सिन्दूर की डिबिया (नाटक) : मंगल सिंह मुंडा
Sindoor Ki Dibiya (Play in Hindi) : Mangal Singh Munda
पात्र - परिचय
पुरुष - पात्र
1. भूपति बाबू - सुनीता का पिता
2. पाकु - नौकर 3. लालाजी - सेठ 4. जगदीश - सुनीता का दूल्हा 5. सलीम - अखबारवालास्त्री - पात्र
1. सुनीता - भूपति की एकलौती बेटी
2. अधेड़ बुढ़िया - भूपति की रोगग्रस्त पत्नी 3. निधि, काजल - सुनीता की सहेलियाँ 4. किरण - महिला डाक्टरअंक -1
प्रथम दृश्य
जगह - भूपति बाबू का बंगला।
समय - आठ बजे सवेरे । सिर गड़ाए विचार में डूबे भूपति बाबू बरामदे पर इधर से उधर आ-जा रहे हैं। रसोई में सुनीता सब्जी काट रही है। बगल के कमरे में एक रोगग्रस्त अधेड़ स्त्री अनाप-शनाप बके जा रही है। (सलीम का प्रवेश ) सलीम - (दरवाजे पर दस्तक) ठक्ठक्ठक्... भूपति चाचा... भूपति चाचा... दरवाजा खोलिये...। भूपति - कौन? सलीम - अखबार वाला, सलीम । भूपति - (दरवाजा खोलते हैं) सलीम - ( अखबार के साथ घुसता है) आवाज से नहीं पहचाना? आज आपके लिये खुश-खबरी लेकर आया हूँ। ये देखिए... दीदी सुनीता कहाँ है? ( डॉ. किरण का प्रवेश ) डॉ. किरण - हाँ, भूपति बाबू...? भूपति - ( चेहरे पर चिंता बरकरार) अरे डॉ. किरण। आइए... आइए, बैठिये (कुर्सी खींचते हैं ) ... बैठिये । डॉ. किरण - पत्नी - कैसी है? ( सुनीता का प्रवेश ) सुनीता - नमस्कार सर! माँ ? माँ तो जो है सो है। उसी की तो आवाज आ रही है। डॉ. किरण - ओह! माँ की जान बची, यही काफी है। महामारी को तो ईश्वरीय लीला कहा जाता है। इसके आगे मानव की नहीं चलती। इसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया है। शरीर बेहद कमजोर है। आज एक विटामिन का टॉनिक लिख जाती हूँ। (पुर्जा लिखकर देती है) खाने के घंटा पहले दोनों वक्त दो चम्मच करके पिलाएगी। घबड़ाने की कोई बात नहीं । चेतना लौट आयेगी। (और अखबार वाले की तरफ मुखातिब होती है ) क्या रे सलीम यहाँ क्या कर रहा है? तू भी डाक्टर बन गया क्या ? घर में समय पर पेपर दिया करना, समझा ? सलीम - जी सर् दीदी सुनीता को खुशखबरी देने आया हूँ। डॉ. किरण - क्या? सलीम - वह देखिए (अखबार पढ़ रही सुनीता की ओर संकेत ) डॉ. किरण - क्या रे सुनीता तूने भी क्या तीर मार ली है ? सबके सब डाक्टर बनेंगे तो मरीज कौन बनेगा? सुनीता - कुछ नहीं सर, आई स्पेशलिस्ट का रिजल्ट आया है। डॉ. किरण - और यह कुछ नहीं ? ( अखबार लेती है) डिस्टिंक्शन में पास की हो। भूपति बाबू, अब क्या बचा है? इसके हाथ पीले करने की बात सोचें। क्यों? भूपति - क्या कहूँ डॉ. साहिबा, मुझे लगता है कि ईश्वरीय सृष्टि में बड़ा भारी खोट है। डॉ. किरण - क्यों भूपति बाबू, आप भी कन्या भ्रूण हत्या के पक्ष में हैं। भूपति - नहीं, नहीं। मेरे आंदोलित होने का यह कारण नहीं। सलीम - ( चाय पीकर दोनों को आश्चर्य से ताकता है) अच्छा दीदी अब चलता हूँ। ( सलीम का जाना ) डॉ. किरण - तो ? भूपति - हमारी बहू-बेटियाँ ! किसी पश्चिमी विद्वान ने ठीक ही कहा है-'ये फूल कुछ नहीं धरती की मुस्कुराहट है।' मैं सोचता हूँ हमारी बेटियाँ मानव जीवन की मुस्कान ही तो हैं। डॉ. किरण - तो दिक्कत कहाँ? पत्नी की दुख-दर्दों को बेटी की मुस्कान से हर कीजिए न। भूपति - नहीं डॉ. साहिबा नहीं (दोनों हथेलियों से विरोध जताते हुए) हमारे समाज में बेखौफ चिंघाड़नेवाला