स्कंदगुप्त (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Skandagupta (Play) : Jaishankar Prasad

पंचम अंक : स्कंदगुप्त

[पथ में मुद्गल]

मुद्गल-- राजा से रंक और ऊपर से नीचे; कभी दुवृर्त्त दानव, कभी स्नेह-संवलित मानव; कहीं वीणा की झनकार, कहीं दीनता का तिरस्कार। (सिरपर हाथ रखकर बैठ जाता है)

भाग्यचक्र! तेरी बलिहारी! जयमाला यह सुनकर कि बंधुवर्म्मा वीरगति को प्राप्त हुए, सती हो गई, और देवसेना को लेकर बूढ़ा पर्णदत्त देवकुलिक का-सा महादेवी की समाधि पर जीवन व्यतीत कर रहा है। चक्रपालित, भीमवर्म्मा और मातृगुप्त, राजाधिराज को खोज रहे है। सब विक्षिप्त! सुना है कि विजया का मन कुछ फिरा है, वह भी इन्हीं लोगो के साथ मिली है; परंतु उसपर विश्वास करने का मन नहीं करता। अनंतदेवी ने पुरगुप्त के साथ हूणो से संधि कर ली हैं; मगध में महादेवी और परम भट्टारक बनने का अभिनय हो रहा है! सम्राट् की उपाधि है 'प्रकाशादित्य'; परन्तु प्रकाश के स्थान पर अंधेरा है! आदित्य में गर्मी नहीं । सिंहासन के सिंह सोने के है! समस्त भारत हूणों के चरणों में लोट रहा है, और भटार्क मूर्ख की बुद्धि के समान अपने कर्मों पर पश्चात्ताप कर रहा है। (सामने देखकर) वह विजया आ रही है! तो हट चलूँ।

(उठकर जाना चाहता है)

विजया-- अरे मुद्गल! जैसे पहचानता ही न हो। सच है, समय बदलने पर लोगों की आंखें भी बदल जाती हैं।

मुद्गल-- तुम कौन हो जी? मुझे बेजान-पहचान की छेड़छाड़ अच्छी नहीं लगती और तिसपर मैं हूँ ज्योतिषी। जहाँ देखो वहीं यह प्रश्न होता है; मुझे उन बातों के सुनने में भी संकोच होता है- "मुझसे रूठे हुए हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुन्दरी कब मिलेगी? मिलेगी या नहीं?? --इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरूजी से पाठ में पढ़ा है। अभिचार के लिये, जुआ खेलने के लिये, प्रेम के लिये, और भी, अभिसार के लिये, मुहूर्त पूछे जाते हैं!

विजया-- क्या मुद्गल! मुझे पहचान लेने का भी तुम्हें अवकाश नहीं है?

मुद्गल-- अवकाश हो या नहीं, मुझे आवश्यकता नहीं।

विजया-- क्या आवश्यकता न होने से मनुष्य, मनुष्य से बात न करें? सच है, आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों की दलाल है! परन्तु मनुष्यता भी कोई वस्तु है मुद्गल!

मुद्गल-- उसका नाम न लो। जिस हृदय में अखंड वेग है, तीव्र तृष्णा से जो पूर्ण है, जो कृतघ्नता और क्रूरताओं का भंडार है, जो अपने सुख--अपनी तृप्ति के लिये संसार में सब कुछ करने को प्रस्तुत है, उसका मनुष्यता से क्या सम्बन्ध?

विजया-- न सही, परन्तु इतना तो बता सकोगे, सम्राट् स्कंदगुप्त से कहाँ भेंट होगी? क्योंकि यह पता चला है कि वे जीवित हैं।

मुद्गल-- क्या तुम महाराज से भेंट करोगी, किस मुँह से? अवन्ती में एक दिन यह बात सब जानते थे कि विजया महादेवी होगी!

विजया-- उसी एक दिन के बदले मुद्गल! आज मैं फिर कुछ कहना चाहती हूँ। वही एक दिन का अतीत आज तक का भविष्य छिपाये था ।

मुद्गल-- तुम्हारा साहस तो कम नहीं है।

विजया-- मुद्गल! बता दोगे?

मुद्गल-- तुम विश्वास के योग्य नहीं। अच्छा अब और तुम क्या कर लोगी। देवसेना के साथ जहाँ पर्णदत्त रहते हैं, आज कमलादेवी के कुटीर से सम्राट् वहीं अपनी जननी की समाधि पर जानेवाले हैं, उसी कनिष्क-स्तूप के पास। अच्छा, मैं जाता हूँ। देखो विजया! मैंने बता तो दिया, पर सावधान!

