श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते (गुजराती उपन्यास) : दिनकर जोशी

Shyam Phir Ek Bar Tum Mil Jaate (Gujarati Novel) : Dinkar Joshi

(कोई भी भारतीय भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें श्रीकृष्ण को केन्द्र में रखकर काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक संदर्भ-ग्रन्थ आदि साहित्य का सर्जन न किया गया हो। ‘श्याम, फिर एक बार तुम मिल जाते’ (मूल गुजराती में लिखा) उपन्यास इन सबसे अनूठा इसलिए है कि यह सिर्फ उपन्यास नहीं है-यह तो उपनिषद् है ! यथार्थ कहा जाए तो यह उपनिषदीय है।
तत्कालीन आर्यावर्त्त में श्रीकृष्ण एक विराट् व्यक्तित्व था। जब यह व्यक्तित्व अनंत में विलीन हो गया तो जो सन्नाटा छा गया, उस सन्नाटे के चीत्कार का यह आलेखन है। जब श्रीकृष्ण सम्मुख थे तब बात और थी। जब वे विलीन हो गये तब वसुदेव-देवकी से लेकर अर्जुन, द्रौपदी, अश्वत्थामा अक्रूर, उद्धव और राधा पर्यंत पात्रों की संभ्रमित मनोदशा को एक अनूठी उँचाईं के ऊपर ले जाता है यह उपन्यास।
श्याम फिर एक बार तुम मिल जाते !)

एक

ॐ मध्याकाश में जलते सूर्य ने पश्चिम की ओर मुँह घुमाया। उसकी रुपहली किरणें द्वारका के महलों की सुनहरी अटारियों और दुर्ग की मीनारों पर उदासी का लेप लगा गईं। दक्षिण में ऊँचा सिर किए रैवतक पर्वत खड़ा था; पर उसकी तिरछी परछाईं जमीन पर ऐसी पड़ रही थी मानों रैवतक का माथा झुक आया हो। कहीं दूर से आती समुद्र की लहरों की आवाज़ अंतिम साँस लेती किसी घायल के कराहने-जैसी लग रही थी। दाहिनी ओर हरे-भरे गोचर में बैठी गायों ने रथ के पहिए और अश्वों की टोपों की आवाज सुनकर जरा-सी आँखें खोलीं, कान फड़फड़ाए, पूँछ फटकारी- कुछ मक्खियाँ उड़ गईं, बस। उसकी जुगाली तो कब से बंद थी ! आँखों के किनारे पर काँच की बूँद-सी पानी की बूँदे जम गई थीं। बाईं तरफ का मार्ग रैवतक की परछाई को छूता हुआ दक्षिणी क्षितिज की ओर जा रहा था। रथ से उड़ती धूल में रथ की लीकें, अश्व-खुर के निशान और पैदल पथिकों के पदचिह्न अब खो-से गए थे।

दौड़ते अश्वों की लगाम दाहिने हाथ से थामे दारुक ने रैवतक की ओर नजर उठाई। हाँफते अश्वों के मुख से सफेद फेन निकल आया। रथ की गति कुछ धीमी हुई।
‘‘पार्थ !’’ दारुक ने पीछे रथ में लगभग समाधिस्थ बैठे अर्जुन का ध्यान खींचा, ‘‘हम रैवतक की दृष्टि मर्यादा में आ पहुँचे हैं !’’
मानों दारुक की बात सुनी ही नहीं अर्जुन ने। वह अपलक रैवतक की ओर देखता रहा। कंधे पर रखे गांडीव पर बँधी मुट्ठी अचानक पसीने से तर-ब-तर हो गई। इसी रैवतक के ऊधर की ढलान से उसने सुभद्रा का अपहरण किया था न ! स्वयं कृष्ण ने ही तो उससे कहा था, ‘‘अर्जुन ! यह मेरी छोटी बहन सुभद्रा है। तुम्हें इससे ब्याह करना हो तो इसका अपहरण कर लो। विवाह के लिए कन्या का अपहरण क्षत्रियों में निषिद्ध नहीं है।’’
कृष्ण की वह आवाज मानों हवा में आज भी गूँज रही हो, इस तरह अर्जुन के कान लगे थे। क्या धर्मसम्मत है और क्या धर्मविरुद्ध-कृष्ण उसे लगातार यह सब समझाते रहे। आज....

पूरा शरीर पसीने से नहा उठा। फिर भी त्वचा में कितनी जलन थी ! छत्तीस वर्ष पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में उसके अंग जिस तरह शिथिल हो गए थे, गला सूख गया था; कुछ वैसा ही आज भी उसे लीलता जा रहा था।
‘‘कौंतेय !’’ दारुक ने फिर अर्जुन की समाधि भंग की, ‘‘दुर्ग की पूर्वी खाई में पानी भरना शुरु हो गया है। हम पश्चिम द्वार से ही भीतर जा सकेंगे।’’
अर्जुन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। क्या फर्क पड़ता है कि रथ पूर्वी द्वार से द्वारका प्रविष्ट हुआ या पश्चिमी द्वार से ! कृष्णविहीन द्वारका में कैसा प्रवेश ? ऐसी तो कल्पना भी अर्जुन ने कभी नहीं की थी। पल दो पल में जिस द्वारका में वह पाँव रखने वाला था, वहाँ अब कृष्ण नहीं थे। बलराम नहीं थे। सात्यकि नहीं था। प्रद्युम्न या अनिरुद्ध भी नहीं थे। अरे, उद्धव और अक्रूर भी नहीं थे !
ये सब नहीं हैं तो फिर यह सुनसान नगरी द्वारका कैसे है ? बारह योजन फैला हुआ यह भूमिखंड तो कुशस्थली था-द्वारका नहीं। उस कुशस्थली को कृष्ण ने ही तो द्वारका बनाया। ऐसा लगता था मानो रैवतक पर्वत की उँगली थामे खड़ा हो यह भूखंड !

रैवतक की दिशा में अर्जुन की आँख फिर स्थिर हो गई। इस बार उसे सुभद्रा याद न आई। ब्रह्मलोक से किसी संगीत की लय मानो हवा में घुलती उतर रही हो। यह संगीत.....?
सतयुग में राजा रैवत तथा उनकी पुत्री ने ब्रह्मा की संगीत-सभा में जो सुर सुने थे, वे ही हैं ये सुर। त्रेता तो कब का पूरा हो गया, अब द्वापर भी पूरा होने आया। कृष्ण का देहोत्सर्ग यानी एक परिपूर्ण युग का अंत ! अभी क्या द्वापर के अंत काल में ही ब्रह्मलोक का यह संगीत रैवतक के शिखरों पर गूँज रहा था ?
या फिर उसने जो सुना, वह कृष्ण की बाँसुरी थी ?
अचानक ही अर्जुन को लगा-कैसा अभागा हूँ मैं ! इतने वर्षों के साथ के बाद भी मैंने कृष्ण के होंठों से लगी बाँसुरी की आवाज नहीं सुनी। व्रजभूमि में किसी कदंब वृक्ष की डाल पर से या कालिंदी के बहते जल के पास खड़े होकर कृष्ण ने जब बाँसुरी होंठों पर रखी होगी, तब स्वयं तो शायद...

इंद्रप्रस्थ के कृष्ण, हस्तिनापुर के कृष्ण, द्वारका के कृष्ण-अर्जुन ने इन सब कृष्णों का साहचर्य जिया था; किन्तु व्रजभूमि के कृष्ण के विश्व स्वरूप दर्शन किए थे-इस दर्शन में समग्र ब्रह्मांडों का समावेश था, यह सच है; किन्तु उसमें भी उस बाँसुरी की धुन तो नहीं सुनाई दी थी न !
कैसे सुनाई देती ?-अर्जुन ने सोचा, शंख ध्वनि और रणभेरियों की आवाजों के बीच यदि बाँसुरी सुनी जा सकती तो यह महा विनाश हुआ ही क्यों होता ? और यदि इस महाविनाश को रोका जा सका होता तो.......तो छत्तीस वर्ष बाद यह यादवी कलह भी न हुआ होता। माता गांधारी ने वृष्णिवंश के विनाश का जो शाप दिया था, उसी का तो यह परिणाम है !
‘‘धनंजय !’’ दारुक ने तीसरी बार अर्जुन का ध्यान खींचा, ‘‘ये अश्व भी मानों अब द्वारका के पाँव धरने को तैयार नहीं हैं। देखिए...देखिए......’’

दारुक की बात सही थी। दारुक के आज्ञाकारी अश्व जाने आज क्यों दारूक की अवज्ञा कर रहे थे। तेजी से हिनहिनाते दोनों अश्वों ने अगले चारों पाँव हवा में उछाले रथ जरा पीछे को झुक गया तो अर्जुन ने रथ का सहारा लेकर स्वयं को सँभाला।
‘‘दारुक ! कृष्णविहीन द्वारका में मैं भी पग कैसे धरूँ ? मैं उस भगवान की ओर देखूँ कैसे, जहाँ कृष्ण रहते थे ? दारुक, तुम रथ लौटा ले चलो, भाई !’’ अर्जुन ने आसुओं से भीगे ये शब्द कहे तो सही, पर वे बाहर फूटे नहीं, क्योंकि आज उसके रथ की लगाम कृष्ण के हाथ में नहीं थी। वहाँ तो आज दारुक बैठा था।
‘ये पितामह, ये आचार्य, ये भाई, ये पुत्र-पौत्र, दामाद, स्वजन-इन सबसे मैं नहीं लडूँगा। मुझसे इन सब पर प्रहार नहीं हो सकेगा........’ ऐसा कहकर, अठारह अक्षौहिणी सेना के ठीक मध्य में गांडीव को एक ओर धरकर पस्त हो जाना बहुत आसान था-क्योंकि तब रथ की लगाम कृष्ण के हाथों में थी। कृष्ण थे उसे सँभालने के लिए। तब अर्जुन को कहाँ कोई फिक्र थी !

किन्तु आज ? सब कुछ कितना बदल गया था ! तब अर्जुन के सारथि थे कृष्ण; आज कृष्ण का सारथि अर्जुन का रथ हाँक रहा है। कृष्ण को जिसने कई बार यहाँ-वहाँ पहुँचाया होगा, वही दारूक अब अर्जुन को कहीं नहीं पहुँचा सकता। अपने भीतर उमड़ते प्रचंड विषाद-सागर को अर्जुन ने भीतर ही दबा लिया। विषाद का प्राकट्य अब किसी बड़े दर्शन का योग नहीं बन सकता, क्योंकि अब कृष्ण कहाँ हैं उसे एक नई ऊँचाई देने के लिए, नया अर्थ भरने के लिए ? अब तो यह विषाद, जिसे कृष्ण ने ‘कलैव्यं’ कहकर फटकारा था, कापुरुष-वृत्ति का सर्जक ही बन जाता। उसी कापुरुष-वृत्ति ने अर्जुन को फिर घेर लिया है, इसका अंदाज भी यदि कृष्ण को हो जाए तो........
अर्जुन अचानक सावधान हो गया। चेहरे पर विषाद की गहरी लकीर के बीच लज्जा की रेखाएँ उभर आईं। वीरत्वविहान अर्जुन के रथ की लगाम कृष्ण तो कभी नहीं थामेंगे। कापुरुष अर्जुन कृष्ण को नहीं सुहाएगा।
‘‘दारुक !’’ अर्जुन पहली बार बोला, ‘‘अश्वों के पास शब्द नहीं हैं, भाई, किन्तु उनमें भाव भी नहीं होंगे, ऐसा तो नहीं है न ! रथ तो तनिक रोको, दारुक, और अश्वों की पीठ सहलाकर उन्हें सांत्वना दो।’’
दारुक ने रथ रोक दिया। दोनों अश्व फिर जरा हिनहिनाए। दारुक के नीचे उतरकर दोनों की पीठ पर हाथ रखे। उनकी नर्म त्वचा एकबारगी थरथराई। दारुक ने धीरे-धीरे उनकी पीठ थपथपाई। उनके गले में बाँहें डालकर उनके बदन से अपना सिर टिका दिया। दारुक की ऐसी दशा देखकर मानो शर्मिंदगी से अश्वों की आँखें भीग गईं। अर्जुन अनिमिष नयनों से यह देखता रहा।

