सोमतीर्थ (उपन्यास) : रघुवीर चौधरी
Somteertha (Gujrati Novel Hindi) : Raghuveer Chaudhari
1
चौला कहाँ ?-त्र्यंबक खोजने निकला है।
युवाचार्य सदाशिव ने कल चौला को ज्योतिर्लिंग का रहस्य समझाया, उस समय उसके मुख पर पड़ती सूर्य की प्रथम किरण का परावर्तन हो रहा था। उस रूप में चौला का अपार्थिव शरीर इष्टदेव को समर्पित होता लगा। इससे धन्य होकर सदाशिव ने कहा-देखो, दक्षिण ध्रुव के अन्त तक यह प्रकाशमार्ग अबाधित है।
'आसमुद्रान्त दक्षिण ध्रुवपर्यन्त अबाधित ज्योतिः मार्ग।'
लिंग-स्थान से ध्रुव तक आत्मज्योति की सीधी रेखा एक दृष्टिपात से खींचने में मग्न चौला ने आगे पूछा नहीं इसलिए सदाशिव के साथ बैठे दूसरे युवक त्र्यंबक ने विचार किया-निश्चय ही यह लड़की ज्योतिमार्ग का पता पाने आज-कल में निकल पड़ेगी। इसका ध्यान रखना होगा। मन्दिर के आचार्य व्योम वृहस्पति ने उसे जो-जो कार्य सौंपा है उसमें एक यह भी है-चौला की सुरक्षा का ध्यान रखना।
चौला के अपहरण की आशंका सबसे अधिक त्र्यंबक को है। उसकी धारणा के अनुसार चौला को त्रिपुर सुन्दरी मानने वालों के मन में समादर नहीं, मोह है।
आजकल चौला को नौकाविहार का व्यसन लग गया है। आचार्य कहते हैं-प्रत्येक कला, प्रत्येक शास्त्र, प्रत्येक कर्म में वह प्रवीण हो यह अच्छा है। चौला ने भगवान सोमेश्वर को समर्पित होने की अभीप्सा पाल रखी है। वह मुख्य देवदासी हो सके इस हेतु कलाशिक्षण उसके व्यक्तित्व का अंग बन गया है। नृत्य और संगीत दोनों कलाओं में उसकी नैसर्गिक गति है। घुड़सवारी करना उसने किशोरावस्था में ही सीखा। एक दिन त्र्यंबक द्वारा त्रिशूल धारण करने की मुद्रा सीख रही थी। बगल में चौकी पर सिंहवाहिनी का खड्ग पड़ा था। उसे देख चौला की माँ गौरा घबरा गई-'यह सब क्या खेल मचा रखा है ?' पण्यांगना का जीवन बिता चुकी गौरा को पुत्री ने बड़ी अनिश्चितता में डाल दिया है।
'खेल नहीं, आत्मरक्षण का प्रशिक्षण है, माँ !' त्र्यंबक भी गौरा को माँ कहता है। गौरा उसके साथ सहमत नहीं। वह कहती है-'इस सोमतीर्थ में रक्षा करते हैं भगवान सोमेश्वर । हम कौन हैं अपनी रक्षा करनेवाले ? देखो भाई, मेरी बेटी को यूँ ही अभिमानी न बना देना।'
'अभिमान रखने के लिए तो उसके पास क्या कम कारण हैं ? रूप, गुण, नृत्य, संगीत...किन्तु इस शस्त्र-संचालन की प्रेरणा तो मुझे मन्दिर के प्रांगण में ही हुई थी। भगवान शम्भु की इच्छा होगी।'
'तुम्हारा यह दावा भी सही नहीं। तुम्हें आचार्य की सम्मति लेनी चाहिए। परन्तु तुम एक ही दिशा में विचार करनेवाले व्यक्ति हो। शस्त्र-संचालन में निष्णात होने के बाद चौला इतनी सुकुमार रह सकेगी?'
‘माँ, तुम अपनी ही दृष्टि से सबका मूल्यांकन करती हो,' कहती चौला ने खड्ग हाथ में लिया। पल-भर रौद्रभाव धारण किया, नृत्य की मुद्रा बदलकर तुरन्त आँखों में निरी मुग्धता दिखाई। यह भाव-परिवर्तन देखकर माँ चकित रह गई। प्रभु की कृपा उतरी है इस लड़की पर। अन्त में महाराज भीमदेव पधारे तब चौला मेरे साथ नृत्यशाला में आई थी। महाराज ने उसके विषय में पूछताछ की थी, आभूषण भेजा था। भगवान शम्भु के समक्ष नृत्य करती इस कन्या को कभी नकली आभूषण पहनना न पड़े।
त्र्यंबक महाराज भीमदेव के बड़े प्रशंसक हैं। कैसा शौर्य, कैसी उदारता ! इस सोमतीर्थ के सम्पूर्ण परिसर में कोई अपूर्णता नहीं रहनी चाहिए। गत वर्ष आचार्य की आज्ञा से सदाशिव काशी-विश्वनाथ के दर्शन के लिए गए थे। वहाँ उन्होंने युवाचार्य को प्रभास तक पहुँचाने के लिए रथ तैयार किया था। उसमें बैठें तो सदाशिव कैसे ? रथ के पालने के संगीत में सो जाएँ या चलते-चलते पुरुष और प्रकृति की लीला समझने का प्रयत्न करें ? पदयात्रा कर प्रभास आए। उनकी प्रशंसा सुनकर महाराज भीमदेव ने देवदर्शन के बाद उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। वापस आकर दूत ने संकोच के साथ बात की। महाराज भीमदेव जिनका नाम ! ऐसे राजी हुए कि अश्वगति से चले। ध्यानस्थ युवाचार्य के दर्शन कर स्तब्ध हो गए। स्वयं भी स्थाणु बने रहे। सेवक के पीछे से आ पहुँचने पर महाराज मन्दिर की ओर मुड़े तो सामने चौला मिली। महाराज का वन्दन करूँ या खिसक जाऊँ-ऐसा कुछ निश्चित करे उससे पहले फासला कम हो गया। न यचौ न तस्थौ। काव्यरसिक महाराज को 'कुमारसम्भव' की पार्वती स्मरण हो आई। हाँ, गणिका की पुत्री कहलानेवाली होकर भी इस तपोवन में उषा जैसी ही पवित्र है। पवित्रता उसका अभिनय नहीं, भाव है, स्वभाव है।
चौला को कुछ न कुछ सिखाना, साहस में साथ देना त्र्यंबक को अच्छा लगता है। सदाशिव चौला को जब भी देखते, देखते ही रह जाते। हर समय उन्हें पहली बार देखने जैसा आश्चर्य होता। उससे भी अधिक आश्चर्य उसका प्रश्न सुनकर होता। फिर स्वयं से पूछते ही उसे उत्तर मिल जाता। प्रत्येक मनुष्य में शिव का अंश रहता है, सम्भव है कि वह व्यक्त हो।
गिरिराज कन्या महादेव शम्भु को समर्पित है, देवर्षि नारद को किस तरह संकेत मिल गया ? सदाशिव समझाते हैं। पार्वती के पिता हिमालय के पास नारदजी लग्न का प्रस्ताव लेकर गए थे। कोई भी पिता विश्वास किए बिना पुत्री का विवाह कर सकता है भला ? इसलिए नारदजी शिव की प्रशंसा कर भूमिका बाँध रहे थे। मूल बात तक आ गए तब नतनेत्र पार्वती हाथ में रखे लीलाकमल के पत्रों को गिनने लगी। नारदजी को उत्तर मिल गया :
एवं वादिनी देवर्षौ: पार्श्वे पितोः अधोमुखी
लीलाकमलपत्राणि गणयामास पार्वती !
