सीमा-रेखा (कहानी) : आशापूर्णा देवी

Seema-Rekha (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

सभी हारकर लौट गये थे।

आखिरकार सतीनाथ खुद तिमंजिले पर आये। तीव्र स्वरों में बोले-''बेहूदगी की भी एक सीमा होती है, छवि! रहनी चाहिए। लेकिन ऐन शादी के मौके पर, मेहमानों से जब घर खचाखच भरा हुआ है, जैसी बेहूदगी तुमने की, उसकी कोई सीमा नहीं है। मेरी इज्जत इतने सारे रिश्तेदारों के सामने मिट्टी में मिला दी, अपनी भी कोई कम हँसी नहीं उड़वायी है तुमने। अब दया करके चलो।''

तिमंजिले की छत पर कमरा बनाने की इजाजत नहीं थी, फिर भी छवि के लिए यहाँ टाइल्स लगवाकर कमरा बनवाया गया था। छवि के इस टाइल्स लगे कमरे में बत्ती नहीं जल रही थी, फिर भी नीच पण्डाल में लगी अनगिनत बत्तियों की आड़ी-तिरछी रोशनी न जाने कैसे आकर दरवाजे के सामने वाले हिस्से को रोशन कर रही थी।

उसी दरवाजे के एक किनारे हाथ रखे खड़ी थी छवि। उस हाथ की पाँचों अँगुलियाँ और गाल का एक हिस्सा ही दिखाई पड़ रहा था, लेकिन उससे छवि के चेहरे के हाव-भाव का अनुमान नहीं लग पा रहा था।

यह समझ में नहीं आ रहा था कि वैसी ही, पहले जैसी अकड़ में है या कुछ ढलिाई पड़ गयी है।

सतीनाथ के बुलाने आने पर भी अगर पहले वाली हालत बनी रहे तब तो मानना ही पड़ेगा कि छवि भी अपने पति की तरह पागल हो गयी है।

लेकिन हालात बदल गये हैं, ऐसा नहीं लगता। अजीब-सी रूखी आवाज में छवि बोली, ''तुम क्यों तकलीफ उठाकर ऊपर चले आये भैया, मैंने तो कह ही दिया है...।''

''हां, जानता हूँ...'' सतीनाथ अपनी खीज और नाराजगी को फेंटकर बोले, ''मुझे पता है...एक-एक करके घर का हर कोर्ड आकर तुम्हारी खुशामद कर गया है और तुमने सबको खदेड़ दिया है, यह कहकर कि 'नहीं खाऊँगी, नीचे नहीं जाऊंगी। सुना, तुम्हारी भाभी ने हाथ तक जोड़े हें तुम्हारे आगे। इस पर भी तुम्हारा...''

छवि का चेहरा अभी भी नहीं दिखाई पड़ रहा है।
छवि अगर कमरे से थोडा बाहर निकल आती तो शायद उसका चेहरा दीख पड़ता, लेकिन छवि बाहर नहीं निकल रही है। लगता है, किसी ने सीता की तरह लक्ष्मण रेखा खींचकर उसी में रहने को कह दिया है। जैसे कि अगर उस रेखा को लाँघेगी तो रावण पकड़ लेगा।

लेकिन दरवाजा बन्द करके छवि बिस्तर पर लेट जाए, यह मौका ही नहीं मिल पा रहा था। शाम से ही एक के बाद एक आदमी चला आ रहा था छवि को बुलाने।

''अरी ओ छवि...पाँच सौ आदमी आ गये हैं नीचे, कितने ही लोग 'छवि-छवि' करके तुझे पूछ रहे हैं, आ एक बार।''

''ए छवि, तेरे बड़े भैया को कितना सुन्दर दामाद मिला है, आकर एक बार देख तो जा।''

''बुआ जी, कोहबर घर में न जाने तुमने क्या-क्या कुछ नहीं किया है, पिताजी बुरी तरह नाराज हो रहे हैं, जल्दी आओ।''

''तुम्हें बुलाया है, आओ।''

लेकिन छवि है कि जौ भर नहीं हिली।

छवि की जिद और कसम टूट ही नहीं रही है। छवि कह रही है उसके सिर में जोरों का दर्द है।

