श्यामास्वप्न (हिंदी उपन्यास) : ठाकुर जगमोहन सिंह

Shyama Swapna (Hindi Novel) : Thakur Jagmohan Singh

समर्पण (श्यामास्वप्न) : ठाकुर जगमोहन सिंह

श्यामास्वप्न

अर्थात् गद्य प्रधान, चार खंडों में एक कल्पना

“तन तरु चढ़ि रस चूसि सब फूली फूली न रीति।

पिय अकास बेली भई तुअ निरमूलक प्रीति।।”

“है इत लाल कपोत व्रत कठिन प्रीति की चाल।

मुख से आह न भाषि हैं निज सुख करहु हलाल।।”

(हरिश्चंद्र)

श्रीमत् हृदयंगम बाबू मंगलप्रसाद मणिजू-कन्हौकली

प्रियतम!

तुम मेरी नूतन और प्राचीन दशा को भलीभाँति जानते हौ - मेरा तुमसे कुछ भी नहीं छिपा तो इसके पढ़ने, सुनने और जानने के पात्र तुम ही हौ तुम नहीं तो और कौन होगा? कोई नहीं। श्या मलता के वेत्ता तो आप हौ न? यह उसी संबंध का श्यामास्वप्न? भी बनाकर प्रकट करता हूँ। रात्रि के चार प्रहर होते हैं - इस स्वाप्नं में भी चार प्रहर के चार स्वपप्न हैं। जगत् स्वप्नवत् हैं - तो यह भी स्वप्न ही है। मेरे लेख तो प्रत्यक्ष भी स्वप्न हैं - पर मेरा श्यामास्वप्न स्वप्न ही है। अधिक कहने का अवसर नहीं।

प्रेमपात्र! तुम इसके भी पात्र हौ। मेरे तुम्हारी प्रीति की सचाई और दृढ़ता का व्यौ्रा तुमही करोगे। यहाँ कोई निर्णय करने वाला नहीं।

यह मेरी प्रथम गद्यरचना है, क्यार इसे अंगीकार न करोगे? तुम्हा रा 'मोती मंगल' और यह मेरा 'श्यापमास्वप्नक' हम दोनों के जीवनचरित की सरिताकल्लोल का चक्रवाक-‍मिथुन का हंस जोड़ा आजीवान्त कल्लोल करैगा। जिसके सरस तीर के निकुंजमंडप पर 'श्यामालता' सदा लहलहाती रहैगी - जिस कुंज के 'प्रेससंपत्ति' और 'श्यांमासरोजिनी' रूपी विहंगम सदा चहक चहक कर 'श्यागमालता' की शोभा बढ़ावैंगे -'श्याकमसुंदर' चातक सदा प्यारसे ही बनकर 'पापी' रटैंगे - 'मकरंद' कोकिल सदा हितके मीठे बोल बोलैंगे - और दुर्जन द्विरेफ दारुण झंकार के मचाने में कभी न चूकैंगे - यह अपूर्व सरिता की धारा कभी न रुकैगी - अंत को प्रेमब्रह्मा के कमंडलु में समा कर हम दोनों को दैहिक दु:ख और संसार के बंधन से मुक्तर करैगी, अब दिन आ रहे हैं। ज्ञान का दीप भ्रमतिमिर को नाश करैगा और प्रतिदिन मार्ग सुगम होता जायगा। चिंता नहीं, इस संसार में तुम्हैंभ छोड़ और कोई मेरा सर्वस्वव नहीं - तुम्हािरा ही कहा करता हूँ।

“मिल्यौ न जगत् सहाय विरह चौरासी भटक्यौ ”

तुम्हारे अद्वितीय पिता सरयूपारप्रदीप कविराजराजिमुकुटों के अलंकार के हीरे और मेरे गुरु श्रीपंडित गयादत्तमणि वैय्याकरण शेषावतार के चरणारविंद की दया जैसी मेरे पर रही तुम्हैं भलीभाँति ज्ञात है। तुम कविशिरोमणि हो। इसको बाँच के शोधन कर देना - और शुद्ध भाव से इसे एक अपने जन की रचना जान और उनकी आन से अंगीकार कर लेना - बस

केवल तुम्हारा,

जगमोहन सिंह

रायपुर, मध्यदेश

25 दिसंबर, 1885

प्रथम याम का स्वप्न (श्यामास्वप्न) : ठाकुर जगमोहन सिंह

सोवत सरोज मुखी सपने मिली री मोहि

तारापति तारन समेत छिति छायो री।

मंडप वितान लता पातिन को तान तान

चातक चकोर मोर रोरहु मचायो री।।

कंजकर कोमल पकरि जगमोहन जू

अधर गुलाब चूमि मधुप लुभायो री।

चूकृत सों बैरिन कहा से खुली धों आँख

हाय प्रान प्‍यारी हाय कंठ ना लगायो री।।

आज भोर यदि तमचोर के रोर से, जो निकट की खोर ही में जोर से सोर किया, नींद न खुल जाती तो न जाने क्‍या क्या वस्‍तु देखने में आती। इतने ही में किसी महात्मा ने ऐसी परभाती गाई कि फिर वह आकाश संपत्ति हाथ न आई! वाह रे ईश्‍वर! तेरे सरीखा जंजालिया कोई जालिया भी न भी न निकलैगा। तेरे रूप और गुण दोनों वर्णन के बाहर हैं! आज क्‍या क्‍या तमाशे दिखलाए, यह तो व्‍यर्थ था क्‍यौंकि प्रतिदिन इस संसार में तू तमाशा दिखलाता ही है। कोई निराशा में सिर पीट रहा है, कोई जीवाशा में भूला है, कोई मिथ्‍याशा ही कर रहा है, कोई किसी के नैन के चैन का प्‍यासा है, और जल विहीन दीन मीन के सदृश तलफ रहा है - बस। इन सब बातों का क्‍या प्रयोजन! जो कहना है आरंभ करता हूँ - आज का स्‍वप्‍न ऐसा विचित्र है कि यदि उसका चित्र लिख लिया जाय तौ भी भला लगै। कल्‍ह संध्‍या को ऐसी बदली छाई कि मेरे सिर में पीड़ा आई। जो कुछ बन पड़ा व्‍यालू करके लंबी तान अपने बिछौनों में आ अड़ा। लेटते देर न हुई कि नींद ने चपेट ही लिया। पहले तो ऐसा सुख लगा कि दु:ख ही भगा। शीत की रात - अच्‍छे गरम और नरम बिछौने सोने के लिए - 'जाढ़ा जाय रुई कि दुई' - इसी पुरानी कहावत को स्‍मरण रख नींद का सुख अनुभव किया। पलकैं झपने लगीं' - अधखुली होकर बंद हो गई। कुछ काल तक स्‍मृति रही, जब तक स्‍मृति रही अपने कृत्‍य को शोचा, और फिर कुछ काल तक जगत का हाल बेहाल विचारते रहे - अब नहीं जानते क्‍या हुए - कहाँ गए, स्‍मृति कहाँ विलानी - जी में क्‍या समानी, पानी कि पौन - ईंट या पत्‍थर - मौन रहना पड़ा। जिधर देखा केवल शैल पर्वत ही देखे। मन में चिरकाल से ध्‍यान था कि यदि ईश्‍वर ज्ञान दे तो तम में से म्‍यान से तलवार की नाई भ्रम को निकाल अनन्‍य भाव से किसी पावन बिजन बन में धूनी लगा कर प्‍यारी श्‍यामा के नाम की माला टारैं - जीवन भी हारैं - तन मन धन सब वारैं - बरन उस 'मनोरथ मंदिर की नवीन मूर्ति' के चरण कमल युगलों पर सुमन समर्पण करते करते अपने शेष दिन बितावैं। गतागत इसी जोर में नींद की डोर ने मुझे फाँस कर गाँस लिया। गाँसना क्‍या साक्षात् निद्राप्रियता ने मुझै गाढ़ालिंगन करके अपनी जुगल वाहलतिकाओं से फाँस अंक में अंकही की भाँति लगा लिया। बस, देखता क्‍या हूँ कि मैं एक अपूर्व मनोहर भूमि पर विचरता हूँ, आमने सामने पर्वत, उत्तर भाग में एक बड़ी भारी नदी, कमल फूले हैं, कोकनद की पांती शोक को हटाती है। कुमुद भी एक ओर मुदयुक्‍त होकर निरख रहे हैं। इधर चातक पी पी रट रट कर अपने पुराने पातक का प्रायश्चित्त करता है। उधर काली कोयल भी अमराइयों में पंचम सुर से गा रही है। आम की मंजरी सभों को सकाम करती है। वक्र और अधखुले पलास अपने पलासों के गर्व में टेढ़े हो रहे हैं। मालती की लती-चमेली-पाटल-चंपा-इत्‍यादि सब के सब अपने-अपने राव चाव में मगन हो रहे हैं - पर्वत की अनूपम शोभा कही नहीं जाती। सरिता उसी की नव वधू सी हो उसकी गोद से निकलकर और भी प्रमोद को बढ़ाती है। पर्वत की कंदरा सिंह के नाद से प्रतिध्‍वनित हो रही है - इधर उस नाद को सुन गवय और गज भी भीत होकर पलीत के भाँति चिक्‍कार मार कर भागते हैं - हरिन अपनी प्‍यारी हरिणी के साथ - (हा हरिणयन!) कूदते जाते हैं - मयूरों के जूथ का वरूथ उड़ा जाता है - बादल छा गए - चंद्रमा छिप गए - पर बीच-बीच में उधर जाने से कभी कभी प्रकाश भी करते हैं -

कबहुँ जामिनी होत जुन्‍हैया डसि उलटी हो जात,

मंत्र न फुरत तंत्र नहिं लागत प्रीति सिरानी जात -

यह सूरदास का भजन स्‍मरण होता है इस प्रकार क्षण भर हेमंत में भी पावस का समाज हो गया था पर अंत को अकाल ही के मेघ तो थे क्षण में प्रवात से विथुर गए आकाश खुल गए।

यह हेमंत का समय था, गुलाब से करवाली उषा ने चित्रोत्‍पला के उर से अंधकार के मेघ दूर किये और उदय होते हुये भानु की किरणों का प्रतिबिंब लहरों में लहराने लगा। इस पुराने ग्राम के एक ओर नदी के तीर से पलास, आम, ताल और खजूर के महाबन पर्यंत प्रचुर शालि की भीत अपने सुनहले सिर कपाती थी - दूसरे ओर संपन्‍न गोचारण भूमि वज्रांग के गाय गोरुओं से आच्‍छादित थी। परंतु जब सूर्य्य का प्रकाश ऐसे मनोहर दृश्‍य पर ग्राम, मंदिर और महलों पर फैला उस डायन के भुइंहरे का कारागार अँधेरा ही रहा। उस भयानक स्‍थान के हतभागे बंदियों में से एक युवा को छोड़ जो विद्यार्थी के रूप में था किसी ने अपनी एकांत कोठरी की खिड़की पर दृष्टि नहीं डाली। इस भुइंहरे के एक कोने में प्‍याँर पर बैठा प्रथम किरण की आशा लगाये पहरा दे रहा था। छै दीर्घ मास उसी निर्जर कोठरी में सिसक सिसक के बिताये, समय बीता परंतु प्रत्‍येक दिवस और घंटों के साथ जो दुःख के बोझ के मारे मंद मंद पग धरते थे सब नित्‍य आशा का अंत हुआ, उसकी सब उमंगों को उस बंदीगृह समुद्र से निकलने के लिये मोक्ष की कोई नौका न दिखी। हाँ - छै महीने इसी आशा से उस नरक में काटे कि कभी तो कोई न्‍यायाधीश न्‍याय करेगा बहुतेरा रोया-गाया - प्रार्थना की, पर सब व्‍यर्थ, उस आधी रात सी खोह की अँधियारी में भी अपने विक्षिप्‍त चित्त पर परदा ढालने के लिये नेत्र मूँद लेता तौ भी वे मनोरथ हजारों भाँति के भयानक रूप देखते थे कि उसने अपने कोठरी के अंधकार से डर कर प्रकाश देखने की इच्‍छा की, इस युवा का अपराध क्‍या था? इसने प्रेम किया था अद्यापि प्रेम करता था एक उत्तम कुल की स्‍त्री - इसको यह मोह और उन्‍मत्तता से प्रेम करता था। आह प्‍यारी तेरी मूर्ति भी इस कारागार के अंधकार में कभी-कभी मुसकिरा जाती है - उस तारा की भाँति जो मेघ के बीच में चमक कर समुद्र के कोप में पड़े हुये निराश मल्‍लाहों को प्रसन्‍न करती है।

हा, तुझ पर वह अत्‍यंत प्रेम रखता था, ऐसे चाव से चाहता था। जहाँ तक मनुष्‍य की शक्ति है - क्‍या तेरा कोमल जी उसके उत्तर में न धड़कता होगा?

पहिले जुगों के राजों, लोगों और न्‍यायकारियों के दृष्टि में अपने से ऊँची जाति का आकांक्षी और विशेष कर ब्राह्मणियों पर नेत्र लगाने वाला पापी और हत्‍यारा गिना जाता था - वह कैसा ही सत्‍पुरुष और ऊँचे कुल का न हो ब्राह्मण की कन्‍या से विवाह करना घोर नरक में पड़ना या अग्नि के मुख में जलना था। मनु के समय में ब्राह्मणों की कैसी उन्‍नति और अनाथ शूद्रों की कैसी दुर्दशा थी नीचे लिखे हुए श्‍लोकों से प्रकट होगी। एक तो आकाश और दूसरा पातालवत् था। एक तो दूध दूसरा पानी -एक तो सोना दूसरा पीतल - एक तो स्‍वतंत्र दूसरा कैसा परतंत्र और आजीवांत सभों का दास, एक तो पारस दूसरा पाषाण - एक तो आम, दूसरा बबूर - एक तो सजीव दूसरा जड़, निर्जीव, केवल वृक्ष की भाँति उगने, फूलने और मुरझाने के लिये था। वाह रे समय! ब्राह्मणों ही के कर में कलम था मनमाना जो आया घिस दिया राजाओं पर ऐसा बल रखते थे कि वे इनके मोम की नाक थे, या काष्‍ठ पुत्तलिका जिसकी डोर उनके हाथ में थी -

शूद्रो गुप्‍तमगुप्‍तं वा द्वैजातं वर्णमावसन्।।

अगुप्‍तमंग सर्वस्‍वैर्गुप्‍तं सर्वेण हीयते।।374/8

अर्थ - यदि शूद्र किसी द्विज की स्‍त्री से गमन करेगा चाहै वह गृह में रक्षित हो वा अरक्षित इस प्रकार दंडय होगा - यदि अरक्षित हो तो उसका वह अंग काट डाला जायगा और धन भी सब ले लिया जायगा - यदि रक्षित हो तो वह सब से हीन कर दिया जायगा।

उभावपि तु तावेव ब्रह्मण्‍या गुप्‍तया सह।।

विप्‍लुतौ शूद्रवद्दराडयौ दग्‍धव्‍यौ वा कटाग्निना।।377/8

यदि वे दोनौं (वैश्‍य और शूद्र) ब्राह्मणी-गमन करै जो रक्षिता है तो शूद्रवत् दंड होगा वा सूखे भुसे के आग में जला दिया जायगा -

मौण्‍डयं प्राणान्तिको दण्‍डो ब्राह्मणस्‍य विधीयते।।

इतरेषान्‍तु वर्णानां दंड: प्राणान्तिको भवेत्।।379/8

न जातु ब्राह्मणं हन्‍यात्‍सर्वपापेष्‍वपि स्थितंम्।।

राष्‍ट्रादेनम्‍बहिष्‍कुर्य्यात्‍समग्रधनमक्षतम् ।।380/8

न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि।।

तस्‍मादस्‍य वधं राजा मनसापि न चिन्‍तयेत्।।381/8

अर्थात् - ब्राह्मण का मूड़ मुड़वा देना यही दंड वध के तुल्‍य है पर और दूसरे वर्णों का वध केवल प्राण ही लेने से होता है।” वाह अच्‍छा वध है - ब्राह्मणों का अभ्‍यास तो नित्‍य ही मूड़ मुड़ाने का है - देखो गंगा के तीर पर हजारों मुंडी बैठे रहते हैं और नाऊ लोग रोज ही उनको मूड़ते हैं।

चाहे कैसहू पाप न किया हो ब्राह्मण को कभी नहीं मारना पर सब धन को बचाकर (अक्षत) केवल राज से बाहर कर देना चाहिए।

संसार में ब्राह्मण वध से बढ़ कर और कोई अधर्म नहीं है इसलिए इसका वध राजा मन से भी न विचारे -

एतदेव व्रतं कृत्‍स्‍नं षण्‍मासान् शूद्रहाचरेत्॥

वृषभैकादशा वापि दद्याद्विपाय गा: सिता:॥130/11

मार्जारनकुलौ हत्‍वा चाषं मूण्‍डूकमेव च॥

श्‍वगोधोलूककाकांश्‍च शूद्रहत्‍याव्रतं चरेत्॥131/11

ब्रह्महा द्वाद्वशसमा: कुटीं कृत्‍वा वने वसेत्॥

भैक्षाश्‍यात्‍मविशुद्व्‍यर्थे कृत्‍वा शवशिरोध्‍वजम्॥73/11

शूद्र को मारने वाला छः मास (73-81) या तो उक्‍त व्रत करै अथवा 11 बैल या 11 श्‍वेत गैया ब्राह्मण को दे -130

फिर बिल्‍ली नेवरा इत्‍यादि के मारने का प्रायश्चित्त शूद्रव्रत् है - तो शूद्र बिल्‍ली के तुल्‍य हुआ इस बिचारे का जीव बड़ा सस्‍ता था परंतु ब्राह्मण को मारकर 12 वर्ष कुटी बनाकर वन में बसे और उसके मुर्दे के खपरोही में अपनी शुद्धि के लिये भीख माँगे। इससे ब्राह्मणों का कितना मान था जाना जायगा।

उसकी प्‍यारी के पिता के कारण यह बंदीगृह में पड़ा था यद्यपि कृत्रिम दोषों का आरोप भी न था। ऐसे ऐसे बलात्‍कार प्राचीन समय में जब कि छोटे छोटे भी राजों को अमित अधिकार था होते थे और उसी अंधाधुंदी में न्‍याय होने में विलंब हुआ।

इस हेतु इस निराशित सत्‍कुलोत्‍पन्‍न और सभ्‍य युवा के हृदय में उन प्रभुओं से बदला लेने की उमंगैं उठा करतीं, उसके दुःख और वेदना ऐसी प्रबल थी कि उसी उमंग में वह यह कह उठता क्‍या कोई शक्ति आकाश की वा पाताल की मेरा विनय नहीं सुनती? क्‍या मुझै त्राण न करैगी? क्‍या मैं अपनी प्रिया के प्रेम और बदला लेने की आशा तज दूँ? नहीं नहीं यदि मुझै क्षण भर भी कोई वैर भँजाने का अवकाश दे तो मैं वैकुंठ और प्रेम दोनों दे दूँ।

यह वाक्‍य उसने उसी पियांर पर बैठे बैठे सहस्रों बार कहता प्रकाश की आशा लगाए था कि भुइंहरे के कारागार के फाटक का अर्गल किसी ने पीछे खींचा, लोहे की सांकर खनखनाती बाहर पत्‍‍थर के गच पर गिरी और द्वारपाल हाथ में दिया लिये आया।

प्रकाश उस चिन्‍ता कवलित युवा के मुख पर पड़ा जिस्‍के भूरे बाल, काली आँख और विमल आनन उसके किसी सत्‍कुलीन क्षत्रिय होने के सूचित थे। "मुझसे क्‍या माँगते हो” युवा अपने कटासन से युगपत् चिहुकता हुआ पूरा खड़ा होकर बोला, “यह तो मेरे रातिव का समय नहीं है। सचमुच यह काम तो आप रात को करते हो। अब तो प्रातःकाल होता होगा, पर क्‍या आप यह कहने आये हो कि मैं बंदीगृह से मोक्ष हुआ,” युवा ने ये शब्‍द बड़ी जल्‍दी कहे और प्रसन्‍न होकर बोला “हाँ, मेरे मोक्ष की आज्ञा ल्‍याए हो तो कहो,” इतना कह हाथ बाँध खड़ा हो रहा।

जेलर ने कहा, “युवक! ऐसे स्‍थान में सुख समाचार सुनने की अपेक्षा दुःखदायक समाचार सुनने को सदा प्रस्‍तुत रहना चाहिए तौ भी आज है।”

युवक ने कहा, “क्‍या आज मैं यहाँ से छूटूँगा।” युवा का पीला मुख आनंद में प्रफुल्लित हो गया और मोक्ष की आशा के अंकुर उदय हुए।

जेलर बोला, “हे युवक मैं तेरे मोक्ष का समाचार नहीं लाया परंतु यह कहने आया हूँ कि आज जब सूर्य की किरनैं तेरी अँधेरी कोठरी को प्रकाश करैंगीं तब तक कोई न कोई तुझे तेरे अपराधों का निर्णय सुनवाने के लिए न्‍यायाधीश राजपुरुष के सम्‍मुख ले जायगा। इस्‍से तू अपने दोषों को मिटाने के लिए तत्‍पर रह।”

युवा आनंदमग्‍न होकर बोला, “भला आज यह दिन भी तो आया - आप नहीं जानते कि आप मेरे मोक्ष की आशा देने आये हो। मैं अपने अपराधों को भली भाँति सम्‍मार्जन करूँगा।”

जेलर ने उत्तर दिया, “भाई ऐसे व्‍यर्थ मनोरथों से मोक्ष की आशा मत कर -'आशा वै परमं दुःखं नैराश्‍यं परमं सुखम्' पर यह तो कह कि तेरे ऊपर कौन सा अपराध लगाया गया है?”

युवा ने प्रत्‍युत्तर दिया कि “यह सब कपटनाग की करनी है - उनके मित्र और कृपापात्र कार्य्याध्‍यक्ष वसिष्‍ठ जी की कन्‍या जो रूप की धन्‍या थी उसे निकाल ले जाने और बलात् विवाह करने का अपराध लगाया गया है। परंतु मेरा अविचल प्रेम उसके हेतु अत्‍यंत निर्मल, अत्‍यंत पावन और अत्‍यंत निःस्‍वार्थी था और अद्यापि है। आश्‍चर्य है कि इतने पर भी मैं ऐसा घात और बलात्‍कार करने का दोषी हुआ!”

जेलर बोला, “क्‍या तुम नहीं जानते कि उसकी सगाई जनम ही से जगत विदित रत्‍नधाम के प्रतिष्ठित श्रीमान् वर्णाश्रमाधीश महाराज प्रबोधचंद्रोदय के पुत्र से ही हो चुकी है?”

“मैं तो यह जानता हूँ पर मुझसे उस्‍से एक समय समागम हुआ और उसने मुझे केवल कृपापात्र ही नहीं वरन प्रेमपात्र भी बना लिया और पहले ही वार इस दीन को उसने अपना किया और कोई राजकुमार सा माना,” इतना कह युवा ने लंबी साँस ली।

जेलर ने पूछा, “तो क्‍या तुमने अपना अपराध स्‍वीकार कर लिया है?” युवा ने कहा, “हैं! क्‍या उन्‍हें अपराध गिनते हो। प्रकृति के अनुसार किसी को प्रेम करना जिस स्‍वभाव से बड़े बड़े अभिमानी मुनि भी नहीं छूटे हैं अपराध समझते हो?”

जेलर ने कहा, “प्रेम की दृष्टि से किसी ऐसी स्‍त्री को देखना जिसकी सगाई किसी महापुरुष से हो चुकी हो पाप है और इसका दंड केवल वध है।”

“वध!” अपने दिन निकट जान वह दुःखी बोला, “यह तो बड़ा भयानक है ऐसा नहीं हो सक्‍ता तुम स्‍वप्‍न देखते हो वा तुम्‍हारी भ्रांति है मनुष्‍यों का अन्‍याव और कुटिलता इस सीमा तक नहीं पहुँचती।”

“प्रबोधचंद्रोदय या कपटनाग से बलिष्‍ठ शत्रु हों तो ऐसा होना कुछ आश्‍चर्य नहीं। जिस दिन तुम कारागार में बैठे थे उसी दिन तुम्‍हारा अंत हो चुका था।”

युवा ने कहा, “तुम न्‍यायाधीश के चित्त को कैसे जान्‍ते हो तुम उसके एक चाकर हो वह ऐसे चित्त के विकारों को तुमसे कभी नहीं कहने का।”

जेलर ने कहा, “मैं इसे भुगत चुका हूँ और सच पूछो तो मैं अभी तक बंदी हूँ मेरे प्राण केवल इसी प्रतिज्ञा पर बचे कि जन्‍म भर मैं जेलर रह अपने शेष दिन बिताऊँगा।” युवा ने कहा, “तुम्‍हारा अपराध क्‍या था?” जेलर ने उत्तर दिया, “इसको क्‍या पूछते हो। पर पहिये के नीचे पिसकर मरना यही मुझपर दंड हुआ था।”

“तो इस प्रकार दासत्‍व छोड़कर बचने का क्‍या और कोई उपाय न था?” जेलर ने कहा, “कुछ नहीं, पर ठहरो एक बात भूल गया था एक बड़ा पाप इस्‍से भी बढ़कर था उस पर प्राय: आरूढ़ हो चुका था किंतु मेरे भले स्‍वभाव ने मुझे बचाया। इसी भाँति दास बनकर अपने दिन बिताना अच्‍छा पर उस पाप को करके यदि इंद्र या कुबेर हो जाऊँ तौ भी निषिद्ध है।”

युवा काँप कर बोला, “क्‍या वह ऐसा भयानक था?” जेलर ने उत्तर दिया, “बस मुझसे मत कहलाव,” इतना क‍ह वह ऐसा ऐंठा और डरा मानो इसके भीतर कोई भूत या यमदूत हो। युवा ने प्रार्थना की, “दया कर इसे बताने का वरदान तो अवश्‍य दीजिये मेरा चित्त इसके सुन्‍ने को बड़ा व्‍यग्र और चिंताकुल हो रहा है देखो यह मेरी थैली है और उसकी द्रव्‍य सब तुम्‍हारी है। मैं तुझे देता हूँ कदाचित् इससे तुम्‍हारा कोई काम निकले पर मेरा तो कुछ भी नहीं।”

जेलर थैली को पंजों में पकड़कर बोला, “इस सुवर्ण के लिए अनेक धन्‍यवाद है। यह एक ऐसी बात है कि जिससे मेरी नाड़ी शिथिल और आँतें संकुचित हो जातीं तो भी सुनो यह बात प्रसिद्ध है पर केवल इसी कारागार के भीतों के भीतर ही। डेढ़ सै बरस पहिले एक विद्वान् जिसके रात दिन उस गुप्‍त महा-विद्या के रहस्‍य ढूँढ़ने में बीते थे इसी बंदीगृह का बंदी हुआ। वह तंत्र में ऐसा निपुण था और ऐसे ऐसे मंत्र जंत्र जानता था कि प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी सब उसके वशीभूत हो गई थी। मेरी भाँति उसको भी पहिये के नीचे दब कर वध का दंड हुआ था परंतु केवल इसी विद्या के बल से बच गया क्‍योंकि उसने एक मंत्र पढ़कर नरक के एक पिशाच को सिद्ध किया और केवल स्‍वतंत्रता, धन, पौरुष, अधिकार और दीर्घायु के हेतु अपना तन, आत्‍मा और स्‍वयम् आप उसके हाथ बिक गया। वह मंत्र जो इसने सिद्ध किया था अद्यावधि इसी भीत पर गहरा खुदा है लोग कहते हैं कि यह उसी के हाथ का खोदा है और इसके मिटाने में मनुष्‍य जाति मात्र का परिश्रम व्‍यर्थ है। बस यही बात थी और अभी तक जो चाहे इतना बलिदान देकर सिद्ध कर ले।” ऐसा कहते जेलर सिर से पैर तक कँपता हाथ में दिया को उस ओर उठाया जिस भीत के मूल में इस युवा की सेज थी और बोला, “भाई बचाना देखो यह मंत्र अभी तक लिखा है।” युवा ने नेत्र उठाकर देखा पर जेलर ने डरकर कहा, “नहीं भाई इसे पढ़ना मत नहीं तो इसके बाँचते ही वह प्रेत अपनी भयावनी मूर्ति ले आ खड़ा होगा क्‍योंकि यह आकर्षक मंत्र है!”

इतना कह जेलर ने दीपक हटा लिया और आप भी कुछ हटा; बोला, “ले भाई अब मैं जाता हूँ कोई आध घंटे के बीच में राजदूत आ पहुँचेंगे,” इतना कह जेलर दीप को ले चला गया और वह विचारा युवा फिर भी अंधकार में डूब गया।

एक बार फिर यह अकेला हुआ और बोला, “उसने अच्‍छा किया जो इस पर ध्‍यान नहीं दिया ईश्‍वर मुझे भी इस लोभ और मोह से बचावे - पर हा प्‍यारी! प्राणप्‍यारी क्‍या तू जानती है कि मैं तेरे लिये यह सब न करूँगा? देख इस आधी घड़ी में मेरा चित्त कैसा बदल गया इस भयदायक कथा को जो मेरे कान में घंटे की भाँति बजती और जिसकी झांईं मेरे हृदय में बोलती है, न सुनता तो अच्‍छा होता, मेरे चित्त में कैसे कैसे संकल्‍प उठते हैं वो मुझ को ऐसे भयानक कर्म करना सिखाते हैं कि जिनके निमित्त अंत में निरंतर नरक की अग्नि में बास करना पड़ेगा। हा प्रिये! मुझे छाती से लगाना, तेरी अमृत मई वाणी सुनना, तेरी दया दृष्टि की छाया में विश्राम करना और तेरे धड़कते हुए हृदय को देखना मेरे लिये बैकुंठ था - पर देख इस अभिमानी कपटनाग और न्‍यायाधीश से बैर भँजाना जिसने विचार के पूर्व ही यहाँ डाला - यह बैर लेना जो केवल तेरे प्रेम ही से घटकर है वह अविचल प्रेम और वह बैर जो तेरे पिता से लेना है यह भी मेरे लिये बैकुंठ है - हाँ प्‍यारी केवल तेरी प्रीति के लिये मैं बैकुंठ को कुंठ समझता हूँ और वैर भँजाने के लिये नरक का निरंतर बास बास भी स्‍वीकार करता हूँ।”

इसी समय द्वार खुल गया और एक अधिकारी हाथ में दीप लिये आ गया।

उसने कहा, “हे युवा मैं तुझको प्रधान न्‍यायाधीश के सन्‍मुख ले जाने आया हूँ; वे थोड़े काल में अभी धर्मासन पर बैठेंगे।”

जैसी तिजारी आवे इस युवा का बदन कँपने लगा बोला, “एक क्षणभर ठहरिये और मुझे अपने अंतकाल की दशा सोचने को तीन काष्‍ठा का अवकाश दीजिए।”

अधिकारी ने कहा, “जिसे बहुत घंटे नहीं जीना है उसकी प्रार्थना कभी नहीं टालूँगा,” इतना कह उसने प्रकाश वहीं धर दिया और चला गया। युवा फिर एकांत में बिचारने लगा, “जिसे बहुत घंटे नहीं जीना है! फिर मेरा भाग्य निश्‍चय ऐसे ही होगा। जेलर ने ठहक कहा था,” इस समय फिर भी उसको उसी प्रेत का स्‍मरण आया और कई बार घृणा की।

वह अधिकारी फिर आया और बोला, “समय तो हो गया चलो चलें।” युवा ने विषादपूर्वक प्रार्थना की, “भाई दो पल और ठहर देख हाथ जोड़ता हूँ - दो पल कुछ बड़ा समय नहीं है, चुटकी मारते जाता है। मुझे केवल भ्रमती हुई मनोवृत्ति को एकत्र करने दे।” उसने कहा, “मैं तेरे लिये अपने को न्‍यायाधीश के क्रोधाग्नि में डालता हूँ इधर तेरी भी प्रार्थना टाल नहीं सक्‍ता,” इतना कह वह अधिकरी फिर चला गया इतने में सूर्य की किर्नें बड़े कष्‍ट से भीतर आईं वह युवा उन्‍मत्त की भाँति इधर उधर चलता हुवा सोचने लगा, “हाय! नहीं नहीं मैं इस यौवन में कैसे प्राण दूँ और सब प्रिय पदार्थ कैसे पीछे छोड़ जाऊँ - प्‍यारी हम लोग फिर मिलेंगे और अपने प्रेम का कोप तेरे चरणारविंदों की भेंट दूँ तेरे पिता और दुष्‍ट न्‍यायाधीश से अपना बैर भँजा लूँगा -मेरे भाग्‍य में यही लिखा है, “मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक” - हाँ हाँ मैं केवल तेरे प्रेम और बैर लेने को अभी जीऊँगा।”

ऐसा कह उसने दीप उठाया और उस मंत्र की ओर चला। फिर भी सोचा - दास होने से मरना भला, क्‍या तीन पल बीत गये? देखो पैर का शब्‍द सुनाता है, जो हो फिर भी कदाचित् वह पलभर और ठहरे - हाय! मैं कैसे मरूँ मेरे तो अभी केवल 22 बसंत बीते हैं। उसके शरीर थरथराने लगा और मेधा चकरी हो गई अन्‍त में उसने सब मनोरथों को एकत्र कर अपने नेत्र उस मंत्र की ओर फेके उसने कहा बस अब एक बार कष्‍ट कर पढ़ लो और क्षणभर में सब कुछ और का और हो जायगा नरक में तो जाना ही है।

इतना कह दीप को मंत्र के सामने उठा बड़ी शीघ्रता से यह मंत्र पढ़ा -

“ओम् अं गं भं शं मं ऋं पं गिं भां सूं ऋपात्‍मजां श्‍यां श्‍यामा श्‍यामसुंदरी जं जगत्‍पालिनी मं मनोमोहनी सिं सिंहाधिरोहिणी अं रां भुजलतावकराठीं लं क्षां मां अमुकीमाकर्पय अमुकी माकर्षयस्‍वाहा।”

जिस समय यह उसके ओठें के बाहर हुआ एक मनुष्‍य का आकार सन्‍मुख खड़ा हो गया।

यह आकार कुछ भी भयानक न था वरन् शोचग्रस्‍त और चिंताकुल सा कुछ जान पड़ा, मानो कोई आग उसके चित्त को निरंतर दहन करती हो। किंतु उसके चारों ओर ऐसा प्रकाश हुआ कि कारागार का अंधकार बिला गया। यह पुरुष का नहीं पर स्‍त्री का आकार था। यह डाइन थी। वह तो साक्षात् भगवती भगमालिनी का रूप है -चंडा मुंडा करालिनी। देखते नहीं उसके बड़े बड़े दाँत किसको चर्वण न कर डालैंगे -'चर्वयत्‍यतिभैरवम्' रौरवंभी। उसके दंष्‍ट्राकराल के गोचर अनेक महापुरुष होकर कौर कर लिए गए। कुछ स्‍तुति तो करो “भगवती! चंडि! प्रेते! प्रेतविमाने! लसत्‍प्रेते! प्रेतास्थिरौद्ररूपे! प्रेताशिनि! भैरवि! नमस्‍ते!”

इतना कहते देर न हुई कि बस।

“काली करालवदना विनिष्‍क्रान्‍ताऽसिपाशिनी

अतिविस्‍तारवदना जिह्वाललनभीषणा।

निमग्‍ना रक्‍तनयना नादापूरितदिङ्मुखा

सा वेगेनाभिपतिता घातयंती महासुरान्॥”

इस प्रकार से और इस भाँति भगवती डाकिनी शाकिनी उपस्थित हुई, बंबई की किनारदार धोती पहने, मनुष्‍य का कपाल हाथ में, गटरमाला फटकारते, लंक लौ लटकती लंबी लटैं - लाल लाल नेत्र, अंतराल को सिर में लपेटे - निरास्थि की पुंगरी फूकती - बड़ी बड़ी लंबी टाँगें फेकती दो सुंदरी एक ओर ब्‍याही और एक ओर कुमारी कन्‍या को काँख में खोंसे थीं।

देवी ने कहा, “मुझसे क्‍या चाहते हो?” युवा बोला, “बचा, बचा, मुझे इस घोर कारागार से निकाल दे” - देवी बोली, “मैं तुझे निकालूँगी” और उसका हाथ पकड़ आकाश की ओर उड़ गई - वह युवा तो बेसुध हो गया। प्रातःकाल को जब जगा तो क्‍या देखता है कि अपनी पुरानी प्‍यारी सेज जो कविता कुटीर में थी उसी पर सोया है। आँख खोली और उसी प्राचीन ग्राम की गली देखी और जब उसके नेत्र उस कुटीर के ओर पड़े तो उस कारागार के दुःखद पाषाणों के स्‍थान के प्रतिनिधि अपनी वस्‍तु देखी एक टेबल पर कहीं कलम, कहीं स्‍याही, कहीं श्‍यामालता - कहीं सांख्‍य, कहीं योग - कहीं देवयानी के नूतन रचित पत्र इत्‍यादि पड़े हैं। बड़ा आनंद हुआ और युवा के नेत्र सजल हो आये, बोला, “यह बड़ा भयानक स्‍वप्‍न देखा था ऐसा जान पड़ा कि मैं किसी निर्जल कारागार के भुइंहरे में छे मास तक रहा प्रतिदिन आशा आई और गई फिर देखा कि किसी मंत्र के प्रभाव से एक चुड़ैल ने आकर मुझे निकाला उसी समय राजदूत भी मुझे न्‍यायाधीश के पास ले जाने को आया था। हे ईश्‍वर तेरी महिमा अपरंपार है तूने कैसा स्‍वप्‍न दिखाया। अब मैं अपने प्राण के पास जाऊँगा और स्‍वप्‍न का सब ब्‍यौरा कह सुनाऊँगा वह भी मेरे लिये क्‍या चार आँसू न गिरावेगी? तो बस अब उसी के पास चलूँ” -

ऐसा सोचता हुआ वह अपनी सेज पर ज्‍यौंही पौढ़ा डाइन आ गई और वह इसको फिर देख हक्‍का बक्‍का हो गया। कहने लगा, “नहीं, नहीं यह स्‍वप्‍न नहीं प्रत्‍यक्ष है” इसी को फिर फिर कहता रहा, डाइन बोली, “यह प्रत्‍यक्ष है क्‍या तू भूल गया। इस प्रत्‍यक्ष के प्रत्‍येक अक्षर ऐसे सत्‍य हैं जैसा कि वह सूर्य्य - इसमें तुझै अपना परलोक और भावी सुख सब मेरे हाथ बेच देना पड़ैगा। पर अभी कुछ बिलंब नहीं यदि चाहो तो छूट सक्‍ते हो पर फिर उसी कारागार में जाना होगा। अब तेरे होनहार सब तेरे ही हाथ में है जो चाहो कर।”

कमलाकांत बोला, “तो अच्‍छा तू जा मैं तेरी सहायता नहीं चाहता। तेरे हाथ परलोक और सुख कभी देने का नहीं।”

डाइन ने उत्तर दिया, “जो ऐसा ही है तो जाती हूँ पर एक बात और सुन - यदि तू मुझे छोड़ता है तो फिर उसी भुइंहरे में जाना होगा - वहाँ से फिर उसी न्‍यायाधीश के पास वहाँ से फिर सूली का मार्ग जाने का खुला ही है।” कमलाकांत ने कहा, “कुछ चिंता नहीं मुझै तुझसे बढ़के और कहीं पवित्र शक्ति पर जिसका प्रभाव सब जानते हैं बड़ा भरोसा है। यदि तू छोड़ देगी तो वह (आकाश की ओर दिखाकर) तो नहीं छोड़ेगा -

'हे सबसे समरथ्‍थ बड़ो प्रभु मारन हारे तैं राखनहारो'

जा-जो चाहै कर।”

डाइन व्‍यंगपूर्वक मुसकिराकर बोली, “अरे तुच्‍छ मूर्ख - वह तेरी प्‍यारी जो इतने बड़े की बेटी है तुझै मिली जाती है क्‍या! कहाँ तू और कहाँ वह? “कहाँ राजा भोज और कहाँ भुजवा तेली”, कहाँ सूर्य्य और कहाँ काँच, और फिर वह डेढ़ वर्ष तक क्‍या तेरे लिए बैठी है? वह नहीं जानती कि तू इस कारागार में है, उसे केवल तेरा विदेशगमन ही ज्ञात है और फिर मनुष्‍य इतने दिनों तक सत्‍यप्रेम नहीं निवाहता।”

कमलाकांत ने कहा, “यदि तुझमें शक्ति हो तो बुला दे तब मैं मानूँगा बुलाने की शक्ति ही नहीं तो व्‍यर्थ क्‍यौं बकती है।” डाइन बोली, “तो मैं इसका प्रमाण क्‍यौं दूँ जब तुम विश्‍वास ही नहीं करते।”

कमलाकांत ने कहा, “सुन, यदि तू इसका प्रमाण दे कि वह पक्‍की नहीं तो मैं सर्वतः तेरा हो जाऊँ।” डाइन ने कहा, “हाथ मार, देख - फिर न बदलना मैं दिखाती हूँ।”

युवा ने हाथ मारा और डाइन खिरकी की ओर अपना दाहिना हाथ पसार के यों कहने लगी -

“चल बे चल अब ल्‍याव बुलाय

जो यह मंत्र फुरै मम आय

जो कुछ शक्ति होय गुरु दीन्‍ह

जौं सेवा बाकी मैं कीन्‍ह

तो आवे वह सेन समेत

अथवा जैसे होय अचेत।”

“छूः छूः छूः दुहाई वीर भैरों की, आव-आव-आव दौड़-झौड़, छूः छूः छूः” इतने में एक मेघ घुमड़ आया और खिड़की को ढाँक लिया, घर के भीतर मेघ घुस आया -मैंने प्रार्थना की और कहा -

“सन्‍तप्‍तानां त्‍वमसि शरणं तत्‍पयोदः प्रियायाः

संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्‍लेषिंतस्‍य।

गन्‍तव्‍या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्‍वराणां

बाह्योद्यानस्थित ह‍रशिरश्‍चन्द्रिकाधौत हर्म्‍या॥”

इसके पढ़ते ही सब तिमिर में समा गया, सृष्टि के नूतन विधान का निशान फहराने लगा, “भयौ यथाथित सब संसारू” नील अंबर में भगवान् विभावरीनायक अपनी सोलहो कला से उदय हुए, दुर्जन के सदृश अंधकार का आकार ही लोप हो गया। स्‍वच्‍छता का बिछोना चाँदनी ने म‍हीतल में बिछाया। कौमुदी ने चाँदनी तानी। उस समय की शोभा कौन कह सकता है।

