स्कंदगुप्त (नाटक) : जयशंकर प्रसाद
Skandagupta (Play) : Jaishankar Prasad
तृतीय अंक : स्कंदगुप्त
[शिप्रा-तट]
प्रपंचबुद्धि--सब विफल हुआ! इस दुरात्मा स्कन्दगुप्त ने मेरी आशाओं के भंडार पर अर्गला लगा दी। कुसुमपुर में पुरगुप्त और अनन्तदेवी अपने विडम्बना के दिन बिता रहे हैं। भटार्क भी बन्दी हुआ, उसके प्राणों की रक्षा नहीं। क्रूर कर्मो की अवतारणा से भी एक बार सद्धर्म्म के उठाने की आकांक्षा थी, परन्तु वह दूर गया! (कुछ सोचकर) उग्रतारा की साधना से विकट से भी विकट कार्य्य सिद्ध होते है, तो फिर इस महाकाल में महाश्मशान से बढ़कर कौन उपयुक्त स्थान होगा! चलूँ--
(जाना चाहता है; भटार्क का प्रवेश)
भटार्क--भिक्षुशिरोमणे! प्रणाम्!
प्रपंच०--कौन, भटार्क? अरे मै स्वप्न देख रहा हूँ क्या!
भटार्क--नहीं आर्य्य, मैं जीवित हूँ।
प्रपंच०--उसने तुम्हें शूली पर नहीं चढ़ाया?
भटार्क--नही, उससे बढ़कर!
प्रपंच०--क्या?
भटार्क--मुझे अपमानित करके क्षमा किया। मेरी वीरता पर एक दुर्वह उपकार का बोझ लाद दिया।
प्रपंच॰-- तुम मूर्ख हो। शत्रु से बदला लेने का उपाय करना चाहिये, न कि उसके उपकारो का स्मरण।
भटार्क-- मैं इतना नीच नहीं हूँ।
प्रपंच०-- परंतु मै तुम्हारी प्रवृत्ति जानता हूँ। तुम इतने, उच्च भी नहीं हो। चलो एकान्त में बात करें। कोई आता है।
(दोनों जाते है)
(विजया का प्रवेश)
विजया-- मैं कहाँ जाऊँ! उस उच्छृखल वीर को मैं लौहश्रृंखला पहना सकूँगी? उसे अपने बाहु-पाश में जकड़ सकती हूँ? हृदय के विकल मनोरथ! आह!
(गान)
उमड़कर चली भिगोने आज
तुम्हारा निश्चल अञ्चल छोर
नयन-जल-धारा रे प्रतिकूल!
देख ले तू फिरकर इस ओर
हृदय की अन्तरतम मुसक्यान
कल्पनामय तेरा यह विश्व
लालिमा में लय हो लवलीन
निरखते इन आँखों की कोर
यह कौन? ओ! राजकुमारी!
(देवसेना का प्रवेश--दूर पर उसकी परिचारिकाएँ)
देवसेना-- विजया! सायंकाल का दृश्य देखने शिप्रातट पर तुम भी आ गई हो!
विजया–-हाँ राजकुमारी ! (सिर झुका लेती है)
देवसेना--विजया, अच्छा हुआ, तुमसे भेंट हो गई; मुझे कुछ पूछना था।
विजया–-पूछना क्या है ?
देवसेना--क्या जो तुमने किया है, उसे सोच-समझकर ? कही तुम्हारे दम्भ ने तुमको छल तो नहीं लिया ? तीव्र मनोवृत्ति के कशाधत ने तुम्हे विपथगामिनी तो नही बना दिया ?
विजया--राजकुमारी ! मैं अनुगृहीत हूँ । उस कृपा को नहीं भूल सकती जो आपने दिखाई है । परन्तु अब और प्रश्न करके मुझे उत्तेजित करना ठीक नही ।
देवसेना--(आश्चर्य से) क्यों विजया ! मेरे सखी-जनोचित सरल प्रश्न में भी तुम्हें व्यङ्ग सुनाई पड़ता है ? ।
विजया--क्या इसमें भी प्रमाण की आवश्यकता है ? राजकुमारी ! आज से मेरी ओर देखना मत । मुझे कृत्या अभिशाप की ज्वाला समझना और ......
देवसना--ठहरो, दम ले लो ! संदेह के गर्त्त में गिरने के पहले विवेक का अवलम्बन ले लो विजया !
विजया-–हताश जीवन कितना भयानक होता है-यह नहीं जानती हो ? उस दिन जिस तीखी छुरी को रखने के लिये मेरी हँसी उड़ाई जा रही थी, मैं समझती हूँ कि उसे रख लेना मेरे लिये आवश्यक था । राजकुमारी ! मुझे न छेड़ना । मैं तुम्हारी शत्रु हूँ। (क्रोध से देखती है)
देवसेना-- (आश्चर्य से) क्या कह रही हो?
विजया-- वही जिसे तुम सुन रही हो।
देवसेना-- वह तो जैसे उन्मत्त का प्रलाप था, अकस्मात् स्वप्न देखकर जग जानेवाले प्राणी की कुतूहल-गाथा थी। विजया! क्या मैंने तुम्हारे सुख में बाधा दी? परन्तु मैंने तो तुम्हारे मार्ग को स्वच्छ करने के सिवा रोड़े न व बिछाये।
विजया-- उपकारो की ओट से मेरे स्वर्ग को छिपा दिया, मेरी कामना-लता को समूल उखाड़कर कुचल दिया!
