुँह पर फैल से गए थे। पर उनके चेहरे पर खुशी झलक रही थी।

........
''रंगा, ले गेंद!'' नानी ने रंगा को पुकारा।
पर रंगा, अनुराधा का आँचल थामे खड़ा रहा। हिला तक नहीं।
''भूल गया है शायद। एक बार पहचान गया तो पीछा नहीं छोड़ेगा।'' कहकर अनु ने रंगा को और पीछे सरका लिया।
''बाद में आ जाएगा, माँ!'' वीनू बोला।
सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए नानी ने, हाथ आगे बढ़ाया।
''सहारा दे भैयाराम...,'' वीनू चिल्ला कर बोला।
भैयाराम का सहारा ले, नानी ऊपर चढ़ी और चबूतरे पर रुक गई।

''मैं सोच रही थी, गणेश जी की दीया बत्ती कोई करता था या नहीं।''
''तुम जैसा छोड़ गई थी सब वैसे ही चल रहा है। गणेश जी को प्रणाम कर लो!'' रामाराव ने जवाब दिया
नानी ने गणेश जी के आगे, सिर झुकाया और उनके सम्मुख बैठ गई। उदास शाम के धुँधलके में उन्होंने चारों ओर नज़र दौड़ाई। बच्चे उनकी ओर दृष्ठि जमाए थे
जैसे कोई नई वस्तु आई हो। नानी मुस्कुरा रही थीं।
मन में आनंद हो तो और कुछ नज़र नहीं आता।

तभी काकू आकर, नानी से मिली। बरसों बाद मिली पड़ोसनें बातों में रम गईं।
बातों-बातों में उसने, नानी की नाक, होंठ ध्यान से देख डाले। उन पर खरोंच के से सफ़ेद दाग थे।
उसी समय गौशाला में गाय रंभा उठी।
''पहचान लिया उसने मुझे।'' नानी हँसते हुए बोली।
नानी और रामाराव, गौशाला की ओर बढ़ गए।
नानी ने गाय की एक थपकी ली और उसके मुँह पर प्यार से हाथ फेरने लगी।

नानी घर में आ गईँ। हाथ मुँह धो कर, चाय पीने के लिए चबुतरे पर, आ कर बैठ गई।
''आप यहाँ कोई काम नहीं करेंगी नानी।'' अनु आकर बोली।
''क्यों?''
''आपको केवल आराम करना है!''
''किसने कहा? वीनू ने?'' कहकर नानी हँस पड़ी। आज उनका हँसने का दिन था।

शाम को नानी दूध का बर्तन उठा कर, गौशाला की ओर बढ़ ही रही थीं।
''क्या कर रही हैं आप?'' अनु देख कर चौंक पड़ी।
''दूध निकालने जा रही हूँ।''
''आप बर्तन रख दें। आपको काम नहीं करना है।''
''अरे, आश्रम में, मैं खाना पकाती थी।''
''वहाँ डॉक्टर थे। यहाँ कौन दौड़ धूप करता फिरेगा?''
''कुछ नहीं होगा।'' कहकर वो चल पड़ी।
''आप बर्तन रख दीजिए।'' अनु की आवाज़ में सख़्ती थी। नानी ने बर्तन, वहीं रख दिया। उनके कलेजे में हूक-सी उठी। उनका अपमान हुआ था।

वे उसी समय भीतर चली गईं। मुँह पर पल्ला डालकर रोती रहीं। सोते समय उन्होंने निश्चय किया। घर मेरा है, सबको मेरे आदेश मानने होंगे। आश्रम में दस-पंद्रह का भोजन बनाती थीं। यहाँ कैसी मेहनत?