‘तात !’ दारुक मानों अश्वों के कान में यह कह रहा था, ‘कृष्ण स्वयं महाकाल के निर्णय को पलट नहीं सके इसलिए महाकाल के अधीन हुए। अब वही महाकाल हमसे कुछ शेष कर्म करवाना चाहता है। उनका निमित्त बनने से हम पीठ तो नहीं दिखा सकते, वत्स। चलो, महाकाल की उँगली का अनुसरण करें.......’
अश्व जैसे समझ गए हों, इस तरह हिनहिनाए। कुछ दूर बैठी गायें पूँछ मरोड़ती खड़ी हो गईं और उनकी आखों में जमे, चमकते बिन्दु तरल बनकर गोचर की हरी दूब पर टपक पड़े।
दारुक ने फिर से लगाम सँभाली। रथ जरा पश्चिम की ओर मुड़ा। दुर्ग का पश्चिमी द्वार खुला ही था। रथ अब परकोटे पर तैनात संतरियों की नजर में उनकी गूँज से वातावरण भर-सा गया। नीचे खड़े संतरियों ने भी सावधान होकर नज़र दौड़ाई। दारुक के तेज चिह्न से शोभित ध्वज की फड़फड़ाहट, रथ की घर्घर से भी अधिक तेज लग रही थी। रथ नजदीक आया। नीचे झुक संतरियों ने दारुक और अर्जुन को पहचाना। हथियार नीचे झुकाकर उन्होंने रथ और रथी दोनों का मूक स्वागत किया। अश्व हिनहिनाए। दारुक ने गरदन मोड़कर अर्जुन को देखा। अर्जुन शून्य नैनों से पतझड़ के वृक्ष जैसी द्वारका को आँखों में भर रहा था।

यही तो द्वारका नगरी थी, जिसके भवनों के गवाक्षों और अटारियों पर अशोक आम्रपर्णों का ताजा बंदनवार हमेशा सजे रहते थे। कोई भी आँगन ऐसा नहीं होता था, जिसे अगली सुबह रंगोली से सजाया न गया हो। उद्यानों में पुष्प, पर्ण और लताओं को सींचने के कारण गीली हुई धरती, अपनी मादक सोंधी सुंगध से महमहाती रहती थी। आज तो वे सब जैसे सुदूर अतीत की धूमिल यादों-से लग रहे थे। कई दिनों पूर्व बँधे तोरण पीले होकर कहीं-कहीं लटक रहे थे, कहीं पत्ते झड़ गए थे और मरे साँप-सी रस्सियाँ ही लटकती नजर आती थीं।

प्रांगण की यज्ञवेदियों में राख के ढेर पड़े थे। कहीं-कहीं किसी वयोवृद्ध द्वारकावासी द्वारा डाली आहुति का धुँआ उठ रहा था। रंगोलीविहीन आँगनों में कभी की चमकती रंगोली के धुँधले चिह्न दीख रहे थे। कृष्ण, बलराम, सात्यकि और वसुदेव के निवास के सुवर्ण गुंबज ढलती साँझ के प्रकाश को वापस ठेलने की नाकाम-सी कोशिश कर रहे थे। कभी जिन राजमार्गों पर जीवन छलकता था, आज उनके दोनों तरफ खड़े स्त्री-पुरुषों की भीड़ बस असहाय नजरों से अर्जुन की ओर देखती और इस तरह गर्दन झुका लेती, मानों उसकी सारी चेतना चुक गई हो। उतरे हुए चेहरे, धँसी आँखें और कुल छवि ऐसी मानों महीनों से स्नान न किया हो, न वस्त्र बदले हों।

‘‘दारुक!’’ अर्जुन के होंठ फड़फड़ाए, ‘‘यह...यह सच में द्वारका ही है न, भाई, या तू भूल से मुझे किसी दूसरी नगरी में ले आया?’’

‘‘पार्थ!’’ दारुक ने पीछे देखे बगैर ही कहा, ‘‘आत्मा के महाप्रयाण के बाद शेष बचा शरीर!जीवित बचे लोगों के लिए तो यही परिचित आकार है...’’

दारुक के शब्द जाने कहाँ विलीन हो गए। अर्जुन के कानों में एक चिर-परिचित गंभीर आवाज गूँज-सी पड़ी—‘शस्त्र जिसे छेदते नहीं, अग्नि जिसे जलाती नहीं, पवन जिसे सुखा सकता नहीं और पानी जिसे भिगो सकता नहीं—यह आत्मा अविनाशी है, अर्जुन!’

कौन बोला?...किसकी आवाज थी?...छत्तीस वर्ष पहले कृष्ण ने ही तो अर्जुन से यह कहा था। जब उसके हाथ से गांडीव छूट गया था तब पसीने से तर-ब-तर पार्थ को कृष्ण ने ही तो आत्मा के अमरत्व की यह बात समझाई थी। अब आज यह अमरत्व?...

किंतु कृष्ण की आत्मा कैसी? वे तो आत्मा से भी परे कोई परमतत्त्व थे। आत्मा अर्जुन की हो सकती है, दारुक की हो सकती है, रथ खींचनेवाले इन अश्वों की हो सकती है; किंतु कृष्ण! वे मात्र आत्मा नहीं थे न! वह परमतत्त्व भी अब अदृश्य हो गया था और अदृश्य होने से ठीक पहले की साँझ उन्होंने दारुक को आज्ञा दी थी—‘दारुक, तू हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को यह खबर देना और उसे यहाँ ले आना। मेरे बाद द्वारका को सँभालने का काम पार्थ को सौंपना, भाई। पिता वसुदेव और माता देवकी दोनों को मेरा प्रणाम कहना, वत्स।’

दारुक ने कृष्ण की आज्ञा सुनी और द्वारका की ओर से अपनी नजरें फेर लीं। आज उसी आज्ञा का पालन करके वह लौट रहा था। जिस द्वारका को वह छोड़कर गया था, वह द्वारका यह नहीं थी। उसके रथ में पीछे अर्जुन ही बैठा था, किंतु द्वारका किसी शापित नगरी-सी जड़ हो गई थी।

‘‘दारुक!’’ अर्जुन ने कहा, ‘‘रथ को सबसे पहले तात वसुदेव के निवास पर लेना।’’

दारुक ने चुपचाप रथ को वसुदेव के भवन की ओर मोड़ दिया। सुनसान नगर की अटारियों, गवाक्षों और आँगनों में बहुत से नगरवासी खड़े थे। किंतु ऐसी स्तब्धता छाई हुई थी कि साँस की आवाज भी गूँजती लगती थी।

महल के संतरियों ने शस्त्र नीचे कर दिए और सिर झुका दिया। दारुक ने रथ रोका कि उससे पहले ही घोड़ों ने मानो सारथि और रथी दोनों की इच्छा जान ली और अपने आप ही खड़े हो गए। अर्जुन को नीचे उतरना था, पर वह गांडीव का सहारा लेता हुआ खड़ा ही रहा। अब कुछ ही देर में वह वसुदेव से मिलेगा—अतिवृद्ध और आप्तजन; और फिर माता देवकी—जिसे जन्म देकर तुरंत ही त्याग दिया था—त्यागना पड़ा था—वह पुत्र, वह युगपुरुष पुत्र, जीवन की इस अंतवेला में इन्हें छोड़ गया। इस विराट् पुरुष के उन अभागे पिता को अब अर्जुन प्रणाम करेगा तब...

‘कृष्ण! कृष्ण!!’ अर्जुन मानो चीख उठा—‘महायुद्ध के अंतिम दिन आपने जिस रथ से मुझे पहले उतारा, उस रथ से आप ही प्रथम उतर गए होते तो...तो यह कठिन घड़ी आज मेरे सामने न होती। शस्त्रास्त्रों के कारण पहले से ही धधक रहा रथ तब पलक झपकते ही भस्म हो गया था। मैं भी उस ज्वाला के साथ ही भस्म हो गया होता तो यह कलेजे के टुकड़े-टुकड़े कर देनेवाली वेदना, यह दमघोंटू घड़ी तो न आई होती...’

किंतु...वह घड़ी तो आ चुकी थी।

दो

वृद्धावस्था के पार भी यदि कोई अवस्था हो तो वसुदेव और देवकी उस अवस्था को छू रहे थे या कि उस अवस्था ने उन्हें पूरी तरह समेट लिया था। द्वारका की सीमा तो इन्होंने मानो युगों से लाँघी नहीं। अंगों के जर्जरित पिंजड़े में सँजोया जीव अभी श्वास ले रहा था; वह हृदय अभी स्पंदित था, जिसमें किनारों तक छलकती कालिंदी के मध्य से, मूसलाधार वर्षा में शिशु कृष्ण को माथे पर रखकर, मथुरा से गोकुल की यात्रा की याद घुमड़ती थी। कंस के हाथों आठ-आठ संतानों का शिला पर पटका जाना—वह भयानक पाशविक दृश्य इस जर्जर अवस्था में भी धुँधला नहीं हुआ था।

घोड़ों की टाप सुनकर वसुदेव की धँसी आँखें जरा सतेज हुईं। क्या नहीं देखा था इन आँखों ने!...और देखने लायक अब बचा भी क्या था? पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतीजे, भानजे—कोई भी तो नहीं बचा था इनमें! स्वयं कृष्ण और बलराम भी उन्हें पीछे छोड़कर जा चुके थे। बचा था एकमात्र वज्र—पौत्र अनिरुद्ध का नन्हा, नासमझ किशोर पुत्र!

प्रभास क्षेत्र में मचे यादवी कलह की बात स्वयं कृष्ण ने आकर पिता से कही थी, ‘तात! दाऊ बलराम समुद्र-तट पर समाधिस्थ अवस्था में प्रयाण की पूर्व तैयारी कर चुके हैं। माता गांधारी का शाप यथार्थ हुआ है। अंधक, वृष्णि, भोजक—तमाम यादवकुल कर्माधीन हो गए हैं। यह द्वारका अब मेरा निवासस्थान नहीं रहा, तात!...मुझे बिदा दीजिए, द्वारका में अब मुझसे नहीं रहा जाएगा।’

वसुदेव ने अंतिम बार पुत्र का मस्तक सूँघा, काँपते हाथों से उसका चेहरा सहलाया। देवकी ने चरणों पर झुके पुत्र की पीठ सहलाई। वे सब कर्म के अधीन थे—महाकाल द्वारा निर्धारित कर्म!

‘तू तो धर्मज्ञ है, पुत्र!’ पिता ने एक ही प्रश्न किया था, ‘बता, क्या मैं ही अभागा हूँ, जो वेदकाल के उस ऋषि को भगवान् ने जो वरदान दिया था, उससे वंचित रहा?’

‘कौन-सा वरदान, तात?’ कृष्ण ने पिता की ओर देखा।

‘मेरे बाद आए हुए मुझसे पहले कभी न जाएँ, यही वरदान तो वेदकालीन ऋषि ने माँगा था! मैं इस वरदान से एकदम प्रारंभ से ही वंचित रहा हूँ। आज इसकी जैसी कचोट उठ रही है, वैसी अनुभूति पहले कभी नहीं हुई थी, कृष्ण!’ वसुदेव का कंठ अवरुद्ध हो आया। किंचित् स्वस्थ होकर उन्होंने पुत्र के मस्तक को हलके से चूम लिया, फिर आँखें बंद कर लीं। निमिष-भर बाद आँखें खोलीं तो कृष्ण खंड में कहीं थे नहीं। अर्जुन जब वसुदेव के खंड में प्रविष्ट हुआ, वसुदेव की नजर दरवाजे पर ही लगी हुई थी। जब से दारुक हस्तिनापुर गया था, तब से ही वसुदेव और देवकी ने इस खंड का कारावास स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया था। अर्जुन की प्रतीक्षा वसुदेव तीव्रता से कर रहे थे। कृष्ण ने ही चलते समय कहा था, ‘अर्जुन यहाँ आएगा, तात! शेष यादव वंशजों की योग्य व्यवस्था वही करेगा, तात! आप अर्जुन में ही अब कृष्ण को देखें।’ वसुदेव तथा देवकी—सामने थे दोनों! अर्जुन द्वार पर जरा ठिठक गया। उसकी आँखें जड़-सी हो गईं। जरावस्था को स्वाभाविकता से स्वीकारने की समझ तो उसने कब की पा ली थी। वह स्वयं भी इसी प्रकृतिक्रम में वृद्ध हो चुका था, कृष्ण भी कहाँ जवान रहे थे! किंतु यह अवस्था! यह रोम-रोम से टपकती वृद्धता! यह साक्षात्कार तो बिलकुल नया था। वसुदेव और देवकी इतने वृद्ध तो पहले कभी नहीं लगे थे। अर्जुन अचानक ही वर्तमान में लौटा। झट आगे बढ़कर उसने वसुदेव-देवकी के चरणों में सिर झुका दिया।

‘‘तात...’’ आगे वह कुछ बोल नहीं सका।

‘‘कौन?...अर्जुन?...आ पहुँचे, पुत्र?’’ वसुदेव ने उसके माथे पर अपना काँपता हाथ रखा, ‘‘कृष्ण को अपने साथ नहीं लाए?...और बलराम कहाँ हैं? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, सात्यकि—कोई भी तो नहीं दीखता!’’

