सेर को सवा सेर (बाल-एकांकी) : बलराम अग्रवाल

Ser Ko Sava Ser (One-Act Play) : Balram Agarwal

पात्र

चायवाला

चौबे जी

अजनबी


(चाय की दुकान, जिस पर ‘पंडित जी चाय वाले’ का बैनर लटका हुआ है। चायवाला चाय बना रहा है। चैबे जी एक बैंच पर बैठा चाय बनकर आने का इंतजार कर रहा है।)

चौबे जी—भाई पंडित जी, तू चाय बना रहा है या बीरबल की खिचड़ी? एक घंटा हो गया उबालते-उबालते।

चायवाला—जल्दी वाली चाय अगले चैराहे पर मिलेगी चैबे जी।

चौबे जी—इतनी देर वाली भी तो नहीं मिलनी चाहिए।

चायवाला—भाईसाहब, मैं केवल चाय-पत्ती नहीं उबालता पानी में। तुलसी के पत्ते, कुटी हुई अदरक और हरी इलायची भी डालता हूँ। ये सब जब तक अच्छी तरह ना उबल जायें, इनका असर कैसे आयेगा चाय में।

चौबे जी—अब बात ना बना, जल्दी दे।

(चायवाला छलनी एक कप के ऊपर रखकर चाय छानता है और शिवराम के हाथ में थमा देता है। उसके बाद एक कुल्हड़ उठाता है और छलनी उसके ऊपर रखकर चाय छानता है तथा ननकू की ओर बढ़ाता है।)

चौबे जी—अच्छा एक बात बता-तूने दुकान पर ‘पंडित टी स्टाल’ की बजाय ‘पंडित जी चाय वाले’ क्यों लिखवाया है?

चायवाला—वो इसलिए कि आने वाले आसानी से यह समझ लें कि यह आदमी अपनी मातृभाषा हिन्दी को प्यार करता है।

चौबे जी—नहीं, मेरा इशारा ‘पंडित जी’ लिखवाने की तरफ है, ‘चाय वाले’ लिखवाने की तरफ नहीं।

चायवाला—भैया चैबे जी, बात ये है कि हमारे नेताओं और समाज-सुधारकों की भरपूर कोशिशों के बावजूद भी देश और समाज से जातिवाद अभी पूरी तरह मिटा नहीं है।

चौबे जी—सो तो है।

चायवाला—इसलिए अपना नाम लिखवाने की बजाय ‘पंडित जी’ लिखवा दिया ताकि ऊँची जाति वाले बिना संकोच के यहाँ आ सकें।

चौबे जी—और नीची जात वाले?

चायवाला—देखो भैया, धन्धा करने बैठे हैं तो वापस तो किसी को जाने नहीं देना है।

चौबे जी—यह भी ठीक है।

(इतने में गन्दे-से कपड़े पहने टहलता हुआ-सा एक अजनबी दुकान पर आता है और निःसंकोच चौबे जी वाली बैंच पर उसके निकट आ बैठता है। चौबे जी उसकी तरफ देखकर नाक सिकोड़ता है और बैंच पर उससे अलग खिसक जाता है।)

चायवाला—क्या चाहिए?

अजनबी—एक किलो चावल दे दो।

चायवाला—दुकान के ऊपर ये बैनर दीख रहा है?

अजनबी—दीख तो रहा है।

चायवाला—फिर चावल क्यों माँग रहा है?

अजनबी—जिसे बैनर दिखाई दे, उसे चावल नहीं माँगने चाहिए?

चायवाला—उस पर पढ़ भी ले, क्या लिखा है।

अजनबी—पढ़ा-लिखा होता तो तेरी ही दुकान मिली थी आकर बैठने को?

चायवाला—नहीं, तू तो अशोका होटल में जाता चाय पीने। शकल देखी है आइने में?

अजनबी—बकवास बंद कर और काम की बात कर।

चायवाला—अबे, चाय की दुकान पर चावल कैसे मिलेंगे?

अजनबी—नहीं मिलेंगे तो पूछ क्यों रहा है-क्या चाहिए? जो मिलता है, वही तो पूछ्ना चाहिए न।

चायवाला—मेरा मतलब था कि...