देवसना-- शीघ्रता करनेवाली स्त्री! अपनी असावधानी का दोष दूसरे पर न फेंक। देवसेना मूल्य देकर प्रणय नहीं लिया चाहती है......। अच्छा, इससे क्या?
(जाती है)
विजया-- जाती हो, परन्तु सावधान!
(भटार्क और प्रपंचबुद्धि का प्रवेश)
भटार्क-- विजया! तुम कब आई हो?
विजया-- अभी-अभी; तुम्हीं की तो खोज रही थी। {प्रपंचबुद्धि को देखकर) आप कौन है?
भटार्क-- ‘योगाचार-संघ' के प्रधान श्रमण आर्य्य प्रपंचबुद्धि।
(विजया नमस्कार करती है)
प्रपंच०-- कल्याण हो देवि! भटार्क से तो तुम परिचित-सी हो, परन्तु मुझे भी जान जाओगी।
विजया-- आर्य्य! आपके अनुग्रह-लाभ की बड़ी आकांक्षा है।
प्रपंच-- शुभे! प्रज्ञापारमिता-स्वरूपा तारा तुम्हारी रक्षा करे! क्या तुम सद्धर्म की सेवा के लिये कुछ उत्सर्ग कर सकोगी? (कुछ सोचकर) तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होने में विघ्न और विलम्ब है। इसी लिये तुम्हें अवश्य धर्माचरण करना होगा।
विजया-- आर्य्य! मेरा भी एक स्वार्थ है।
प्रपंच-- क्या?
विजय-- राजकुमारी देवसेना का अन्त!
प्रपंच०-- और मुझे उग्रतारा की साधना के लिये महाश्मशान में एक राजबलि चाहिये!
भटार्क-- यह तो अच्छा सुयोग है!
विजया-- उसे श्मशान तक ले आना तो मेरा काम है; आगे मैं कुछ न कर सकूँगी।
प्रपंच-- सब हो जायगा। उग्रतारा की कृपा से सब कुछ सुसम्पन्न होगा।
भटार्क-- परन्तु मैं कृतघ्नता से कलंकित होऊँगा, और स्कन्दगुप्त से मै किस मुँह से.....नहीं, नहीं......
प्रपंच०-- सावधान भटार्क! अलग ले जाकर इतना समझाया, फिर भी ... तुम पहले अनन्तदेवी और पुरगुप्त से प्रतिश्रुत हो चुके हो।
भटार्क-- ओह! पाप-पङ्क में लिप्त मनुष्य को छुट्टी नही! कुकर्म उसे जकड़कर अपने नागपाश में बाँध लेता है। दुर्भाग्य!
मातृगुप्त-- (निकलकर) भयानक कुचक्र! एक निर्मल कुसुम-कली को कुचलने के लिये इतनी बड़ी प्रतारणा की चक्की! मनुष्य! तुझे हिंसा का उतना ही लोभ है, जितना एक भूखे भेड़िये को! तब भी तेरे पास उससे कुछ विशेष साधन हैं-- छल, कपट, विश्वासघात, कृतघ्नता, और पैने अस्त्र। इनसे भी चढ़कर प्राण लेने की कलाकुशलता। देखा जायगा; भटार्क! तुम जाते कहाँ हो?
[जाता है]
[श्मशान में साधक-रूप से प्रपंचबुद्धि। दूर से स्कंदगुप्त टहलता हुआ आता है।]
स्कंद०-- इस साम्राज्य को बोझ किसके लिये? हृदय में अशान्ति, राज्य में अशान्ति, परिवार में अशान्ति! केवल मेरे अस्तित्व से? मालूम होता है कि सबकी-विश्व-भर की-शान्तिरजनी मे मै ही धूमकेतु हूँ, यदि मैं न होता तो यह संसार अपनी स्वाभाविक गति से, आनन्द से, चला करता। परन्तु मेरा तो निज का कोई स्वार्थ नहीं, हृदय के एक-एक कोने को छान डाला--कहीं भी कामना की वन्या नही । बलवती आशा की आँधी नहीं चल रही है। केवल गुप्त-सम्राट् के वंशधर होने की दयनीय दशा ने मुझे इस रहस्य-पूर्ण क्रिया-कलाप में संलग्न रक्खा है। कोई भी मेरे अंतःकरण का आलिङ्गन करके न रो सकता है, और न तो हँस सकता है। तब भी विजया...? ओह! उसे स्मरण करके क्या होगा। जिसे हमने सुख-शर्वरी की सन्ध्यातारा के समान पहले देखा, वही उल्कापिंड होकर दिगन्त-दाह करना चाहती है। विजया! तूने क्या किया! (देखकर) ओह! कैसा भयानक मनुष्य है! कैसी क्रूर आकृति है! मूर्तिमान पिशाच है! अच्छा, मातृगुप्त तो अभी तक नही आया। छिपकर देखूँ।
(छिपता है)
(विजया के साथ देवसेना का प्रवेश)
देवसेना-- आज फिर तुम किस अभिप्राय से आई हो?
विजया-- और तुम राजकुमारी? क्या तुम इस महा-वीभत्स श्मशान में आने से नहीं डरती हो ?
देवसेना-- संसार का मूक शिक्षक 'श्मशान' क्या डरने की वस्तु है? जीवन की नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुन्दर स्थल और कौन है?