अर्जुन काँप उठा। उसने द्वार पर खड़े दारुक की ओर देखा। दारुक वहाँ से हट गया।

‘‘तात!’’ वसुदेव के चरणों के पास आसन पर बैठते हुए अर्जुन बोला, ‘‘स्वस्थ हो जाइए! अब हम कृष्ण को एक रूप या एक स्थान पर नहीं देखेंगे। लेकिन उससे क्या, कृष्ण तो हमारे अस्तित्व के प्रत्येक अंश में, हमारे साथ ही जीवित हैं, तात!’’

और फिर देवकी की ओर मुखातिब होकर बोला, ‘‘माँ! आप कृष्ण की जननी...’’

‘‘हाँ बेटा!किंतु मैं कैसी अभागी जननी!’’

‘‘कृष्ण की जननी अभागी कैसे, माँ?’’

‘‘दुनिया की किस माँ ने अपनी कोख से जनमे बच्चे को अपनी छाती से लगाकर पहला स्तनपान कराने से पहले ही उसे पराए घर में पलने के लिए भेज दिया होगा, पार्थ? ऐसी कौन होगी, बेटा! जिस जननी की छाती से उसका बच्चा कभी लिपटा न हो, वह जननी...’’ देवकी की आवाज उसका साथ न दे सकी।

‘‘माँ, सुना है कि आपका पुत्र माता यशोदा की गोद में जिस लाड़ से पला है...’’

‘‘तो फिर पार्थ, मैं देवकी के बदले यशोदा क्यों न हुई?...मैंने तो कृष्ण को उसकी अतिशय प्रिय माखन-मिस्री अपने हाथों नहीं खिलाई न! अपने लाल को गोद में लिटाकर, उसकी पीठ थपथपाकर उसे सुलाने का सौभाग्य मुझे तो नहीं मिला न!’’ देवकी रो पड़ी।

‘‘ऐसा न कहें, माँ,’’ अर्जुन ने सांत्वना दी, ‘‘कृष्ण जैसे युगपुरुष की आप जननी हैं, आपके हाथ ही माखन-मिस्री खाने के लिए कृष्ण को दोबारा लौटकर आना पड़ेगा, माँ!’’

‘‘अर्जुन!’’ कुछ स्वस्थ होने पर देवकी बोली, ‘‘एक बार मैंने कृष्ण को अपने हाथों माखन-मिस्री खिलाने की जिद कर ली। हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ, मथुरा, प्राग्ज्योतिषपुर और समस्त आर्यावर्त्त में हर कहीं परिभ्रमण करनेवाले मेरे इस पुत्र को द्वारका में शांति से बैठने का समय बहुत कम मिलता था। कभी स्थिरता में उसे पाया तो मैंने आग्रह करके उसे अपने इसी आवास पर अपने हाथों बनाई रसोई खाने बुलाया था। उसके माखन-मिस्री प्रेम के बारे में बहुत-बहुत सुना था रे, इसलिए मैंने उसकी वह खास चीज परोसी...’’

‘‘फिर...फिर...क्या हुआ, माँ?’’ अर्जुन विकलता से फूट पड़ा।

‘‘यहीं, इसी खंड में, उस तरफ देख, पुत्र...’’ देवकी ने अपनी काँपती उँगली उठाई, ‘‘यहाँ, उसे यहाँ बिठाकर मैंने उसके सामने भोजन का थाल धरा...’’ देवकी को अपनी हिचकी रोकने में थोड़ा वक्त लगा, ‘‘थाल की ओर देखता रहा वह और फिर, फिर उसकी आँखों में मैंने आँसू देखे। माखन-मिस्री को उसने छुआ भी नहीं और अपना माथा झुका लिया!’’

‘‘यह आप क्या कह रही हैं। कृष्ण की आँख में आँसू?’’ अर्जुन स्तब्ध रह गया।

‘‘हाँ!’’ देवकी बोली, ‘‘मैंने उसका माथा सहलाते हुए पूछा—‘पुत्र!तेरी इस अभागी माँ के हाथों ऐसा क्या अपराध हुआ है कि उसके परोसे अपने प्रिय मिष्टान्न को खाने के बदले तू रो रहा है?’...और जानते हो, कौंतेय, कृष्ण ने क्या कहा?बोला—‘माँ! गोकुल छोड़कर जब मैं मथुरा के लिए चला था तब माता यशोदा को मैंने वचन दिया था कि माँ, मैं फिर लौटकर तुम्हारे पास आऊँगा...और जब तक तेरे पास नहीं पहुँच जाऊँगा, अपनी प्रिय माखन-मिस्री नहीं खाऊँगा। माँ, एक तरफ माता यशोदा को दिया वह वचन है और दूसरी तरफ तुम्हारे हाथों परोसा यह प्रेम...माँ, तुम ही कहो, दो-दो माताओं का पुत्र मैं—यह कैसे धर्मसंकट में फँस गया हूँ!’ ’’

‘‘फिर? फिर कृष्ण ने क्या किया, माँ?’’ अर्जुन ने एकदम बालसुलभ उत्सुकता से पूछा।

‘‘कृष्ण ने वही किया जो उसे करना चाहिए था। मेरा प्रेम तो मेरे स्वार्थ में से उभरा था। यशोदा को दिया वचन स्वार्थ में से नहीं, त्याग में से प्रकट हुआ था। त्याग का प्रेम हमेशा ऊँचा होता है।’’ इतना कहते-कहते देवकी मानो एकदम निचुड़ गई। तकिये पर निढाल-सी हो गई। ‘‘अब...अब अपने हाथों मैं अपने लाल को कभी माखन-मिस्री नहीं खिला सकूँगी, अर्जुन, कभी नहीं। कृष्ण यदि कहीं मिले तो उससे कहना, पुत्र, कि देवकी तेरी प्रतीक्षा कर रही है।’’

अर्जुन स्तब्ध हो गया। उसका दिल बैठ-सा गया। ऐसा लगने लगा जैसे देवकी के शब्द सब ओर से टकराकर गूँज रहे हों—देवकी तेरी प्रतीक्षा कर रही है...देवकी तेरी प्रतीक्षा...  

अर्जुन ने वसुदेव की ओर देखा। वसुदेव की आँखें भीगी हैं या कोरी, यह जानना कठिन था; क्योंकि वे तो किसी गह्वर में समा चुकी थीं। देवकी और अर्जुन की इस पूरी बातचीत का एक भी शब्द उन्होंने सुना या नहीं, उनके चेहरे से अंदाज लगाना मुश्किल था।

‘‘तात...!’’ उसने धीरे से उन्हें पुकारा।

‘‘अर्जुन!’’ वसुदेव एकबारगी ही जागे हों, इस तरह बोले। उनकी नजर कहीं दूर, अतीत में खोई हुई थी—‘‘कंस के कारावास से जिस दिन हमें मुक्त करके कृष्ण ने पहली बार मेरी चरण-वंदना की, पुत्र, वह क्षण मैं आज भी भूला नहीं हूँ। कितनी-कितनी देर तक तो दिल यह मानने को तैयार ही नहीं हुआ था कि जिस अतिशय नाजुक शिशु को, उस मेघाच्छादित बरसती रात को, मैं चोर की तरह लुकता-छिपता गोकुल में छोड़ आया था, वही शिशु कंस की हत्या करके मेरे चरणों में सिर झुकाए खड़ा है। और वह कृष्ण था!...पूरे चौदह वर्ष बाद मैं कृष्ण को देख रहा था, पूरे चौदह वर्ष...और कैसे थे वे चौदह वर्ष!...’’ अब अर्जुन के लिए यह झेलना बहुत भारी पड़ रहा था। उसने बात मोड़ दी, ‘‘तात! कारावास के वे कठिन दिन तो कब के बीत चुके न! उसके बाद तो कृष्ण ने आपको मथुरा के गणतंत्र और द्वारका राज्य के पितामह के पद पर ला बिठाया...’’

‘‘हाँ! धनंजय, तुम ठीक कहते हो; पर कारावास से मुक्ति जिसने दी, पुत्र, उसीने अब यह नया कारावास भी तो दे दिया।’’

‘‘मैं समझा नहीं!’’ अर्जुन उलझन में पड़ गया।

म्लान हँसी वसुदेव के चेहरे पर उभरी। अर्जुन देखता रहा। इस क्षण भी चेहरे पर मुसकान!

‘‘कारावास के चौदह वर्ष प्रतीक्षा के वर्ष थे, पुत्र!’’ वसुदेव बोले, ‘‘कृष्ण गोकुल में पल रहा है और उसीसे लगी यह आशा भी पल रही थी कि वह मथुरा को कंस के क्रूर शासन से मुक्त कराएगा। पूतना की मृत्यु, धेनुकासुर का वध—ये सब हमारे कानों तक पहुँचते थे और लगता था, कृष्ण एक दिन तो जरूर यहाँ भी आ पहुँचेगा। बाहर साँय-साँय बहती हवा, कारावास के बाहर खड़खड़ाते वृक्ष-पर्ण...सच मानो, हमारी साँस तेज हो जाती थी, आहट सुनाई देने लगती थी—बस, आ पहुँचा, कृष्ण आ ही पहुँचा! कभी आधी रात का डंका बजता और लगता, द्वार पर कहीं कृष्ण तो दस्तक नहीं दे रहा?...’’

‘‘तात...’’ अर्जुन के होंठ काँपे।

‘‘हाँ! मथुरा के उस कारावास में प्रतीक्षा थी। कारावास के दिन बीत जाएँगे, इसका विश्वास था न! नारद ने ही तो कहा था, अर्जुन, कि कृष्ण आएँगे। देवकी का आठवाँ पुत्र मथुरा को मुक्त करेगा। किंतु...किंतु...अब अर्जुन, अब तो नारद के किसी शब्द का भी साथ नहीं। कृष्णविहीन उस कारागार में कृष्ण की प्रतीक्षा ही हमारा जीवन था...अब वह प्रतीक्षा भी तो नहीं रही। अर्जुन, यह कारावास जो हम आज भोग रहे हैं, यह कंस के कारावास से भी अधिक पीड़ादायक, कहीं अधिक वेदनामय है...’’

‘‘बस करिए तात, बस करिए, अब और नहीं सुन सकूँगा मैं!मेरा हृदय फट जाएगा, तात!’’

‘‘पार्थ,’’ वसुदेव धीमे से बोले, ‘‘अब जब कृष्ण की प्रतीक्षा ही नहीं रही तो इस नए कारावास से मुक्ति पाने का एकमात्र मार्ग...’’ वसुदेव तनिक अटक गए, ‘‘उस दिन मैं स्वयं, कृष्ण का पिता मैं कृष्ण को कारावास से बाहर पहुँचा आया था। सच कहूँ तो कृष्ण को हमने माता-पिता से वंचित कर दिया था। अब कृष्ण ने हमें पुत्र-वंचित करके मानो कानों में कह दिया है—तात! उन वर्षों में मैंने जो व्यथा भोगी, उसका थोड़ा अनुभव आप दोनों भी तो करें! अर्जुन...अर्जुन...बेटा...’’ वसुदेव एकदम से फूट पड़े। अर्जुन के लिए अब वहाँ खड़े रहना असंभव ही था। वह एकदम हट चला—‘‘अनुज्ञा दीजिए, पिता। देवी रुक्मिणी और सत्यभामा के आवास में भी हो आऊँ। रात का पहला पहर प्रारंभ हो गया है...’’

‘‘ठीक है, वत्स, जाओ, रुक्मिणी और सत्यभामा को भी आश्वासन देना। और...और,’’ वसुदेव बोले, ‘‘प्रातःकाल की पहली किरण के साथ ही यहाँ आ जाना, भाई!’’

‘‘प्रातःकाल?कोई खास प्रयोजन?’’