“चञ्चच्‍चन्‍द्रकरस्‍पर्शंहर्षोंन्‍मीलित तारका॥

अहो रागवती संध्‍या ज‍हाति स्‍वयम्‍बरम्॥

औषधियों के नायक ने सब औषधियों को अपने कर से सुधा सीच कर फिर जिलाया। कुमुदिनी प्रमुदित होकर अपने प्रियतम को सहस्र नेत्रों से देखने लगी। सौत नलिनी ने आँख बंद कर ली। परकीया कहीं स्‍वकीया की बराबरी कर सकती है। चंद्रमा से जगन्‍मोहन गुण की अभिरामता क्‍या सूर्य के तेज में है। इसी से चंद्रमा का नाम लोकानंदकर प्रसिद्ध। कोकनद से सेवक अपने नायक के वृद्धि पर हर्षित हुए। वन की लता पता पर प्रकाश क्रम से फैलने लगा। समभूमि से, वन - वन से उपवन - उपवन से द्रुम - द्रुम से पादप - पादप से वृक्ष - वृक्ष से गुल्‍म लतावल्‍ली आदि को आक्रमण करके महीधरकी मेखला - मेखलासे शैल - शैल से पर्वत - पर्वत से शिखर - शिखर से तुंग पर अपना सुयश फैलाकर फिर अपनी कीर्ति कहने के लिए स्‍वर्गगंगा मंदाकिनी में अवगाहन कर गोलोक - गोलोक से विष्‍णुलोक - विष्‍णुलोक से ब्रह्मलोक, वहाँ से चंद्रलोक को फिर लौट गया। मृत्‍युलोक में मानों एक वितान सा तान दिया हो। प्रथम तो सागर के किनारे से निकला। सागर की द्वितीय बड़वानल के सदृश अपनी किरनों से तरल तरंगों में फँसकर क्रम से व्‍यौम के किनारों को कुंदन से कलित किया। पर्वत के शिखर पर चाँदनी विखर गई। पत्तों पर एक अपूर्व शोभा दिखाने लगी। मंद वायु से कंपित होकर पत्र भी यत्र तत्र अपनी परछांही फेंकने लगे। नदी के लोल लहरों में मिलकर सौ चंद्रमा पैठे से जान पड़ते थे - झरनों का झरना कैसा मनोहर लगता था, मानौ मोती के गुच्‍छे पर्वत के ऊपर से छूट छूट कर गिरते हों। झिल्‍ली की झनकार - भेक का एक-सा शब्‍द निशिवर विहंगमों का विहार मन को चुराये लेता था। संजोगियों को सुखद और वियोगियों को दुःखद जान पड़ता था, संजोगियों का निधुवन प्रसंग और वियोगियों के विरह का कुढंग अपनी आँखों से देख देख साक्षी भरता था। इधर सारसों का जोड़ा उधर चकवा चकई का विछोड़ा संयोग और वियोग का उदाहरण दिखाता था। रात के कारण और सब पक्षी बसेरे में थे केवल उलूक से बेकाज के मनुष्‍य इधर उधर घूमते थे। इस समय देवजी का कहा याद पड़ा -

मंद मंद चढ़ि चल्‍यौ चैत निशि चंद्र चारु

मंद मंद चाँदनी पसारत लतन तैं॥

मंद मंद जमुना तरंगिन हिलौरै लेत

गुंजत मलिंद मंद मालती सुमन तैं॥

देव कवि मंद मंद सीतल समीर तीर

देखि छवि छीजल मनोज छन छन तैं॥

मंद मंद मुरली बजावत अधर धरैं

मंद मंद निकसो गुविंद वृंदावन तैं॥

और भी -

घटै बढ़ै विरहिनि दुःखदाई। ग्रसै राहु निज संधिहिं पाई॥

को शोकप्रद पंजक द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥

प्रकाश का पिंड धीरे-धीरे मही मंडल में अपनी कीर्ति प्रकाश कराता है। बड़े साधन लतामंडप के भीतर भी पत्रों के छेदों से चाँदनी की किरणें प्रवेश करती हैं। मैंने इस शोभा का, प्‍यारी चैत की रातों में कभी प्‍यारी के सहित कभी प्‍यारी से रहित नदी तीर में भीर निकल जाने के पीछे कई बार अनुभव किया है। ऊपर चाँदनी का स्‍वच्‍छ वितान, नीचे जल की चमक - इधर बालू की सुपेदी, उधर क्षितिज तक इसका फैलाव - ऐसा जान पड़ता है मानौ पृथ्‍वी और अम्‍बर एक-सा हो गया है। चंद्रमा का बिंब जल की लोल तरंगों के भीतर ऐसा दिखलाई देता है मानौ सहस्र नेत्रों से वह मूर्तिमान् हो मदन के साथ इस अपूर्व शोभा का अनुभव करता हो। जल जंतु भी ऐसे हर्षित होते हैं कि नक्र कुलीर सफरी इत्‍यादि उछल उछल कर इस शोभा पर अपने प्राण देते हैं। यह व्‍यौम का दृश्‍य भूलोकगत जनों को भी भाग्‍यवश दिखाई पड़ता है। पर हा! क्‍या वह इस समय हमसे वियुक्‍त रहै - हाय! 'दुर्बले बैवघातक:' यह कहावत प्रसिद्ध है - दिशा कामिनियों का मुकुर-मदन के बाणों को चोखा करने की शान -भगवान् उमापति के ललाट का अलंकार - व्‍यौम सागर का एक हंस तारागणों के मध्‍य में ऐसा सोहता था मानौ दिक्कामिनी चंद्र प्रियतम पर पुष्‍पवृष्टि करती थीं - शंख, क्षीर, मृणाल, कर्पूरादिकों की प्रभा को लजाता समुद्र को आकर्षण करता - जीव मात्र - स्‍थावर जंगम को सुख देता और लोकों के पाप को नाश करता हुआ विराजमान है। संसार में जो लक्ष्‍मी मंदराचल में - प्रदोष के समय सागर में - जल सहित कमलवन में - वास करती है वही लक्ष्‍मी आज निशा के समय निशाकर में देख पड़ने लगी।

वह रे चंद्र! मेरी महिमा कौन लिख सकता है।

तू अपनी चंद्रिका के द्वारा इतने ऊँचे पर से भी बिचारी चकोरी की चोंच को सुधा से भर देता है -

तू अभिसारिकाओं का भी बड़ा मीत है - देख एक कवि ने कैसी कविता की है -\

“चतुर चलाक चित्त चपला सी चंदमुखी

गिरिधरदास वास चंदन सी तन में।

सारी चाँद तारे की सुचद्दर चमकदार

चोली चुस्‍त चुभी चारु चंपकवदन में।

चामीकर नूपुर चरन चम चम होत

चली चक्रधर पै मिलन चाव मन में -

तारन समेट तारापतिहिं लपेट मानो

राकाराति चली जाति चाव से चमन में -”

तू समुद्र मंथन काल में समुद्र से निकला है यह पुराण की उक्ति ठीक जान पड़ती है - क्‍योंकि अभी तक तू उसी उदय पर्वत से बार बार निकला करता है।

तेरा बिंब मंडल अद्यापि अरुण है क्‍यौंकि तूने इंद्र की नायिकाओं का यावक का अधर चूमा है।

कहाँ तक तेरा प्रभाव गावैं। जितना तेरे विषय में कहैं वह थोड़ा उस शोभा को देखता ही था कि एक नवीन बाला गिरि के शिखर पर इस चंद्रमा को अपनी छवि से लजाती प्रकट हुई। इसकी सर क्‍या चंद्र कर सक्‍ता था? नहीं, जैसे चंद्रजोत के सामने दीप की कोई बात भी नहीं पूछता। सूर्य के सन्‍मुख खद्योत प्रकाश नहीं कर सकता वैसे ही इसके प्रभामंडल ने चंद्रमंडल को आक्रमण कर लिया। बाणभट्ट ने जो कादंबरी और महाश्‍वेता की प्रशंसा गुण रूप की की वह भी सब तुच्‍छ जान पड़ी। कालिदास ने जो कुमारसंभव में पार्वती की, वाल्‍मीकि ने जो सीता, मंदोदरी और तारा की बड़ाई की वह सब पीछे पड़ गयी। श्रीहर्ष वर्णित नल की दमयंती, कालिदास कथित दुष्‍यंत की शकुंतला, गोतम की अहिल्‍या, ययाति की देवयानी, अज की इंदुमती, चंद्र की रोहिणी इत्‍यादि इसको देख इस समय सब लोप हो गईं - इनका रूप और गुण सब केवल पुस्‍तकों में रह गया। अब छाया भी नहीं दिखाती। उसको देख मेरे हृदय में यह श्‍लोक उठा -

तन्‍वी श्‍यामा शिखरिदशना पक्‍व बिम्‍बाधरोष्‍ठी

मध्‍ये क्षामा चकितहरिणी प्रेक्षणा निम्‍ननाभिः।

श्रोणीभारादलसगमना स्‍तोकनम्रा स्‍तनाभ्‍यां

या तत्रस्‍याद्युवतिविषये सृष्टिराद्यैव धातुः॥

इतने से उसके सर्वांग का वर्णन संक्षेप हो गया तौ भी बिना कुछ कहे रहा नहीं जाता। इसलिए दो चार बातैं और भी सुनो। सर्वांगसुंदरी के रूप की कौन प्रशंसा कर सक्‍ता है? उपमा कौन सी दी जाय? जिये सोचते हैं वही जूठी मिलती है।

“सब उपमा कवि रहे जुठारी, केहि पटतरिय विदेह कुमारी॥”

(तुलसी)

उसने घन अंजन से काले काले केश वेष की शोभा बढ़ाते थे। उसकी अलि अवलि सी घूंघरवारी अलकै मुखचंद्र के ऊपर ऐसी जान पड़ती थी मानौ व्‍याल के छौने अमृतपान करने की चेष्‍टा कर रहे हैं। सुंदर सुभल ललाट द्विरद रद की स्‍वच्‍छता को लजाता था। बुद्धि और चतुराई का सूचक - मुनि के मन का मूपक - काव्‍य-कला का आलय - कुशलता का उदय - स्‍त्री चरित्र का केंद्र - बुद्धि और विश्‍वास निर्माण करने का ध्रुव - ये सब बातैं ललाट में लिखी सी ज्ञात होती थीं। निशाकर सा आनन प्रभा का आकार - जिसे देखे रमा सागर में श्‍यामसुंदर के शरणागत हो वही शेषशायी के साथ रम रही। कमल भी जिसको देख जल में छिप गया। केशकुंज से आवृत उसका मुख जलद-पटल के बीच मयंक की शोभा जीतता था। अथवा मधुकरों की शवली अवली नवली नलिनी के चारों ओर गूँजती जान पड़ती थी। पंकज को गुण न चंद्रमा में और न चंद्रमा का पंकज में होता है - तौ भी इसका मुख दोनों की शोभा अनुभव करता था। काली काली भौहैं कमान सी लगती थीं। धनुष का काम न था। कामदेव ने इन्‍हैं देखते ही अपने धनुष की चर्चा बिसरा दी। जब से इसे भगवान शंकर ने भस्‍म कर दिया तब से यह और गरवीला हो मिस इनसे धनुष का काम लेता था - विलोचन इंदीवर पे भ्रमरावली, मुख-मदनमंदिर के तोरन - रागसागर की लहरैं - ऐसी उस्‍की दोनों भौहैं थीं। उसके नैनों की पलकैं, तरुणतर केतकी के दल के सदृश दीर्घ किंचित चटुल और किंचित् सालस शोभायमान थीं। नैनों की कौन कहे, ये नैन ऐसे थे जिस्‍में नै न थीं जिन्‍हें देख हरिणी भी अपने पिछले पाँव के खुरों से खुजाने के मिस कहती थीं कि तुम अपने गर्व को छोड़ दो। हृदयवास के आगार में बैठे मदन के दोनों झरोखे - रागसहित भी निर्वाण के पद को पहुँचाने वाले कान तक पहुँचने में अवरोध होने से अपने लाल कोयों के मिस कोप दिखाते - अशेष जगत को धवल करते - फूले कमल काननों से गगन को सनाथ करते - सेकड़ों क्षीरसागरों को उगिलते - और कुंद और नीलोत्‍पलों की माला की लक्ष्‍मी को हँस रहे थे मानो मन के भाव के साक्षी होकर हृदयगार के द्वार पर अड़े हों।

इसका सुंदर नाशावंश मानो दशन रत्‍नों के तोलने का दंड अथवा नैन सागर का सेतुबंध, अथवा जोबन और मन्मथ रूपी मत्त मतगंजों का अगड़ है, मानो कंदर्प ने अपनी कला कौशल्‍यता दिखाने के लिए धनुष भौहों के कोनों में रूप के दोनों मीन बझा कर नाशादंड पर धर दिए हों अथवा पथिक कपोतों के फसाने के लिए भ्रू तराजू पर चुन की गोली धरी हों।

अमी हलाहल मद भरे सेत श्‍याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत जेहिं चितवत इकबार॥

(बिहारी)

उसके पके बिंबोंष्‍ठ मुखचंद्र की निकटता के हेतु संध्‍याराग से रंजित हैं। दंतमणि की रक्षा के सिंदूर मुद्रा को अनुकरण करने वाले हृदय के राग से मानो रंजित राग सागर बिद्रुम के नवीन पल्‍लव से उसके अधर पल्‍लव थे।

दशन की अवली लाल ओठों के बीच में ऐसी जान पड़ती थी मानो मानिक के पल्‍लव में हीरे बगरे हों, विद्रुम के बीच में जैसे मोती धरे हों, प्रवालों के बीच सुमन अ‍थवा ललाम लाल लाल पल्‍लवों पर ओस के कनूके हों।

मुसकिराहट के साथ ही चाँदनी चाँद की मंद पड़ जाती थी। निरखनेवालों की आँखैं बिजुली की चकाचौंधी के सदृश ढँप जाती थीं। नव जोवन का एक यह भी समय है जब लोग भोली हँसी पर तन मन वार देते हैं अथवा उसके सन्‍मुख बैकुंठ का भी सुख कुंठ समझते हैं। उसकी कंबु या कपोत सी ग्रीवा मृणाल की नम्रता को भी लजाती थी, उसके दोनों स्‍कंध प्रेम और अनुराग सम्‍हारने को बनाए गए थे, उसके पीन कुच पर छूटे चिकुर ऐसे लगते थे मानो चंद्रमा से पीयूष को ले व्‍यालिनी गिरीश के शीस पर चढ़ाती है। मदन के मानौ उलटे नगारे हों, मदन-महीप के मंदिर के मानो दो हेम कलस, बेलफल से सुफल - ताल फल से रसीले - कनक के कंदुक - मनोज-वाल के खेलने की गैदैं - ऐसे अविरल जिन में कमल तंतु के रहने का भी अवकाश नहीं। गरमी में शीतल और शीत में ऊष्‍म ऐसे अग्नि के आगार जिसको हृदय से लगाते ही ठंढे पर दूर से दहन करने वाले - शरीर सागर के दो हंस - पानिप पानीके चक्रवाक मिथुन - कमल की कलीं - मन मानिक के गह्वर शैल जिन पयोधरों को विश्‍वकर्मा ने अपने हाथों से खराद पर चढ़ा कर रचा था इस त्रिभुवन मोहिनी के तनतरु के मनोहर और मधुर फल थे। पतन के भय से मदन ने इन पर चूचुक के छल से मानो कीलै ठठा दी थीं। बस कहाँ तक कहूँ।

इनके नीचे नवयौवन के चढ़ने के हेतु मनोज की सीढ़ी सी त्रिवली की अवली शोभिज थी। अमृतरस का कूप नाभी का रूप था।

उसकी कटि छटिकर छल्‍ला सी हो गयी थी केहरी भी जिसे देख अपने घर की देहरी के बाहर कभी नहीं निकला, ऐसी सुकुमारी जो बार के भार से भी लचती थीं। ऐसी पतरी जौ मुठी में भी आ जाती थी। कई तो उसे देख भ्रम में पड़े थे कि‍ लंक है या नहीं या केवल अंक ही का शंक है। नवजोबन नरेश के प्रवेश होते ही अंग के सिपाहियों ने बड़ी लूट मार मचाई इसी भौंसे में सभों के हौंसे रह गए किसी ने कुछ पाये किसी ने नितंब बिंब - पर यह न जान पड़ा कि बीच में कटि किसने लूट ली। लंक के लूटने की शंका केवल कुच और नितंबों की थी क्‍यौंकि जोबन महीप ने जब इस द्वीप पर अमल किया तब डंका बजा कर क्रम से केवल ये ही बढ़े। सुंदर वर्तुलाकार जाघैं कनककदली के खंभों की नाईं राजती थीं मानो किसी ने उलटे स्‍तंभ लगा दिए हों। कलभ की शुंड भी गुड़ी मार कर उसके पेट तरे छिप जाती थी। कालिदास को भी कोई उपमा नहीं मिली, तभी तो उनने कहा है -

नागेन्‍द्रहस्‍तास्‍त्‍वचि कर्कशत्‍वात्

एकान्‍त शैत्‍यात्‍कदलीविशेषा:।

लब्‍ध्‍वापि लोके परिणाहि रूपं

जातास्‍तदूर्वोरुपमानबाह्या॥

इसकी गति के अनुसारी राजहंस भी मानस सरोसर को उड़ गए, इसके चरणसरोरुह ऐसे शोभित थे मानो स्‍थलारविंद हों, नखों की छटा ऐसी थी मानो सूर्य की किरणों से पंकज खिला हो। जहाँ जहाँ यह अपने चरनों को धरती ऐसा जान पड़ता कि ईंगुर वगर गया है। यह सर्वांगसुंदरी नख से सिख तक एक साँचे कैसी ढरी चित्र की छबि सी प्रकट थी। अथवा किसी ने जैसे मणि की पुतरी बनाकर गौर उपलों के पर्वत पर धर दिया हो। केशों में जिसके विचित्र विचित्र सुमन खचित थे, माँग में मोती की लर, अलकों के अंत में चमेली के फूल, जूड़े पर शीश फूल के स्‍थान में गुलाब -

“काको मन बाँधत न यह जूड़ा बाँधनहार”

और चोटी के अंत में कदंब का फूल देखने वालों के हिए में कटारी सी हूल देकर करेजे में शूल उपजाता था। घन केशपाशों पर दामनी दामनी सी छटा छहराती थी।

“तमके विपिन में सरल पंथ सातुक को

कैधौं नीलगिरि पै गंगा जू की धार है।

कैधौं बनवारी बीच राजत रजत रेख

कैधौं चद कीन्‍हौ अंधकार को प्रहार है।

नापत सिंगार भूमि डोरी हाँसरस कैधौं

वलभद्र कीरत की लीक सुकुमार है।

पयकी है सार घनसार की असार माँग

अमृत की आपगा उपाई करतार है॥”

यह तो उसके माँग का हाल था। उसकी बेसर की महिमा कौन विचारा कह सक्‍ता है, तौ भी इस प्रकार की कुछ शोभा थी।

एहो व्रजराज एक कौतुक विलोको आज

भानु के उदै में बृषभानु के महल पर।

बिनु जलधर बिनु पावस गगन धुनि

चपला चमकै चारु घनसार थल पर।

श्रीपति सुजान मनमोहन मुनीसन को

सोहै एक फूल चारु चंचला अचल पर।

तामें एक कीर चोंच दावे है नखत जुग

शोभित है फूल श्‍याम लोभित कमल पर॥

अथवा यह जाना पड़ता था कि पृथ्‍वी की गोलछाया चंद्र पर पड़ी है। नाक का मोती ऊपर कजरारे लोचन के प्रतिबिंब से और नीचे प्रवाल अधरों की आभा से आधा श्‍याम और आधा लाल जान पड़ता है - यदि लाल गुजा की उपमा दी जाय तौ भी संगत हो। सादी सादी सूरत भोली भाली भौहैं - मनुष्‍यों के हिए में मूरत सी गड़ गई थी, मुख निशाकर पर शीतला के छोटे छोटे बिंदु ऐसे जान पड़ते थे जैसे देव ने कहा है-

“भाग भरे आनन अनूप दाग सीतला के,

देव अनुराग झिया से झमकत है।

नजर निगोड़िन की गड़ि गाड़े परे,

आड़े करि पैन दीठ लोभ लपकत है॥

जोबन किसान मुख खेत रूप बीच बोयो,

बीच भरे बूँदन अमंद दमकत है।

वदन के बेझे पै मदन कमनैती के,

चुटारे सर चोटन चटा से चमकत है॥”

चाँदतारे का दुपट्टा पीत कौषेय की सारी यद्यपि भारी थी तौ भी समय के अनुसार कुछ कुढंग नहीं लगती थी। आधा सिर खुला, दक्षिणी रीति के बसन पहिने, अति सुकुमार रति का रूप। दूर से देख मेरे मुख से अकस्‍मात् यह निकल पड़ा कि यह 'वनज्‍योत्‍स्‍ना' किस श्‍यामा का रूप है। मैंने तो ऐसी मोहिनी मूरति कभी नहीं देखी थी। यद्यपि मेरी आयु अभी दो हजार आठ सौ वर्ष से अधिक न थी तौ भी यह मदन मो‍हिनी कीसी और पहले कोई ललना नहीं लखी थी। मेरी इच्‍छा हुई कि इसके चरण युगलों की यदि आज्ञा हो तो सेवा कुछ दिन करूँ। इसी सोच विचार में चार हजार बरस व्‍यतीत हो गए, अंत को जब आँख खुली तो फिर भी उसी मूरत का ध्‍यान, वही सामने खड़ी, वही आँखों में झूलने लगी। विमान तो आज्ञाकारी था। मन में सोचते ही उसी की ओर मुड़ा निकट जाने से और भी चरित्र देखे। यह 'मनोरथ-मंदिर की नवीन मूर्ति' नवनीत के कोमल सिंहासन पर बैठी है - इसकी तीन सखी निरंतर सहचरी होकर इसके सुख दुःख की भागिनी सी बनी रहती हैं। ये दोनों ऐसी जान पड़ती थीं मानो इसकी भगिनी हों, क्‍योंकि बोलचाल मुख का बनाव अंग का ढाल - विल मयंक सा आनन - वस्‍त्र और आभूषण सब तद्विषय के सूचक थे। मुझै इनकी मुसक्‍यान बड़ी सुंदर लगी। एक तो 11 और दूसरी 6 वर्ष की थी। तीसरी इसकी सखी कुछ ऐसी रूपवती तो नहीं थी, पर हाँ - संगत की आँच लग ही जाती है - देह इसकी गोरी - मानो छोटे छावले की छोरी हो।

गजराज सी चाल - गले में चमेली की माल - बड़ी चतुर पर मदनातुर -गंगाजमुनीवाल - तौभी मन्‍मथ के जाल को लिए - “मिस्‍सी के वदनामी का पर खोसे” - अधरों को द्विजों से दबाए - दाँतोंकी बत्तीसी खिलाए सुमार्गसे कुमार्ग पहुँचाने की मशाल - दुष्‍टपथ की परिचारिका, विलासियों की सहचारिका - द्रव्‍यके लिए तन और मन की हारिका - सुमतिवाली बालाओं के मन में कुमति की कारिका - 'बुढ़ियाबखान' सी पुस्‍तकों की सारिका - अपने भक्‍तों पर जीवन की हारिका - अच्‍छे अच्‍छे कुलों का चौका लगानेवाली-अभिसारिकाओं की नौका - ऐसी प्रगल्‍भ मानौ डौका - मदनपाठशाला की बालाओं को परकीयत्‍व धर्मशास्‍त्र सिखाने की परिभाषा - 'परपतिसंगम' रूप को कंदर्प व्‍याकरण से सिद्ध कराने वाली - रति वेदांत की परिपाटी सिखानेवाली - सुमति-लोप-विधायक सूत्र को कंठ करानेवाली - कुपंथसरिता की सेतु - मदनगीता महामाला मंत्र की ऋषि - सुरति सिद्ध कराने की आचार्य - कामानल में हवन कराने को होता -परपुरुष आलिंगनतीर्थ में उतरने की सीढ़ी - संभोग की शिला - स्‍थूल काय - बलिष्‍ठ जंघा - सिंदुर रहित माँग - कंकन शून्‍य हाथ - स्‍वेत दुकूल पहने - ऐसा स्‍वाँग किए उसी नववधू के पीछे खड़ी है।

ये सब गुण उसके प्रत्‍यंग देखने से प्रकट होते थे। ऐसी ही सखी कुलवधू को लकार लोप का आकार बना देती है। ईश्‍वर इनसे बचावै।

मैंने इनके रूप भलीभाँति अनिमिष नयनों से देखे पर स्‍वप्‍न में भी स्‍मरण न हुआ कि इन्‍हैं पहले कभी देखा था। बार बार यही कहना पड़ा - 'अहो मधुरमासां दर्शनम्' उस एकादश वार्षिकी कन्‍या का रूप भी विचित्र था। साँवरा मुख-काले नैन और काले चिकुर-वाल्‍यावस्‍था की भूमि में मदन किसान ने ऐसा श्रम किया था कि यौवन बीज की अंकुर निकल रहे थे। बालापन में भी चतुराई, कुंद सी हँसी भुराई और चतुराई दोनों सूचन करती थीं, आँखैं अमृत और विष की कटोरी थीं, आँचर यद्यपि सामान्‍य रीति से नहीं ढाँकती थीं तौ भी किसी-किसी को देख अनेक हाव-भाव करतीं थीं। बालक और बालिकाओं के क्रीड़ा-स्‍थल पर जाती और कभी किसी को देख मुसकिराकर और लाज बताकर घर में छिप जाती। सब बातैं जो रसीलीं नवोढ़ा जानती हैं - यद्यपि उसे इनका तनिक भी अनुभव न था वह जानती थी, मानौ काम की चटशाल में उसने हाल में रति की परिपाटी ली हो। रस का अनुभव कुछ नहीं तौ भी सुन-सुन के अभी से परिपक्‍व हो रही थी। रस की बातैं सुन कर ऐसी मुसकिराती कि अधर पल्‍लव के बाहर मुसकिरान कभी नहीं निकलती। प्रेम की धाँतैं सुन मुँह नीचा कर लेती। फल मूल मिष्‍ठान्‍न आदि उसको बहुत अच्‍छे लगते थे। रजतलोह की चुंबक, मतलब की पूरी, काम की धुरी नेह में जुरी मानौ किसी ने उसी की डुरी से बाँध दिया हो।

तीसरी कन्‍या, रूप की धन्‍या, यद्यपि केवल 6 वर्ष की तौ भी कुशल और प्रवीनता की अंकुर सी जनाती थी।

इन दोनों को देख मन में यही उठता कि 'होनहार विरवान के होत चीकने पात' जिनके रूप के केवल अवलोकन मात्र ही से इतने गुणों का संभव और अनुमान होना प्रत्‍यक्ष है तो चरित न जाने कैसे-कैसे होंगे। यही बड़ी देर तक सोचता रहा। जी में आया कि निकट जाकर उस लक्ष्‍मी का जो ऐसी पश्‍यन्‍मनोहरा उस पर्वत के शिखर पर आविर्भूत हुई थी कुछ वृत्तांत पुछैं और सुनैं। इतने ही में ऐसी पवन चली कि विमान डगमगाने लगा कहीं सिर कहीं धड़ कहीं टोपी कहीं जूते रातदिन का ज्ञान चला गया, न जाने किस मंदराचल के खोह में उलूक के समान जहाँ बेप्रमान अंधकार है जा छिपा। निकट जाने का विचार करते ईश्‍वर ने क्‍या अनाचार कर दिया कि सोचा विचारा सब नष्‍ट हो गया। पर यह तो घर की खेती थी। उस फूस ने तो सभी युक्तियाँ बतला ही दी थीं अब कुछ चिंता की बात नहीं थी। मैं ने सोचा कि जहाँ फिर एक गोता लगाया तहाँ ज्ञान और भान का पोता का पोता गगनगंगा के सोता से निकला चला आवैगा फिर कोई सोता भी हो तो जग जाय, पहरे की बात नहीं। इतनी नहरैं कि उसकी लहरैं बड़ा शब्‍द करती हैं। फिर तो 'प्रबोधयत्‍यर्णव एव सुप्‍तम्' यह गगनगंगा कहाँ से आई इसका कुछ ठीक पता नहीं लगता। पर सुनते हैं कि महादेव नंगा के जो सदा भंग में मग्‍न है झंगा से निकलती है पर इसका क्‍या प्रमाण?

पुराण।

पुराण-सुराण क्‍या?

वाहजी! कुराण (पुराण) नहीं जानते।

नहीं।

तो अधिक क्‍या कहैं, गंगा उस नंगा के जटाजूट में छूट कर नाचती है, फिर मर्त्‍यलोकवासी सत्‍यानासी उसके कनूकों को लूटकर क्षीरसागर के वासी होते हैं। वहाँ उन्‍हैं साक्षात् लक्ष्‍मी जी की झाँकी होती है।

क्‍या वे वहाँ अकेली रहती हैं?

नहीं रे मूर्ख, क्‍या तू ने अभी लक्ष्‍मी को नहीं जाना, वह कभी अकेली रहीं हैं कि रहैंगी, वे बड़ी चंचला हैं। भगवान् शेषशायी श्‍यामसुंदर के साथ शयन करती हैं। लिखा भी तो है 'एका भार्य्या प्रकृतिमुखरा चंचला च द्वितीय' पर क्‍या हम ऐसी बातैं उस देवी के विषय में कह सक्‍ते हैं - नहीं नहीं भाई - वह तो हमारी पूज्‍य है। तौ भी सच्‍ची बात के कहने में क्‍या डर, 'सत्‍यमेव जयते नानृतम्' साँच को आँच कहाँ। बस, अब युक्ति सोचने बैठे कि कौन सी युक्ति करैं जिसमें उस अलक्ष्‍य देवी के दर्शन फिर भी हों और कुछ बातचीत करैं, सोचते सोचते एक बात याद पड़ी पर लिखैंगे नहीं, लिखने की कौन बात कहैंगे भी नहीं। उसी युक्ति से फिर आँख मूदीं और क्षण भर ध्‍यान किया तो फिर भी उसी के सामने पहुँच गए वही मूर्ति फिर भी नैनों के सामने नाचने लगी। ऊमर के फूल सरीखे दर्शन हुए, उसकी सुंदरता देखते ही मेरी इंद्रियाँ शिथिल पड़ गईं, पलकैं झपने लगीं। हाथ पैर ढीले पढ़ गए मैं तो जक गया। उसी समय मूर्छित हो गिरा जाता था और भूमि ले लेता यदि मेरा हितकारी सेवक मुझे अपना सहारा न देता। उसके कंधे पर अपना सिर डाल कर बैठ गया। आँखैं मुकुलित हो गईं, तन की सब सुधि बुधि जाती रही। गुलाब जल के अनेक छींटे मीठे मीठे मेरे मुख पर सींचे, धीरे धीरे संज्ञा आयी। नेत्र आधे खुले, साँस बहुरी, सिर उठा कर देखा प्रणाम मन ही में किया। हृदय में हाथ जोड़े, इच्‍छा हुई कि कुछ बोलै और अपना जी खोलै या कहीं को डोले सेवक ने सहारा दिया। बल पूर्वक इंद्रियों को सम्‍हार सरस्‍वती को मनाय वचन की शक्ति को तोल बोलने लगा।

'भगवति तेरे चरणकमलों को प्रणाम है', इसको सुन भगवती मौन हो रही मैं ने फिर भी कहा -

“नारायणि प्रणाम करता हूँ, भला इस दीन दास की ओर तनिक तो दया की कोर करो” -

देवी ने देखा, ऐसी दृष्टि की मानो सेतकमल की श्रेणीं बरसाईं हों। केवल दृष्टि मात्र से मेरा प्रणाम ग्रहण किया और अपनी पूर्वोक्‍त सखियों की ओर निहारी। सखीं सब मुसकिराकर रह गईं। मैं और अचंभे में हो गया सोचने लगा यह कैसी लीला करती है। भला कुछ और इससे पूछना चाहिए। ऐसा मन में ठान फिर भी कुछ कहने को उत्‍सुक हुआ और निकट जा बोला।

“चंद्रमुखी यदि तुझै कष्‍ट न हो तो कुछ पूछूँ, मेरा जी तुझसे कुछ बात करना चाहता है।”

“भद्र कहो क्‍या कहते हो, जो इच्‍छा हो पूछो।” ऐसा कह चुप हो गई।

मैंने कहा, “भद्रे - यदि क्‍लेश न हो तो कहो तुम किस राजर्षि की कन्‍या हो कहाँ तुम्‍हारा देश है और इस शिखरपर किस हेतु फिरती हो?”

उसने कहा, “मेरी कथा अपार है, सुनने से केवल दुःख होगा। कहना तो सहज है पर सुनकर धीरज धरना कठिन जनाता है। ऐसा कौन वज्र हृदय होगा जो उसे सुन फूट फूटकर न रोवैगा - यह मेरी अभागिनी के चरित किसने न सुने होंगे और सुनकर कौन दो आँसू न रोया होगा,” इतना कह लंबी साँस लेकर नेत्रों में जल भर लिया। मैं तो सूख गया कि हा देव इस देवी को भी दुःख है क्‍या ऐसी धन्‍य और सुंदरी को भी दुर्भाग्‍य ने नहीं छोड़ा। वाह रे विधाता तेरा विधान धन्‍य है। धिक्‍कार है तुझै जो तूने इस पुण्‍यात्‍मा जीव पर भी दया न की। न जाने यह अपनी कथा कह कर कौन कौन विष के बीज बोवैगी और क्‍या क्‍या हाल कह कर बेहाल करैगी। फिर भी ढाढ़स बाँध बोला।

“सुंदरी मैं बहु शोकग्रस्‍त हुवा क्‍या मैंने तुम्‍हैं कष्‍ट तो नहीं दिया। जान पड़ता है कि पूर्व दुःख के घटा फिर से हृदय गगन पर छा गए। तो अब कही देना भला है क्‍योंकि 'विवक्षितं ह्यनुक्‍तमनुतापं - जनयति' और भी किसी परिचित या सज्‍जन के सामने जो दुःख और सुख का समभागी हो कहने से दुःख बट जाता है।

“स्निग्‍धजनविभक्‍तं हि दुःखं सह्यवेदनम्‍भवति।”

“स्‍वजनस्‍य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमिवोपजायते।”

“मुझे अभागिन की कहानी भी क्‍या किसी को सुहानी है परंतु तुम्‍हारा यदि आग्रह है तो सुनो। मैं शुद्धभाव से तुम्‍हारे सन्‍मुख सब यथास्थित कहती हूँ,” इतना कह कई बार लंबी लंबी सांसैं भर आकाश की ओर दृष्टि कर यौं बोली।

“भूमंडल में जो आखंडल के चाप के सदृश गोलाकार है जंबू द्वीप नाम का प्रदीप जो दीपक समान मान को पाता है प्रसिद्ध क्षेत्र है। उसी में भारतखंड में अपने हाथों से बनाया हो वर्त्तमान है। भारतखंड में अनेक खंड हैं पर आर्य्यावर्त्त सा मनोहर और कोई देश नहीं। पृथ्‍वी के अनेक द्वीप द्वीपांतर एक से एक जिनका चित्र ही मन को हर लेता है वर्त्तमान है पर आर्य्यावर्त्त सी पुण्‍य भूमि न तो आँखों देखी और न कानों सुनी। इसके उत्तर भाग की सीमा में हिमालय सा ऊँचा पर्वत जो पृथ्‍वी के मान दंड के सदृश है भूलोक मात्र में ऐसा दूसरा नहीं। गंगा और यमुना सी पावन नदी कहाँ हैं जिनके जल साक्षात् अमृतत्‍व को पहुँचानेवाले हैं। त्रिपथगा की जो आकाश, पाताल और मर्त्‍यलोक को तारती है, कौन समता कर सक्ता है। सुर और असुरों के मुकुटकुसुमों की रजराजि की परिमलवाहिनी, पितामह के कमंडलु की धर्मरूपी द्रवधारा, धरातल में सैकड़ों सगरसुतों सुरनगर पहुँचाने की पुण्‍य डोरी - ऐरावत के कपोले घिसने से जिसके तट के हरिचंदन से तरुवर स्‍यंदन होकर सलिल को सुरभित करते हैं, लीला से जहाँ की सुर सुंदरियों के कुचकलशों से कंपित जिसकी तरल तरंग हैं नहाते हुए सप्‍तर्षियों के जटा अटवी के परिमल की पुन्‍यवेनी -हरिणतिलक - मुकुट के विकट जटाजूट के कुहरे भ्रांति के जनित संस्‍कार की मानो कुटिल भौंरी, जलदकाल की सरसी, गंध से अंध हुई भ्रमर माला, छंदोविचित की मालिनी, अंध तमसा रहित भी तमसा के सहित भगवती भागीरथी हिमाचल की कन्‍या सी जगत् को पवित्र करती हुई, नरक से नरकियों को निकारती इस असार संसार की असारता को सार करती है।

भगवान् मदन मथन के मौलि की मालती की सुमन माला, हालाहलकंठ वाले के काले बालों की विशाल जाला, पाला के पर्वत से निकल कर सहस्र कोसों बहती विष्‍णु से जगत्व्‍यापक सागर से मिलती रहती है। इसकी महिमा कौन कह सक्‍ता है। पद्माकर ने ठीक कहा है -

“जमपुर द्वारे के किवारे लगे तारे कोऊ

हैं न रखवारे ऐसे वन के उजारे हैं।

कहै पदमाकर तिहारे प्रनधारे जेते

करि अधभारे सुरलोक के सिधारे हैं।

सुजन सुखारे करे पुन्य उजियारे अति

पति‍त कतारे भवसिंधु ते उवारे हैं।

काहू ने न तारे तिन्‍हैं गंगा तुम तारे आजु

जेते तुम तारे तेते नभ में न तारे हैं॥”

“लाए भूमिलोक तैं जसूस जवरेई जाय

जाहिर खबर करी पापिन के मिश्र की।

कहै पदमाकर विलोकि जम कही कै

विचारो तो करमगति ऐसे अपवित्र की।

जौलौं लगे कागद बिचारन कछुक तौलौं

ताके कानपरी धुनि गंगा के चरित्र की,

वाके सीस ही ते ऐसी गंगाधारा बही जामे

बही बही फिरी बही चित्रहू गुपुत्र की॥”

“गंगा के चरित्र लखि भाषै जमराज ऐसे

एरे चित्रगुप्‍त मेरे हुकुम में कान दै।

कहै पदमाकर ए नरकनि मूदि करि

मूदि दरवाजन को तजि यह थान दै।

देखु यह देवनदी कीन्‍हे सब देव याते

दूतन बुलाय के विदा के वेगि पान दै।

फारि डारि फरद न राखु रोजनामा कहूँ

खाता खतजान दै बही को बहि जान दै॥”

यम की छोटी बहिन यमुना से सख्‍यता करने से यमराज-नगर के नरकादि बंदियों को मुक्ति कराने में कुछ प्रयास नहीं होता। प्रयागराज में यमुना की सहचरी होकर इस भाव को दरसाती है। इसका समागम इस स्‍थल पर उनकी श्‍याम और सेत सारी से प्रकट होता है।

कहूँ प्रभा श्‍यामल, इंद्रनीली

मोती छरी सुंदर ही जरीली।

कहूँ सुमाला सित कंज जाला

विभात इंदीवरहू रसाला॥1॥

कहूँ लसैं हंस विहंग माला

कहूँ सुकाला गुरुपत्र राजै

मनो मही चंदन शुभ्र छाजै॥2॥

कहूँ प्रभा चंदहि की विभासै

जथा तमौ छाय मिली विलासै।

उतै शरत् मेघ-सुपेत लेखा

जहाँ लख्‍यौ अंबर छेद मेखा॥3॥

कहूँ लपेटे भुजगो जु काले,

भस्‍मांग सो शंकर केर भाले।

लखो पियारी बहती है गंगा

प्रवाह जाको यमुना प्रसंगा॥4॥

इसके दक्षिण विंध्‍याचल सा अचल उत्तर और दक्षिण को नापता भगवान् अगस्‍त्‍य का किंकर दंडवत् करता हुआ विराजमान है। इसके पुण्‍य चरणों को धोती मोती की माला के नाईं मेकलकन्‍यका बहती है, यह पश्चिमवाहिनी, जिस्‍की सबसे विगल गति है, अपनी बहिन तापती के साथ होकर विंध्‍य के कंदरों की दरी में तप करती, सूर्य के ताप से तापित, सौतों के सदृश अपने बहुवल्‍लभ सागर से जा मिलती है नर्मदा के दक्षिण दंडकारण्‍य का एक देश दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध है।

याही मग ह्वै कै गए दंडकवन श्रीराम।

तासों पावन देश यह विंध्‍याटवी ललाम।

विंध्‍याटवी ललाम तीर तरुवर सों छाई।

केतिक कैरव कुमुद कमल के वरन् सुहाई।

भज जगमोहन सिंह न शोभा जात सराही।

ऐसो वन रमनीय गए रघुवर मग याही॥

शाल ताल हिंतालवर सोभित तरुन तमाल।

विलसत निंब विशाल इंगुदी अरु आमलकी।

सरो सिंसिपा सीसम की शोभा शुभ झलकी।

भन जगमोहन सिंह दृगन प्रिय लगत पियाला।

वर जामुन कचनार सुपीपर परम रसाला॥

डोलत जहँ इत उत बहुत सारस हंस चकोर।

कूजित कोकिल तरु तरुन नाचत जहँ तहँ मोर।

नाचत जहँ तहँ मोर रोर तमचोर मचावत।

गावत जित तित चक्रवाक विहरत पारावत।

भन जगमोहन सिंह सारिका शुक बहु बोलत।

बक जल कुक्‍कुट कारंडव जहँ प्रमुदित डोलत॥

बहत महानदि, जोगिनी, शिवनद तरल तरंग।

कंक गृध्र कंचन निकर जहँ गिरि अतिहिं उतंग।

जहँगिरि अतिहि उतंग लसत श्रृंगन मन भाए।

जिनपै बहु मृग चरहिं मिष्‍ठ तृन नीर लुभाए।

सघन वृच्‍छ तरुलता मिले गहवर धर उलहत।

जिनमें सूरज किरन पत्र रंध्रन नहिं निवहत।

मैं कहाँ तक इस सुंदर देश का वर्णन करूँ। कहीं कहीं कोमल कोमल श्‍याम-कहीं भयंकर और रूखे सूखे वन - कहीं झरनों का झंकार, कहीं तीर्थ के आका र-मनोहर मनोहर दिखाते हैं। कहीं कोई बनैल जंतु प्रचंड स्‍वर से बोलता है - कहीं कोई मौन ही होकर डोलता है - कहीं विहंगमों का रोर कहीं निष्‍कूजित निकुंजों के छोर - कहीं नाचते हुए मोर - कहीं विचित्र तमचोर - कहीं स्‍वेच्‍छाहार बिहार करके सोते हुए अजगर, जिनका गंभीर घोष कंदरों में प्रतिध्‍वनित हो रहा है - कहीं भुजगों की स्‍वास से अग्नि की ज्‍वाला प्रदीप्‍त होती है - कहीं बड़े बड़े भारी भीम भयानक अजगर सूर्य के किरणों में घाम लेते हैं जिनके प्‍यासे मुखों पर झरनों के कनूके पड़ते हैं - शोभित हैं -

जहाँ की निर्झरिनी - जिनके तीर वानीर के भिरे, मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं - जिनके मूल से स्‍वच्‍छ और शीतल जलधारा बहती हैं - और जिनके किनारे के श्‍याम जंबू के निकुंज फलभार से नमित जनाते हैं - शब्‍दायमान होकर झरती हैं।

जहाँ के गिरि विवर के तिमिर से छाये हैं। इनमें से भालुनी थुत्‍कार करतीं निकलकर पुष्‍पों की टट्टियों के बीच प्रतिदिन विचरतीं दिखाई देती हैं। जहाँ के शल्‍लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना वदन रगड़ खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के सीतल समीर को सुरक्षित करता है।

ये वही गिरि हैं जहाँ मत्तमयूरों का जूथ वरूथ का वरूथ होकर वन को अपनी कुहुक से प्रसन्‍न करता है। ये वही वन की स्‍थलीं हैं जहाँ मत्त मत्त हरिण हरिणियों समेत विचरते हैं।

मंजु वंजुल की लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पता ऐसे सघन जो सूर्य की किरनौं को भी नहीं निकलने देते इस नदी के तट पर शोभित हैं।

कुंज में तम का पुंज पुंजित है, जिस्‍में श्‍याम तमाल की शाखा निंब के पीत पत्रों से मिलीं हैं। रसाल का वृक्ष अपने विशाल हाथों को पिप्‍पल के चंचल प्रबालों से मिलाता है, कोई लता जंबू से लिपट कर अपनी लहराती हुई डार को सबसे ऊपर निकालती है। अशोक के ललित पुष्‍पमय स्‍तबक झूमते हैं, माधवी तुषार के सदृश पत्रों को दिखलाती है, और अनेक वृक्ष अपनी पुष्‍पनमित डारों से पुष्‍प की बृष्टि करते हैं। पवन सुगंध के भार से मंद मंद चलती है केवल निर्झर का रव सुनाई पड़ता है कभीं-कभीं कोइल का बोल दूर से सुनाता है और कलरव का कल रव निकटस्थित वृक्ष से सुनाई पड़ता है।