(नेपथ्य से गान)
सब जीवन बीता जाता है।
धूप-छाँह के खेल-सदृश। सब०
समय भागता है प्रतिक्षण में
नव-अतीत के तुषार-कण में
हमें लगाकर भविष्य-रण में
आप कहाँ छिप जाता है?--सब०
बुल्ले, लहर, हवा के झोंके
मेघ और बिजली को टोके
किसका साहस है कुछ रोके
जीवन का वह नाता है।--सब०
वंशी को बस बज जाने दो
मीठी मीड़ों को आने दो
आँख बन्द करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है।--सब॰
विजया-- (स्वगत) भाव-विभोर दूर की रागिनी सुनती हुई यह कुरंगी-सी कुमारी......आह! कैसा भोला मुखड़ा है! नहीं, नहीं विजया! सावधान! प्रतिहिंसा......(प्रकट) राजकुमारी! देखो, यह कोई बड़ा सिद्ध है, वहाँ तक चलोगी?
देवसेना--चलो, परन्तु मुझे सिद्धी से क्या प्रयोजन? जब मेरी कामनाएँ विस्मृति के नीचे दबा दी गई हैं, तब वह चाहे स्वयं ईश्वर ही हो तो क्या? तब भी एक कुतूहल है; चलो--
(विजया देवसेना को आगे कर प्रपंचबुद्धि के पास ले जाती है, और आप हट जाती है। ध्यान से आँख खोलकर प्रपंच उसे देखता है।)
प्रपंच०--तुम्हारा नाम देवसेना है?
देवसेना--(आश्चर्य से) हाँ भगवन्!
प्रपंच०--तुमको देवसेवा के लिये शीघ्र प्रस्तुत होना होगा। तुम्हारी ललाट-लिपि कह रही है कि तुम बड़ी भाग्यवती हो!
देवसेना--कौन-सी देवसेवा?
प्रपंच०--यह नश्वर शरीर, जिसका उपभोग तुम्हारा प्रेमी भी न कर सका और न करने की आशा है, देवसेवा में अर्पित करो! उग्रतारा तुम्हारा परम मङ्गल करेगी।
देवसेना--(सिहर उठती है) क्या मुझे अपनी बलि देनी होगी? (घूमकर देखती है) विजया! विजया!!
प्रपंच०--डरो मत, तुम्हारा सृजन इसीलिये था। नित्य की मोह-ज्वाला में जलने से तो यही अच्छा है कि तुम एक साधक का उपकार करती हुई अपनी ज्वाला शांत कर दो!
देवसेना--परन्तु......कापालिक! एक और भी आशा मेरे हृदय में है। वह पूर्ण नहीं हुई है। मैं डरती नहीं हूँ, केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा है। विजया के स्थान को मैं कदापि न ग्रहण करूँगी! उसे भ्रम है, यदि वह छूट जाता......
प्रपंच॰-- ( उठकर उसका हाथ पकड़कर खड्ग उठाता है) परन्तु मुझे ठहरने का अवकाश नहीं। उग्रतारा की इच्छा पूर्ण हो!
देवसेना--प्रियतम! मेरे देवता युवराज!! तुम्हारी जय हो!
(सिर झुकाती है)
[पीछे से मातृगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़कर नेपथ्य में ले जाता है,
देवसेना चकित होकर स्कंद का आलिङ्गन करती है!]
[मगध में अनंतदेवी, पुरगुप्त, विजया और भटार्क]
पुरगुप्त-- विजय-पर-विजय! देखता हूँ कि एक बार वंक्षुतट पर गुप्तसाम्राज्य की पताका फिर फहरायगी। गरुड़ध्वज वंक्षु के रेतीले मैदान में अपनी स्वर्ण-प्रभा का विस्तार करेगा।
अनन्त॰-- परन्तु तुमको क्या? निर्वीर्य, निरीह बालक! तुम्हें भी इसकी प्रसन्नता है? लज्जा के गर्त में डूब ही जाते। और भी छाती फुलाकर इसका आनन्द मनाते हो!
विजया-- अहा! यदि आज राजाधिराज' कहकर युवराज पुरगुप्त का अभिनन्दन कर सकती!
भटार्क-- यदि मैं जीता रहा तो वह भी कर दिखाऊँगा!
(दौवारिक का प्रवेश)
दौवारिक-- जय हो! एक चर आया है। भटार्क-- ले आओ।
(दौवारिक जाकर चर को लिवा लाता है)
चर-- युवराज की जय हो!
भटार्क-- तुम कहाँ से आये हो?
चर-- नगरहार के हूण-स्कंधावार से।
भटार्क-- क्या संदेश है?