जबकि सारे दिन ऐसा कुछ भी नहीं था। और किसी भी दिन ऐसा कुछ नहीं था। शुरू से ही शादी का हर काम छवि के ही जिम्मे था।...रसोई, भण्डार, खाने-पीने का इन्तजाम, पूजा-घर वगैरह की देखभाल-चरखी की तरह छवि चक्कर काटती रही थी। और तभी ऐन शादी की शाम कैसे यह घटना घटित हो गयी, जिसे तूल देकर छवि अपने कमरे में जा घुसी है। इस छोटी-सी घटना से आहत होकर लेट गयी है, किसी को पता ही नहीं था। उसकी तलाश इसी समय... कन्यादान के वक्त शुरू हुई। छवि? छवि कहीं है?
गठबन्धन की चीजें...हल्दी और कौड़ी कहीं है? बगल ही में रखी थीं, जरूरत के वक्त पर कुछ नहीं मिल रहा। मिले कैसे? कोई पास बैठकर देता रहे तो कितनी सुविधा होती है? फिर केवल यही एक काम तो नहीं है? गँठजोड़ वाली कौड़ी और हल्दी की ही बात नहीं, कन्या का अंगवस्त्र कहाँ है? छवि ही तो सारा दायित्व सँभाल रही थी। लड़की की माँ क्या-क्या करे? उसे आने वालों की खातिरदारी भी तो करनी है।

लेकिन सब कुछ जानते हुए सबसे 'चरम' समय पर ही गायब हो गयी? छिः-छिः। इस वक्त गयी है, डाँट खाये पति के साथ दिल्लगी करने। और क्या। लेकिन इसके लिए यही वक्त था? वह ठहरा पागल और बेवकूफ आदमी, फिर न जाने क्या कर बैठे। उसे नींद की दवा खिलाकर आराम से चली आती। बाबा? शादी हो जाए वर-वधू कोहबर घर में जले जाएँ तब न हो थाल सजाकर खाना, तिमंजिले पर ले जाना और पतिदेव को छेड़-छेड़कर खिलाना।

यह क्या?

यह सब तो बरदाश्त करना मुश्किल है।

''लोगों से सारा घर भरा है और तू अपना रोब झाड़ती कमरे में पति के साथ जा बैठी है? कह रही है 'वह नहीं खाएगा तो मैं भी नहीं खाऊँगी?' छिः-छिः बड़े भैया को इतना बढ़िया दामाद मिला। सब-के-सब कितने खुश हो रहे हैं। और तूने देखा तक नहीं? सोहागनों के नेगाचार के समय तक उतरकर नहीं आयी? यहाँ तक कि अब न खाने की धमकी दे रही है? इतना बड़ा हंगामा, इतना खाना-पीना, मछली-मिठाई का ढेर और तू कह रही है 'मैं नहीं खाऊँगी'? दोनों जने नहीं खाएँगे। उपवास करेंगे और कोप-भवन में पड़े रहेंगे।''

''भतीजी के शुभ-अशुभ का तुझे ध्यान नहीं? तू अपने भाई-भौजाई की इज्जत की हेठी करेगी? बेहूदगी की भी एक हद तो होती है।''

''बड़ा भाई तुझसे उम्र में बीस साल बड़ा है, पिता के समान। पिता की तरह तुझे पाला-पोसा, तेरी शादी की। इतना ही नहीं, उसके बाद भी बारहों महीने तुझे और तेरे पागल पति का बोझ ढो रहा है। तेरे लिए कमरा तक बनवा दिया है। उसी बड़े भाई ने अगर पागल को बुरा-भला कह दिया और जरा-सा झिंझोड़ दिया तो क्या तू ऐसा सलूक करेगी? तुझमें इतना-सा भी कृतज्ञता का भाव नहीं है?''
आभार की इस घोर अनदेखी के बाद छवि देखने में कैसी लग रही है, शायद इसी दृश्य को देखने के लिए छवि के खपरे की छतवाले कमरे के दरवाजे पर रथ-यात्रा जैसी भीड़ जमा थी।

हालाँकि ऐसे भी बहुत लोग थे जो सहानुभूति का प्रदर्शन भी कर रहे थे। भले ही चोरी-छिपे।