दहेज दानव से तो आप वाकिफ हैं ही। एक हाई प्रोफाईल दूल्हा का दाम आपको मालूम है ? बरखुरदार ससुर की गाढ़ी कमाई की टाटा सफारी से बेटी को हनीमून मनाने ले जाएँगे। बेटी को डाक्टरी पढ़ाने में चाकरी का सारा पैसा स्वाहा। इस शेष जीवन में टाटा सफारी आये तो कहाँ से? काश! सृष्टिकर्ता एक ही मानव शरीर में स्त्रीलिंग - पुलिंग बनाया होता। न माया न ममता का बखेड़ा। डॉ. किरण - ओह! सच में अनब्याही बेटी के लिये तो यह दानव घोर अभिशाप है। भूपति - पर खुद दानव के लिये तो वरदान, बरकत ही समझें। डॉ. किरण - पता नहीं यह दानव आनेवाले कल को कन्याओं के मुलायम शरीर पर कितने नुकीले दाँत गड़ाएगा। अच्छा, मैं चलती हूँ। ( डॉ. किरण जाती है ) ( पटाक्षेप)द्वितीय दृश्य
स्थान - पूर्ववत् ।
समय - कुछ देर बाद । सलीम और डॉक्टर के जाने के बाद घर का माहौल पहले की स्थिति में आता है। पत्नी का बड़बड़ाना जारी है। भूपति का मन अशांत है। भूपति - (अखबार उठाते हैं, बेटी के उत्तीर्ण की खबर उन्हें और परेशान करता है) बेटी पास कर गई! और सुखद परेशानी! ( चाय के साथ सुनीता का प्रवेश ) सुनीता - पिताजी, चाय । भूपति - ओहो, हाँ। लाओ ( रुक-रुककर चाय पीते हैं) पाकू..ऊ..ऊ... ऊ...? ( सुनीता का जाना ) पाकु - जी, बाबूजी । सुनीता - क्या हुआ पिताजी ? (रसोई से निकलकर ) भूपति - कुछ नहीं। कुछ नहीं सुनु। पानी गर्म हो रहा है? सुनीता - हाँ। पर आज इतनी जल्दी नहा रहे हैं। भूपति - परीक्षा निकट है। ट्यूशन पढ़ाने जल्दी जाना है। (पाकु का प्रवेश) पाकु - आया बाबूजी। भूपति - (जिनिया फूल पर नजर) इसे पानी दे देना । पाकु - जी बाबूजी। क्षमा चाहता हूँ, बाबूजी । कल से मित्रापूर के मेहमानों की खातिरदारी में तो घर का काम-काज ही भूल गया। असल में मैं भी चाहता हूँ कि सुनीता बिटिया का रिश्ता न टूटे। उनकी सेवा-सुश्रूषा में कोई कमी न रह जाए। इसीलिए.... सुनीता - (गोल-गोल आँखों से पाकु को घूरती है) काका, जा अपना काम कर (ऊँगली में पट्टी बंधी है) ( माँ का प्रवेश ) माँ - (लाठी के सहारे लड़खड़ाते हुए) अरे, ऊँगली में पट्टी बँधी है। यह उछल-कूद ठीक नहीं। मित्रापूर वालों को पानी पिलायी कि नहीं? एक गिलास पानी लाओ। सुनीता - ( दुखित मन से पानी देते हुए) मैंने कितनी बार कहा कि अपने कमरे में बैठी रहो। वहाँ गिलास में पानी तो है। नहीं पी लेंगी। माँ - लड़का भी आया था। गोरा है। माँ बोल के पहचान लिया होगा । सुनीता - (सहारा देते हुए) अब चलो अपने कमरे में। ( पटाक्षेप)तृतीय दृश्य
स्थान - सुनीता का शयनकक्ष ।
समय - दिन के दो बजे । खा-खिला कर सुनीता आराम फरमाती है। कोई पत्रिका में रमी है। पर मन भटकाव में है। सुनीता - ( मन ही मन ) मित्रापुर के मेहमान ! कहीं जगदीश तो पिता के साथ नहीं आ धमका था और हम दोनों के बीच के सम्बन्ध को लेकर पिताजी पर वज्रपात नहीं किया? क्या उन्हें कुरेदूँ? नहीं, यह ठीक न होगा। खैर, शाम को चाय के वक्त । हाँ, पाकु को आवाज दूँ?... पाकु... ऊ ऊ ऊ । पाकु काका...आ...आ...