चर-- सेनापति खिङ्गिल ने पूछा है कि मगध की गुप्तपरिषद् क्या कर रही है? उसने प्रचुर अर्थ लेकर भी मुझे ठीक समय पर धोखा दिया है। परन्तु स्मरण रहे कि अबको हमारा अभियान सीधे कुसुमपुर पर होगा; स्कंदगुप्त का साम्राज्य-ध्वंस पीछे होगा। पहले कुसुमपुरी का मणि-रत्न-भांडार लूटा जायगा। प्रतिष्ठान और चरणाद्रि तथा गोपाद्रि के दुर्गपतियों को जो धन विद्रोह करने के लिये परिषद् की आज्ञा से भेजा गया था, उसका क्या फल हुआ? अन्तर्वेद के विषयपति की कुटिल दृष्टि ने उस रहस्य का उद्घाटन करके वह धन भी आत्मसात् कर लिया और सहायता के बदले हमलोग अवंचित हुए, जिससे हूणों को सिन्धु का भी तट छोड़ देना पड़ा।
भटार्क-- ओह! शर्वनाग ने बड़ी सावधानी से काम लिया। आचार्य्य प्रपंचबुद्धि का निधन होने से यह सब दुर्घटना हुई है। दूत! हूणराज से कहना कि पुरगुप्त के सम्राट बनाने में तुम्हें अवश्य सहायता करनी पड़ेगी।
चर-- परन्तु उन्हें विश्वास कैसे हो?
भटार्क-- मैं प्रमाणपत्र दूँगा। हूणों को एक बार ही भारतीय सीमा से दूर करने के लिये स्कंदगुप्त ने समस्त सामन्तों को आमन्त्रण दिया है। मगध की रक्षक सेना भी उसमें सम्मिलित होगी, और मैं ही उसका परिचालन करूँगा। वहीं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगी। और यह लो प्रमाणपत्र। (पत्र देता है)
पुरगुप्त-- ठहरो।
अनंत॰-- चुप रहो!
दूत तो यह उपहार भी सम्राज्ञी के लिये प्रस्तुत है।
(रत्नों से भरी हुई मंजूषा देता है)
भटार्क-- और उत्तरापथ के समस्त धर्मसंघों के लिये क्या किया है?
दूत-- आर्य्य महाश्रमण के पास मैं हो आया हूँ। समस्त सद्धर्म्म के अनुयायी और संघ, स्कंदगुप्त के विरुद्ध हैं। याज्ञिक क्रियाओं की प्रचुरता से उनका हृदय धर्मनाश के भय से घबरा उठा है। सब विद्रोह करने के लिये उत्सुक हैं।
भटार्क-- अच्छा, जाओ। नगरहार के गिरिव्रज का युद्ध इसका निबटारा करेगा। हूणराज से कहना कि सावधान रहे। शीघ्र वहीं मिलूँगा।
(दूत प्रणाम करके जाता है)
पुरगुप्त-- यह क्या हो रहा है?
अनन्त०-- तुम्हारे सिंहासन पर बैठने की प्रस्तावना है!
(सैनिक का प्रवेश)
सैनिक-- महादेवी की जय हो!
भटार्क-- क्या है?
सैनिक-- कुसुमपुर की सेना जालन्धर से भी आगे बढ़ चुकी है। साम्राज्य के स्कंधावार में शीघ्र ही उसके पहुँच जाने की संभावना है।
पुरगुप्त-- विजया! बहुत विलम्ब हुआ। एक पात्र
(अनन्तदेवी संकेत करती है, विजया उसे पिलाती है)
भटार्क-- मेरे अश्वों की व्यवस्था ठीक है न? मैं उसके पहले पहुँचूगा।
सैनिक-- परन्तु महाबलाधिकृत!
भटार्क-- क्या? कहो!
सैनिक-- यह राष्ट्र का आपत्ति-काल है, युद्ध की आयोजनाओं के बदले हम कुसुमपुर में पानकों का समारोह देख रहे है। राजधानी विलासिता का केंद्र बन रही है। यहाँ के, मनुष्यों के लिये विलास के उपकरण बिखरे रहने पर भी अपर्य्याप्त है! नये-नये साधन और नवीन कल्पनाओं से भी इस विलासिता-राक्षसी का पेट नहीं भर रहा है! भला मगध के विलासी सैनिक क्या करेंगे?
भटार्क–-अबोध! जो विलासी न होगा वह भी क्या वीर हो सकता है? जिस जाति में जीवन न होगा वह विलास क्या करेगी? जाग्रत राष्ट्र में ही विलास और कलाओं का आदर होता है। वीर एक कान से तलवारों की और दूसरे से नूपुरों की झनकार सुनते हैं।
विजया--बात तो यही है।
सैनिक--आप महाबलाधिकृत हैं, इसलिये मैं कुछ नहीं कहूँगा।
भटार्क--नहीं तो?
सैनिक--यदि दूसरा कोई ऐसा कहता, तो मैं यही उससे कहता कि तुम देश के शत्रु हो!
भटार्क--(क्रोध से) हैं...!
सैनिक–-हाँ, यवनों से उधार ली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य्यजाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलबधू को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में। देश पर बर्बर हूणों की चढ़ाई और तिसपर भी यह निर्ल्लज आमोद! जातीय जीवन के निर्वाणोन्मुख प्रदीप का यह दृश्य है। आह! जिस मगध देश की सेना सदैव नासीर में रहती थी, आर्य्य चन्द्रगुप्त की वही विजयिनी सेना सबके पीछे निमंत्रण पाने पर साम्राज्य-सेना में जाय! महाबलाधिकृत! मेरी तो इच्छा होती है कि मैं आत्महत्या कर लूँ! मैं उस सेना का नायक हूँ, जिसपर गरुड़ध्वज की रक्षा का भार रहता था। आर्य्य समुद्रगुप्त की प्रतिष्ठित उस सेना का ऐसा अपमान!
