सीमा-रेखा (कहानी) : पन्नालाल पटेल
Seema-Rekha (Gujrati Story in Hindi) : Pannalal Patel
"साब, मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो, मगर मेरे दादा को मत काटो।" फरियाद कर रहे उस जवान आदिवासी भील की आँखों को मैं ताकता रहा।
पक्की सड़क की सीमा-रेखा आँकते वक्त शिकायत करनेवालों की कोई कमी नहीं थी। किसी की क्यारी कट रही थी, किसी का बिना पानी के गेहूँ उगानेवाला खेत तबाह हो रहा था और सारे किसान हमारे सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते रहते थे। उनमें से कई तो हमारे इंजीनियर साहब के पाँव पकड़कर आँसू बहाते हुए नतमस्तक तक हो जाते थे।
उन सभी लोगों की बातें हम सुनने लगें तो सड़क बनाने का काम ही ठप्प हो जाए, इसलिए हम ढीठ बनकर उन लोगों का यह तमाशा देखते हुए आगे बढ़ते रहे थे।
"अब तो सिर्फ नाप ले रहे हैं। अभी कुछ कटनेवाला नहीं है। वक्त आने पर जो कहना हो, कह देना।"
मगर उस जवान भील के शब्दों ने, आँसू बहा रही उसकी नीबू की फाँक जैसी आँखों ने और उनके पीछे से झाँक रही उसकी दृढता ने मुझे आगे बढ़ने से रोक लिया। समझते हुए भी मैंने सवाल किया, "किस दादा की बात कर रहा है तू?" और मुसकराते हुए मैं उसे देखता रहा।
जवाब देने के बजाय वह सिर उठाकर पेड़ को, आसमान को आलिंगन दे रही उसकी बड़ी-बड़ी शाखों को स्थिर नजर से देखता रहा। मानो जहर का घूट निगल रहा हो, ऐसे आँसुओं को पीते हुए उसने मेरी ओर देखा, फिर खुद से कुछ कह रहा हो, इस प्रकार बोला, "ठीक ही कहता हूँ साब! कुछ अनहोनी होकर रहेगी।" और फिर सुबक-सुबककर रोता हुआ वह जमीन पर बैठ गया।
मैं समझ गया। उस जवान ने अपना गुस्सा ऐसे दबा रखा था, मानो हनुमानजी ने अपने पैरों तले आफत दबा रखी हो।
बेशक मेरे लिए डरने की कोई बात नहीं थी, क्योंकि हमारे पास कर्ण के कवच से भी बढ़कर ऐसी सत्ता थी, जो लोकतंत्र के किसी भी नागरिक को आँख झपकते ही, अरे, एक आवाज निकालते ही, जंजीरों में बाँध सकती है। अखबार या तथाकथित तटस्थ मानवता-प्रेमी शोर मचाने लगें, तो उनके मुँह बंद करने के लिए हमारे पास बारूद भी तैयार था—'साम्यवादियों द्वारा उकसाए जाने पर इन लोगों ने हल्ला किया।'
इसलिए डर के मारे नहीं, बल्कि दयाभाव से मैंने उस भोले जवान को सांत्वना दी, "अरे पगले, मर्द होकर औरत की तरह रो रहा है? और वह भी एक महुए के पेड़ की खातिर?" मेरे सहायकों और चपरासियों ने भी हँसकर मेरा समर्थन किया; हालाँकि अपने बेमानी शब्दों और हँसी से वे उस जवान की खिल्ली ही उड़ा रहे थे।
मैंने कहा, "आम के पेड़ के लिए इतनी चिल्ल-पौं करता तो कोई बात भी थी!"
वह खड़ा हो गया। मानो मुझे काट खाना चाहता हो, वैसे हाथ फैलाते हुए बोला, "अरे सा' ब, इसमें आपकी अक्ल कैसे काम करेगी?" और जैसे मुझ पर तरस खा रहा हो, खुन्नस भरी आँखों से मुझे घूरते हुए वह आगे बोला, "आम तो दो दिन में सड़ जाएगा, जबकि ये महुवे तो धान के माफिक बारहों महीने वैसे के वैसे बताशे जैसे रहेंगे। आप क्या जानें, यह पेड़ तो मेरे दादा-परदादा का भी दादा है। इसके फुल्ले खाकर अकाल के बुरे दिन बिता दिए। और अब भी हम पाँच मरद इसके महुवे खाकर ही जी रहे हैं।"
उसके दिल में मानो कोई भँवर उठा हो, गरदन तक बालों से घिरे हुए सिर को हिलाते हुए वह मानो खुद से बोला, "या तो आप मरेंगे या मैं मरूँगा। यह महुवे का पेड़ तो..."