ऐसे दंडकारण्‍य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्‍पला जो नीलोत्‍पला की झाड़ी और मनोहर मनोहर पहाड़ी के बीच होकर बहती है, कंकगृध्र नामक पर्वत से निकल अनेक अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से बहुत से तीर्थ और नगरों को अपने पुण्‍यजल से पावन करती पूर्व समुद्र में गिरती है।

यच्‍छ्रीमहादेव पदद्वयम्‍मुहुर्महानदी स्‍पर्शति वै दिवानिशम्।

तदेव तन्‍नीरमभूत्‍परं शुचि नवद्वयद्वीपपुनीतकारकम्॥

इसी नदी के तीर अनेक जंगली गाँव बसे हैं। वहाँ के वासी वन्‍य पशुओं की भाँति आचरण करने में कुछ कम नहीं हैं। पर मेरा ग्राम इन सभों से उत्‍कृष्‍ट और शिष्‍टजनों से पूरित है - इसके नाम ही को सुन कर तुम जानोगे कि वह कैसा ग्राम है।” कह चुप हो रही। मैंने कहा, “धन्‍य है सुंदरी तूने बड़ी दया की जो इतना श्रम कर इस अपावन जन के कानों को ऐसा मनोहर वर्णन सुना के पावन किया। यदि कष्‍ट न हो तो और सुनावो।” देवी मुसकिरा के बोली, “भद्र सुनो कहती हूँ” इसकी मुसकिराहट ने मेरे हृदय गगन का तिमिर तुरंत ही मिटा दिया और बोली, “इस पावन अभिराम ग्राम का नाम श्‍यामापुर है। यहाँ आम के आराम थकित पथिक और पवित्र यात्रियों को विश्राम और आराम देते हैं - यहाँ क्षीरसागर के भगवान् नारायण का मंदिर सुखकंदर इसी गंगा के तट विराजमान है। राम लक्ष्‍मण और जानकी की मूरतैं सी झलकती हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो अभी उठी बैठती हों। मंदिर के चारों ओर गौर उपल की छरदिवाली दिवाली की शोभा को लजाती है। मंदिर तो ऐसा जान पड़ता है मानो प्रालेय पर्वत का कंदर हो भगवान् रामचंद्र के सन्‍मुख गरुड़ की सुंदर मूर्त्ति कर कमल जोरे सेवा की तत्‍परता सुचाती है। सोने का घंटा सोने ही की सौंकर में लटका धर्म के अटका सा झूलता दीन दुःखी दर्शनियों के खटका को सटकाता है। भटका भटका भी कोई यद्यपि किसी दुःख का झटका खाए हो यहाँ आकर विराम पाता है, और मनोरंजन दुःखभंजन-गंजन विलोल विलोचनी जनकदुलारी के कृपाकटाक्ष को देखते ही सब दुःख दारिद्र छुटाता है। राम और लक्ष्‍मण की शोभा कौन कह सकता है -

“शोभा सीवैं सुभग दोउ वीरा। नील पीत जलजात सरीरा॥

मोर पंख सिर सोहत नीके। गुच्‍छे बिच बिच कुसुमकली के॥

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवण सुभग भूषण छबि छाए॥

विकट भृकुटि कच घूँघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मन मोला॥

मुख छवि कहि न जाय मो पांही। जो बिलोकि बहु काम लजाही॥

उर मणिमाल कंबु कल ग्रीवा। कामकलभ कर भुजबल सीवा॥

राजत राम समाज महँ कोशल राजकिशोर।

सुंदर श्‍यामल गौर तनु विश्‍वविलोचन चोर।

शरद चंद्र निदंक मुख नीके। नीरज नैन भावंते जी के॥

चितवनि चारु मार मनहरनी। भावति हृदय जाति नहिं वरनी॥

कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदुबोला॥

कुमुद बंधु कर निंदक हासा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥

भाल विशाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥

पीत चौतनी सिरन सुहाई। कुसुमकली बिचबीच बनाई॥

रेखैं रुचिर कंबु कलग्रीवा। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवा॥

कुंजर मणिकंठाकलित उर तुलसी की माल।

वृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु विशाल॥”

ऐसा सुंदर ग्राम जिस्‍में श्‍यामसुंदर स्‍वयं विराजमान हैं - मेरा जन्‍मस्‍थान था। वाग भी राग और विराग दोनों देता है। देवालयों की अवली नदी के तीर में नीर पर परछाहीं फेकती है - ऐसा जान पड़ता है कि जितने ऊँचे कगूरों से वह अंबर को छूती है उसी भाँति पाताल की गहराई भी नापती है - जहाँ विचित्र पांथशाला - बाला और बालक पाठशाला - न्‍यायाधीश और प्रबंधकों के आगार - बनियों का व्‍यापार जिनके द्वारे फूलों के हार टँगे हैं जहाँ की राजपथों पर व्‍योपारियों की भीर सदैव गंभीर सागर सी बनी रहती है चित्त पर ऐसा असर करती है जो लिखने के बाहर है।

चौड़े चौड़े राजपथ संकीर्ण वीथी अमराइयाँ और नदी के तट सब अभिसारिका और नागरों के सहायक हैं! बिलासियों का सहेट अभिसारिकों का झपेट अनंगरंग का लपेट सपत्‍न जनों का दपेट सबका सब मन को प्रफुल्लित करता है।

पुराने टूटे फूटे दिवाले इस ग्राम के प्राचीनता के साक्षी हैं। ग्राम के सीमांत के झाड़ जहाँ झुंड के झुंड कौवे और बकुले बसेरा लेते हैं गवँईं की शोभा बताते हैं, प्‍यौ फटते और गोधूली के समय गैयों के खिरके की शोभा जिनके खुरों से उड़ी धूल ऐसी गलियों में छा जाती है मानो कुहिरा गिरता हो। ये भी ग्राम में एक अभिसार का अच्‍छा समय होता है।

“गोप अथाइन तें उठे गोरज छाई गैल।

चलु न अली अभिसार की भली सझोखी सैल॥”

यहाँ के कोविद थरथरी - गोपीचंदा - भोज - विक्रम - (जिसे 'विकरमाजीत' कहते हैं) लोरिक और चदैंनी - मीराबाई - आल्‍हा - ढोला-मारू - हरदौल इत्‍यादिकों की कथा के रसिक हैं - ये विचारे सीधे साधे बुड्ढे जाड़े के दिनों में किसी गरम कौड़े के चारों ओर प्‍याँर बिछा बिछा के अपने परिजनों के साथ युवती और वृद्धा बालक और बालक और बालिका युवा और वृद्ध सबके सब बैठ कथा कह कह दिन बिताते हैं।

कोई पढ़ा लिखा पुरुष रामायण और व्रजविलास की पोथी बाँचकर टेढ़ा मेढ़ा अर्थ कह सभों में चतुर बन जाता है, ठीक है।

“निरस्‍थपादपे देशे एरण्‍डोऽपि द्रुमायते”

कोई लड़ाई का हाल कहते कहते बेहाल हो जाता है - कोई किसी प्रेम कहानी को सुन किसी के प्रबल विरहवेदना को अनुभव कर आँसू भर लेता है - कोई इन्‍हैं मूर्ख ही समझकर हँस देता है। अहीर अहिरिनों के प्रश्‍नोत्तर साल्‍हो में हुआ करते हैं। यह भोली कविता भी कैसी होती है - अनुप्रास भी कैसा इन ग्रामीणों को सुखद होता है -

“देख बुढ़ौंना के गोठ परोसिन मोला कथै चलकोलामा”

करमा

आमा डार कोइली सुवा बोलै कागा - ध्रुव -

पर्रा में लालभाजी छानी मा आदा

तोर मुटियारी मजा भेंगै राज” - आमा

धानों के खेत जो गरीबों के धन हैं इस ग्राम की शोभा बढ़ाते हैं। मेरा इसी ग्राम का जन्‍म है। मेरे पिता का वंश और गोत्र दोनों प्रशंसनीय हैं। मेरे पुरुषा प्रथम तो ब्रह्मावर्त्त से उत्‍कल देश में जा बसे थे। वहाँ बिचारे भले भले आदमियों का संग करते करते कुछ काल के अनंतर उत्‍कल देश को छोड़ राजदुर्ग नामक नगर में जा बसे। उत्‍कल देश के जलवायु अच्‍छे न होने के कारण वह देश तजना पड़ा, ऋषि वंश के अवतंस हमारे प्रपितामहादिक पूजा पाठ में अपने दिन बिताते रहे, कई वर्षों के अनंतर दुर्भिक्ष पड़ा और पशु पक्षी मनुष्‍य इत्‍यादि सब व्‍याकुल होकर उदर पोषण की चिंता में लग गए उन लोगों की कोई जीविका तो रही नहीं, और रही भी तो अब स्‍मृति पर भ्राँति का जलदपटल छा जाने के हेतु सब काल ने विस्‍मरण करा दिया। नदी नारे सूख गए, जनेऊ सी सूक्ष्‍मधार बड़े बड़े नदों की हो गई। मही जो एक समय तृणों से संकुल थी बिलकुल उससे रहित हो गई। सावन के मेघ भयावन शरत्कालीन जलदों की भाँति हो गए। प्‍यासी धरनी को देख पयोदों को तनिक दया न आई। बिचारे पपीहा के पीपी रटने पर भी पयोद न पसीजा और उसके चंचुपुट में एक बूँद निचोया। इस धरनी के भूखे संतान क्षुधा से क्षुधित होकर व्‍याकुल घूमने गले। गैयों की कौन दशा कहे ये तो पशु हैं। खेत सूखे साखे रोड़ोंमय दिखाने लगे। शालि के अंकुर तक न हुए किसानों ने घर की पूँजी भी गँवा दी। बीज बोकर उसका एक अंश भी न पाया।

'यह कलिजुग नहीं करजुग है इस हाथ ले उस हाथ दे' - इस कहावत को भी झूठी कर दिया अर्थात् कृषी लोगों ने कितना ही पृथ्‍वी को बीज दिया पर उसने कुछ भी न दिया। छोटे छोटे बालकों को उनकी माता थोड़े थोड़े धान्‍य के पलटे बेचने लगी। माता पुत्र और पिता पुत्र का प्रेम जाता रहा। बड़े बड़े धनाढय लोगों की स्त्रियाँ जिनके पवित्र घूँघट कभी बेमर्य्यादा किसी के सन्‍मुख नहीं उघरे और जिन्‍हैं आर्य्यावर्त्त की सुचाल ने अभी तक घर के भीतर रक्‍खा था अपने पुत्रों के साथ बाहर निकल पथिकों के सामने रो रो और आँचर पसार पसार एक मुठी दाने के लिए करुणा करने लगीं। जब संसार की ऐसी गति थी तो हमारे पूर्व पुरुषों की कौन रही होगी ईश्‍वर जानै। मैं न जाने किस योनि में तब तक थी। जब वे लोग राजदुर्ग में आए किसी भाँति अपना निर्वाह करने लगे। ब्राह्मण की सीधी साधी वृत्ति से जीविका चलती थी। किसी को विवाह का मुहूर्त धरा - कहीं सत्‍यनारायण कथा - कहीं रुद्राभिषेक कराया - कहीं पिंडदान दिलाया और कहीं पोथी पुरान कहा। द्वादशी कर सीधा लेते लेते दिन बीते। इसी प्रकार जीविका कुछ दिन चली। मेरे पितामह पितामह के वंश के हंस थे। उनका नाम अवधेश था। उनके दो विवाह हुए। उनकी दोनों पत्‍नी अर्थात् मेरी पितामहीं बड़ी कुलीना थीं। एक का नाम कौशल्‍या और दूसरी का अहल्‍या था। अवधेश जी को कौशल्‍या से एक पुत्र हुवा। उसका सब सिष्‍टों ने मिल कर इष्‍ट साध वसिष्‍ठ सा वलिष्‍ठ नाम धरा। ये मेरे पूज्‍यपाद परमोदार परम सौजन्‍य-सागर सब गुणों के आगर जनक थे। कुल काल बीतने पर कौशल्‍या सुरपुर सिधारी, उस समय मेरे पिता कुछ बहुत बड़े नहीं थे। शोकसागर में डूबे, पर दैव से किसका बल चलता है।

थोड़े ही दिनों के उपरांत भगवान चक्रधर की दया से अहल्या को एक बालक और एक बालिका हुईं। बालक का नाम नारद और बाला का गोमती पड़ा। यह वही गोमती मेरे पीछे बैठी है। इस अभागिन के कुंडली में ऐसे बाल वैधव्‍य जोग पड़े थे कि यह बिचारी अपना सुहाग खो बैठी। इसकी कथा कहाँ तक कहूँगी। अभागिनियों की भी कहानी कभी सुहावनी हुई है? मेरे पिता जब युवा हुए अवधेश जी ने राव चाव से उनका विवाह शारंगपाणि की बेटी मुरला से कराया। शारंग‍पाणि का कुल इस देश के ब्राह्मणों में विदित है, “यथा नामा तथा गुणा:” अतएव उनका कुछ बहुत विवरण नहीं किया, कुछ काल बीते माता गर्भवती हुई। इस समय मेरे पितामह काल कर चुके थे। अपने नातीपंती का सुख न देख सके अहल्‍या भी अनेक तीर्थों का सलिल बंद पान करते - अपने तन को अनित्‍य जान तीर्थाटन में लग गई थी। इसलिए इस समय घर में न थी। नौ मास के उपरांत दशम मास में मेरे पिता के एक कन्‍या हुई, इसे लोग साक्षात् रमा का रूप कहते थे। यह जेठी कन्‍या थी। इसके अनंतर एक कन्‍या और हुई। उसका नाम सत्‍यवती पड़ा। फिर कई वर्षों में भगवान् ने एक सुत का चंद्रमुख दिखाया। सब भवन में उजेला छा गया। गाजे बाजे बजने लगे जो कुछ बन पड़ा दान पुण्‍य भिखारी और जाचकों को दिया। पुन्‍नाम नरक के तारने वाले बालक ने मेरी माता की कोंख उजागर की। पर हाय मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक' - विधाता से यह न सहा गया। सुख के पीछे दुःख दिखाया - अर्थात् कुटिल काल ने इसे कवल कर लिया।

“धिक धिक काल कुटिल जड़ करनी।

तुम अनीति जग जाति न वरनी॥”

माता बिचारी डाक मार मारकर रोने लगी। घर में छोटे बड़े और टोला परोसियों के उत्‍साह भंग हो गए। जितने लोग पहले सुखी हुए थे उस्‍से अधिक दुःखी हुए। आँसुओं से सब घर भर गया। पिता हमारे ज्ञानी थे, आप भी ढाढ़स कर सबों को जेठे की भाँति प्रबोध किया और बालक का मृतक कर्म्‍म करने लगे। काल ऐसा है कि दुस्‍तर दुःख के घावों को भी पुरा देता है। जो आज भी सो कल न रहा। कल्‍ह सा परसों न रहा। इसी भाँति फिर सब भूल गए - पर पुत्रशोक अति कठिन होता है। पिता के सदैव इसका काँटा छाती में समा गया। कभी सुखी न रहे - इन दानन मितामी को मना कर फिर तो काजल नैनों में मजा हमारी की दशा देख विलाप करने लगते। फिर गिरस्‍ती में लोग लगे - कुछ काल के के अनंतर उन्‍हैं एक कन्‍या और हुई। इसका नाम पत्रिका के अनुसार सुशीला पड़ा सो हे भद्र! देखो यहीं सत्‍यवती और सुशीला मेरी दोनों भगिनी सहोदरी हैं और मुझ अभागिन का नाम श्‍यामा है” - इतना कह चुप हो रही इस नाम के सुनते ही मेरा करेजा कँप उठा और संज्ञा जाती रही - हाय हाय! कहता भूमि में गिर पड़ा और स्‍वप्‍न-तरंग में डूब गया।

इति प्रथम स्‍वप्‍न!

दूसरे याम का स्वप्न (श्यामास्वप्न) : ठाकुर जगमोहन सिंह

कवित्त

आनंद सहित कृष्‍णचंद्र द्वारका के बीच

रुकमिनी जू के महल पर जागे हैं सोय

सपने में देखो ब्रजराज ब्रजवासिन के

घर घर हाय ब्रजराज को विलाप होय

ख्‍वाब में मिलाप बाढ़ो मदन को दाब बोधा

परम प्रलाप हरि हिय में न सके गोय

हाय नंद बाबा हाय मैया हाथ मधुबन

हाय ब्रजवासी हाय राधे कहि दीन्‍हो रोय।

ग्रीष्‍म की रातैं कैसी सुखद होती हैं - पर सुख का समय बात की बात में कट जाता है। चाँदनी खिली थी तारे छिटके थे, दूसरा पहर रात का लग गया था मैं अपनी अकेली सेज पर बाहु का उपधान किए सोता था। श्‍यामा का ध्‍यान लगाकर मग्‍न था, इतने ही में कोई पहरेवाला गा उठा।

अहो अहो वन के रुख कहूँ देख्‍यौं पिय प्‍यारे।

मेरो हाथ छुड़ाय कहौ वह कितै सिधारो॥

उस ध्‍यान से विलग हो गया - फिर भी वही मोहिनी मूरति सामने दिखाई दी। मैं तो उसे देखते ही भूमि पर गिर पड़ा था। अब कुछ संज्ञा हुई सेवक ने धीरज धराया। मुझै बहुत समझा बुझा कर अपने आप में लाया और बोला -

“यह किस बखेड़े में पड़े - महाराज - सचेत होकर इसकी मनोरंजनी कहानी को जो पूरी सुनिए। यह क्‍या बात थी जो आपको उसका नाम सुनते ही मोह और मूर्छा आ गई।”

मैंने कहा - “मुझै भी इस मोह का कारण नहीं ज्ञात हुआ कि अकस्‍मात् क्‍यों ऐसा हो गया था” -

इतना कह मैंने श्‍यामा की ओर देखा। उसका मुख भी मलीन पड़ गया था। इसको देख मुझे और भी शंका हुई कि यह क्‍या विचित्र लीला है। भला मैं तो ऐसा हो गया पर यह भोली किस भ्रम में पड़ी है। हृदय के शोक को रोक पूछा -

“सुंदरी तुम्‍हारी यह क्‍या दशा है - तुम क्‍यौं मलीन पड़ती जाती हौं” -

श्‍यामा ने कहा, “कुछ नहीं, इसका सब वृत्त तुम आप धीरे धीरे जान जावगे। केवल चित्त लगाकर सुनौ, भला तुम क्‍यौं निःसंज्ञ हो गए थे - “

“क्‍या जानूँ यह क्‍या मुझै हो गया था - पर अब सुनता हूँ कहिए” इतना कह मैं चुप हो गया।

श्‍यामा बोली, “जब मैं छोटी थी मुझै माता पिता बड़े लाड में रखते थे - उनके कोई पुत्र न रहने के कारण मैं उनके नेत्रों की पुतरी थी और वे लोग मुझै सदा हाथ ही पर धरे रहते थे, रात दिन मेरे लालन और पालन ही में लगे रहते। थोड़े दिनों पर मेरे प्रथम के संस्‍कार करके मुझै मेरे माता पिता ने एक बाला पाठशाला में विद्याउपार्जन के हेतु भेज दिया। यह पाठशाला ग्राम के कारन बहुत भारी न थी - तौ भी 20 या 25 बालिकाओं से कम प्रति दिन इस शाला में पढ़ने को नहीं जातीं थीं। मेरे साथा अनेक बाला पढ़तीं थीं पर ईश्‍वर की दया से मैं इतने शीघ्र पढ़ गई कि मेरी बराबरी पुरानी विद्यार्थिनी भी न कर सकीं। हाँ - एक तो मालती और एक माधवी मेरी सहपाठिनी थीं। उनसे मेरा निरंतर स्‍नेह बना रहता, और एक दूसरे के घर उठने बैठने उत्‍सवों में और सहज रीति पर भी आया जाया करतीं। जब मैं पढ़ लिख चुकी पाठशाला को छोड़ घर बार के काम में तत्‍पर हुई और मेरे पिता ने मेरे विवाह की चिंता की। धनहीन होने के कारण कोई कुलीन ब्राह्मण नहीं मिला और मिला भी तो मुझ दीना का पाणिग्रहण करने को उपस्थित न हुआ। मेरे पिता की चिंता बढ़ी और उनने इस्‍का उद्योग किया। मेरे पिता यहाँ के विख्‍यात प्रतिष्ठित परिब्राजक राजकुल के मान्‍य कार्य्याध्‍यक्ष थे। उस कुल का नाम इस देश की पुरानी बुरी परिपाटी के अनुसार कपटनाग था। मैं नहीं जानती इस बड़े कुल का ऐसा बुरा नाम क्‍यौं पड़ा। इसका वृत्तांत न तो मैंने कभी पूछने की इच्‍छा रक्‍खी और न कभी मेरे पिता ने मुझसे कहा इसी से मुझे नहीं ज्ञात है - पर नाम से कुछ प्रयोजन नहीं। कुल देखना चाहिए। अभी तक पाटलीपुत्र के एक मुख्‍य नवाब के कुल का नाम 'नवाब गदहिया' है। कटपनाग का कुल इस देश में बड़ा मान्‍य और पूज्‍य था। इसकी गद्दी पुराने महाराजों के समय से अखंडित चली आती थी और इसमें अनेक पहुँचे पुरुष भी हुए। ए एक चालीसी के अधिपति थे। वहाँ से मेरे पिता ने बहुत कमाया था। और सामान्‍य रीति पर भोजन आच्छादन की कुछ कमती नहीं रहती थी।

इसी ग्राम में एक सुंदर कुलीन क्षत्रियवंश के अवतंश भी यहाँ के अधिपति थे। इनका लांछनरहित कुल देश देशांतरों में प्रसिद्ध था और इनकी बात का प्रमाण था। इनके माता पिता का हाल मुझै कुछ भी ज्ञात नहीं पर ये विद्या के सागर - सब गुणों में आगर - काव्‍य में कुशल - बल में प्रबल - नवल नागर लंबे बाहु - प्रशस्‍त ललाट काले काले नेत्र - काली कालीं भौहैं - गेहुँआ रंग - चतुराई के सदन - इसी ग्राम में बहुत काल से बसते थे। रात दिन पठन-पाठन में इनका चित्त रहता। काव्‍यकला ने हृदय का कपाट खोल दिया था। ये सब बातैं इनके ललाट ही से जान पड़तीं थीं। सुडौल अंग अनंग के आलय थे। चिकने और काले काले बाल युवतियों के मन को काल थे। मधुर मधुर बोली हमारी हमजोली के मन को नवनीत सरीखा पिघला देती थी। इनकी चितवन से प्रेम और विश्‍वास प्रकट होते थे। बड़े गंभीर और धीर-नीर के सदृश स्‍वच्‍छ निष्‍कपट चित्त असंख्‍य वित्त के आगार - मुझै बहुत भले जनाते थे। कोमल कमल से कर - छोटी छोटी दाढ़ी और मूछैं जवानी के आगम को सुचाती थी, विद्या और कविता तो इनके जिह्वा पर नाचती थी और इस दोहे को सार्थ करने वाले इनमें सभी गुण थे -

“तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।

अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग - ॥”

देश देशांतर के पंडित और गुणी इनका नाम सुयश और दातृत्‍व सुन स्‍वयं आते और उनका यथोचित कालानुसार मान पान भी होता। इनका नाम श्‍यामसुंदर था। इनकी वय केवल 26 वर्ष की थी। ये हमारे पड़ोसी थे। और मुझसे इनकी कुछ कुछ जान पहिचान भी रही। इस समय मेरी भी वय ठीक 14 की थी पर विद्यालाभ के कारन सभी बातैं कुछ कुछ समझ लेती थी।

श्‍यामसुंदर मेरे परोसी होने के हेतु दिन में दो चार बार भेंट करते। मै भी उन्‍हैं अपना हितू और सहायक जान प्रायः बोलचाल करती थी। एक दिन प्रातःकाल को जब मैं स्‍नान करके अपने अटा पर चढ़ी बाल सुखा रही थी श्‍यामसुंदर अपने कविताकुटीर के तीर बैठा कुछ बना रहा था। मुझै नहीं मालूम क्‍या लिखता था। द्वार पर लता छाई थी और उसके पता के फैलाव से उसका मुख कुछ ढका और कुछ प्रकट था, ऐसा जान पड़ता था कि उस मंडप में अकेला गुलाब का फूल खिला हो। मैं उनकी ओर सहज भाव से देखने लगी। वे नीचे मस्‍तक किए कुछ गुनगुनाते थे। कभी ऊपर देख कुछ लिख लेते और फिर कुछ सोचने लगते - मैं तो उनके स्‍वभाव को भली भाँति जानती थी - मैंने जान लिया कि वे कुछ कविता करते होंगे। एक बेर और मैंने उनको भली भाँति देखा और अचानक उनकी भी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी। वे मेरी ओर एक टक देखने लगे और मैं भी अनिमिष नैनों से उन्‍हैं निहारती रही।

“भए बिलोचन चारु अचंचल।

मनहु सकुचि निमि तज्‍यो दृगंचल॥”

यद्यपि मैं उन्‍हैं प्रतिदिन देखती थी तो भी उस दिन उनके मुखारविंद की कुछ और शोभा रही मैंने भी उनके निहारने से जान लिया कि वे भी आज मुझै किसी और भाव से देख रहे हैं। तौ भी मेरा जी विश्‍वस्‍त था। मैं उनके स्‍वभाव को जानती थी और परिचित भी थी। मैंने और कोई चेष्‍ठा नैन या कर से नहीं की, स्‍तब्‍ध सी वहीं खड़ी रही, पर हृदय में उस समय अनेक प्रकार के भाव आए, कुछ लज्‍जा भी हुई दृष्टि नीचे कर ली। फिर सिर उठा कर उसी जगन्‍मोहन को देखा। उनको देखकर मुसकिराई। वे भी मेरे हृदय के भाव अपने हृदय में गुन मुसकिरा गए। मेरी बहिनें सत्‍यवती और सुशीला यद्यपि मेरे साथ वहीं थीं पर कुछ न समझ सकीं - हाँ, वृंदा जब आई मेरी तन की बुरी दशा देख पूछने लगी।

“श्‍यामा - आज तेरे शरीर की यह दशा कैसी हो गई। तू तो कभी इतना बिलंब अटा पे नहीं करती थी आज क्‍या हो गया। देख मुझसे मत छिपावै, मैं सब अंत में जान ही जाऊँगी” - इतना कह उसने मेरी ओर देख श्‍यामसुंदर की ओर देखा।

“कुछ तो नहीं - मेरी क्‍या गति होगी। जो गति रोज की सोई आज की। विशेष आज क्‍या हुआ जो पूछती है” - इतना कह मैं अचंभे में आ उसकी ओर देखने लगी।

“सुन श्‍यामा - आज तेरे मुख पर कुछ और पानी है। केश छूटे और आँखैं लाल सजल सी दिखाई देती हैं - तन बदन की सुधि है कि नहीं। देख आँचर कहाँ और सिर का घूँघट कहाँ है” - वृंदा ने कहा।

मैं इस व्‍यवस्‍था को सच्‍ची जान लज्जित हो गई पर जहाँ तक बन पड़ा लाज को लुकाया और उत्तर सोचने लगी। उत्तर सोचने में तो सब भेद खुल हो जाता। झपट कर सुशीला को गोद में उठा चिढ़ी हुई सी बातैं करने लगी, “अभी गिर परती तो क्‍या होता इसी के मारे तो मैं कभी अटारी पर ज्‍यादा देर नहीं लगाती यह बुरी कही नहीं मानती जब देखो अटा के बाट ही पर बैठती है। गिर परेगी तो खाट पर धरी धरी रोवैगी,” इतना कह सुशीला के गाल पर एक चटकन जड़ी कि वह रोने लगी। वृंदा ने झट उसे मेरी गोद से ले लिया और चूम चाट उसे खूब सा पुचकारा। मेरी ओर तिउरी चढ़ा और नाक को सकोर 'क्‍यों मार दिया' ऐसा कह लंबी हुई। अपने प्रश्‍न का उत्तर भी न लिया। मैंने जाना बलाय टरी, अच्‍छा हुआ। सत्‍यवती के साथ वृंदा के पीछे ही उतर गई।”

मैंने टोका, “बाह री श्‍यामा 14 वर्ष में जब तुम इतनी चतुर थीं तब आगे न जाने क्‍या हुआ होगा। पर ढिठाई क्षमा करना मैं शुद्धभाव से तुम्‍हारी बुद्धिमानी की प्रशंसा करता हूँ फिर क्‍या हआ” - श्‍यामा ने उत्तर दिया, “दिन दिन नूतन नूतन शाखा वृक्ष से निकली। उस दिन वृंदा चुप रही। न जाने सचमुच भूल गई वा चतुराई से उसको भुलावा सा दे भुलाये रही, पर कभी कई दिनों तक उस प्रश्‍न की चर्चा तक ओठों पर न लाई। श्‍यामसुंदर तो फिर उस समय सब बातें ताड़ गया और मुसकिरा कर हट दिया। मध्‍याह्न के समय उसने सत्‍यवती को बुलाकर बहुत प्रीति दिखाई। फलादिक भोजन कराए और नवीन वस्‍त्र देकर एक सादी सी अँगूठी सत्‍यवती को दी। सत्‍यवती अपना भाग खुला जान बड़ी प्रसन्‍न हुई। घर आ पिता जी से सब कहा। श्‍यामसुंदर की उदारता कौन नहीं जानता था। दादा भी प्रसन्‍न हुए, और हम लोगों के श्‍यामसुंदर से समागम करने में तनिक रोक टोक नहीं करते थे। वरंच और भी हम लोगों को उनके पास आने जाने और गुण सीखने की आज्ञा दी। हम लोग सबके सब जब घर के काम से अवकाश मिलता उनके घर आया जाया करते। श्‍यामसुंदर ने बड़ी दया और मया दरसाई। हम लोगों की दरिद्रता दूर कर दी। हम लोगों का कई बार बुला चुला के न्‍यौता करते अनेक भाँति की कथा सुनाते और अनेक गुन और कला भी कभी कभी बताते। काव्‍य और नाटकों की छटा बताई। सिद्ध पदार्थ का विज्ञान दरसाया। रेखागणित और बीजगणित की परिपाटी सिखाई - मानो मेरे हृदय में विद्या का बीज बो दिया। चित्रकारी पर भारी वक्‍तृता करी। सरगम का भाव बतलाया। मेघ और इंद्र की विद्या सिखाकर इन्‍हों के सजीव पुरुष या महेंद्र होने का भ्रम मिटाया। मैं बिचारी क्‍या जानूँ - ए सब बातैं। यद्यपि ये सब बातैं उन्‍होंने किसी विशेष पुस्‍तक से नहीं पढ़ाई तौ भी जब जब उन्‍हैं अपने काम धाम से समय मिलता मेरे शून्‍य और अँधेरे हृदय में ज्ञान का बीज और दीप स्‍थापन करते। जितने विषय मैंने श्‍यामसुंदर से सीखे उतने पाठशाला में भी सीखे थे। हमारी शाला के गुरु यद्यपि बड़ी कृपा करके सिखाते तौ भी मुझे इतना चाव उनके मुख से कोई बात सीखने में नहीं हुआ। जब श्‍यामसुंदर कोई विद्या का विषय कहता उसके मुख से मानो फूल झरते थे। जब कोई मेघदूत सा काव्‍य या शकुंतला सा नाटक सुनाता मेरे कानों में अमृत की धारा सी चुवाता। वृंदा भी मेरे साथ रहा करती और उसे मुझसे अधिक उनकी बातों को सुन रस का अनुभव होता। वह तो कभी-कभी छेड़ भी दिया करती थी पर सत्‍यवती और सुशीला खेल में लगीं रहतीं थीं। यह बात नैसर्गिक है। इतनी थोरी उमरवालीं लड़कीं ऐसी ऊँचीं बातों में मन नहीं लगा सकतीं। यह उमर ऐसी ही है जिसमें सिवाय खुनखुना लट्टू-गुड़ियों के और कुछ नहीं सुहाता।

जब जब मेरी और उनकी चार आँखैं होतीं मेरा बदन कदंब का फूल हो जाता - आँखों में पानी भर आता और तन में पसीने के बूँद झलक उठते। जाँघैं थरथरा उठतीं बदन ढीले पड़ जाते और वसन शिथिल हो जाते थे। श्‍यामसुंदर भी कभी कभी कहते कहते रुक जाता - रसना लटपटा जाती। और की और बात मुँह से निकल परती। फिर कुछ रुक कर सोचता और कथा की छूटी डोर सी गह लेता। चकित होकर वृंदा की ओर देखता कि कहीं उसने यह दशा लख न ली हो। पर वृंदा बड़ी प्रवीन थी। बीच बीच में मुसकिरा जाती। सत्‍यवती भी कभी कभी कान देकर कोई कहानी सुना करती। ऐसे समय प्रतिदिन नहीं आते थे पर जब जब बैठक होती तीन चार घंटे के कम की कदापि नहीं होती थी। क्‍या करे श्‍यामसुंदर को अपनी जमीदारी के कारबार से इतना अवकाश मिलना दुस्‍तर था। धीरे धीरे उसका प्रेम बढ़ चला मेरे जी में प्रतिदिन प्रेम का अंकुर जम चला सोचने लगती कि कब उसे देखूँ। जब तक वह अपने कुटीर में बैठता किसी न किसी व्‍याज से मैं उसे देख लेती। वे भी मेरे लिए मेरी देहली पर दीठि दिए ही रहते। मेरे पैर की आहट को सुन तत्‍क्षण पलक के पाँवड़े बिछा देते। मेरे मुख को देख चकोर से प्‍यारे नैनों को बुझाते - पर यह सब ऐसी गुप्‍तता से हुआ कि घर के बाहर के वरंच परोसी भी कभी न जान सके। हाँ सेवकों के कभी कभी कान खड़े हो जाते - क्‍यौं कि रात दिन का झमेला एक दिन खुल ही पड़ता है - “अति संघर्ष करै जो कोई। अनल प्रकट चंदन से होई॥” - यह कहावत है। माता पिता का कुछ इस बात पर लक्ष्‍य न था - और मेरा भी मन का भाव अभी तक स्‍वच्‍छ था, पर बीज इसका बोया गया था और अभिनव अंकुर भी निकल चुके थे। मैं यद्यपि उनसे ढीठ थी तौ भी मान्‍य और पूज्‍य शब्‍दों को छोड़ कभी और प्रकार के वचन न कहे। उनका काम सब काम को छोड़ करती। जब कभी वे प्‍यासे होते और अपनी दासी को भी इंगित करते तो मैं ही उठकर शीघ्र उनको जल ला देती। ईश्‍वर जाने वे उस जल को अमृत या अमृत का दादा समझते थे, पर उनके प्रति रोम से यही प्रकट होता कि वे प्रेम के पथिक और मुझ पर दयालु हैं।

इस प्रीति की रीति को कहाँ तक कहूँ। यह दइमारी साँपिन सी काटती है किसी मंत्र में सामर्थ नहीं कि इसका विष उतारै। एक दिन श्‍यामसुंदर भोजनोत्तर अपनी शय्या को सनाथ कर रहे थे कि सत्‍यवती किसी काम के लिए उनके पास ठीक दुपहर को गई और उनकी आज्ञा से उन्‍हीं के निकट बैठ गई। कुछ काल तक इधर उधर की बातैं हुईं, फिर उन्‍होंने मेरी चर्चा निकाली। सत्‍यवती बहुत कम बोलती थी। उन्‍होंने जो जो बातैं उस्‍से पूछीं उनका यथार्थ उत्तर न पाया क्‍यौंकि सत्‍यवती एक तो इतनी पुष्‍ट बुद्धि की न थी और दूसरे उसको लाज भी थी। हँसकर रह जाती। हार मान श्‍यामसुंदर ने एक दोहा मुझे लिख भेजा। वह यह है -

जो बाला अलि कुंतलन अँगुरिन सों निरुवार।

सो चुराय कै मो हियो गई कटारी मार॥

इस दोहे को उनने बड़े डर के साथएक कागद के टुकड़े पर लाल लाल अक्षरों से लिखा और कमल के कोप में रखकर सत्‍यवती के हाथ भेज दिया। सत्‍यवती ने मेरी माता मुरला के समक्ष देकर कहा, “जिजी! इस कमल का छतना कैसा पीला है टुक देख तो सही” इतना कह नैन मटकाए। मैंने पूछा “यह कहाँ से लाई है?” उसने कहा, “श्‍यामसुंदर ने बड़ी कृपाकर यह फूल तुझे भेजा है और मुझसे कहा कि श्‍यामा को देकर यह कहना कि “यह मेरा हृदय कमल का कोष है मैंने श्‍यामा को समर्पण कर दिया है” इतना कह चुप हो गई। मैंने जान लिया कि इसमें कुछ कारण है, और फूल को ले जाकर अपनी उसीसे की गदिया तरे दबा दिया और फिर अपने घर के कारबार में लग गई। माता कुछ ध्‍यान न देकर कुछ और कृत्‍य करने लगी। मैंने स्‍नान किए। तुलसी की पूजा कर हुलसी, भोजन कर शयनागार को गई। घर के संकीर्ण होने के कारन जिस कोठरी में मैं सोती थी उसी में पोथी पत्रा और लेखन के साधन धरे रहते थे। गरीब का घर कहाँ तक अच्‍छा हो। चित्त में तो फूल की समानी थी देह आनंद के मारे फूली सी जाती थी और यह तरंग उठै कि श्‍यामासुंदर के 'हृदय कमल के कोष' को देखूँ तो सही क्‍या है। उन्‍होंने तो 'समर्पण' ही कर दिया है। इस रूपक को घरवालों ने नहीं समझा था। जिस समय सत्‍यवती फूल लाई और श्‍यामसुंदर के कहे को कहा मेरे मन में तो चटपटी समानी थी। मैंने झटपट कमल को उठाया। बदन कदंब हो गया। पत्तों को टार के कोप में देखती क्‍या हूँ कि एक पाती जो प्रेम रस की काती थी लपेटी हुई धरी है। मैंने उसे -

“कर लै चूमि चढ़ाय सिर हिय लगाय भुज भेंट।

प्रियतम की पाती प्रिया बाँचत धरत लपेट॥”

मैंने उसके भीतर का दोहा पढ़ा। कई बार पढ़ा। पढ़ते ही पीरी पर गई और मन में जान गई कि मैं उनके नैनबानों का निशाना हुआ चाहती हूँ। हुआ क्‍या चाहती हूँ होई गई। मेरे तन में अतन का भाव कुछ कुछ आ चला था - यद्यपि मुग्‍धता बनी रही तौ भी ज्ञान की ढलक आ गई थी, इसी से सब कुछ थोड़ा थोड़ा समझ जाती। इस अनेक भाव उपजे एक मन हुआ कि पत्र का उत्तर लिख दूँ फिर एक मन हुआ कि न लिखूँ। अंत में श्‍यामसुंदर के विश्‍वास और प्रेम ने मुझसे लिखवा ही लिया और मैंने अपनी सीधी साधी मति के अनुसार एक पत्र लिखा जिसे मैं तुमसे कहती हूँ -

“आप ने जो लिखा सो सब ठीक है, पर प्रीति सदा निभा ले जाना। हमने क्‍या अपराध किया जो तुमने हमको फिर दर्शन नहीं दिया। अब हमारे अपराध को क्षमा कीजिए आप का पठन-पाठन देख हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। विद्या सीखना ही अधर्म है घर का काम न करै तो हँसी जाय। मैं तुमको कहीं न कहीं से देख ही लेती हूँ। यद्यपि... घात लगाए रहते हैं पर क्‍या करैं, बिन देखे चैन नहीं पड़ता। कहीं न कहीं से आपके दर्शन हो ही जाते हैं तुमने मेरा जो भी उपकार किया उसको जनम भर नहीं भूलने की। मेरा सब अपराध क्षमा करना। द्वापर कृष्‍ण की लिखी।

तुम्‍हारी

श्‍यामा”

इस पत्र को लिखकर लौट के बाँचा भी नहीं और यह भी नहीं देखा कि क्‍या भूल चूक हुई। मैं लिखते समय अपने को भूल गई थी - इसी से दुबारा भी नहीं बाँचा। झटपट सत्‍यवती को देकर कहा इसे ले जा। वह भी शीघ्र ही लेकर श्‍यामसुंदर के हाथ में दे आई। श्‍यामसुंदर ने कहा, “इसका उत्तर पीछे भेजूँगा अभी तू जा” -सत्‍यवती लौट आई। श्‍यामसुंदर बाँचकर आनंदमग्‍न हो गए। कई बार मेरे अक्षरों की बनावट देखी। मैं कुछ बुरा नहीं लिखती थी पर श्‍यामसुंदर को नहीं पाती। दस बेर मेरी पाती उन्‍होंने फेर फेर बाँची, और न जाने क्‍या क्‍या कविता की। उन्‍हें कविता की बिमारी थी। मैं उसे बहुत नहीं समझती - इसी से उनने मुझै सदा सीधे साधे पत्र लिखे। मुझै जब वे पत्र लिखते या तो रात को जब किसी की बात भी न सुनाती - और या तो बड़े प्रातःकाल संध्‍यावंदन के उपरांत पर उनकी लगन मुझ पर लग गई। यद्यपि कई मास तक उनने अपनी मनोवांछा ढाँक रक्‍खी थी तौ भी मैं उनकी बोल चाल, डीठि, रहन बतरान और हँसन से सब कुछ जान गई थी पर मैं मौन रही। मान गहि लिया और मन चाहता कि कुछ और कहै पर लाज और स्‍वभाव के वश कुछ नहीं कह सकी। एक दिन वे अचानक मेरे द्वारे आन कढ़े। मैं अपनी अटा पै ठाढ़ी रही - वे मो तन देख हँस पड़े। पर मैं लाज के मारे भौन के भीतर भाज गई। उसी दिन से इन कुचाइन चवाइयों ने मिलि के चौचद पारा। मैं क्‍या करूँ इस विषय को जभी मन में करो तभी अलहन हो जाता है। मैंने बहुतेरा चाहा कि छिपै पर नर्म सखियाँ कभी कभी ताना मार ही देतीं थीं। नहाते, आते, जाते सभी मुझे वंक दृष्टि से देखतीं - पर मैं जान बूझ कर अजान बन जाती - पर वे क्‍या इस बात को न समझ जातीं होंगी। इस गाँव में एक से एक पड़ीं थीं। अब सुनिए दूसरे ही दिन नौ बजे दिन को सुशीला के हाथ सत्‍यवती को बुलाकर मेरे पत्र का पलटा उन्‍होंने दिया। मैंने अपने धन्‍य भाग मनाए, और उसे पढ़ने लगी। उसमें यह लिखा था -

“आज पहिला दिन है कि मैं तुमको लिखता हूँ इसी से भूलचूक होगी क्षमा करना। पहले तो मैं इसी बात में अटक गया कि तुम्‍हैं क्‍या कह के लिखूँ। जो मैं तुमको भली भाँति जानता हूँ और बहुत दिनों की परिचय भी है तो भी एकाएक तुम्‍हैं जैसा जी चाहता है लिखने में सकुच लगती है पर मुझे विश्‍वास है कि तुम सब समझ लोगी, और भी इसका ब्‍यौरा निपटाना तुम्‍हारा ही काम रहैगा। जब तक मुझै तुम आप लिख कर कोई राह न बताओगी मैं तुम्‍हैं सामान्‍य रीति पर ही लिखूँगा। तो बस - तुम्‍हारे पत्र के पढ़ते ही मैंने तुम्‍हारी बुद्धि की सराहना की मुझे आशा न थी कि तुम पहली ही बेर इस ढिठाई के सा‍थ लिखोगी पर वह मार्ग ही ऐसा है कि कोई क्‍या करै। तुम्‍हारा पत्र तुम्‍हारे अंतरंग और मनोगत का सच्‍चा प्रमाण है। इस विषय में मुझै और कुछ नहीं कहना क्‍यौंकि तुमसे परिचित सुजन से और ढिठाई का कहना मेरा ही अपराध गिना जाएगा - ढिठाई - हाँ ढिठाई तुम न करोगी तो कौन करेगा और भी जितना अवकाश तुम मुझै कहने का दोगी उतना ही मैं भी कहूँगा - क्‍यौंकि “जहाँ तक खाट होगी पाँव भी वहीं तक फैलेंगे” - यह तो रहै - पर 'प्रीति' - हाँ - 'प्रीति' - इसके क्‍या अर्थ - और 'निवाहने' के क्‍या अर्थ है, यह जरा मुझै बतावो। ये दोनों शब्‍द मैंने आज तक किसी शब्‍दवर्ण में भी नहीं पाए।