भटार्क-- (अपने क्रोध के मनोभाव दबाकर) अच्छा, तुम यहीं मगध की रक्षा करना, मैं जाता हूँ।
सैनिक-- हूँ, अच्छा तो यह खड्ग लीजिये, मैं आज से मगध की सेना का नायक नहीं। (खड्ग देता है)
पुरगुप्त-- (मद्यप की-सी चेष्टा बनाकर) यह अच्छा किया, आओ मित्र! हम-तुम कादम्ब पियें। जाने दो इन्हें। इन्हें लड़ने दो।
अनंतदेवी-- (भटार्क को संकेत करती हुई ले जाती है, और विजया से कहती है) विजया! युवराज का मन बहलाओ!
[सैनिक तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए जाता है। भटार्क और अनंतदेवी एक ओर, विजया और पुरगुप्त दूसरी ओर जाते हैं।]
(जयमाला और देवसेना)
जयमाला-- तू उदास है कि प्रसन्न, कुछ समझ में नहीं आता! जब तू गाती है तब तेरे भीतर की रागिनी रोती है, और जब हँसती है तब जैसे विषाद की प्रस्तावना होती है!
१-सखी--सम्राट युद्ध-यात्रा में गये हैं और......
२-सखी--तो क्या?
देवसेना--तुम सब भी भाभी के साथ मिल गई हो। क्यों भाभी! गाऊँ वह गीत?
जयमाला-- मेरी प्यारी! तू गाती है। अहा! बड़ी-बड़ी आँखें तो बरसाती ताल-सी लहरा रही हैं। तू दुखी होती है। ले, मैं जाती हूँ। अरी! तुम सब इसे हँसाओ। (जाती है)
देवसेना--क्या महारथी हारकर भगे? अब तुम सच क्षुद्र सैनिकों की पारी है? अच्छा तो आओ।
१—सखी-- नहीं, राजकुमारी! मैं पूछती हूँ कि सम्राट् ने तुमसे कभी प्रार्थना की थी?
२-सखी-–हाँ, तभी तो प्रेम का सुख है!
३—सखी--तो क्या मेरी राजकुमारी स्वयं प्रार्थिनी होंगी?
देवसेना-प्रार्थना किसने की है, यह रहस्य की बात है। क्यों? कहूँ? प्रार्थना हुई है मालव की ओर से; लोग कहेंगे कि मालव देकर देवसेना का व्याह किया जा रहा है।
१-सखी-- न कहो, तब फिर क्या-हरी-हरी कोपलों की टट्टी में फूल खिल रहा है-- और क्या!
देवसेना-- तेरा मुँह काला, और क्या? निर्दय होकर आघात मत कर, मर्म्म बड़ा कोमल है। कोई दूसरी हँसी तुझे नहीं आती?
(मुंह फेर लेती है)
२-सखी-- लक्ष्यभेद ठीक हुआ-सा देखती हूँ।
देवसेना-- क्यों घाव पर नमक छिड़कती है? मैंने कभी उनसे प्रेम की चर्चा करके उनका अपमान नहीं होने दिया है। नीरव जीवन और एकांत व्याकुलता, कचोटने का सुख मिलता है। जब हृदय में रुदन का स्वर उठता है, तभी संगीत की वीणा मिला लेती हैं। उसीमे सब छिप जाता है।
(आँखों से आँसू बहता है)
१-सखी-है-हैं, क्या तुम रोती हो? मेरा अपराध क्षमा करो!
देवसेना--(सिसकती हुई) नहीं प्यारी सखी! आज ही मैं प्रेम के नाम पर जी खोलकर रोती हूँ; बस, फिर नहीं। यह एक क्षण का रुदन अनन्त स्वर्ग का सृजन करेगा।
२-सखी--तुम्हें इतना दुःख है, मैं यह कल्पना भी न कर सकी थी।
देवसेना--(सम्हलकर) यही तू भूलती है। मुझे तो इसी में सुख मिलता है; मेरा हृदय मुझसे अनुरोध करता है, मचलता है, रूठता है, मै उसे मनाती हूँ। ऑखें प्रणय-कलह उत्पन्न कराती हैं, चित्त उत्तेजित करता है, बुद्धि झिड़कती है, कान कुछ सुनते ही नहीं! मैं सबको समझाती हूँ, विवाद मिटाती हूँ। सखी! फिर भी मैं इसी झगड़ालू कुटुम्ब में गृहस्थी सम्हालकर, स्वस्थ होकर, बैठती हूँ।
३-सखी-आश्चर्य! राजकुमारी! तुम्हारे हृदय में एक बरसाती नदी वेग से भरी है!
देवसेना-कूलों में उफनकर बहनेवाली नदी, तुमुल तरङ्ग; प्रचंड पवन और भयानक वर्षा! परन्तु उसमें भी नाव चलानी ही होगी।
१-- सखी--
(गान)
माझी! साहस है खे लोगे
जर्जर तरी भरी पथिकों से---
झड़ में क्या खोलोगे
अलस नील घन की छाया में---
जलजालों की छल-माया में---
अपना बल तोलोगे
अनजाने तट की मदमाती---
लहरें, क्षितिज चूमती आतीं
ये झटके झेलोगे? माझी---
(भीमवर्म्मा का प्रवेश)
भीम०--बहिन! शक-मंडल से विजय का समाचार आया है!
देवसेना--भगवान की दया है।
भीम॰--परन्तु, महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त वीरगति को प्राप्त हुए, यह बड़ा........!