‘‘प्रयोजन?’’ वसुदेव बुझी हँसी हँसे, ‘‘जिस कारावास से अब मुक्ति की कोई प्रतीक्षा नहीं, उस कारावास से मुक्ति पाने का क्षण अब करीब आ रहा है...’’

‘‘अर्थात्?’’

‘‘कल ब्राह्ममुहूर्त में मैं योगसमाधि लूँगा, अर्जुन!इस देह के पंचमहाभूत बहुत टिके। अब इन पंचमहाभूतों को सद्गति पाने दो!’’

‘‘तात!’’

‘‘मेरी पार्थिव देह की अंत्येष्टि करने के बाद तुम प्रभासक्षेत्र जाना, पुत्र!और यदि हिरण-कपिला के संगम तट पर कहीं कृष्ण मिल जाए तो उससे कहना कि पिता वसुदेव...’’

‘‘और माता देवकी भी...’’ देवकी बीच में ही बोली।

‘‘स्वर्ग के कारावास में भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं, पुत्र! कहना कि जिस स्थान पर कृष्ण न हो, वह स्थान उसके माता-पिता के लिए स्वर्ग नहीं, कारागृह ही है! हम कृष्ण की प्रतीक्षा करेंगे...युग-युगांतरों तक...’’ बस, जो बड़ी मुश्किल से थाम रखे थे, वे आँसू एकदम फूट पड़े। रोना नहीं था, पर अर्जुन रो पड़ा।

तीन

वसुदेव के महल से निकलकर अर्जुन जब कृष्ण के अंतःपुर में पहुँचा, रात्रि का अंधकार छा गया था। यहाँ-वहाँ मध्यम जलते दीपक और काँपती मशालों के प्रकाश में द्वारका की परछाईं भयानक लग रही थी। अंतःपुर के द्वार पर भी जलती मशालें थीं और उनके बीच खड़े थे संतरी। सिर झुकाकर उन्होंने अभिवादन किया। अर्जुन भीतर दाखिल हुआ।

कृष्ण के इस अंतःपुर का एक भी कोना अर्जुन से अनजान नहीं था। सत्यभामा और रुक्मिणी के इस आवास में अर्जुन अनेक बार तो आ चुका था। लेकिन आज का यह आगमन, यह अंतःपुर...सब आज एकदम ही अलग थे। उद्यान उजाड़-से पड़े थे। कई दिनों से किसीने वहाँ जलसिंचन भी नहीं किया था। जगह-जगह सूखे पत्तों का ढेर लगा था—हवा के अतिरिक्त अब उन्हें कोई बुहारता भी नहीं था। महल की सीढि़यों के पास अर्जुन ठिठक गया। इतने ऊपर चढ़ूँ तो कैसे! हिमालय के दुर्गम पहाड़ों में किरातों के साथ युद्ध करते हुए जिन ऊँचाइयों पर चढ़ते हुए उसे ऊँचाई का कोई भान ही नहीं हुआ था—ये सीढि़याँ आज उनसे भी ऊँची और दुरूह लग रही थीं। लेकिन यहाँ खड़ा भी तो नहीं रह सकता! अर्जुन ने मन को कड़ा किया और कदमों को जमाते हुए सीढि़यों पर चढ़ने लगा। अंदर प्रकाश था, किंतु जैसे किसीको दिखाने के लिए नहीं। दालान के एक स्तंभ से टिककर खड़ी वे दोनों रानियाँ मानो अंधकार में विलीन हो रही थीं। सीढि़याँ चढ़ते अर्जुन को दोनों ने देखा, दोनों ने अर्जुन के मन की व्यथा समझी और अचानक ही अर्जुन की अवस्था उन दोनों की आँखों से बहने लगी।

‘‘आ गए, धनंजय!’’ जरा आगे बढ़कर रुक्मिणी ने अर्जुन को सँभाला, ‘‘दारुक ने बताया था कि तुम आ गए हो...तब से हम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।’’

‘‘मेरा वंदन स्वीकार करो, देवी!’’ अर्जुन ने प्रथम रुक्मिणी को और फिर सत्यभामा को प्रणाम किया।

‘‘यशस्वी हो, भाई!’’ रुक्मिणी ने आशीर्वाद दिया।

‘‘यह कैसा आशीर्वाद है, देवी!यशस्वी होने लायक अब क्या काम बचा है? जहाँ कृष्ण न हों, वहाँ यश कैसा?’’ अर्जुन बोला।

‘‘हाँ, कृष्ण बिना कैसा यश!’’ रुक्मिणी बोली, ‘‘अर्जुन, यादवकुल को ही नहीं, समग्र आर्यावर्त्त को किसी महापातक ने जकड़ लिया है! क्या पता, यह किसके पाप की सजा है?’’ रुक्मिणी रो पड़ी।

‘‘बहन!’’ रोती रुक्मिणी को सहारा देती और अपने आँसू पोंछती सत्यभामा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मैंने...मैंने ही तो वह पीड़ा दी थी कृष्ण को। हाँ, मैं ही अपराधिनी...पर कृष्ण...बताओ तो जरा, मेरे इस पाप का दंड पूरी द्वारका को क्यों...ऐसा क्यों?’’

‘‘यह, यह आप क्या कह रही हैं, सत्यभामा?’’ अर्जुन उलझन में पड़ गया, ‘‘आप, आप कृष्ण की अपराधिनी!यह कैसे संभव है?’’

‘‘हाँ, अर्जुन! मैंने ही...मैंने ही स्त्री-सहज ईर्ष्या के वश होकर कृष्ण को दुखी किया था। मेरे उसी दुष्कृत्य का दंड हम सब भुगत रहे हैं।’’ सत्यभामा बोली, ‘‘कृष्ण मेरे दुष्कर्म की सजा सिर्फ मुझे देते...समस्त यादवकुल और द्वारका नगरी को इस प्रकार आप त्याग कैसे सके?’’ उससे खड़ा न रहा गया। सत्यभामा निढाल होकर नीचे गिर-सी पड़ी। रुक्मिणी आश्चर्य से देखती रही। उसने धीरे-धीरे सत्यभामा का माथा सहलाया।

‘‘बहन!’’ रुक्मिणी बोली, ‘‘तुम कुछ ज्यादा ही विकल हो उठी हो!’’

‘‘यह विकलता तो अंतहीन है, बहन! अर्जुन...जो शूल चुभ रहा है मेरे हृदय में, जिस बात का भार मैं अब उठा नहीं पा रही—मेरे उस पाप का स्वीकार कर मुझे थोड़ी राहत लेने दो, अर्जुन...।’’ सत्यभामा बिलखने लगी। रुक्मिणी के हाथ देर तक उसे सहलाते रहे। अर्जुन यंत्रवत् सत्यभामा के पाँवों के पास बैठा रहा...बस, शून्य में ताकता!

‘‘मैं ठीक कह रही हूँ...हाँ, एकदम ठीक। मैंने...मैंने ही कृष्ण को दुःख दिया...और दुखी श्याम ने मुँह फेर लिया। बहन रुक्मिणी...वीर गुडाकेश! उस दिन...उस दिन...’’ सत्यभामा की आँखें ऊपर, कहीं बहुत ऊपर, आकाश के अँधेरे में गहरी पैठ गईं।  

त्रिलोक के परिव्राजक देवर्षि नारद का आगमन सदैव अचानक-अनसोचा होता है। नारद का यही क्रम था। एक सुबह कृष्ण नित्य कर्म से निबटकर अपने आवास में बैठे ही थे कि तभी नारद की वीणा की झंकार सुनाई दी। कृष्ण ने खड़े होकर देवर्षि का सत्कार किया, योग्य आसन दिया। चरण प्रक्षालन किया और फिर नारद से कुछ नीचे आसन पर बैठकर उन्हें प्रणाम किया—‘‘देवर्षि! द्वारका की इस भूमि को बहुत दिनों बाद आपने पावन किया!’’

‘‘अच्युत!’’ नारद ने कहा, ‘‘हिमालय के परिभ्रमण में दिन कहाँ बीत गए, स्मरण ही न रहा। अभी-अभी कैलास पर्वत की यात्रा से लौट ही रहा हूँ।’’

‘‘हमारे अहोभाग्य, नारद!’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘कैलास यात्रा का प्रसाद पाकर हम भी धन्य हो जाएँगे।’’

‘‘कृष्ण!’’ अपने उपवस्त्र के एक छोर से एक बड़ा, एकदम ताजा पुष्प निकालकर कृष्ण को देते हुए नारद ने कहा, ‘‘यह ब्रह्मकमल है। कैलास पर्वत पर, मानसरोवर के पावन जल में से तोड़कर, भगवान् शंकर के चरणकमलों में अर्पित यह पुष्प ऐसा ही ताजा रहेगा।’’

कृष्ण, रुक्मिणी और उपस्थित सबके सब नारद के हाथों में दमकते इस अद्भुत पुष्प को देखते रह गए। कृष्ण ने नारद के हाथ से वह ब्रह्मकमल लिया, माथे से लगाया और अपनी बाईं ओर बैठी रुक्मिणी को पुष्प बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रुक्मिणी! यह पुष्प तुम्हारी घनी केशराशि में शोभायमान होगा! भगवान् शंकर का यह आशीर्वाद सदैव अपने मस्तक पर धारण करना!’’

रुक्मिणी तो विभोर हो उठी। उसने आशीर्वाद-सा उसे ग्रहण किया और अपने केशों में गूँथ लिया।

‘‘सच! इस पुष्प के कारण तुम कितनी खिल उठी हो, देवी! ऐसा लगता है जैसे कोई यक्षकन्या वनविहार के लिए निकल पड़ना ही चाहती हो।’’ कृष्ण मुसकराए।

रुक्मिणी शरमा गई। देवर्षि नारद इस प्रसन्न और निष्कलुष दांपत्य को मुसकराते हुए देखते रहे। बहुत देर तक धर्मचर्चा, गोष्ठी आदि के बाद सब अपने-अपने आवासों को गए।

नारद का दिया वह पवित्र ब्रह्मकमल कृष्ण ने स्वयं रुक्मिणी को दिया और उसे केशराशि में गूँथने को कहा। इतना ही नहीं, इस कमल के कारण रुक्मिणी यक्षकन्या जैसी खिलती हुई लगी। सत्यभामा ने यह सब सुना और एक रोष उसके भीतर उबल आया। कृष्ण का जो प्रेम अब तक उसे अखंड मिलता रहा था, उसने सत्यभामा को एकदम आश्वस्त कर दिया था कि राजसभा में और दुनिया-भर में भले ही रुक्मिणी पटरानी हो, कृष्ण के प्रेम-संसार की पटरानी तो वही है—केवल सत्यभामा। इस भरोसे को आज तक धक्का पहुँचने जैसा कभी कुछ हुआ ही न था। आज पहली बार कृष्ण ने सबके सामने रुक्मिणी के प्रति अपना सर्वाधिक प्रेम जताया...स्वीकार किया। ब्रह्मकमल जैसा लगभग दुर्लभ पुष्प कृष्ण ने सत्यभामा को नहीं, रुक्मिणी को दिया!

ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था! सत्यभामा को लगा, आज तक कृष्ण ने उसके साथ धोखा तो नहीं किया?कृष्ण के ऊपरी व्यवहार को प्रेम समझकर वह ठगी तो नहीं गई? जितने दिन इस भ्रम में बीते, उतने तो बीते, लेकिन अब तो उसे बात साफ करनी ही होगी। प्रेम के व्यवहार में कालिमा नहीं चलती। कृष्ण उस दिन जब सत्यभामा के महल में आए तो देखते हैं कि सत्यभामा महल के ठेठ अंदर के खंड के एक कोने में पड़ी रो रही थी। क्यों?...कृष्ण के लिए ऐसा दृश्य कल्पनातीत था। उसने सारे आभूषण उतार धरे थे और एकदम विकल थी।

‘‘सत्यभामा!’’ कृष्ण ने प्रेम से पुकारा, ‘‘आज यह सब क्या हो रहा है!...ऐसा यह दर्शन, और यह रुदन; ऐसी क्या बात हुई, प्रिये, कि तुम्हारी आँखों से आँसू बह रहे हैं?’’

‘‘मेरा भ्रम आज दूर हो गया, स्वामी!’’ सत्यभामा ने हिचकिचाकर कहा, ‘‘जिंदगी में पहली बार मुझे मालूम हुआ कि मैं धोखे में जी रही थी!मेरी वंचना हुई...!’’