वह अपनी बात पूरी करे, इसके पहले ढाल की तरह काम देनेवाले मेरे चपरासी और सहायक उस जवान को घेरकर खड़े हो गए।
मुझे यकीन था कि पके हुए आम जैसी भुजाओं वाला और नदी के पाट जैसे चौड़े कंधों वाला यह जवान अगर गुस्से में पागल हो गया, तो एक बार तो हम सबकी हड्डी-पसली तोड़ देगा। लेकिन मैं जानता था कि मदारी के साँप की तरह वह भी शासक वर्ग के आगे लाचार था। उन लोगों को परे हटाकर मैं फिर एक बार उस जवान को समझाने लगा।
उस पुराने महुवे के पेड़ की हाथी की सूंड जैसी जड़ों पर बैठते हुए मैंने उसे अपने पास बिठाया और कहा, "तुम लोग इतना भी नहीं समझते कि यह सड़क तुम्हारे ही भले के लिए बनाई जा रही है। तुम्हारी बैलगाड़ियाँ आसानी से चल सकें, कम मेहनत में तुम्हारा माल शहर तक पहुँच जाए। अरे पगले! सरकार को थोड़े ही बाघ का शिकार करना है, जो ऐसी सड़कें बनवाएँ? और गए वे दिन, जब आप लोगों के खेत कट जाते थे और जिस पर आप लोगों को ही बेगार में काम करके सड़क बनानी पड़ती थी।"
कोई हनुमानभक्त हनुमानचालीसा पढ़ेगा, वैसे मैं भी सरकार की तारीफों के पुल बाँधता रहा और उस जवान को सुनाता रहा।
मैं खुद हाथ की बनी हुई खादी पहननेवाला चुस्त कांग्रेसी था। हाँ, इस वक्त तो लोकसेवा के बजाय पेटसेवा और उसकी दलाली के रूप में कांग्रेस की सेवा कर रहा था। कुछ लोगों को यह बात अजीब लगती है। लेकिन वे जानते नहीं हैं कि आप कांग्रेस की सेवा करेंगे, तभी वह आपकी और भावी हिंद की सेवा कर सकेगी।
लेकिन वह अबोध जवान समग्र देश का लाभ न देखकर अपना ही राग आलाप रहा था। वही एक बात, "वह सब ठीक है, सा'ब! मगर यह महुवा कट गया तो हम और मेरे तो पाँच छोटे-छोटे बच्चे हैं, हम सब खाएँगे क्या?" और वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, "मेरा खेत ले लो। अरे, ये दोनों साँड भी ले लो, मगर आपके पाँय लागें, मेरी रोटी मत छीनो!"