देवसेना--वे धन्य हैं!
भीम०---वीर-शय्या पर सोते-सोते उन्होंने अनुरोध किया कि महाराज बन्धुवर्म्मा गुप्तसाम्राज्य के महाबलाधिकृत बनाये जायँ, इसलिये अभी वे स्कंधावार में ठहरेंगे। उनका आना अभी नहीं हो सकता है और भी कुछ सुना देवसेना?
देवसेना--क्या?
भीम०--सम्राट् ने तुम्हें बचाने के पुरस्कार-स्वरूप मातृगुप्त को काश्मीर का शासक बना दिया है। गान्धारवंशी राजा अब वहाँ नहीं है। काश्मीर अब साम्राज्य के अन्तर्गत हो गया है।
देवसेना--सम्राट् की महानुभावता है। भाई! मेरे प्राणों का इतना मूल्य?
भीम०--आर्य्य-साम्राज्य का उद्धार हुआ है। बहिन! सिधु के प्रदेश से म्लेच्छ-राज ध्वंस हो गया है। प्रवीर सम्राट् स्कंदगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की है। गौ, ब्राह्मण और देवताओं की ओर कोई भी आततायी आँख उठाकर नहीं देखता। लौहित्य से सिधु तक, हिमालय की कन्दराओ में भी, स्वच्छन्दतापूर्वक सामगान होने लगा। धन्य हैं हम लोग जो इस दृश्य को देखने के लिये जीवित है!
देवसेना--मङ्गलमय भगवान सब मङ्गल करेंगे। भाई, साहस चाहिये, कोई वस्तु असम्भव नहीं।
भी०-- उत्तरापथ के सुशासन की व्यवस्था करके परम भट्टारक शीघ्र आवेंगे। मुझे अभी स्नान करना है, जाता हूँ।
देवसेना-- भाई! तुम अपने शरीर के लिये बड़े ही निश्चिन्त रहते हो। और कार्यों के लिये तो......
(भीम हँसता हुआ जाता है)
(मुद्गल का प्रवेश)
मुद्गल-- जो है सो काणाम करके यह तो अपने से नहीं हो सकता। उहूँ, जब कोई न मिला तो फूटी ढोल की तरह मेरे गले पड़ी!
देवसेना-- क्या है मुद्गल?
मुद्गल-- वही-चही, सीता की सखी, मन्दोदरी की नानी त्रिजटा। कहाँ है मातृगुप्त ज्योतिषी की दुम! अपने को कवि भी लगाता था! मेरी कुंडली मिलाई या कि मुझे मिट्टी में मिलाया। शाप दूंगा। एक शाप! दाँत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा खोलते हुए चाणक्य का लकड़दादा बन जाऊँगा! मुझे इस झंझट में फंसा दिया! उसने क्यों मेरा व्याह कराया......?
देवसेना-- तो क्या बुरा किया?
मुद्गल-- झख मारा, जो है सो काणाम करके।
देवसेना-- अरे व्याह भी तुम्हारा होता?
मुद्गल-- न होता तो क्या इससे भी बुरा रहता? बाबा, अब तो मैं इसपर भी प्रस्तुत हूँ कि कोई इसको फेर ले। परंतु यह हत्या कौन अपने पल्ले बाँधेगा!
(सब हँसती हैं)
देवसेना-- आज कौन-सी तिथि है? एकादशी तो नहीं है?
मुद्गल-- हाँ, यजमान के घर एकादशी और मेरे पारण की द्वादशी; क्योंकि ठीक मध्याह्न में एकादशी के ऊपर द्वादशी चढ़ बैठती है, उसका गला दबा देती है; पेट पचकने लगता है
देवसेना-- अच्छा, आज तुम्हारा निमंत्रण है--- तुम्हारी स्त्री के साथ।
मुद्गल-- जो है सो देवता प्रसन्न हों, आपका कल्याण हो! फिर शीघ्रता होनी चाहिये। पुण्यकाल बीत न जाय..... चलिये। मैं उसे बुला लेता हूँ। (जाता है)
[सबका प्रस्थान]
[गान्धार की घाटी-रणक्षेत्र]
(तुरही बजती है, स्कंदगुप्त और बंधुवम्म के साथ सैनिकों को प्रवेश)
वंधु०-- वीरो! तुम्हारी विश्वविजयिनी वीरगाथा सुर-सुंदरियों की वीणा के साथ मन्द ध्वनि से नंदन में पूँज उठेगी। असम साहसी आर्य्य-सैनिक! तुम्हारे शस्त्र ने बर्बर हूणों को बता दिया है कि रण-विद्या केवल नृशंसता नहीं है। जिनके आतंक से आज विश्वविख्यात रूम-साम्राज्य पादाक्रांत है, उन्हें तुम्हारा लोहा मानना होगा और तुम्हारे पैरों के नीचे दबे हुए कंठ से उन्हें स्वीकार करना होगा कि भारतीय दुर्जेय वीर हैं। समझ लो-- आज के युद्ध में प्रत्यावर्त्तन नहीं है। जिसे लौटना हो, अभी से लौट जाय।
सैनिक-- आर्य-सैनिकों का अपमान करने का अधिकार महाबलाधिकृत को भी नहीं है! हम सब प्राण देने आये हैं, खेलने नहीं।
स्कंद०-- साधु! तुम यथार्थ ही जननी जन्म-भूमि की संतान हो।
सैनिक-- राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय!