अजनबी—मतलब को मार गोली और चाय दे। कितने की है?

चायवाला—पाँच रुपये की। एक काम कर, वो सामने जो प्याला रखा है, उसे धो ला।

अजनबी—ग्राहक धोकर लाएगा प्याला?

चायवाला—चाय पीनी है तो लाना पड़ेगा धोकर।

अजनबी—अगर ना लाऊँ तो?

चायवाला—तो? तो...

(यह कहता हुआ चायवाला एक कुल्हड़ में चाय छानकर अपनी मेज पर ही अजनबी की ओर रख देता है।)

चायवाला—ये ले, चाय उठा अपनी।

अजनबी—इन भाईसाहब को तो प्याले में चाय दे रखी है, मुझे कुल्हड़ में क्यों?

चायवाला—अनजान लोग अगर अपने लिए प्याला धोने में ना-नुकर करते हैं तो उनको हम कुल्हड़ में ही चाय देते हैं।

अजनबी—क्यों?

चायवाला—देख भाई, हम ठहरे गौड़ ब्राह्मण भारद्वाज पंडित। पढ़-लिख नहीं सके सो चाय बनाने- बेचने का कारोबार करते हैं। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम ऐरे-गैरे हर आदमी के झूठे प्लेट-प्याले धोते फिरें।

अजनबी—अगर सभी के लिए कुल्हड़ रख लो तो किसी का भी झूठा नहीं धोना पड़ेगा।

चायवाला (रोषपूर्वक हाथ जोड़कर)—तू अपनी सलाह अपने पास रख। चाय पी, पैसे दे और अपना रास्ता नाप।

अजनबी—रख लेते हैं जी अपनी सलाह अपने पास।

(यों कहकर वह फटाफट चाय पीकर खत्म करता है और क्रोधपूर्वक कुल्हड़ को जमीन में देकर मारता है। चायवाला और चैबे जी, दोनों अचरज से उसके इस व्यवहार को देखते हैं। अजनबी अपने मुँह के अन्दर से पाँच रुपए का एक सिक्का निकालकर चायवाले की ओर बढ़ाता है।)

अजनबी—ये लो, चाय के पाँच रुपए।

चायवाला—यह क्या तरीका है पैसे रखने का?

अजनबी—मेरे पैसे हैं। मैं इन्हें जैसे चाहूँ, जहाँ चाहूँ रखूँ।

चायवाला—अबे मुँह में से निकालकर अपने थूक में सना सिक्का मुझ पंडित की ओर बढ़ा रहा है?

अजनबी—मैं तो ऐसे ही दूँगा। नहीं लेता तो वापस रख लेता हूँ।

(यों कहकर सिक्के को वापिस अपने मुँह में रख लेता है।)

चायवाला—ओए ठहर ओए। चाय मुफ्त की नहीं है।(अपनी हथेली फैलाकर) ला, इधर ला पाँच रुपए का सिक्का।

(अजनबी सिक्के को मुँह में से निकालकर चायवाले की हथेली पर रख देता है। चायवाला पानी से भरी बाल्टी की ओर बढ़ता है और सिक्के को पानी से धोने लगता है।)

अजनबी—गैर जात के आदमी के थूक में सने सिक्के को पानी से धो सकता है, उसके झूठे प्याले को धोने में बेइज्जती होती है!

यों कहकर वह उस प्याले को भी उठाकर जमीन पर दे मारता है। यह देखकर चायवाला झटके से उठ खड़ा होता है।

चायवाला—अबे, प्याला क्यों तोड़ दिया! पागल हो गया है क्या?

(ननकू मुँह में से निकालकर पाँच रुपए का एक सिक्का और उसकी हथेली पर जबरन रख देता है।)

अजनबी—पाँच रुपए का यह सिक्का इस प्याले की कीमत है। ले, इसे भी धो ले।

(चायवाला और चौबे जी दोनों अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर मुँह बाये अजनबी की इस हरकत को देखते रह जाते हैं।)

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