उसकी आवाज कंपित हो गई, "आप सोचते हैं, यह सिर्फ पेड़ है। मगर हमारा तो यह दादा है। हमारे सारे कबीले का दादा है साब!" और फिर से अपनी खुन्नस भरी, मगर करुण लग रही आँखें उसने मुझ पर टिकाई। वह बोला, “यह तो हमारी ऐसी रोटी है, जिसे कितना भी खा लो, कभी खत्म नहीं होती। मत काटो इसे!" फिर से वह हिचकियाँ लेने लगा और मेरी कांग्रेसी चप्पलों के पास लोटने लगा।
उसे बाँहों से पकड़कर उठाते हुए मैंने वायदा किया, "तेरा दुःख मैं समझ रहा हूँ। दोपहर के बाद मुझसे मिलना। उसी वक्त मैं इंजीनियर सा'ब से बात करूँगा।" और आधे मील की दूरी पर लगे इंजीनियर श्री सा'ब के तंबू (हमारे पड़ाव) की ओर कदम बढ़ाते हुए मैंने जोड़ा, “अगर तेरे नसीब बुलंद होंगे, तो कभी न खत्म होनेवाली तेरी यह रोटी सलामत रहेगी।"
सच पूछा जाए तो उस पेड़ को बचाना कोई मुश्किल काम नहीं था। कोई मील भर के बाद सड़क का मोड़ आनेवाला था।
"तो बजाय उस मोड़ के, सड़क को यहीं टर्न दे देंगे।" सा'ब के तंबू में घुसते ही मैं स्वतः बुदबुदाया।
वैसे तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी। यदि बड़ी बात हो भी तो दो-पाँच मील दाएं-बाएँ कुछ बदल देना पड़े तो इंजीनियर मेरी बात सुन ले, ऐसी स्थिति थी, क्योंकि मैं ठहरा हाथ की बुनी हुई खादी पहननेवाला कांग्रेसी, जबकि वे थे अब तक के राजाओं की हुकूमत के आज्ञाकारी कारिन्दे। उनका विश्वास था कि कांग्रेस के हाथ को उन्होंने पहचान लिया है और मुझ जैसा सेकंड क्लास कांग्रेसी भी चाहे तो, गुलेल में से कंकड़ उड़ाना हो, वैसी आसानी से उन्हें अपने ओहदे से खदेड़ सकता है। इसीलिए आज तक वे हमसे मिलते-जुलते, बल्कि अनुकूल ही रहते थे।
बातों-बातों में मैंने वहीं से सड़क को मोड़ देने का सुझाव रखा। जब उन्होंने कारण पूछा तो मैंने एक नाले से बचे रहने के लाभ की बात कही। जैसे कि मुझे उम्मीद थी, वैसा मुझे जवाब मिला, "ठीक है।"
लेकिन जैसे ही मैं तंबू से बाहर निकलने लगा तो उनकी हाँक सुनी, "सुनो मि. पटेल, एक बात कहनी है।"
जाने क्यों मेरी समझ में आ गया। चर्र...जैसे मेरा दिल फट गया। तंबू में लौटते हुए मन-ही-मन मैं बुदबुदाया, 'जवान, कभी खत्म न होनेवाली तेरी रोटी कहीं...'
हुआ वही। साहब ने पहला ही सवाल यह दागा कि वह पुराना महुवे का पेड़ कट जाता है या नए मोड़ को लेकर बचा रह जाता है? मैंने भी साफगोई से सारा किस्सा बता दिया। उस भील जवान पर तरस खाने के अलावा मौसम में दिन के पाँच-पाँच टोकरे महुवे के फल देनेवाले उस विशाल पेड़ की मैंने कवि की शैली में प्रशंसा की। “सा'ब, कम-से-कम पंद्रह दिनों तक भोर की मंगल-वेला में धरती पर फूलों की कालीन बिछानेवाले उस पेड़ की तो..."
मेरी इस अनपढ़ गद्य-कविता पर या किसी और बात पर हँसते हुए साहब बीच में ही बोले, "मैं यह सब समझ रहा हूँ मि. पटेल। यह आपसे ज्यादा मुझे मालूम है कि इन लोगों को छह महीने धरती जीवन देती है और बाकी छह महीने महुवे के पेड़ उन्हें निभाते हैं। बरसात नहीं तो धरती कभी धोखा भी देती है, जबकि वह पेड़ सूखे में भी फल देते हैं। लेकिन..."
"जब आप सबकुछ जानते ही हैं तो बिना कारण..." और मैंने थोड़ी धौंस भी जमा दी, "कांग्रेस का यह उसूल है-लोगों की सहायता करना। तब यहाँ तो..."
साहब फिर हँसे और बोले, "लोगों की बाद में, पहले तो मैं कांग्रेस की सहायता कर रहा हूँ।"
साहब के बोलने में कोई रहस्य छिपा था, यह मेरे ध्यान में आ गया। फिर भी मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। बोला, "और सब तो ठीक है सा'ब, पर वह पुराना पेड़, जिसे आपने शायद ध्यान से देखा नहीं है, उसकी एक-एक शाख कितनी लंबी और विशाल है! लोहे के गार्डर भी कभी थोड़े टेढ़े-मेढ़े होंगे, जबकि ये शाखें बिल्कुल सीधी।"
इस बार साहब ठहाका मारकर हँस दिए। बोले, "आप तो कांग्रेसी और साथ में कवि भी हैं। आप ही बताइए, दोनों का कैसे मेल बैठ सकता है? केवल मैंने नहीं, हमारे साहब ने भी उस पेड़ को ठीक से देखा है, चारों ओर से देखा है। बोलिए, अब भी कुछ कहना चाहेंगे?" बात मेरी समझ में नहीं आई।
साहब बोलते गए। इस बार उनकी मुद्रा कुछ गंभीर थी। "आप जैसा कांग्रेसी मैंने पहली बार देखा है, जो इतना भावुक हो। मैं जानता हूँ कि आप उस भील जवान पर तरस खाकर ही उस पेड़ की इतनी तारीफ करने लगे हैं। यह सही है कि इस सारे इलाके में इतना विशाल पेड़ एक भी नहीं है। लेकिन..." और अपनी छोटी-छोटी आँखें मुझ पर गड़ाते हुए वह बोले, "क्या आप जानते हैं, उस पेड़ की विशालता और सीधी शाखाएँ ही उसके लिए घातक साबित हुई हैं?"