तुम तो अवश्‍य ही जानती होगी तभी तो तुमने इन्‍हैं लिखा भी है, पर जब तक तुम इन शब्‍दों के लक्षण न बतावोगी मैं कुछ उत्तर नहीं दे सकता। आज तक मैंने जो 'प्रीति' के अर्थ समझे हैं वे ये हैं 'प्रीति' के अर्थ 'टेढ़ी' और 'निवाहने' के अर्थ 'अनहोनी' के हैं यदि तुम्‍हारे कोष में भी यही अर्थ हों तो मेरे अर्थ को पुष्‍ट करो नहीं तो स्‍याही फेर देना। मैं अपनी छोटी समझ से उस तुम्‍हारी पंक्ति का छोटा सा उत्तर देता हूँ के “यह सब तुम्‍हारे ही हाथ है।” सत्‍यवती के हाथ जब मैंने तुम्‍हैं कमल भेजा था तब उसने क्‍या कहा - याद है? उसने कहा होगा कि “यह - ने हृदय कमल का कोष, तुम्‍हैं समर्पण किया है” - क्‍यौं - यही बात है न - यदि यही हो तो इसको समझ लेना, मुझसे अधिक नहीं लिखा जाता। मेरा हाथ कुछ और लिखने में काँपता है। क्षमा करना।

“हमने दर्शन नहीं दिए” - ठीक है तुम्‍हारे आज कल दिन हैं कह लो जो चाहो, पर उस दिन कौन था जो चार घड़ी तक... के पास खड़ा रहा और आपने एक-बार भी आँख उठाकर नहीं देखा। क्‍या जाने आप न रहीं हों, तो बस यह मेरी ही दृष्टि का दोष है। क्‍या इस्‍से भी और कुछ प्रमाण लोगी, सुना चाहो तो कहैं, नहीं तो बस हो गया।

“तुम्‍हारा मेरा समागम हुआ करता तो समय कट जाता, और तुम्‍हैं सिखाने में मेरा भी जी लगता, पर इस दुःखदाई रीति से सभी हारा है परवश सभी सहना पड़ता है।

“यदि तुम मुझै इतना चाहती हो कि जैसा तुमने अपने करकमलों से लिखा है तो बस रहने दो, मैं इस विषय में कुछ नहीं कहता। यह आपकी सहज दया है, मन में आवै तो दो डड़ीचँ लिख भेजना, हाथ जोड़ता हूँ।”

द्वापर कृष्‍णयुग तुम्‍हारा शुभचिंतक

फाल्‍गुण श्‍यामसुंदर”

यह पत्र मेरे कलेजे में बान सा लगा। मैंने इसको कई बार बाँचा और मन ही में समझ गई। क्षणभर तनकी सुधि भूल गई। मन में बहुत सी बातैं सोचने लगी। श्‍यामसुंदर उत्तर की आशा लगाए रहे। जब मैं नहाने जाती मेरे पीछे आप भी नहाने जाते। कहते कुछ नहीं पर ध्‍यान मेरे पर लगा रहता। इधर उधर देखते पर छिन छिन पै टेढ़ी दृष्टि करके मुझै भी देख लेते। जब मैं घर लौट जाती वे भी दूसरी खोर से अपने कुटीर को चले जाते पर ऐसा जान पड़ता कि मेरे ध्‍यान से क्षण-भर विलग नहीं रहते। मैंने कुछ उत्तर न दिया क्‍यौंकि मुझै ज्ञान न था कि क्‍या लिखूँ। अंत को वे बीमार हुए। ज्‍वर आने लगा। एक तो बड़े आदमी के लड़के दूसरे सर्वदा सुख ही में रहे इस्‍से बड़े सुकुमार थे मुरझा गए। ज्‍वर दइमारे ने उन्‍हें थोड़े ही दिनों में निर्बल कर दिया, पर ओषधी अच्‍छी कीं। एक या डेढ़ सप्‍ताह में चंगे हो गए। चलने फिरने लगे, खाने पीने लगे। अब कुछ कुछ बल भी आने लगा पर भली भाँति अच्‍छे नहीं हुए। इस ग्राम के जलवायु ने उन्‍हें बहुत अशक्‍त कर दिया था। वैद्य ने उन्‍हैं मति दी कि एक मास तक दूर देश की यात्रा करो नहीं तो और शरीर बिगड़ैगा। वैद्य को उन्‍होंने हामी भर दी पर मुख पर पीरी आ गई उन्‍हैं मेरा वियोग सहना दुस्‍तर था। छन भर मेरे बिना रह नहीं सकते थे, पर शरीर की भी रक्षा मुख्‍य थी। थोड़ी देर में वैद्य के जाने पर उन्‍होंने सत्‍यवती को बुला के कहा कि “श्‍यामा से मैं कुछ कहूँगा तू जा उसे बुला ला” यह सुन सत्‍यवती ने आकर मुझसे कहा। मैंने सोचा आज क्‍यौं बुलाते हैं। कुशल तो है तौ भी जाने के लिए तत्‍पर हुई। सफेद कोसे की सारी पहन, और एक छोटी सी माला गले में डाल कर चली। अपनी देहरी पर जाकर ठठक गई, फिर मन में सोच आया कि कहाँ मुझै बुलाया है और मैं कहाँ जाती हूँ, यह बात तो मैंने सत्‍यवती से भी नहीं पूछी थी, कहाँ बे ठीक ठिकाने की उठ चली। हाय रे भगवान् बड़े कठिन की बात है - मैंने बड़ी भूल की थी। मैं बाहर निकल कर कहाँ जा ठाढ़ी होती। ऐसा सोच विचार के फिर लौट आई। सत्‍यवती से कहा, “मुझै कहाँ बुलाते हैं - जा पूछ आ” सत्‍यवती गई और एक क्षण में आकर कहा कि “उन्‍होंने तुझै कविता कुटीर में बुलाया है। अभी दुपहरी का समय है - कोई नहीं है चली जा” - मैं बाहर निकली और श्‍यामसुंदर के कुटीर के तीर ज्‍योंहीं पहुँची श्‍यामसुंदर उठकर बाहर आए और मेरा हाथ बड़े चाव से पकड़कर भीतर ले गए। ले जाकर मुझै बड़ी कोमल कुरसी में बैठाया और वे भी मेरे सन्‍मुख एक हाथ के दूरी पर बैठ गए। यह कुटीर बड़ा मनोहर था। इस कुटीर में चारों ओर के द्वारों पर माधवी लता छाई थी, चमेली की बेली अपने लंबे हाथ पसारे माधवी से मिल कर मुसकिराती थी। गुलाब भी अपनी अलौकिक आब फूलों के मिस दिखाता था। विलायती किते की कुरसियाँ मखमल और रेशम से मढ़ी करीने से धरी थी। गोल चौपहल और अनेक आकार के मेज जिन पर रंग बिरंग की बनातैं पड़ी थीं बीच में रखे थे। मनोहर और विचित्र विचित्र पूठों की पुस्‍तकें अच्‍छी रीति पर धरीं थीं। सामने और आजू बाजू अलेमारियाँ जिनमें सैकड़ौं पुस्‍तकैं अनेक विद्याओं को सिखानेवाली भरी थीं - शोभित थी। बीच में एक गोल छोटा सा मेज धरा था, उस पर श्‍यामसुंदर का चित्र हाथी-दाँत की चौखट में जड़ा धरा था इसको देख सभी दंग हो जाते। उसमें श्‍यामसुंदर हीरे का बड़ा सिरपेच बाँधे जिसमें बड़े बड़े बहुमूल्‍य के पन्‍ने लटकते थे हीरे ही की सुंदर कलगी दिए - हाथ में कश्‍वाल लिए बैठे थे। कंठ में बड़े मोतियों का कंठा - और मयूरहार उर में झूलता था। पछाहीं पगड़ी अड़ी थी। कानों में मोती के बाले कपोलों पर झलकते थे। चंद्रहार भी मन को चुराए लेता था। मैंने तो आज तक ऐसे बहुमूल्‍य रत्‍न कहीं नहीं देखे थे। कपटनाग की यद्यपि पुरानी गादी थी पर ए लोग सदा चाल से रहे और आश्‍चर्य नहीं कि इनकी चालीसी की चालीसी श्‍यामसुंदर के मुकुट के एक मणि के भी मोल को न पाती। इनके इस चित्र में मुख से वीरता और माधुर्य्यता दोनों पाई जाती जो इनके कुल और काव्‍य-कुशलता के हेतु थी। नेत्रों से प्रेम टपकता था। ललाट से अशेष विद्वत्ता जान पड़ती थी। उस समय ए दो और बीच बरस से अधिक न रहे होंगे। डाढ़ी पर एक एक अंगुल बाल थे। यह छबि मेरे जी में गड़ गई - और शोच किया कि उस समय मुझसे इनसे क्‍यौं परिचय न हुआ।

इसी गोल मेज के किनारे एक और चौपहल मेज धरा था। इस पर सुंदर काले काठ की मंजूषा में एक सुरीला बाजा रक्‍खा हुआ था। इस अरगन बाजा को श्‍यामसुंदर जब मौज होती बजाते और सुनाते। गाने बजाने का भी इनको व्‍यसन था। उसी कुटीर के पश्चिम भाग में एक परदा पड़ा था और उसके उस तरफ उनका पलँग बिछा था। एक नजर में जो कुछ देखा तुमको सुनाया - जब हमारे भेट का हाल सुनो। श्‍यामसुंदर मुझै बैठाकर सब काम छोड़ वार्त्तालाप करने लगे। उन्‍होंने पूछा, “कुशल तो है - “ मैंने उत्तर दिया, “आपके रहते हमैं अकुशल कैसी? आप तो भले हैं?”

(साँस लेकर) “हाँ बहुत अच्‍छे और अब तुम्‍हैं देख और भी अच्‍छे हो गए - तुम तो देखतीं थीं मैं कैसा बीमार हो गया था। वैद्य ने ओषधी की, अब अच्‍छा हो गया। पहले से कुछ अच्‍छा हूँ - पर एक वज्र पड़ा,” इतना कहकर एक लंबी साँस ली।

मैंने कहा, “क्‍या? कुशल तो है - ईश्‍वर ऐसा न करै - “ मैं तो कुछ जान गई थी कि वही यात्रा की बात होगी, पर मुझै भी उनके बिना कैसे चैन पड़ता यही सोचती रही।

श्‍यामसुंदर ने उत्तर दिया, “वज्र यही कि अब कुछ दिनों के लिए हमको तुमसे विलग होना पड़ैगा। वैद्य ने मेरे शरीर की अवस्‍था देखकर कहा है कि जलवायु दूसरे देश का सेवन करना होगा नहीं तो शरीर और भी बिगड़ जायगा, शरीर की रक्षा मुख्‍य है - तो अब मैं दो एक दिन में जाऊँगा, तुम्‍हारा तो मेरे साथ जाना नहीं हो सक्‍ता और इधर तुम्‍हारा वियोग। अब नहीं मालूम क्‍या होगा” - इतना कह आँखों आँसू भर मेरे दोनों हाथों को अपनी छाती से लगा लिया और चुप हो गये। सिसकी भर रोने लगे और फिर कुछ भी न कहा।

मैंने उनके नेत्र आँचर से पोंछ दिए और उनके सिर को छाती से लगा कर उन्‍हें समझाया। पर उनके नैन सावन भादों हो गए थे। सावन भादों की सरिता कहीं रुकती हैं। उनके नैनों से ऐसा धारा-प्रवाह उमड़ा कि मेरा आँचर भींज गया गया। मैंने उसास ली और रोने लगी। प्रीति की नदी उमड़ आई मैंने मन में कहा कि अंत को यही होता है - पर अब तो लग ही गई थी छूटती कैसे। मैंने श्‍यामसुंदर से कहा, “कुछ कहोगे भी कि बस रोते ही रहोगे, मुझै भी तुमने अपने दुःख दिखाकर दुःखी बना दिया। तो अब तुम्‍हैं कौन समझावै” - “मुझसे क्‍या पूछती हौ। मैं तुम्‍हैं छोड़ कैसे जा सकूँगा - जिसको नैन प्रतिदिन देखते थे उसको अब बहुत दिनों तक न देखैंगे। अधिक कहता हूँ तो अभी द्वारे पर भीर लग जायगी, और समय भी अधिक इसमें नहीं लगाना चाहिए। तो सुनो, मेरा जाना तो अब ठीक हो चुका। इस शरीर के लिये जाना ही पड़ा। मेरी तुमसे यही विनती है कि तुम इस दीन और मलीन अपावन जन को मत भूलना। मैं तुम्‍हैं अपना पता लिखकर कई लिफाफे दिए जाता हूँ तुम इसके भीतर पाती लिखकर बंद कर देना और मेरे विश्‍वास-पात्र हरभजना को दे देना वह मेरे पास पहुँचा दिया करै या तो डाक द्वारा भेजा करैंगा और मेरे भी उत्तर तुम्‍हैं उसी के द्वारा मिला करैंगे - पर यह मेरी बारंबार विन्‍ती है कि भूलना कभी नहीं और एक बेर प्रतिदिन मुझ दीन का स्‍मरण करना। यदि मेरी कोई सहायता का कभी काम पड़ै तो मुझै खबर पहुँचाने में विलंब न करना - यदि मेरे बिना कोई काम ऐसा आन पड़ै कि न हो तो मैं सब छोड़ कै आ जाऊँगा। दया रखना - देखो - पर बस, अब लोग आवैंगे तो तुम जाव - हाय रे वज्र हृदय! फट नहीं जाता और उलटा 'जाव' ऐसे वचन कहवाता है” - इतना कह फिर भी आँखैं भर लीं।

मैं तो निःसह होकर श्‍यामसुंदर के अंक में गिर पड़ी। श्‍यामसुंदर ने मुझै सम्‍हार लिया। यदि वे सहारा न बन जाते तो मैं कबकी भूमि पर गिर पड़ती। श्‍यामसुंदर ने अपने वस्‍त्र से लोचनों को पोंछ उरई के व्‍यजन से व्‍यजन करने लगे। गुलाब जल की पिचकारी मेरे नैनों में मारी और मुझै चुंबनों से आच्‍छादित कर दिया। मुझै कुछ संज्ञा हुई। मैंने अपनी सकपकानी दृष्टि उनके मुखारविंद पर फेकी। बरौनी में मेरे आँसू लटके थे। उन्‍होंने फिर भी इस बार पलकों का चूमा लेकर उन्‍हैं पोंछ दिया और बोले, “तुम क्‍यौं रोती हौ आज सब प्रेम खुल गया, न तो तुम हमसे दुरा सकी और न मैं ढाँक सका। कैसे ढाँकता, प्रेम क्‍या सूजी है जो छिपै, पर यदि हमी तुम जानैं तो अच्‍छा है। प्रीति प्रकट नीकी नहीं होती।” इतना कह उन्‍होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और फिर बोले - “आज यदि तुम्‍हारी आज्ञा पाऊँ, तो 'प्‍यारी' - कह के तुम्‍हैं टेरूँ।” मैं चुपकी रही। “तुम कुछ देर तक मौन रहीं, मुझै ढाढ़स हुआ, मैं तुम्‍हैं अवश्‍य प्‍यारी कहूँगा, क्षमा करना तो - प्‍यारी! प्रानप्‍यारी! मैं तुम्‍हैं जी से चाहता हूँ मोह करता हूँ - सुंदरी मेरे हृदय में तेरी गाढ़ी प्रीति भरी है। जगन्‍मोहिनी! मैं तेरे मूरति की पूजा करता हूँ, तू मेरी इष्‍ट देवी है और मैं तेरा भक्‍त हूँ। मैंने तुम्‍हारी मूर्ति की पूजा उसी दिन से आरंभ की थी जिस दिन पहले तुम्‍हैं उस दिन अटारी पर बार बगराते देखा था।” इस वाक्‍य को भली भाँति बल दे के कहा, वह कहन मेरे हृदय में गड़ गई - उतनी गहिरी कि अद्यापि मेरे हृदय के उत्तर दायक तार झनझनाते हैं। मैंने भी उन्‍हें कहा, “प्‍यारे जो हाल तुम्‍हारा था सोई मेरा भी था पर गुप्‍त ही रखना पड़ा, आज अच्‍छा हुआ जो दोनों के जी की सफाई हो गई।” इतना सुनाय मैंने उनके करकमल पकर अपने हृदय से लगाए - उनने मेरे हाथ को ले अपने ओठों से लगाया। मैंने झींका भी नहीं, मेरा हृदय तनिक भी उस अपूर्व आनन्‍द को स्‍मरण कर न मुड़ा और मुझै उस समय ऐसा सुख हुआ जो मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। ज्‍यौंही मैं उस समय की तरंगों के बल से आगे झुकी उनका अनुपम मुख निरखने लगी - और उनके काले नैनों की गंभीरता में उनके उस प्रेम को बाँचने लगी जो अभी उनके अधर पल्‍लव से निसरा था - त्‍यौंही उन्‍होंने मुझै गलबाही देकर हृदय से लगा लिया - हम लोगों के अधर मिले और बड़े विलंब में चुंबन का अनुकरण शब्‍द निकला। उन्‍होंने बिदा दी और मुझे इस प्रतिज्ञा पर छोड़ा कि “चलते समय एक बेर और दिखाई देना।”

आह! उस क्षण का सुख कैसे कहूँ ये वे भाव थे जो मेरे गंभीर हृदय के कुंड से अमृत की नाईं झरने लगे थे। यह मेरा शुद्ध और पावन प्रेम था जो श्‍यामसुंदर के लिए अंकुरित हुआ था। मैं उसे टटोल भी चुकी थी। जान भी गई कि यह ऐसा ही था। 'प्रेम' - प्रेम जिससे इंद्रियों से कुछ संबंध नहीं - प्रेम - जिस पर इंद्रियों का धक्‍का नहीं लगा था, प्रेम - जो आत्‍मा के दृष्टिगोचर हो चुका था।

“मैं घर गई, बैठी उठी, पर श्‍यामसुंदर की झलक आँख की ओट न हुई। फिर भी इच्‍छा हुई कि जाकर भेंट करैं पर सोचा कि बार बार का जाना अच्‍छा नहीं होता। कदाचित् कोई कुछ कहने लगे तो भी ठीक नहीं। इसको सोचा तो सही पर न रहा गया। अंत में कागद कलम लेकर एक छोटा सा पत्र जहाँ तक लिख सकी लिख भेजा। वह यह था -

“मनमोहन प्‍यारे,

आपने जो जो कहा था सो सब याद है। आपके बदन और मुख हमारे दोनों आँख के सामने झूलते रहते हैं। पर आपके कुटीर के द्वार की जाली नैनों को तुम्‍हारे तक पहुँचने को रोक देती है - क्‍या मोह कमती हो गया? बस अब नहीं लिखा जाता - जो मन में है मन ही में रहने दो। “ऐ बाग के माली अपने बाग के फलों की भली भाँति रक्षा करना - तकना - कोई पक्षी चोंच न लगाने पावैं” - चलते समय अटारी पर से भेंट होगी, बस”।

द्वापर फाल्‍गुण।

इस पत्र को भेज दिया। उत्तर नहीं मिला और उत्तर की अपेक्षा भी तो नहीं थी। दूसरे दिन श्‍यामसुंदर के जाने की तैयारी हुई। डेरा डंडा सब पहले ही चला गया था। अकेले वे ही रह गए थे। भोर होते ही उठे स्‍नान-ध्‍यान कर कुछ कलेवा किया और सात बजे तक जाने के लिए उपस्थित हो गए। रथ बड़ी देर से कसा खड़ा था। उनके नर्मसखा मकरंद भी संग हो गए। इनकी सकुच मुझै बहुत लगती थी और सच पूछो तो अनेक कारणों से लाज और भय भी रहा आता था। ये सब बातैं श्‍यामसुंदर को पहिले से ज्ञात थीं - इसीलिए उन्‍होंने मकरंद को पहले ही रथ के निकट भेज दिया था - और वे चलते समय अकेले रह गए। मैं भी अपनी प्रतिज्ञा पालने के लिए अटारी पर चढ़ गई, सत्‍यवती और सुशीला भी मेरे संग में थीं। मैंने श्‍यामसुंदर को निकलते देखा, मेरी उनकी चार आँखैं भईं, उन्‍होंने मेरा प्रान अपने साथ ले लिया - बार बार मुरक मुरक मेरी ओर दृष्टि फेकते थे। मैं भी मुर मुर देखती थी - अपने नेत्रों में जल भर लिया। मेरी भी वही दशा हो गई। सूख साख काठ हो गई, मुख से वचन न निकला। ज्‍यौंही मेरे घर के नीचे आए मुझसे रहा न गया - मैंने झट दोहा पढ़ा -

“चलत चलत तौ लै चले सब सुख संग लगाय।

ग्रीषम वासर शिशिर निशि पिय मो पास बसाय॥”

इस दोहे को उन्‍होंने नीचा सर करके सुन लिया और एक दोहा उसी समय बना कर पढ़ा -

जौं शरीर आगू चलत चपल प्रान तुहि जात।

मनौ वातवस फरहरा पाछे ही फहरात॥

जो कुछ उन्‍होंने कहा सब सत्‍य था। मैंने अपने जी में बहुत धीरज धरा पर एक भी काम न आया। मेरी दृष्टि उनके पीछे चली, वे गए - नदी के तट पर पहुँचे, रथ पर चढ़ चले। मेरा भी जी मन के रथ पर बैठ कर उनके पीछे हो लिया। वे जाते हैं, मझधार में पहुँचे। इधर मेरा भी जी प्रीति की नदी के मझधार पहुँचा। केवट तो चला जाता था, मुझै कौन बचाता, पर आशा वृक्ष की शाखा पकड़ कर लटक गई। श्‍यामसुंदर गए, उस पार हुए पर मैं इसी पार थी। एक मन हुआ कि घर की कुल कान छोड़ दौड़ जाऊँ - पर लाज के लगाम ने मुँहजोरी रोक दी। नदी के तीर तक मैं भी गई। श्‍यामसुंदर उस पार पहुँचकर ऊँचे टीले पार बैठ पारदर्शक यंत्र को अपने नैनों से लगा - मुझे देखने लगे। क्‍या जानै मैं उन्‍हैं दिखी या नहीं पर मैं उन्‍हें जहाँ तक दृष्टि गई बराबर देखती रही। वन की लता पता मेरे ऐसे बैरी भए कि उन्‍हैं शीघ्र ही लोप कर दिया। रथ चला, पहिए के धूर दिखाने लगी। इधर भी मेरी धूर ही धूर दिखाती थी। कहावत है कि “दिलों पर खाक उड़ती है मगर मुँह पर सफाई है, “अंत को मैंने अपने जी से यह दोहा पढ़ा -

वह गए बालम वह गए नदी किनार किनार।

आप गए लगि पार पै हमैं छोड़ि मझधार॥

स्‍नान करके घर आई। घर के कुछ काम न अच्‍छे लगे। माँ से कहा, “माँ आज मेरा मा‍था पिराता है।” माँ ने पूछा, “क्‍यौं” - मैंने उत्तर दिया, “क्‍या जानूँ - शरीर तो है।” माँ बोली, “तौ जा सो रह” - यह तो मेरे ही मन की कही। मैं शीघ्र जा सेज पर सो रही और मूड़ को ढाँक खूब रोई - भूख प्‍यास सब भूल गई। तन से मन निकल कर मनमोहन के पास चला गया। खाट पर केवल शरीर धरा रहा। माँ ने बहुत कहा, “बेटा कुछ खा ले!” पर मैंने कुछ उत्तर न दिया। अंत को माँ ने मुझै सोई जान फिर हूँत न कराया - वृंदा ताड़ गई पर मुझसे कुछ भी न कहा। यद्यपि वह मुझै बहुत चाहती थी पर उसका श्‍यामसुंदर पर गुप्‍त प्रेम रहने के कारन मुझसे कुछ कुछ बुरा मानती थी। श्‍यामसुंदर उस्‍से भी हँस के बोलते पर उनका सब प्रेम मेरे ही लिए था। वे अपने प्रान को भी इतना नहीं चाहते थे। नैनों की तारा मैं ही थी। प्रेम-पिंजर की उनकी मैं ही सारिका थी। ब्रह्म, ईश्‍वर, राम, जो कुछ थी मैं थी, वे मुझै अनन्‍य भाव से मानते थे, पर हाय री मेरी बुद्धि अब कहाँ विलाय गई। भद्र! मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले थी अब वह बात ही चली गई। मैं श्‍यामसुंदर के मुख दिखाने के योग्‍य नहीं हूँ। श्‍यामसुंदर अभी तक मुझै उसी भाव से मानता जानता है और अनन्‍य भाव से भजता है पर मैं - हाय - अब क्‍या कहूँ, मेरी कपट रीति विश्‍वासघात - हाय रे दई - मैं सब कुछ एक कुवचन सहूँगी। जगत की कनौड़ी बनूँगी - हाय रे दई - मुझै जो चाहै दंड दे - मेरी गर्दन झुकी है ले जो चाहै सो कर - मैं हूँ तक न निकालूँगी। मार मार जार डार जैसा मैंने उन्‍हैं जराया है तू भी मुझै जलाकर क्‍वैला कर दे - हाय रे ईश्‍वर - हाय हाय रे करम - क्‍या मैंने सब धरम बहा दिया। किस भरम में पड़ी शरम भी नहीं आती - हा हा” ऐसा बिलाप करते करते गिर पड़ी। सत्‍यवती और वृंदा ने सम्‍हार लिया। अपनी ओली में बैठाकर मुख पोंछा हवा करने लगीं। चूमा लिया।

पर मैं तो इस लीला को देख दंग हो गया। स्‍तब्‍ध होकर भीति की सी चिचौर बन गया, अनिर्वाच्‍य हो गया। आश्‍चर्य करने लगा कि ऐसे मनोहर शरीरवाले भी जो केवल पुण्‍य के पुंज हैं, दैहिक, दैविक और भौतिक तापों की ताप में तपते हैं आश्‍चर्य है कोटिवार आश्‍चर्य का आस्‍पद है, मैंने कुछ सुरीली तानें भरीं, श्‍यामादेवी की आँखैं खुलीं। वृंदा विजना झलती थी। वह इन सब बातों की प्रत्‍यक्ष देखने वाली थी सब कुछ समुझ बूझकर सासैं भर भर के रह गई। देवी को संज्ञा हुई, मैं हाथ जोड़कर बोला।

“कमलनयनी! तू क्‍यौं इतनी अधीर हो गई। अभी तो कहानी पूरी भी नहीं हुई इतने ही में ऐसा हाल हुआ, पूरी होते न जाने तेरे प्रान बचैंगे कि नहीं - वृंदा तनिक देवी को समझा दे शोच न करै, क्‍या ऐसे जनों को भी दुःख का लेश चाहिए।”

श्‍यामा देवी गद्गद स्‍वर और स्‍खलित अक्षर से बोली, “सौम्‍य! तुम बड़े सभ्‍य हो। यह स्‍थल ही ऐसा है कि यदि तुम इस सब वृत्तांत के साक्षी होते तो न जाने तुम्‍हारी कौन सी गति होती, पर तुम्‍हारा चित्त इस कहानी को पूरी कराने में लगा है तो लेव सुनो। मैं रोते गाते सब कुछ कह सुनाऊँगी,” इतना कह सुख से सिंहासन पर बैठ गई। चंद्रमा की प्रभा ने मुख कोकनद का विकास कर दिया था। दंत की छटा मंद मंद कौमुदी में मिली जाती थी। वृंदा पंखा झलने लगी, सत्‍यवती ने पान का डब्‍बा खोलकर सामने धर दिया और सुशीला रात बहुत हो जाने के कारण सोने लगी। देवी ने मुख पोंछा दोनों हाथ पसार ईश्‍वर से मंगल कुशल के साथ पूरी कथा कहने के शक्ति का आवाहन किया, सरस्‍वती से हाथ जोड़े भगवती के पदकमल स्‍पर्श करके यों कहने लगी -

“सुनो जी मेरी बड़ी बुरी दुर्दशा हुई। मुझै श्‍यामसुंदर का वियोग सताने लगा। उनके उठने बैठने के ठौर मुझे काटे खाते थे और मैंने बार बार यह छंद पढ़ा -

खोर लौं खेलन जाती न तौ कहुँ

आलिन के मति में परती क्‍यौं।

देव गुपालहिं देखती जौ न तो

वा विरहानल मैं बरती क्‍यौं॥

बावरी आम की मंजुल वाल

सुभाल सी है उर मैं अरती क्‍यौं।

कोमल क्‍वैलिया कूकि कै झूर

करेजन की किरचैं करती क्‍यौं॥

बस मेरी ठीक यही दशा हो गई थी, परवश में पड़ी थी। प्रान तो श्‍यामसुंदर के पास थे शरीर मात्र यहीं रह गया था। उधर श्‍यामसुंदर भी बेचैन थे। मकरंद से अपना दुःख का रोना रोया करते। संसार उन्‍हैं सूना हो गया। अन्‍न जल में स्‍वाद नहीं लगता। साँप की साँस सी समीर लगती, शरीर में ऐसी पीर उठती मानौ भुजंग की मैर हो, नेत्र नरगिस के भाँति हो गए, पीरीं पीरीं पत्तियों की भाँति तन सूख गया था। बदन सूखि के किंगड़ी और रगैं तार हो गई थीं, रोम रोम से सुर उठकर मेरा ही नाम बजता था। यद्यपि अभी उन्‍हैं गए दो चार दिन से अधिक नहीं भए थे तथापि विरह ने व्‍याकुल कर दिया था। दिन भर मेरा गुन गाते और रात को मेरा स्‍वप्‍न देखते। वन वन धूर छानते फिरे वन पर्वत की कंदराओं में मेरे ही वियोग की तान गान कर कर झाँईं से हुँकारी झराते थे।

देखी कहूँ मृगनैनी अहो वन पर्वत निर्झर सो मुहि भाखो

वात सों कंपित पादप हाय कहो किहि आतप को दुःख चाखो।

हौं जगमोहन श्‍यामा विहाय फिरौं विलगाय इतै मन माखो

दै जु बताय कहाँ गई मोहिनी मुरत आरत को जिय राखो॥

देखी कहूँ सरिता गिरि खोह कहूँ मनरंजनि मोहिनी मूरति

सो गई पंकज लेन कै खेलत कै बहलावत है मनहूँ अति।

कै कहुँ प्रेम प्रकासिबे काज लुकाय रही वन पल्‍लव सूरति

हौं जगमोहन देहु बताय वियोग शरीर अजौ मुहिं झूरति॥

इसी प्रकार के अनेक गीत अभीत हो वन में गाते फिरते। इस चौपाई को बार बार कहते, मकरंद ही केवल इन्‍हैं साहस देता रहता।

सो तन राखि करब मैं काहा। जिन न प्रेम पन मोर निबाहा॥

हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम बिनु जियत बहुत दिन बीते॥

और कभी कभी यह भी -

मुसौवत खीचले तस्‍वीर गर तुझमें रसाई हो।

उधर शमशीर खींची हो इधर गरदन झुकाई हो॥

ये रस की भीनीं तुकैं गा गा कर आँसू भर लेता। अंत को उसने मुझे एक पत्र भेजा - जिसको मैं तुमसे कहती हूँ।

“प्रानप्‍यारी,

“रटत रटत रसना लटी तृषा सूखिगे अंग।

तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग॥”

इसे समझ लेना जब से मैं तुम्‍हारी दया दृष्टि से दूर हुआ दर दर घूमा पर ऐसा कोई न मिला जो तुम्‍हारे विरहताप की ताप मिटाता। वन के रम्‍य रम्‍य मनोहर स्‍थलों को देख तुम्‍हारे बिना करेजा टूक टूक हो जाता है। प्रतिकुंज में तुम्‍हैं देखता हूँ - पर स्‍वप्‍न सा जान पड़ता है। इस साल श्‍यामापुर में मेरी फाग नहीं हुई, कारण तुम जानती हो, लिखने का प्रयोजन नहीं, बस - समझ जावो। इसी से मैंने टर दिया सो देखो इस साल की फाग ने मेरे बदन में आग लगा दी है, तन में वियोगाग्नि की भस्‍म रूपी अबीर लगी है, नैन पिचकारी हो गए हैं और ताप की ज्‍वाला में तन जरा जाता है। शोक और चिंता रूपी जुगल कपोलों में पीर की राख लगी है। अधिक क्‍या लिखैं, तुम्‍हारा वियोग सहा नहीं जाता। इस पावन वन में केवल मैं ही अपावन होकर विचरता हूँ। मुझै वन के जंतुओं ने भी दीन मलीन और पापी जान तज दिया। जब तुमसे विलग हुए तब हुए तब और कौन जगत में मेरे संग लग सक्‍ता है। मुझै पक्षी भी देख भागते हैं। शुक सारिका भी क्रूर शब्‍द सुनाते हैं - अब कहाँ तक कहैं। इसका उत्तर देना, मैं भी कुछ दिनों में आ पहुँचता हूँ धीरज धरना और मुझै कदापि अपने जी से न टारना।

दोहा

चातक तुलसी के मते स्‍वातिहु पियै न पानि।

प्रेम तृषा बाढ़त भली घटे घटैगी कानि॥

इस पावनारण्‍य से मैं मार्जारगुहा को जाऊँगा, वहाँ से वीरपुर होते वाणमर्य्यादा नामक ग्राम में दो दिन निवास करूँगा, वहाँ पहुँचकर मार्ग का वृत्त लिखूँगा पर तुम इस पत्र के उत्तर देने में विलंब न करना। पूर्वोत्तर युक्ति से पत्र मुझै अवश्‍य मिलैंगे। इन वनों का भी संपूर्ण वर्णन - पर संक्षेप यदि हो सका तो तुम्‍हारे मनोरंजन के लिए भेजूँगा - कृपा रखना।

द्वापर-फाल्‍गुण तुम्‍हारा वही अपावन

पावनारण्‍य श्‍यामसुंदर - “

यह पत्र मुझै वृंदा के द्वारा मिला - उसे हरभजना ने दिया था। मैंने पढ़कर छाती से लगाया और बार बार चूमा। मैंने उसी क्षण इसका उत्तर लिखा।

उत्तर

“श्‍यामसुंदर!

वृंदा ने हमैं आपकी पाती दी। आप हमारे विरह में क्‍यौं - अब क्‍या लिखूँ? भूल गई! क्षमा करो। चलते समय मैंने कुछ कहा था न? उत्तर क्‍यौं नहीं दिया, दूर निकल गए, क्‍या चिंता -

“हिरदे सै जब छूटि हौ मरद बदौंगी तोहि”

दोहा

पंच द्यौस दस औधिकर गए नाथ केहिं देश।

सो बीती अब प्रान कहु रहैं सु किमि तन लेश॥

वीर धीर मुहिं तजि गयो लै गौ असन रु पान।

हा प्‍यारो क्‍यौं छोड़िगो दइमारे सठ प्रान॥|

तुम तो चतुर हो इसे सत्‍य जान जो उचित हो सो करना -

द्वापर-फाल्‍गुण। श्‍यामा”

यह पत्र उसी रीति पर भेज दिया और उनके पास भी पहुँच गया। उसके उत्तर में उन्‍होंने एक लंबा पत्र पीतवन से लिखा, उसमें प्रति दिन का वृत्तांत था।

“प्राणप्‍यारी, तुम्‍हारा पत्र मुझै पीतवन में मिला मुझै इतना सुख हुआ कि मैं अपने को भूल गया। जिस समय दूत ने तुम्‍हारी पाती मुझै दी मैं शिवरूप साक्षात् हो गया। इधर उधर ढूँढ़ने लगा कि इस दूत को क्‍या दूँ। पाती से आधी भेंट होती है। उसके प्रत्‍यक्षर मेरे लिए रामनाम थे। बड़ी देर तक उलट पलट बाँचा और सोने के संपुट में मढ़कर हृदय-कपाट के द्वार पर लटका। पत्रवाहक को सकुच कर चार सहस्र स्‍वर्ण पारितोषक दिये। उस गरीब का काम ही हो गया। हमारी तुम्‍हारी जय मनाते घर गया। पावनारण्‍य से बुधवार के दिन सायंकाल मकरंद और मधुकर के साथ चलकर मार्जारगुहा में पहुँचे, आज केवल एक कोस चलना पड़ा। इस अनूप देश का अधिपति एक वृद्ध भील जिसका नाम विराध है मार्जारगुहा में बास करता है, इसके दो चार तुरंग और हाथी सदा संग में रहते। इसके विकट आयुध भाला और फरसा थे। तलवार कटि में लटकी रहती - हाथी का सा भारी मस्‍तक - कराल दंष्‍ट्रा - सिर पर फूल की कलगी खुसी - वृक्ष से भुजा विकट गह्वर सा उदर - अजगर से दोनों पाँव चट्टान सी छाती - हाथी पर सवार तरवार आगे धरे ऐसा भयानक लगता था मानौ भयानक रस आज मूर्तिमान् होकर सजीव पर्वत पर बैठा चला आता है। यहाँ बहुधा वन दूर-दूर पर हैं। यह महीप मेरी अगुआनी के लिए महासागर तक आया। आज मनुष्‍य और पशु की वार्त्तालाप जो पुराने ग्रंथों में लिखी हैं ठीक ठीक सत्‍य और प्रत्‍यक्ष देखने में आईं।

“नर बानरहि संग कहु कैसे”

इस चौपाई का मानो अर्थ खुल गया। इस ग्राम में एक दिन चूतवाटिका में डेरा लगा कर रहा। अतिथि-पूजन भली भाँति हुई है और चलते समय मधुकर के हाथ गरम कर दिए। यह एक ब्राह्मण हैं, यहाँ यही लेखा लगा।

“वृहस्‍पति के दिन हम लोग वीरपुर पहुँचे। यहाँ का ग्रामपति विराध से कुछ सभ्‍य है इसका नाम खर है - यहाँ मलयज नामक वन निकट है यह खर उस वन का केसरी सा दिखता था। इसका रूप विराध से कुछ थोड़ा ही अच्‍छा है इसलिए अधिक नहीं लिखते। यह ग्राम मैदान में है। जलप्राय वन के निकट ही यह बसा है। यहाँ के जलवायु दोनों भले नहीं इसी से दूसरे ही दिन कूच कर गए। शुक्र के दिन तुम्‍हारे ही पत्र की आशा लगी रही।”

“शनिवार का दिन वाणमर्यादा में बीता, यहाँ से पर्वत पाँच कोस पर रहे। यहाँ अच्‍छा सरोवर जिसके किनारे कदली का उपवन है शोभित है, भगवान् भवानीपति का मंदिर यहाँ के ग्रामीणों को अवलंब है। यहाँ के 'रसालाराम' में तंबू तना था। ग्राम भी कुछ छोटा नहीं और ग्रामाधिप भी ऊँचे जात का पुरुष है। आज होली जरी - मेरी शरीर तुम्‍हारे बिन आप होली हो गया है। झोली में अबीर भर भर हमजोली की भीर में घुस रसाल रसाल कबीर गाते हैं। इन वन में होली का उत्‍सव कुछ विचित्र सा जनाता है, जैसे दूध में मिरचा, विलायत के गिरिजाघर में कुरान की आयत का पढ़ना या रामचंद्र के मंदिर में प्रभु ईशु-मसीह का नाम लेना और बेंड बजाना तथा मसजिद में शंखध्‍वनि का होना इत्‍यादि जैसे असंभव और असंगत बनाते हैं वैसे ही इस देश में ऐसे उत्‍सव थे।”

“रविवार के दिन मैंने चातकनिकुंज जाने का विचार किया। यह उत्‍कल देश का द्वार है और यहाँ का स्‍वामी बड़ा नामी पुरुष है, पर यह देश तुम्‍हारे पूर्व पुरुषों का निवास था इसी से वर्णन नहीं किया। तुमने अपने माता पिता से इसका सब वृत्तांत सुन ही लिया होगा - निदान यहाँ से प्रातःकाल ही को रथ पर बैठा और सायंकाल तक देख भाल फिर बाणमर्यादा को लौट आया। इस ग्राम से यह केवल चार कोस पर था। इस राज्‍य में रसाल के रसाल रसाल विशाल वृक्ष बहुत हैं, इसका नाम मैंने कोकिलकुंज रख दिया है। इस ग्राम का स्‍वामी जब मैं गया उपस्थित न रहा पर उसके प्रतिनिधि ने बड़ा सत्‍कार किया और यहाँ के मुख्‍य मुख्‍य निवास और कार्यालय दिखलाए। वश का सघन वन इसके चारों ओर लगा है और राजा के महल एक पर्वत पर बने हुए हैं जो सजल होने के हेतु अति मनोहर लगते हैं। निर्झरों का घर्घर शब्‍द -वनजंतुओं का गर्जना - सिंह व्‍याघ्रों का तरजना जिसे सुन विचारी कोमल बालाओं के हृदय का लरजना - इस दुर्ग के गुर्जों ही से बैठे सुन लो। सुंदर सरोवर बरोबर जिन पर तरोवर झुके हैं शोभा बढ़ाते हैं। यहाँ से लौट कर बाणमर्यादा के 'रसालाराम' में रात भर विश्राम किया। तुम्‍हारा स्‍वप्‍न आधी रात को देखा। ऐसा देखा मानो तुम्‍हारे पिता ने तुम्‍हें कहीं भेज दिया हो और ज्‍यौंही मैं उन्‍हैं निवारने लगा मेरे नेत्र खुल गए करेजा काँप उठा। होनहार प्रबल होती है। पर भावी वियोग यद्यपि स्‍वप्‍न ही था तथापि शोक का अंकुश कुश का भाँति हृदय में गड़ गया था कुछ गड़गड़ तो नहीं हुआ, लिखना। पर तुम्‍हारी प्रीति की कथा यहाँ तक विदित है।”

“सोमवार 2 - आज मैं बाणमर्यादा से वाराहगर्त्त को आया। छोटे-छोटे ग्राम बहुत से विराम के लिए पथ में मिले पर कहीं नहीं ठहरा। वाराहगर्त्त नामक वन अच्‍छा सुहावना लगता है। यहाँ के पर्वत और शैल आकाश को अपने अपने श्रृंगों से छूते जान पड़ते हैं। यह तराई का प्रदेश आगे बढ़ने से ऐसा लगाता है मानों अघासुर के उदर में हम लोग ग्‍वाल बाल के नाईं घुसे जाते हों, दोनों ओर सघन शैल की श्रेणी - बीच में सूक्ष्‍म मार्ग - मानों घन चिकुर में सेंदुर भरी माँग - यहाँ की मृत्तिका लाल होती है। मध्‍याह्न के उपरांत आखेट के लिए गए थे। 40 मनुष्‍यों ने मिलकर खेदा किया पर केवल एक शशक निकला सो भी हे शशांक-बदनी तुम्‍हारे नाम के प्रथमाक्षर सरीखा जान छोड़ दिया गया। आज का दिन अच्‍छा कटा सभी लोग डेरे में बैठे वनों की नाना कथा कह रहे हैं।