आ...। पाकु - आया बिटिया। और चार-पाँच कुदाल बाकी है। (पाकु का प्रवेश) पाकु - हाँ कहो बिटिया । बाबूजी ने कह रखा है कि 'सालमिश्री' के लिये कियारी बना रखो। यह बड़ा ही उपयोगी औषध वाला फूल है। इसकी जड़ें बुढ़ापा के कारण होनेवाली समस्याओं को कम करके आदमी को युवा एवं लम्बी उम्र देती हैं। सुनीता - ( पत्रिका से नजर हटाये बिना) कल मित्रापुर वाले किस काम से घर आये थे, पता है? पाकु - नहीं। पर उनके जाने के बाद बाबूजी मुझे बड़े ही भारी मन से कह रहे थे। सुनीता - (चौंककर पत्रिका दूर फेंकती है) क्या कह रहे थे ? पाकु - कह रहे थे कि बेटियों का बाप बनना बड़ा ही दुखदायक है। आगे जाओ तो विशाल फैला समुद्र। पीछे लौटो तो अंधेरी खाई। सुनीता - और कुछ कहा ? पाकु - हाथ से छाती दबाए, एक दर्दभरी आवाज में कहे- 'हाय अब लाडली सुनु का क्या होगा?” सुनीता - तब आपने कुछ कहा ? पाकु - मैंने कहा कि विवाह का पत्र पंजी पर तो विधाता लिखता है। लड़का टेढ़ा लगा। मारुति कार से तो बड़ी मुश्किल से उतरा। बातचीत दो लाख नकदी पर अटकी । विधाता यदि चाहे तो... सुनीता - तब पिता जी ने क्या कहा? पाकु - इसी बात को लेकर वे लालाजी के यहाँ भी जानेवाले हैं। सुनीता - नहीं काका, नहीं। अब सालमिश्री का पौधा रोपो माता-पिता की उम्र हो चली है। सालमिश्री की जड़ें उन्हें स्वस्थ और लम्बी उम्र दे यही मेरी अन्तिम कामना है, जाओ। (उतरा हुआ चेहरा) पाकु - (जाते हुए निःशब्द में भावी खतरे का आभास ) (पटाक्षेप)चतुर्थ दृश्य
स्थान - पिता जी का कमरा
समय - संध्या पाँच बजे। रसोई में चाय बन रही है। सुनीता पिता के कमरे को झाड़-बुहार रही है। ( भूपति का प्रवेश ) सुनीता - लाइये पिताजी (कोट टाँगने के लिये) भूपति - (कोट देते हैं) सुनीता - पानी लाऊँ? भूपति - नहीं। तेरी माँ अन्दर है? सुनीता - हाँ। आपकी प्रतीक्षा में ही उठती बैठती है। वो, उधर है। भूपति - अच्छा, चाय बना के दो । ( पटाक्षेप)पंचम दृश्य
स्थान - आँगन ।
समय - सांध्या । पत्नी -आंगन पर गुपचुप बैठी है। भूपति के आते ही हाँफते हुए पूछती है। पत्नी - मिला? भूपति - नहीं । जमानती कागजों के अभाव में लालाजी ने ऋण देने से इन्कार कर दिया। पत्नी - अब क्या होगा? भूपति - रिश्ता तोड़ देंगे। फिर कहीं...। पत्नी - नहीं ई ... ई...ई...। ऐसा नहीं। वो दोनों...। भूपति - मालूम है। तुम्हीं उपाय बताओ। पत्नी - कितना नहीं बनता है? भूपति - पचास हजार। पत्नी - गाँव का बगिया बेच दो, जी। भूपति - और सोना - गहना ? पत्नी - हाँ, मेरे कुछ गहने हैं। उन्हें दे दूँगी । भूपति - हुँ... (माथा पीटते हैं) और सन्नाटा छा जाता है। ( सुनीता का आना और छिपकर बात सुनना ) भूपति - सुनु क्या कहती है ? पत्नी - मैं क्या जानूँ जी। वो तो, वो तो हमको ही बैठ जाने को कहती रहती है। भूपति - और पाकु क्या कहता है ? पत्नी - कहता है कि मित्रापुर से एक पत्र आया है। ( सुनीता का चाय के साथ प्रवेश ) सुनीता - पिताजी, चाय। भूपति - ( हाथ में चाय धरी की धरी ही है, मन कहीं और है) हाँ लाओ। (पटाक्षेप)षष्ठ दृश्य
स्थान - पूर्ववत् ।
समय - दिन के दो बजे । मित्रापुर से कल बारात आनेवाली है। घर में विवाह का सारा सामान आ चुका है। सोना, गहना, हल्दी मेंहदी सिन्दूर आदि आदि । भूपति बाबू सारे ताम-झाम के आकलन में व्यस्त हैं। (पाकु का प्रवेश ) पाकु - ( प्रसन्न मुद्रा में) बाबूजी, बाबूजी, विधाता ने बिटिया पर रहम किया है। काम बन गया है। शाम के वक्त लाला जी खुद ही रुपया लेकर आ रहे हैं। भूपति - अयँ! वे क्या बोल रहे थे? पाकु - बोल रहे थे कि बगीचा में सलाना आमदनी कितनी है? मैंने कहा कि बगीचा दो एकड़ में फैला है। वहाँ हिमसागर, लंगड़ा आम तथा इलाहाबादी अमरूद को छोड़कर और नहीं। हाँ चारों कोने पर जड़ से धड़ में फल लटकनेवाले कटहल के गगनचुम्बी पेड़ हैं। घेरे के किनारे-किनारे बौने पपीते खड़े हैं। समझो कि सलाना आमदनी पचास हजार से ऊपर। भूपति - और कुछ कहा ? पाकु - कहा, ठीक है, ठीक है। शाम के वक्त तुम्हारा मालिक से मिलता हूँ। बेटी का विवाह नहीं टलेगा...। (पटाक्षेप)सप्तम दृश्य