मैं चुप्पी साध गया।
दो-पाँच पलों के मौन के बाद उन्होंने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया, “इसलिए उसे बचाने का जिक्र छेड़े बिना ही नाले का खर्च हजारों रुपए बढ़ जाता है, फिर भी जो हो रहा है, वही होने दीजिए। अगर आप चाहेंगे तो महुवे के फलों के मौसम के बाद तुरंत ही..."
"तब तो इसका मतलब ही क्या रहेगा सा'ब?" मैंने कुछ रूखे स्वर में कहा। मानो रूठ गया हूँ, वैसे उठते हुए मैं बोला, “आपकी बातों से उस पेड़ को काटने की वजह ठोस मालूम होती है। लेकिन इतना तो निर्विवाद है कि उस जवान की कभी न खत्म होनेवाली रोटी खत्म हो जाएगी।"
"तब सुनिए," साहब बोले, "अगर इस पेड़ को मैं बचाता हूँ, तो पेंशन के रूप में खत्म न होनेवाली मेरी रोटी भी खत्म हो जाएगी। आप नहीं मानेंगे। अरे, कोई भी शख्स नहीं मानेगा कि महुवे का यह पेड़ न होता तो सड़क की सीमा और ही तरह से आँकी जाती। मगर यह सब, यह महुवे का पेड़ कटने पर, उसका पाट ही सीमा-रेखा बनकर आपको आगे ले जाएगा। अब जाइए। आप कांग्रेसी भले रहे हों, गांधीवादी न बनिए, खासकर मेरी खातिर। इस मामले में तो बिल्कुल ही नहीं।" साहब के अंतिम शब्दों में समझनेवाले के लिए काफी कुछ रहस्यमय था, व्यंग्यपूर्ण था। उसमें फिक्राकशी थी, बहुत कुछ था।
और मैं महुवे के पेड़ की बजाय अपने मुकाम की ओर चला गया। जाने को उस पेड़ तक जरूर जा सकता था, लेकिन उस जवान को क्या मुँह दिखाता? कुछ समय पहले मैंने हनुमानचालीसा की तरह कांग्रेस सरकार की आरती उतारी थी और बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सड़क की सीमारेखा के बजाय कांग्रेस सरकार की सीमा-रेखा के बारे में सोच रहा था। धुंधली सी सीमा-रेखा आँक रहा था।
देर से काम पर गया, तब भी उस जवान से सच्चाई बताने का मेरा साहस नहीं हुआ। जैसे औरों से बहाने बनाते थे, वैसे उससे भी कहा, "अभी तो कच्चा काम हो रहा है। राज का काम है पगले! कहीं ऐसा भी हुआ है कि यह सड़क की लाइन यों ही खत्म हो जाए।"
लगभग छह महीनों के बाद जब मैं उस जगह पहुँचा, तो वह जवान और उसका पुराना मजबूत पेड़ याद आ गया। देखा तो दो में से एक भी वहाँ मौजूद नहीं था। पेड़ का अंजाम क्या हुआ होगा, यह मैं जानता था। लेकिन उस जवान के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। आसपास के लोगों से पूछा, तो जानते हो, क्या उत्तर मिला?
"वह तो उन पाँच-सात लोगों के साथ ससुराल यानी कि जेल में पहुँच गया!" और यह खबर सुनानेवाले लोग, जो खुद को कांग्रेसी मानते थे, खिलखिलाकर हँसने लगे।