‘‘कैसी बातें करती हो, देवी! तुम्हें धोखा देनेवाले को, तुम्हारी वंचना करनेवाले को मैं पाताल से भी पकड़ लाऊँगा, और तुम जो चाहोगी वहीं दंड दूँगा।’’

‘‘नहीं कृष्ण, नहीं, उसे पकड़ने के लिए आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं है। मैं और किसीके हाथों नहीं, स्वयं अपने सर्वस्व के हाथों, अपने कृष्ण के हाथों छली गई हूँ।’’

‘‘अरे, यह तो तुम बड़ी गहन समस्या उत्पन्न कर रही हो, सत्यभामा!मैंने...कृष्ण ने तो कभी किसीको धोखा दिया ही नहीं, और फिर तुम तो मेरी प्रिय सखी...’’

‘‘अब रहने दीजिए! इन शब्दों ने ही मुझे आज तक छला है,’’ सत्यभामा ने साफ-साफ कह ही तो दिया, ‘‘मैं तो ऐसा मानती थी कि कृष्ण की सबसे निकट कोई प्रिया है तो वह मैं ही हूँ...’’

‘‘यह सत्य है, देवी!कृष्ण तुम्हारे निकट ही है...’’

‘‘लेकिन माधव, यदि ऐसा होता तो ब्रह्मकमल आपने यक्षकन्या जैसी रुक्मिणी को न दिया होता...’’ सत्यभामा ने बिच्छू जैसी डंक मारनेवाली बात कह दी।

कृष्ण समझ गए। उनके श्याम चेहरे पर और गहरी श्यामलता छा गई। सत्यभामा ने यह क्या कहा? रुक्मिणी के प्रति उसके अंतर में ऐसी ईर्ष्या कहाँ से आई?...कृष्ण के सान्निध्य में रहनेवाली सत्यभामा के मन में ऐसी मलिनता किस रास्ते आ गई?

कृष्ण के उस गहन उदास चेहरे को सत्यभामा मौन देखती रही, और उसे लगने लगा कि कृष्ण के अंतर का रहस्य खुल गया है, उसने कृष्ण को पकड़ लिया है। विजय का संतोष सत्यभामा के चेहरे पर छलक उठा। ‘‘सत्यभामा!’’ कृष्ण खड़े हुए। पत्नी के कंधे को तनिक छूकर बोले, ‘‘तुमने...तुमने ऐसा माना! कमल का एक पुष्प अंतर की अगाध गहराई को यों गँदला कर सकता है, यह तो मुझे सपने में भी खयाल नहीं था। होता तो देवर्षि नारद के दिए प्रसाद को मैं फिर से शिव-चरणों में ही समर्पित कर देता।’’

सत्यभामा के नेत्र अपलक हो गए। कृष्ण के चेहरे पर ऐसी व्यथा तो कभी नहीं देखी थी। कृष्ण फिर चुप हो ही गए, अधिक कुछ न बोले। सत्यभामा हतप्रभ-सी भटक गई—कहीं अनजाने में उससे कृष्ण के प्रति अन्याय तो नहीं हो गया!...ऐसा भाव कृष्ण के चेहरे पर कभी देखा नहीं। कृष्ण के चरण पकड़कर क्षमा माँग ले, किंतु स्त्री-सहज अभिमान ने उसे रोक दिया। कृष्ण को वैसे ही खड़े छोड़कर वह दूसरे खंड में चली गई।

‘‘अर्जुन!’’ घड़ी-भर बाद सत्यभामा ने व्योम में कहीं खो गई अपनी आँखें वापस घुमाईं। इस बार उसका स्वर बिलकुल बदला हुआ था—‘‘अर्जुन, उस रोज मैं चूक गई तो आज तक एक हार का भाव मुझे मथता है। अपने अहं को झटककर, मैंने तभी कृष्ण के चरणों पर मस्तक रखकर क्षमा माँग ली होती तो शायद ऐसी दारुण व्यथा से मुझे गुजरना न पड़ता।’’ और फिर अचानक ही सत्यभामा ने रुक्मिणी की ओर मुड़कर उसके चरणों में अपना मस्तक धर दिया, ‘‘मुझे क्षमा करना, दीदी! कृष्ण को जो दुःख मैंने दिया, उसमें कहीं आप पर भी तो कलुष लगाया था। मेरे उस कुकर्म का ही है यह फल...’’

‘‘सत्यभामा!’’ अर्जुन ने अत्यंत करुणार्द्र होकर कहा, ‘‘कृष्ण मानवीय व्यथाओं से परे थे, देवी, आप स्वयं को अपराधी मानकर नाहक व्यथित हो रही हैं...’’

‘‘हाँ, बहन!’’ रुक्मिणी ने भी समझाया।

‘‘व्यथा बाहर से नहीं आती, अर्जुन!यह तो कहीं अंदर से प्रकट होती है...खैर!’’ सत्यभामा बोली, ‘‘मेरी एक प्रार्थना स्वीकारोगे, भाई?’’

‘‘आज्ञा करें, देवी!कृष्ण की अर्धांगिनी ऐसी दीन नहीं होती...’’

‘‘शायद कृष्ण आपको कहीं प्रभासक्षेत्र में मिल जाएँ...’’

‘‘सत्यभामा!’’

‘‘हाँ, अब वे द्वारका तो कभी नहीं लौटेंगे। उनके दर्शन तो अब इन नयनों से कभी न होंगे—क्योंकि यह देह अपराधी है; किंतु आपको शायद कृष्ण मिल ही जाएँ।’’

अर्जुन और रुक्मिणी कुछ न बोले।

‘‘...यदि कृष्ण मिलें तो उनसे कहना, अर्जुन, सत्यभामा दोषी है। उसने आपको दुखी किया। उस पाप की उसे चाहे जितनी कठोर सजा दें, किंतु इस समग्र कुल को और इस पूरी नगरी को ऐसी सजा क्यों? इसे क्यों छोड़ गए? इतनी-सी बात एक बार कृष्ण तक पहुँचा सको तो...’’ कहते-कहते सत्यभामा रुक्मिणी से लिपटकर एकदम बिलख उठी, और साथ ही रुक्मिणी भी।

और अर्जुन के लिए शून्य में खो जाने के अतिरिक्त कुछ न बचा था!

चार

रात के दूसरे प्रहर की समाप्ति का डंका अभी बजा ही था। उसकी गूँज वातावरण में थरथरा रही थी। दुर्ग को घेरती खाई में समुद्र का पानी भरते-भरते लगभग पूरा भर गया था और उसमें उठती लहरों के थपेड़े रात की स्तब्धता के दरवाजे पर मानो दस्तक दे रहे थे।

रात्रि की इस निस्तब्धता से भी गहरी निस्तब्धता थी कृष्ण के आवास में। कुछ मशालें, कुछ प्रमुख कक्षों में जलते दीपक, बस, इनके सिवा सबकुछ एकदम शांत! द्वार पर संतरी इस तरह खड़े थे मानो निर्जीव पुतले हों। धुँधले चंद्र-प्रकाश में उनकी परछाईं भी तिरछी होकर कुछ रहस्य ही बना रही थी।

अर्जुन गवाक्ष के पास खड़ा बाहर देख रहा था—दूधगंगा के नक्षत्र मानो समस्त ब्रह्मांड को निरपेक्ष हो निरख रहे थे। कृष्ण अब इस धरती पर नहीं हैं, प्रकृति का मानो इससे कोई सरोकार नहीं था। कृष्ण नहीं थे, तब भी तो ये नक्षत्र यों ही मूक संवाद करते होंगे; कृष्ण थे, तब भी यह मौन संवाद अनवरत चल रहा था—और अब, जब कृष्ण नहीं हैं, इस दूधगंगा को कुछ पड़ी नहीं है! शायद इन नक्षत्रों ने ऐसी असंख्य पृथ्वियों पर, अनंत काल से व्याप्त होनेवाली ऐसी शून्यताओं को आत्मसात् कर जीना सीख लिया है! कदाचित् द्वापर के इस महापुरुष जैसे अनेक महापुरुष दूसरे युगों में भी उदित हुए होंगे, और फिर नियति-चक्र के अधीन होते गए होंगे...इन नक्षत्रों ने वह सारा उदय-अस्त देखा है—और देखते-देखते जड़ हो गए हैं!

और तभी एक तेज शलाका आकाश को बेध गई। एक प्रचंड उल्का क्षण-मात्र को सुलगी और सारे आकाश को भासमान करती हुई विलीन हो गई। अँधेरा निगल गया उसे! प्रकृति का क्रम ही तो है यह! अर्जुन की आँखें उस उल्का की खोज में फिर पूरे आकाश में घूमती रहीं।

हस्तिनापुर से द्वारका तक की थकान-भरी यात्रा के बाद भी आज अर्जुन की आँखों में नींद कहाँ थी! अब तो एक ही प्रहर शेष था। पिता वसुदेव योगसमाधि लेने को हैं। माँ देवकी भी समाधिस्थ पति के पीछे बिदा लेंगी, इसमें कोई संशय नहीं। उनका संदेशा पहुँचाने के लिए उसे कृष्ण को ढूँढ़ना पड़ेगा; सत्यभामा का संदेशा पहुँचाने के लिए भी उसे कृष्ण तक पहुँचना पड़ेगा। पिता वसुदेव, माता देवकी, प्राणप्रिया रुक्मिणी और सत्यभामा—सबको ही तो पूरा विश्वास था—चाहे जैसे भी हो, अर्जुन उनके हृदय की बात कृष्ण तक अवश्य पहुँचाएगा! अर्जुन के सिवा यह कार्य कोई नहीं कर सकता! कृष्ण की बिदाई तो इस पार्थिक सृष्टि से हुई न! अर्जुन तो इससे कुछ आगे है—कृष्ण के बिलकुल साथ-साथ! एकदम निकट! किंतु ये सारे स्वजन कैसी भयानक छलना में जी रहे थे। अब अर्जुन की ही कहीं कृष्ण से भेंट होनी है क्या! एक मर्यादा तो अर्जुन की भी है! लेकिन वह अपनी यह मर्यादा कहे किससे?स्वयं से? क्योंकि जो अंतिम घडि़याँ गिन रहे हैं, उनकी आस्था की अंतिम डोर तोड़कर भला क्या मिलेगा उसे!

एक विचार-जाल में उलझा अर्जुन उस विशाल कक्ष में अकेला ही खड़ा था—अकेला ही रहा।

यह वही कक्ष था, जहाँ कृष्ण के संग उसने अनेक मधुर दिन बिताए थे। इसी कक्ष में यहाँ-वहाँ बैठकर कृष्ण ने कितनी ही बार अर्जुन से कितनी सारी बातें की थीं। अब वे दिन और वे बातें...

कक्ष के एक कोने में पत्थर का एक बड़ा-सा आसन धरा था—मानो बड़ी-सी चौकी रखी हो। उसी आसन पर कृष्ण का सुदर्शन चक्र धरा रहता था। अब वह वहाँ नहीं था। दारुक कह रहा था—

‘सव्यसाची! उस सुदर्शन चक्र को प्रभासक्षेत्र में सारे नभमंडल में व्याप्त होकर फिर अदृश्य होते सब यादवों ने देखा था!’ सुदर्शन के इस तरह अदृश्य हो जाने का संकेत नहीं समझे यादव, किंतु काल?...उसने तो उन्हें वश में किया ही...

विश्व की प्रचंड-से-प्रचंड शक्ति कृष्ण के हाथ से सुदर्शन चक्र नहीं छीन सकती थी। उसे तो स्वयं कृष्ण ने ही बिदा का संकेत दिया होगा! यादवों ने और दारुक ने जो बात नहीं समझी, अर्जुन उसे स्पष्ट देख रहा था! ‘...और धनंजय!’ दारुक ने आगे जानकारी दी, ‘समुद्र-तट पर समाधिस्थ बलराम की देह से स्वयं शेषनाग प्रकट हुए—और वह नाग भी कुछ पल बाद समुद्र की लहरों पर आरूढ़ होकर जलमग्न हो गया...समाधिस्थ बलराम का पार्थिव देह ऐसा तेजस्वी लग रहा था...’

अर्जुन की आँखों के आगे वह सारा दृश्य खड़ा हो गया जैसे बलराम की देह से निकलकर प्रचंड शेषनाग संपूर्ण प्रभासक्षेत्र में, समस्त समुद्र और असीम आकाश पर छा रहा हो।

किंतु—किंतु इन सबके बीच कृष्ण कहाँ हैं? अभी भी प्रभासक्षेत्र में कहीं समाधिस्थ होंगे या फिर देहविलय के पश्चात् उनके पंचमहाभूत...