ऐसा प्रासादिक संस्कृत चौला को तत्क्षण समझ में आता है। ऐसा लगता था जैसे अबाधित ज्योतिमार्ग का निर्देश करती उक्ति भी समझ में आ गई हो, इसलिए त्र्यंबक को चौला के पक्षधर के रूप में राजी होना चाहिए था, किन्तु उसकी मुखमुद्रा देख त्र्यंबक ने आनेवाले कल के सूर्योदय से पहले ही गौरा के भवन में पहुँच जाना निश्चित किया।
गौरा के भवन के प्रवेशद्वार की सीढ़ी संगमरमर की है, त्र्यंबक वहाँ बैठ गया। उसने अनुमान किया कि गौरा मंगला आरती के लिए निकलेगी तब चौला ज्योतिमार्ग की थाह लेने निकलेगी, किन्तु गौरा अपने बन्द भवन में पुत्री को खोजती थी। उसका स्वर सुनकर त्र्यंबक ने द्वार को सहज ठेला कि खुल गया। चौला निश्चित निकल गई है। मन्दिर की पूर्व दिशा के घाट पर एक रत्नजड़ित नौका बँधी रहती थी। त्र्यंबक दौड़ा। जिसमें विहार करना चौला का व्यसन था, वह नौका नहीं थी। समुद्र के जल में कुछ पाने के संकेत करती सुनहरी आभा मात्र थी। त्र्यंबक ने सामनेवाले अर्धवर्तुल के क्षितिज पर दृष्टि डाली।
घाट और मन्दिर के बीच एक शिला पर बैठे हुए ध्यानस्थ पुरुष का भाल अभी भी अनुदित सूरज जैसा देदीप्यमान था। कौन होंगे? आचार्य या युवाचार्य ? आचार्य व्योम वृहस्पति आरती के मौके पर शिवालय के प्रांगण के बाहर नहीं निकलते। निश्चित ये सदाशिव होंगे। हाँ, अब उनका कन्धा भी अपनी आकृति प्रकाशित कर रहा है। त्र्यंबक प्रणाम करके उनसे दूर खड़ा रहा। उन्हें चौला के बारे में पूछते हुए त्र्यंबक को संकोच हुआ।
शिवालय के शिखर पर चढ़कर देखा जाए तो ? मंडोवर का एक पक्षी पाँच मंजिल चढ़कर खुद श्वास लेने के लिए खड़ा रहेगा। किन्तु दूर से चौला की नौका पहचानी जाएगी भला ? उसने नौका और चौला को भी दूर से पहचानने की क्षमता विकसित नहीं की। रक्षक के रूप में उसका वह दायित्व नहीं होता ? वह सदाशिव के आगे से दौड़ता जाए तो उनकी शान्ति में विक्षेप होगा। इसलिए उनकी पीठ के पीछे से थोड़ा लम्बा रास्ता चुनने में अधिक समझदारी थी।
किन्तु सदाशिव से कुछ अज्ञात नहीं रहता। त्रयंबक कुछ पूछे इससे पहले ही वे बोले : 'क्यों भाई इतने व्यग्र और त्रस्त हो ? मानो लुट जाने की आशंका से हाँफते हुए दौड़ रहे थे ?'
'मुझे अपने लुटने का भय नहीं गुरुवर ! भगवान सोमेश्वर की वस्तु लुट जाने का भय है। आप जानते हैं कि आचार्यप्रवर ने उसकी रक्षा का बड़ा दायित्व मेरे सिर पर डाला है।'
किसकी रक्षा का दायित्व ? चौला की ? चौला एक मुग्ध कन्या है। वह कोई वस्तु नहीं है। तुम्हारे इस दायित्व में मोह कितना है और कर्तव्य कितना-यह पहले समझ लो। आओ, यहाँ आओ।'
'आरती लेने जाऊँ ?'
'आरती चौला का विकल्प नहीं। हमारा मन व्यक्ति में हो तो शिवालय में भीड़ करना निरर्थक है।'
'आप जानते हैं कि आगामी शिवरात्रि को चौला भगवान सोमेश्वर को समर्पित होगी। उससे पहले यदि उसका अपहरण हो गया तो लोगों की श्रद्धा डिग नहीं जाएगी?'
'तुम्हें लोगों की श्रद्धा की अपेक्षा चौला के प्रति माया अधिक है। तुममें और सामन्तों या श्रेष्ठियों में मनोदशा का साम्य है। वे लोग द्रव्य धर चौला को लुभाने का प्रयत्न कर रहे हैं, तुम रक्षा का कवच प्रस्तुत करके। समझ में आती है मेरी बात ?'
त्र्यंबक को सचमुच ही भगिनी चौला विषयक सदाशिव की बात समझ में नहीं आई थी किन्तु सामन्तों और श्रेष्ठियों के साथ तुलना हुई इसलिए बुरा नहीं लगा। उसने सुना था कि परभव के पुण्य से सामन्त या श्रेष्ठी के वहाँ जन्म मिलता है। उसने तो एक श्रमिक के यहाँ जन्म लिया था। आचार्य देव ने कृपा कर शिक्षण देकर उसे अन्तेवासी बनाया। ऐसे महत्त्व का काम सौंपा। कुछ समर्पित सेवकों को द्वार रक्षा की आज्ञा प्राप्त होती है। जबकि मुझे ? कितना बड़ा दायित्व सौंपा है ? क्या यह मेरी योग्यता की कद्र नहीं है ? उसने नम्रता से सदाशिव से पूछा :
'क्या रक्षाकवच बने रहने में मेरा कोई लोभ है ?'