वे मुँह अंधेरे ही उठ बैठीं। स्नान के बाद आटे का डिब्बा लिया और आटा गूँध कर रोटियाँ सेंकने लगीं।
उठकर अनु ने चूल्हे के पास रोटियों का ढेर देखा।
''किसने बनाईं ये रोटियाँ?''
''मैंने, और किसने?''
अनु सिर पर हाथ मार कर, सुन्न खड़ी रह गई। नानी ने परवाह नहीं की और सफ़ाई करने जुट गईं।

पुरुषों के भोजन कर लेने के बाद अनु और नानी खाने बैठी थी।
''सबने खाई थी रोटियाँ?''
''हाँ!''
''कोई कुछ बोला?''
''हाँ, ये और ससुर जी बोले, अच्छी बनीं हैं!''
यह सुनकर नानी के चेहरे पर रौनक आ गई।

अनु कुछ न बोली और खाते-खाते नानी के हाथों की उँगलियाँ देखने लगी। उनपर छोटे से नाखून थे। टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियाँ। नानी उन्हीं हाथों से भोजन कर रही थी।
खाना खाने के बाद, नानी घर के भीतर जाने लगीं तो विनू दिखाई दे गया।
''वीनू, मेरे हाथ की रोटियाँ कैसी लगीं?''
''अच्छी लगीं।''
नानी आनंदित हो बरामदे में पहुँच गईं। वहाँ रामाराव चहल-कदमी कर रहे थे।
''आज रोटियाँ कैसी लगीं?''
''कहाँ थीं आज रोटियाँ?
रामाराव का ध्यान अचानक वीनू की नज़रों की ओर गया, वे झेंप गए।

नानी को दाल में कुछ काला नज़र आया। वे थोड़ी बुझ-सी गईं। घर के भीतर चटाई बिछाकर सोने का प्रयत्न करने लगीं। पर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।

शाम को वो चुपचाप दूध का बर्तन खोजने लगीं। माँजने वाले बर्तनों के साथ दूध का बर्तन पड़ा था। वहीं पर रखा था आटे का डिब्बा। सुबह तो डिब्बा आटे से भरा था। फिर माँजने के लिए क्यों रखा है? वो सोचते हुए दूध का बर्तन उठा कर गौशाला की ओर बढ़ गई।

पानी लेकर उन्होंने गाय के थन धोए। तभी उनकी दृष्टि गाय के आगे पड़ी रोटियों पर ठहर गईं। नानी उसी समय उठ खड़ी हुईं।
बर्तन घर में ला पटका और आँगन में बँधे झूले पर बैठी, रुँधे गले को दबाए रखने का प्रयत्न करती रहीं।
रात वो अपने कमरे में गईं। थोड़े फासले पर दो बिछौने पड़े थे। कल भी ऐसा ही था क्या?
उन्होंने दोनों बिछौने सटा लिए। फिर रामाराव के बिछौने की ओर मुँह कर एक हाथ सामने फैला वो पड़ी रहीं।

.................
रात आहट से उनकी आँख खुली।
रामाराव दीपक जला रहे थे।

फिर उन्होंने झटपट अपना बिछौना अलग खींच लिया। चूड़ियों की खनक हुई और नानी का हाथ, फ़र्श पर आ गिरा। पर रामाराव ने हाथ उठाकर, उनके बिछौने पर न रखा।
इतना भी स्पर्श नहीं।
नानी के होठों से सिसकी फूट पड़ी। पर वे रोई नहीं। बस, आँखों से पानी बहता रहा। हाथ उसी प्रकार न जाने कब तक पड़ा रहा।

सुबह रामाराव उठकर बाहर आए। नानी पहले ही उठ गई थीं।
''सासू जी नहीं उठीं क्या?''
''वो तो कब की उठ गईं।''
''नहीं।''
''नहीं? अरे वीनू...'' रामाराव चीख पड़े।
वीनू भागता हुआ आया। सब जगह खोज हुई। सभी कमरे देख डाले पर नानी कहीं नहीं थीं।
पीपल के नीचे दीप जल रहा था। गणेश जी के मस्तक पर चंदन का तिलक और सूँड पर जसवंती के फूल थे।
''कहाँ गई होंगी?''
चारों ओर आदमी दौड़ा दिए गए।
बाद में पता चला कि नानी बस अड्डे पर अमरावती की बस में बैठी दिखाई दी थीं।

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