“मंगल 3 - आज मंगल ही मंगल है। लोग कहते हैं 'जंगल में मंगल' - सो ठीक हैं - यहीं पर होली का दंगल भी आज हुआ और इसी पीतवन में तुम्‍हारे प्रेमपत्र ने मुझै सनाथ किया। मैं आज कुछ और हूँ। मेरा शरीर और मन पीररहित हैं। मृगया के अनंतर मैं इस सर्ज के तरे बैठा हूँ। धीर समीर मेरे श्रम को मिटाती है - तुम्‍हारे शरीर को स्‍पर्श करके आती अवश्‍य होगी, तभी तो मेरे ही तल को शीतल करती है। तुम्‍हारी पाती ने आज जो मुझै आनंद दिया - ईश्‍वर ही साक्षी - सब व्‍यवस्‍था तो पूर्व पत्र में लिख ही चुके हैं।”

“बुधवार 4 - आज पीतवन में डेरा है। आगे नहीं बढ़े।”

“वृहस्‍पति 5 - पीतवन से आज चल के पुष्‍पडोल में डेरा हुआ, यहाँ कुल्‍लुक नाला सघन वन से निकला है। इसी के तट पर आज विकट कटक पड़ा। बनैले जंतुओं के भयानक रव का दव कैसा सुनाई पड़ता है। आधी रात में सब सून सान परा है केवल हूँमा की हुँकारी की झाँईं पर्वत के कंदरों में बोलती है।”

“शुक्र 6 - आज भी पुष्‍पडोल में रहे काम बहुत था।”

“शनिवार 7 - पुष्‍पडोल से रत्‍नशिला। यह शैलमय वनोद्देश ऐसा सघन और विचित्र है कि ऐसा मैंने इस प्रदेश में पूर्व नहीं देखा था। शार्दूल गज गवय भालू इत्‍यादि समूह के समूह इतस्‍ततः घूमते दिखाई देते हैं। यहाँ केवल पगडंडी राह है। मन चलता है कि विजन वन में एकांक हो केवल तुम्‍हारे ध्‍यान में मग्‍न हो बैठें।”

“रविवार 8 - रत्‍नशिला से सरलपल्‍ली। इस पल्‍ली में केवल तीन घर हैं। दूध दही कुछ नहीं मिलता, वन का अंत भी दुर्लभ है। किसी प्रकार से निर्वाह कर लिया। यह दंडकारण्‍य का प्रदेश दर्शनीय है। हा देव हमारी श्‍यामा को क्‍यौं बिलग कर दिया।”

सोमवार 9 - सरपल्‍ली से यमपुरी यह पुरी साक्षात् यम की पुरी है। यहाँ का जल बड़ा दुखःदाई और ज्‍वरादिक अनेक रोगों को उपजाता है। नागरिक लोग यहाँ आते ही यमसदन सिधारते हैं। हम लोग सहे वहे हैं। किसी प्रकार से दिन काट ही लेते हैं। यहाँ से निकट ही मतंगवाटी नाम की घाटी प्रसिद्ध है। इसकी उतरने की परिपाटी ऐसी दुस्‍तर और अटपटी है कि शाटी आदि बसन बदन पर नहीं रह सकते। यहाँ के वासी लाटी बोलते हैं। इस वन के बाँस की सांटी (सोंटा) प्रसिद्ध है। लोग बड़े कुपाटी - नट नटी से कूद कूद वन में विचरते रहते हैं। सुनते हैं कि यहाँ एक वृद्ध व्‍याघ्र बुद्धि का भरा किसी अन्‍य देश से आया है। यह ऐसा ढीठ है कि ग्राम के पशुओं को दिन थोसे धर खाता है।”

“तुम्‍हारा केवल - बस - वही।”

“यहाँ से चल श्‍यामसुंदर मान्‍यपुर की ओर मुड़े। मेरे लिखे अनुसार कंचनपुर के पंथ में पाँव भी न धरा। उन्‍हैं अब चटपटी पड़ी और मेरी सूरति की सूरत करते करते मग्‍न हो जाते। किसी प्रकार से दो दिन और गली में भली भाँति लगाए। पर इसका हेतु बिजली और मेह था। बदली छाई रहती। अकाल के मेघ दुर्दिन के सूचक थे। सुदिन के सूर्य ने अंत में वियोग तम फाड़ दिया। हंसमाल में आ पहुँचे। बसंत झलकी आम के मौर लगे जिन पर भौंर के डेरा जमे। धमार की मार होने लगी। सरसौं के खेत फूले - धान पकी - कोइल कुहकने लगी। जिधर देखो उधर उत्‍सव ही उत्‍सव था इस अवसर पर केवल श्‍यामसुंदर ने निरुत्‍सवता की समाधि लगा ली थी। आँख मूँद के मेरा ही ध्‍यान लगा लेते और यदि कोई बीच में बोलता तो - “श्‍यामा-श्‍यामा” कह उठते, उन्‍हैं उनके एक प्राचीन प्रियतम का कवित्त बहुत प्‍यारा लगता और बार बार उसी को अकेले दुकेले कहते रहते।

आवत बसंत आली कंत के मिलाप बिनु

मदन भभूकैं अंग अंग आन फूकैंगी।

हरीचंद फूछैंगे पलाश कचनार वन

त्रिविध समीर की झकोरैं चारु झूकैंगी॥

गावत बहार ह्वै है जीव को निकार आजु

एक एक तन प्रान लेन को न चूकैंगी।

करैगो कसाई काम वाम कतलाम बिना श्‍याम

बैठि डार हाय कोइलैं कुहूकैंगी॥

हंसमाला में उनके पहुँचने का समाचार मेरे पास पहुँचा, मैं तो आनंदरूप हो गई। तन वदन की सुधि तक न रही, कोई कुछ पूछता तो कुछ का कुछ कह उठती। द्वार में वंदनवारे बाँधे, हर्ष गात में नहीं समाता था। माता पिता ने पूछा, “आज तोरन क्‍यौं सँवारे हैं” मैंने उत्तर दिया, “बसंत पूजा है न - माधव का उत्‍सव करती हूँ।” इस यथोचित उत्तर को पा सभी मौन रहे। तुलसी की माला बनाकर पहिनी, केशपाश सँवारे, माँग मोतियों से भरी, नैनों में काजर की ढरारी रेख लगाई। पीतांबर धारन कर प्रफुल्लित वदन पीत पंकज सा फूल उठा - जिस मग से वे गए थे उसी मग में उनके आने की आस बाँध टक लाय रही। आशा थी कि साँझ नहीं तो सबेरे तक अवश्‍य पधारैंगे और मेरे द्वार को सनाथ करैंगे। दिन बीता, साँझ हुई। श्‍यामसुंदर न आए। रात को आने की तो कुछ आस थी ही नहीं, भोर ही शीघ्र उठने के लिए साँझ ही सब काज पूरा कर चुकी और जल्‍प आहार कर आठ बजे तक लंबी तान सो रही जिसमें सकारे नींद खुलै। रैन से चैन नहीं मिला - नैन प्रान प्रियतम के दर्शन के लिए प्‍यासे रहे। नींद न लगी ज्‍यौं त्‍यौं कर निशा काटी। इस पाटी से उस पाटी करोंटे लेती रही। झपकी भी न ले पाई थी कि रात रहतेई बड़े भोर तमचोर बोला। घर के सब सोए थे। वृंदा को जगाया और तरैयों की छाया रहते स्‍नान को चली। घाट तो निकट ही था - सूधी वाट धर ली। मेरी एक और परोसिन थी, उस्‍से मैं सब अपने मन का भेद कह देती और वह मेरी तथा वृंदा की भी प्रणोपम सखी थी। मेरी ही जाति होने के कारन और भी घनी प्रीति लग गई थी। जब समय पाती वह मेरे घर और उसके घर बैठने आती जाती। इसका नाम सुलोचना था - सुलोचना क्‍या यदि इसका दुःखमोचना भी नाम धरते तो भी कुछ सोचना न था, यह मेरे लिये सचमुच दुःखमोचना थी। वृंदा ने इसे भी जगाया और जब हम तीनों नहाने चलीं। हम तीनों पढ़ी थीं - यह और आनंद था - रास्‍ते में वृंदा ने छेड़ा - “क्‍यौं गुइयाँ आज हमें अवश्‍य पेड़ा खाने का मिलेगा न - अचरज नहीं कि भोर ही कलेवा के समय मेवा मिलै।”

सुलोचना ने कहा - “पेड़ा तो नहीं पर भेड़ा अवश्‍य मिलैगा। भला कहु तौ आज पेड़ा की भोरही को सूझी - क्‍या पेड़ा ही पेड़ा तो नहीं सपनाती रही?”

वृंदा बोली - “नहीं गुईं, इसमें बड़ा भेद है, उसे सुनोगी तो छाती में छेद हो जायगा पर मैं कुछ नहीं जानती - श्‍यामा से पूछ इसका भेद वही बतावेगी।”

मैं त्‍यूरी चढ़ाके बोली - “ऐसी हँसी मेरे मन नहीं भाती। भला मैं क्‍या जानूँ, वृंदा बड़ी ठठोल है।”

सुलोचना बोली - (हँसकर) “ठठोल है तभी तौ ढोल पीटेगी। मैं क्‍या जानूँ - वृंदा से पूछ वही आज सवेरे से 'पेड़ा पेड़ा' बक रही है।”

वृंदा हँस पड़ी, कहने लगी - “यह कलजुग का तो पहरा है - जिस्‍के हित की करै वही उलटा चिढ़ती है। भला गियाँ! तू ही सोच मैंने श्‍यामा के विषय में कुछ बुरा कहा” - मैं जी मैं जान गई कि इन दोनों ने जान लिया - क्‍या करूँ कुछ कहा नहीं गया। कहा कैसे जाय - सच्‍ची बात को झूठी करने में बीस और झूठ मिलानी पड़ती है और सखियाँ जान भी गई तो क्‍या हानि, लोक जानता है और जानैगा तो इस्‍से भला यही है कि सखीं जान जायँ। भला ए तो बने बिगरे में काम आवैंगीं और लोग क्‍या साथ देंगे - ऐसा सोच विचार मन में कहा, “कुछ चिंता नहीं।” मैं बोली, “राम राम तुम कभी मेरे लिये बुरा कहोगे वा करोगी, यह तुम्‍हारी बड़ी भूल है जो ऐसा सोचती हो, भला अब तुम्‍हीं कहो क्‍या बात है?”

सुलोचना ने कहा - “मैं क्‍या जानूँ वृंदा पेड़ा पेड़ा चिल्‍लाती है, उसी से पूछ” -

वृंदा हँसी - बड़े जोर से खख्‍खामार के हँसी और बोली - “बुरा न मान तो अब कही डारूँ, कहने में क्‍यौं रुकूँ।” मैंने कहा - “भला तुझ से कभी बुरा माना है कि आज ही मानूँगी - कह न जो कहना हो”' छाती धरक उठी - करेजा कँप उठा - साहस कर सुनने लगी।

“उस दिन अटारी का ब्‍यौरा अब तूही कह डार - क्‍या हुआ। मैंने क्‍या नहीं देखा। पर तू मुझसे आज तक छिपाये गई - क्‍या मैं मिट्टी पत्‍थर की थोड़ ही बनी हूँ जो इतना देख सुन के भी न जानूँ - मैंने तुझसे कुछ नहीं कहा - आज तक चुप रही पर सुलोचना से सब कुछ कह दिया था - विश्‍वास न हो तो पूछ ले। फिर जब तेरे चितचोर ने तुझे जाते समय बुलाया और विलाप किया - क्‍या वह सब मैं नहीं जानती, मैं तो तेरे अनजाने में इसी छेद (छेद को उँगली से दिखाकर) से सब कुछ देख लिया था। कुछ चिंता की बात न थी। मुझसे कहती तो क्‍या मैं दगा देती, पर तेरा सुझाव सदा का कपटी है। जनम भर एक साथ रही तौ भी जी की मुझसे न कही। भला कुछ हानि नहीं - आज तुम मुझै न खिलावोगी। मैंने कल्‍ह संध्‍या को टोले में श्‍यामसुंदर के आने की चर्चा सुनी - सो क्‍या तू नहीं जानती। कैसी अज्ञान बन गई है - देख तो सुलोचना तू इसकी चतुराई नहीं परखती क्‍या? तो आज तेरा इतना सवेरे स्‍नान करने का क्‍या प्रयोजन था। और दिन तो ऐसा नहीं होता था। आज यह नवीन ठाठ। वाह री भोरी! क्‍यौं न हो!”इतना कह आगे बढ़ी।

मैंने कहा, “क्‍या तूने मुझसे कभी पूछा भी था कि वृथा कपट का कलंक लगाती है?”

वृंदा ने कहा - “ठीक है री श्‍यामा ठीक है - क्‍यौं न हो, तू ऐसी न पढ़ी होती तो ऐसी बातैं क्‍यौं बनाती। भला जो कुछ हुआ सो हुआ। अब यह बताव कि यदि आज श्‍यामसुंदर आवै तो मेरा मुख मीठा करैगी वा नहीं - सत्‍य ही कह दे। आज मैं क्‍या इनाम पाऊँगी। सत्‍य ही कहना। तिल भर भेद न रखना” -

सुलोचना बोली - “मेरा भी उस इनाम में भाग रहैगा कि नहीं - फिर तेरा सब काम तो हमीं लोग सुधारैंगे” मैंने कहा - “जो चाहो तुम लोग कह लो अब तो फँस ही गई। तुम लोगों से कुछ असत्‍य थोड़ ही कहना है, सब तो जान ही गईं अब मेरे ही मुख से सुनने में क्‍या बात लगी है। क्‍या तुम्‍हारे ऊपर कभी नहीं बीती?”

वृंदा और सुलोचना बोलीं - “नहीं थोड़ ही कहते हैं - सभी पर बीतती है, पर हम तो तेरे कपट पर इतना कहा नहीं तो जैसा चाहती वैसा ही होता - “

मैंने कहा - “तो अब क्षमा करना - श्‍यामसुंदर आज आते होंगे। मुझे उनके दरसन का बड़ा चाव है। सखी सुलोचना कैसा करूँ रहा नहीं जाता -

सखी हम कहा करैं उनके बिन।

वह मोहिनि मूरति छिन छिन में झूलति नैनन निसिदिन॥1॥

उठत बैठत निसिवासर डोलत बोलत जितवत।

घर के काज अकाज किए सब जग सुख दुःखमय बितवत॥2॥

कुछ न सुहात बात सुनु एरी मात पिता परिवार।

हिए में बसत एक उनकी छबि वे पवि हृदय विचार॥3॥

हँसनि कहँनि बतरानि माधुरी खटकत जिय दिन रैन।

पै उनके बिनु कल न परै पल अलि औरौ निशि चैन॥4॥

सोवत जगत डगत मनमोहन लोचन चित्र मझार।

आधी रात सुरति जब आवति हूलै विरह कटार॥5॥

कैसी करौं सुलोचनि वृंदा - कटै न श्‍यामा रात।

कही सुनी जो श्‍यामसुंदर ने सो खटकत दिन जात॥6॥

यदि आज आ गए तो अच्‍छा होगा - नहीं तो मेरा दुःख फिर दूना हो जायगा - पर देख अभी मेरी बाईं आँख और भुजा दोनों फरके, सगुन हुआ अब चिंता गई - तो चल शीघ्र ही स्‍नान करके घर चलैं नहीं तो माँ खीझैगी, इतने में काक का बोल सुन श्‍यामा (मैं) ने कहा -

“सुनि बोल सुहावने तेरे अटा यह टेक हिए में धरों पै धरों।

मढ़ि कंचन चोंच पखौवन ते मुकता लरें गूथि भरों पै भरों॥

तुहि पाल प्रवाल के पींजरा में अरु औगुन कोटि हरों पै हरों।

बिछुरे पिय मोहि महेश मिलैं तुहि काक ते हंस करों पै करों॥”

सुलोचना ने कहा - “आज श्‍यामसुंदर का आना ध्रुव है टोले में तो कल्‍ह से उनके आने की चर्चा हो रही है।” वृंदा सुलोचना और मैं नहा धो घर आईं - गृह के कृत्‍य किए - और ऊपर की खिरकी से उनकी अवाई की प्रतीक्षा करने लगीं - भोर हुआ, चिरैयाँ चहचहाने लगीं, गाय और बछरू का शब्‍द सुनाने लगा। अहीर लोग गैयाँ दुहने लगे। अरुणोदय हुआ। मारतंड का मंडल दिखने लगा। लोग भैरवी गाने लगे। सब लोग अपने अपने इष्‍टदेवता की मूर्ति पूजते थे पर मैं श्‍यामसुंदर की समाधि लगाकर उन्‍हैं ध्‍यान मैं पूजती थी। इस प्रकार की पूजा सबसे उत्तम होती है, एक घंटा दिन चढ़ा, दो घंटा बीता, तीसरी घड़ी में नदी के उस पार कुछ मनुष्‍य दिख पड़े - फिर कुछ घोड़े दिखाने - मेरे जी में तो धक्‍का सा लगा। मैं हक्‍का बक्‍का हो गई, जी कूद उठा। छिन भर डिरा सी गई, फिर खड़ी होकर देखने लगी। मेरे घर की अटारी बहुत ऊँची थी, उस पर से बहुत दूर का दिखाता था, उसी पर से देखने लगी। घोड़ा ज्‍योंहीं निकट आता था मुझे यही जान पड़ता था कि वे ही हैं। अंत को नदी के उस तीर पर आया। पानी टिहुँनी तक रहने के कारन नाव की अपेक्षा कुछ न थी। घोड़ा पानी में हिला, पानी पीने लगा। फिर साँस लेने को सिर उठाया, फिर ग्रीवा झुकाई और कुछ पीपा के आगे चला। वह आया - वह आया - जी में इतना हर्ष हुआ कि वृंदा न होती तो मैं कब की नीचे दिखाती। वे इस पार आए, अचानक आ गए। किसी प्रतिष्ठित को यहाँ से आगे जाने का अवकाश न मिला कि आगू चल के ल्‍यावै - वे कदाचित् यही चाहते थे - घाट पर आए, घाट से उनके कुटीर की दो राहैं फूटी थीं - एक तो सूधी वंशीवट के तरे से होकर, दूसरी सूधी मेरे घर के तरे से होकर उनके घर को जाती थी। यह दूसरी राह टेढ़ी थी-पर उन्‍हें इसकी क्‍या चिंता जो सोचते। यह तो राह ही टेढ़ी थी जो उनने धरी। सूधी वाट छोड़ मेरी ही गली से निकले।

“जहाँ तल्‍वार चलती है उसी कूचे से जाना है”

यहाँ पहुँचते ही उनकी आँखैं कोने कोने दौंड़ीं मानौ मुझे ही ढूँढ़ती थीं - मैं तो ऊपर की खिरकी से उन्‍हैं निहारती थी। वे तो घोड़े पर थे। खोर में इधर उधर देखा -कोई न दिखा तब अपने कलेजे से पलाश की डार मय गुच्‍छे के मुझै हाथ से चौंका दिया - बोले कुछ नहीं पर चार आँखें हो गईं - हिये से हिया, दूर ही से मिल गया, ललाट खुजाने के मिस मुझै प्रणाम किया, वृंदा को देख हँस पड़े। सुलोचना की ओर टेढ़ी दृष्टि कर चले गए। घर के सन्‍मुख घोड़ा खड़ा कर दिया उतरे और कई भले आदमियों से कुछ सूक्ष्‍म वार्तालाप कर भीतर चले गए। वह दिन तो किसी प्रकार से कट गया पर होनहार न जाने क्‍या थी। श्‍यामसुंदर कई दिन तक मुझसे न मिले - मैं एक दिन सोचने लगी - 'हाय मुझसे क्‍या कोई अपराध हो गया है जो श्‍यामसुंदर सुधि तक नहीं लेते' - ऐसे सोच विचार करते करते कई घड़ी व्‍यतीत हो गईं। मैं नहीं जानती थी कि श्‍यामसुंदर भी उधर विरह अगिन में पच रहे हैं और केवल मेरे प्रेम की परीक्षा लेने की कोई युक्ति विचारते हैं। थोड़ी देर के उपरांत उन्‍ने मेरा स्‍मरण किया, पूर्ववत् सत्‍यवती को बुलाके मुझै बुलवाया और मैं उसी कविताकुटीर में गई। श्‍यामसुंदर मुझै देख उठ खड़े हुए - मेरा हाथ धर लिया और बड़े प्रेम से अपने कुरसी के निकट मुझे भी कुरसी दी, पर मेरी देह झुरसी सी देख खेद करने लगे और बार बार मेरा कुशल प्रश्‍न पूछा। नैन सजल हो गए - मैं भी सिसकने लगी। कुछ समय तक यही लीला रही। अंत को उनने कहा - “क्‍यौं अब मैं प्‍यारी कह सकता हूँ न - हाँ - तो प्‍यारी तुम्‍हारा अंत का पत्र मुझै दो दिन हुए मिला था” - इस पत्र को खीसे से निकाल पढ़ने लगे -

इस जगह को किताब से स्कैन करके भरना है... पेज - 69

इसको बाँच कर कहा - “क्‍यौं यह तुम्‍हारी ही लिखी है न?”

मैंने उत्तर दिया - “हाँ - है तो” -

श्‍यामसुंदर ने कहा - “फिर अब क्‍या मरजी है?”

मैंने कहा - “क्‍या मरजी - मरजी तो सब आप ही की चाहिए मैं तो तुम्‍हारी दासी के तुल्‍य हूँ” -

उन्‍होंने कहा - “मुझै इस बार यात्रा में बड़ा दुःख हुआ - प्राणयात्रा केवल प्राण बचाने को होती थी नहीं तो सचमुच आज तक प्राण की यात्रा हो जाती, तब तुम्‍हारे मुखचंद्र का कौन दरसन लेता।

नाम पाहरू रात दिन ध्‍यान तुम्‍हार कपाट।

लोचन निज पद यंत्रित जांहि प्रान केहि बाट॥

श्‍यामा श्‍यामा सामरी श्‍यामा सुंदर श्‍याम।

श्‍यामा श्‍यामा रट लगी श्‍यामा प्‍यारो नाम॥

बस इतने ही से सब समझ जाना।”

मैं कुछ विलंब तक सोचती रही कि क्‍या उत्तर दीजिए, पर श्‍यामसुंदर ने उठकर मेरा चुंबन लिया और बोले, “अब क्‍या विलंब करती हो - कुछ तो कहो -

हौं अधीर तुअ सामरी तुम बिनु जी अकुलात।

देह दसा तेरे सुमुख क्‍यौं न पसीजत जात - ॥”

मुझे तो कविता बनाना ज्ञात न था - उत्तर में पुराने दोहे कहे -

“प्रीति सीखिए ईख सौं जहँ जो रस की खान।

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं यही प्रीति की बान॥”

श्‍यामसुदंर झटपट बोले -

“प्रीति सीखिए ईख पै गाँठहिं भरी मिठास।

कपट गाँठ नहिं राखिए प्रीति गाँठ दै गाँस॥

और भी प्‍यारी देखो विहारी ने कहा है -

दृग अरुझत टूटत जुरत चतुर चित प्रीति।

परत गाँठ दुरजन हिए दई नई यह रीति॥”

मैं हाथ जोर के बोली - “तुमसे कौन बराबरी करै - तुम पंडित और सर्वज्ञ हौ - जो चाहो सो कहो - पर कुछ लोक लाज, वेद तो समझो तुम्‍हैं कौन सिखावे”- श्‍यामसुंदर खड़े कँपते थे, बदन का थरथराना मैंने लखा। लिलार, कपोल और हाथों में पसीना आ गया, स्‍वर भंग और प्रलय के लक्षण लक्षित थे - पलकों में आँसू झलके -बैन सतराने लगे - रोमांच हो आया, मुख विवर्ण को प्राप्‍त हुआ, गात्र भी स्‍तंभ हो गया। श्‍यामसुंदर गिरने लगा - मैंने सम्‍हारने को किया पर तब तक वह भूमि पर आ गया मेरे चरण के नीचे गिर पड़ा, मैं अपने को ऐसी भूल गई कि मंच से न उठी, मेरा भी वही हाल हो गया था, पर शरीर में बुद्धि बनी रही। श्‍यामसुंदर को हूँत कराया - पर वे न बोले, मैंने फिर बुलाया, वे बड़े कातर हो गए थे, गद्गद स्‍वर से कुछ बोले पर मैं कुछ समझी भी नहीं, कातर नैनों से मेरी देखने लगे। मैंने अपने तन की ओर देखा फिर उनको देख, लज्जित हो गई। मुख नीचे कर लिया, एक पोथी के पत्र गिनने लगी, भूमि को पद के अँगूठे से खोदने लगी। आँख में आँसू की धार चलने लगी, ऊपर देखा न जाता था - साहस कर ऊपर निहारी, फिर मुख नीचा कर लिया। लंबी साँस ली, नैनों का जल आँचर से पोंछ डाला और श्‍यामसुंदर के मुख की ओर एक बार और साहस कर बोली - “मान्‍यवर! प्‍यारे! यह क्‍या व्‍यापार है? यह किस वेद का मार्ग है, यह किस न्‍याय की फक्किका है - किस वेदांत शास्‍त्र का मूल है - वा मोक्ष का उपाय हैं - कै तप का नियम है - वा स्‍वर्ग जाने की नसेनी है - मैं तुम्‍हारी दशा भली भाँति समझती हूँ पर इसी से तुम जान लोगे जब मैं कहोंगी कि 'ईश्‍वर की ओर ध्‍यान लगावो' - कि मैं स्‍त्री जाति और बाला भी होकर निर्बुद्धि नहीं हूँ - मुझे भी तो किसी का डर भय है कि नहीं - अकेली तो नहीं हूँ - माता पिता सुनके क्‍या कहैंगे - तुम तो निर्भय हो - पर मैं तो परवश हूँ - क्‍या ए सब तुम नहीं जानते - और भी धर्म अधर्म कुछ विचार है कि नहीं - कहाँ तुम और कहाँ मैं वर्णों में कुछ भेद है कि नहीं, भला इन सबों को तो सोचो - कहो क्‍या कहना है?”

श्‍यामसुंदर आँसू भरकर बोले - यदि शास्‍त्र तुमने बाँचा हो तो मैं कहूँ - न्‍याय वेदांत और वेदों का भेद यदि तुम जानती हो तो कहो? मेरी बात का प्रमाण करोगी वा नहीं? मेरी दशा देखती हौ कि नहीं? धर्म अधर्म की सूक्ष्‍मगति चीन्‍हती हो तो कहो? सुनो - धन्‍य है तुम्‍हारे वज्रमय हृदय को जो तनिक नहीं पिघलता मेरी ओर देखो और अपनी ओर देखो। मेरी करुणा और अपनी वीरता देखो। वेद शास्‍त्र की बात का यह उत्तर है - जो मेरे प्रवीन मित्र ने कहा है -

लोक लाज की गाठरी पहिले देहु डुबाय।

प्रेम सरोवर पंथ में पाछे राखो पाय॥

प्रेम सरोवर की यहै तीरथ गैल प्रमान।

लोकलाज की गैल को देहु तिलंजुलि दान॥

सो यह तो तुम कर ही चुकी हो। न मानो तो अपने पत्रों ही को देख लो। भला अपने लिखे का प्रमाण मानोगी कि नहीं? (संदूक से निकाल कर) भला देखो तो ये किसके हस्‍ताक्षर हैं? तो बस तुम्‍हारे मौन ने मेरे वचन को पुष्‍ट कर दिया - अब रहा धर्म अधर्म, उसका भी एक प्रकार से उत्तर हो चुका - नलदमयंती-दुष्‍यंतशकुंतला-राधाकृष्‍ण-विद्यासुंदर - इत्‍यादि गांधर्व विवाह के अनेक उदाहरण मिलैंगे - द्वापर में विशेष करके - और यह भी तो द्वापरयुग है न जहाँ भगवान् यदुनाथ स्‍वयं यादवों के सहित विराजमान हैं तो फिर अब क्‍या रहा - जब कहोगी यदुकुलचंद्र से स्‍वयं पुछवा देंगे।

यह ग्राम का नाम भी तो श्‍यामापुर किसी भले पुरुष ने धरा है - यहाँ की गली और खोरों में - यहाँ के वनों में - यहाँ के आराम अभिराम में - यहाँ के शेल पर्वतों में - यहाँ के नवग्राम और पुरातन ग्राम में - यहाँ के विलासी और विलासिनियों के सहेट निकुंज में - यहाँ के नदी नालों और निर्झरों के वाट में - जब तक सूर्य्य चंद्र हैं श्‍यामा श्‍याम सुंदर के प्रीति की कहानी चलैंगी, तौ प्‍यारी इतनी दूर चढ़ा के अब क्‍यौं हटती हौ! वर्णों के संबंध में कुछ दोष नहीं, देवयानी और ययाति के पावन चरित अद्यापि भूमंडल को पवित्र करते हैं। बस यह सब समझ लो - मुझ दीन के अनुराग और भक्ति को क्‍यौं तुच्‍छ करती हौ; यदि हमारी सेवा तुम्‍हैं भली न लगी हो तो उसकी बात ही निराली है - नहीं तो - बस अब आज्ञा दो” - इतना कह मेरे चरणों पर लोट गया। मैंने उसका सिर उठा कर दोनों जाँघों के बीच में रख लिया। बहुत प्रबोध दिया उन्‍हैं उठाय छाती से लगाया और बोली - “सुनो प्रान - तुम हमारे जीवन धन हौ, इनमें संदेह नहीं - मेरे तुम और मैं तुम्‍हारी हो चुकी। तुम्‍हारी प्रीति की परीक्षा हो चुकी - पर शीघ्रता मत करो - मैं तुम्‍हैं अवसर लिख भेजूँगी - सुलोचना और वृंदा सहाय करैंगी। सत्‍यवती न जानै - तब तक न जानै जब तक कार्य की सिद्धि न हो। तो मुझे विदा दो, सोचने का अवसर दो - और मेरे सुंदर उत्तर का पंथ जोहते रहो -अब मैं जाती हूँ -” इतना कह चलने को उद्यत हुई कि श्‍यामसुंदर ने मेरे हाथ धर एक बाहु मेरे गले में डाल दिया, अधरों को मेरे अधरों के पास ला बोला - “यदि आज्ञा हो तो एक बार सुधारस पीलें” - मैं चुप रही। श्‍यामसुंदर मेरा चुंबन ले बोले - “लो प्‍यारी हमारी तुम्‍हारी शुद्ध प्रीति का अंतिम चुंबन है - लो - बार बार लो।”

मैंने बड़े प्रेम से चूमा लिया पर लाज के मारे फिर सिर न उठा सकी - और चादर ओढ़ नैनों को छिपा घर के ओर चली।

श्‍यामसुंदर तब तक देखते थे जब तक मैं उनके नैनों के ओट न हुई। अंत को मोड़ के पास पहुँचते ही एक बार हाथ जोड़कर उन्‍हें प्रणाम किया और वे ललचौंही नजर से मुझै देखते रहे। अब तो संध्‍या हो गयी थी। गली चलती थी - दीप प्रज्‍वलित थे - मुझै नाहक श्‍यामसुंदर इतनी देर विलमाए रहे थे - पर यह तो प्रेम का झोंका था - प्रेम कथा की धारा कभी रुक सकी है - ज्‍यौंही मैं मोड़ से अपने घर की ओर मुड़ी विष्‍णुशर्मा आ पहुँचा, लाल बनात का कानों को ढकनेवाला टोपा दिये रंगीन कौपेय का दोगा पहिने हाथ में कमंडलु लटकाए - श्‍वेत धोती पहिने - गटर माला गले में - पनाती बस्‍ते में पाठ की पोथी काँख में दबाए - नंगे पैर त्रिपुंड धारन किए - भस्‍म चढ़ाए - लंबी लंबी छाती को छूनेवाली श्‍वेत डाढ़ी फटकारे तांत्रिक का रूप बनाए आ पहुँचा - इसे देख मैं ऐसी डरी जैसे बाज की झपेट में लवा लुक जाता है वा सिंह को देख हरिनी सूख जाती है - बलिपशु जैसे यजमान को देखै - सर्प के सन्‍मुख छछूँदर - सिंचान के आगे मुनैया इनकी ऐसी गति मेरी भी उस समय हुई। आगे पाँव न उठे -कँपने लगी - करेजा धड़क उठा - पीली हरदी के गाँठ सी सूख गई - यद्यपि उन्‍होंने अभी तक कुछ भी नहीं कहा था तौ भी भयभीत हो काँपती थी - सच पूछो तो चोर का जी कितना - विष्‍णुशर्मा मुझे देख ठठके गृध्र दृष्टि से मुझे देखा और चीन्‍ह लिया, इनने मुझे श्‍यामसुंदर के कुटीर से निकलते देख लिया था या धनेश नाम के महाजन के द्वारे से देखा यह नहीं कह सक्‍ती पर जैसा मैं अभी कह चुकी मैं सूख तो गई थी। विष्‍णुशर्मा से और मुझसे कुछ नाता भी लगता था पर संबंध बहुत दिन पहले से टूट गया था। यही तो और भी भय का कारण था - विष्‍णुशर्मा बोला - “बाई कहाँ गई थी?”

मैंने कहा - “दर्शन के लिए।”

विष्‍णु - “अकेली रात को क्‍यौं गई?”

“अकेली तो नहीं थी वृंदा, सत्‍यवती, सुलोचना इत्‍यादि सभी तो रहीं - वे अगुआ गईं मैं पीछे रह गई थी” - इतना कहकर मैं शीघ्र चली और फिर उसको और पूछने के लिए अवसर न दिया। विष्‍णुशर्मा कुछ हकलाता था, इसी से दूसरा प्रश्‍न करने में विलंब लगा। इतने में तो मैं घर पहुँची और माँ के पास बैठी। माँ ने उस दिन कुछ पपची इत्‍यादि पक्‍वान्‍न बनाए थे। मुझसे खाने को कहा और मैं उधर सुमुख हुई। विष्‍णुशर्मा अपने घर गया पर मन में ये सब बातें गुनता गया। उसके मन में भरम पड़ गया था पर कोई प्रमाण न होने के कारण मौन रह गया तब भी जब अवसर पाता आपुस के लोगों में निंदा कर बैठता। श्‍यामसुंदर के भय से सभी काँपता था। जानबूझकर भी सभी अनजान सा बन जाता। यहाँ के एक और ग्रामाधीश महाशय थे। उनका नाम वज्रांग था। जैसा नाम वैसा ही गुण भी था, उनका नाम सुनते ही सब दुष्‍ट थर्रा जाते। प्रजा तो उनके हाथ की चकरी थी। भले और दुष्‍ट सभी मैन के नाक थे, जैसा कहते वैसा करते, उनके डर से शत्रुओं की अबला सदा रोया करतीं, शत्रु लोग स्‍वयं इधर निःशंक भ्रमन करने में शंकित रहते थे। इनका कुल सदा से उद्दंडता में विख्‍यात चला आया है। इनके पिता द्विजेंद्रकेसरी की कहानियाँ अद्यापि कही और गाई जाती हैं - जिस सुबली की संधि के निमित्त विदित शूरवीर कंचनपूराधीश ने भी पयान किया। बहुत कहाँ तक कहूँ -

“इंद्र काल हू सरिस जो आयसु लाँघै कोय।

यह प्रचंड भुजदंड मम प्रतिभट ताको होय॥”

ये महाशय श्‍यामसुंदर के परम मित्र और सहायक थे। सब विद्या लौकिक इन्‍हैं आती थी। सब बातों में कुशल-मुशल से उद्दंड भुजा - सदा कुशलपूर्वक सकुटुंब यहीं रहते थे। विष्‍णुशर्मा ने वज्रांग से सब कुछ कह दिया। वज्रांग ने हँस कर इन्‍हें डाटा और कहा, “तुम मौन रहो - तुमसे कुछ संबंध नहीं - अपनी सूधी राह आया जाया करो -” उस दिन से विष्‍णुशर्मा ने अपना मुँह सी लिया। पर चार कान होते ही बात बिजुली की चिनगारी की भाँति चारों ओर विथर जाती हैं। मेरे पिता ने भी किसी भाँति सुन लिया। इधर उधर अपने सखों से पूछताछ की पर कुछ जीव न पाया इसी से चुप रहे - पर मुझै संदेह है कि क्‍या वे हमारा और श्‍यामसुंदर का प्रेम नहीं जानते थे। क्‍यों नहीं? अवश्‍य, पर क्‍या प्रेम रखना बुरा है? प्रेम न रक्‍खै तो क्‍या द्वेष? अब उस बात से कुछ प्रयोजन नहीं। जिसके जी की वही जानैं - मुझै क्‍या पड़ी थी जो खुचुर करती। किंचित् काल में सब भूल गए - मैं तो यही जानती थी कि किसी को कुछ ज्ञात नहीं, इसी में भूली रही। क्‍या करूँ ऐसे समय में ऐसा ही होता है। इसी से सब कहते हैं प्रीति अंधी होती है। इसमें उपहास और निंदा सभी होती हैं पर जो मनुष्‍य इसमें फँसता है उसै कुछ भी नहीं सूझता। सूझै कैसे - आँख हों तब तो सूझै -

नेकु अवलोकँ जाके लोक उपहास होत

ताही के विलोकिबे को दीठि ललचात है।

जाही विरहागि से दमार सी लगी है देह

गेह सुधि भूली नेह नयो दिन रात है।

कैसे धरो धीर सिंह विकल शरीर भयो

पीर कहा जानै री अहीर बाकी जात है

मन समुझाय कीन्‍हौ केतिक उपाय तऊ

हाय कथा एते पर वाही की सुहात है॥

गतागत कई दिन बीते, श्‍यामसुंदर मेरे उत्तर का मग जोह रहे थे। मैं ऐसी निठुर हो गई कि कुछ नहीं लिखा। कारन इसका कुछ कपट या दगा नहीं था - केवल सकुच और लाज थी और ए दोनों स्‍वाभाविक थीं - अंत को श्‍यामसुंदर ने मुझै एक पत्र लिखा -

“प्रानप्‍यारी,

दोहा

“बरखि परुख पयद पंख करी टुक टूक।

तुलसी परी न चाहिए चतुर चातकहिं चूक॥

मग जोहते एक कल्‍प बीत गया। मन का मनोरथ सब मन ही में रीत गया। यह अनरीत कहाँ सीखी। परतीत देकर यह विश्‍वासघात! बलिहारी है! धन्‍य है। लाज नहीं लगती है? “चिरी को मरन बालकन को खेल है” - क्‍यों - ऐसा ही है न? हम इस पाती में तुम्‍हारी उस दिन की बात कुछ भी नहीं लिखते, वह तो सब तुम्‍हारे स्‍मृति के फलक पर लिखी ही होगी। तो सब विलंब क्‍यौं करती हौ। मैं अपनी दशा क्‍या लिखूँ - जो न जानती हो तो लिखूँ। प्रेम का हमारा तुम्‍हारा तत्‍व एक तो है, मन मेरा तुम्‍हारे पास है। सो प्‍यारी तुम मेरे मन को जानती हो, उसी पूछोगी तो सब खुल जायगा। बस पर इस दोहे को समझ के उत्तर शीघ्र देना - नहीं तो इधर कूच है,

दुखित धरनि लखि बरसि जल

घनउ पसीजे आय -

द्रवत न तुम घनश्‍याम क्‍यौं,

नाम दयानिधि पाय -

तुम्‍हारा

तृपित,”

इस पत्र का मेरे पर बड़ा असर हुआ। मेरे हृदय में सब बातैं व्‍याप गईं। मैं हाथ पर हाथ धरे रह गई। मन शोच-सरोवर में पड़ गया क्‍या लिखूँ और क्‍या न लिखूँ, यही जी में समानी। समय और अवसर के ओर विचार किया। मन कोई भाँति नहीं मानता था और मैं ये दोहे एक बेर श्‍यामसुंदर के पास कह चुकी थी -

मन बहलावत दिन गए महा कठिन भइ रैन।

कहा करौ कैसी करौ बिनु देखे नहिं चैन॥

छिन बैठे छिन उठि चलै छिन छिन ठाढ़ी होय।

घायल सी घूमत फिरे मरम न जानत कोय॥

और सत्‍य भी था। अब क्‍या उत्तर देवँ यही सोचती थी। यह तो जान गई कि जो उत्तर मैंने अपने जी में विचारा है वह कदापि उन्‍हैं भला न लगेगा पर जो काज रह के होता है वह अच्‍छा होता है। मैंने यह पत्र अंत में लिखा।

“प्राणधन! जीवन आधार! मेरी रात राम अंतःकरण से लेव तुम शीघ्रता बहुत करते हो। अवसर को नहीं परखते, यहाँ के भी वृत्तांत पर कुछ ध्‍यान धरो। मैं सब भाँति तुम्‍हारी ही हौं, लेव - अब प्रसन्‍न हुए? मैं तुमसे अवश्‍य मिलूँगी। बस बात दे चुकी हार दिया। “प्राण जायगा पर प्रन नहीं जायगा” दो बेर थोड़े ही जन्‍म होगा कि बात बदलैं। पर मेरी विनय यही है जो आप मानिए।

दोहा


कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।

समय पाय तरुवर फरै केतिक सींचो नीर॥

क्यों कीजे ऐसो जतन जाते काज न होय।

परवत पर खोदै कुओं कैसे निकसै तोय॥

सुधरी विगरे वेगही विगरी फिर सुधरै न।

दूध फटे कांजी परैं सो फिर दूध बनै न॥

मैं फिर लिखूँगी। क्षमा करना।

तुम्‍हारी नेह देह तरुवर की

श्‍यामालता।”

इसपत्र को बाँचते ही श्‍यामसुंदर को हर्ष विषाद दोनों एक संग ही उपजे। हँसे और आँसू गिराए। सुलोचना से कहा जाव मेरी दशा कह देना और क्‍या कहूँ - इतना कह मौन हो गए। पत्र को फिर फिर बाँचा। हृदय में लगाकर कहा -

“श्लिष्‍यति चुंबति जलधर कल्‍पम्

हरिरूपगत इति तिमिरमनल्पम्।

निराश से हो गए। मुख से कुछ नहीं कहा भीतर चले गए। फिर बाहर आये। वसन धारन कर निकल पड़े, अकेले थे कोई अनुचर को भी साथ में न लिया। नदी के तीर घूमने लगे। चक्रवाक के जोड़े देखकर रोने लगे। फिर आँसू पोंछ आगे बढ़े, दूर ही से मुझै घाट में नहाते देख ठठुके। मैंने भी उन्‍हैं देख लिया, विलंब किया अंत को जब सब घाटवारी नहा धो के चली गईं - श्‍यामसुंदर आगे बढ़े, जहाँ मैं थी वहाँ तो कोई न था पर यदि दूसरे ओर कोई रहा भी हो तो मैंने देखा, उन्‍होंने भी नहीं देखा, बस मेरे पास आ गए, ऐसे दीन हो बोले कि मेरा जी नवनीत सा पिघल गया। मैं उन वचनों को क्‍या कहूँ - कहे नहीं जाते - छाती फटी जाती है, सुधि करते ही जी टूक-टूक होता है मुझै स्‍मरण मत करावो -” इतना कह श्‍यामा की बुद्धि भ्रंश हो गई - पुरातन वृत्तांत मन नेत्रों के सन्‍मुख नाचने लगा - मैंने कहा, “श्‍यामा - तुम्‍हारी संज्ञा कहाँ गई - इस विचारे श्‍यामसुंदर अभागे की कथा पूरी कर”- इतना कह प्रबोध किया।

श्‍यामा बोली - “मैं उनका विलाप नहीं कर सक्ती - अपने को अभागिनी तो कही दिया है। श्‍यामसुंदर मूर्छित होकर गिर पड़े - मैंने सोचा यह क्‍या अनर्थ हुआ। घाट की बाट - कोई न कोई आ ही जावै तो मेरी कितनी भारी दुर्दशा हो, और इधर इन्‍हैं छोड़ चली जाऊँ तो भी तो नहीं बनता। मैंने मन में कुछ ठान उनका हाथ पकड़ बोली - “उठो तो सही। मैं क्‍या भगी जाती हूँ जो तुम इतने अधीर हो गए। वाह - तुम तो पुरुष और मैं स्‍त्री हूँ - पर तुम में मुझसा भी धीरज नहीं है - उठो यह क्‍या करते हो -” ऐसा कह के उठाया। श्‍यामसुंदर उठे और मेरे कंधे के आसरे से खड़े हो गए। मैंने कहा, “यह क्‍या करते हो - मुझै घाट पर मत छुवो कोई दुष्‍ट देख लेगा तो वही विष्‍णुशर्मा - याद है न - उसी दिन सा हाल होगा।”