(चर का प्रवेश)
चर-- परम भट्टारक की जय हो!
स्कंद०-- क्या समाचार है?
चर-- देव! हूण शीघ्र ही नदी के पार होकर आक्रमण की प्रतीक्षा कर रहे है। परंतु, यदि आक्रमण न हुआ तो वे स्वयं आक्रमण करेंगे।
वंधु०-- और कुभा के रणक्षेत्र का क्या समाचार है?
चर--मगध की सेना पर विश्वास करने के लिये मैं न कहूँगा। भटार्क की दृष्टि में पिशाच की मंत्रणा चल रही है। खिङ्गिल के दूत भी आ रहे हैं। चक्रपालित उस कूट-चक्र को तोड़ सकेंगे कि नहीं, इसमें सन्देह है।
स्कंद०--बंधुवर्म्मा! तुम कुभा के रणक्षेत्र की ओर जाओ, मैं यहाँ देख लूँगा।
बंधु०--राजाधिराज! मगध की सेना पर अधिकार रखना मेरे सामर्थ्य के बाहर होगा, और मालव की सेना आज नासीर में है। आज इस नदी की तीक्ष्ण धारा को लाल करके बहा देने की मेरी प्रतिज्ञा है। आज मालव का एक भी सैनिक नासीर-सेना से न हटेगा।
स्कंद॰--बंधु! यह यश मुझसे मत छीन लो।
बंधु०--परन्तु सबके प्राण देने के स्थान भिन्न है। यहाँ मालव की सेना मरेगी, दूसरे को यहाँ मरकर अधिकार जमाने का अधिकार नहीं। और बंधुवर्मा मरने-मारने में जितना पटु है, उतना षड्यंत्र तोड़ने में नहीं। आपके रहने से सौ बंधुवर्मा उत्पन्न होंगे। आप शीघ्रता कीजिये।
स्कंद॰--बंधुवर्मा! तुम बड़े कठोर हो!
बंधु०--शीघ्रता कीजिये। यहाँ हूणों को रोकना मेरा ही कर्त्तव्य है, उसे मैं ही करूँगा। महाबलाधिकृत का अधिकार मैं न छोड़ूँगा।चक्रपालित वीर है, परन्तु अभी वह नवयुवक है; आपका वहाँ पहुँचना आवश्यक है। भटार्क पर विश्वास न कीजिये।११५" id="११५"११५"> %E0%A5%A7%E0%A5%A7%E0%A5%AB" class="prp--4"११५">११५]स्कंद०-- मैंने समझा कि हूणों के सम्मुख वह विश्वासघात न करेगा। बंधु०-- ओह! जिस दिन ऐसा हो जायगा, उस दिन कोई भी इधर आँख उठाकर न देखेगा। सम्राट! शीघ्रता कीजिये!
स्कंद॰-- (आलिङ्गन करता है) मालवेश की जय!
बंधु०-- राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय!
(चर के साथ स्कंदगुप्त जाते हैं)
(नेपथ्य में रणवाद्य। शत्रु-सेना आती है। हूणों की सेना से विकट युद्ध। हूणों का मरना, घायल होकर भागना। बंधुवर्मा की अन्तिम अवस्था; गरुड़ध्वन टेककर उसे चूमना।)
बंधु०-- (दम तोड़ते हुए) विजय! तुम्हारी... विजय!... आर्य्य-साम्राज्य की जय!
सब-- आर्य्य-साम्राज्य की जय!
बंधु०-- भाई! स्कंदगुप्त से कहना कि मालव-वीर ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की; भीम और देवसेना उनकी शरण हैं।
सैनिक-- महाराज! आप क्या कहते हैं! (सब शोक करते हैं)
बंधु०-- बंधुगण! यह रोने का नहीं, आनंद का समय है। कौन वीर इसी तरह जन्म-भूमि की रक्षा में प्राण देता है, यही मैं ऊपर से देखने जाता हूँ।।
सैनिक-- महाराज बंधुवर्मा की जय!
(गरुड़ध्वज की छाया में बंधुवर्मा की मृत्यु)
[ दुर्ग के सम्मुख कुभा का रणक्षेत्र; चक्रपालित और स्कंदगुप्त ]
चक्र०-- सम्राट्! प्रतारणा को पराकाष्ठा! दो दिन से जान-बूझकर शत्रु को उस ऊँची पहाड़ी पर जमने का अवकाश दिया जा रहा है। आक्रमण करने से मैं रोका जा रहा हूँ। समस्त मगध की सेना उसके संकेत पर चल रही है।
स्कंद०-- चक्र! कुभा में जल बहुत कम है, आज ही उतरना होगा। तुम्हें दुर्ग में रहना चाहिये। मैं भटार्क पर विश्वास तो करता ही नहीं, परन्तु उसपर प्रकट रूप से अविश्वास का भी समय नहीं रहा।
चक्र०-- नहीं सम्राट! उसे बंदी कीजिथे । वह देखिये-- आ रहा है।
भटार्क-- (प्रवेश करके) राजाधिराज की जय हो!
स्कंद०-- क्यो सेनापति! यह क्या हो रहा है?
भटार्क-- आक्रमण की प्रतीक्षा सम्राट्!
स्कंद॰-- या समय की?
भटार्क-- सम्राट् का मुझपर विश्वास नहीं है, यह .........
चक्र०-- विश्वास तो कहीं से क्रय नहीं किया जाता!
भटार्क-- तुम अभी बालक हो।
चक्र०-- दुराचारी कृतघ्न! अभी मैं तेरा कलेजा फाड़ खाता; तेरा......!
भटार्क-- सावधान! अब मैं सहन नहीं कर सकता!
(तलवार पर हाथ रखता है)
स्कंद०-- भटार्क! वह बालक है। कूटमंत्रणा, वाक् चातुरी नहीं जानता। चुप रहो चक्र!
(चक्रपालित और भटार्क सिर नीचा कर लेते हैं)
स्कंद०–– भटार्क! प्रवञ्चना का समय नहीं है। स्मरण रखना- कृतघ्न और नीचों की श्रेणी में तुम्हारा नाम पहले रहेगा!
(भटार्क चुप रह जाता है)
स्कंद०-- युद्ध के लिये प्रस्तुत हो?
भटार्क-- मेरा खड्ग साम्राज्य की सेवा करेगा।
स्कंद०-- अच्छा तो अपनी सेना लेकर तुम गिरिसंकट पर पीछे से आक्रमण करो और सामने से मैं आता हूँ। चक्र! तुम दुर्ग की रक्षा करो।
भटार्क-- जैसी आज्ञा। नगरहार के स्कंधावार को भी सहायता के लिये कहला दिया जाय तो अच्छा हो।
स्कंद०–चर गया है। तुम शीघ्र जाओ । देखो-सामने शत्रु दीख पड़ते हैं।
(भटार्क का प्रस्थान)
चक्र०-- तो मैं बैठा हूँ?
स्कंद-- भविष्य अच्छा नहीं है चक्र! नगरहार से समय पर सहायता पहुँचती नहीं दिखाई देती। परंतु, यदि आवश्यकता हो तो शीघ्र नगरहार की ओर प्रत्यावर्तन करना। मैं वही तुमसे मिलूँगा।(चर का प्रवेश)
स्कंद॰-- गान्धार-युद्ध का क्या समाचार है?
चर-- विजय। उस रणक्षेत्र में हूण नहीं रह गये। परंतु सम्राट्! बंधुवर्म्मा नहीं हैं!
स्कंद०-- आह बंधु! तुम चले गये? धन्य हो वीर-हृदय!
(शोक-मुद्रा से बैठ जाता है)
चक्र०-- इसका समय नहीं है सम्राट्! उठिये, सेना आ रही है; इस समय यह समाचार नहीं प्रचारित करना है।
स्कंद॰-- (उठते हुए) ठीक कहा।
(भटार्क के साथ सेना का प्रवेश)
स्कंद०-- देखो, कुभा के उस बंध से सावधान रहना! आक्रमण में यदि असफलता हो, और शत्रु की दूसरी सेना कुभा को पार करना चाहे, तो उसे काट देना। देखो भटार्क! तुम्हारे विश्वास का यही प्रमाण है।
भटार्क-- जैसी आपकी आज्ञा।
(कुछ सैनिकों के साथ जाता है)
स्कंद०-- चक्र! दुर्ग-रक्षक सैनिकों को लेकर तुम प्रतीक्षा करना। हम इसी छोटी-सी सेना से आक्रमण करेंगे। तुम सावधान!
(नेपथ्य से रणवाद्य)
देखो--वह हूण आ रहे हैं! उन्हें वहीं रोकना होगा। तुम दुर्ग में जाओ।
चक्र०-- जैसी आज्ञा। (जाता है)
स्कंद॰--वीर मगध-सैनिकों! आज स्कंदगुप्त तुम्हारी परिचालना कर रहा है, यह ध्यान रहे, गरुड़ध्वज का मान रहे, भले ही प्राण जायँ!
मगध-सेना--राजाधिराज श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय!
(सेना बढ़ती है, ऊपर से अस्त्रवर्षा होती हैं, घोर युद्ध के बाद हूण भागते हैं। साम्राज्य-सेना का, जयनाद करते हुए, शिखर पर अधिकार करना।)
नायक--(ऊपर देखता हुआ) सम्राट्! आश्चर्य्य है, भागी हुई हूण-सेना कुभा के उस पार उतर जाना चाहती है!
स्कंद॰--क्या कहा!
नायक--कुछ मगध-सेना भी वहाँ है, परंतु वह तो जैसे उनका स्वागत कर रही है!
स्कंद॰--विश्वासघात! प्रतारणा! नीच भटार्क!
नायक–-फिर क्या आज्ञा है?
स्कंद॰--दुर्ग की रक्षा होनी चाहिये। उस पार की हूण-सेना यदि आ गई तो कृतघ्न भटार्क उन्हें मार्ग बतावेगा। वीरो! शीघ्र उन्हें उसी पार रोकना होगा। अभी कुभा पार होने की संभावना है।
(नायक तुरही वजाता है, सैनिक इकठ्ठे होते हैं।)
स्कंद०--(घबराहट से देखते हुए) शीघ्रता करो।
नायक--क्या?
स्कंद०--नीच भटार्क ने बंध तोड़ दिया है, कुभा में जल बड़े वेग से बढ़ रहा है! चलो शीघ्र--
(सब उतरना चाहते हैं, कुभा में अकस्मात् जल बढ़ जाता है;
सब बहते हुए दिखाई देते हैं।)
[अंधकार]