(जाता है)

विजया-- उसने ठीक कहा। मुझे स्वयं अपने पर विश्वास नहीं। स्वार्थ में ठोकर लगते ही मैं परमार्थ की ओर दौड़ पड़ी। परन्तु क्या यह सच्चा परिवर्त्तन है? क्या मैं अपने को भूलकर देशसेवा कर सकूँगी? क्या देवसेना....ओह! फिर मेरे सामने वही समस्या। आज तो स्कन्दगुप्त सम्राट् नहीं है; प्रतिहिंसे, सो जा। क्या कहा? नहीं, देवसेना ने एक बार मूल्य देकर खरीदा था, परन्तु विजया भी एक बार वही करेगी। देशसेवा तो होगी ही, यदि मैं अपनी भी कामना पूरी कर सकती! मेरा रत्नगृह अभी बचा है, उसे सेना-संकलन करने के लिये सम्राट् को दूँगी, और एक बार बनूँगी महादेवी। क्या नहीं होगा? अवश्य होगा। अदृष्ट ने इसीलिये उस रक्षित रत्नगृह को बचाया है! उससे एक साम्राज्य ले सकती हूँ! तो आज वही करूँगी, और इसमें दोनों होगा-- स्वार्थ और परमार्थ!

(प्रस्थान)

(भटार्क का प्रवेश)

भटार्क--अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़वा, परन्तु परिणाम में मधुर होता है। ऐसा वीर, ऐसा उपयुक्त और ऐसा परोपकारी सम्राट्। परन्तु गया- मेरी ही भूल से सब गया! आज भी वे शब्द सामने आ जाते हैं, जो उस बूढ़े आमात्य ने कहा था-- "भटार्क, सावधान! जिस कालभुजंगी राष्ट्रनीति को लेकर तुम खेल रहे हो, प्राण देकर भी उसकी रक्षा करना।" हाय! न हम उसे वश में कर सके और न तो उससे अलग हो सके! मेरी उच्च आकांक्षा, वीरता का दम्भ, पाखंड की सीमा तक पहुँच गया। अनन्तदेवी--एक क्षुद्र नारी--उसके कुचक्र में, आशा के प्रलोभन में, मैंने सब बिगाड़ दिया। सुना है कि कहीं यहीं स्कंदगुप्त भी हैं; चलूँ उस महत् का दर्शन तो कर लूँ।

[कनिष्क-स्तूप के पास महादेवी की समाधि]

(अकेला पर्णदत्त, टहलते हुए)

पर्णदत्त-- सूखी रोटियाँ बचाकर रखनी पड़ती हैं। जिन्हें कुत्तों को देते हुए संकोच होता था, उन्हीं कुत्सित अन्नों का संचय! अक्षय निधि के समान उनपर पहरा देता हूँ। मैं रोऊँगा नहीं; परंतु यह रक्षा क्या केवल जीवन का बोझ वहन करने के लिये है? नहीं, पर्ण! रोना मत। एक बूँद भी आँसू आँखों में न दिखाई पड़े। तुम जीते रहो, तुम्हारा उद्देश सफल होगा। भगवान यदि होंगे तो कहेंगे कि मेरी सृष्टि में एक सच्चा हृदय था। सन्तोष कर उछलते हुए हृदय! संतोष कर, तू रोटियो के लिये नहीं जीता है; तू उसकी भूल दिखाता है, जिसने तुझे उत्पन्न किया है। परंतु जिस काम को कभी नहीं किया, उसे करते नहीं बनता, स्वांग भरते नहीं बनता; देश के बहुत-से दुर्दशा-ग्रस्त वीर-हदयों की सेवा के लिये करना पड़ेगा। मैं क्षत्रिय हूँ, मेरा यह पाप ही श्रापद्धर्म्म होगा; साक्षी रहना भगवन!

(एक नागरिक का प्रवेश)

पर्ण-- बाबा! कुछ दे दो।

नागरिक-- और वह तुम्हारी कहाँ गई वह......(संकेत करता है)

पर्ण०-- मेरी बेटी स्नान करने गई है। बाबा! कुछ दे दो।

नागरिक-- मुझे उसका गान बड़ा प्यारा लगता है, अगर वह गाती, तो तुम्हे कुछ अवश्य मिल जाता। अच्छा, फिर आऊँगा। (जाता है)

पर्ण०-- (दाँत पीसकर)-- नीच, दुरात्मा, विलास का नारकीय कीड़ा! बालों को सँवारकर, अच्छे कपड़े पहनकर, अब भी घमंड़ से तना हुआ निकलता है? कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए भी अकड़कर चल रहा है; अब तक विलास और नीच वासना नहीं गई! जिस देश के युवक ऐसे हों, उसे अवश्य दूसरों के अधिकार में जाना चाहिये। देश पर यह विपत्ति, फिर भी यह निराली धज!