अर्जुन काँप उठा!

सुदर्शनविहीन वह रिक्त स्थान अर्जुन अधिक देर तक देख न सका, उसने आँखें फेर लीं। उधर एक चौकी पर कृष्ण का अतिप्रिय पांचजन्य पड़ा था। इसे तो कृष्ण सदा साथ रखते थे...। और अब इसे ही छोड़कर चले गए?...इन सबका अर्थ तो स्पष्ट है! अब कृष्ण कभी किसीको नहीं मिलेंगे! देहधारी कृष्ण अब विदेह हो चुके न!

तीसरे पहर का डंका बजा। ब्राह्ममुहूर्त होने को है। अर्जुन ने क्षण-भर के लिए पद्मासन लगाकर ब्रह्मस्मरण किया। स्नानादि से निबटकर यज्ञवेदी में आहुति डाली और तभी, पूर्व दिशा के अंधकार को चीरती हुई पहली सुनहरी किरण ने चेहरा उठाया। अर्जुन ने बाहर झाँककर देखा—अभी मुँहअँधेरे शायद दारुक न भी आया हो! किंतु...

किंतु अर्जुन का संशय गलत निकला। दारुक अर्जुन की प्रतीक्षा में खड़ा था।

‘‘दारुक!’’ अर्जुन ने आश्चर्य से पुकारा।

‘‘जी!...रथ तैयार है!’’ दारुक ने समीप आकर कहा, ‘‘पिता वसुदेव की योगसमाधि की बात द्वारका में फैल गई है। सारे नगरवासी पिताश्री के महल में पहुँच ही रहे होंगे...’’

अर्जुन ने उत्तर न दिया। उसने जो सुना, उसका एक ही अर्थ उसे सूझा—‘मैं पिता वसुदेव के अंतिम दर्शन तो कर सकूँगा!’ उसने दारुक से कहा, ‘‘जल्दी ले चलो रथ पिता के महल तक! पिता समाधि लें, उससे पहले उनकी आँखों के अमृतरस से एक बार तो अपनी प्यास बुझा लूँ...फिर तो...’’ गहरी साँसों ने उसकी बात पूरी की।

अर्जुन जब वसुदेव के भवन में पहुँचा, तब तक वसुदेव की आत्मा ब्रह्म में विलीन होने को व्याकुल पार्थिव देह की किसी ब्रह्मनाड़ी में गहरी पैठ चुकी थी।

वे वसुदेव अब कहाँ थे, जिन्हें अर्जुन ने अभी ही तो...पिछली साँझ को देखा था! आज कितने तेजस्वी और स्थिर दीखते थे पिता वसुदेव! नंगी धरती पर व्याघ्र चर्म बिछाकर, पद्मासन लगाए वे सीधे बैठे थे। आँखें बंद थीं। ओठों पर कुछ बुदबुदाहट थी। माँ देवकी पूर्ण स्वस्थ भाव से, युगों के संबंधों को मानो क्षण-भर में निःसार मानकर तटस्थता से पति की बाईं ओर बैठी थीं! इन दो-तीन प्रहरों में तो जैसे दोनों की देह एकदम ही बदल गई थी।

पदचाप से भी कहीं शांति भंग न हो जाए, इस तरह अर्जुन वसुदेव के सम्मुख बैठ गया। किंतु अब वसुदेव आँखें खोलकर कुछ देखने वाले कहाँ थे!...ओठों की हलचल भी कम होती जा रही थी।

थोड़ी देर में ही रुक्मिणी, सत्यभामा, बालक वज्र और असंख्य नगरवासी उस भवन में जमा हो गए। मनुष्य के अस्तित्व की निशानी श्वासोछ्वास के सिवा वहाँ और कोई आवाज नहीं थी—गहन-गंभीर निस्तब्धता! सबकी आँखें वसुदेव पर लगी थीं।

अचानक उनके ओठों का हिलना थम गया। विशाल खंड तथा बाहर एकत्र बेहिसाब भीड़ ने ओंकार की एक गहन गूँज सुनी। यह ध्वनि कहाँ से उठी? सब लोग इधर-उधर देखने लगे—एक-दूसरे की तरफ! किसीकी कुछ समझ में आए, इससे पहले फिर एक बार ओंकार गूँज उठा!...अब सबकी आँखें वसुदेव पर टिकी थीं। एक नहीं, अचानक मानो असंख्य ओंकारों का निनाद हो उठा। सब आश्चर्यचकित और अभिभूत हो गए! वसुदेव के रोम-रोम से ओंकार का धीर-गंभीर स्वर फूट रहा था। एक सुर के बदले सहस्रों सुर एक साथ वातावरण में लहरा रहे थे।

और फिर अचानक ही सब रुक गया। ओंकार के स्वर धीरे-धीरे डूबते-उतराते शांत हो गए। वसुदेव का सीधा तना शरीर देवकी के कंधों पर लुढ़क गया। सब मूक-से थे। सबके कंठ से निष्प्रयास ओंकार का गंभीर समूह-स्वर फूटा; जैसे आवाज हवा में तैर रही हो।

मंत्राविष्ट पुरजनों के बीच सर्वप्रथम अर्जुन ही स्वस्थ हुआ। कंधे पर लुढ़की पति की निश्चेष्ट देह से बिलकुल बेखबर माता देवकी जड़वत् थीं। अर्जुन ही पास आया। हाथ भी काँप रहे थे। ओठों पर भी कुछ था कि थरथरा रहा था। लेकिन जो करना था, उससे निस्तार कहाँ था! पास आकर पिता वसुदेव के शरीर को उसने धरती पर लिटाया।

अब तक तो सब तरफ लोग-ही-लोग थे—नगरवासी महल, उद्यान, राजमार्ग सबमें पट गए थे। अर्जुन ने इस समूह को देखा—शून्य ही तो नजर आया! लेकिन लोग थे बहुत सारे, पर पिता वसुदेव को कंधा देकर श्मशान तक ले जाने के लिए चार यादव कहीं नहीं दीखे। समस्त वृष्णिवंश नष्ट जो हो गया था! कृष्ण और बलराम जैसे विराट् पुत्रों के पिता का अग्नि-संस्कार करने के लिए उनके कुल का कोई नहीं बचा था! बचा था, एकमात्र बालक वज्र! अनिरुद्ध के इस नन्हे किशोर पुत्र को संग लेकर अर्जुन पिता वसुदेव की अंतिम यात्रा की तैयारी करने लगा।

सूर्य की कोमल किरणों ने इधर धरती को पूरी तरह चूमा और उधर उनकी ही साक्षी में अग्नि ने वसुदेव का पार्थिव देह पंचमहाभूतों में विलीन कर दिया। इन्हीं पंचभूतों में पति के साथ माता देवकी ने भी स्वयं को विलीन कर लिया। लग रहा था, मानो हवा को भी सुध नहीं कि लोगों की आँखें पोंछे। वह भी सहमी-सी, ठिठकी-सी खड़ी थी। और सूर्य-किरणें मानो चिता के उत्ताप से बचने के लिए आगे-आगे दौड़ी जा रही थीं। अर्जुन ने सबकुछ किया। सब ओर ध्यान दिया। बस, अर्जुन ही तो था। सबकुछ निबट गया तो अर्जुन ने दारुक को बुलाया—‘‘दारुक! राज्यपरंपरा खंडित नहीं होनी चाहिए न! इसलिए द्वारका के राज्यसिंहासन पर यादव कुल के एकमात्र शेष वंशज...’’

‘‘क्षमा करें, कौंतेय!’’ दारुक ने बीच में ही टोका, ‘‘पिता वसुदेव की इच्छा थी कि द्वारका का शासन आप ही सँभालें। कृष्ण की आज्ञानुसार जब मैं हस्तिनापुर के लिए चला, तब स्वयं महाराज वसुदेव ने ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी...’’

‘‘हाँ, अर्जुन!’’ रुक्मिणी और सत्यभामा दोनों रानियों ने दारुक का अनुमोदन किया, ‘‘वज्र अभी बालक है।’’

‘‘देवी, मुझे क्षमा करें,’’ अर्जुन ने स्पष्ट इनकार किया, ‘‘कृष्णविहीन इस द्वारका में मैं एक-एक क्षण कैसे काट रहा हूँ, मैं क्या बताऊँ!...मेरे लिए यह असंभव है, देवी! मुझे...मैं क्षमा चाहता हूँ—आज्ञा दीजिए! प्रभासक्षेत्र में अंत्येष्टि के अभाव में बिखरे पड़े यादव वीरों की पार्थिव देहों को अर्घ्य देने में अब मैं और विलंब नहीं कर सकता! वहाँ भी तो मुझे ही...’’

‘‘यदि ऐसी ही बात है तो, भाई,’’ रुक्मिणी ने कहा, ‘‘कृष्णविहीन इस प्रेतनगरी जैसी द्वारका में रहना हमारे लिए भी तो असंभव ही है...हम किसे कहें, अर्जुन?हमें भी अपने साथ ही हस्तिनापुर ले चलो, अर्जुन!’’

‘‘सच, इस नगरी से, इस धरती से अपना संबंध अब पूरा हुआ! सारे संबंध जिस प्रकार नियति के अधीन, सीमाओं में बँधे होते हैं, उसी प्रकार इस धरती के साथ हमारा लेन-देन भी समाप्ति की रेखा छू रहा है...’’ दुखी सत्यभामा बोल पड़ी।

‘‘दारुक!’’ अर्जुन ने सम्मति दी, ‘‘माता रुक्मिणी और सत्यभामा की इच्छा ही यदि पुरजनों की इच्छा हो, तो आप सब शीघ्र तैयारी करें। नगर के वृद्धों से ठीक से पूछकर उनकी अनुमति भी ले लें। आज से सातवें दिन हम सब हस्तिनापुर की ओर प्रयाण करेंगे।’’

सातवें दिन?—सात दिन क्यों? दारुक की समझ में नहीं आया—अर्जुन ने सात दिन की अवधि क्यों रखी?‘‘अब तो एक-एक क्षण असह्य लगता है, पार्थ!जितना शीघ्र हो सके, इस नगरी को छोड़ दें हम...’’

‘‘भूल गए, दारुक?’’ अर्जुन ने उसे याद दिलाया, ‘‘अभी प्रभासक्षेत्र की धरती पर कृष्ण को खोजना बाकी है। कृष्ण का परमतत्त्व मुक्त हुआ, पर उनकी मानुषी देह हमारे अर्घ्यदान बिना कैसे सार्थक होगी?...हम आज ही यहाँ से चलेंगे, दारुक! तीसरा प्रहर समाप्त होते-होते तुम नगरजनों और वृद्धों से आगे के लिए उनकी इच्छा जान लो। चौथे प्रहर हम चलेंगे प्रभासक्षेत्र की दिशा में—’’

दारुक ने देखा तो देखता ही रहा—अर्जुन सबकी सोच सकता था!

‘‘जैसी आज्ञा, तात!’’ कहते हुए वह खड़ा हो गया।

एक प्रहर बाद सूर्य-किरणें जब तिरछी होकर रैवतक पर्वत की छाया को धरती पर फैला रही थीं, अर्जुन का रथ प्रभासक्षेत्र की दिशा में आगे बढ़ रहा था। अर्जुन एक अज्ञात की खोज में जा रहा था और द्वारकावासी हस्तिनापुर-यात्रा की तैयारी में लगे थे।

पाँच

भव्यता विस्तार और कद के अधीन नहीं होती, इसका साक्षात् उदाहरण था वह शिवमंदिर! शिव-चरणों का प्रक्षालन करने के लिए ज्वार के समय समुद्र की लहरें मंदिर के प्रांगण तक मानो दौड़ी आती थीं। प्रभासक्षेत्र यहाँ से अब दो-तीन योजन ही रह गया था।

मंदिर की ध्वजा दीखते ही दारुक ने रथ रोक दिया।

‘‘गुडाकेश!’’ उसने मुड़कर अर्जुन को सावधान किया, ‘‘अब यहाँ से भगवान् पिनाकिन के कैवल्यधाम की सीमा आरंभ होती है। यहाँ अश्वों को छोड़ न दें?’’