स्थान - विवाह मण्डप ।
समय - संध्या चार बजे । विवाह मण्डप पताकाओं से सजा है। दुल्हन को हल्दी लगाने की रस्म पूरी की जानी है। पर दुल्हन नदारद है। पत्नी - ( घबराहट में) हँ...ऊ... हँ...ऊ... हँ...ऊ... बिटिया को कहाँ छिपा के रखा है जी? निकालो... निकालो... दूल्हा बाबू आ रहा है, निकालो। निधि - हाँ चाचा, चाची ठीक ही बोल रही है। सुनीता घर में नहीं मिल रही है। थोड़ा बाहर जा लूँ, कहकर गई, पर अभी तक नहीं लौटी है। भूपति - बेटी नहीं मिल रही? देखो... देखो अपने शयन कक्ष में देखो...। भीड़ - हाँ हाँ... चलो... खटिया के नीचे देखो... नहीं। कहीं नहीं है। अरे कहाँ भाग गई यह लड़की? देखा चिट्टी-पत्री, तकिया उठाओ... काजल - (तकिया उठाती है) अरे यहाँ सिन्दूर की डिबिया ! (डिबिया खोलती है) चिट्ठी! भीड़ - कहाँ? कहाँ ? पढ़ो... पढ़ो। भूपति काका यह सुनीता लिख गई है। भूपति - ओह! घर का चिराग बुझ गई। पत्र पढ़ते हैं- पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं पति से ज्यादा पिता को महत्व देती हूँ। पिता के घर को उजाड़कर पति के घर को बसाना उचित नहीं समझती । थाने पर जाकर मेरे लापता होने की रपट लिखा दीजिए। -आपकी लाडली सुनु ओह! (पत्र को छाती से लगाते हैं) साले दहेज दानव ने एक और लाडली की जान ले ली। मेरी जिंदगी का सहारा छिन लिया। ( पटाक्षेप)अष्टम दृश्य
स्थान - बंगला ।
समय - सांध्य (रुपयों का थैला लिये लालाजी का प्रवेश) भूपति - आइए सेठ जी आइये। मैं तो आपके आने का आशा ही छोड़ दिया था । कैसे याद किये? लाला - कैसे याद नहीं करते? यह भी कोई बात हुई ? याद रखिएगा भूपति बाबू, बिटिया के हाथ पीले ही हों लाल नहीं, यह तो आपसे ज्यादा हम को फिक्र है। मगर क्या करें भूपति बाबू, समाज सभा में जो नियम - दस्तूर चला है उसे तो मानना ही पड़ता है। भूपति - हाँ, हाँ कहा जाए। लाला - हमारे उधर भुभुत नहीं, पैसा वापस का ही रिवाज है। जिस दिन सूद-मूल वापस कर देंगे, उस दिन से बगिया आपका हो जाएगा। भूपति - लेकिन... (उतरा हुआ चेहरा ) लाला - इसमें सोचने की क्या बात है ? बिगड़ा काम यदि कोई बना दे तो वह भगवान ही है, समझे हैं... हैं... हैं... हाँ कि न बोलिये तो? अरे हाँ, रुपया-पैसा तो हाथ का मैल है। मुसीबत में जो काम आये वही न सच्चा पड़ोसी है। लीजिए पैसे की थैली देता है) पचास हजार की ही तो बात थी, लीजिए...। भूपति - अरे यह क्या? लाला - पाकु ने बताया था कि बगीचा तो दुधारू गाय ही कहें। हें . . हें .... हें...। भूपति - पर दुधारू गाय ही गोशाले से गायब हो गई। लाला - हँए! मैं समझा नहीं, भूपति बाबू । भूपति - सुनीता अब किस दुनिया में जी रही है या मर रही है, हमें पता नहीं। लाला - ओह! तन के मोह से धन का मोह ज्यादा कड़ा है का ? (चेहरे से गाँधी चश्मा उतारता है) (पटाक्षेप) समाप्त। ('महुआ का फूल' कहानी संग्रह से )