श्‍यामसुंदर ने उत्तर दिया - “मैं तो जानता हूँ - पर सुनो अब मुझै अधिक न सतावो। धीर नहीं धरा जाता।” इतना कह मुझै छाती से लगाया - मेरे कटि को बाँह में ले भली भाँति चुंबन कर अति गाढ़ आलिंगन किया। मैं तो जल का कलस माथे पर धरने लगी थी न तो इसे उतार सकी और न धर सकी। श्‍यामसुंदर ढीठ तो थे ही - मुझै एक परग भी आगे बढ़ने न दिया - मैं उनसे हार गई थी। कितना समझाया पर उनके मुख से यही निकला।

अधर कुसुम कोमल ललित तृषित मधुप रस लीन।

पिय न वाहि दै मधुर मधु गुनि ता कहँ अति दीन -॥

मैं हैरान हो गई इनसे, इनके मारे घाट भी छूटा सा जान पड़ैगा, मैंने चिरोरी किया “यह क्‍या करते हो।” इतना ज्‍यौंही कहा कोई दूर से ठुमरी की धुनि में यह कवत्ति गा उठा। हम लोग ठठक गए और एक दूसरे की ओर निहारने लगे - मुख से बात भी न निकली। ओठों पर हम दोनों के लखौटा लग गया और गीत सुनने लगे।

“छूटो गृह काज लोक लाज मनमोहिनी को

भूलो मनमोहन को मुरली बजायबो

देखि दिन द्वै में रसखान बात फैल जैहैं

सजनी कहाँ लौं चंद हाथन दुरायबो

काल ही कलिंदी तीर चितयो अचानक हू

दोहन को दोऊ मुरि मृदु मुसिक्‍यायबो

दोऊ परैं पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ उन्‍हैं

भूलि गईं गैयाँ इन्‍हैं गागरि उठायबो।”

मैंने धीरे से कहा, “मैं तो कहती थी कि कोई देख लेगा भला अब कहो क्‍या होगा यह तो दुष्‍ट मरकंद की सी भाँख लगती है। जो वह हुआ तो बड़ा अनर्थ हुआ पर तुम अब ऐसा करो कि आगे हो जाव और मुझै अपने पीछे कर लेव, गली में मेरे ओर न देखना और न मकरंद की ओर जिस्‍में जान पड़ै कि तुम्‍हारा ध्‍यान किसी ओर नहीं है। वह छोटी सी पुस्‍तक जो तुम्‍हारे खीसे में है निकालकर बड़े ध्‍यानपूर्वक पढ़ते चलो, नैन वहीं गड़ा दो। यदि कोई मिलै भी तो बुलाने पर भी मत बोलना। जुहारै तो सिर भर हिला देना, ऊपर कदापि न देखना नहीं तो नैन अंतरंग भाव के सदा साक्षी रहते हैं छिपते नहीं और समय पर जैसी बनै वैसी चतुराई करना, तो चलो मेरे तुम्‍हारे साथ चलने में कोई दोष नहीं, ऐसा तो कई बार हुआ है और मेरे पिता ने भी कई बार देख लिया है पर कुछ नहीं बोले।”

इतना सुन वे भी यथोपदिष्‍ट रीति से चले। मकरंद मिला। बड़ी देर तक इस जुगल झाँकी के दरसन किएए पर श्‍यामसुंदर ने देखा भी नहीं, ऊँचे चढ़कर गली ही के पास नारद मिले, वे मुझसे कहने लगे - “क्‍यौं इतनी देर लगाई चल भौजी बुलाती है उसके ओषधि का समय है न - “श्‍यामसुंदर नारद की ओर तनिक न देखे और मैंने भी नारद को उत्तर न दिया। मैं नारद को सदा घृणा करती। उसका मुख मुझे नहीं सुहाता केवल दाद की आन से कुछ नहीं बोलती। किंचित् आगे बढ़कर श्‍यामसुंदर पढ़ते पढ़ते खड़े हो गए गली रुक गई। मैंने कहा, “चलिए मुझै जाने दो”, यह सुनकर चिहुँक से पड़े बोले, “कौन है? (ऊपर देखकर) श्‍यामा मैं पुस्‍तक पढ़ रहा था, तू कहाँ से आ गई प्रसंग टूट गया।” इतना कह हट गए, मैंने कुछ भी उत्तर न दिया और सूधी घर को चली गई। श्‍यामसुंदर ने भी अपने घर का मग लिया। भगवान् का दर्शन किया और उधर से सब मंदिरों की झाँकी झाँक फिर लौट आए। इतने में आठ बज गए। रात सापिन सी आई। बिना साथिन के काटना था पर उलटा वही इन्‍हैं काटने लगी, सेज बिछी थी। मैं थी कुछ व्‍यारी करके चिंता में मग्‍न - गरमी के दिन तो थे ही अटारी पर वृंदा और सत्‍यवती के साथ सोने के लिए बिछौने बिछाकर लेटी। चाँदनी छिटकी थी, मैं भी चाँदनी की शोभा आपनी चाँदनी पर से देखती थी, वृंदा और सत्‍यवती दोनों मेरे पास बैठीं थीं और कुछ बात चीत कर रहीं थीं। नीचे सुलोचना अपने आँगन में सोई सोई वृंदा से और कभी कभी मुझसे बातैं करती। जहाँ मैं सोई थी वहाँ से श्‍यामसुंदर के बिछौने स्‍पष्‍ट दिखाते थे। श्‍यामसुंदर ने उस दिन कुछ भी भोजन नहीं किया और चुप आकर सूनी सेज पर सो रहे। थोड़ी देर में रामचेरा और उद्धव दोनों पहुँचे, एक पंखा करने लगा और दूसरा पाँव मीजने लगा। श्‍यामसुंदर ने ऊपर देखकर कहा, “कुछ मत करो - न हमैं पंखा चाहिए न संवाहन तुम लोग जावो,” यह सुन रामचेरा और ऊधो दोनों सूधो मग धरे बाहर आ बैठे, झरप पड़ी थी। श्‍यामसुंदर अकेले लेटे थे, इतने में ऊधो ने जा हाथ जोड़ कर कहा।

“महाराज एक सितारिया आया है और चाहता है कि महाराज को अपना गुन दिखावै यहीं बाहर खड़ा है जैसी आज्ञा हो।”

श्‍यामसुंदर ने सुन लिया, कुछ सोच कर कहा, “आने दो पर मकरंद को भी बुला लेना।” ऊधो बोला, “जो हुकुम” यह कह मकरंद और सितारिया को साथ ले फिर जा उनके सन्‍मुख बोला, “महाराज, ए लोग सब आ गए।” परदा उठाई और वे सब कविता कुटीर में घुस गए मकरंद उनके उसीसे के निकट बैठा और सितारिया भी सन्‍मुख अपना वाद्य आगे धर सलाम कर बैठ गया।

श्‍यामसुंदर ने सितारिये की ओर देखा और मकरंद से कहा, “ए गुनी कहाँ से आए हैं और इनका गुन जस कैसा है?”

मकरंद ने कहा, “सौम्‍य - मुझसे इनसे प्राचीन परिचय है। ये एक बड़े भारी गुनी के पुत्र हैं जिनका नाम गान और वाद्य में इस देश में चिरकाल से विख्‍यात है, उनकी विद्या ऐसी उत्‍कृष्‍ट थी मानी गंधर्वों से गान नारद मुनि से बीना और तुंबुर से तंबुरा सीखा हो। मलार का जब कभी अलाप करते कुऋतु में भी बादल छा जाते। दीपक राग के टेरते ही आपसे आप दीप भी प्रज्‍वलित हो जाते थे। इनने बहुत कुछ राज दरबारों से कमाया था। उनका नाम रागसागर था। ये उन्‍हीं के पुत्र प्रेम लालित वीणाकंठ हैं। उनका निवास पहले क्षीरसागर के द्वीपांतर में था अब इसी श्‍यामापुर में अपने दिन काटते हैं। मैंने भी एक दो चीजैं इनसे ले ली हैं। आपका नाम और यश सुन चले आये हैं, आज्ञा हो तो अपना गुन सुनावैं।”

श्‍यामसुंदर बोला, “यह तो अच्‍छी बात है मेरा भी मन बहलेगा। तो अब होने दो पर तुम तबला ले लो।”

मकरंद तबला के बजाने में क्षिप्रकर था और सम विषम तालों का ज्ञान भी था। उधर वीनाकंठ ने भी सितार ठीक किया और श्‍यामसुंदर के आज्ञानुसार यह गजल गाई और बजाई।

ऐ तबीबो मेरे जीने के कुछ आसार नहीं

मत करो फिक्रो दवा

उस मसीहा को दिखा दो तो कुछ आजार नहीं

अभी हो जाए शिफा

कितना चाहा कि तेरे इश्‍क में मर जाएँ हम

पर निकलता नहीं दम

सच तो यों है कि हमैं इश्‍क सजावार नहीं

तेरी तकसीर है क्‍या

ऐ सनम तू ही मेरी शक्‍ल से रहता है रुका (रुसा)

है अजल भी तो खफा

बेवफा तुझसा जहाँ में कोई दिलदार नहीं

कीजिए किससे गिला

फस्‍ले गुल की न कफस में मुझे दे खुशखबरी

यां है बे बालो परी

लायके सैरे चमन अब ए दिलफगार नहीं

क्‍यौं रुलाती है सबा

सब वजादार तेरे आके कदम चूमते हैं

मैं तो आशिक हूँ तेरा

अपनी नजरों में कौन तुझसा तरहदार नहीं

है कसम खाने की जा

शमारुख का तेरे ऐ गुल! कोई परवाना नहीं

और अगर हूँ तो महीं

दामे काकुल का तेरे कोई गिरफ्तार नहीं

पेंच हम पर ए पड़ा

कतल ही गर मेरा मंजूर है ऐ उरविदा साज

खैर हाजिर है गुलू

कोई अरमाँ मुझै बुज हसरते दीदार नहीं

रुख से परदा तो उठा

देख पछतायगा मूनिस न तू दे मुफ्त में जाँ

तर्क कर इश्‍के बुताँ

फायदा इस्‍में सिवा रंज के ऐ यार नहीं

रख नजर सू ए खुदा -

इसको बडे़ ध्‍यानपूर्वक सुना, लंबी साँस ली और उन्‍हैं किसी प्रकार विदा दे आप अकेले ही लेट गए, अब दस बज गया था। गीत सुनते सुनते मेरी आँख नहीं लगी थी। अंत को जब सब उठ गए श्‍यामसुंदर विलाप करने लगा -

“आज की रात कैसे कटेगी इस गीत ने तो और मुझै बेकाम कर दिया - रह रह के मुझै प्रानप्‍यारी की सुधि आती है। यह रात मुझै साँपिन सी हो गयी मुझै कुछ भी नहीं सुहाता है। हाय रे ईश्‍वर! क्‍या करूँ कहाँ जाऊँ। मैं अब जी नहीं सकता। प्‍यारी! प्रानप्‍यारी! हाय! क्‍या तुम्‍हैं दया नहीं आती बस हो चुका, इतना व्‍यर्थ क्‍यों सताती हौ। हाय री पापिन! मैं कुछ भी न कर सका। तूने मेरी कुछ दया न देखी उस दिन की करुणा भूल गई? ठीक है इष्‍ट देवता का मन पाषाण से भी कठोर होता है। अब मेरे लिए कौन सी दिशा रह गई है जिधर जाऊँ।” इतना रोकर हाथ में तलवार उठाकर कहने लगा, “हाय रे निर्दई काम! तूने मुझै क्‍या-का-क्‍या कर डाला। देवी! अब तू ही मेरे कंठ में लग जा और मेरे दुःख का अंत कर। तू भी आज लौं ऐसे कोमल कंठ में न लगी होगी। आज इस विरही की गलबाहीं दे विरह को हटा, तेरी धार न बिगड़ैगी मैं फिर सान धरा दूँगा। पर मेरी कही तो कर - चांडालिन चंडिके! क्‍या तू भी मेरी वैरिन हो गई? लोग तो देवी की स्‍तुति और पूजा करके अपने सब दोष छुड़ाते हैं - मैंने इतनी तेरी स्‍तुति की, तू तनिक भी न पिघली; ठीक है - 'दुर्बले देवघातक:!' - मैं आज दुर्बल हूँ न।” इतना कह तलवार की धार ज्‍यौं ही गले से लगाया विचारा ऊधो पहुँच कर हाथ रोक लिया। श्‍यामसुंदर चिहुँक पड़े कि यह आधी रात को और कौन आपत्ति आई, ऊधो को देख बोले - “तू इतनी रात को कहाँ आ गया मैं तो अब” - ऊधो ने बात काटी और कहने लगा - “इसलिए तो आया - देखिए श्‍यामा वह अटारी पर चढ़ी चढ़ी आपकी सब व्‍यवस्‍था देखती थी सो उसने मुझै सुलोचना के द्वारा कह कर शीघ्र पठाया - वह आपका तरवार उठाना देखती थी -”

श्‍यामसुंदर ने बड़ी प्रीति से पूछा - “कहो क्‍या श्‍यामा का संदेसा है? वह काहे को कुछ कही होगी। मैंने उसे चीन्‍ह लिया - वह बड़ी पापिन और कपटिन हो गई है। न जाने उसके मन में क्‍या सूझा है जो मेरे से दीन की तनिक सुधि नहीं करती -”

ऊधो ने कहा - “महाराज आप ऐसे शीघ्र ही अधीर हो जाते हैं तो फिर कैसे काम होगा। उस दिन क्षण भर श्‍यामा के पत्र के आने में विलंब हुआ तो आपने निर्जन स्‍थान में मकरंद के गले से लग कितना विलाप किया -”

“हाँ किया तो सही था पर इसका कौन देखने वाला है - 'वन में मोर नाचा किसने देखा' इतने पर भी तो उस कोमल चित्तवाली को दया न आई,” यह श्‍यामसुंदर ने उत्तर दिया।

ऊधो बोला - “महाराज सुनिए श्‍यामा ने यह कहा है कि तुम जाकर उन्‍हैं समझा देव मैं अवश्‍य उन्‍हैं मिलूँगी और धीरज धरैं कल्‍ह कोई-न-कोई उपाय निकाल ही लूँगी।”

श्‍यामसुंदर ने कहा, “कह दे कि यदि कल्‍ह तक उत्तर न आया तो मेरी तिलांजुलि ही देनी पड़ेगी। तू जा मैं अब जैसी नींद लूँगा रात और सेज दोनों साक्षी रहैंगी।”

ऊधो चला आया। श्‍यामसुंदर मुख ढाँक बड़ी देर तक सोचते रहे, राम राम कर रात काटी इस पाटी से उस पाटी कराह कराह समय बिताया। मैं उनकी दशा कहाँ तक लिखूँ। उन्‍हैं मेरे बिना एक छिन दिन की भाँति और एक दिन कल्‍प के समान बीतता था। भोर हुआ। सब लोग अपने अपने काम में लगे पर वे अभी तक सेज ही पर पढ़े हैं। रामचेरा ने बरबस उठाया, मुख हाथ धुलाया, कुछ दुग्‍ध पान करके फिर भी लेट रहे राजकाज सब छूटा। ध्‍यान मेरा लगा के हृदय का कपाट बंद कर लिया। मुझे भी चिंता हुई। आज जो कुछ बात नहीं होती तो वे अवश्‍य आत्‍मघात कर लेंगे। इतना सोच भोजनोत्तर सुलोचना के घर गई और एक पत्र श्‍यामसुंदर को लिखकर उसी के द्वारा भिजवा दिया। यह पत्र कुछ विचित्र नहीं था, केवल सहेट का सूचक था। प्रकाश करने का प्रयोजन कुछ नहीं, समय तो साँझ का ठहरा था - स्‍थान 'धीर समीर' - वंशीवट के उस पार। ग्रीष्‍म के दिनों की साँझ कैसी मनोहर होती है, यही समागम का उत्तम समय था। चित्रोत्‍पला मंद मंद बहती थी। तरल तरंगों में सफरी उछलतीं थीं, हँसी की श्रेणी - चक्रवाक के जोड़े, कुररियों की कतार पार पार पर बैठी शोभित होती थी।

सुभल सलिल अवगाहन पाटल संगम सुरभि वन की पौन।

सुखद छहारे निदिया दिवस अंत रमनीय न भौन॥

तनिक तनिक करि चुंबन केसर सुकुमार डारन पै भौंर

सदय दलित मधु मंजरि सिरिसा सुमन पर रहैं झौर॥

ऐसे समय में श्‍यामसुंदर का और मेरा समागम विधि ने रचा था। दिनकर-कर ने पश्चिम दिशा के मुख में गुलाल लगा दिया। संध्‍या समय के पश्चिम दिशावलंबी मेघ नाना प्रकार के वर्ण दिखलाने लगे। सूर्य के रथ का पिछला भाग ही केवल दृष्टि पड़ता था। पूर्वाशा को छोड़ सूर्य नायक ने पश्चिमदिगंगना को सनाथ किया; वह भी इस नायक को पाकर रजनीपट मंडप में जा छिपी मानो मुझै समागम की पाटी सिखा दी; मैं अपने जी में डरी कि प्रथम समागम का आगम कैसे होता है - हँसी - मुसकिरानी - संध्‍या के समान जाप के सदृश लाल वसन धारन किए, सुलोचना आगे और वृंदा पीछे बीच में दोनों के मैं हो गई, जैसे दिन और रात्रि के बीच में संध्‍या हो। श्‍यामसुंदर ने दूर ही से देखा - उठे बैठे इधर उधर देखा, फिर मेरी ओर देख कर खड़े हो गए, मैं अब निकट पहुँची जाती थी। मेरा भी सकुच के मारे मुँह नीचा होता जाता था - पर श्‍यामसुंदर को बिन देखे लोचन कल नहीं लेते थे। सखियों के बीच में बार बार किसी न किसी मिस से देख लेती थी। अब बहुत ही निकट गई। उनकी मेरे तन को देख चिरकाल की प्‍यास बुझाई और मुझे झपट कर अंक से लगा लिया - वाह रे दिन - धन्‍य है वह घरी जिसमें इस आनंद की लूट हुई। मैं उनके और वे मेरे बदन को देख देख भी नहीं अघाते थे। मैं चंपकमाल सी उनके हृदय से लपट गई। प्रथम समागम में भी इतनी ढिठाई स्‍वभाव वश - या केवल चतुराई के कारन होती है, पर मैं इस नवीन संगम के दिन यद्यपि नवोढ़ा रही तौ भी मुझे श्‍यामसुंदर ने पहले से सब कुछ सिखा दिया था। मैंने कहा - “प्‍यारे अपने जी की पीर मिटा लो” पर उनने कुछ उत्तर न दिया वे अवाक्‍य हो गए उन्‍हैं कोई उत्तर न सूझा, केवल ललचोहीं और प्‍यासी दृष्टि से मेरी दृष्टि पर टकटकी लगाए रहे। जुगल त्रिलोचनों पर जुगल कमल सनाल समर्पण किए अथवा तन सरोवर में पैठ चक्रवाक के दो बच्‍चों को हाथ से पुचकारते। चुंबन किया आलिंगन किया - मेरा तो बस अब वही हाल हो गया था जैसा पजनेस ने कहा है।

“बैठी विधुवदनी कृशोदरी दरीची बीच

खीच पी निसंक परजंक पर लै गयो।

पजन सुजान कवि लपटी लला के गरे

झपटी सुनीवी कर जंघन सबे गयो।

गोरो गोरो भोरो मुख सोहै रति भीत पीत

रति क्रम रक्‍त ह्वै अंत सो रजै गयो।

मानो पोखराज ते पिरोजा भयो मानिक भो

मानिक भए पै नील मनि नग ह्वै गयो।”

अधिक क्‍या कहूँ श्‍यामसुंदर ने मनभाई कर लिया। मुझै भी उनका इतना मोह लगा था कि रात दिन समागम की कथा मुख से नहीं छूटती थी।

श्‍यामसुंदर ने मुझै अपनी अंक से वियुक्‍त नहीं किया। वे तो मुझै अपने हृदय से चपकाए रहे - बार बार चुंबन का लेना देना होता था मानौ जोबन की हाट आज सेंत में लुटी जाती हो। वे मुझे गले से लगा बोले - “सुनो प्‍यारी -

जियतें सो छबि टरत न टारी

मुसकिराय मो तन गलबाहीं दै चूम्‍यौ जब प्‍यारी। ध्रुव।

करि इक ठौर बैठि रस बातें भुजा भुजा सो मेली

मुख में मुख उरसो उरझान्‍यो उरज गेंद अलबेली।

ताहीं समैं निसंक अंक मधि भरि भुज जबै लगाई

ह्वै ससंक करि बंक नैन मनु डक मा‍रि लपिटाई।

अधर अधर धर धरकत हियरो कच धर जबै बटोप्‍यौ

कदली चाँपि चारु रस सुंदर सिसकी भरति निहोप्‍यौ।

लाय लंक कर कंपित छतियन मुतियन माल गिरानी

बाल बेलि मदनासव छाकी सुरत सीच तन पानी।

श्‍यामा हू तन पुलकित पल्‍लव अगुरिन मुख निज ढाँपी

चूमत मोहि निवाप्‍यौ ता छन मनौ प्रेम रस नापी

जलकन कलित सरीर सरोरुह झलकत बुंद सुहाते

विलुलित अलकन लपटि ललाटहिं पौनहु सुखद बहाते।

तीर नीर ग्रीषम के वासर सिकता सेज सुहाई

मनौ मदन निज काम जानि कै मुक्‍त कूर बगराई।

ता पर बहत वयार सुपावन सुरत परिश्रम टारी

जगमोहन सो दुर्लभ सपने सुख संगम बलिहारी।”

इसका मेरे सामने एक चित्र सा लिख गया। श्‍यामा के विराम लेती ही वह प्रचंडा देवी जिसका वर्णन कर चुके हैं और जो हमें स्‍वप्‍न में मंत्र बता गई थी प्रकट हुई, बड़े बड़े स्‍वेत दाँत चमके 'दुर्दर्शदशनोज्‍ज्‍वला' - विटप की शाखा से लंबे लंबे बाहु पसार जादू की छड़ी ज्‍यौंही निकाल श्‍यामा की चोटी से छुवाया बादल छा गए अंधकार छा गया और वह मनमोहिनी प्रानप्‍यारी जीवन अवलंब की शाखा श्‍यामसुंदरी श्‍यामा लोप हो गई - तिमिर ने सब लोप कर दिया। जिधर देखो उधर अंधकार।

इति द्वितीय स्‍वप्‍नः।

तृतीय याम का स्वप्न (श्यामास्वप्न) : ठाकुर जगमोहन सिंह

“जिनके हित त्‍यागी कै लोक की लाजहिं संगही संग में फेरो कियो।

हरिचंद जू त्‍यों मग आवत जात में साथ घरी घरी घेरो कियो।

जिनके हित मैं बदनाम भई तिन नेकु कह्यौ नहिं मेरो कियो।

हमैं व्‍याकुल छोड़ि कै हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो॥”

हा ईश्‍वर! क्‍या यह स्‍वप्‍न था कि प्रत्‍यक्ष “हमैं व्‍याकुल छोड़ि के हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो” - इसके क्‍या अर्थ थे। यह कौन सा मंत्र था किसने कहा, कब कहा, दिन में कहा कि रात में, सामने कहा कि पीठ पीछे, कान में कहा कि और कहीं, मुझै कुछ स्‍मरण नहीं। सोचते सोचते ध्‍यान सागर में एक सीप हाथ लगी उसको खोलते ही बड़े-बड़े मोती निकले - इतने बड़े थे कि दो दो आँख रहते भी न सूख पड़े। अब क्‍या करूँ पाना और न पाना बराबर था, पाई के क्‍या किया जो किसी काम न आए। इच्‍छा हुई कि किसी श्‍वेतद्वीपवाले की दुकान से एक जोड़ी चश्‍मा मोल लाते तब तो यह करिश्‍मा भी दिखता।

दुकान कहाँ थी जो ऐसे शीघ्र मिलती। पर रेल तो थी ही। उसी पर बैठ के चलने की इच्‍छा हुई - इतने में कलकत्ते के स्‍टेशन पर मनोरथ पर बैठ पहुँचे। स्‍टेशन के कपाट बंद थे, ये लोहे के बने थे ऐसे पुष्‍ट थे कि नष्‍ट के भी दुष्‍ट बाप से न खुल सकैं। इन्‍हीं कपाटों में कई बार माथा फोड़ा - हथियार लेकर तोड़ा, पर यह जोड़ा ऐसा था कि तनिक न टसका। मन में सोचा कि सूर्य का सतमुँहा घोड़ा आवैं तब तो यह दुमुँहा द्वार खुलै पर आवै कैसे। यही सोच में तो एक चौकड़ी की कड़ी बीत गई। वह बूढ़ी ने तो हमैं अनेक प्रकार के जादू सिखा ही दिए थे - सिखाना क्‍या बरन सब कामरूप कामाक्षा को झोली में भरकर मुझै दे गई थी। मैंने उसी का स्‍मरण किया झोली तो ओली ही में धरी थी। वीर बजरंग और श्‍यामा देवी का नाम-स्‍मरण कर ज्‍यों ही हाथ डाला मंत्र की एक पुड़िया हाथ लगी, पुड़िया को खोलते ही उस्‍में से मंत्र की धुनि होने लगी। इस समय तो सतमुहा घोड़ा बुलाना था, यह मंत्र याद कर लिया।

“ॐ उच्‍चैःश्रवाय नमः एहि एहि फाटकं खोलय झोलय स्‍वाहा”

इसका जप गोमुखी में हाथ डार के करने लगा। अष्‍टोत्तर शत भी न पूरने पाया कि एक सहस्र किरनवाले भगवान मरीचिमाली अपने घोड़े को कोड़े फटकारते पहुँच ही गये, हाथ जोड़कर बोले, “क्‍या आज्ञा है” - मैंने कहा, “इस स्‍टेशन के निगढ़ कपाट तो खोला।” उनने सुनते ही रथ हाँका - घोड़ा तो बड़ा बाँका था - खोलते खोलते हार गया, टापैं मारी - लत्ती फेंकी - बचा को ऐसी चोट लगी कि फिर लौट कर हल्‍दी अजवाइन से सेंकी - छठी का दूध याद किया होगा। घोड़ा का बल निकल गया बचा से कुछ भी हो सका। मैंने कहा, “यदि तुम में यही बल था तो आए क्‍यौं - वहीं बैठ रहते व्‍यर्थ हमैं कष्‍ट दिया अब अपना सा मुख ले जाइए।”

इतना सुनते ही सूर्य भगवान भागे। क्‍या करैं बिचारे मुँह तो विलायती अनार सा सूख गया था, ऐसा रथ भगाया कि फिर पश्चिम समुद्र में जा डूबे - लाज ऐसी होती है - पराभव की लाज के मारे मुँह सदा नीचे ही रहता है। अब रेल के खुलने का खेल निकट था, इसी से जी में और चटपटी समानी दूसरा मंत्र याद पड़ा 'गंगजराजायनमः' - इसे भी पूर्व रीति पर जपा पर ज्‍यौंही गोमुखी में इसके जपने की जुगल की गौमुखी सौमुखी हो गई सब पाँजर झाँझर हो गए, माला नीचे लटक पड़ी, मुझै यह ज्ञान न रहा कि यह गोमुखी साक्षात् ब्रह्मा के झोली से निकली थी। मुझै क्‍या पड़ी थी जो उसमें हाथ डाल कोई मंत्र जंत्र जपते, मेरा तो अपवित्र हाथ था डालने के साथ ही जल भुन जाता। पर यदि ऐसा साहस न करता तो श्‍यामारहस्‍य की थाह भी न मिलती। रुद्रयामल और कालिकातंत्र तो अभी हरितालिका के दिन के बने थे मैं बड़े घनचक्‍कर में पड़ गया। पर इसकी क्‍या चिंता फक्‍कर तो होना ही था, जप न हो सकी। क्‍यौंकि उस गोमुखी में अनेक छिद्र हो गए थे। वाह रे विष्‍णुशर्मा! क्‍यौं न हो! तू ही तो एक मेरा नवखंड पृथ्‍वी में मित्र था। लक्ष्‍मी जी की पूजा करते करते स्‍वयं नारायण को भी राजी कर लिया अब क्‍या बचा था जिस्‍के पीछे तू दौड़ता। मैं तो आम की फुनगी में लटक गया भौरों के साथ उड़ने लगा - काले काले कपोत पोत में बैठ कर उड़ते थे। मंदिर के कंगूरे में बैठ कर अंगूर खाने लगा। हाथ जोड़ कर कपोतों को बुलाया - कपोत कब विश्‍वास करते थे? वे दूर ही से देख कर उड़ जाते। मैंने बहुतेरा अपना सा बल किया। बड़े बड़े रस्‍से मद्रास और माड़वार से डाक पर मँगवा कर बाँधे पर फंदा न लगा। जिस चिड़िया को फाँस लगाई वही चि‍ड़िया निबुक गई। मानौ उन्‍होंने महाबीर से निबुकना सीख हो।

“निबुक चढ्यौ कपि कनक अटारी।

भई सभीत निशाचर नारी॥” -

इस ब्रह्मफाँस से निबुकने के लिए सिवाय बजरंगबली के और कौन समर्थ था - हाँ - सो भी श्‍यामा और श्‍यामसुंदर की आर्शीवाद से। अंत में एक कपोत को पोंछ पुचकार के विश्‍वास दिया। संदेशा भेजने के लिए इनसे बढ़के और कोई विहंगगणों में नहीं है। यह चतुरता की कला इनकी रूम रूस के युद्ध में भली भाँति लखी गई थी। एक कपोत से कहा, 'तू जाकर किसी बड़े भारी ऋषि को बुला ला कि जरा मेरी गोमुखी को टाँक तो दे।' कपोत उड़ा उड़ते उड़ते कैलास पहुँचा वहाँ महादेव से कहा, “कोई ऐसा मुनि बताइए जी गोमुखी सी दे। वे जप करने को ज्‍यौंही बैठे उनकी माला नीचे लटक पड़ी अब वे जप बिना समाप्‍त किए भोजन नहीं करते।”

महादेव जी ध्‍यान धरके कहने लगे, “इसका सीनेवाला तुम्‍हैं तुंडदंष्‍ट्रा नामक देश में मिलैगा वह यहाँ से सौ कोस पर दक्षिण दिशा में रहता है।” कपोत पलभर में उड़ कर पहुँच गया। दंष्‍ट्राकराल का राजा विरागचंद्र गौतममुनि का चेला था वात्‍स्‍यायन का भाई - वसिष्‍ठ का बाप - नारद का बहनोई और विश्‍वनाथ का गुरुभाई। विरागचंद्र से भी यही कहने लगा। विरागचंद्र ने अपने एक पूर्वोक्‍त जातिबंधुओं को बटोरा मंत्र किया। सूचीकार के ढूँढ़ने को ए सब बहुत इधर उधर दौड़े, पर हार मान कर घर बैठे। जब ऐसे ऐसे मुनियों का बल विफल हो गया तो मनुष्‍यों की क्‍या गणना थी! अब क्‍या करता? गोमुखी से हाथ निकाला उक्‍त मंत्र का जप करते करते 10 वर्ष बीत गए। एक वर्ष होम करते बीता। बारहें बरस मंत्र सिद्ध हो गया। इंद्र अखाड़े का ऐरावत गजराज झूमता हुआ आया। पर पलकदंता हाथी मत्त था। धर्म का ध्‍वजा बाहर के दाँतों के नाईं निकाले पर भीतर के दसनों के तुल्‍य कपट और विश्‍वासघात तथा अधर्म का पक्ष दबाए उपस्थित हुआ। मैं इसे देख उठ खड़ा हुआ। यह उपेंद्र का गजराज था। भला क्‍यों इसे देख आसन न देता। नहीं तो कहीं दुर्वासा सा कोई आकर शाप दे देता तो फिर मैं क्‍या करता। गज के दोष से दुर्वासा मुनि ने इंद्र को शाप दे ही दिया था। भला क्‍या इंद्र ने दुर्वासा की दी माला भूमि पर फेक दी थी या गज ने जो सामान्‍य पशु था? - पर बड़ों को कौन कह सकता है चाहै जो करै, चाहै आकाश में महल बनवावैं उन्‍हैं तो 'रवि पावक सुरसरि की नाईं' है। बाबा जी नई बालाओं को पूरा भोग भी देते हैं तौ भी बाबा जी ही बजते हैं - कहावत है कि “माई को माई भई-माई बुलावन जात है” चमारिन, डोमिन, धिररकारिन, धोबिन, तेलिन सभी गंगा के तुल्‍य हैं -

“आशंखचक्रांकितावाहुदंडा गृहे समालिंगितबालरण्‍डा।

मुण्‍डा भविष्‍यन्ति कलौ प्रचण्डः - “

बस हश! हाँ तो फिर मैंने गजराज को नमस्‍कार किया और उस फाटक खोलने की प्रार्थना की। लोभी पशु एक पसर धान के लालच में झट दतूसर फाटक पर लगा ही तो दिया (विश्‍वास न हो तो कर्पूर तिलक का वृत्तांत हितोपदेश में देख लो) फट् से फाटक फट पड़ा खुल गया। दूरबीन लगाने की भी आवश्‍यकता न पड़ी बिना इस यंत्र के उस पार का सब कुछ उघर गया। फाटक तो खुला ही था - भगवती भागीरथी गंगा की भी धार निकल पड़ी अब तो ऐरावत जी की नानी सी मर गई। कलकत्ता के निकट की तो बात है। भगीरथ कई सहस्र वर्षों तक तप करके पाए इधर केवल 'गं' बीज के जप मात्र से शीघ्र ही निकल पड़ी - ऐरावत लोट गया - स्‍नान किया हाथियों का मन जल में बहुत रमता है - किनारे की सब कमलिनी क्रम से उखाड़ उखाड़ कौर कर गए ऐसा जान पड़ा मानों

“चित्रद्विपा पद्मवनावतीर्णा:

करेणुभिर्दत्त मृणालभंगा:”

गंगा की धार फाटक के आर पार बह गई। मैंने तो जाना कि बस स्‍टेशन भी बहा ले जाएगी पर मेरे भाग्‍य से बच गया। बीच धार में शेष निकला तब तक भूमि के भार सम्‍हारने की एवजी कूर्म को दे आया था - शेष पर भगवान् जगन्‍मोहन विष्‍णु सोए थे। लक्ष्‍मी जी पाव पलोटती थी - नाभिकमल से मृणाल निकला - फिर कमल का फूल हो गया - कमल का ध्‍यान करके देखा तो उसी जलज में से जलजासन निकले - चारों वेद पाठ करते - पर मधुकैटभ दैत्‍यों ने इनके भी दाँत खट्टे किए। ब्रह्मा भागे दैत्‍यों ने पीछा किया जोतसी लोग सायत विचारने लगे पर ज्‍योतिष का उनको कुछ बोध थोड़ा ही था। अगहन की सायत सावन भादों ही में धरी। शुक्र का भी उदय नहीं हुआ था, अगस्ति का भी उदय न था - पंथ का जल भी नहीं सूखा था - दैत्‍यों ने ब्रह्मा का ऐसा पीछा किया जैसे बालि ने मायावी का किया था - न मानो तो वाल्‍मीकि रामायण पढ़ो - मैं भी पीछे पीछे गया। ब्रह्मा फाल्‍गुण ऋषि के चेले शाक्‍य मुनि की कंदरा में जा घुसे - उनके घुसते ही मैंने द्वार पर एक महा शिला लगा फिर उसी स्‍टेशन पर आ गया। विष्‍णु से सब हाल कह दिया। विष्‍णु भी उन्‍हीं दैत्‍यों को मारने हेतु गजराज पर सवार हो लक्ष्‍मी को छोड़ चले गए अब बिचारी लक्ष्‍मी शेषनाग के पाले पड़ी - यदि मैं न होता तो वह उसे सांगोपांग लील जाता। जैसे दमयंती को अजगर से व्‍याधे ने बचाया - पर अंत को व्‍याधा अनाचार करने लगा। दमयंती ने शाप देकर भस्‍म कर दिया, पर मैं भस्‍म तो नहीं हुआ केवल कोयला होकर पड़ा रहा। मैंने प्रार्थना की लक्ष्‍मी प्रसन्‍न हुई और शेष का विष खींच मुझै सदेह कर फिर सजीव किया। यही तो आश्‍चर्य था कोई अमृत पीने से जीता है मैं विषपान कर जिया। धन्‍य है री मायादेवी धन्‍य है! इतने ही में गंगा की ऐसी लहर आई कि लक्ष्‍मी उसी तरंग में बह गई - मैंने शोच किया रेल आई टिकट ली चार रुपये नौ आने साढ़े दस पाई देना पड़ा। रेल पानी पर चलने लगी। गंगा बहते बहते ब्रह्मपुत्र से जो मिली और अंत को सहस्र धारा हो सागर में जा गिरी - वहाँ सौतें तो बहुत मिलीं पर गंगा की तृप्ति कब होती है, एक सागर से दूसरे दूसरे से तीसरे इसी तरह सातों सागर घूमी - अंत को फिर क्षीरसागर में पहुँच कर विलास करने लगी। मैं भी गंगासागर के मुहाने तक गया। मुहाने में घुसी - वाह री रेल।

“अग्नि वायु जल पृथ्‍वी नभ इन तत्‍वों ही का मेला है

इच्‍छा कर्म संजोगी इन् जिन गारड आप अकेला है,

जीव लाद सब खींचत डोलत तन इस्‍टेशन झेला है

जयति अपूरब कारीगर जिन जगत रेल को रेला है।”

दूसरा स्‍टेशन दिखाने लगा। विचित्र लीला, अब जल से थल हो गया। उस स्‍टेशन के स्‍तंभ दिखाने लगे, स्‍टेशन तो हैमिल्‍टन साहब की दुकान था। वाह रे ईश्‍वर! मनोरथ पूरा हुआ। चश्‍मा मिलने की आस लगी। दुकान पर उतरे। एक गोरी थोरी वैसवाली निकल आई, इस गोरी के पीछे एक पूछ भी थी। मैंने तो ऐसी स्‍त्री कभी नहीं देखी थी। मुख मनोहर और वदन मदन का सदन था। इस कामिनी के कुचकलशों पर दो बंदर नाचते थे, इनके नाम दंभाधिकारी और पाखंड थे। इन बंदरों के पूछ से कपट और घात नाम के दो बच्‍चे और लटकते थे। मैंने ऐसी लीला कभी नहीं देखी थी। करम ठोका आश्‍चर्य किया। साहस कर दुकान के भीतर जा पूछने लगा, “गोरी तेरी दुकान में एक जोड़ चश्‍मा मिलैगा?” उसने त्‍यूरी चढ़ा के उत्तर दिया, “मूर्ख द्वापर और त्रेता में कभी चश्‍मा था भी कि तू माँगता है। तब सभी लोगों की दृष्टि अविकार रहती थी। यह तो कलियुग में जब लोग आँख रहते भी अंधे होने लगे तब चश्‍मा भी किसी महापुरुष ने चला दिया। मुझै नहीं जानता मैं पाखंडप्रिया अभी श्‍वेत द्वीप से चली आती हूँ, मैं फणीश की बहिन हूँ, देख बिना चश्‍मा के तू देख लेगा कि मैं कैसी हूँ और मेरा रूप कैसा आश्‍चर्यमय है। भाग जा नहीं तो - हाँ तमाशा बताऊँगी।” मैंने कहा, “हा दैव! किस आपत्ति में तूने मुझै डाला।” झट श्‍यामा का स्‍मरण किया और ज्‍यौंही गंगा सागर संगम में डुबकी लगाई पाप कट गए सब भ्रम नाश हो गया। रेल का खेल विला गया फिर भी वही श्‍यामा और मैं - फिर भी वही पर्वत और नदी - और फिर भी वही चाँदनी की रात - रात के दोपहर बीत चुके थे, तीसरा पहर था।

जिधर देखो उधर सूनसान - पशु पंछी सब योगियों के भाँति समाधि लगाए अपने अपने स्‍थल में बैठे थे। सच पूछो तो वह समय ऐसा ही था जैसा ही था जैसा हरिश्‍चंद्र ने नीलदेवी के पंचम दृश्‍य में कहा है।

राम कलिंगढ़ा, तितला

सोओ सुखनिदिया प्‍यारे ललन।

नैनन के तारे दुलारे मेरे बारे,

सोओ सुखनिदिया प्‍यारे ललन।

भई आधी रात वन सनसनात,

पशु पंछी कोउ आवत न जात,

जग प्रकृति भई मनु थिर लखात

पातहु नहिं पावत तरुन हलन।

झलमलत दीप सिर धुनत आय,

मनु प्रिय पतंग हित करत हाय,

सतरात अंग आलस जनाय,

सनसन लगी सीरी पवन चलन!