क्योंकि जिनके घर वे आमन्त्रित थे उनके खिलाफ अगर कुछ कहना हो तो चुपके-चुपके कहना ही ठीक रहता है। चुपके-चुपके ही यह कहा जा सकता है-'हाय-हाय, छोटे बहनोई बेचारा पागल, समझता नहीं है तभी तो ऐसी नादानी कर बैठा था। इसी छोटी-सी बात के लिए, तुम-जैसा एक समझदार, पढा-लिखा आदमी जो अपनी लड़की की शदिा पर बैठा हो, ऐसे शुभ दिन पर उसे धक्के मारकर गिरा दिया? चूँकि बहन बेचारी मजबूर होकर तुम्हारे पास पड़ी है, तभी न तुम ऐसी ओछी हरकत कर सके? कोई पैसे वाली भाग्यवती बहन होती तो कर सकते?''

लेकिन यही लोग नीचे पहुँचते ही कुछ और ही कहने लगते। गुस्से से आग-बबूला हो जाते। भला, होंगे क्यों नहीं?

ये सब क्या ईसा मसीह हैं? चैतन्य महाप्रभु हैं? जो उन्हें गुस्सा नहीं आएगा? ड्तनी सहानुभूति दिखाने-जताने पर भी अगर छवि यही कहती रहे 'यह सब बातें मुझे अच्छी नहीं लगे रही हैं, आप लोग नीचे जाइए...'

तब?

शायद ईसा मसीह और चैतन्य कौ भी गुस्सा आ जाता।

परन्तु ये सारी बातें तो शाम की ही हैं। रात को, देर रात गये, जब बाहर से आने वाले लोग-बाग विदा हो चुके और सिर्फ घरवाले ही खाने को बाकी थे, जब सतीनाथ दामाद के रूप और गुण पर रीझे हुए थे और अपनी हैसियत पर फूले नहीं समा रहे थे तब...तब, सहसा पूछ बैठे-"क्षितीश ने कुछ खाया है?''
...और शायद तभी याद आया कि कैसे एक बदतमीज की तरह एक चीथड़े में ढेर सारी पूड़ी, मिठाई, कबाब, फ्राई वगैरह लेकर सभा के बीच में क्षितीश पाँव फैलाकर खाने बैठ गया था। यह दैखकर एक जोरदार डाँट लगाकर गर्दन पकड़कर वहाँ से खदेड़ दिया था।

काम गलत किया था, सतीनाथ इस बात से इनकार नहीं करते लेकिन उनका शरीर भी तो हाड़-मास से बने आम इन्सान का ही है?

उसी घड़ी वर और बाराती आकर सभा-मण्डप में बैठे ही थे, कन्यादान करने के लिए सतीनाथ खुद भूखे-प्यासे बैठे हुए थे... अधीर, उतावले और चंचल बिलकुल ऐसे ही उत्तेजनापूर्ण, संगीन मुहूर्त्त में ऐसा घिनौना और बेहूदा दृश्य देखकर कौन गुस्सा रोक सकता है?

सतीनाथ भी सहन न कर सके थे।

लेकिन इस बात से वह पागल अपने आपको बुरी तरह अपमानित महसूस करेगा यह नहीं सोचा था उन्होंने। ज्यादा-से-ज्यादा हलवाई के पास जा बैठेगा, उन्होंने यही सोचा था। सही बात का पता उन्हें तब चला जब देखा कि छवि अनुपस्थित है। छवि के बिना सिर्फ उन्हें ही असुविधा का सामना नहीं करना पड़ रहा, सारे घर में तरह-तरह की बेतरतीबी दिखाई दी थी...चारों ओर से 'छवि' 'छवि' पुकार शुरू हो गयी थी।