'होना नहीं चाहिए। किन्तु तुम जिसके रक्षण के लिए कृतसंकल्प हो, उसके विषय में सभी सचेत हैं। विचार की अपेक्षा वस्तु अधिक महत्त्व की बात बन गई है। पूजाभाव की अपेक्षा पूजापा अधिक महत्त्व का बन जाए तब आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। क्या मानसिक पूजा करने की हमारी शक्ति क्षीण हो गई ? त्र्यंबक, रूप महत्त्वपूर्ण है या रूप को व्यक्त करनेवाला तत्त्व ? कुछ दिन पहले तुम वामनस्थली के एक सेठ के यहाँ से एक गाड़ी भरकर द्रव्य ले आए उस समय तुम्हारे मुख पर विजय का भाव था। शिवभक्त को गिरनार चढ़कर जो आनन्द होता है वैसा ही सन्तोष तुम्हें द्रव्यप्राप्ति से हुआ था !'
'तो क्या दान के रूप में द्रव्य नहीं लेना चाहिए ?'
'लेना चाहिए, परन्तु शिवनिर्माल्य मानकर । तू चौला को शिवनिर्माल्य मानता है ?'
'मैं तो मानता ही हूँ, परन्तु कुछ लोग उसे महादेव शम्भु के चरण तक पहुँचने देना नहीं चाहते। कोई उसे गणिका बनाना चाहता है, तो कोई उसे अपने अन्तःपुर में ढकेल देना चाहता है। अपहरण करके विदेश भेजने को उत्सुक लोग भी होंगे'-त्र्यंबक बोलता जा रहा था।
'उनकी मनमानी होगी ?'
'हो सकती है।'
'तो, तेरी श्रद्धा इतनी कच्ची है। परमतत्त्व का अनुग्रह चौला पर उतरेगा तो उसका जीवन धन्य हो जाएगा। हाँ, उसे अपनी सज्जता बल्कि तपस्या सतत बढ़ानी चाहिए।'
त्र्यंबक युवाचार्य को सादर देखता रहा।
'मेरे सामने नहीं, तुम अपनी पीठ पीछे देखो, सूर्यमुखी बनकर-'
त्र्यंबक को समुद्र दीखा, समुद्र की लहरें दीखीं, प्रकाश उछलता था, चील के पंख जैसी पालधारी छोटी-छोटी दो नौकाएं दीखती थीं, जो लहरों की ओट में चली गईं, क्षण-भर में प्रकट हुईं... ।
तो क्या चौला की नौका उससे भी आगे निकल गई होगी ? रत्नजड़ित होने से वह आकाश के प्रकाश को परावर्तन द्वारा जल की गहराई में अतल सीमा तक पहुँचाती है।
त्र्यंबक को उलझा देख सदाशिव के मुख पर मुस्कान उभर आई। त्र्यंबक बिना बोले रह नहीं पाया :
'युवाचार्य, मुझे सचमुच ही चौला की चिन्ता होती है। आपने कल दक्षिण ध्रुव तक के अबाधित ज्योतिमार्ग की बात की, तब मैंने उसके मुख पर एक निश्चय देखा था। यदि वह दक्षिण ध्रुव का छोर खोजने जाएगी तो वह अपने ही प्रकाश में ढक नहीं जाएगी ?
'प्रकाश में कोई ढकता नहीं, उघड़ता और ज्योतिर्मय बन जाता है,' कहते हुए सदाशिव सागर की उछलती लहरों की ओर बढ़े। चाल में स्फूर्ति आई। 'त्र्यंबक, तू एक नौका लेकर मेरे साथ चल, प्रकाश की दिशा में, मुझे वे नौकाएँ आगन्तुक लगती हैं। उन्हें भान नहीं कि इस प्रभासक्षेत्र में भगवान सोमनाथ के सिवा कोई शासन नहीं करता।' चलते-चलते सदाशिव कब तैरने लगे-त्र्यंबक को इसका ध्यान नहीं रहा। वह घाट की ओर दौड़ा। दो हाथों में दो नौकाओं को उठाया, फिर याद आया- 'युवाचार्य ने एक ही नौका लाने को कहा है।' दूसरी नौका रखी तब त्र्यंबक को खयाल आया, उसने कितना वजन उठाया था...।
लहरों के आश्लेष में आते ही त्र्यंबक की नौका सजीव हो उठी। परन्तु युवाचार्य कहाँ ? ये अच्छे तैराक हैं सही, किन्तु पल-भर में दृष्टि की सीमा को पार कर जाएँ ऐसा हो सकता है ?
त्र्यंबक को लगा कि आज उसके बाजुओं का बल दोगुना हो गया है। पतवार ऊँचे भँवर मारकर सागर का स्पर्श करे उससे पहले ही उसका असर दीखता है। किन्तु सदाशिव कहाँ ? और ये नौकाएँ मुझे घेरने आ रही हैं या मैं उनके बीच जाता हूँ ? कौन हैं ये लोग ?-त्र्यंबक शान्ति से पूछता है।
'कौन हैं आप?'
'तुम्हारा काल। पीछे मुड़ो वरना मारे जाओगे।'
‘भगवान शम्भु के लिए मरने में मुझे आपत्ति नहीं।'
'जरूर मरो किन्तु भोलानाथ मात्र तुम्हारे नहीं।'
'कहाँ से आए हैं आप?'-अब त्र्यंबक के सामने आकर उसे घेरना चाहते व्यक्तियों की मुखमुद्रा स्पष्ट दीखती थी। इन लोगों को कहाँ देखा है ? ये लोग कुशल नाविक लगते नहीं। उनके पास शस्त्र होगा ऐसा लगता है किन्तु वे पतवार सँभालेंगे या मेरे ऊपर शस्त्र का प्रहार करेंगे ?
फिर भी त्र्यंबक को आश्चर्य हुआ। उसकी नौका की गति मन्द क्यों पड़ रही है ? अरे ! जल में क्या खिसकता जाता है ? एक क्षण और दूसरे क्षण में तो आगन्तुक नौका उलट पड़ी। शस्त्र दुर्गा माँ के कंगन की तरह सहज झनका और समुद्र के पेट में विलीन हो गया। डूबते हुए नाविक ने दूसरे की मदद माँगी, वहाँ उसकी नौका भी झुकी, झुकी और उलट पड़ी।
साम्ब धारण किया हुआ एक हाथ जल के बाहर दीखा, फिर दिखाई दिया, युवाचार्य का ताम्रवर्ण बना हुआ उज्ज्वल मुख।
यह अभयदान प्राप्त सोमेश्वर का जलविस्तार है। यहाँ मछुआरे भी दिखते नहीं। तुम्हारी धृष्टता को प्रभु बार-बार क्षमा नहीं करेंगे,' इतना कहते सदाशिव ने एक नौका को उनकी ओर गति दी। नाविक को लगा कि यह किसी सामान्य पुरुष के हाथ का धक्का नहीं है। उसने पलायन में समझदारी मानी।
'युवाचार्य, आप आज्ञा दें तो मैं उसे पकड़कर आचार्यप्रवर के पास ले जाऊँ।'
'नहीं, तू इस क्षेत्र में रुक जा। मैं आचार्य महाराज को बताता हूँ। मैं मानता हूँ कि चौला दूर निकल गई है। प्रार्थना द्वारा उसे चैतसिक सन्देश मिले तो वह पीछे मुड़ेगी। मैं मन्दिर की ओर जाता हूँ, तुम चौला की प्रतीक्षा करो।'
'आपको क्या लगता है ? वे अपहरण के लिए ही आए थे न ?'
'मैं उनका पता लगाने पश्चिम घाट जाता हूँ। तुम शान्त रहना। चौला को आवाज़ भी न देना। तुम्हारे गर्जन से समुद्र के नाना जीव काँप उठेंगे।'
'और आपके गर्जन से बड़े जीव-'
सदाशिव लहरों की लय में शरीर को बहता हुआ छोड़कर किनारे पहुँच गए। इस ओर पूर्ण सूर्योदय हुआ। त्र्यंबक को एक तेज बिन्दु दिखाई दिया। धीरे-धीरे उसका आकार सुडौल बनता गया। शतदल पद्म, पद्मासना श्री-
हाँ, वह चौला की नौका है। वहाँ से तेज का अम्बार जल में व्याप्त हो रहा है।
सोमेश्वर का पंचांगी मन्दिर दृष्टि के सामने उभरते ही चौला खड़ी हो जाती है। परम आश्चर्य ! ज्योतिर्लिंग पर सूर्य की किरणें उतर रही हैं। निश्चित, वहाँ से सर्पाकार गर्भगृह में व्याप्त हो जाएँगी। मानो सम्पूर्ण शिवालय की कुंडलिनी जागृत हो जाती है। चौला में नृत्य करने की इच्छा जगी। वहाँ उसे अपनी महेच्छा पर हँसी आई। नौका स्वतः लहर-लहर पर नृत्य कर रही है वहाँ मुझे उसके साथ संवाद साधना होगा या जो कला अभी मैं सीख रही हूँ उसे प्रस्तुत करने की अधीरता दिखानी होगी ? फिर भी सन्तुलन बनाने के लिए उसने अंगों को नियन्त्रित किया जिसमें मुद्राएँ तो नृत्य की ही व्यक्त हुई।
त्र्यंबक सतर्क था। चौला को माया या ममता से नहीं, कर्तव्यभाव से देखना था। सदाशिव ने उसे योग्य समय पर सावधान किया था।
चौला कभी बैठकर पतवार चलाती तो कभी खड़ी हो जाती। मानो सूर्योदय से पहले पूर्व दिशा में जाकर प्रकाश लेकर ज्योतिर्लिंग को उसका अर्घ्य देने आ रही थी। कुछ क्षण पहले रक्षा करने की अनिवार्यता खड़ी हुई थी, उस विषय में वह पूर्णतः अनजान लगती है। त्र्यंबक उससे बात करने को प्रेरित हुआ और पुनर्विचार कर रुक गया। स्वयं अल्पबुद्धि होने में उसे शंका नहीं रही।
घाट तक चौला के पहुँचने पर त्र्यंबक ने उसकी इच्छानुसार उसके निवास तक जाने दिया। सामान्य रूप से प्रदक्षिणापथ को भेदकर वह गर्भगृह में जाकर दर्शन करता, किन्तु आज प्रवेशद्वार के तोरण के नीचे खड़े होकर गर्भगृह के अन्त तक दृष्टि डाली। शृंगार चौकी, गूढ़ मंडप, अन्तराल-प्रत्येक अंग आज उसे देखने को प्रेरित करता है। चौला के रक्षण के उपरान्त शिल्प का सौन्दर्य देखते-देखते शिवालय के स्थापत्य को प्रत्येक कदम पर अनुभव करना-यह सब उसे पहली बार क्यों सूझ रहा है ? युवाचार्य ने आज उसे आसक्ति से मुक्त कर्तव्य का बोध कराया था और वास्तव में चौला की रक्षा उन्होंने ही की थी। इस बारे में चौला कभी जान नहीं पाई, शायद आचार्य व्योम वृहस्पति भी इस घटना से अपरिचित होंगे।
आचार्यश्री अन्तराल में विराजमान थे। सामने जूनागढ़ का नगरश्रेष्ठी श्रीधर खड़ा था। उसके हाथ में स्वर्णमुहरों से भरा थाल था।
श्रीधर इस पंचांगी शिवालय को स्वर्णखचित कराने हेतु दान देना चाहता था। युवाचार्य की सलाह के कारण कोठारी शर्ती दान लेने में संकोच कर रहा था। उन्होंने कहा कि भगवान सोमेश्वर के प्रांगण में चलते अन्नक्षेत्र में यह खर्च किया जाए तो?
श्रीधर जानता था कि कश्मीर, पूर्वांचल और रामेश्वर जैसे दूर-दूर के क्षेत्रों से यात्री सैकड़ों की संख्या में प्रतिदिन आते हैं। प्रत्येक पूर्णिमा को मेला लगता है, उस समय तो अमावस्या के आकाश के सारे तारे प्रभासपाटण में उतर आए हों, ऐसा दृश्य बनता है।
श्रीधर का दान अहेतुक नहीं था। चुडासमा वंश का राजकुमार जंगल में पल रहा था, छद्मवेश में देवायत अहीर के यहाँ...रा'नवघण उसका नाम। उसे गद्दी पर बैठाने की पूर्व तैयारी हो चुकी है। अणहिलवाड पाटण के राजा भीमदेव शैव हैं। आचार्यदेव जो चाहते हैं वही होता है। यदि वे भीमदेव को आज्ञा दें तो नवघण सुरक्षित रहेंगे। ऐसे भी पाटण और वन्थली के बीच प्रकट की अपेक्षा गुप्त वैर अधिक रहा है। भीमदेव के चाचा दुर्लभसेन सन् 1010 में गद्दी पर बैठे थे। उनकी रानी और बहन यात्रा पर आईं, उस समय वन्थली की गद्दी पर राजा दयास थे। उन्होंने दामोदर कुंड में नहाने के लिए दुर्लभसेन की रानी और बहन से कर वसूल कर ही उन्हें आगे यात्रा करने की अनुमति देने के लिए अधिकारियों से कहा। यह कार्यवाही अनचीती और आघातजनक थी। पाटण वापस जाकर रानी और राजकुमारी ने दयास पर चढ़ाई करने के लिए दुर्लभसेन से आग्रह किया। राजा ने चारण बीजल द्वारा दयास का सिर माँगकर सोरठ जीता था...आचार्य व्योम वृहस्पति अवगत थे। उन्होंने श्रीधर से कहा-सोमेश्वर की कृपा से सबका कल्याण होगा। अन्नक्षेत्र हेतु दान स्वीकारने के लिए सदाशिव को सूचित करना उचित है। आप भी जानते ही हैं-श्रेष्ठ दान अन्नदान।
मन्दिर से निकलकर श्रीधर गणिका गौरा के भवन की ओर गए। यह देखकर त्र्यंबक को आश्चर्य हुआ। युवाचार्य अभी भी पश्चिम घाट से आए नहीं थे। त्र्यंबक ने मन्दिर के एक रक्षक को सदाशिव की खबर लेने को भेजा। प्रातःकाल में जो कुछ हुआ था उस विषय में आचार्यप्रवर से बात करनी चाहिए या नहीं इस विषय में त्र्यंबक अभी भी दुविधा में है।
सिंहद्वार के आगे होकर मन्दिर के दो घुड़सवार रक्षक तीर-वेग से निकल गए। वे किसी का पीछा कर रहे थे या कोई उनका पीछा कर रहा था, यह भी त्र्यंबक से निश्चित नहीं हो सका। मन्दिर का एक अन्य रक्षक वापस आ रहा था। घबराया हुआ लगता था।
तभी राजवंशीय दीखती दो कन्याएँ त्र्यंबक के सम्मुख आईं, एक ने पूछा :
'चौलादेवी कहाँ हैं ?'
चौला को देवी कहनेवाली यह कौन ? परन्तु इस विषय में कुछ भी पूछने की त्र्यंबक की मनःस्थिति न थी। उसने कर्तव्यपालन की दृष्टि से पूछा :
'क्या काम है चौला का ?'
'वह आपको न बताएँ तो कोई आपत्ति है ब्रह्मदेव ? हम त्रिपुरसुन्दरी के लिए पत्रम्-पुष्पम् लाई हैं। यदि आप अनुमति दें तो...'
'अनुमति देनेवाला मैं कौन होता हूँ ?'
'रक्षक समग्र देवपाटन के हमें कभी आप से प्रशिक्षण पाना है।'
'मैं नृत्य नहीं जानता, चौला सिखाएगी, जाइए,' कहते हुए त्र्यंबक ने दिशानिर्देश किया, स्वयं युवाचार्य की खोज में निकला।
2
सोमनाथ के समुद्र में चौला का सम्पर्क करने आए हुए नाविक स्थानीय थे। उन्हें उसे विश्वास में लेकर, लुभाकर मन्दिर के परिसर के बाहर ले जाना था। जहाँ उनका काम पूरा होता था, महमूद के हिन्दू सरदारों का काम शुरू होता था। गजना में हिन्दुओं की बस्ती थी। उसमें तिलक और सुन्दर महमूद के सबसे अधिक वफादार सरदार थे। तिलक को अपने महल पर प्रहर के अनुसार संगीत बजवाने की अनुज्ञा मिली थी, तिलक के विश्वासभाजन के रूप में सुन्दर आगे बढ़ा था। महमूद द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व को निभाकर दोनों ने अनेक प्रसंगों में अपनी वफादारी सिद्ध की थी। पहले महमूद का एक शक्तिशाली सरदार था-अहमद न्यालतीनगीन। एक बार उसने महमूद के सामने बलवा किया। उसके सामने लड़ने के लिए किसी दूसरे मुस्लिम सरदार को न भेजकर महमूद ने तिलक को भेजा था। तिलक की हिन्दू सेना देखकर अहमद न्यालतीनगीन भाग निकला। किन्तु जाटों ने उसे पकड़ा और उनके पास से न्यालतीनगीन का सिर तिलक ने एक लाख दोरम में खरीदा। साथ-साथ उस विद्रोही के मुस्लिम साथियों के हाथ कटवा डाले।
तिलक हजाम का पुत्र है यह अब किसी को याद नहीं आता था। उसमें बुद्धि और शौर्य का अद्भुत मेल था। कश्मीर में रहकर वह तन्त्रविद्या में निष्णात हुआ था। पश्चिम हिन्द की भाषाओं की तरह वह फारसी का भी जानकार था। पहले दुभाषिया बना, फिर कूटनीतिज्ञ। काटोर के राजा के सैनिकों को महमूद की सेना में शामिल करने में तिलक का महत्त्वपूर्ण योगदान था।
सातवीं सदी तक काबुल में हिन्दू राजाओं का शासन था। उस समय काबुल हिन्दुस्तान का एक अंग था। वही महाभारत काल का गान्धार, वहाँ की राजकुमारी गान्धारी। शकुनी राजकुमार...आठवीं सदी में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सत्ता की लड़ाई चली। नवीं सदी में याकुब लेस नाम के ईरानी सरदार ने काबुल पर कब्जा किया। उसने हिन्दू-मन्दिरों और बौद्ध-मठों को तोड़ डाला तथा पराजित राजाओं के मस्तक खलीफा को भेजे। काबुल के पास गजना में सन् 955 में अनूप नामक हिन्दू राजा था। उसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे। दसवीं सदी के अन्तिम चरण में सबक्तगीन ने गजनी पर कब्जा कर स्वयं खलीफा के वफादार अमीर के रूप में प्रबन्ध सँभाला।
सबक्तगीन पहले बौद्ध था। गरीब होकर गुलाम के रूप में बेचा गया था। बुखारी के व्यापारी नासर हाजी ने उसे खरीदकर उसका धर्मान्तरण कराया। सबक्तगीन का पिता सारंग यादव था किन्तु गुलाम होने के कारण उसने जाबुलि नामक दासी से विवाह किया था। जाबुलि ने महमूद को जन्म दिया। उसकी दूसरी माँ उच्च कुल की गिनी जाती; इसलिए उसके पुत्र इस्माइल को गजना की गद्दी मिली। दो वर्षों में ही महमूद ने इस्माइल को हराकर कैद किया। फिर उसे विश्वासघाती करार देकर मार डाला और बाप को कैद कर लिया।
महमूद के चेहरे पर शीतला के गहरे दाग थे। उसका कद्दावर शरीर बेडौल लगता था। सुन्दर दीखने की उसकी प्रबल इच्छा थी, उसका आन्तरिक सौन्दर्य खिल नहीं सका और वह क्रूर बनता गया। थोड़े समय में वह दन्तकथाओं का विषय बन गया। उसमें वास्तविकता भी मिल गई। उसके जन्म से पहले उसके बाप को स्वप्न आया था-उसके चूल्हे में एक झाड़ उगा जिसने बढ़ते-बढ़ते सारी पृथ्वी को आवृत्त कर लिया...महमूद के जन्म के समय पेशावर में सिन्धु नदी के किनारे एक मन्दिर गिर पड़ा।
एक बार झेलम नदी में उसने सारा दारू ढरका दिया। फिर भी महमूद की शराब की लत बढ़ती गई। सत्ताईस जाम पीने के बाद भी वजू करके वह नमाज़ पढ़ सकता था। उसमें संगीत का शौक जाग उठा। उस समय गजना में गायक न मिलता तो हिन्द से पकड़वाकर मँगाता। उसकी धनलिप्सा असीम थी इसलिए वह हमला करता गया और सेना बढ़ाता गया। हिन्द के प्रत्येक हमले की वह जेहाद (धर्मयुद्ध) के रूप में पहचान कराता। लूट और बलात्कार के बाद युवा स्त्री-पुरुषों को वह गुलाम के रूप में पकड़कर ले जाता, कुल आय का पाँचवाँ भाग ही वह गान्धार प्रदेश में ले जाता, बाकी चार भाग अपने सरदारों और सैनिकों के बीच योग्यता के अनुसार बाँट देता। इस तरह अपनी लालसा में उसने लाखों लोगों को भागीदार बनाया था। सामनेवाले पक्ष को कूटनीति से जीतने में वह शकुनी से बढ़कर था। गान्धार में जन्मे शकुनी ने अपने भानजे के लिए महाभारत का सृजन किया। महमूद ने अपने लिए महासंहार किया। महमूद अपने हिन्दू सरदारों को गजना के प्रबन्ध में रोकता, उसी तरह हिन्द से समाचार पाने में उनकी मदद लेता। सन् 1022 में पन्द्रहवीं चढ़ाई के समय वह मध्यदेश तक पहुँच गया था। अब उसे जगत का सबसे अमीर सुल्तान बनना था। उसकी इस महत्त्वाकांक्षा को सन्तुष्ट करने के लिए उसके गुप्तचर हिन्दू धर्मस्थानों की टोह लेने चले थे। उसमें तिलक का वफादार मित्र और महमूद का होशियार सरदार सुन्दर यात्री वेश में साथियों को लेकर प्रभासपाटण आ पहुँचा था। जिन दो नाविकों को सदाशिव ने समुद्र से भगाया था वे स्थानीय तटवासी व्यक्ति थे, दूसरा कुछ भी नहीं जानते थे। उन्हें चौला को विनती कर पश्चिम घाट की ओर ले जाना था। फिर चतुर पुरुष द्वारा उसे समझाना था-दासी नहीं, रानी बनने के लिए तुम्हारी सर्जना हुई है। ऐसा करने में उनको कुछ भी अनुचित नहीं लगा था। क्योंकि लोकधारणा के अनुसार चौला गणिका की पुत्री थी और उसके साथ प्रवासी बात कर सकता है, उसके यहाँ जा सकता है, रह सकता है। यद्यपि यह भी सुविदित था कि गौरा ने अपना व्यवसाय कब का छोड़ दिया था और भगवान सोमेश्वर की सेवा में तन-मन-धन से रत रहती थी। वह धर्मजिज्ञासा से कभी आचार्य व्योम वृहस्पति से प्रश्न करती। आचार्यदेव उसके प्रश्न की कदापि उपेक्षा नहीं करते और चौला तो अपने शैशव से ही मन्दिर के वातावरण में पली थी। उसकी समझदारी की, उसके सौन्दर्य और गान-नर्तन की ख्याति प्रभास के बाहर भी फैलती जा रही थी। महमूद के सरदार सुन्दर की इच्छा उसके द्वारा यहाँ के जीवन में हिल-मिलकर एक-एक वस्तु की थाह लेनी थी। लेकिन वह नेपथ्य में ही रहा। युवाचार्य सदाशिव को भी उसकी उपस्थिति का संकेत नहीं मिला था। उन्हें तो चौला के ज्योतिमार्ग में बाधा बननेवाले नाविकों के सरदार का पता पाना था। प्रभास में उनका सर्वत्र भारी समादर था। आचार्य व्योम वृहस्पति के दर्शन मन्दिर के बाहर दुर्लभ थे। प्रसंग विशेष में यजमान के यहाँ उनका आगमन होता, जबकि सदाशिव तो जितने मन्दिर के थे उतने ही नगर के। उनकी दृष्टि में शिवतत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। उसके आड़े आनेवाले आवरण को दूर करने का कर्तव्य सूझने के क्षण ही वह सक्रिय होता है। आचार्य व्योम वृहस्पति के जैसे उनके पद की मान-मार्यादा नहीं थी। वास्तव में उन्हें युवाचार्य कहना भी लोगों ने ही आरम्भ किया था। नगर में बसनेवाली प्रत्येक जाति के युवकों और मन्दिर के रक्षकों के वे प्रेरणास्रोत थे। उनकी निर्भीकता कालभैरव के समान थी तो उनकी देहकान्ति देखकर श्रद्धालुओं को कार्तिकेय का स्मरण होता था। ऐसे युवाचार्य के मस्तक पर एक व्यक्ति ने पीछे से दंडप्रहार किया है, यह जानकर दो रक्षक घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। त्र्यंबक ने वह गतिशील दृश्य देखा किन्तु समझ नहीं सका। उसका दायित्व चौला का रक्षण था इसलिए घुड़सवार रक्षकों को अपना काम करने देकर वह गौरा के भवन की ओर गया। प्रांगण में प्रवेश कर बेचैन हुआ। अतिथिकक्ष में श्रीधर विराजमान थे। चौला के कक्ष में सखियों की कुलबुलाहट थी। कलाकक्ष में वादक तन्तुवाद्यों और चर्मवाद्यों को सुर में लाने में व्यस्त थे। चौला प्रातःकाल के नौकाविहार से भीग गई थी इसलिए वह सुगन्धित द्रव्यों से युक्त जल में स्नान कर रही थी। सखियाँ विनोदवार्ता द्वारा दूर से उसे शब्दस्नान करा रही थीं। त्र्यंबक को लगा कि ऐसे शृंगारिक वातावरण में ब्रह्मचारी को रुकना नहीं चाहिए। आचार्यदेव से मिलकर गौरा के यहाँ श्रीधर नागर की उपस्थिति की जानकारी लेकर स्वयं सदाशिव के पास जाएगा।
गौरा जानती थी कि श्रीधर सुशील और विद्वान नागर हैं। जूनागढ़ में उनकी प्रतिष्ठा है। लेकिन यहाँ उनका स्वयं का आगमन लोगों के लिए कौतूहल का विषय बनेगा।
महाराज दयास के दरबार में गौरा ने नृत्य किया तब उसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। श्रीधर ने उसे नज़र से सम्मानित किया था। उस प्रसंग के उल्लेख से गौरा भावुक बन गई।
राजकुमार नवघण भी उसे याद आया।
'कौन जाने कहाँ होगा !'
-श्रीधर गौरा के प्रश्न का भावार्थ समझने का प्रयत्न करता रहा।
'भयमुक्त हो तो वह प्रकट होने के लिए सोचे।'
'भय किसका ?'
'तुमसे क्या अज्ञात है ?'
गौरा विचार में पड़ गई। उसने श्रीधर के सामने देखा। शायद अब वह उनके आगमन का प्रयोजन भाँप गई थी।
महाराजाधिराज दुर्लभसेन और भीमदेव की मन ही मन तुलना करके गौरा ने कहा : 'आप इस दासी को कोई काम बताएँ तो वह धन्य होगी।'
'उस तरफ यात्रा पर जाना हो और महाराज भीमदेव का मन जाना जा सके तो नवघण को सन्देश भेजा जा सकता है। कहाँ पाटण और कहाँ वन्थली ! दोनों के बीच स्पर्धा न हो। आज तो यहाँ अराजकता जैसी स्थिति है। राजतन्त्र खड़ा हो और महाराजाधिराज भीमदेव की शुभेच्छा प्राप्त हो तो इससे सबकी शोभा बढ़ेगी।'
'मेरी अल्पबुद्धि राजनीति तो क्या समझे ? लेकिन अवसर मिले तो महाराज से मैं अपने लिए कुछ नहीं माँगूंगी, रा'नवघण के लिए मागूंगी।'
'चौला साथ आएगी ?'
'उसे यात्रा की अनुमति मिलेगी ?'
'अनुमति किसे देनी है ? आचार्य व्योम वृहस्पति को ?'
'हाँ, यदि चौला स्वेच्छा से देवदासी बने तो आचार्य की शभाशीष उसे मिलेगी।'
'और संसार को स्वीकार करे तो ?'
'संसार ? मेरी पुत्री को क्यों कोई संसारी स्वीकारेगा ?'
'जाननेवाले जानते हैं कि यह तुम्हारी पालित पुत्री है और तुम्हारी सन्तान हो तो भी उत्तरजीवन में तो दानपुण्य की तपस्या से तुम यशस्वी बनी हो।'
गौरा को अपनी प्रशंसा में अतिशयोक्ति लगी सही किन्तु असत्य नहीं लगा। श्रीधर की गुणदर्शिता से वह सहमत हुई। भेंट-सौगात स्वीकारने में उसे संकोच हुआ। किन्तु यात्रा में दान देने में यह काम आएगा, यह कहकर स्वीकार किया।
श्रीधर जूनागढ़ के लिए रवाना हुआ।
वहाँ मन्दिर में गर्भगृह के चौखट पर बैठे सदाशिव विचारमग्न मुद्रा में थे। अहंकार ने मुझे असावधान बनाया ? प्रहार झेलना पड़ा।
त्र्यंबक चाहता था कि सदाशिव उसके कुटीर में आकर विश्राम करें। उनकी जगह किसी दूसरे के गले पर ऐसा प्रहार हुआ होता तो अभी भी वह अचेत होता और वैद्यराज उपाय ढूँढ़ते होते।
'तू आराम कर, आज तू मुझसे ज्यादा थका होगा !'
'नहीं-नहीं, मैं स्वस्थ हूँ। चौला सुरक्षित रहे, बस।'
'उसे सुरक्षित रखने का तुम्हारा विशेष उत्साह था, वह आज पहचान गया। उसे रोकनेवालों को मैं अब तक पहचान नहीं सका, किन्तु वे लोग हम सबको पहचान गए लगते हैं।'
'जूनागढ़ के श्रेष्ठी श्रीधर आए थे। उनकी इच्छा मन्दिर को रत्नजड़ित करवाने की है। अब नए रत्न जड़ने के लिए जगह कहाँ है ?' ऐसा सुनकर श्रीधर ने दान देने का दूसरा उपाय ढूँढ़ा। उन्हें आचार्यदेव का आशीर्वाद चाहिए। अन्नक्षेत्र के लिए एक हज़ार स्वर्ण मुहर दे गए हैं।
'तब तो जितनी बार आएँगे उतनी बार स्वर्णमुहर लाएँगे,' कहते हुए सदाशिव हँस पड़े। त्र्यंबक ने कहा, आचार्यदेव पहले तो ना कहते हैं किन्तु बाद में स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें लोभ होगा भला ?'
'लोभ नहीं, किन्तु आवश्यकता। मन्दिर का वैभव बढ़ता जा रहा है, प्रबन्ध विस्तृत होता जा रहा है। हम अपनी आवश्यकता को बढ़ाकर पराधीनता स्वीकार नहीं कर लेते ? त्र्यंबक, जैसी पराधीनता सत्ता की होती है वैसे ही सम्पत्ति की भी। मैंने एक दिन आचार्यदेव से कहा कि हमें श्रद्धालुओं को ज्योतिर्लिंग के दर्शन कराने हैं या बाह्य वैभव के ? उन्होंने कहा कि श्रृंगार चौकी से आकर्षित होकर यात्री अन्दर प्रवेश करेंगे और ज्योतिर्लिंग तक पहुँचकर आत्मज्योति पाएँगे। यह असम्भव नहीं। किन्तु त्र्यंबक, मैंने देखा श्रृंगार चौकी ने कितने को वहीं रोक रखा है। बस, वे वहाँ खड़े-खड़े सभामंडप में नृत्य निहारेंगे।'
‘आप नृत्य क्यों नहीं निहारते ?'
'मैं अपने अन्दर तांडव और लास्य दोनों निहारता हूँ। नन्ही बालिकाओं का रासगरबा भी मुझे आनन्द देता है, किन्तु विवश दासियों के नृत्य देख मैं प्रेरित नहीं होता हूँ।'
'दासी नहीं युवाचार्य, देवदासी, आपने क्यों ऐसी भूल की ?'
'भूल की हो तो अच्छा।'
'आप माया का तिरस्कार करते हैं।'
'नहीं, मैं महामाया की वन्दना करता हूँ। मैं शैव हूँ तो शाक्त भी हूँ। मेरा वैराग्य आनन्द का विरोधी नहीं।'
'चौला के विषय में आपकी क्या भविष्यवाणी है ?'
'मैंने कभी भी भविष्यवाणी की है ? मैं समग्र भविष्य को कल्याणकारी मानता हूँ।'
'किन्तु आप ज्योतिषशास्त्र तो जानते हैं।'
'जानता हूँ वह सब मानना आवश्यक है सही ? कितने ज्ञान भाररूप बन जाते हैं। प्रत्यभिज्ञा तक पहुँच नहीं पाते।'
‘प्रत्यभिज्ञा तक पहुँचते नहीं, माने ?'
'कभी पूरा अवकाश मिलने पर बात होगी। जबकि यह बात का नहीं अनुभव का विषय है।'
तभी तीनेक यात्री सभामंडप में कुछ समय तक रुककर अन्तराल की ओर आने लगे।
'त्र्यंबक देखो, वे यात्री शिल्पों का सौन्दर्य नहीं देखते, स्तम्भों पर सोना और रत्न जहाँ जड़े हुए हैं वहाँ उनकी दृष्टि गड़ जाती है। देखना वे ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते हैं या मात्र निरीक्षण ? उपनिषदवाणी तुमने नहीं सुनी-'हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितम् मुखम्'-सत्य का मुख स्वर्ण के पात्र से ढका हो तभी वह सुन्दर लगता है। उसे उघाड़ने का मन नहीं होता। ऐसी माया होती है स्वर्ण की। इसलिए सूर्य की प्रार्थना करनी पड़ती है-हे सूर्य, तू यह पात्र उघाड़ दे, जिससे हमें सत्यधर्म की दृष्टि मिले। इस मन्दिर में प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्य स्वयं ज्योतिर्लिंग को देदीप्यमान कर जाता है फिर इस स्वर्ण और रत्नों से प्राप्त होनेवाले जुगनू के उजाले का क्या लोभ ?'
त्र्यंबक समझने का प्रयत्न करता है। अपने से प्रश्न करता है-यदि स्वर्ण और रत्न की आवश्यकता नहीं तो चौला के समर्पण की भी आवश्यकता क्या ? आचार्यदेव से पूछू ? और यदि वे कह देंगे कि चौला के नृत्य की आवश्यकता नहीं है तो ? स्वयं इस पंचांगी मन्दिर के नृत्यमंडप में चौला की नृत्यमयी मुद्राओं की कल्पना करते हैं। इस कल्पना को वे अपनी भक्ति मानते हैं। उपास्यदेव की भक्ति का प्रचार कर अनेक के पास पूजार्चना करवाना भी भक्ति का ही एक प्रकार है। चौला किसी राजाधिराज के समक्ष नृत्य करे वह अच्छा या भगवान सोमेश्वर के सम्मुख नृत्य करे यह अच्छा ? उसे राजसी होने से रोककर सात्त्विक बनाना आचार्यदेव का उपक्रम लगता है। मैं स्वयं उस दिन की प्रतीक्षा करूँगा। उस दिन तक चौला की रक्षा करूँगा।
त्र्यंबक को चौला के मुख की आकृति और देहयष्टि का स्मरण हुआ। यदि वह गौरा की पुत्री है तो आकृति इतनी भिन्न क्यों ? वह बेचैन हुआ, किससे पूछ् । चौला या गौरा के साथ बात करने की आचार्यदव ने मनाही की है। युवाचार्य से पूछेगे तो वे प्रतिप्रश्न करेंगे-आजकल तुम्हारे सभी प्रश्नों का केन्द्र चौला क्यों है ? निरुपाय होकर वह आचार्य व्योम वृहस्पति के पास गया। वे विश्राम में थे। सोए-सोए ही पूछा-'कैसे आना हुआ वत्स ?' प्रश्न जरा विचित्र है, पूछू ? पहले अनुमति माँग लेना अच्छा है। ऐसा ही किया। क्षमा माँगी, हाथ जोड़ जिज्ञासा व्यक्त की। वृहस्पति ने मस्तक सहज ऊँचा किया-'मेरे पास जो उत्तर है वह युवाचार्य द्वारा मुझे प्राप्त हुआ है। तुम उनसे पूछ नहीं सकते ? उन्हें योग्य लगेगा तो तुम्हें बताएँगे। तुम हठ नहीं करते।'
'वे बुजुर्ग बन्धु मेरे हठ को बालहठ मानते हैं। में पच्चीस वर्ष का युवक हूँ, यह उन्हें दीखता ही नहीं।'
और वे ? सोलह वर्ष की अवस्था में ही बत्तीस लक्षण युक्त,' कहते हुए आचार्य बैठ गए-'त्र्यंबक तुम जानते हो मैं यहाँ किस तरह स्थायी हुआ ?' पल-भर स्मरण कर आचार्य व्योम बोले, 'मैं प्राची तीर्थ के दर्शनार्थ आया था। तुम वहाँ गए हो न ?'
'अनेक बार। जैसे यहाँ के त्रिवेणी संगम में सरस्वती विलीन होती है वैसे ही प्राची में वह अलग स्वरूप धारण करती है। वह सरस्वती विलीन होती है वैसे ही प्राची में वह अलग स्वरूप धारण करती है। वह सरस्वती पूर्व दिशा की ओर बहती है इसलिए प्राची तीर्थ की सर्वाधिक महिमा है,' त्र्यंबक ने गहरे विश्वास के साथ कहा।
इतने ही विश्वास से उस दिन बटुक सदाशिव ने मुझसे कहा था, 'कर्मकांडी ब्राह्मणों ने इतना भाग खोद निकालकर नदी को पूर्व दिशा में बहाया नहीं होगा ?'
त्र्यंबक हँस पड़ा-सदाशिव बड़े विनोदी हैं। उन्हें सबकी अपेक्षा उल्टा ही सूझता है। मैंने उनसे पूछा, 'यह सच है कि श्रीकृष्ण भगवान को तीर प्राची के अश्वत्थ के नीचे लगा था ? और दारुक उन्हें वहाँ से भालका तक ले गए ?' तो मुझसे कहा, 'ऐसा भी क्यों न हुआ कि भालका में श्रीकृष्ण को तीर लगा हो और वहाँ से उन्हें त्रिवेणी किनारे देहोत्सर्ग की जगह पर लाया गया हो। मुझे तो प्राची और भालका की अपेक्षा देहोत्सर्ग के स्थान पर विशेष शान्ति की अनुभूति होती है। विसर्जन, परम विश्रान्ति, लयविलय का संगीत, मैं समुद्र को चाहता हूँ किन्तु पूजा करता हूँ नदी के जल की...त्रिवेणी तीर्थ का संगम मुझे जीवन और मृत्यु दोनों का अवबोध कराता है।'
-सुनते हुए आचार्य व्योम वृहस्पति धन्यता अनुभव करते रहे।
वहाँ करीब तीन वर्ष का कुमार भाव वृहस्पति एक हाथ में सीप और दूसरे हाथ में स्वर्णमुहर लेकर आ पहुँचा। कुमार भाव मुट्ठी खोलकर झुककर स्वर्णमुहरों और सीपों को समान भाव से त्र्यंबक के पाँव के पास बिखेरता हुआ खड़ा रहा। उससे हुई ध्वनि ने आचार्य और शिष्य दोनों का ध्यान खींचा। त्र्यंबक नीचे बैठा, भाव को गोद में लिया। भाव तुरन्त गोद से उतरकर नीचे बैठा-'चलो खेलते हैं।'
'दो में से एक ढेर मुझे दे दो। जो तुम्हें अच्छा लगे उसे रखो।'
'भाव ने स्वर्णमुहरों को पिताजी की ओर खिसका दिया।'
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