रैवतक की चोटी जब से दृष्टि-ओझल हुई, अर्जुन एक शब्द भी नहीं बोला था। दो-तीन बार दारुक ने प्रयत्न जरूर किया कि उसकी मौन-समाधि टूटे, किंतु वहाँ से कोई आवाज नहीं उठी—उसकी आँखें तो क्षितिज को छूती हुई चारों दिशाओं को नाप रही थीं—क्या वहाँ कुछ है? कृष्ण के बारे में कोई तो संकेत मिल जाए...कहीं ऐसा कोई चिह्न, जो कृष्ण के पास पहुँचा दे—कुछ तो हो, जिससे वह कह सके—वसुदेव-देवकी-सत्यभामा के संदेश! कितनी बातें दूसरों की कहनी हैं, लेकिन अपनी?...वह फिर कहीं खो गया—कृष्ण कदाचित् मिल जाएँ तो उनसे कहने के लिए स्वयं उसके पास क्या है?...कृष्ण शायद पूछें भी—‘अर्जुन, दूसरों के संदेश तो तू ले आया, किंतु तेरा क्या? तुझे कुछ नहीं कहना?’

कृष्ण के इस संभावित प्रश्न का वह क्या उत्तर देगा? क्या उसे कुछ नहीं कहना?...लेकिन उसे तो बहुत कुछ कहना था। कितनी-कितनी बातें थीं कृष्ण के लिए; किंतु आज कुछ याद क्यों नहीं आ रहा? कोई भी तो ऐसी बात नहीं, जो उसने पहले कृष्ण से कह न रखी हो।

कृष्ण का कोई पदचिह्न?...कोई निशानी?...उसकी आँखों की पकड़ में कुछ भी तो नहीं आ रहा था, या फिर धूल में उभर रहे प्रत्येक पदचिह्न में उसे कृष्ण ही दीख रहे थे। वृक्षों के पत्तों को सहलाकर बहती हवा में एक सुर थरथरा रहा था—अर्जुन को लग रहा था, यह कृष्ण की बाँसुरी का ही तो सुर है—काँपता हुआ-सा—तो कृष्ण कहाँ हैं?...

किंतु अब रथ को आगे ले जाना ठीक नहीं। भगवान् पिनाकिन के धाम में तो पैदल ही जाना चाहिए। अर्जुन रथ से नीचे उतरा।

‘‘पृथापुत्र!’’ दारुक ने शिव-मंदिर के प्रांगण में, समुद्र-तट से कुछ ऊँचे स्थान की ओर अँगुली से निर्देश करते हुए कहा—‘‘यह वही स्थान है, जहाँ से दाऊ हलधर की आत्मा शेषनाग का स्वरूप धारण कर प्रकट हुई थी और क्षितिज के उस कोने से समुद्र में विलीन हो गई थी।’’

स्तब्ध खड़ा रह गया अर्जुन! कंधे से गांडीव खिसका या उसने उतारकर नीचे लिया, पता नहीं; पर उसने उस स्थान की मर्यादा का आदर किया, सिर झुका। दाऊ ने जहाँ समाधिस्थ होकर पार्थिव देह का त्याग किया था, वहाँ उनकी भस्मी और उनके अस्थिफूल अभी भी ज्यों-के-त्यों पड़े थे।

‘‘दारुक! यह भस्म और ये अस्थिफूल...?’’ अर्जुन ने दारुक से पूछा।

‘‘कृष्ण ने यहीं दाऊ बलराम के पंचमहाभूतों को बिदा किया था। ये अवशेष अभी अर्घ्यदान से वंचित हैं, पांडव!’’ दारुक ने कहा।

समग्र आर्यावर्त्त में जिसकी बराबरी का कोई नहीं था, वैसे प्रचंड समर्थ महावीर बलराम के पार्थिव अवशेषों को अर्घ्य देनेवाला भी अब कोई नहीं। जल की एकाध अंजलि द्वारा इस भस्म और अस्थि का तर्पण करनेवाला कोई पुत्र या कोई वंशज बचा ही नहीं!...

अर्जुन धीरे-धीरे समुद्र किनारे तक गया। लहरों ने धीरे-धीरे उसके घुटने छुए। राजचिह्न, गांडीव इत्यादि किनारे दारुक के पास थे। सब उसे सौंपकर अर्जुन ने समुद्र में स्नान किया। भीगी देह से, पश्चिमाभिमुख होकर, उसने संध्या की, और फिर दाऊ हलधर के पार्थिव अवशेषों पर जलांजलि दी। भस्म और अस्थिफूलों पर शीतल जलधार बही, और वे सब बहे। बस, अब बलराम स्मृति मात्र रह गए।

‘‘दारुक!’’ अर्जुन ने संध्या-अर्घ्य-अंजलि के पश्चात् कहा, ‘‘भाई, रात को यहीं रह जाएँ तो? यह शिव-मंदिर...कुछ अजीब से भाव उठते हैं मन में। एक आंतरिक शांति देनेवाला स्थान है। प्रातःकाल हम पुण्यसलिला हिरण और कपिला के तट पर अपनी यात्रा आरंभ करेंगे, कदाचित् कहीं कृष्ण का कोई संकेत मिल भी जाए।’’

दारुक को अर्जुन की बात जँची।

शिव-मंदिर के पुजारी ने बस अभी ही आरती समाप्त की होगी, ऐसा लग रहा था। मंदिर के गर्भद्वार से ताजा फूलों और धूप की सुगंध उठ रही थी। भगवान् शिव की पूजा-अर्चना के पश्चात् दारुक के बिछाए आसन पर अर्जुन लेट गया।

‘‘दारुक!’’ कुछ देर बाद अर्जुन ने पूछा, ‘‘एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही। द्वारका नगरी में तो कृष्ण और स्वयं बलराम ने भी मदिरापान को निषिद्ध माना था!यादव सुरापान न करें, इसके लिए कृष्ण कृतनिश्चयी थे। फिर यहाँ यह सब क्यों हो गया, भाई?’’

दारुक ने गहरी साँस लेते हुए आकाश की ओर देखा, जहाँ नक्षत्र-पुंज टिमटिमा रहे थे।

‘‘शासन के नियमों से सामाजिक स्वास्थ्य की रक्षा नहीं हो सकती। कृष्ण ने द्वारका के नगरवासियों को—तमाम यादवों को मदिरापान से अलिप्त रहने की शासकीय आज्ञा तो की थी, किंतु यादवों ने इस नियम को आंतरिक अनुशासन के रूप में स्वीकार नहीं किया था। छोटे-बड़े सारे यादव चोरी-छुपे सुरापान करते रहे थे। कृष्ण-बलराम के प्रति गहरे आदर के बाद भी, सुरापान के प्रश्न को लेकर एक प्रकार की दूरी, कुछ मतभेद-सा खड़ा हो गया था। कृष्ण ने यह सब देखा-समझा था। कदाचित् उन्होंने सोचा, अनुशासन की मर्यादा में सबको जबर्दस्ती बाँधने की अपेक्षा, द्वारका के बाहर किसी उत्सव के निमित्त सबको थोड़े मुक्त-विहार की सुविधा मिले तो..., तो नियम को आत्मानुशासन में बदलना सरल हो जाए शायद...’’

अर्जुन को दारुक की बात में सार लगा। यादव, अरे स्वयं बलराम भी सुराप्रिय थे! मदिरा का कृष्ण ने जैसा विरोध किया, वह यादवों को रुचनेवाला नहीं था। कृष्ण का आदर और मदिरा की खातिर उनसे बचना, ऐसी स्थिति बनती थी...मदिरा तो आखिर मदिरा ही थी!

‘‘कौंतेय!’’ दारुक ने आगे कहा, ‘‘सात्यकि ने जब सर्वप्रथम कृतवर्मा पर प्रहार किया, तब सारे यादव मदिरा के नशे में धुत थे। एकमात्र कृष्ण स्वस्थ रहे—सब देखते रहे। कृतवर्मा की मृत्यु के पश्चात् सात्यकि ने जूठे बरतनों से यादवों पर प्रहार किया। महाभारत के महायुद्ध में जो वीर महारथी शस्त्रों के सारे वार झेल चुके थे, वे वीर ही यहाँ कुत्ते-बिल्ली की भाँति एक-दूसरे को दाँतों से काट-काटकर मरे!’’

‘‘और...और कृष्ण यह देखते रहे, दारुक?’’ अर्जुन ने पूछा।

‘‘यादवों की ऐसी दुर्दशा कृष्ण ने तो कदाचित् पहले ही देख ली होगी, धनंजय!यहाँ प्रभासक्षेत्र में जब सब यादव एकत्रित हुए तब कुछ सोचकर ही तो कृष्ण ने उद्धव को अपने साथ नहीं रखा। उन्होंने उद्धव से कहा, ‘‘उद्धव! बंधु! तुम तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ो! अब तुम्हारे लिए यहाँ कुछ नहीं!’’

‘‘कृष्ण आर्षद्रष्टा थे!’’ अर्जुन धीरे से बोल उठा। उसे तो याद था कुरुक्षेत्र का मैदान, वह विराट् विश्वरूप-दर्शन! अठारह अक्षौहिणी सेना को सूर्य, चंद्र, नभोमंडल—यहाँ तक कि समस्त ब्रह्मांड को इस विराट् में विलीन होते देखकर अभिभूत अर्जुन से स्वयं कृष्ण ने कहा था—यह समस्त संहार तो निश्चित है, पार्थ! मैं स्वयं इसका काल हूँ! तू तो निमित्त मात्र है! तू निमित्त न भी बने तब भी इन सबका विनाश पूर्व निर्धारित है!...

‘‘और इस तरह जब प्रद्युम्न भी मारा गया...’’ दारुक को वह दारुण घड़ी याद आई—रात्रि का अँधेरा गहरा गया था। दूर-दूर के जंगलों से सियारों के रोने की आवाज आ रही थी। आकाश में अचानक कोई तारा टूटता और एक किरण शलाका-सी आकाश को चीर जाती।

‘‘तब क्या हुआ, दारुक?कृष्ण क्या प्रद्युम्न का अपने ही आत्मजनों द्वारा मारा जाना उसी भाव से देखते रहे? मूक प्रेक्षक बनकर?’’ अर्जुन से पूछे बिना रहा न गया।

‘‘न!...नहीं, धनंजय, अब तक इस निरर्थक संहार को निर्निमेष नेत्रों से देखनेवाले कृष्ण ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया और भूमि पर उगी एरक घास मुट्ठी में भरकर नोच ली। फिर उन एरक-तृणों को झगड़ते यादवों पर फेंका। ये मुट्ठी-भर तृण एकाएक मूसल बन गए और युद्धोन्मत्त यादवों पर बरस पड़े। यह अचानक हमला ही तो था! वे संतुलन खो चुके थे, और ऐसे में वह सांघातिक मार—यादव एरकों की मार से धराशायी हो गए।’’ दारुक ने आँखें देखी संहार-लीला का वर्णन सुनाया।

राजसूय यज्ञ के समय इंद्रप्रस्थ में सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का शिरच्छेद करनेवाले कृष्ण की मूर्ति अर्जुन के सामने खड़ी हो गई! और फिर वे कृष्ण...महाभारत के नवें दिन, जब वह स्वयं भीष्म के विरुद्ध तुमुल युद्ध नहीं कर पा रहा था, महारुद्र के अवतार समान पितामह सबकुछ छिन्न-भिन्न किए दे रहे थे, तब भी तो एक कृष्ण दिखाई दिए थे—रथ का चक्का उठाकर पितामह पर दौड़ते कृष्ण, स्वयं को वासुदेव कहलानेवाले पौंड्रक को अकेले ही मारकर, उसकी अस्थियों से महाशक्तिशाली शंख—पौंड्र के सर्जक कृष्ण...वे कृष्ण जब संहार की तीव्र भावना से अकुलाकर स्वजनों पर एरक-तृण फेंक रहे होंगे तब कैसे लगते होंगे—इसकी कल्पना से ही अर्जुन काँप उठा।

कदाचित्, कदाचित् जैसाकि कृष्ण कहते थे, देहधारी कृष्ण का यही निर्धारित पथ होगा...उस विराट् रूपदर्शन में कहीं-न-कहीं एरक-तृणों की मुट्ठी यादवों पर फेंक-फेंककर इस संहार को पूर्णता तक पहुँचानेवाले कृष्ण भी तो समाए होंगे।

अर्जुन ने आँखें बंद कर लीं। खुली आँखों के सामने जो सृष्टि दीखती थी, उसे सह पाना उसके लिए कठिनतर होता जा रहा था।

जब आँख खुली, प्रातः समीर प्रकृति को हौले-हौले सहलाकर जगा रहा था। ब्रह्मस्मरण और स्नानादि निबटाकर अर्जुन ने शिव-मंदिर के प्रांगण में ही प्रातःसंध्या की और यज्ञवेदी में आहुति डाली। दारुक ने अश्वों की पीठ थपथपाई। सूर्य की प्रथम किरण ने ज्यों ही समुद्र-क्षितिज से बाहर पाँव रखा, रथ हिरण और कपिला नदी के तट पर कृष्ण की खोज में निकल पड़ा।

पगडंडी के दोनों ओर अछोर विस्तार था। अर्जुन की आँखें उसे समेटने में लगी थीं। पूरा प्रदेश रमणीय था। ऐसी रमणीयता, ऐसी फैलती सुगंध कि मदिरा के बिना ही मदहोश हो जाए कोई। सुबह-सवेरे गोधन को गोचर की दिशा में ले जाते कुछ गोपाल भी अब दृष्टिगोचर हो रहे थे। कहीं-कहीं पनिहारिनों के वृंद नजर आए। किसी मंदिर के गर्भद्वार से आरती या घडि़याल का घंटानाद वातावरण में गूँज रहा था। कहीं बड़ी गहराई से उठी प्रार्थना की पुकार तैर रही थी; मानो सृष्टि के उस छोर से इस छोर को बाँधने का प्रयत्न किया जा रहा हो।

‘‘राजपुत्र!’’ दारुक ने सुबह की नीरवता भंग करते हुए कहा, ‘‘यहाँ से दो रास्ते हैं—दाहिना मार्ग हिरण-कपिला के संगम पर जाता है। सुना है कि इस संगम स्थान पर लुप्त होकर सरस्वती पाताल में बहती है। बाईं तरफ का मार्ग प्राचीना पवित्र तीर्थ का है। जब यादवों का संपूर्ण नाश हो गया तब प्राची के उस पवित्र पीपल के वृक्ष के पास बैठकर कृष्ण ने अर्घ्यदान दिया था।’’

दूर से नजर आते हुए उस पीपल के वृक्ष को अर्जुन शून्य नयनों से देखता रहा। फिर एक बार कृष्ण, आँखों के सामने अठारह अक्षौहिणी सेना के बीच उसके रथ की लगाम पकड़कर खड़े कृष्ण—तब कृष्ण ने ही तो कहा था, ‘अर्जुन! वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ।’

और यहाँ स्वयं अश्वत्थ...

अश्वत्थ वृक्ष के आसपास ही कहीं कृष्ण का संकेत मिलना संभव है।

‘‘रथ को यहीं रोक दो, दारुक!’’ अर्जुन ने आदेश दिया, ‘‘हिरण-कपिला के संगम पर, किसी अश्वत्थ वृक्ष ने कदाचित् कृष्ण को कहीं सहेजा हो।’’

दारुक ने लगाम खींची, रथ रुक गया। अर्जुन नीचे उतरा।

दिन का पूर्ण प्रकाश फैल चुका था।

अचानक अर्जुन की आँखें सजग हो गईं। जमीन पर कहीं-कहीं अस्थियाँ पड़ी थीं। मांस के लोथड़े बिखरे थे। उसकी नजर तेजी से दौड़ रही थी—और चारों ओर बिखरे क्रूर विनाश को देख रही थी।

‘‘दारुक...’’ अर्जुन बोल न सका।

‘‘हाँ, कौंतेय!’’ दारुक ने निरपेक्ष भाव से जवाब दिया, ‘‘इन्हीं में कहीं सात्यकि, कृतवर्मा, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध—ये सब भी होंगे। इन्हीं में कहीं...ये अधखाए हुए, पशु-पक्षियों द्वारा चूँथे हुए...ये अंग उन्हीं वीरों के हैं, पार्थ, जिन्होंने आर्यावर्त्त के इतिहास को एक नए मोड़ तक पहुँचाया...’’

अर्जुन ने आँखें झुका लीं। सामने जो था, उसे वह देख न सका। दारुक जो कह रहा था, उसमें वह बोले भी तो क्या! मार्ग में जगह-जगह बिखरे, छिन्न-भिन्न अंगों को लाँघते हुए कैसी तो जुगुप्सा जागी...अर्जुन किसी तरह आगे बढ़ा।

‘‘रुकिए...! रुकिए...!!’’ मार्ग के किनारे की अत्यंत घनी झाड़ी में से अचानक एक आवाज उभरी, और सहज प्रक्रिया में अर्जुन का हाथ अनायास गांडीव पर भिंच गया। और फिर जैसे कुछ चेत कर उसने अपना हाथ तुरंत ही वापस खींच भी लिया। दारुक खड़ा ही रह गया। झाड़-झंखाड़-लताओं को दोनों हाथों से हटाता एक आदमी दौड़ता हुआ मार्ग के मध्य में आ खड़ा हुआ। उसके सिर के बाल पक्षी के घोंसले की भाँति रूखे और उलझे हुए थे। कमर के नीचे एक फटा-फुराना वस्त्र लिपटा था—बाकी सारे अंग खुले थे। आँखें गहरे विषाद में डूबीं, पर अतिरिक्त भय से चौड़ी और विस्फारित हुई जा रही थीं। विक्षिप्त-सा लग रहा था वह।

‘‘आप...आप...आप ही अर्जुन हैं न?’’ उसने झपटकर पूछा।

अर्जुन तो उसे देखता ही रहा। फिर अचानक रथ से नीचे उतर पड़ा। ‘‘हाँ, भाई, मेरा ही नाम अर्जुन है। किंतु तुम...तुम कौन हो? और मुझे जानते कैसे हो?...मुझसे क्या काम है तुम्हें? लगता है जैसे मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे हो यहाँ?’’ अर्जुन इतने सवाल क्यों पूछे जा रहा था, पता नहीं। कोई भीतर की आकुलता थी।

वह आदमी अर्जुन के चरणों में सीधा गिर ही तो पड़ा, और फिर एक करुण रुदन उभरते-उभरते जोर की चीख में बदल गया।

‘‘मेरा नाम जरा है। मैंने...मैंने...हाँ, अर्जुन, मैंने कृष्ण की हत्या की है! मैंने...कृष्ण की हत्या की है...मैंने...!’’

‘‘क्या कहा? तूने...तूने, कृष्ण की...’’ ‘हत्या’ शब्द अर्जुन के ओठों से बाहर न निकला। उसके ओठ जकड़ गए। आँखें लाल हो गईं। गांडीव पर उसकी मुट्ठी कस गई। जैसे कुछ था, जो भीतर उबल रहा था और अर्जुन उसे सँभाल नहीं पा रहा था। पाँवों में पड़े उस मनुष्य के रूखे बालों को पकड़कर उसने उसे इतनी जोर से ऊपर खींचा...

छः

दारुक आपादमस्तक काँप उठा।

अर्जुन का शरीर ताँबे की तरह तप गया। तपता गया। उसके अंग इस तरह काँप रहे थे मानो कोई भीतरी तूफान वह दबा रहा हो। आँखें धधकते अंगारे उगल रही थीं। समस्त आर्यावर्त्त, सारे रथी-महारथी ही नहीं, सारथि भी अर्जुन की ऐसी स्थिति का परिणाम पहचानते थे। जब भी ऐसा हुआ, विनाश ही हुआ। दारुक ने भी समझ लिया कि जरा के जीवन की घडि़याँ पूरी हुईं, और प्रतीति के इसी क्षण में दारुक के भीतर एक बोध भी कौंधा।

‘‘महाबलि!’’ वह अर्जुन के निकट आया। उससे यों सटकर खड़ा हो गया कि अर्जुन को तनिक भी हलचल करने के लिए पहले दारुक को हटाना पड़े, ‘‘अविनय के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, पार्थ! किंतु, किंतु पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण और किरात रूपधारी स्वयं शिव—इन सबको गांडीव की टंकार से ललकारनेवाले पांडुपुत्र ने, अपने शरणागत एक अनजान मनुष्य को कुत्ते की मौत मारा, यह घटना उन प्रतापी पूर्वजों को ही नहीं, आनेवाली अनेक पीढि़यों को लज्जित करेगी!’’

‘‘दारुक!’’ अर्जुन के बलिष्ठ हाथों में भींचा हुआ जरा का मस्तक कुछ मुक्त हुआ। जरा फिर उसके चरणों में गिर पड़ा। यह आदमी कह रहा था, उसने कृष्ण की हत्या की है!...कृष्ण की हत्या? कैसे हो सकती है?कंस, जरासंध, कालयवन, पौंड्र, शिशुपाल—अरे, कालियानाग और कुवलयापीड भी जो न कर सके, वही काम यह नीच कैसे कर सका?

‘‘भूल गए, धनंजय!’’ अर्जुन को कहीं डूबा देखकर दारुक ने सावधानी से जरा को कुछ दूर हटा दिया, ‘‘श्रीकृष्ण स्वयं यादव थे और यादव कुल का तो माता गांधारी ने छत्तीस वर्ष पहले ही हनन कर डाला था।’’

अर्जुन को याद आया—विश्वरूप दर्शन में स्वयं कृष्ण, देहधारी कृष्ण कहीं इस जरा के हाथों देहमुक्त होते दिखे होंगे। यह तो नियति का लेख है। जरा क्या कृष्ण को मारेगा! वह तो निमित्त है! नियति के इस निमित्त का नाश करना—ओह, कैसा घिनौना कार्य उसके हाथों हो जाता!

‘‘जरा!’’ अर्जुन की आवाज संयत हो चुकी थी। खुद पर उसने लगाम कस ली थी। कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, ‘‘जरा, अब तुम भयमुक्त हो, बंधु!कहो, तुम्हें क्या कहना है?’’

जरा ने मुँह उठाकर अर्जुन की ओर देखा। आँखों में झरते अंगारे अब तक बुझ गए थे। जमीन पर बैठे-बैठे ही उसने कहा, ‘‘राजन्! मैं अपराधी हूँ! शिकारी हूँ, अतः पशु-पक्षियों का शिकार करके गुजारा चलाता हूँ। प्रातःकाल के धुँधलके में इस पीपल वृक्ष के नीचे लेटे हुए कृष्ण को मैंने कोई...’’ इतना कहते हुए उसका गला रुँध गया। सिर झुक गया। उसने फिर जैसे भीतर से आवाज खींची, ‘‘कोई जंगली प्राणी सोया है, ऐसा समझकर मैंने दूर से बाण चलाया...’’

‘‘जरा...!’’ इस बार अर्जुन की चीख निकल गई। उसका सारा अस्तित्व जैसे डगमगा गया। उसने आँखें मूँद लीं। उसका रोआँ-रोआँ खड़ा हो गया। फिर आवाज में एक कर्कशता उभर आई थी, ‘‘क्या?...तूने कृष्ण को कोई जंगली प्राणी मानकर तीर चलाया?...और तेरा वह तीर, वह कृष्ण को लगा?’’

‘‘जी, महाराज!’’ जरा के पास एक सीधी स्वीकृति के अलावा रास्ता भी क्या था! ‘‘मैंने तीर चलाया, और महाराज, मेरा तीर कृष्ण के दाहिने पाँव के तलवे में जा धँसा। वह जानलेवा तीर...उसी क्षण, उसी क्षण...’’ जरा की आवाज फिर साथ छोड़ गई। एक खुले रुदन ने ही उसका साथ दिया।

वह क्षण, वह बात मानो उसकी आँखों में जम गई थी। अर्जुन और दारुक के कान जरा के शब्द कहाँ सुन रहे थे! वे जरा की आँखों में बर्फ की शिला-से जम गए उस दृश्य को अपनी आँखों देख-से रहे थे।

पीपल के वृक्ष से टिककर विश्राम करना चाहते थे कृष्ण। अभी दो प्रहर पहले ही तो समुद्र-तट पर बड़े भाई दाऊ बलराम ने ध्यानस्थ अवस्था में देह-त्याग किया था। वह सब आँखों के सामने नाच रहा था। दाऊ गए तो वृष्णिवंश के एकमात्र प्रतिनिधि वे स्वयं ही तो बचे! वैसे द्वारका में अतिवृद्ध पिता वसुदेव थे और बालक वज्र था; लेकिन

...................

  • दिनकर जोशी : गुजराती कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • गुजराती कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां