श्मशान (कहानी) : मन्नू भंडारी
Shamshan (Hindi Story) : Mannu Bhandari
रात के दस बजे होंगे। श्मशान के एक ओर डोम ने बेफिक्री से खाट बिछाते हुए कबीर के दोहे की ऊँची तान छेड़ दी, 'जेहि घट प्रेम न संचरै, सोई घट जान मसान!'
श्मशान का दिल भर आया। एक सर्द आह भरकर उसने पहलू में खड़ी पहाड़ी से कहा, 'मैं इंसान को जितना प्यार करता हूँ, उतनी ही घृणा उससे पाता हूँ। सभी मनुष्य यही चाहते हैं कि कभी उन्हें मेरा मुँह न देखना पडे। पर वास्तव में मैं इतना बरा नहीं हैं। संसार में जब मनुष्य को एक दिन के लिए भी स्थान नहीं रह जाता, तब मैं उसे अपनी गोद में स्थान देता हूँ। चाहे कोई अमीर हो या गरीब, वृद्ध हो या बालक, मैं सबको समान दृष्टि से देखता हूँ। पर इससे क्या होता है? मेरे पास वह प्रेम नहीं, जो मनुष्य की सबसे बड़ी निधि है। मेरे दिल में मुहब्बत का वह चिराग्स रोशन नहीं होता, जिसके बल पर मैं उसके दिल में अपने लिए थोड़ा-सा स्थान बना सकता। नहीं जानता खुदा ने मेरे साथ ऐसी बेइंसाफ़ी का सलूक क्यों किया?'
शहर और श्मशान के बीच खड़ी पहाड़ी मुस्करा दी। उसकी यह व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट श्मशान के हृदय में चुभ गई। उसने पूछा, 'क्या तुम्हारी कभी यह इच्छा नहीं होती कि तुम्हारे पास भी इंसान की तरह प्रेम-भरा दिल होता, जिसमें अपने प्रिय के लिए मर मिटने की तमन्ना मचलती रहती है। कभी-कभी दूर-दूर से हवाएँ आती हैं और लैला-मजनूँ और शीरी-फरहाद की प्रेम-कहानियाँ मुझे सुना जाती हैं तो सच मानना, मैं तड़पकर रह जाता हूँ कि काश! मैं भी मजनूँ होता और लैला के वियोग में अपने को कुर्बान कर देता। प्रिय की प्रतीक्षा में, राह में पलकों के पाँवड़े बिछाकर बैठा रहता। सावन की उठी घटाएँ मेरे मन में हूक उठातीं और बसंत की सुरमई साँझें मेरे मन में तड़प बनकर रह जातीं। प्रिय का जीवन ही मेरा जीवन होता और उसकी मौत मेरी मौत। पर क्या करूँ, ईश्वर ने तो मुझे श्मशान बनाया है, जिसके हृदय में प्रेम नहीं, स्निग्धता नहीं, सरसता नहीं, केवल धू-धू करती आग की लपटें हैं।'
एक आँख से श्मशान को और दूसरी आँख से शहर को और उसमें बसे इंसानों को देखने वाली पहाड़ी ने पूछा, 'बड़ी तमन्ना है इंसान बनने की?'
श्मशान ने कहा, 'तमन्ना! मनुष्य के पास जैसा प्रेममय हृदय है, उसे पाने के लिए मैं अपने जैसे सौ जीवन भी कुर्बान कर सकता हूँ।'
पहाड़ी मुस्करा दी।
इतने में ही किसी के करुण क्रंदन ने श्मशान के शुष्क हृदय को दहला दिया। एक छोटी-सी भीड़ किसी शव को लिए चली आ रही थी। उसमें एक सुंदर नवयुवक फूटफूटकर रो रहा था, मानो किसी ने उसका सर्वस्व लूट लिया हो। लाश उतारी गई। वह उस नवयुवक की पत्नी थी। युवक का क्रंदन श्मशान के हृदय को बेध गया।
सारा क्रिया-कर्म समाप्त कर जैसे-तैसे उस युवक को सँभालकर वे लोग ले गए और श्मशान सोचता रहा, कितना प्यार करता होगा यह अपनी पत्नी को। काश, मैं भी किसी को इतना प्यार कर सकता।
दूसरे दिन साँझ के धुंधले प्रकाश में श्मशान ने देखा, वही युवक आ रहा है। उसके कल और आज के चेहरे में ज़मीन-आसमान का अंतर था। एक रात में ही जैसे वह बूढ़ा हो गया था। आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। वह पागलों की तरह लड़खड़ाता हुआ आया और अपनी पत्नी की राख बटोरने लगा। कुछ देर तक हिचकियाँ लेता रहा और उसकी आँखों से निरंतर अश्रु बहते रहे। फिर जैसे भावनाओं का बाँध टूट गया, वह सिर फोड़फोड़कर रोने लगा और चीखने लगा-'तुम मुझे छोड़कर कहाँ चली गई सुकेशी? याद है, कितनी बार तुमने कसमें खाई थीं कि जिंदगी-भर तुम मेरा साथ दोगी पर दो वर्षों में ही तुम तो मुझे अकेला छोड़कर चली गईं। अब मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता। तुम मुझे अपने पास बुला लो, नहीं तो मुझे ही तुम्हारे पास आने का कोई उपाय करना पड़ेगा। तुम नहीं तो मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं, कोई सार नहीं, कोई रस नहीं। तुम्हीं तो मेरा जीवन थीं, मेरी प्रेरणा थीं। अब मैं जीवित रहकर करूँगा ही क्या? मुझे अपने पास बुला लो, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, नहीं रह सकता, किसी तरह भी नहीं रह सकता। इसी प्रकार वह विलाप करके रोता रहा, सिर फोड़ता रहा और मूक श्मशान अपनी सूखी, पथराई आँखों से इस दृश्य को देखता रहा। इंसान बनने की, प्रेम करने की और अपने प्रिय के वियोग में इस नवयुवक की भाँति मर-मिटने की तमन्ना और अधिक ज़ोर पकड़ती रही। वह यही सोचता रहा, काश! मैं भी किसी को इसी तरह दिलोजान से प्यार कर सकता!
उसके पहलू में खड़ी पहाड़ी मुस्कराती रही।
रो-धोकर वह व्यक्ति तो चला गया, पर श्मशान के हृदय को उसके आँसू गर्म सलाखों की तरह दग्ध करते रहे। उसने पहाड़ी से कहा, 'इस व्यक्ति की व्यथा ने मेरे हृदय को मथ डाला। यों तो यहाँ रोज़ ही ऐसे कितने ही व्यक्ति आते हैं, पर जाने क्यों, इसके दुख में, इसकी वेदना में ऐसा क्या था, जो मैं कभी नहीं भूल सकूँगा। तुम देखना, अब यह जीवित नहीं रहेगा। एक दिन में ही अपनी प्रेयसी के वियोग में जिसने अपने शरीर को आधा बना डाला हो, वह भला कितने दिन इस प्रकार जीवित रह सकेगा? वह अवश्य ही रो-रोकर प्राण दे देगा, और मैं भी चाहता हूँ कि वह मेरी गोद में आ जाए और मैं दोनों को हमेशा के लिए मिला दूँ!'
सारे दिन वह युवक के शव की प्रतीक्षा करता रहा, पर शव न आया। हाँ, आसमान में जब साँझ का धुंधलका छाने लगा तो वह युवक आया और वैसे ही पागलों की तरह प्रलाप करता रहा। तीनचार दिन तक यह क्रम बना रहा फिर युवक का आना भी बंद हो गया। पर श्मशान उसे न भूल सका। प्रत्येक शव को वह जाने किस उत्सुकता से देखता, और फिर कुछ खिन्न हो जाता।
एक दिन उसने पहाड़ी से पूछा, 'तुम्हें तो शहर का कोना-कोना दिखाई देता है, बता सकती हो, उस युवक का क्या हाल है?'
पहाड़ी ने मुस्कराते हुए कहा, 'नहीं।'
श्मशान ने कहा, 'मेरा अंत:करण रह-रहकर कह रहा है कि अवश्य ही उसने आत्महत्या कर ली होगी। वह शायद नदी में डूब गया होगा, या किसी ऐसे ही उपाय से उसने अपना अंत कर लिया होगा कि मैं उसकी लाश को भी नहीं पा सका। मेरी कितनी तमन्ना थी कि मैं उसे उसकी प्रिया के पास पहुँचा देता।'
पहाड़ी ने पूछा, 'तुम्हें विश्वास है कि वह मर गया होगा?'
श्मशान खीझ उठा, 'तुम तो बिल्कुल ही पत्थर हो। जिसके हृदय को प्रेम की पीर ने बेध दिया हो, वह कभी जीवित नहीं रह सकता।'
पहाड़ी केवल मुस्करा दी।
दिन आए और चले गए। अपने आँचल में इंसानों को अपने प्रेमियों के वियोग में आँसू बहाते देख श्मशान का मन इंसान के प्रति और अधिक श्रद्धालु होता गया और यह एक क्रम-सा हो गया कि श्मशान इंसान के अलौकिक गुण गाया करता और पहाड़ी मुस्कराया करती।
इसी प्रकार तीन वर्ष बीत गए। तीन वर्ष की लंबी अवधि भी श्मशान के मन से उस सुंदर युवक की व्यथा को न पोंछ सकी। वह अक्सर उसकी बात करता। उसके उन आँसुओं की बात करता, जो उसने अपनी प्रेयसी के वियोग में बहाए थे। उसके उस अनुपम प्रेम की बात करता, जिसने उसे अवश्य ही आत्महत्या के लिए बाध्य कर दिया होगा। उसके उस करुण विलाप की बात करता, जो आज भी उसके हृदय को मथे डाल रहा था।
तभी एक दिन फिर उसका हृदय किसी परिचित स्वर की करुण चीत्कारों से दहल उठा। उसने देखा, वही सुंदर युवक एक छोटी-सी भीड़ के साथ किसी शव को लिए आ रहा है। श्मशान ने सोचा, वह अभी जीवित है। अब इस अभागे पर ईश्वर ने कौनसा दुख डाला है।
पर वहाँ पर जो बातचीत हो रही थी, उससे यह समझने में देर न लगी कि यह भी उसकी पत्नी ही थी। सब लोग कह रहे थे, 'इसके भाग्य में पत्नी का सुख ही नहीं लिखा है। वर्ना पाँच ही वर्ष में यों दो-दो पत्नियाँ न छोड़ जातीं। अभी बेचारे की उम्र ही क्या है...'
आज भी युवक का क्रंदन अत्यंत करुण था, आज भी उसकी चीत्कारें हृदय को दहला देनेवाली थीं, आज भी उसके आँसू गर्म सलाखों की भाँति हृदय को दहला देने वाले थे। उसके पहले दिन के रूप में और आज के रूप में कोई विशेष अंतर नहीं था। जैसे-तैसे धीरज बँधाकर और पकड़कर लोग उसे ले गए।
श्मशान के मन में वर्षों से मनुष्य के अलौकिक प्रेम की जो धारणा जमी हुई थी, उसको पहली बार हलका-सा धक्का लगा। संध्या समय वह युवक फिर आया और अपनी पत्नी की राख में लोट-लोटकर विलाप करने लगा. 'मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि तुम मुझे इस प्रकार छोड़कर चली जाओगी। यदि मुझे इसी तरह मझधार में छोड़कर जाना था, तो मेरा साथ ही क्यों दिया? अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जीवित रहूँगा? तुमने अपनी मधुर मुस्कानों से एक दिन में ही मेरे मन से सुकेशी की व्यथा पोंछ दी थी। मैं मन-प्राण से तुम्हारा हो गया। तुम ही तो मेरा प्राण थीं। अब यह निष्प्राण देह कैसे जीवित रहेगी? कितने दिन जीवित रहेगी? मुझे अपने पास बुला लो, अब मैं इस संसार में नहीं रह सकूँगा। सुकेशी तो मेरी अनुगामिनी थी इसीलिए मुझे उसका अभाव नहीं खटका, पर तुम तो मेरी सहगामिनी थीं, हम तो दो शरीर एक प्राण थे। जब प्राण ही चले गए तो शरीर का क्या प्रयोजन!'
इसी तरह वह रोज़ आता, घंटों विलाप करता और चला जाता। उसके आँसुओं में कुछ ऐसी शक्ति थी, उसके विलाप में कुछ ऐसी सच्चाई थी कि श्मशान के मन में पहले जो एक हल्की -सी संदेह की रेखा उभर आई थी, वह भी मिट गई।
एक बार फिर श्मशान उसके शव की प्रतीक्षा करने लगा, और अधिक दृढ़ विश्वास के साथ कि इस धक्के ने अवश्य ही उसके जीवन का अंत कर दिया होगा। श्मशान बराबर मन में यह साध सँजोए बैठा रहा कि कब वह उस युवक और उसकी पत्नी को अपनी गोद में सदा के लिए मिला दे। ऐसा मिलाप, जिसमें वियोग का भय न हो, बिछुड़ने की आशंका न हो। पर उसका शव न आया। उसके हृदय की लालसा, लालसा बनी रही।
फिर वही ढर्रा चल पड़ा। रोज़ ही न जाने कितने शव जलते, मनुष्य रोते, श्मशान मनुष्य के अलौकिक प्रेम के गुण गाता और पहाड़ी मुस्कराती। अंतर था तो केवल इतना कि श्मशान के स्वर में कुछ उतार आ गया था और पहाड़ी की मुस्कराहट में व्यंग्य कुछ अधिक स्पष्ट और प्रखर हो गया था।
दो वर्ष भी नहीं बीत पाए होंगे कि श्मशान के कानों में फिर वही परिचित स्वर सुनाई पड़ा और उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उसने देखा कि वह युवक इस बार अपनी तीसरी पत्नी के शव को जलाने आया है। उसने सोचा, शायद बिना प्रेम के ही उसने मजबूरी में विवाह कर लिया हो। पर उस युवक का विलाप सुना तो वह भ्रम भी जाता रहा। आज भी उसका क्रंदन उतना ही करुण था, आज भी उसकी चीत्कार हृदय को दहला देने वाली थी, आज भी उसके अश्रु गर्म सलाखें की भाँति दग्ध कर देने वाले थे। उसके पहले वाले रूप में और आज के रूप में कोई अंतर न था। उसकी बातें भी वही थीं, केवल इतना अंतर था कि आज उसे अपनी तीसरी पत्नी ही सबसे अधिक गुणी दिखाई दे रही थी। वह दावा कर रहा था कि तीसरी पत्नी से ही उसका सच्चा प्रेम था, पहली दो स्त्रियों का प्रेम बचपना था, नासमझी थी। पहली उसकी अनुगामिनी थी, दूसरी सहगामिनी तो तीसरी अग्रगामिनी थी, उसकी पथ-प्रदर्शिका थी, जिसके बिना वह एक कदम भी जीवित नहीं रह सकता। वही पुरानी बातें, वही विलाप, वही क्रंदन, मानो इसका भावना के साथ कोई संबंध ही न हो, कंठस्थ पाठ की तरह वह उसे दुहरा रहा हो।
मनुष्य के अलौकिक प्रेम की जिस भावना को श्मशान अपने हृदय में बड़े यत्न से सँजोए बैठा था, उसका वही हृदय इस दृश्य से पत्थर हो गया। वह अवाक्, विमूढ़-सा देखता रहा। उसकी दृष्टि पथराई हुई थी, उसमें एक प्रश्न साकार हो उठा था।
पहाड़ी ने उसकी यह हालत देखी तो तरस खाकर बोली, 'सचमुच तुम मूर्ख हो! इतना भी नहीं समझते कि जो इंसान प्रेम करता है, उसे जीवन भी कम प्यारा नहीं। वह प्रेम की स्मृति, कल्पना और आध्यात्मिक भावना पर ही जिंदा नहीं रहता। जीवन की पूर्णता के लिए वह फिर-फिर प्रेम करता है। जीवित रहने की ललक के चलते ही वह हर वियोग झेल लेता है...व्यथा सह लेता है, क्योंकि सबसे अधिक प्रेम तो मनुष्य अपने आपसे करता है।