सोमारू-मंगरू : बिहार की लोक-कथा

Somru-Mangru : Lok-Katha (Bihar)

मिथिलांचल में एक गाँव था। उस गाँव में दो भाई रहते थे। एक का नाम था सोमारू और दूसरे का नाम था मंगरू। दोनों में बहुत प्यार था और आपसी तालमेल भी बहुत था। दोनों एक साथ ही खाते-पीते थे और रहते थे। दोनों भाइयों ने एक बार आपस में विचार-विमर्श किया कि क्यों न हम लोग देश-परदेश घूमने के लिए निकलें। ऐसा ही विचार कर दोनों ने घोड़ा तैयार किया, ज़रूरी साज-सामान रखा और दूसरे दिन सुबह निकलने की तैयारी कर ली।

अगले दिन सुबह-सुबह ही घोड़े पर सवार होकर दोनों भाई चल दिए देशाटन को। जाते-जाते दोनों जब थक जाते तो रास्ते में किसी छायादार वृक्ष की छाया में एक किनारे घोड़ा बाँधकर और दूसरे किनारे गमछी बिछाकर विश्राम कर लेते। भोजन के लिए जो सत्तू और अन्य ठेकुआ-पुआ-भुंजा आदि लेकर चले थे, उसी से गुज़ारा कर लेते थे। साँझ होते ही वैसे ही किसी छायादार वृक्ष के नीचे रात गुज़ार लेते थे। ऐसे ही कुछ दिन चलता रहा।

एक दिन दोनों भाई संध्याकाल एक पीपल के पेड़ के नीचे अपना आश्रय बनाया। खा-पीकर दोनों भाई सो गए। घोड़ा तो दूसरी तरफ़ बाँध ही दिया था।

उसी पीपल के एक खोहड़ में नाग-नागिन वास करते थे। नाग ने जैसे ही पीपल गाछ के नीचे दो मुसाफ़िर को आराम करते देखा तो उसका मन चटपटाने लगा। वह उनको डस कर अपना विष उतारना चाहता था। लेकिन नागिन दयालु स्वभाव की थी। वह नहीं चाहती थी कि नाग उन्हें डसे। इसलिए नाग बड़ी देर तक धैर्य धारण कर और मन मारकर चुपचाप मौक़े की तलाश में था। जब उसने देखा कि नागिन सो गई, तब वह धीरे-धीरे ससर कर आया और सोमारू को डस लिया। इसके बाद वह वैसे ही चुपके से नागिन के पास सो गया, जैसे उसने कुछ किया ही नहीं। सवेरा होते ही मंगरू उठा। जब वह सोमारू को जगाने लगा तब उसने देखा कि उसकी साँस रुकी पड़ी है और उसके मुँह से झाग निकल रहा है। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि किसी कीड़े-मकोड़े ने इसे डस लिया और सोमारू अब मृत्यु को प्राप्त हो गया है।

सोमारू के मृत जान पड़ते ही मंगरू रोने लगा। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह अब क्या करे। अचानक उसे अपने भाई के क्रिया-कर्म का ध्यान आया। उसने सोचा कि निकट के ही किसी शहर में जाकर घोड़ा बेचने से जो पैसा मिलेगा, उसी से भाई का क्रिया-कर्म कर दूँगा। ऐसा सोचकर मंगरू नगर की ओर चल दिया।

मंगरू ने अपने भाई की मृत्यु का दुख कई लोगों के साथ बाँटना चाहा पर सहायता करना तो दूर सहानुभूति के दो बोल भी कोई न बोल सका। कोई उसका घोड़ा भी ख़रीदने को तैयार न था। अंत में एक बड़े-से घर, जो कि बहुत धनवान व्यक्ति का लग रहा था, के दरवाज़े पर आवाज़ लगाकर मालिक तक पहुँचा। उसने अपना सारा हाल कह सुनाया। मंगरू को ऐसा लगा कि यह धनवान व्यक्ति मेरा घोड़ा ख़रीद लेगा।

पर वह धनवान व्यक्ति तो आले दर्जे का धूर्त और कपटी निकला। वह समझ गया कि इस शहर में यह नया व्यक्ति है और यह मेरा क्या बिगाड़ लेगा? उसने छल से घोड़ा बाँध लिया और मंगरू को भी बंधक बना लिया। दिन-रात उससे काम लेता और खाने-पीने को भी जैसे-तैसे देता था। हमेशा उसकी निगरानी करता रहता था कि वह कहीं भाग न जाए। मंगरू अब फँस चुका था।

इधर सोमारू का मृत शरीर दिनभर उसी गाछ के नीचे वैसे ही पड़ा रहा। नागिन ने जब मृत शरीर को देखा तो नाग को बहुत फटकार लगाई कि निरपराध बटोही को क्यों डस लिया? पर अब तो कुछ हो नहीं सकता है।

संयोग की बात है कि विधि-विधाता दोनों मृत्युलोक की सैर पर निकले थे और रात्रि विश्राम के लिए उसी गाछ पर रुके थे जिसके नीचे सोमारू का मृत शरीर पड़ा था। विधि की नज़र अचानक नीचे ज़मीन पर पड़ी तो सोमारू के उस मृत शरीर पर भी नज़र पड़ जाना स्वाभाविक ही था। सुंदर काया देखकर विधि को दया आ गई। उन्होंने विधाता से कहा, “देखिए स्वामी! यह कोई सुंदर युवक है और न जाने किस कारण से इसने अपनी जान गँवा दी है। इसके परिवार के लोग चिंतित होंगे। इसलिए कोई उपाय कर इसे जीवित कर दीजिए।”

विधाता ने विधि से कहा, “देखिए विधि, यह मृत्युलोक है। इस लोक में लोग जन्म लेते हैं और मरते हैं। आप यदि सबको जीवित करने लगेंगे तो मृत्युलोक का नियम ही ख़त्म हो जाएगा।”

फिर भी विधि बार-बार विधाता से उस नवयुवक अर्थात सोमारू को जीवित करने का आग्रह करने लगीं। विधि द्वारा बार-बार आग्रह-निवेदन के पश्चात विधाता को उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने कुछ ऐसा चक्र चलाया कि नाग को जाकर सोमारू के शरीर से विष निकालने को बाध्य होना पड़ा। इसके बाद सोमारू जीवित हो गया। वह सवेरा होने का इंतज़ार करने लगा।

उधर सोमारू को जीवित देख विधि-विधाता उस गाछ से उड़कर आगे बढ़ चले।

सोमारू को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसका भाई मंगरू यहाँ नहीं है। उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। उजाला होते ही वह अपने घोड़े पर सवार होकर अपने भाई मंगरू की खोज में निकल पड़ा। इधर-उधर बहुत ढूँढ़ा पर मंगरू का कोई थाह-पता नहीं लग रहा था। चलते-चलते शाम हो गई थी। यदि रात हो गई तो और मुसीबत हो जाएगी। यही सोचकर सामने एक घर दिखा, उसने सोचा यहीं रुका जाए। उस घर के बाहर एक बुढ़िया दिखी। सोमारू ने उस बुढ़िया से कहा, “मैं तो परदेसी हूँ। यहाँ एक रात ठहरने की जगह मिलेगी क्या?” बुढ़िया ने उसका हृदय से स्वागत किया। उसके थोड़ी देर बाद ही बुढ़िया रोने-गाने लगी।

बुढ़िया को कभी रोते और कभी हँसते देख सोमारू अवाक् रह गया। उसे ऐसा लग रहा था कि बुढ़िया कहीं पागल तो नहीं है। सोमारू को कुछ समझ नहीं आ रहा था। इसलिए उसने बुढ़िया से पूछा, “माताजी! अभी तो आप मेरे साथ हँस-हँस के बात कर रही थीं, फिर तुरंत रोने लगीं? आख़िर क्या बात है? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।

बुढ़िया ने सोमारू को बताया, “बेटा! मेरे लिए यह बड़ी ख़ुशी की बात है कि एक व्यवहार-कुशल और सुंदर युवक मेरे घर अतिथि के रूप में पधारा है। इसलिए बहुत ख़ुश हूँ। पर दुख की बात यह है कि मेरा एक ही बेटा है। उसका द्विरागमन का दिन निश्चित है। पर दुर्भाग्य की बात है कि इस नगर की राजकुमारी पता नहीं राक्षसी है कि दैत्य है, उसे रोज़ एक नवयुवक भक्षण के लिए चाहिए और कल मेरे बेटे की बारी है। इसलिए पुत्र वियोग में मैं रो भी रही हूँ।”

सोमारू ने धीरे-धीरे उससे सारी बातें खोद-खोदकर पूछी और सब कुछ समझ लिया। बुढ़िया ने उसे यह भी बताया कि इस राज्य का जो राजा है उसकी एक इकलौती बेटी है। बहुत ही सुंदर है राजकुमारी। पर पता नहीं क्या रहस्य है? जिस युवक से उसकी शादी होती है, उसके साथ पहली रात गुज़ारता है और दूसरे दिन सुबह-सुबह ही वह मृत पाया जाता है। ऐसा कई नवयुवकों के साथ हुआ और उनकी जान चली गई। जो युवक राजकुमारी संग कोहबर में रात बिताता, सुबह राजकुमारी के शयनकक्ष से उसकी लाश बाहर आती। कल की रात मेरे बेटे की बारी है। वह भी राजकुमारी संग रात गुज़ारेगा और सुबह उसकी लाश मुझे देखने को मिलेगी। यही सोचकर मैं रो रही हूँ।

बुढ़िया की बात सुनकर सोमारू का मन करुणा से भर गया। वह साहसी और परोपकारी स्वभाव का व्यक्ति था। उसने बुढ़िया से कहा, “माता, आपका आज से पहले एक बेटा था। अब मुझे भी अपना बेटा समझो। कल मैं ही भैया के बदले राजकुमारी संग सोने चला जाऊँगा। जब मैं मर जाऊँ तो आपका एक बेटा तो जीवित रहेगा ही। इसलिए माँ मुझे आशीर्वाद दो। यदि मैं जीवित लौट आया तो आपके दो बेटे हो जाएँगे।”

इस पर बुढ़िया ने कहा, “नहीं बेटा! मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने के लिए कहूँगी। आख़िर तुम भी तो किसी माँ के ही बेटे हो। मैं अपने बेटे को बचाने के लिए तुम्हें अपना बलिदान नहीं देने दूँगी।”

तथापि सोमारू की ज़िद के आगे बुढ़िया की एक न चली और सबेरा होते ही वह राजमहल की दिशा में चल दिया। राजमार्ग के रास्ते जाते समय उसे केले का बग़ीचा दिखा। उसने अपने पास रखे औज़ार से केले का एक गाछ काट लिया और मनुष्य का आकार तराश कर उसे अपने साथ ले लिया। इन सब साजो-सामान के साथ वह राजा के दरबार में पहुँचा। सिपाहियों ने सूचना दी कि राजकुमारी संग रात बिताने के लिए एक नवयुवक आया है।

सिपाही सोमारू को हवेली में ले गए। उसे स्नानादि के उपरांत नए कपड़े पहनने को दिए गए। उसे नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन भी परोसे गए। इसके पूर्व ही उसने केले का थम्ह आदि राजकुमारी के कक्ष में रखने को बोल दिया था। अपने घोड़े को भी घोड़सार में बँधवा दिया था।

रात होते ही सोने के लिए राजकुमारी के महल में चल दिया। सोमारू ने केले के थम्ह को राजकुमारी के पांजर में अर्थात बगल में कपड़ा-लत्ता ओढ़ा कर लेटा दिया। ऐसा जान पड़ता था जैसे राजकुमारी संग कोई नवयुवक लेटा हुआ है। स्वयं वह पलंग के नीचे आसन लगाकर बैठ गया।

अहर बीता, पहर बीता, सोमारू ने देखा कि राजकुमारी आराम से सो रही है। जैसे ही आधी रात हुई अर्थात बारह बजते ही उसने देखा कि राजकुमारी की नाक से फुंफकारने की आवाज़ आने लगी। तभी राजकुमारी की नाक से एक नाग निकला और पांजर में रखे केले के थह पर दो हबक्का मारा। सोमारू सावधान होकर यह सब देख रहा था। थम्ह पर हबक्का मारकर नाग राजकुमारी की नाक में जैसे ही घुसने वाला था, सोमारू ने अपने औज़ार से उस नाग के दो टुकड़े कर दिए और उसे पलंग के नीचे रखे झाँपी में झाँप दिया। इसके बाद सोमारू केले के थम्ह को हटाकर स्वयं राजकुमारी के पांजर में लेट गया।

भोर होते ही सिपाही लाश लेने वहाँ आए। दरवाज़ा बंद था और राजकुमारी ने भी उठकर दरवाज़ा नहीं खोला। सिपाहियों ने आवाज़ लगाना शुरू किया, “राजकुमारी जी किवाड़ खोलें।”

तब भीतर से सोमारू ने कहा, “दरवाज़ा देर से खुलेगा। यहाँ राजकुमारी की नींद पूरी नहीं हुई है। मैं भी जीवित हूँ।”

पूरे नगर में शोर हो गया कि राजकुमारी संग सोने वाला युवक जीवित है। सभी नगरवासी यह दृश्य देखने के लिए राजमहल के बाहर इकट्ठा हो गए।

इधर शोर सुनकर राजकुमारी की भी आँखें खुल गईं। वह अब अत्यधिक ख़ुशी अनुभव कर रही थी। उसके माथे में जो भारीपन था वह ख़त्म हो गया। अपने बिस्तर में लेटे युवक को उसने गले लगा लिया।

थोड़ी देर बाद राजा-रानी भी दौड़ते आ गए। महल का फाटक खोला गया। राजकुमारी शर्माते हुए बाहर आईं और सोमारू भी आँखें मलते बाहर निकला जैसे रातभर जागता रहा हो।

वहाँ इकट्ठे सारे नगरवासी सोमारू की जय-जयकार करने लगे। राजा ने सोमारू का विवाह राजकुमारी संग करने की घोषणा की और शुभ मुहूर्त देखकर दोनों का विवाह कर दिया गया। सोमारू ने इस अवसर पर बुढ़िया, उसके बेटे और बहू को बुलाकर उनका हृदय से स्वागत किया और एक इलाका उन्हें दान में दे दिया जिससे वे सुखपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकें।

सोमारू तो अपने ससुराल में राजसुख का भोग कर रहा था, पर जब कभी अपने भाई मंगरू की याद आती तो उसका दिल दुख से भर जाता था।

इसी तरह से दिन बीत रहे थे। सोमारू के ससुर अर्थात राजा ने एक दिन उसे बुलाकर कहा कि मेरी तो ले-देकर एक ही बेटी है और यह राज-पाट सारा तुम दोनों के भोग के लिए ही है। इसलिए मैं तुम्हारा राजतिलक कर देता हूँ ताकि मैं राज-काज के झंझट से मुक्त हो जाऊँ और भगवान के भजन में मन लगाऊँ। सोमारू ने राजा की बात सहर्ष मान ली और वह उस राज्य के राजा के रूप में प्रतिष्ठित होकर प्रजापालन में तत्पर हो गया।

सोमारू ने राजा बनने के बाद प्रजा के कष्टों को अपना कष्ट समझकर उनके निवारण में सदैव तत्पर रहने लगा। जब-तब वह राज्य के किसी भी कोने में निकल जाता और प्रजा की परेशानी को देखकर तत्काल उनके कल्याण का उपाय करता था। इससे प्रजा में उसकी लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई। वह जिस किसी भी नगर–गाँव में जाता, उसके दर्शन के लिए लोगों की भीड़ जुट जाती थी। ऐसा इसलिए भी होता था कि सबको आभास हो चला था कि अपने कष्ट, अपनी परेशानी वह सीधे राजा को कहेगा ताकि तत्काल उसका समाधान हो सके जो कि होता भी था।

एक दिन की बात है। राजा सोमारू उसी शहर में पहुँच गया जिस शहर में उसका भाई मंगरू को बंधक बनाकर रखा गया था। इस बात की ख़बर कानों-कान मंगरू तक पहुँची और वह भी राजा से मिलकर अपने कष्ट के निवारण को आतुर हो गया। ठीक समय देखकर वह मालिक के क़ब्ज़े से भाग निकला और राजा को देखने के लिए जो भीड़ जमा थी, उसी भीड़ में घुस गया। उसका मालिक भी पता लगते ही उसके पीछे-पीछे भागा आ रहा था उसे पकड़ने के लिए। अंततः भीड़ में घुसकर उसे पकड़ लिया और उसे लात-मुक्के मारने लगा। उसको डर था कि वह राजा के कर्मचारियों से कहकर मेरा भेद खोल देगा और वह दंड का भागी हो जाएगा।

मंगरू मार खा रहा था और चिल्ला भी रहा था, “बचाओ-बचाओ।” मंगरू की आवाज़ सुनकर कुछ सिपाही दौड़े आए और उसके मालिक को गिरफ़्तार कर लिया। मंगरू और उसके मालिक को सिपाहियों ने राजा के समक्ष पेश किया।

जैसे ही राजा सोमारू ने अपने भाई मंगरू को देखा तो उसकी आँखें भर आईं और ज़ोर से पकड़कर उसके गले मिला। सिपाही यह सब देखकर अवाक् थे। मंगरू ने अपने राजा भाई को सारा हाल कह सुनाया। राजा ने उस मालिक को कठोर दंड देने का और मंगरू को राजमहल चलने का आदेश दिया।

इस तरह से सोमारू और मंगरू दोनों राजसुख भोगने लगे। सोमारू बराबर इस बात का ख़याल रखता था कि मंगरू को कोई परेशानी न हो। इनके राज-काज से प्रजा बहुत सुखी थी। इस तरह से दोनों भाइयों ने सोमारू के नेतृत्व में बहुत दिनों तक राज किया।

(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)

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