और उसी समय बड़ी साली ने कन्यादान सभामण्डप के बीच सारी बात का खुलासा करते हुए कहा, ''पता नहीं भाई, सुन रही हूँ तुमने अपने बहनोई को भला-बुरा कहा है। गर्दन पकड़कर धकेला है। इसीलिए तुम्हारी बहन दुखी होकर पति के साथ बन्द कमरे में बैठी है। तब से नीचे उतरी तक नहीं है। पता चला, बहनोई जी ने हलवाई से पत्तल भर खाना इकट्ठा किया था और वह सब भी आँगन, बरामदे, सहन और सीढ़ियों पर बिखरा दिया था। गुस्से के मारे सब कुछ फेंक-फाँककर फैला दिया था। माना कि वह पागल है पर तुम्हारी बहन तो पागल नहीं है न?''
दलीलों सें भरा ऐसा सवाल सुनकर सतीनाथ भी गुस्से से पागल हो गये थे। चूँकि वह वैवाहिक क्रिया सम्पन्न करवाने बैठे थे, इसीलिए तुरन्त कोई पहल नहीं कर सके थे। लेकिन इस समय उनके मन में प्रसन्नता से हृदय के तार बज रहे हैं, डस घड़ी यह पूछा जा सकता है, ''क्षितीश ने खाना खाया?''

ऐसी कोई बात कानों में नहीं पड़ी जो उन्हें अच्छी लगती।

सुना-शाम से ही कुछ नहीं तो भी पचासों लोग होंगे, जिन्होंने जा-जाकर छवि की खुशामद की है, आकर शादी देख ले, लोगों के पास आकर बैठ, पांत में बैठकर खाना ही खा ले। लेकिन वह पत्थर की तरह बैठी है, टस-से-मस नहीं हो रही, उसे नीचे उतारा नहीं जा सका है।

इस बदतमीजी की पूरी-पूरी कहानी दोबारा पत्नी से सुनी। इसके बाद भी मन में प्रसन्नता और विहलता के तार झंकृत होते रहेंगे, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। वह तेजी से तिमंजिले पर जा पहुँचे। और बोले, ''अरे मैं तेरे आगे हाथ जोड़ रहा हूँ-चलकर हमार साथ खाना तो खा ले।''

क्या छवि की आवाज कँप रही थी?

या कि सतीनाथ का वहम था।

शायद वहम ही था। छवि तो बड़े स्पष्ट स्वर में कह रही है-''ऐसी बातें क्यों कर रहे हो, बड़े भैया? मैं तो कह चुकी हूँ कि भोज खाने की हैसियत मुझमें है नहीं। मुझसे खाया नहीं जा सकेगा। सिर में बड़ा दर्द हो रहा है।''

सतीनाथ को याद आया, एक पोटली में बँधा खाना, साथ ही वही दृश्य, कितना बीभत्स! और इसी के साथ ही, कि भले ही पागल हो या जानवर-है तो पति ही। भीग स्वर में बोले, ''अच्छा ठीक है, खा सको या न खा सको, एक बार साथ बैठ तो जाना। मैं क्षितीश का खाना ऊपर भिजवा रहा हूँ उसे खिलाकर तू नीचे चली आ। '  उसी तरह से पत्थर की मूरत-सी बनी छवि वोली, ''वह तो खाना नहीं खाएँगे, बड़े भैया!''

फिर उनके धीरज का बांध टूट चला।
ओर ऐसा होना कुछ आश्चर्य की बात भी नहीं थी।

सतीनाथ नीचे उतर आये। उन्होंने बड़े रूखे ढंग से इतना ही कहा, ''जिसके मन में चोर हो, वही ऐसा कर सकता है।''

तभी ऊपर अमल आ गया।

उसने आखिरी पांत को खिलाने-पिलाने का जिम्मा लिया है। और इधर एक साधारण-सी लड़की की धनुष भंग वाली जिद के कारण घड़ी की छोटी सूई बारह से एक पर आ गयी है।

वह इन लोगों का नाते-रिश्तेदार कुछ भी नहीं है, पड़ोसी भर है। इस तरह की जिम्मेदारी सिर पर लादने की कोई वजह भी नहीं। लेकिन आदतन ही सही, ले ली है। लेकिन रात इतनी अधिक होने को आयी तो खुद उसके घर वाले क्या सोचेंगे? सीढ़ी पर सतीनाथ से टक्कर होते-होते बची।

सतीनाथ ने एक बार आँख उठाकर देखा, फिर खीज, उलाहने और मजाक के स्वरों में बोले, ''ओह, लगता है तुम्हीं बाकी थे।'' और नीचे उतर गये।

पड़ोस का लडका है...जाना-पहचाना। इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं थी। लेकिन किसी तरह की कोई उम्मीद नहीं थी। खुद अमल को भी आशा नहीं थी। वैसे वह सब कुछ सुन चुका था। सारी घटना भी और उस बारे में होने वाली अच्छी-बुरी बातों से भी वह परिचित था। इसीलिए अमल को अपने पर भरोसा नहीं था। फिर भी उसे कौतूहल हो रहा था कि एक बार कोशिश कर देखे तो सही कि इतनी जिद पर उतारू छवि देखने में केक लगती है? इसीलिए अमल अपने आपको रोक न पाया था।

छवि कमरे का दरवाजा वन्द करने जा रही थी। यह सोचकर कि अब शायद आराम से लेटा जा सकेगा।
अमल को देखकर हाथ रुक गये। दरवाजा अधखुला ही था।

अमल ने सोचा कि जल्दी से एक दियासलाई की तीली जला लूँ? देखूँ छवि का चेहरा कैसा लग रहा है? पर जलायी नहीं।

बोला,, ''बत्ती तो जलाओ।''

पहले जैसी ही सूखी-सूखी आवाज में छवि ने पूछा, ''क्या बहुत जरूरी है?''

''बहुत जरूरी तो नहीं है लेकिन तुम कुछ भूतनी-अनी-सी लग रही हो इसीलिए...।''

छवि ने कोई विरोध या उत्तेजना प्रकट नहीं की, न ही बचपन की यादों गे बनाये रखने के लिए कही गयी इस मजेदार बात पर हँसी। छवि छवि की तरह ही उस धुँधलके अँधेरे में खड़ी रही।

अमल को छवि के कमरे के भीतर का कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। छवि अधखुले किवाड़ के एक पल्ले को पकड़े खड़ी थी। इसीलिए भीतर झींकने की नाकामयाब कोशिश करते हुए अमल बोला, ''क्षितीश बाबू सो रहे हैं?''

''हां,'' डतनी देर वाद उसकी हँसी सुन पड़ी।

''सुना सतीनाथ बाबू ने उन्हें बड़ा बुरा-भला कहा है। लेकिन छवि, तुम इतना नाटक न भी करती तो अच्छा होता। सुन-सुनकर इतनी शर्म लग रही थी...''

इसके साथ ही बार अमल कौ लगा, छवि आधी भूतनी तो लग ही रही है।

यहाँ तक कि उसकी हँसी भी। छवि मुस्कराकर बोली, ''मेरी बेशर्मी पर यकायक तुम्हें क्यों शर्म आयी, अमल?''
अमल क्या सचमुच दियासलाई की तीली जलाए? यह देखने के लिए कि न केवल बेशरम, एकदम ही बेरहम छवि का चेहरा कैसा लग रहा है?

अन्धकार में अधछिपी छवि ठीक से पहचान में नहीं आ रही है।

छवि के बड़े भाई ने धोखा खाया था। बिना कुछ समझे-बूझे ही एक सिरफिरे पागल के साथ छवि की शादी कर दी थी। तो भी छवि ने बड़े भाई को इसके लिए कभी कुछ नहीं कहा। छवि के जेठ ने अपने पागल भाई और भौजाई को यहाँ चलता किया तो भी छवि ने उन्हें बुरा-भला नहीं कहा।

छवि ने अमल की कायरता को भी कभी नहीं धिक्कारा। वह सहज और स्वाभाविक ढंग से ही काम-काज करती रही। शादी के पहले जिस प्रकार हर काम का जिम्मा लेती थी, वैसे ही लेती रही। वैसे उसका ज्यादा वक्त पागल को सँभालने में ही चला जाता था।

तो भी हर बात पर हँसी-मजाक का जामा पहनाकर अपने आपको उसने छिपा रखा था। अमल को क्या ये सारी बातें नहीं मालूम! वह तो हर रोज यहाँ आता है।

क्षितीश को बहुत देर तक न देखने पर वह बेचैन हो जाया करती थी, पर अपनी पीड़ा को मुस्कान में तब्दील कर। बातें करते-करते सहसा उठ जाती, ''लो, बड़ी देर से मुझे मेरे बबुआ नहीं दिखाई दिये। जरा देख लूँ कहीं साधु होकर न चले गये हों।'' कभी कहा करती, ''कितना बज रहा है? अरे, यह तो काफी देर हो गयी है। देखूँ कहीं महाप्रभु खुद ही रसोई में घुसकर खाना साफ न कृर रहे हों।'' कभी कहती, ''लो देखो, अपना चेहरा छिपाकर के दयामय कहीं चल दिये। हम लोग बातें कर रहे हैं, यह उन्हें बरदाश्त नहीं। मैं चली बाबा, वरना भोले बाबा रुद्र बनकर समाधि पर बैठ जाएँगे।''

पागल के पागलपन पर कोड अगर हँसी-मजाक करता या नाराज ही होता तो छवि को किसी ने दुःखी या गुस्सा करते नहीं देखा है। उन्हीं के सुर में सुर मिलाकर हँसती हुई कहती थी, ''कहो भई, तुम सब मिलकर कहो जरा। मेरा भी बोझ कुछ कम हो जाए। जीजा जी कहकर खातिर करने से कहीं बेहतर होगा पिटाई लगाना।'
ये सारी बातें वह हँस-हँसकर ही कहती थी।

फिर आज पति का आखिर ऐसा अपमान क्या हो गया कि चेहरा ही बदल गया?

तब तो सतीनाथ की पत्नी का कहना ही ठीक है। मानना पड़ेगा कि मारे जलन के और जरा-सा मौका पाते ही छवि ऐसे नखरे कर रही है। बड़े भाई की लड़की की इतनी धूम-धाम से शादी हुई, इतना सुन्दर दूल्हा मिला, यह देख-देखकर ईर्ष्या से छाती फट रही है।

छवि के बारे में ऐसी बातें सोचना भी गुनाह है। यह तो छवि ही है जो यह सब कहने-सोचने के लिए सामान मुहैया कर रही है।

जलन नहीं तो और क्या है?

वरना छवि में ऐसी पतिभक्ति इससे पहले किसने देखी थी? उसकी भाभी तो यहीं तक कहा करती थीं, ''छवि का पति पागल है, इस बात का दुःख कम-से-कम छवि को देखकर तो नहीं लगता। कैसा पत्थर का कलेजा है...बाप रे!''

वही पत्थर का कलेजा आज मारे जलन के टूट-फूटकर चकनाचूर हो गया है। लेकिन अमल ने अपने मन में आ रही इन बातों को जाहिर होने नहीं दिया। बस इतना ही कहा, ''तुम बड़ी निर्मम हो, छवि!''

''तुम्हें आज पता चला?'' छवि ने आगे कहा, ''लेकिन तुम क्यों आये, यह तो बताओ? कहीं खाना खाने के लिए तो बुलाने नहीं आये?''

अमल ने बुझी-बुझी निगाह से फिर एक बार छवि को अच्छी तरह से देखना चाहा। फिर बोला, ''नहीं, तुम्हें बुलाने आऊँ, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है। सिर्फ इतना ही सोच रहा था, क्षितीश बाबू को भूखा रखकर रोक रखने से बड़े भैया को कितनी सजा मिल सकेगी? ये बेचारे भले आदमी ही बुरे फँसे। बड़े उत्साह से मुझे कहा था, 'देखो अमल, तुम मुझे परोसकर खाना खिलाना। ये लोग ठीक से खाना नहीं परोस पाते'।''
अपनी बात खत्म करके अमल मुस्कराया। बोला, ''हालाँकि उन्होंने 'ये लोग' नहीं कहा था। कहा था 'साले लोग'।''

छवि भूखी-प्यासी पड़ी थी, इसीलिए क्या गला-सूखा जा रहा था शायद या कि अपने बुरे बर्ताव के लिए शर्मिन्दा थी? वैसे छवि का गला तो बड़ा सुरीला रहा है। है नहीं...था। इस समय सूखी आवाज में छवि बोली, ''तो तुम्हारे परोसने का ड्न्तजार तक नहीं किया। खुद ही तो...''

''रहने दो छवि, इन बातों को छोड़ो।...तुम खाओ चाहे न खाओ, उन्हें जगा दो, मेरी बात रह जाएगी।''

छवि ने अपने बचपन की यादों की मर्यादा को मिट्टी में मिलाते हुए बड़े रूखे ढंग से कहा, ''वह नहीं खाएँगे।''

''छवि, सचमुच ही तुम हद से ज्यादा आगे बढ़ रही हो। हर बात की एक हद होती है। आज नाराज हो इसीलिए उन्हें खाने नहीं दोगी, लेकिन कल तो देना पड़ेगा। तब?''

छवि हँस पड़ी।

सचमुच की हंसी। खनखनाती हँसी। साथ ही वाली, ''कल भी नहीं खाएँगे

अमल, परसों भी नहीं, किसी दिन भी नहीं।''

पता नहीं, अमल मामूली ढंग से कही गयी इस गुस्से की बात को सुनकर क्यों डर गया? छवि, क्या उसे सचमुच ही भुतही लगी? क्या इसीलिए सहसा वह चिल्ला उठा- 'छवि!'

छवि ने इस पुकार का कोई उत्तर नहीं दिया। वह अपनी जगह से हिली तक नहीं।
और छवि की उस पत्थर-सी मूर्ति की ओर देखते हुए अमल बहुत दिनों से भूली हुई एक मूर्खता कर बैठा। बिलकुल पास आकर उसने छवि का हाथ पकड़ लिया जो दरवाजे पर था। बोला, ''छवि, बत्ती तो जलाओ।''

छवि ने धीरे-से हाथ छुड़ा लिया।

बोली, ''क्या होगा उससे?''

''मैं देखूँगा।''

''देखने को कुछ नहीं है, अमल!''

''अपने को इतना काबिल मत समझो, छवि! दरवाजे के सामने से हट जाओ, मुझे अन्दर जाने दो।''

फिर भी छवि नहीं हटी। वह उसी तरह डेंटी रही और बोली, ''सचमुच ही देखने को कुछ नहीं है, अमल!''

और अब तक अमल भी क्या भुतहा हो गया? देखने में अमल क्यों ऐसा लग रहा है?

क्या अमल भूल गया है कि इतनी लम्बी अनुपस्थिति पर लोग उसके बारे में क्या कुछ सोच रहे होंगे? उन दोनों के बचपन के किस्से क्या लोग भूल गये हैं? काफी देर के बाद अमल को शायद याद आया कि नीचे भी एक दुनिया है। उसे नीचे वापस जाना है। इसीलिए बोला, ''छवि, यह सब हुआ कैसे?''

अजीब और टूटे-फूटे स्वर में छवि बोली, ''पागल का पागलपन है और क्या? 'साले ने मुझे खाने नहीं दिया' कहकर अपना सिर पीटने लगे...मुट्ठियों से...''

''छवि, क्या तुम पत्थर हो गयी हो?''

"शायद।''
''मैं, नीचे जाकर उन लोगों से क्या कहूँगा, छवि...?''

''कुछ नहीं अमल, कुछ नहीं। दया करो। वर-वधू कोहबर घर में हैं उनके रंग में भंग न करो। उनकी यह रात सजने दो''

''छवि, यह सब तुम कैसे कर रही हो?''

''करना तो पड़ेगा ही, अमल! हमें सीमा-रेखा की अनदेखी करना ठीक नहीं है न? उनकी इस खुशी के समय क्या मैं अपना...''

''सारी रात तुम इसी तरह से रहोगी?''

''नहीं, सो जाऊँगी। नींद बड़ी जोरों की आ रही है, लग रहा है गिर जाऊँगा।'' बेहूदी और बदतमीज छवि ने यकायक अमल के मुँह के सामने ही दरवाजा बन्द कर दिया। खट से एक आवाज हुई...छिटकनी की आवाज।

हां, दरवाजा बन्द करना जरूरी था। अब उसे सतीनाथ की बात ही ठीक लग रही है-'हर बात की हद होती है और होनी भी चाहिए।'

कुछ घण्टे इस ठण्डे और स्याह अन्धकार में डूबी रहेगी छवि तो शायद थोड़ी-सी ताकत बटोर सकेगी! फिर कल सुबह बड़े स्वाभाविक ढंग से नीचे उतर जाएगी और सहज भाव से कह सकेगी-''कल शादी के हंगामे में तुम लोगों को बताकर किसी परेशानी में डालना नहीं चाहती थी लेकिन अब तो डालना ही पड़ रहा है। अब जाकर देखो। जो भी करना है, अब तो तुम लोगों को ही करना है।''


(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)

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