देवसेना-- (प्रवेश करके) क्या है बाबा! क्यों चिढ़ रहे हो? जाने दो, जिसने नहीं दिया--उसने अपना; कुछ तुम्हारा तो नहीं ले गया!

पर्ण-- अपना! देवसेना! अन्न पर स्वत्व है भूखों का और धन पर स्वत्व है देशवासियों का। प्रकृति ने उन्हें हमारे लिये-- हमे भूखों के लिये रख छोड़ा है। वह थाती है; उसे लौटाने में इतनी कुटिलता! विलास के लिये उनके पास पुष्कल धन है, और दरिद्रों के लिये नहीं? अन्याय का समर्थन करते हुए तुम्हें भूल न जाना चाहिए कि......

देवसेना-- बाबा! क्षमा करो। आने दो, कोई तो देगा।

पर्ण०-- हमारे ऊपर सैकड़ों अनाथ वीरों के बालकों का भार है। बेटी! वे युद्ध में मरना जानते हैं, परंतु भूख से तड़पते हुए उन्हें देखकर आँखों से रक्त गिर पड़ता है।

देवसेना-- बाबा! महादेवी की समाधि स्वच्छ करती हुई आ रही हूँ। कई दिन से भीम नहीं आया, मातृगुप्त भी नहीं! सब कहाँ हैं?

पर्ण॰-- आवेंगे बेटी! तुम बैठो, मैं अभी आता हूँ।

(प्रस्थान)

देवसेना-- संगीत-सभा की अन्तिम लहरदार और आश्रयहीन तान, धूपदान की एक कीण गंध-धूम-रेखा, कुचले हुए फूलों का म्लान सौरभ, और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों की प्रतिकृति मेरा क्षुद्र नारी-जीवन! मेरे प्रिय गान! अब क्यों गाऊँ और क्या सुनाऊँ? इस बार-बार के गाये हुए गीतों में क्या आकर्षण है--क्या बल है जो खींचता है? केवल सुनने की ही नहीं, प्रत्युत् जिसके साथ अनन्त काल तक कंठ मिला रखने की इच्छा जग जाती है।

(गाती है)

शून्य गगन में खेाजता जैसे चन्द्र निराश
राका में रमणीय यह किसका मधुर प्रकाश
हृदय! तू खोजता किसको
छिपा है कौन-सा तुझमें
मचलता है बता क्या दूँ छिपा
तुझसे न कुछ मुझमें
रस-निधि में जीवन रहा, मिटी न फिर भी प्यास
मुँह खोले मुक्तामयी सीपी स्वाती आस
हृदय! तू है बना जलनिधि, लहरियाँ खेलती तुझमें
मिला अब कौन-सा नवरत्न जो पहले न था तुझमें

(प्रस्थान)

(वेश बदले हुए स्कन्दगुप्त का प्रवेश)
स्कंद॰-- जननी! तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम।

(समाधि के समीप घुटने टेककर फूल चढ़ाता है)

माँ! अन्तिम बार आशीर्वाद नहीं मिला, इसीसे यह कष्ट; यह अपमान। माँ! तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका--यह अपराध क्षमा करो।

(देवसेना का प्रवेश)

देवसेना--(पहचानती हुई) कौन? अरे! सम्राट् की जय हो!

स्कंद॰-- देवसेना!

देवसेना-- हाँ राजाधिराज! धन्य भाग्य, रज दर्शन हुए।

स्कंद॰-- देवसेना! बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं।

देवसेना-- सम्राट!

स्कंद॰-- क्या तुमने यहाँ कोई कुटी बना ली है?

देवसेना-- हाँ, यही गाकर भीख माँगती हूँ, और आर्य्य पर्दणत्त के साथ रहती हुई महादेवी की समाधि परिष्कृत करती हूँ।

स्कंद॰-- मालवेश-कुमारी देवसेना! तुम और यह कर्म्म! समय जो चाहे करा ले। कभी हमने भी तुझे अपने काम का बनाया था।
देवसेना! यह सब मेरा प्रायश्चित्त है। आज मैं बंधुवर्म्मा की आत्मा को क्या उत्तर दूँगा? जिसने नि:स्वार्थं भाव से सब कुछ मेरे चरणों मे अर्पित कर दिया था, उससे कैसे उॠण होऊँगा? मैं यह सब देखता हूँ और जीता हूँ।

देवसेना-- मैं अपने लिये ही नहीं माँगती देव! आर्य्य पर्णदत्त ने साम्राज्य के बिखरे हुए सब रत्न एकत्र किये हैं, वे सब निर-विलम्ब हैं। किसीके पास टूटी हुई तलवार ही बची है, तो किसीके जीर्ण वस्त्र-खंड। उन सबकी सेवा इसी आश्रम में होती है।

स्कंद॰--वृद्ध पर्णदत्त, तात पर्णदत्त! तुम्हारी यह दशा? जिसके लोहे से आग बरसती थी, वह जंगल की लकड़ियाँ बटोरकर आग सुलगाता है! देवसेना! अब इसका कोई काम नहीं; चलो महादेवी की समाधि के सामने प्रतिश्रुत हों, हम तुम अब अलग न होंगे। साम्राज्य तो नहीं है, मैं बचा हूँ; वह अपना ममत्व तुम्हें अर्पित करके उऋण होऊँगा, और एकांतवास करूंगा।

देवसेना--सो न होगा सम्राट्! मैं दासी हूँ। मालव ने जो देश के लिये उत्सर्ग किया है, उसका प्रतिदान लेकर मृत आत्मा का अपमान न करूंगी। सम्राट्! देखो, यहीं पर सती जयमाला की भी छोटी-सी समाधि है, उसके गौरव की भी रक्षा होनी चाहिये।

स्कंद॰--देवसेना! बंधु बंधुवर्म्मा की भी तो यही इच्छा थी।

देवसेना--परंतु क्षमा हो सम्राट्! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे; अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्त्व को कलंकित न करूँगी। मै आजीवन दासी बनी रहूँगी; परंतु आपके प्राप्य मे भाग न लूँगी।

स्कंद॰--देवसेना! एकांत में, किसी कानन के कोने में, तुम्हे देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं—एक बार कह दो।

देवसेना-- तब तो और भी नहीं। मालव का महत्त्व तो रहेगा ही, परन्तु उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिये। आपको अकर्म्मण्य बनाने के लिये देवसेना जीवित न रहेगी। सम्राट्, क्षमा हो। इस हृदय में ..... आह! कहना ही पड़ा, स्कंदगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया और न वह जायगा। अभिमानी भक्त के समान निष्काम होकर मुझे उसीकी उपासना करने दीजिये; उसे कामना के भंवर में फंसाकर कलुषित न कीजिये। नाथ! मैं आपकी ही हूँ, मैंने अपने को दे दिया है, अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती।

(पैर पर गिरती है)

स्कंद०-- (आँसू पोंछता हुआ) उठो देवसेना! तुम्हारी विजय हुई। आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि, मैं कुमार-जीवन ही व्यतीत करूँगा। मेरी जननी की समाधि इसमें साक्षी है।

देवसेना-- हैं, हैं, यह क्या किया!

स्कंद-- कल्याण का श्रीगणेश। यदि साम्राज्य का उद्धार कर सका तो उसे पुरगुप्त के लिये निष्कंटक छोड़ जा सकूँगा।

देवसेना-- (निःश्वास लेकर) देवव्रत! तुम्हारी जय हो। जाऊँ आर्य्य पर्णदत्त को लिवा लाऊँ। (प्रस्थान)

(विजया का प्रवेश)

विजया-- इतना रक्तपात और इतनी ममता, इतना मोह-- जैसे सरस्वती के शोणित जल में इन्दीवर का विकास। इस कारण अब मैं भी मरती हूँ। मेरे स्कंद! मेरे प्राणाधार!

स्कंद--(घूमकर)--यह कौन, इन्द्रजाल मंत्र? अरे विजया!

विजया--हाँ, मैं ही हूँ।

स्कंद--तुम कैसे?

विजया--तुम्हारे लिये मेरे अन्तस्तल की आशा जीवित है!

स्कंद--नहीं विजया! उस खेल को खेलने की इच्छा नहीं; यदि दूसरी बात हो तो कहो। उन बातो को रहने दो।

विजया--नहीं, मुझे कहने दो। (सिसकती हुई) मैं अब भी.........

स्कंद--चुप रहो विजया! यह मेरी आराधना की तपस्या की भूमि है, इसे प्रवञ्चना से कलुषित न करो। तुमसे यदि स्वर्ग भी मिले, तो मैं उससे दूर ही रहना चाहता हूँ।

विजया--मेरे पास अभी दो रत्न-गृह छिपे हैं, जिनसे सेना एकत्र करके तुम सहज ही इन हूणो को परास्त कर सकते हो।

स्कंद०--परन्तु, साम्राज्य के लिये मैं अपने को नही बेच सकता। विजया! चली जाओ; इस निर्लज्ज प्रलोभन की आवश्यकता नहीं। यह प्रसङ्ग यही तक।

विजया--मैंने देशवासियों को सन्नद्ध करने का संकल्प किया है, और भटार्क का संसर्ग छोड़ दिया है। तुम्हारी सेवा के उपयुक्त बनने का उद्योग कर रही हूँ। मैं मालव और सौराष्ट्र को तुम्हारे लिये स्वतंत्र करा दूँगी; अर्थ-लोभी हूण-दस्युओं से उसे छुड़ा लेना मेरा काम है। केवल तुम स्वीकार कर लो।

स्कंद०–-विजया! तुमने मुझे इतना लोभी समझ लिया है? मैं सम्राट बनकर सिंहासन पर बैठने के लिये नहीं हूँ। शस्त्र-बल से शरीर देकर भी यदि हो सका तो जन्म-भूमि का उद्धार कर लूँगा। सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से, मैं उत्कोच देकर क्रीत साम्राज्य नहीं चाहता।

विजया--क्या जीवन के प्रत्यक्ष सुखो से तुम्हें वितृष्णा हो गई है? आओ, हमारे साथ बचे हुए जीवन का आनंद लो।

स्कंद०--और असहाय दीनों को, राक्षसों के हाथ, उनके भाग्य पर छोड़ दें?

विजया--कोई दुःख भोगने के लिये है, कोई सुख। फिर सबका बोझ अपने सिर पर लादकर क्यो व्यस्त होते हो?

स्कंद॰--परंतु इस संसार का कोई उद्देश है। इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसीपर देवताओं का निवास होगा; विश्व-नियन्ता का ऐसा ही उद्देश मुझे विदित होता है। फिर उसकी इच्छा क्यो न पूर्ण करूँ? विजया! मै कुछ नहीं हूँ, उसका अस्त्र हूँ--परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियो के प्रति प्रेरित होना है। किसीसे मेरी शत्रुता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नहीं। देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कार्य कर रही है, पवित्र प्राकृतिक नियम अपनी रक्षा करने के लिये स्वयं सन्नद्ध हैं। मैं उसी-ब्रह्मचक्र का एक ...

विजया--रहने दो यह थोथा ज्ञान। प्रियतम! यह भरा हुआ यौवन और प्रेमी हृदय विलास के उपकरणों के साथ प्रस्तुत है। उन्मुक्त आकाश के नील-नीरद-मंडल में दो बिजलियों के समान क्रीड़ा करते-करते हम लोग तिरोहित हो जायँ। और उस क्रीड़ा में तीव्र आलोक हो, जो हम लोगों के विलीन हो जाने पर भी जगत् की आँखों को थोड़े काल के लिये बन्द कर रक्खे। स्वर्ग की कल्पित अप्सराएँ और इस लोक के अनंत पुण्य के भागी जीव भी जिस सुख को देखकर आश्चर्यचकित हों, वही मादक सुख, घोर आनन्द, विराट विनोद, हम लोगों का आलिङ्गन करके धन्य हो जाय!--

अगरु-धूम की श्याम लहरियाँ उलझी हों इन अलकों से
मादकता-लाली के डोरे इधर फँसे हो पलकों से

व्याकुल बिजली-सी तुम मचलो आर्द्र-हृदय-घनमाला से
आँसू बरुनी से उलझे हों, अधर प्रेम के प्याला से

इस उदास मन की अभिलाषा अँटकी रहे प्रलोभन से
व्याकुलता सौ-सौ बल खाकर उलझ रही हो जीवन से

छवि-प्रकाश-किरणें उलझी हों जीवन के भविष्य तम से
ये लायेंगी रङ्ग सुलालित होने दो कम्पन सम से

इस आकुल जीवन की घड़ियाँ इन निष्ठुर आघातों से
बजा करे अगणित यन्त्रों से सुख-दुख के अनुपातों से

उखड़ी साँसे उलझ रही हों धड़कन से कुछ परिमित हो
अनुनय उलझ रहा हो तीखे तिरस्कार से लांछित हो

यह दुर्बल दीनता रहे उलझी फिर चाहे ठुकराओ
निर्दयता के इन चरणों से, जिसमें तुम भी सुख पाओ

(स्कन्द के पैरों को पकड़ती है)-

स्कंद--(पैर छुड़ाकर) विजया! पिशाची! हट जा; नहीं जानती, मैंने आजीवन कौमार-व्रत की प्रतिज्ञा की है।

विजया--तो क्या मै फिर हारी?

(भटार्क का प्रवेश)

भटार्क--निर्लज्ज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी नहीं मरता।

विजया--कौन, भटार्क?

भटार्क--हाँ, तेरा पति भटार्क। दुश्चरित्रे! सुना था कि तुझे देश-सेवा करके पवित्र होने का अवसर मिला है, परन्तु हिस्र पशु कभी एकादशी का व्रत करेगा--कभी पिशाची शांति-पाठ पढ़ेगी!

विजया--(सिर नीचा करके) अपराध हुआ।

भटार्क–-फिर भी किसके साथ? जिसके ऊपर अत्याचार करके मै भी लज्जित हूँ, जिससे क्षमा-याचना करने मैं आ रहा था। नीच स्त्री!

विजया--घोर अपमान, तो बस...

(छुरी निकालकर आत्म-हत्या करती है)

स्कंद०–-भटार्क! इसके शव का संस्कार करो।

भटार्क--देव! मेरी भी लीला समाप्त है।

(छुरी निकालकर अपने को मारना चाहता है, स्कंद हाथ पकड़ लेता है)

स्कंद०--तुम वीर हो, इस समय देश को वीरो की आवश्यकता है। तुम्हारा यह प्रायश्चित्त नहीं। रणभूमि में प्राण देकर जननी जन्भूमि का उपकार करो। भटार्क! यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य के लिये नहीं--जन्मभूमि के उद्धार के लिये मैं अकेला युद्ध करूँगा और तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी, पुरगुप्त को सिंहासन देकर मैं वानप्रस्थ-आश्रम ग्रहण करूँगा। आत्म-हत्या के लिये जो अस्त्र तुमने ग्रहण किया है, उसे शत्रु के लिये सुरक्षित रक्खो।

भटार्क-- (स्कन्द के सामने घुटने टेककर) "श्री स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य की जय हो!” जो आज्ञा होगी, वही करूँगा।

स्कन्द०-- पहिले इस शव का प्रबंध होना चाहिये (प्रस्थान)

भटार्क-- (स्वगत) इस घृणित शव का अग्नि-संस्कार करना ठीक नहीं, लाओ इसे यहीं गाड़ दूँ!

(भूमि खोदते समय एक भयानक शब्द के साथ रत्नगृह का प्रकट होना और भटार्क का प्रसन्न होकर पुकारना; स्कन्दगुप्त का आकर रत्नगृह देखना)

स्कन्द०-- भटार्क! यह तुम्हारा है।

भटार्क-- हाँ सम्राट्! यह हमारा है, इसीलिये देश का है। आज से मैं सेना-संकलन में लगूँगा।

स्कन्द॰-- वह दूर पर बड़ी भीड़ हो रही है स्तूप के पास। भटार्क-- नागरिकों का उत्सव है। (रत्नगृह बन्द करके) चलिये, देखूँ।

(स्तूप का एक भाग--नागरिकों का आना। उन्हीं में वेश बदले हुए मातृगुप्त, भीमवर्म्मा, चक्रपालित, शर्वनाग, कमला, रामा इत्यादि। दूसरी ओर से वृद्ध पर्णदत्त का हाथ पकड़े हुए देवसेना का प्रवेश)

१–नागरिक--अरे वह छोकरी आ गई, इससे कुछ सुना जाय।

२. नागरिक--हाँ रे छोकरी! कुछ गा तो।

पर्ण०--भीख दो बाबा! देश के बच्चे भूखे है, नंगे है, असहाय है; कुछ दो बाबा!

१--अरे गाने भी दे बूढ़े!

पर्ण०--हाय रे अभागे देश!

(देवसेना गाती है)

देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे
हारते ही रहे, न है कुछ अब
दाँव पर आपको न हारोगे
कुछ करोगे कि बस सदा रोकर
दीन हो दैव को पुकारोगे
सो रहे तुम, न भाग्य होता है
आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे
दीन जीवन बिता रहे अब तक
क्या हुए जा रहे, विचारोगे


पर्ण०--नहीं बेटी, ये निर्लज्ज कभी विचार नहीं करेंगे।

चक्रपालित और भीमवर्म्मा-- आर्य पर्णदत्त की जय!

पर्ण०-- मुझे जय नहीं चाहिये-भीख चाहिये। जो दे सकता हो अपने प्राण, जो जन्मभूमि के लिये उत्सर्ग कर सकता हो जीवन, वैसे वीर चाहिये; कोई देगा भीख में?

स्कंद०-- (भीड़ में से निकलकर) मैं प्रस्तुत हूँ तात!

भटार्क-- श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य को जय हो!

(नागरिकों में से बहुत-से युवक निकल पड़ते हैं)

सब-- हम हैं, हम आपकी सेवा के लिये प्रस्तुत हैं।

स्कंद॰-- आर्य्य पर्णदत्त!

पर्ण०-- आओ वत्स! सम्राट्! (आलिङ्गन करता है)

[उत्साह से जनता पूजा के फूल बरसाती है। चक्रपालित, भीमवर्म्मा, मातृगुप्त, शर्वनाग, कमला, रामा, सबका प्रकट होना---जयनाद!

[महाबोधि-विहार]

(अनन्तदेवी, पुरगुप्त, प्रख्यातकीर्त्ति, हूण-सेनापति)

अनन्त०--इसका उत्तर महाश्रमण देंगे।

हूण-सेनापति--मुझे उत्तर चाहिये, चाहे कोई दे।

प्रख्यात०--सेनापति! मुझसे सुनो। समस्त उत्तरापथ का बौद्ध संघ जो तुम्हारे उत्कोच के प्रलोभन में भूल गया था, वह अब न होगा।

हूण-सेना०--तभी बौद्ध जनता से जो सहायता हूण-सैनिकों को मिलती थी, बन्द हो गई; और उलटा तिरस्कार!

प्रख्यात०--वह भ्रम था। बौद्धों को विश्वास था कि हूण लोग सद्धर्म्म के उत्थान करने में सहायक होंगे, परन्तु ऐसे हिंसक लोगों को सद्धर्म्म कोई आश्रय नहीं देगा। (पुरगुप्त की ओर देख कर) यद्यपि संघ ऐसे अकर्म्मण्य युवक को आर्य्यसाम्राज्य के सिहासन पर नहीं देखा चाहता, तो भी बौद्ध धर्म्माचरण करेंगे, राजनीति में भाग न लेंगे।

अनन्त०--भिक्षु! क्या कह रहे हो? समझकर कहना।

हूण-सेना०--गोपाद्रि से समाचार मिला है, स्कंदगुप्त फिर जी उठा है, और सिधु के इस पार के हूण उसके घेरे में है; संभवतः शीघ्र ही अन्तिम युद्ध होगा। तब तक के लिये संघ को प्रतिज्ञा भंग न करनी चाहिये।

पुरगुप्त--क्या युद्ध! तुम लोगो को कोई दूसरी बात नहीं...

अनन्त०--चुप रहो।

पुरगुप्त-- तब फिर एक पात्र। (सेवक देता है)

प्रख्यात०-- अनार्य्य! विहार में मद्यपान! निकलो यहाँ से।

अनंत-- भिक्षु! समझकर बोलो; नहीं तो मुंडित मस्तक भूमि पर लोटने लगेगा!

हूण-सेना०-- इसीकी सब प्रवञ्चना है; इसका तो मैं अवश्य ही वध करूँगा।

प्रख्यात०-- क्षणिक और अनात्मभव में किसका कौन वध करेगा मूर्ख!

हूण-सेना०-- पाखंड! मरने के लिये प्रस्तुत हो!

प्रख्यात॰-- सिंहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस सत्पथ पर अग्रसर हुए है; वहाँ से नहीं लौट सकते।

(हूण-सेनापति मारना चाहता है)

कुमार धातुसेन--(सहसा प्रवेश करके) "सम्राट् स्कन्दगुप्त की जय!”

(सैनिक सवको बन्दी कर लेते हैं)

धातु०-- कुचक्रियो! अपने फल भोगने के लिये प्रस्तुत हो जाओ! भारत के भीतर की बची हुई समस्त हूण-सेना के रुधिर से यह उन्हीं की लगाई हुई ज्वाला शांत होगी।

अनंत०-- धातुसेन! यह क्या, तुम हो?

धातु०-- हाँ महादेवी! एक दिन मैंने समझाया था, तब मेरी अवहेला की गई; यह उसीका परिणाम है। (सैनिकों से) सबको शीघ्र साम्राज्य-स्कन्धावार में ले चलो।

[सबका प्रस्थान]

[रणक्षेत्र]

(सम्राट् स्कंदगुप्त, भटार्क, चक्रपालित, पर्णदत्त, मातृगुप्त, भीमवर्म्मा इत्यादि सेना के साथ परिभ्रमण करते है।)

मातृगुप्त-- वीरो!--(गान)--

हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार

जगे हम, लगे जगाने, विश्व लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम-पुञ्ज हुआ तब नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अशोक

विमल वाणी ने वीणा ली कमल-कोमल-कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्त सिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत

बचाकर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत

सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास
पुरन्दर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरे इतिहास

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह

धर्म्म का ले लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद
हम ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट दया दिखलाते घर-घर घूम

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि

किसीका हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आये थे नहीं

जातियों का उत्थान-पतन आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न

हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य्य-संतान

जियें तो सदा उसी के लिये, यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

सब-- (समवेत स्वर से) जय! राजाधिराज स्कन्दगुप्त की जय!!

(हूण-सेना के साथ खिङ्गिल का आगमन)

खिङ्गिल-- बच गया था भाग्य से, फिर सिंह के मुख में आना चाहता है। भीषण परशु के प्रहारों से तुम्हें अपनी भूल स्मरण हो जायगी।

स्कन्द०-- यह बात करने का स्थल नहीं। (घोर युद्ध, खिङ्गिल घायल होकर बंदी होता है। सम्राट् को बचाने में वृद्ध पर्णदत्त की मृत्यु; गरुड़ध्वज की छाया में वह लिटाया जाता है।)

स्कन्द०-- धन्य वीर आर्य्य पर्णदत्त!

सब-- आर्य्य पर्णदत्त की जय! आर्य्य-साम्राज्य की जय!!

(बन्दी-वेश में पुरगुप्त और अनन्तदेवी के साथ धातुसेन का प्रवेश)

स्कंद-- मेरी सौतेली माता! इस विजय से आप सुखी होंगी।

अनंत०-- क्यों लज्जित करते हो स्कंद ! तुम भी तो मेरे पुत्र हो ?

स्कंद०-- आह ! यही यदि होता मेरी विमाता ! तो देश की इतनी दुर्दशा न होती ।

अनंत०-- मुझे क्षमा करो सम्राट् !

स्कंद॰-- माता का हृदय सदैव क्षम्य है । तुम जिस प्रलोभन से इस दुष्कर्म में प्रवृत्त हुई हो, वही ते कैकेयी ने किया था । तुम्हारा इसमे दोष नहीं । जब तुमने आज मुझे पुत्र कहा, तो मैं भी तुम्हे माता ही समझूँगा । परंतु कुमारगुप्त के इस अग्नितेज को तुमने अपने कुत्सित कर्मों की राख से ढक दिया। पुरगुप्त !

पुरगुप्त-- देव ! अपराध हुआ । ( पैर पकड़ता है )

स्कंद०-- भटार्क ! मैने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी की । लो, आज इस रणभूमि में मैं पुरगुप्त के युवराज बनाता हूँ। देखना, मेरे बाद जन्मभूमि की दुर्दशा न हो । ( रक्त का टीका पुरगुप्त को लगाता है )

भटार्क-- देवव्रत ! अभी आपकी छत्रछाया में हम लोगों को बहुत-सी विजय प्राप्त करनी है; यह आप क्या कहते हैं ?

स्कन्द०-- क्षत-जर्जर शरीर अब बहुत दिन नहीं चलेगा, इसीसे मैने भावी साम्राज्य-नीति की घोषणा कर दी है । इस हूण को छोड़ दो, और कह दो कि सिधु के इस पार के पवित्र देश में कभी आने का साहस न करे।

खिङ्गिल-- आर्य्यसम्राट् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य्य है ।

[ जाता है ]

[ उद्यान का एक भाग ]

देवसेना-- हृदय की कोमल कल्पना ! सो जा । जीवन में जिसकी संभावना नहीं, जिसे द्वार पर आये हुए लौटा दिया था, उसके लिये पुकार मचाना क्या तेरे लिये कोई अच्छी बात है ? आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा–सबसे मैं बिदा लेती हूँ !

आह ! वेदना मिली विदाई
मैने भ्रम-वश जीवन-सञ्चित
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी--
नीरवता अनन्त अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु-छाया में
पथिक उनीदी श्रुति में किसने--
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाये फिरती कबकी
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी- होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

(स्कंदगुप्त का प्रवेश)

स्कंद०-- देवसेना !

देव०-- जय हो देव ! श्रीचरणों में मेरी भी कुछ प्रार्थना है ।

स्कंद॰-- मालवेश-कुमारी ! क्या आज्ञा है? आज बंधुवर्मा इस आनन्द को देखने के लिये नहीं हैं ! जननी जन्मभूमि के उद्धार करने की जिस वीर की दृढ़ प्रतिज्ञा थी, जिसका ऋण कभी प्रतिशोध नहीं किया जा सकता, उसी वीर बंधुवर्म्मा की भगिनी मालवेश-कुमारी देवसेना की क्या आज्ञा है ?

देवसेना-- मैं मृत भाई के स्थान पर यथाशक्ति सेवा करती रही; अब मुझे छुट्टी मिले !

स्कंद०-- देवी ! यह न कहो । जीवन के शेष दिन, कर्म्म के अवसाद में बचे हुए हम दुखी लोग, एक दूसरे का मुँह देखकर काट लेंगे । हमने अन्तर की प्रेरणा से शस्त्र द्वारा जो निष्ठुरता की थी, वह इसी पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिये । परन्तु इस नंदन की वसन्त-श्री, इस अमरावती की शची, इस स्वर्ग की लक्ष्मी, तुम चली जाओ-- ऐसा मैं किस मुंह से कहूँ ? ( कुछ ठहरकर सोचते हुए ) और किस वज्र-कठोर हृदय से तुम्हें रोकूँ ?

देवसेना ! देवसेना !! तुम जाओ । हतभाग्य स्कंदगुप्त, अकेला स्कंद, ओह !!

देवसेना-- कष्ट, हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है । सम्राट यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखों का अंत है । जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिये सुख करना ही न चाहिये । मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा !

(घुटने टेकती है; स्कन्द उसके सिर पर हाथ रखता है ।)

[यवनिका]

  • चतुर्थ अंक : स्कंदगुप्त
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