सोए जग के सब नींद घोर,

जागत कामी चिंतित चकोर,

विरहिन विरही पाहरू चोर,

इन कहं छिन रैनहु हाय कल न।

वर्षा के बादरों ने अपना आगम जनाया, विरही लोग कादर हो हो चादर से अपना मुँह छिपा छिपा लगे रो ने, संजोगी अपनी अपनी प्‍यारियों के साथ सादर हँसने बोलने लगे, मानौ अपना रावचाव दिखा के वियोगि‍यों को लजाते और उनके दुस्‍सह दुःख पर हँसते थे। जो हो ये दिन भी न रहैंगे। यह तो रथ के चक्र सी मनुष्‍य के भाग की गति है - कभी सुख कभी दुःख, कभी गाड़ी नाव पर और नाव कभी गाड़ी पर चलती है। हाँ - आषाढ़ के गाढ़े गाढ़े मेघ गर्जन लगे। वियोगियों के जी लरजने लगे, अवकाश में बक की पाँति उड़ती ऐसी जान पड़ती थी मानौ काली ने कपाल की माला पहिनी हो। बिजुली चमकने लगी - बादर बार बार घहराने लगे। श्‍यामा ने कहा - “भद्र! तुम इतनी देर तक कहाँ गए थे। देखो पावस आ गई। विरहियों के प्रान अब कैसे बचैंगे? सुनो -

लागैगो पावस अमावस सी अंध्‍यारी जामे

कोकिल कुहुकि कूक अतन तपावैगो।

पावैगो अथोर दुःख मैंन के मरोरन सो

सोरन सो मोरन के जिय हू जलावैगो।

लावैगो कपूरहु की धूर तन पूर घिसि

भार नहि कोऊ हाय चित्त को घटावैगो।

ठावैगो वियोग जगमोहन कुसोग आली

विरह समीर वीर अंग जब लागैगो।

और भी -

को रन पावस जीति सकै लहकारै जबै इत मोरन सोरन।

सोरन सों पपिहा अधरात उठै जिय पीर अधीर करोरन।

रोरन मेष चमंकत बिज्‍जु गसे अब नैन सनेह के डोरन।

डोरन प्रेम की आय गहो जगमोहन श्‍याम करो दृग कोरन॥

मैंने कहा - “देवि! मुझै ज्ञात नहीं मैं कहाँ था और कौन कौन आपत्ति झेल रहा था, तुम तो अंतरजामिन हौ सब जान ही गई होगी। तुम्‍हारा नाम स्‍मरण करते सब मोहतिमिर नाश हो गया। फिर तुम्‍हारा दर्शन पाया जैसे फणी अपना मणी पा जाय। तो ठीक है पावस तो आ गई अब चलो इस गुफा में बैठें, चलते नहीं तो पानी के मारे तुम्‍हारी कथा भी न सुन सकैंगे।”

यह सुन श्‍यामा अपनी बहिन और वृंदा के साथ उठी और इसी पर्वत के कंदरा में बैठी। यह कंदरा बड़ी विचित्र थी मानौ विश्‍वकर्मा ने स्‍वयं श्‍यामा के बैठने को बनाया गया। नाना प्रकार के पक्षी गान करते थे। मत्त हंस सारस पपीहा कोइल इत्‍यादि पक्षी नीचे बहती हुई चित्रोत्‍पला में नहाते और कलोल करते। प्रकृति का उद्यान यहीं था। बस -

साल ताल हिंताल तमालन बंजुल धवा पुनागा

चंपक नाग विटप जहँ फूले कर्निकार रस पागा।

कंचन गुच्‍छ विचित्र सुच्‍छ जहँ किसलै लाल लखाहीं लता भार सुकुमार चमेलिन पाटल विलग सजाहीं।

तरुण अरुण सम हेम विभूषित दूषित नहिं कोउ भाँती

वेदी लसत विदूर फटिकमय सलिल तीर लस पाँती।

जहँ पुरैन के हरित पात बिच पंकज पाँति सुहाई

मनु पन्‍नन के पत्र पत्र पै कनक सुमन छबि छाई।

नील पीत जलजात पात पर विहँग मधुर सुर बोलैं

मधुकर माधवि मदन मत्त मन मैंन अछर से डोलैं।

हरिचंदन चंदन ललाम मय पीत नील वन वासै

स्‍यंदन विविध वदन जगवंदन सुखकंदन दुःख नासै। -

हम लोग सब इसी में बैठ गए। मैंने कहा अब पावस की शोभा देखो - जलनिधि जल गहि जलधर धारन धरनीधर धर आए

पटल पयोधर नवल सुहावन इत उत नभ घन छाए।

फरफरात चंचल चपला मनु घन अवली दृग राजै

गजरज घूमि भूमि छ्वै बादर धूम धूसरे साजै।

गज कदंब मेचक से अंबुद नव लखि नभ में छाए

को न गई पिय वल्‍लभ ढिंग निशि करि अभिसार सुहाए।

श्‍याम जलद नव सुंदर हरिधनु सुखद सरस मधि सोहै

श्‍याम सरीर श्‍यामता हर मनु विविध मनिन जुत मोहै।

वारिद वृंद बीच बिजुरी बलि चंचल चारु सुहानी

छिन उघरत छिपि जात छिनक छिन छटा छकित सुखदानी

नव तमाल सावन तरु तरलित धीर समीरहिं मानौ

विटपन छिपि छिपि जात मंजरी छिन छिन उघरत जानौ।

विधुर वधू पथिकन की नीरद नीर नैन सो पेखैं

असुभ दरस वारिद गुनि जीवन अंत आपुनो लेखैं।

मानिनि मान नमन घन मारुत उपवन वनन नचावै

ललित विकच कंदल कुलकलिका जगमोहन अकुलावै।

श्‍यामा बोली - “आप तो बड़े प्रेमी और कवि जान पड़ते हैं; पावस की अच्‍छी छटा दिखाई। आप का वर्णन मेरे जी में धस गया। मैं भी कहती हूँ सुनिये -

जलद पाँति धुनि संपति निज लहि कल आलाप सुहाई

किलकि कलाप कलापिन कुहुकत कोकिल काम कसाई।

बाजत मनौ नगारे सुनि धुनि पावसराज बधाई

श्रुति सुखदायक मोर पपीहा बग पंगति नभ छाई।

नव कदंब रज गगन अरुन करि अंबर सुषमा साजै

कंदल सुमन पराग सुरभिजुत जेहि लहि सब दुःख भाजै।

अनुरागिन चित नव नव उपवन पौन प्रेम प्रकटावै

नवल नवेलिन मन मनोज मथि परसि अंग उपजावै।

नीरद प्रथम नीर के बूंदन मही रहित रज कीन्‍ही

ताप मिटाय सबै विधि धरनी आँगन सुख दै चीन्‍ही।

केतक चहुँ सोहत वन वागन जापै भृंग गुंजारै

गजरद से अति सेत मनोहर रागिन हृदय विदारै।

घन घन अवलि विघट्टन सों मनु खस्‍यौ खंड शशिकेरा

कृशित शिखा अति पथिक भृंग सम आवत गिरत घनेरा।

कुटज पराग सुमन कन निर्झर चारु बुंद मनु राजै

चूरन ललित दलित मोती सित अनुपम सोभा भ्राजै।

मनु दधि रेनु सुहात मनोहर पियत भृंग मकरंदा

पावस सुखद समीर डुलावत श्‍यामा तन सुखकंदा।”

मैं श्‍यामा की कविता सुनकर दंग हो गया, मैंने ऐसी अपूर्व कविता कभी किसी ललनागण के मुख से नहीं सुनी थी। मैं श्‍यामा और श्‍यामसुंदर की प्रेम कहानी सुन चुका था - बहुत जी में विचार किया। हाथ कुछ न आया मैंने कहा - “श्‍यामा, तुम्‍हारी कविता ने मेरे जी में छेद कर दिया - हाय रे दई! आज श्‍यामसुंदर न हुआ नहीं तो तुम्‍हारे रूप और गुण दोनों की बलिहारी होता, पर यदि उनके ओर से मैं यह कहूँ तो तुम्‍हैं कैसा लगै?

प्‍यारी पावस प्रबल प्रलय सम तुअ बिनु मुहि दुःखदाई

अब हूँ तो सुधि लेहु देत ए बादर विरह बधाई।

नूतन अवलि नीप बन दस दिसि वारिद पट सरि धारे

निज रज वसन समान दियो गुनि सखी भाव दुःख टारे।

गगन गहन गिरि गिरा गभीरन गरजत गरज गयंदा

बीच बीच विचरत बन बिजुरी विगल बक वृंदा।

भीम भयानक भौनहु भासत भांदो भामिनि भोरी

तेरे रहित अतन तरकस तै तीर तान तन तोरी।

मृगनैनी मृगांक मन मंदिर मुद्यौ मधुर मुख मोही

परम प्रीति परतीत पीर पिय प्‍यारो परवस पोही।

चतुर चलाक चपल चितचोर चोर चलु चीन्‍हो

छिप्‍यो छपाकर छितिज छीरनिधि छगुन छंद छल छीन्‍हो

झन झनात झिल्‍ली झंपावत झरना झर झर झाड़ी

ठसक ठसकि ठठकी ठसकीली ठाठ ठाठ ठकि ठाड़ी।

डरत डरत डग डगरी डगरहिं डगमगात डहकानी

थरथरात थर थर थिर थाकी थम्हिं थम्हिं थहरि थकानी।

दई दगा दर दर दिल दाह्यौ दाहकि दहन द्रुम दागा

जोहत जगी जगत जमजामिनि जगमोहन जन जाना।”

श्‍यामा ने कहा - “बस बस - मैं सब जान गई - पर तुम यह तो मुझै कहो कि तुम कौन हौ - मुझै बड़ा संदेह होता है - “

मैंने कहा - “अभी तुम अपनी कथा पूरी करो - अंत में कहूँगा जो कुछ कहना है - तुम्‍हारी कथा यद्यपि दुःखदायक है पर सुनने को जी ललचाता है। इस्‍से जब तक पूरी न सुनावोगी मैं कुछ भी न कहूँगा। जैसे इतनी दया कर इतनी कही वैसे ही शेष तक कृपा कर कह ढारो।”

श्‍यामा बोली - “श्‍यामसुंदर की प्रीति दिन दिन शुक्‍ल पक्ष के चंद्रमा सी बढ़ती गई - बार बार मुझसे समागम हुआ, बार बार मैंने उनकी तपन बुझाई। अब तो वे ऐसे विकल हो गये थे कि बिना मेरे एक छिन भी न रहते। जब देखो तब मेरी ही बात - मेरा ही ध्‍यान - मेरा ही मान - तान में भी मेरा नाम - कविता में भी मैं - श्‍यामसुंदर के नैनों की तारा - श्‍यामसुंदर के नैन चकोर की चंद्रिका - उनके हृदय-कमल की भ्रमरी - और कहाँ तक कहूँ उनकी जो कुछ थी सो मैं ही। उन्‍होंने ऐसा प्रेम लगाया जिस्‍का पारावार नहीं।

“जागत सोवत सुपनहू सर सरि चैन कुचैन।

सुरति श्‍यामघन की हिए बिसरे हू बिसरैन॥”

और मेरी भी यही दशा हो गई थी

“जहाँ जहाँ ठाढ़ो लख्‍यौ श्‍याम सुभग सिर मौर

उनहू बिन छिन गहि रहत दृगन अजौं वह ठौर।

सघन कुंज छाया सुखद सीतल धीर समीर

मन ह्वै जात अजौं वहै वह जमुना के तीर।”

एक दिन श्‍यामसुंदर प्रातःकाल स्‍नान को जाते थे, मै भी नहा के नदी की ओर से आती थी। हम दोनों गली में मिले। दिन निकल चुका था, पर उस समय वहाँ कोई न था। ज्‍यौंही उनके निकट पहुँची बदन कँप उठा, जाँघें भर आईं और पिडुरीं थरथराने लगीं - इतने में मेरी एक सखी सावित्री नाम की पहुँच गई, हाथ भी कँपने लगे और माथे की गघुरी गिर पड़ी। सावित्री ने मुझै थाम्‍ह लिया नहीं तो मैं भी गिर पड़ती। गघरी तो चूर चूर हो गई। श्‍यामसुंदर हँस के चले गए। यह भेद किसी ने नहीं समझा। श्‍यामसुंदर ने उसी दिन मुझै यह लिखा भेजा -

तन काँपे लोचन भरे अँसुआ झलके आय

मनु कदंब फूल्‍यौ अली हेम बल्‍लरी जाय।

हेम वल्‍लरी जाय कनक कदली लपिटानी

अति गभीर इक कूप निकट जेहि व्‍यालि विलानी।

निकसि जुगल गिरि तीर जासु पंकज जुग थापे

खेलत खंजन मीन तरल पिय लखि तन काँपे।

यह उन्‍हीं की रचना थी मैं पढ़ के समझ गयी और मनहीं मन मुसकानी लज्जित हुई। मैंने उनसे कहला भेजा कि इसका अर्थ समझा दो। वे बड़े आनंद से आये मुझै घर में न पाया मैं उस समय सुलोचना और वृंदा के साथ नहाने चली गई थी। श्‍यामसुंदर घर से फिरे और घाट की ओर चले - वहाँ पहुँचते ही मुझै वहाँ भी न पाया - कारन यह कि मैं तब तक नहा धो अपने घर चली आई। श्‍यामसुंदर निराश हुए घर लौट गए। ऊधो को बुलाके उरहना दिया -

तरसत श्रौन बिना सुने मीठे वैन तेरे

क्‍यौं न तिन माहिं सुधा वचन सुनाय जाय

तेरे बिनु मिले भई झाझर सी देह प्रान

रखि ले रे मेरो धाय कंठ लपिटाय जाय

हरीचंद बहुत भई न सहि जाय अब

हाहा निरमोही मेरे प्रानन बचाय जाय

प्रीति निरवाहि दया जिय में बसाय आय

एरे निरदई नेकु दरस दिखाय जाय।

ऊधो ने बहुत प्रबोध किया श्‍यामसुंदर रात भर विकल रहे। भोजन और नींद सपने हो गई। सुधि बुधि तन की भूलि गई। दूसरे दिन मैंने सुलोचना द्वारा सब वृत्तांत उनका सुना। बड़े सोच में रही - क्‍या करती कुछ उपाय नहीं था, पर उनके मन को संतोष करना मेरा मुख्‍य धर्म था, मैंने लिख भेजा कि वट-सावित्री के पूजन के पीछे भेट होगी। मैं - दिन सखी सहेलियों के साथ वट पूजने जाऊँगी तुम भी वहीं चलना। इतना ही लिख भेजा। मैं अपने जी में प्रसन्‍न हुई केसर का उपटन वदन में लगाकर केसर वदनी हो गई। शुद्ध स्‍नान कर पीत कौपेय की सारी पहिन बसंतवधूटी बन गई। वृंदा ने माँग गुह दी, सिंदुर की रेख धर दी। सीसफूल खोंस लिया, नागिन सी चोटी पीठ पर लहराती थी। नेत्रों में काजल की रेख मात्र लगा ली। कानों में कर्णफूल सोने के-कंठ में विद्रुम और हेम की कंठी, सोने की हँसुली - श्‍यामसुंदर की दी कांचनी माला - लिलार में टीका - पटियों में बंदनी - हाथों में गुजरियाँ - पैरों में पैजनियाँ-बाजूबंद इत्‍यादि पहन के पूजा करने को वृंदा, सुलोचना, सावित्री, सत्‍यवती, सुशीला, मालती, मदनमंजरी, चंपककलिका, सुरतिलतिका इत्‍यादि सबों के साथ चली। वट वृक्ष निकट ही तो था सब सहेलियाँ मंगलगीत गातीं चलीं। श्‍यामसुंदर ऊधो के साथ दूसरी ही वाट से पहुँचे। सैकड़ों के बीच में से उन्‍होंने मुझै चीन्‍ह लिया और उनके नैन किबिलनुमा की भाँति मेरे ही ऊपर छा गए -

“वाही पर ठहराति यह किबिलनुमा लौ डीठि”

और मेरी भी गति चातक चकोर सी हो गई थी -

'फिरै काक गोलक भयो देह दुहुन मन एक'

श्‍यामसुंदर मेरी छवि पर रीझ गए आँख आँख से मिली और मन मन से, पर हाय रे समय! हम लोग यद्यपि अति निकट थे बोलचाल न सके। पूजा समाप्‍त हुई। मैं उसी राह से अपने घर आई और वे भी उसी राह से गए। वर्षा का आरंभ हो आया था - श्‍यामसुंदर ने मुझै मिलने को लिख भेजा। मैंने भी यह उत्तर दिया -

तीर है न वीर कोऊ करैना समीर धीर

बाढ़यौ श्रमनीर मेरो रह्यो ना उपाव रे

पंखा है न पास एक आवन की आस तेरे

सावन की रैन मोहि मरत जियाव रे

संगम में खोलि राखी खिरकी तिहारे हेतु

भई हौं अचेत मेरी तपन बुझाव रे

जान जात जानै कौन कीजिए उताल गौन

पौन मीत मेरे भौन मंद मंद आव रे।”-

इसको पढ़ श्‍यामसुंदर आनंदरूप हो गए। बार बार इस कवित्त को पढ़ छाती से लगाया और 'धन्‍य भाग' कह किसी प्रकार से साँझ को नियत समय पर श्‍यामसुंदर पहुँच ही तो गए। इस बात के सुख का पारावार नहीं लिखती, मुझै तो मानौ साक्षात् बैकुंठ भी कुंठ जान पड़ता है। श्‍यामसुंदर की बड़ाई मैं कुछ नहीं कर सकी - मेरी रसना उनकी प्रशंसा और सुख कहते कहते थक गई थी। पर हाय मैं ऐसी बेकाज ठहरी कि उनको मुँह बताने की भी न रही। उनकी भलाई और मेरी बुराई - उनकी सौजन्‍यता और मेरी दुष्‍टता - उनकी दया और मेरी निर्दयता - उनकी कृपा और मेरी निठुरता - उनकी सचाई और मेरी झुठाई - उनकी दीनता और मेरी क्रूरता - उनकी हाय और मेरी हँसी - उनकी बड़ाई और मेरी नीचता - उनके दिल की स्‍वच्‍छता और मेरी कपटता - उनका तलफना और मेरा हँसना - इन दोनों पाटियों का सेतु हम दोनों की जीवन नदी में बाँधा जायगा और आचंद्रार्क दोनों की कहानी लोक में प्रसिद्ध रहैंगी। बस अब अधिक कहने का क्‍या होगा - संसार इसको जान बैठा। तो मैं अपनी कथा कहती हूँ, सुनो। इस विषय में श्‍यामसुंदर ने जो कविता की वह तुम्‍हैं बताती हूँ।

सोरठा

दूती वीजुरि रैन, सहचरि चिर सहचारिनी।

जलद जोतिषी वैन, सायत धरत पयान की॥

तिमिर सुमंगल वैन, तोम सदा झिल्‍ली रवै।

मुग्‍धे लहि मिलि चैन, छोड़ि लाज पियकंठ लगि॥

कुंडलिया

पैयां परि करि विनय बहु लाई वाहि मिलाय

जमुना पुलिन सुबालुका रही हिये लपिटाय

रही हिये लपिटाय मिटावत तनकी पीरा

मदनमंजरी चंपमालती अति रतिधीरा

सजनी राखे प्रान सींचि अधरामृत सैयाँ

मुरझत नव तन बेलि विरह तप सों परि पैंयाँ।

बरवै

सुभल सलिल अवगाहन पाटल पौन

सुखद छाहरे निदिया सुरभित भौन।

रजनीमुख सजनी सो अति रमनीक।

रमनी कमनी चुंबन बिनु सब फीक।

तनिक तनिक लै चूमा बकुलन भौंर।

अति सुकुमार डार पै मौंरन झौंर।

सदय दलित मधु मंजरि सिरिस रसाल

आलबाल नव जोबन द्रुमहु विशाल।

लैकर बीन बसंतहिं गीत बसंत

कोइ परबीन लीन ह्वै बाग लसंत।

कुंज चमेली बेली फैली जाय

श्‍यामालता नवेली फूली धाय।

एला बेला लपटी बकुल तमाल

मनु पिय सों आलिंगन करती बाल।

अमराई में कोकिल कुहकै दूर

धीर नीर के तीरहिं जीवन मूर।

वार ना लगाई सखी लाई सो मिलाई कुंज

जेठ सुदी सातैं परदोष की घरी घरी,

घेरि घेरि छहरि हिये व्‍यौम आनंदघटा

छाई छिन प्‍यासी छिति वरस भरी भरी।

थाह ना हरष को प्रवाह जगमोहन जू

गंगा औ कलिंदी कूल तीरथ तरी तरी।

हरी हरी दूब खूब खुलत कछारन पै

डारन पै कोइल रसालन कुहू करी।

अली शुभ तीरथ तीर लसै मलमांस पवित्र नदी जुग संग,

अनंग के घाट नहाय नसैं भलै पालक केंचुरी मानो भुजंग,

मनोरथ पूरन पुन्‍य उदै अपनावै रमा गहि हाथ उमंग,

गिरीश के सीस पयोज चढ़ैं जगमोहन पावन तौ सब अंग।

सातैं जेठ अधिक सुदी बुधवासर परदोष

सुरसरिं औ कालिंदिका कूल फूलमय कोष

कूल फूलमय कोष पुन्‍यतीरथ जो आवै

ताकि रमा गहि आपु दया करिकै अपनावै

बड़े भाग जो पाव परब मज्‍जन करि ह्यातैं

पातक विनसै मिलै सुपद जगमोहन सातैं।

यह कविता उन्‍होंने बाँचकर मुझै सुनाया और प्रत्‍यक्षरों का मनोहर अर्थ भी बताया। मैं उनकी कौन कौन सी कथा कहूँ यदि एक दिन का समाचार एकत्र करके लिखूँ तो महाभारत से भी बड़ा ग्रंथ बन जाय। पर वे सदा वियोगे के शंकी थे। नाना प्रकार के भाव और दाव जी में करते रहे - मुझै बड़ी दयापूर्वक एक अमोल वज्र की अँगूठी केवल स्‍मरणार्थ दे गए थे। पर मेरा वज्र हृदय न पसीजा, एक मन आवै कि लोक लाज छोड़कर अनन्‍य भाव से श्‍यामसुंदर को भजै, एक मन आवै कहीं निकल जाऊँ, एक मन आवै कि जोगिन बन वन वन धूनी रमाती रहूँ - पर थोरी वैस में ए बातैं असंभव थीं - हाँ प्रेमजोगिन बन श्‍यामसुंदर के वन में मदन अनल की धूनी रमाना संभव था - इतने में वज्र गिरा। हाय रे दई! मुझै गर्भ की शंका हुई, वह शंका काल के बीतने से रोज रोज पुष्‍ट हुई। आज और कल्‍ह कुछ और था। मैं घबड़ानी, चिहुँकी - जकी सी रह गई। 'भइ गति साँप छछूँदर केरी' न किसी से कहने की और न सुनने की बात थी। कहती किस्‍से, कहती तो केवल श्‍यामसुंदर से और उनसे कहना ही पड़ा। पर वृंदा और सुलोचना दोनों जान गई थीं। त्रिजटा भी जानती थी, फैलते फैलते बात ऐसी फैली कि वज्रांग विष्‍णुशर्मा और मकरंद सभी जान गए। मुझै नहीं मालूम कि मेरे माता पिता भी इसे जानते थे। पर पिताजी जो घर में थे ही नहीं। उन दिनों कार्यवशात् पहले ही से पाताल को चले गए थे। उन्‍हैं मंत्र अच्‍छे अच्‍छे आते थे इसी से नागलोक में जाने में कभी शंकित नहीं हुए। और ब्राह्मणों की कहाँ अगति है। आकाश पाताल और मृत्‍युलोक तीनों में विचरते रहते हैं। मेरे पिता के परम हितैषी और संबंधी पंडित वज्रमणि थे। मेरे पिता पाताल जाने के पूर्व ही अपना कुटुंब उनके और श्‍यामसुंदर के भरोसे छोड़ गए थे। पर सच्‍चा हितैषी और कृपालु केवल श्‍यामसुंदर ही था जिसने कभी वंक दृष्टि से हम लोगों को नहीं देखा। दयाछत्र की छाया सदा हमारे दी मस्‍तकों पर किए रहे, शत्रुओं ने जब जब क्रोधाग्नि से हमारा दीन परिवार-वन जलाना चाहा वे सदा कवच से ही सहायता का शीतल जल बरसाते रहे। संसार में ऐसा कौन पदार्थ था जो उन्‍होंने मेरे माँगे और बिना माँगे नहीं दिया। कच ने भी इतनी सेवा देवयानी की न की होगी। राम और नल को भी सीता और दमयंती के विषय में इतने दुःख न झेलने पडे़ होंगे।

दुष्‍यंत भी शकुंतला के लोप हो जाने पर इतने विकल न भए होंगे। लोप! हाय लोप - यह क्‍या भविष्‍यबानी निकली। लोप और कोप दोनों।” इतना कह श्‍यामा रोने लगी। मैं इस विचित्र लीला को देख चकित हो गया। मुझसे कुछ कहा नहीं गया मन चिंता के झूले में झूलने और कुछ और वृत्तांत सुनने को फूलने लगा। पर अब सुनना कैसा अब तो प्रत्‍यक्ष देखना रह गया था। एक तो स्‍वप्‍न में भी प्रत्‍यक्ष-प्रत्‍यक्ष पर भी परोक्ष, परोक्ष पर शब्‍द - और शब्‍द भी कैसा कि आप्‍त, सर्वथा विश्‍वास योग्‍य। रथयात्रा का मेला आया। प्राणयात्रा खूब हुई हाँ - तो रथयात्रा की बात - यह जगन्‍नाथपुरी के मेला का अनुकरण है। श्‍यामापुर में सभी रंग तो होते हैं। श्‍यामा और श्‍यामसुंदर इसी वज्र की खोरों में खेलते खाते रहे, पर कच्‍चे गऊ का मांस कभी नहीं खाया।

यह तो बड़ी कहानी है। कोई विश्‍वासपात्र और मित्र किसी राजा के पास अपने अंगरखे के भीतर दाती के निकट एक लवा को लपेट गया और युद्ध का समय आया बोला, “महाराज जो इस जीव को होगा सो आपको होगा।” यह कह वह अपने घर आया और उस लवे की ग्रीवा मरोर डारी। बिचारा छोटा सा पक्षी मर गया और उन लोगों ने मिलकर उस राजा का भी वही हाल कर दिया। बस, स्‍वप्‍न में सभी देखा, होनी अनहोनी सभी हस्‍तामलकी के समान जान पड़ी। यात्रा का सैर हुई, जगन्‍नाथ जी की पावन झाँकी हुई, पर मैं नास्तिक हूँ यदि नहीं भी हूँ तो लोग तो ऐसा ही समझते हैं। मैं तो शपथपूर्वक इस कोरे कागद पर लिखे देता हूँ कि आज लौं मेरे हृदय को किसी ने नहीं पाया। किसके माँ बाप और किसके पुत्र कलत्र, कोई किसी का नहीं, “जग दरसन का मेला है” मिल लो, बोल लो, हँस लो, खेल लो। “चार दिन की चाँदनी फेर अँधेरा पाख” - अंत को सब एक राह से निकलेंगे, राजा रंक फकीर सभी की एक सी गति होगी, जो पहले सरागी नहीं हुआ वह विरागी कैसे होगा। सच तो यही है -

नारि मुई घर संपति नासी

मूँड मुड़ाय भए संन्‍यासी।

संन्‍यासी नहीं सत्‍यानाशी हैं।

जपमाला छापा तिलक सरे न एको काम।

मन काँचे नाचे वृथा साचे राँचे राम॥

विषय-भोगतृष्‍णा - विषय करो, झंडा गाड़ के रो, पर तृप्ति न होगी।

“हविषा कृष्‍णावर्त्‍मेव भूय एवाधिवर्द्धते”-

संसार तुच्‍छ है, असार है इसमें संदेह नहीं - मैं कहता हूँ - यह मेरा पुत्र और वह मेरी पुत्री है - तो भला यह कहो - तुम कौन हो? तुम कहाँ से आए - कहाँ रहे -कहाँ-कहाँ हो - और फिर कहाँ चल बसोगे? कुछ जानते हो कि बिना कान टटोले कौव्‍वे के पीछे दौड़ चले? संज्ञा तुम्‍हारी कहाँ चली गई। ज्ञान तो तुम्‍हारा अपना कर वह देखो तुम्‍हैं छोड़ भागा जाता है - दौड़ो-दौड़ो पकड़ो जाने न पावै। भला, यह तो हुआ। तुम्‍हारा बल अपने शरीर पर है या नहीं? यदि कहो नहीं - तो बस तुम हार गए। फिर तुम्‍हारा बल और किस पर होगा? कर्म बंधन हैं - कर्म से मुक्ति नहीं होती - यज्ञ, जप, तप, वेद, पाठ, पूजा, फूल, चंदन, चावर, पाषाण मूर्ति, देवालय, तीर्थ - इन सभों से मुक्ति नहीं - 'ऋते ज्ञानान्‍न मुक्तिः' - यही सर्वोपरि समझो - किसका ईश्‍वर और किसका फीश्‍वर - 'ईश्‍वरासिद्धेः' ईश्‍वर मुक्‍त है या बद्ध? मुक्‍त है - तो उसे सृष्टि बनाने का प्रयोजन क्‍या था - नहीं जी कदाचित् बद्ध है - तो बद्ध होने में मूढ़ है - फिर सृष्टि बनाने को सर्वथा असमर्थ है - क्‍यों क्‍या कुछ और बोलोगे। आत्‍मा का ध्‍यान करो 'नित्‍यः सर्वगतः स्‍थाणुरचलोयं सनातनः' 'असंगोयं पुरुषः' इत्‍यादि देखो। शुभाशुभ कर्मो से कुछ प्रयोजन नहीं जब पुरुष प्रकृति से विलग होता है तभी मुक्ति है और पुनर्जन्‍म तभी बंद होगा - अब अधिक सुनोगे तो पूरे योगी ही हो जावोगे।

ज्ञान सूझ रहा है, क्‍यौं न हो मेरे मित्र क्‍यौं न हो मैं तुम्‍हारा दास हूँ - चलो अब कुछ तीर्थ सेवन करैं - बहुत हो गया। जाने दो - जाने दो जो चाहै सो करै करने दो, हमैं क्‍या पड़ी जो दूसरों के बीच में बोलैं। परमार्थ करो। हमको तो सदा गौतम जी का न्‍याय कंठ करना है, फक्किका फाँक के बैठ रहो वा चलो रथयात्रा का मेला देखैं, या गंगा जी चलो प्रयागराज चलैं, त्रिवेनी में बुड़की लगावैं, कुंभ का मेला देखो, कुंभज मुनि का दर्शन कर अपनी आत्‍मा शुद्ध करैं नहीं नहीं श्‍यामा न छूटे। श्‍यामा कहाँ गई - तो अब श्‍यामा रोने लगी - मैं बड़े घनचक्‍कर में पड़ा यह नहीं जानता था कि श्‍यामसुंदर भी यह कहानी निकट ही लतामंडप मैं छिपा छिपा सुन रहा था। मैं देखने लगा यह कौन आता है? श्‍यामसुंदर? श्‍यामसुंदर ही था। दौड़कर श्‍यामा के अभिमुख हुआ। श्‍यामा ने कहा, “हाय रे मनमोहन प्‍यारे - हाय हाय कहाँ था प्‍यारे” ऐसा कह श्‍यामसुंदर की ओर दौड़ी कि उसे धाय के कंठ में लगा ले त्‍यौंही आँसुओं का सागर उमड़ा जिधर देखो उधर जल ही जल दिखाने लगा। पानी बढ़ने लगा। पानी श्‍यामसुंदर के कमर तक था, श्‍यामा उसी शिखर पर खड़ी थी चिल्‍लानी “चलो चलो तैर आवो।

प्रेम समुद्र अथाह है पास न खेवनहार।

पास न नाव लखात गहि आस शिला लगु पार॥”

समुद्र में पाला पड़ने लगा उत्तर की हवा बही क्षण में श्‍यामा की मूर्ति देखते ही देखते बिला गई। उधर श्‍यामा ने सहारा देने को हाथ फैलाया इधर श्‍यामसुंदर ने पर भावी प्रबल है। सब श्रम निष्‍फल हो गया। बस वही दोहा हाथ रह गया। श्‍यामसुंदर रोने लगा भूमि पर गिर पड़ा मैंने उसे उठाया प्रबोध किया आँखैं पोछीं और धीरज धराया पर सच्‍चे नेही कब मानते हैं।

'डरन डरैं नींद न परै हरै न काल विपाक।

छिन छनदा छाकी रहति छुटत न छिन छबिछाक॥'

श्‍यामसुंदर मुझै अपना प्राचीन मित्र जान कहने लगा। संबंध, बस, जैसे देह और देही का - स्‍थूल और लिंग शरीर का हम लोगों में भेद नहीं था। इस मित्रता की कथा का स्‍वप्‍न नहीं हुआ इसी से इस स्‍थल पर नहीं लिखी। श्‍यामसुंदर का अनंत विलाप सुनो सुनने के लिए महाराज पृथु हो जावो ब्रह्मा से प्रार्थना कर उनसे उनका एक दिन भी उधार ले लेवो, वह बोला, “प्रिय पहले तो वह पत्र सुनो जो मेरे प्रियतम प्रेमपात्र ने लिखा था तब आगे कुछ कहूँगा।

प्रियतम - ! तुम्‍हारा पत्र बहुत दिनों पर आया जिसके विलंब का कारण तुमने किसी श्‍यामालता को बतलाया जो आज कल्‍ह तुम्‍हारे प्रेमतरु पर नित नव पल्‍लवित होगी। खैर - तुम्‍हारे प्रेम समुद्र की नौका तुमको आधार है - तुम्‍हारे आनंद के पाल उड़ैं पर ईश्‍वर तुमको उन निराश की चट्टानों और वियोग के तूफानों से बचावैं जिनने प्रायः प्रेम के सौदागरों की आशा भंग करके विध्‍वस्‍त किया है। तुम्‍हारे मनोरथ मंदिर की नवीनमूर्ति जिस्‍की पूजा तुमने प्रेम से की होगी - जिस्‍के चरणों पर सुमन समर्पित किये होगे - और जिस्‍के वरदानों से तुमको तृप्ति नहीं होती कृपा करके तुमको फिर फिर कृतार्थ करै!”

तुम्‍हारा

प्रेम

सुनो इस पत्र के प्रत्‍येक अक्षरों का कैसा बल है - वाह रे प्रेम-पात्र तेरी बड़ाई क्‍या करूँ - तू तो मेरा परम सुहृद और आँखों का तारा है। तूने यह कैसी भविष्‍यवाणी भाषी। मैं तो इस विचित्र आत्‍मा के संयोग का उदाहरण देख चकित हो गया, आहा! इसी को सिद्धि कहते हैं। जीव एक है। देखो हजार कोस पर बैठा प्रेमपात्र हमारा भविष्‍य जान गया - जान ही नहीं गया वरंच लिख भी दिया। यही सच्‍चे प्रेम का प्रमाण है। ध्‍यान भी लगाना इसी का नाम है। समाधि भी इसे कहते हैं। मैं प्रेमपात्र का बड़ा भरोसा रखता हूँ। वे मेरे अद्वितीय मित्र और इस जगतीतल में मेरे मानस से एक ही हंस हैं। जैसे चकोर अद्वितीय भाव से चंद्र को - मयूर मेघ को - कोमल रवि को और कोइल रसाल को भजते हैं उसी प्रकार मैं साक्षात् मंगल मूर्ति प्रेमपात्र को भजता हूँ -

जिमि मंदर मथि सागरहिं पायो लोकानंद

चंद्र सरिस मंगल मिल्‍यौ जगमोहन सुखकंद।

जिमि अशेष जग को तिमिर नासत एक मयंक

मंगल मणि शशि हिय तिमिर जगमोहन जिय अंक।

उत फणि मणि वासुकि सिरहिं अहिपुर करहिं प्रकास

इत मंगल मणि मोर हिय पुर लहि दिपत अकास।

उनकी मूर्ति मेरे हृदय पर लिखी है - बस कहाँ तक लिखूँ उनकी हमारी प्रीति निबह गई। ईश्‍वर सभी की ऐसी ही निबाहै। मैं तो निराश हो गया। श्‍यामा ने क्‍या कहा - स्‍वप्‍न तो नहीं था। प्रत्‍यक्ष था कि स्‍वप्‍न मुझै कुछ भी नहीं मालूम -

सुख ना लखात नहीं दुःख हू जनात हमैं,

जागत कै सोवत बतात तुम सो दई।,

बैठयौ कै चलत चित्‍यौर में लिख्‍यौ कैधों चित्र,

देह सो विदेह कैधों अगति दई दई।

मातौ कै वियौग विषघूँट घूँटयौ मीत मैंने,

मोह सब इंद्रिन विचारत कहा नई।

जीवत कै मरत विकार भरमात अहो,

श्‍यामा बस कौन जगमोहन दशा भई -”

इतना कह श्‍यामसुंदर ने आँसू भर लिये। मैंने कहा -

“यही तेरे आँसू गिरत धरनी जर्जर कना

कहौं बातैं कासूँ विखर मनु मोती मन धना

भयो भारी तेरो विरह जिय घेरो घहरि कै

कहै चेतौ मेरो अधर तुअ नासा थ‍हरि कै।”

श्‍यामसुंदर ने कहा - “भाई मैं क्‍या कहूँ मुझसे कुछ कहा नहीं जाता -

विरह अगिन तन बेदना छेद होत सुधि आय।

जियते नहिं टारी टरै चाह चुरैलिन हाय॥ -

बस अब मेरी कहानी, विनय और विलाप सुनना होय तो विनय पढ़ो -

कुंडलिया

दुसह विरह की आँच सों कैसे बचिहैं प्रान

बिनु संजोग रस के सिंचे श्‍यामा दरस सुजान

श्‍यामा दरस सुजान परस तन पाप नसावन

दरद दरल सुख करन अधर मधुपान सुपावन

श्री मंगल परसाद लजावत शरद इंदु कह

मुखमयंक तुअ बंक अलंक अरु भाल विदुंसह”

श्‍यामा श्‍यामा नाम को जीह रटत दिन रैन

श्‍यामा की मूरति अजो टरत न पलभर नैन

“टरत न पलभर नैन हियो निज धाम बनायो

बहुरि छुड़ायो खान पान प्रानन अपनायो

श्री मंगल परसाद तुही जग में सुखधामा

और सकल जंजाल तोहि बलि जाऊँ श्‍यामा”

पावस गइ झलकी शरद खंजन आगम कीन्‍ह

खजन गंजन लोचनी श्‍यामा दरस न दीन्‍ह

“श्‍यामा दरस न दीन्‍ह चंद वा मुख सम भायो

गए बहुत दिन बीत शरद पूनो चलि आयो

श्री मंगल परसाद जरै जियरा विरहा बस

नीर नैन ते झरत झरै झरना जिमि पावस।

लावनी

मिलैंगे प्‍यारी तुमसे कभी यह आस लगाए रहते हैं।

यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥

किए करार अपार सार कुछ मिला न फल तुझसे प्‍यारी।

हार मान कर बैठे बस अब भई रैन मुझको भारी॥

कही बहुत कुछ सही पीर हम हाय धीर अब ना आवै।

सिसक सिसक कै आह आह कर सजल नैन दुःख तन तावै॥

कल न पैर पल एक कलपते आह आह करते बीते।

रैन द्यौसहू चैन छिना नहिं सकल मोद मन ते रीते॥

मारो वा राखो मुहि प्‍यारी बार बार यह कहते हैं।

यहाँ वहाँ था और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥

बहुत कहा समुझाया मुझको कही न मानी सो तूने।

याद करो बस बात पुरानी, भए नए दुःख ए दूने॥

घाट वाट की सुरति न आवति कहा कहौं तेरी बतियाँ।

रीझि खीझि कै कंठ लगी तब दरक जात सुधि कै छतियाँ॥

रोय रोय हम नदी बहाई आँसुन की तहँ बहते हैं।

यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥

पैंया परौं गुसैंया जाने जी में जो मेरे आती।

कहे से क्‍या अब लिख लिख भेजी सब कुछ हम तुमको पाती।

हाथ धरो या साथ तरक कर मैं न आह करनेवाला।

है कपोतवत गरदन तेरी कभी न हूँ टरनेवाला॥

प्रान जाय पै प्रन न नसावै कही तेरी हम करते हैं।

यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥

छोड़्यौ तू मझधार हमैं कहु कौन पार करनेवाला।

तेरे सिवा नहिं धीर हमारी पीर कौन हरनेवाला॥

जौ तेरे सनमुख मर जाते तौ न सोच जी में करते।

एक नजर भर देख भला हम मौतहु से नाही डरते॥

श्‍यामा बिनै सुनो जगमोहन हियो प्रान तन दहते हैं।

यहाँ वहाँ या और कहीं बस तलफ तलफ दुःख सहते हैं॥

सवैया

दूर बसे बस भागन आँगन तौहू भज्‍यौ इक आस समीरन।

प्रीति की डोर न टूटै कबौं वरु बाढ़ै मनी सुनु द्रोपदी चीरन॥

वैरि ये कैसे कटै दुःख द्यौस दुःखी जिय होत हमैं कहुँ धीर न।

भोगत प्रान परे केहि पातक सो जगमोहन को हरै पीर न॥

आएँ सुधि धीरज बिलात विललात हियो

मीन जलहीन लौ तलफ तलफावतो।

कोंचत करेजन कजाकी कमजात काम

कानन कमान तान कानन दिखावतो॥

चंदहू चकोरपिय मंद गहि बानि हाय,

चोंच ना चकोर सुधा बंदून चुवावतो।

होती इक आस ना प्रबल जगमोहन जू,

तौ तौ पौन पावक ह्वै बन मुरझावतो॥”

मैं श्‍यामसुंदर का विलाप और अकथ कहानी सुन बोला, “भाई तुमने तो ऐसा वृत्त सुनाया जिसे मैं आजीवन नहीं भूलने का। तुम्‍हारे प्रेम के साखे चलैंगे, तुम्‍हारी प्रीति की अकथ कहानी इस लोक और परलोक तक कही और सुनी जायगी, मेरा हृदय पिघल के नवनीत हो गया, मेरे नेत्र सजल हो गए। मैं तुम्‍हारे दुःख में दुःखी हो गया। जो आज्ञा हो वह करूँ। कौन उपाय तुम्‍हारे फिर समागम के लिये जायँ। किस उपाय से श्‍यामा प्‍यारी के दर्शन हों। किस रीति से उसकी उपलब्धि होगी, हाय रे करुणावरुणालय! तुझै हमारे प्रिय श्‍यामसुंदर की दशा पर तनिक दया नहीं आई। हा दैव! तूने क्‍या करके क्‍या कर दिया। क्‍या तुझे किसी का समागम नहीं भाता? तभी तो कोई ने कहा है -

“मेल उन्‍हैं भावै नहीं हैं सबसे प्रतिकूल।

घूणन्‍याय सों मेल हू करत होत हिय सूल॥”

हाय रे विधना! क्‍या तेरे ऐसे ही गुण हैं? तुझै ऐसी ऐसी बातैं कह किसने किसने न कोसा होगा - पर तुझै लाज नहीं - सकुच नहीं - कपटी, कुटिल और दूसरों के दुःखों में सुखी होने वाला है। मुँह छिपाकर उसी सागर में क्‍यौं नहीं बिला जाता जहाँ से निकला था। ऐसे ऐसे कर्म और तिस्‍पर भी लोगों के बीच में चार चार मुख खोल कर दिखलाना। तुम सा भी निर्लज्‍ज कम होगा। इस लोक में तो कोई बोध न हुआ पर उस लोक में सिवा तेरे कोई नहीं है। दुष्‍ट! दुःशील! शील दावानल। दुश्‍शासन! पापी! पापात्‍मन्! पापकर्मा! अधर्मी! निर्लज्‍ज! निर्दयी कपटी! संयोग-कपाट! वियोगशाली! विपत्ति कल्‍पतरु! संपत्तिकाननकुठार! क्‍यों इतने दुर्वचन सहते हो? अपना स्‍वभाव क्‍यौं नहीं छोड़ते क्‍या तुम्‍हैं यश लेना अच्‍छा नहीं लगता? क्‍या सदा कलंक प्रिय ही बनना भाता है - “

श्‍यामसुंदर कपोल पर हाथ रख कराहने लगा, मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा। ज्ञान आँसुओं के साथ बह गया, विज्ञान का प्रदीप जो हृदय में जलता था बुझकर वाष्‍प हो आह के साथ निकल गया। केवल आह की बतास मात्र भर गई।

“साँसन ही सो समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि

तेज गयो गुन लै अपनो पुनि भूमि गई तन की तनुता करि।

देव जिये मिलबे ही की आस सु आसहूपास अकास रह्यौ भरि।

जा दिन तै मुख फेरि हरैं हँसि हेरि हियौ जु लियौ हरिजु हरि।”

“पटी एको न जाकी कही जितनी जेहि नेह निबाह्यौ न एको घटी,

घटी लाज सबै कुल कान भटू कहिए अब कासो कहे से लटी

लटी रीति सखी मनमोहन की कवि देव कहैं व्रज में झगटी

गटी ग्‍वालिन की लटी बाँधे फिरै बसिए ना भटू कपटी की पटी।”

अधिक कौन कह सक्‍ता है। केवल मन में मसूसि रह जाना पड़ता है। मैं सोचने लगा कि देखो श्‍यामसुंदर नदी के इस पार खड़ा रहा - इस ईश्‍वर श्‍यामा कहाँ लोप हो गई। अंतर भी दोनों के बीच में कुछ ऐसा न था कि जिस्‍के कारण श्‍यामसुंदर को श्‍यामा के निकट पहुँचना असंभव होता। पर विधाता की अनीति कही नहीं जाती। मैंने श्‍यामसुंदर से कहा, “भाई धीरज धर - देख यह आशानदी मनोरथ के, जल से भरी तृष्‍णारूपी तरंगों से आकुल है, इस में राग के अनंत ग्राह कलोल करते हैं, इसके किनारे वितर्क के विहंगम उड़ रहे हैं और यह स्‍वयं धर्म के द्रुम को ध्‍वंस करती है। इसमें मोह की दुस्‍तर भौंरी पड़ती है और यह चिंता की अति गहन और ऊँची तटी के बीच से बह रही है। इसके पार जाना काम रखता है - “ इसको सुन श्‍यामसुंदर उठ खड़ा हुआ। आगे देखा तो वही नदी बहती दिखी जिसने मनमोहिनी प्रानधन श्‍यामा को तरंग हाथों के बीच छिपा लिया था और इस्‍से वियोग कराया था। उस नदी के बीच में वही शिखर मात्र दिखाता था जिस पर श्‍यामा का सिंहासन धरा था। श्‍यामसुंदर मुझसे बिना पूछे और उत्तर दिए कूद पड़ा, सैकड़ों गोते खाए। मेरा करेजा उछलने लगा।

मैं उसे थाम्‍ह कर गया। एक तो श्‍यामा गई दूसरे श्‍यामसुंदर भी उसी के पीछे चला - मैंने सोचा कि जीना मेरा भी व्‍यर्थ है - यही जान विमान को छोड़ कूदा - आँखैं बंद हो गईं कानों में पानी समा गया। अब तो नदी में मग्‍न हो गए - क्‍या जाने कहाँ गए - कुछ सुधि न रही - विवश थे - सुधि वुधि भूल गई - पाताल गए कि आकाश - बस, आँख मूँद के रह गए।

श्‍यामसुंदर की दूर से धुनि सुन पड़ी और वह यही कहता गया -

प्‍यारी जीवन मूरि हमारी। दीन मोहि तजि कहाँ सिधारी॥

तुअ बिनु लगत जगत मुहि फीको। गेह देह सर्वस नहिं नीको॥

कह तो वह गुलाब सो आनन। तेरे बिना गेइ भी कानन॥

हाय हाय लोचन की तारा। हा मम जीवन जीवनधारा॥

हाय हाय रति रंग नसेनी। हा मृगनैनी नागिनीवेनी॥

हा मम जीवन प्रान अधारा। हा मम हृदय कमल मधुवारा॥

हा मम मानस मान सरोवर। पंकज विहँग शरीर तरोवर॥

हा मम दृग चकोर शशि चांदनि। हा विधुवदनि सुकोइल नांदनि॥

दोहा

हा मम लोचन चंद्रिका, हा मम नैन चकोर।

हा मम जीवन प्रानधन, कहा गई मुख मोर॥

बाँह गहे की लाज तो, करियो तनिक विचारि।

तिन सी तोरी प्रीति क्‍यौं, काहे दियो बिसारि॥

“तलफत प्रान तुम सामरे सुजान बिना

कानन को बंसी फेर आयकै सुनाय जाहु,

चाहत चलन जीय तासो हौं कहत पीय

दया करि कैहूँ फेरि मुख दिखराय जाहु,

रहि नहिं जाय हाय हिय हरिचंद्र हौस

विनवत तासौ ब्रज और नेकु आप जाहु,

कसक मिटाय निज नेहहिं निभाय हा हा

एक बेर प्‍यारे आय कंठ लपिटाय जाहु।

इति तीसरे याम का स्‍वप्‍न।

चौथे याम का स्वप्न (श्यामास्वप्न) : ठाकुर जगमोहन सिंह

“थाकी गति अंगन की मति पर गई मंद

सूख झाँझरी सी है कै देह लागी पियरान,

बावरी सी बुद्धि भई हँसी काहू छीन लई

सुख के समाज जित तित लागे दूर जान,

हरीचंद् रावरे विरह जग दुःखमयो

भयो कछू और होनहार लागे दिखरान,

नैन कुम्हिलान लागे बैनहु अथान लागे

आओ प्राननाथ अब प्रान लागे मुरझान।”

चौथा प्रहर रात्रि का लगा, यह धर्म का पहरा था। स्‍वप्‍न की डोर अभी तक नहीं टूटी तौ भी क्‍या का क्‍या हो गया। अब भोर होने लगा। तमचोर बोल उठा, मोर भी रोर करने लगा। मंद मंद वायु चलता था मैं तो घोर निद्रा में मग्‍न था। भैरवी रागिनी सज के आ गई। गैवैयों की छेड़ छाड़ मची। धर्म की बेल फिर भी लहलहानी। चकई की कहानी पूरी भई। प्‍यारे चकवा से पंख फटकार और परो को चोंच से निरुवार चली मिलने। संयोगियों को काल सी प्राची दिशा दिखानी लगी।

वा चकई को भयो चित चीतो चीतोति चहू दिसि चाव सों नाची,

ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनि जोति मनों जम जाँची,

बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपति काची,

लोहू पियो जो वियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची,

खंडिता भी अपने अपने चिर बिछुरे प्रियतमों से मिल प्रसन्न हुईं, लगीं लाल लाल आँखैं दिखा दिखा झिड़कने और छिपे प्रेम से उरहने देने और बात कहने।

यथा सवैया

द्वारिका छाप लगै भुजमूल कह्यौ फल वेद पुरानन तौन है,

कागद ऊपर छाप सुनी जिहि कौ सिगरे जग जाहिर गौन है,

आप लगाई जो कुंकुम की सो सुहाई लगै छबि सों उर भौन है

छाती की छाव कौ प्‍यारे पिया कहियै बलि याकौ महातम कौन है।

कोई उत्‍कंठित होकरयह कहने लगी -

“छपाकर जोति मलीन महा दुति छीन त्‍यौं तारन की दरसात,

न आए गुपाल कहाँ धौ रहे यह कासो कहों हियरा हहरात,

कहै ललिते तिमि लाज और काम पुरी दुऔ बीच बनै न बतात

कछू तिय बैन जुबान पै आप भलैं नट कैसे बटा फिर जात।”

और कोई तो।

“देखि ढुरी पिय की पगिया अलसानि भरीं अखियाँ जब जोई,

त्‍यौं ललिते पग के डग डोलत बोलत औरई भाँति बनोई

कैसी बनी छबि आज की या मन भाई करो बरजै नहिं कोई

खोइए सोय सबै श्रम यौं कहि रूसि कै बल मसूसि कै रोई।”

जैसे सुर लोगों ने सागर को मथि चंद्रमा रत्‍न निकाला था वैसे ही भोर ही अहीर लोग दधि को मथानी से मथि नवनीत के गोले को निकालने लगे।

रात भर दंपतियों का नव निधुवन प्रसंग देखते देखते अनिमिष नैनों से जब दीपक थक गया जब अपने नैनों की जोत मिल मिलाने लगा।

चिरैयाँ अपने बसेरे से उठ लगी च्‍यों च्‍यों करने स्‍वप्‍नावस्‍था में ही श्‍यामा का पता न लगा। श्‍यामसुंदर वही कवित्त कहता कहता वहाँ चला जाता था बिचारे को थाह न लगी। न जाने कब तक और कहाँ तक बहैगा। मैं भी तो विमान सिमान सब छोड़ उसी के खोज में तत्‍पर था। उसके राग की तान नदी की तरंगों पर लहरा कर वायु से ठक्‍कर खाती और उसकी प्रत्‍येक आह की आह ब्रह्मांड से समा कर समस्‍त लोक में व्‍याप्त हो स्‍वयं ब्रह्मा के सिंहासन को भी हिला देती थी। ऐसे अवसर पर श्‍यामा न जाने किस पर्वत के कंदराओं में जा बची थी कुछ ज्ञात नहीं। उसको श्‍यामसुंदर का हाल कहनेवाला कोई न था। ऊधो का पता न था सेवक लोग सब सेवकाई में लगे थे, और किसकी गणना थी। भावी प्रबल होती है पर मैंने पीछा न छोड़ा। श्‍यामा का खोज लगाने के लिए आगे बढ़ा। जल के अनेक प्रकार के जंतुओं के फंदे में गिरता पड़ता चला। थाह न लगी एक भी नौका न थी - तीर लगना कठिन था। अभी तो अनेक भ्रम, आवर्त, नाद, हृद, शिला और चट्टानों से ठोकर खानी थी। तीर तो देख भी नहीं पड़ता था। पार करना केवल ईश्‍वर के हाथ रह गया। मुझे सिवाय बहने के और कुछ नहीं सूझता था - बस फिर क्‍या पूछिए बह चला। बह गया बह गया। पता नहीं - ठीक नहीं, तरंगों ने अपने हाथों में उपगूहन कर लिया। मैं तो चाहता था कि या तो पार लगै या बही जाऊँ। एक बार जोर मारा - दस बीस हाथ बहकर उस शिखर की ओर मुड़ा फिर बीस हाथ तैरा - तीस हाथ गया - चालीस हाथ जाकर पचास हाथ पर शिखर हाथ लगा। साँस लेने का स्‍थान तो मिला। शिखर पर चढ़ते ही छींक हुई पर इसकी क्‍या चिंता सन्‍मुख की छींक लाभदायक होती हैं। इस शिखर पर अशोक के वृक्ष तरे सिंहासन मात्र था। मैंने इसे भली भाँति देखा भाला, यहाँ वही श्‍यामा का सिंहासन था। पर दैवयोग से श्‍यामा न थी। अभी तक न तो श्‍यामा और न श्‍यामसुंदर कापता था। नदी के बीचो बीच का शिखर - पहले थल था पर अब जल हो जाने के हेतु कोई जंतु भी नहीं है। भयंकर बन साँय साँय बोलता था। केवल झिल्‍ली की झनकार सुना पड़ती थी। मैं इसी अशोक के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि हाय रे ईश्‍वर! तू मुझ हतभागे को किस विजन वन में लाया। अब क्‍या करूँगा - कहाँ जाऊँगा। भगवान्! तू भी बड़ा विचित्र है, मेरी दशा इस समय तो ऐसी ही गई थी “जैसे काक जहाज को सूझत और न ठौर” यह सब मुझै अपने मित्र श्‍यामसुंदर के काज सहना पड़ा - पर श्‍यामसुंदर अद्यापि कहीं दिखाई नहीं दिया। मैं इधर उधर बहुत दूर तक दृष्टि फेक देखने लगा पर कुछ भी पता न लगा। मैं अब मौन होकर आसन जमा के बैठ गया। अशोक से शोक मिटाने की प्रार्थना की, वह जड़ कब बोलने का था? “जब तक स्‍वासा तब तक शाखा” - यह कहावत प्रसिद्ध है। प्राणयात्रा की कुछ आशा न थी - प्राण बचना दुर्लभ जान पड़ा। थका माँदा अपने करम को ठोक बैठा।

रात ही को मुझै भगवान् दिवाकर ने दर्शन दिये। यह भी आश्‍चर्य की बात है -सूर्य्योदय से मुझै कुछ भी हर्ष न हुआ - क्‍यौंकि फिर तो संध्‍या की चिंता आई - जब संध्‍या होगी तब रात्रि तो अवश्‍य ही होगी। यह बड़ी गाढ़ी चिंता उपस्थित हुई क्‍योंकि इस निर्जन शिखर पर ही बिना अन्‍न पानी बितानी पड़ैंगी। आश्‍चर्य नहीं कोई वन का हिंसक जंतु आ टूटे - तो बस कथा समाप्‍त हो जाय। जो होना था सो तो होईगा अब बहुत सोच विचार से क्‍या हाथ आना है - चलो - “जब ओखली में सिर दिया तो मूसरों की क्‍या गिनती रही” - यही निदान सोच शिव सी अखंड समाधि लगाय आसन मार बैठ रहे। ज्‍यौंही समाधि लगाई अनेक कौतुक देख पडे। शरत्‍काल प्रगट हुआ। आकाश निर्मल शंख सा दिखाने लगा। सारस हंस चकोर सब के सब पूनो को शोभा निरखने लगे। जल विमल हो गया। नदियाँ स्‍वच्‍छ धारा से बहने लगीं। चंद्र का प्रतिबिंब जल के अंतर्गत छबि करने लगा। दुष्‍ट काले मेघ चंद्रमा के प्रकाश को देख बिला गए - ईश्‍वर वैरियों का इसी भाँति पराभव करै। हंसों का रोर सुनते ही मोर भागे और अपने पक्ष गिराने लगे क्‍यौंकि अब उनका पक्षकार कोई भी न रहा।

फूले कास सकल महि छाई। जनु वरषाकृत प्रकट बुढ़ाई॥

उदित अगस्‍त पंथ जल सोखा। जिमि लोभहि सोखै संतोषा॥

सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥

रस रस सूखि सरिस सर पानी। ममता त्‍यागि करहिं जिमि ज्ञानी॥

जानि शरद रितु खंजन आए। पाय समय जिमि सुकृत सुहाए॥

पंक न रेणु सोइ अस धरनी। नीति निपुण नृप कै जस करनी॥

जल संकोच विकल मए मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धन हीना॥

बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥

कहुँ कहुँ वृष्टि शारदी थोरी। कोई इक पाव भक्ति जिमि मोरी॥

चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।

जिमि हरि भक्ति पाइ जन तजहिं आश्रमी चारि॥

सुखी मीन जहँ नीर अगाधा। जिमि हरि शरण न एको बाधा॥

फूले कमल सोइ सर कैसे। निरगुन ब्रह्म सगुन भए जैसे॥

गुंजत मधुकर निकर अनूपा। सुंदर खग रप नाना रूपा॥

चक्रवाक मन दुःख निशि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपत्ति देखी॥

चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥

शरदातप निशि निशि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥

देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहि जिमि हरिजन हरि पाई॥

मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किए कुलनासा॥”

ऐसी शरत् ऋतु आई इसकी शोभा नि‍हार रहा था कि शिखर पर और भी कौतुक देख पड़े। क्‍या देखता हूँ कि एक बड़ी भारी विचित्र सभा लगी है। ऐसी सभा मैंने कभी नहीं देखी थी। भगवान् रामचंद्र, सीता और लक्ष्‍मण के सहित एक चंद्रकांत के सिंहासन पर जो शिखर के ऊपर धरा था विराजमान हैं। उनके सामने हनुमान जी हाथ जोड़े खड़े हैं, गरुड़ भी सेवा में तत्‍पर अड़े हैं।

बाईं ओर एक बजूबली भोग लगाने वाला पार्श्‍वद ब्राह्मण खड़ा है। महावीर की पूछ पकड़े एक बड़ी सुपेत डाढ़ी वाले वृद्ध महामुनि थे। इनके पीछे हाथ जोड़े बड़े गुरियों की माला लिए दोगा पहरे लाल बनात का कनटोप दिए - त्रिपुंड्र के ऊपर रामफटाका फटकाए उपनहे पावन - एक आँख से हँसता और दूसरी से रोता - लंबा साठिया - बूढ़ा - गाढ़ा और मुनिजी के सुख में सुखी और उनके दुःख में बना उन्‍हीं के पीछे खड़ा था। इसके ललार की खाल सिकुड़ गई थी। दाँत और ओंठ दोनों बदरंग पड़ गए थे। आश्‍चर्य नहीं कि तांबूल और चूर्ण दोनों अपना काम दसनों पर आरंभ कर चुके थे। मुख विवर ऐसा जनाता था मानो किसी पर्वत की गुफा हो। दाँत की पाँति ऐसी थी मानो कंदरा के मुख पर चट्टाने लगी हो - बुढ़ापा झलक आया था आधे से अधिक यौवन का कुठार बन चुका था। इसके बगल में एक भैरववाहन पाहन से भी दुष्‍ट लुलखरी करता बैठा था। भैरववाहन का रंग गोहुआँ माथे पर रामानंदी तिलक - बाहु और हृदय पर राम नाम छापे - पूछ हिलाते, उदर और दिखाते - कभी कभी भोंकता हुआ देख पड़ा। आगे के दाँतों में गीता की पोथी दबाए पर भीतर हड्डी चबाते बैठा था। इसके दहिनी ओर इसका प्राणोपम मित्र और अनुचर साक्षात् वाराह भगवान् अपने दंष्‍ट्रकराल पर लवेद की पुस्‍तक धरे मानो अभी महासागर से उसे उद्धार कर लाया हो बैठा था। इसके गलमुच्‍छे और कान तक लंबे बाल शोभा देते थे। माथे पर रोरी था चंदन की रेख इसके मत को पुष्‍ट करती चमकती थी। इसी के पार्श्‍व में महाशय शीतलावाहन भी डटे थे। ए वाराह भगवान् के भाई थे इनको शीतलाअष्‍टक गप्‍पाष्‍टक से भी बढ़ के कंठ था और यद्यपि ए अपने खर शब्‍दों के हेतु कल कंठ न थे तथापि भगवती दुर्गा को लपेट सपेट के दो तीन घंटों में सायंकाल को दुर्गा पाठ करके संतुष्‍ट ही कर लेते थे। इन दोनों के मध्‍य में एक जंबुक अपने पैरों से भूमि खोदता - इधर उधर देखता - सभों के कानों में फुसफसाता - धान की रोटी दाँतों में दबाए रामायन बाँचते बैठा था, इसके पीठ पर एक महाधर्मी निष्‍कपट बक 'प्राणिनाम्‍बधशंकया' - एक चरण उठाए भटकता था, यह वही जुंबुक था जिसने कर्पूरतिलक को राज का लालच दे बड़े भारी पंक में फँसाकर उसी का मांस नोच खा लिया पर दुनिया वेष को पूजती है। अंत में सभी अपने किए को पाते हैं। एक ओर सुषेण वैद्य - चित्रगुप्‍त - काकभुसुंडि - धृतराष्‍ट्र - शिवशंकर - बिलाई माता - तालूफोड़ - खिलात के खाँ - तुंबुरगंधर्व - और स्‍वयंप्रभा बैठी थी।

मेरी आँख झट इस मनोहर और विचित्र झाँकी की ओर फिर गई। मैं खड़ा हो गया। बड़ी देर तक विचारता रहा। मन में आया कि निकट बढ़ के देखैं, आगे पाँव बढ़ाया, बस चल दिया। भगवान् रामचंद्र के सन्‍मुख हाथ जोड़ खड़ा हो गया और मन ही मन नमस्‍कार दंड-प्रणाम कर वंदना की। चाहा कि कुछ कहैं पर इस्‍से भी एक विचित्र दृश्‍य ने मेरा मन अपनी ओर आकर्षण कर लिया। क्षणभर में आँख उठाते ही इसी सभा को एक विस्‍तृत मंदिर में बैठे देखा। यह मंदिर माया के बल से विश्‍वकर्मा ने बात की बात से बना दिया था। वही सभा बाहर लगी देखी - अर्थात् मंदिर के जगमोहन में। कान बंद करके सुना तो ढोल और सहनाई के शब्‍द सुने। आँख बंद करते ही यही विकराल वदना चंडी पूर्वोक्‍त साज से मंदिर के भीतर से निकल पड़ी। मैं एक बार चिहुँक पड़ा, पर इसे भली भाँति चीन्‍हता था। (इसका वर्णन प्रथम जाम के स्‍वप्‍न में हो चुका है) मैंने प्रणाम किया, चंडी हँसी। उसके दुर्दर्श उज्‍ज्‍वल दशनों से मंदिर का अंधकार फट गया। यह उसी रूप में निकली जिस रूप में मैंने इसे पहले देखा था - अर्थात् दो बालिकाओं को काँख में दबाए - इत्‍यादि रूप में फिर भी दर्शन दिये। सिंह पर सवार हाथ में मद्यभाजन और नरकपाल लिए पहुँची। मैं इन्‍हें देख प्रार्थना करने लगा। मैं तो श्‍यामसुंदर के खोज में चला था और वह बिचारा श्यामा के। मैंने सोचा इससे कुछ अपना काम निकलैगा - क्‍यौंकि पहले इसी ने हमैं मंत्र बताया और झोली दी थी। मुझै गन अगन का कुछ ज्ञान न रहा। जी जलता था, मित्र का दु:ख असह्य था। चित्त की उमंग में कह डारा अब चाहै फलो वा मत फलो। मित्र की सहायता क्‍यौं न करता? जब जिसकी बाँह पकड़ी तब फिर उसके निमित्त क्‍या न करना - देखो रामचंद्र ने सुग्रीव के हेतु बाली को मार ही डाला।

सोरठा

ध्‍यान तोर निसि द्यौस चरन जलज सेवत सदा।

जिमि वासो मिलि हौस बीतै रैन सुचैन सो॥10

याहि वांचि रिपुनास होहु जाहिं सुमिरौं जियहिं

पुरवहु सब मम आस दुर्गा दुर्गति नाशिनी॥11

द्वादश बंध सुछंद अधिक जेठ सुदि नैन तिथि।

वासर रोहिनि मंद विरचि विनय बल बाँचिए॥12

भगवती कपालिनी प्रसन्‍न हुई, बोली - “मैं तुम्‍हारी वंदना से प्रसन्‍न भई, वर माँग - “

मैं कहा - “यदि तू सचमुच प्रसन्‍न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर -श्‍यामसुंदर का पता बता दे और अंत में श्‍यामसुंदर को श्‍यामा से मिला दे बस यह माँगता हूँ। देख मैं भी उन्‍हीं को खोजता खोजता इस विजन वन में आया हूँ।” इसको सुन चंडी ने अपनी झोली से जादू की काली छड़ी निकाली, निकालकर अपने सिर के चारों ओर घुमाया - फिर सामने लाकर फूँक दिया। फूँक कर ज्‍यौं‍ही उसने भगवान् चिंतामणि के ओर वह छड़ी दिखाई राम, लक्ष्‍मण और सीता सब शिलामयी मूर्ति मात्र हो गए - दूसरे बार जो उसने फूँक कर वही छड़ी दहिनी और बायीं ओर घुमाई तो सभा की सभा सब पाषाण की हो गई। जितने पशु पक्षी जीवधारी थे सबके सब केवल पाषाण के आकार मात्र रह गए। चंडिका कहने लगी, “तुमने अभी इसका संपूर्ण ब्‍यौरा नहीं सुना और न देखा - क्‍यौं व्‍यर्थ भ्रम में पड़े हो - “

मैंने कहा - “देवि! यदि कुछ न कहती तो अज्ञान ही रहना भला होता पर अब इतने कहने पर अधिक शंका हो गई तो दया करके कही डारो और मेरे मनोरथ पूरे करो।”

चंडी बोली - “वत्‍स! देखो मैं तुमको अपना प्रभाव दिखाती हूँ। देखो,” इतना कह उस वृद्धा ने कुछ पढ़कर पूरब ओर उरदा फेके। फेकते ही मंदिर का द्वार बंद हो गया। सभा मात्र पाषाण की जगमोहन में बैठी रही, ठाकुर की झाँकी लोप हो गई - पर उसी द्वार के पास ही एक सुरूपवान् पुरुष - गौरांग - लाल किनारे की धोती पहने - दुपाहिया अद्धी की टोपी लगाए - सुकेशधारी - अलफी पहने लँगड़ाता हुवा चिल्‍लाने लगा मुझै आश्‍चर्य लगा कि यह क्‍या हुवा। सुषेण वैद्य जो जादू से प्रस्‍तर हो गया था उसकी चिल्‍लाहट सुन उछल पड़ा, ऐसी फलांग मारी जैसी ऊँट। कूद ही तो पड़ा हात में एक छुरा लिए - “जाने न पावै - जाने न पावै” यह कहता उस उक्‍त पुरुष की जाँघ ही काटने को उद्यत हुआ। उधर से वज्रांग और‍ चित्रगुप्‍त भी पहुँचे - उसी सुरूपवान् को सबल जकड़ लिया और वैद्य जी ने छुरा जाँघ पर रेतना आरंभ किया, वह कितना चिल्‍लाया तड़का और फड़फड़ाया पर सुषेण जी कब मानते हैं अब तो यह पुरुष खंज होकर निःसंज्ञ वहीं पड़ गया। चंडिका ने अपने हाथ बढ़ाए और वज्रांग, सुषेण, चित्रगुप्‍त और उस दुःखी पुरुष को अपने पेट में धर लिया, मैं दाँत तरे उँगली दबा के रह गया - स्‍तब्‍ध हो गया - यह तो साक्षात् नरबिल था। मैंने पहले कभी नहीं देखा था, भोजनानंतर ज्‍यौंही चंडी ने ऊपर दृष्टि की एक अंडा मंदिर के छत से गिरा, गिरते ही फूट गया। उस अंडे में से दो गौर बदन वाले पुरुष जिनके नाम फणीश और लुप्‍तलोचन थे त्‍यूरी चढ़ाए पहुँच गए - इन दोनों का आकर बंदर सा था, पर पूछहीन रहने के हेतु मनुष्‍य जान पड़े। वे दोनों अपना-अपना नाम लेते आए। किस देश के थे कौन कह सक्‍ता था। पर इन दोनों ने श्‍यामसुंदर को जकड़ कर बाँधा था, विचारा हिल चल नहीं सकता था। मैं सजीव हुआ, आसरा हुआ कि मित्र के दर्शन तो हुए अब न जाने दूँगा। पर मुझे क्‍या ज्ञान था कि वह बिचारा किस यमयातना में पड़ा है, तौ भी साहस कर - 'भाई-भाई' कह कर दौड़ा कि कंठ से तो एक बार मिल लो, पर ज्‍यौंही निकट गया उन दोनों विकट पुरुषों ने रोष (रुष्‍ट हो ऐसी हुँकारी मारी कि) मैं रुक गया। ज्‍यौंही मेरे नेत्र मुँदे वे लोग लोप हो गए - श्‍यामसुंदर को एक बार और खो दिया - बस - कर्मगति बड़ी कुटिल होती है - और तिस पर मेरी मेरी तो सदा की खोटी थी - मैं श्‍यामसुंदर की दुर्दशा सोचने लगा। चंडी भवानी ने बड़ी दया करके कहा - “इतने ही में तेरी मति चकरा गई - अभी तो देख क्‍या देखता है - लै - आज तू दिन भरे का भूखा होगा - दूसरे विरहकातर - ले थोड़ी सी सुरा पी ले - बल होगा, इंद्रियों को सहारा मिलैगा और मेरे कौतुक देखने में सामर्थ्‍य होगी। तू वैष्‍णव है तो मैं भी तो वैष्‍णवी हूँ - मेरा रूप देख।

तथैव वैष्‍णवी शक्तिर्गरुड़ोपरि संस्थिता।

शड्.खच्रगदाशार्गंखंगहस्ताभ्‍युपाययौ॥

मैंने कहा - “देवि तेरी अनंत माया है - तेरा रूप कौन देख सकता है - मैं तेरा आज्ञाकारी हूँ - जो कृपा कर देगी अवश्‍य ग्रहण करूँगा।”

इतना सुन देवी ने अपना सोने का कंकन मेरे सामने फेंक दिया। ज्‍यौं‍ही उस कंकन को उठाया वह सुंदर मनोहर चषक हो गया। इस माया को भी देख मैं चकित हुआ। देवी ने कहा, “बाएँ हाथ में चषक को धर दक्षिण हाथ से उसे ढाको।” मैंने वैसा ही किया और यह सुंदर सुगंधित चंपक पुष्‍प के रंग सी मद्य कल्‍पवृक्ष की निकली उस चषक में भर गई - “मधुवाता ऋतायते” - यही मंत्र देवी पढ़ती रही - मैं श्‍यामसुंदर और उसकी प्रानप्‍यारी श्‍यामा को अपूर्ण कर चढ़ा गया। पीते के साथ ही मुझै अपूर्व हर्ष हुआ। मन और बदन प्रफुल्लित हो गए। नेत्र चमकने लगे। स्‍वाद उसका खटमधुर था। हृदयाब्‍जकोश को आसव से स्‍नान कराया। शरीर कुछ और हो गया - गई बुद्धि फिर हाथ आ गई - वेद वेदांग सब आँखों के सामने नाचने लगे। श्‍यामापुर की शोभा दिखाने लगी - श्‍यामा की खोरों में अब केवल श्‍यामा के नाम की झांईं सुनाने लगी। एक बेर दृष्टि उठा कर देखा तो श्‍यामापुर में आग लग गई - पहले तो काबुल में लगी। उसके अनंतर ब्राह्मणों के घर जले। मेरा घर तो पहले ही जल चुका था - अपने वंश में आँख उगरिया मैं ही बचा था। पुरुष लो सब भस्‍मसात् हो गए थे। बंदर कूदने लगे - सब के सब मुंछदर लाल मुखी थे। बंदरियों को संग में लिए बगल में दबाए इस घर से उस घर कूदते फाँदते फिरते थे। एक तो लोगों के घर आप ही आग लगी थी, दूसरे ये सभों की चूल्‍हा चक्‍की ले चले। सब हाय हाय करते रह गए। कौन सुनता है - बंदर की जात कब मानती है। शाखामृग तो ठहरे - पेट भरने से काम - चाहै कोई बसै चाहै उजरै - ए बंदर सब कृष्‍णचंद्र के भक्‍त थे - इसी से तो मथुरा में अभी तक असंख्‍य बंदर घूमते रहते हैं - अपने ईश्‍वर की पुरी को नहीं छोड़ते - इन सभों में बड़ी चतुर सुग्रीव की स्‍त्री रुमा भी दिखानी - वह आग लगने पर प्रसन्‍न सी जान पड़ी क्‍यौंकि उसने अपनी सेना की इस दैवी उपद्रव के ऊपर उपद्रव करने से नहीं रोका। फणीस और लुप्‍तलोचन सेनापति थे - बालि के मरने पर सुग्रीव ने पुराने सेनापतियों को निकाल इन्‍हीं श्रेष्‍ठों को उस उच्‍च पद का अधिकारी किया था - सुग्रीव को कार्य्यभार से नेत्रों से कम सूझने लगा - विभीषण के पास जलवायु सेवन के लिए लंका चले गए थे - हाँ, आग लगी - तो लगने दो - बुझावो -लोग बुझाने लगे - आग न बुझी - नारदजी अपना बीना ही बजाते रहे - उधर मकरंद गोमती चक्र पूजते पूजते लील गया। वशिष्‍ठ शांतिकारक वैदिक मंत्र पढ़ते रहे - अग्नि देवता न प्रसन्‍न हुई तो - कोई क्‍या करै - पुरवासी विकल इधर उधर पानी पानी पुकारते दिखाई पड़ते हैं - भैरववाहन पर कपटनाग के शिष्‍य बैठे और शीतलावाहन पर स्‍वयं शीतला जी सवार होकर ग्राम की रक्षा करने लगीं - नाकों नाकों पर पहरे बैठ गए - किसकी सामर्थ जो निकलै। मनुष्‍यों का ठट्ठ इकट्ठा हो गया, अग्नि की ज्‍वाला प्रज्‍वलित हुई - बढ़ के आकाश की राह ली - लड़केवाले चिल्‍लाने लगे -

तात मात का करिय पुकारा। एहि अवसर को हमहिं उबारा॥

खोजत पंथ मिलै नहीं धूरी। भए भरम सब रहिन अधूरी ॥

वशिष्‍ट के घर से वह देखो एक छछुंदर निकली पड़ी। पर बोध न हुआ कि किधर गई - सब पहरे चौकी लगे ही रहे - यह छछुंदर बड़ी पुंश्‍चली थी - चक्रधर का चक्र फिरा धर्म का पहरा आया। रमा ने जोवन दान किये - वज्रमणि का आत्‍मज सुरलोक को सिधारा। अब फाल्‍गुन ऋषि का बुलौवा हुआ है, वे भी परम धाम सिधारे, आज्ञा कैसे टारते। म्‍याद थोड़ी है। शाक्‍य मुनि को गद्दी होगी - बौधमत फैलेगा। पुरवाई चली। फणीस की बहिन लटोरे डोरिया ने ब्‍याही, लुप्‍तलोचन की स्‍त्री ने द्वितीय विवाह किया। पर देखते हैं तो आगी नहीं बुझी - मैंने सोचा कि अब बिना मेरे दया के कुछ शांति नहीं होगी - व्‍यर्थ लोग जले जाते हैं उठकर हाथ में नदी और समुद्र का जल ले मंत्र पढ़ने लगा -

“ऊँ ठं ठं ठं बाराह के दाँत की तेलिन - वशिष्‍ठ की बेटी, नारद की भतीजी -तीजी - भीजी - भांजी - कड़ी - कठोर - बिनालोम - संकीर्ण - रोती धोती - कनफटा देव का प्रताप - भैरव की सराप - गंगा की लहर - लक्ष्‍मी का पहर - भागीरथी की नहर - बुझ - बुझ - सुझ - फुः फाः फीः बाबा की चेली - बाई की अधेली - फुलाने की बहू आराम आराम ऊँ फट् स्‍वाहा। फुरोमंत्र ईश्‍वरो वाचा - दुहाई देवी बड़े दाँत वाली की बुझजा - बुझजा - नहीं तो गाड़ दैंगे” -

पानी फेंक दिया - आग बुझ गई - कौव्‍वे उड़ने लगे - तुम्‍हारी भी पारी आती है - नशा खूब चढ़ा खूब जोर किया।

वह देखो अटारी पर मोर ने बाँग दी। मुरगा पी पी करने लगा - मैना काँव काँव करने लगी। विष्‍णु की स्‍त्री चमगिदड़ी हो गई - मालती चाँदनी सी छिटक गई जो चाहे सो आवागमन करैं। फीस दो टके रात। कच्‍चे गऊ का मांस लटकने लगा -इसी के बंदनवारे बँध गए - श्‍यामापुर यवनपुर हो गया - पर अंग्रेजी राज में यह अनर्थ कैसा - ईशान कोन पर सूर्य्योदय हुआ दक्षिण से चंद्रमा का रथ चला - लगे तारे टूटने हाथी बोल उठे - कछुए की पीठ गरम हो गई - शुक्र और मंगल भी टूटे -गाज गिरी - अर्राटा बीता आकाश फट पड़ा - सब कलई खुल गई - बादल छा गए -ऐसे काले जैसे अफीम - बीच में चंद्रमा निकल आए - क्‍या विचित्र लीला थी! नदी में एक भारी मछली तैरती थी - तैरते तैरते तट पर आई। ज्‍यौंही बूँद लेने को मुँह खोला एक बाला जो घाट पर नहा रही थी फिसल पड़ी और उसका पाँव उसके मुख में समा गया। मछली उसे लील गई, मुँह बंद हो गया - फिर नदी में बुड़की लगा गई। संध्‍या हुई घर के लोग बाग टोला परोस में पूछ पाछ करने लगे। पता कहीं नहीं लगा, लगै कैसे उसे तो एक मच्‍छ महाराज भच्‍छ गए थे - कच्‍छ राज अपने परों पैरों की छाया करते थे - जिस्में कोई वंशी डालके कहीं मच्‍छ समेत न बझा ले। मैंने देखा कि मच्‍छ बड़ी दहार में उसे ले गया। न जाने वहाँ क्‍या करेगा। मैंने जाना कि कहीं काली दह में शेषनाग न कच्‍चा चबा जाए - फिर मच्‍छ कच्‍छ कुछ भी न कर सकैंगे - गरुड़ महाराज को हुक्‍म दिया कि तुम जाव उसका पता लगावो - देखना कालीनाग न खा जाय - वह तो केवल गरुड़ से डरते थे - गरुड़ उन्‍हैं भी सर्व स्‍वाहा कर डालते - उनके सन्‍मुख वे भी चें पों नहीं कर सकते। पूछ दबा के छू हो जाते हैं। गरुड़ जी उड़े। मच्‍छ का पीछा किया पर कच्‍छ तो अब थल में रेंगता था - और बाला भी बिचारी अधमरी सी उसी के पीछे घिसलती जाती थी। दुष्‍ट ने तनिक भी दया न देखी। दइमारा पाव पियादे ले गया। इधर उधर सहाय के लिए देखती जाती थी - जैसे कसाई के हाथ की गिरवाँ से गसी गैय्या कातर नैनों से पीछे देखती जाती हो। बहुत दूर तक ऐसे ही ले गए किसी ने जाना भी नहीं - चूँ भी किसी ने न किया - चलते चलते आँखैं मिल मिलाने लगीं - मच्‍छ तो अपने काम में तत्‍पर था। झट एक की डोली में घुस गया - नील सागर के पार जाकर एक नवीन नगर देखा - वहाँ पहुँच कर तीर में डोली धरी गई। मच्‍छ कूद पड़ा और बाला को उगल दिया। फिर तो गुफा में सब लोग समा गए। मच्‍छ लोप हो गया - लीला समाप्‍त हो गई - दूर से गाना सुन पड़ा - कोई न कोई तो गा ही रहा होगा -

“काले परे कोस चलि चलि थक गए पाँय

सुख के कसाले परे ताले पर नसके।

रोय रोय नैनन में हाले परे जाले परे

मदन के पाले परे प्रान पर बस के।

हरीचंद अंगहु हवाले परे रोगन के

सोगन के भाले परे तन बल खसके।

पगन में छाले परे नांघिबे को नाले परे

तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के।” -

मेरा ध्‍यान उचट गया। मैंने आकाश की ओर देखा, चारों ओर देखा पर कोई भी न दिखा। सिर में पीड़ा हो आई, बदन सनसनाने लगा। आँखैं सिकुड़ गईं। बुद्धि आनंद सागर में मग्‍न हो गई। जिस वस्‍तु का ध्‍यान करता अनंत कल्‍पना की तरंगें उठतीं। श्‍यामा की मूरति दीप की टेम में दिखाने लगी। नसैं सिकुड़ने लगीं। शरीर स्थिर और साहसी हो गया। देवी के लिए चषक ने क्‍या तमाशे दिखाए। श्‍यामा का नाम जपने लगा। मैंने उसे बैठे देखा - नहाते देखा - गृह कृत्‍य करते देखा - सोये देखा - पर श्‍यामसुंदर का दर्शन न हुआ। मन तो वहीं था - जहाँ जीव तहाँ तन, जहाँ जन तहाँ प्राण। दृष्टि विभ्रम होने लगा। लेवनी लहराती थी। स्थिर है तो स्थिर, चली तो चली फिर क्‍या पूछना है, घुड़दौड़ होने लगी, तीर्थ का ऐसा पुण्‍य प्रताप होता है। भृकुटी चढ़ी है। प्रेम की आसव में छके हैं। होश नहीं - जिधर पैर धरा उधर ही चल निकले। सुर्रक तो उठरी इस्‍में कुछ पूछना तो नहीं है। आग में जलने लगा। आँखों ने पानी बरसाना आरंभ किया, पर वह आग न बुझी। यदि सहाय की तो केवल मकरंद और वज्रांग ने - देवी ने आसव दे अद्भुत रंग छा दिया। क्‍या जाने क्‍या बक चले क्‍या बक गए - वाक्‍यों का अभी तक अंत न हुआ। पर संत भी तो पूरे बसंत ही थे। डब्‍बे ही थे। डब्‍बे के आदमी की भाँति कुटी में रहा करते थे। जहाँ एक बंदर ने छेड़ा तो इनकी नानी ही मर जाती थी। यह देखो आकाश में पैर लगने लगे - एक नया ग्राम ही बस गया - भगवान् विराट ने समस्‍त पृथ्‍वी दिखाई - मैं तो अर्जुन था न। मुखारविंद - नहीं-नही मुख गह्वर खोलते ही विचि‍त्र झाँकी रस में छाकी दिखाई देने लगी - गलियों में गैया चलतीं थीं।

मुझै भी नहीं मालूम कि मैं क्‍या क्‍या कह गया पर मेरे सब वाक्‍य चंडी ने ध्‍यान धर के सुने और हँस के बोली - “ठीक है बेटा - ठीक है तेरा कहा सब आगे आता है और धीरे धीरे आगे आवैगा। मैं तेरी भक्ति पर प्रसन्‍न हुई - बर माँग” -

मैंने फिर वही कहा, “यदि तू प्रसन्‍न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर -श्‍यामसुंदर का पता बता दे और श्‍यामसुंदर को श्‍यामा से मिला दे।” चंडी हँसी और बोली, “आँख बंद कर मैं तुझै क्षण भरे के लिए श्‍यामसुंदर को दिखा दूँगी, पर चिंता न कर, श्‍यामसुंदर कुशलपूर्वक द्वीपांतर में है। श्‍यामा के पीछे उसने कोटि क्‍लेश सहे और आश्‍चर्य नहीं कि कुछ और सहै पर यह तू विश्‍वास कर कि -

“सुख अंत दुःख दुःख अंत सुख दिन एक दिन से कबहुँ न रहैं

गति जगत जनके भाग की रथ चक्र सी एहि हित कहैं।”

एक दिन श्‍यामसुंदर के दिन फिरैंगे, वह श्‍यामा को अवश्‍य पावैगा, क्‍योंकि तुलसीदास से सिद्ध पुरुषों के वाक्‍य क्‍या निष्‍फल हो जाएँगे?

“जा पर जाको सत्‍य सनेहू। सो तेहि मिलै न कछु संदेहू॥”

मैंने कहा - “ठीक है पर

श्‍यामा के कपट छल छिद्रम छछंद मंद

निर्दय निरास कुल कानि की निदानिया।

सुंदर सनेह सब बिधि सो सकोच भरो

साँची सी पिरीति श्‍यामसुंदर लुभानिया॥

एक की हँसी फाँसी मौत एक दूसरे ही की

कहत कहत जीभ थकित थकानिया॥

अंत एक सबको बिचारि जगमोहन जू

श्‍यामा श्‍यामसुंदर की चलैगी कहानिया॥”

चंडी बोली, “देखो श्‍यामसुंदर के कष्‍ट दूर हुए। एक दिन न एक दिन श्‍यामा भी मिलेगी इसको गाँठ से बाँधे रहना। पर अब आँख बंद कर श्‍यामसुंदर को देखना चाहता है तो देख ले।”

मैंने अपने नैन ज्‍यौंही बंद किए वही शिखर वही सभा सब नृत्‍य हर्ष में लगी है। फिर भी एक बार भगवान् के दर्शन हुए। अहोभाग्‍य! क्‍या अपूर्व झाँकी थी। रामचंद्र के सामने श्‍यामसुंदर दीन मलीन बना खाकी कुरती पहने सिर खोले बकुल माला की सेल्‍ही डाले बाघबंर ओढ़े हाथ जोड़े बिरही बना भगवान् की स्‍तुति जन्‍माष्‍टमी के उत्‍सव में कर रहा था। वह दीन की स्‍तुति यह थी।

दोहा

कृष्‍ण जनम आठैं करी विनती सुंदर श्‍याम -

हरहु पीर तन हीर की मन की जानत राम॥8॥

इसी स्‍तुति को सुन चाहा कि श्‍यामसुंदर को पकड़ लेंय और दो बातैं तो कर लेंय पर ज्‍यौंही हाथ बढ़ाया आँख खुल गई, सब बिला गया, सबेरा हो गया - देखता हूँ तो कोई कहीं नहीं - बस वहीं घर और वही खाट - वही दीवट।

“वितान तने जहँ फूलन के द्युति चाँदनी शारद जोति अमंद।

मिली सपने में तिया कविदेव मिटे सबही जियके दुःख दंद॥

सुगंध सुमंजु सनेह सनी सुतौलौ कोई कूकि उठ्यौ मति मंद।

खुलै अँखियाँ तो न चंदमुखी न चंदोबा न चाँदनी चंद न चंद॥”

चकित हो आँखैं मीजता ही रह गया। वाह रे विचित्र स्‍वप्‍न! क्‍या क्‍या देखा क्‍या क्‍या तमाशे दिखे - बस देखते ही बन आता है। श्‍यामा और श्‍यामसुंदर की प्रीति कैसी विचित्र हुई। इसका अंत कैसा हुआ। कहाँ से स्‍वप्‍न में श्‍यामा अपना सब हाल कहती थी - अब वह कहाँ बिलाय गई क्‍या क्‍या कहा - वाह रे समय! वाह रे काल! तू क्‍या क्‍या नहीं दिखाता? कहाँ वह घोर यमपुर के तुल्‍य भुइंहरे का कारागार - कहाँ वह डाइन, राजदूत, जेलर! कहाँ का वैर और कहाँ का वह न्‍यायाधीश - सबके सब कहाँ लोप हो गए? पर श्रोता सावधान हो। इसे केवल स्‍वप्‍न ही मत समझो, इसको सुन इसके सार को ग्रहण करो। इस सागर को मंथन कर इसका सार अमृत ले लो। स्‍त्री-चरित्रों से बचो। बस इसी शंकराचार्य के कहे को स्‍मरण रक्‍खो -

“द्वारं किमेकं नरकस्‍य नारी।”

और महाराज भर्तृहरि के कहे को -

आवर्त्त: संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां,

दोषाणां सन्निधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्‍ययानाम्।

स्‍वर्गद्वारस्‍य विघ्‍नो नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्‍डं,

स्‍त्रीरत्‍नं केन सृष्‍टं विषममृतमयं प्राणिनां मोहपाश:॥

इति चौथे प्रहर का स्‍वप्‍न।

  • मुख्य पृष्ठ : ठाकुर जगमोहन सिंह : हिन्दी उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां