सौ अजान और एक सुजान (हिंदी उपन्यास) : बालकृष्ण भट्ट

Sau Ajaan Aur Ek Sujaan (Hindi Novel) : Balkrishna Bhatt

सौ अजान और एक सुजान : [एक प्रबंध-कल्पना]

भूमिका : (छठे संस्करण पर)

स्वर्गीय पं० बालकृष्ण भट्ट वर्तमान युग की हिंदी के जन्मदाताओं में से एक समझे जाते हैं, और भारतेदु बाबू हरिश्चंद्र के समकालीन साहित्यकारों मे उनका ऊँचा स्थान है। भट्टजी के पूर्व-पुरुष मालवा-देश के निवासी थे, किंतु कारण-वश वे बेतवा नदी के तट पर जटकरी-नामक ग्राम में आ बसे। पं० बालकृष्ण भट्ट का जन्म संवत् १९०१ में हुआ था। इनकी माता बड़ी पढ़ी-लिखी और साहित्यानुरागिणी थीं। इसीलिये भट्टजी की शिक्षा-दीक्षा का प्रारंभिक रूप ही सुंदर बन गया, और थोड़े समय मे ही उन्हें पर्याप्त विद्या-ज्ञान की प्राप्ति हुई। कुछ बड़े होने पर भट्टजी के पिता ने यह चाहा कि उनकी रुचि व्यवसाय की ओर आकर्षित की जाय, परंतु ऐसा न हो सका। हमारे चरितनायक विद्याध्ययन की ओर से अपना ध्यान न हटा सके, फिर माता का आदेश भी उनके अनुकूल था। इस प्रकार १५-१६ वर्ष की आयु तक भट्टजी संस्कृत और हिदी की शिक्षा प्राप्त करते रहे।

सन् १८५७ के सिपाही-विद्रोह के पश्चात् भारतवर्ष में क्रमशः अंगरेज़ी-भाषा का प्रचार बढने लगा। माता की प्रेरणा से भट्टजी ने भी अँगरेज़ी पढना शुरू किया, और एक मिशन स्कूल में एंट्रेस-क्लास तक शिक्षा पाई। स्कूल के पादरी से कुछ धार्मिक विवाद हो जाने पर भट्टजी ने स्कूल को तिलांजलि दे दी, क्योंकि उनकी धार्मिक भावनाओं को आघात पहुँच चुका था, और वह पुनः संस्कृत[ ७ ] का अध्ययन करने लगे। कुछ समय के लिये उन्होंने अध्यापन-कार्य भी किया, किंतु उसमें विशेष रुचि न होने के कारण शीघ्र ही नौकरी छोड़ दी। स्वतंत्रता की धुन सवार होने के कारण यह बहुत दिनों तक घर बैठे रहे, और कहीं भी नौकरी न की।

इसी समय उनका विवाह हो गया। गृहस्थी की चिंता से त्रस्त होकर उन्होंने व्यापार करने की ठानी, किंतु उसमें भी सफलता न मिली। पुनः उन्होंने अपने अमूल्य समय को संकल्प-रूप में संस्कृत और हिंदी-साहित्य में लगाया, और उस समय के साप्ताहिक तथा मासिक पत्रों में लेख लिखना प्रारंभ किया। प्रयाग के कुछ उत्साही साहित्यकों के प्रयत्न से 'हिंदी-प्रदीप' नामक पत्र निकलना शुरू हुआ, और हमारे भट्टजी ही उसके संपादक हुए। सरकार ने इसी अवसर पर प्रेस-ऐक्ट निकाला, जिसके प्रभाव से भट्टजी के सह-योगियों ने 'हिदी-प्रदीप' से अपना संबंध-विच्छेद कर लिया। भट्टजी ने अनवरत परिश्रम करके पत्र को चालू रक्खा, और मातृभाषा की सेवा की भावना ने उनको आशातीत सफलता दी। कुछ समय उपरांत भट्टजी ने प्रयाग की कायस्थ-पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक का कार्य प्रारंभ किया, किंतु यह नौकरी भी स्थायी न रही। इसके बाद ही 'हिदी-प्रदीप' भी बंद हो गया। फिर काशी-नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिंदी-शब्द-सागर'-नामक वृहत् कोष के संपादन में भट्टजी ने यथेष्ट सहयोग दिया, और उसे पूर्ण उपयोगी बनाने में पर्याप्त परिश्रम किया।

अचानक ही श्रावण-कृष्णा १३, संवत् १९७१ को श्रापका शरीरांत हो गया! हिंदी-माता के इस सपूत का निधन किस साहित्य-सेवी को शोक-सागर में नहीं डुबोता? पं. बालकृष्ण भट्ट हिंदी के एक सच्चे सेवक और विद्वान् थे। उनका स्वभाव बड़ा ही सरल और उदार था। वह बड़े ही हंसमुख थे। उनकी रहन-सहन सादी और[ ८ ] आडंबर-रहित थी। सनातनधर्म के पक्के अनुयायी होते हुए भी वह कभी अंध-परंपरा के पक्षपाती नहीं रहे। उनकी धर्म-निष्ठा सराहनीय थी।

भट्टजी के लिखे हुए कलिराज का सभा, बाल-विवाह-नाटक, नूतन ब्रह्मचारी, रेल का विकट खेल, जैसा काम वैसा परिणाम, भाग्य की परख, गीता-सप्तशती की आलोचना तथा षट्दर्शन-संग्रह का भाषानुवाद आदि-आदि बड़े ही महत्त्व-पूर्ण समझे जाते हैं। भट्टजी की भाषा उनकी अपनी भाषा है। उसमें मौलिकता है, रस है, और एक अनूठापन है, जो दूसरे लेखकों की रचनाओं में नहीं पाया जाता। उनकी कृतियों में अनुभव, अध्ययन और सरलता की छाप है। गद्य-लेखकों में भट्टजी ने अपनी असामान्य प्रतिभा द्वारा उच्च स्थान अधिकृत कर लिया है। भट्टजी के स्वसंपादित 'हिंदी-प्रदीप' में यदा-कदा प्रकाशित होनेवाले सुंदर लेखों का एक संग्रह 'साहित्य-सुमन' के नाम से, गंगा-पुस्तकमाला में, प्रकाशित हो चुका है। उसमें एक-से-एक बढ़कर २५ चुने हुए ललित लेख हैं। कहना न होगा कि यह संग्रह इतनी लोक-प्रियता प्राप्त कर चुका है, जितनी आधुनिक समय में प्रकाशित विरले ही किसी संग्रह को मिली होगी।

'सौ अजान और एक सुजान' भी भट्टजी की अनूठी कृति है। इसीलिये इसके कई संस्करण हो चुके है। भट्टजी की यह रचना अपनी मौलिकता और उत्कृष्टता के कारण सर्वप्रिय बन चुकी है। एक प्रबंध-कल्पना के रूप में यह कृति अपने विषय की बेजोड़ चीज़ है। भाषा में हास्यरस की सुंदर पुट है। भाव स्पष्ट और गंभीर हैं। भट्टजी की यह रचना व्यंग्यात्मक है, और इसमें मानव-जीवन की सामाजिक परिस्थितियों का सुंदर चित्रण पाया जाता है। शृंखलित कथानक का आश्रय लेकर लेखक ने इस पुस्तक[ ९ ] के विषय को और भी रोचक और सर्वग्राही बना दिया है। उनकी शैली का अनोखापन सहज ही पाठकों को मुग्ध कर लेता है। भट्टजी की प्रस्तुत रचना का आधार और मूल-तत्व उपदेश की भावना और अनुभव-जनित परिणामों का दिग्दर्शन-मात्र ही नहीं है।

इस संस्करण में संस्कृत-पद्यों का अर्थ फुटनोट में दे दिया गया है। आशा है, इस बार हिंदी-संसार इसे और भी अधिक अपनाएगा, और हिंदी-साहित्य की एक स्मरणीय अात्मा के स्वर्गीय संदेश का साहित्य-जगत् में पर्याप्त प्रचार करने में हमारी सहायता करेगा। इसे पाठवें दर्जे में नियत कर देने के लिये यू० पी० की टेक्स्टबुक-कमेटी के हम अभारी हैं। पहले 'हिंदी-साहित्य-सम्मेलन भी इसे पाठ्य पुस्तक नियत किए हुए था। आशा है, इस सुंदर संस्करण को वह फिर अपनाएगा।

कवि-कुटीर

दुलारेलाल
लखनऊ,
१७।६।३५

पहला प्रस्ताव

खोटे को सँग-साथ, हे मन, तजो अँगार ज्यों;
तातो जारै हाथ, सीतल हू कारो करै।

बरसात का अंत है। दुर्व्यसनी के धन-समान मेघ आकाश मे सिमिट-सिमिट लोप होने लगे है। शरत् का आरंभ हो गया। शीत अपना सामान धीरे-धीरे इकट्ठा करने लगी। कुँआर का महीना है। उजाली रात है। ग्यारह बजे का समयहै। सन्नाटा छाया हुआ है, मानो प्रकृतिदेवी दिन-भर की दौड़-धूप के उपरांत थकी-थकाई विश्राम के लिये छुट्टी लिया चाहती है। चंद्रमा सोलहो कला से पूर्ण होने में कुछ ऐसा ही नाम-मात्र का अंतर रखता हुआ अपनी प्रेयसी निशा की मुखच्छवि पर निहाल हो मानो हँस-सा रहा है, जिसकी सब ओर छिटकी हुई चाँदनी सम-विषम भू-भाग को एक आकार दरसाती हुई चक्रवर्ती राजा की आज्ञा-समान सर्वत्र व्याप रही है। मानो वितान रूप नीले आकाश-शामियाने के नीचे सफेद फर्श बिछा दिया गया हो। मालूम होता है, शरत की सहायता पाय धरती आकाश के साथ होड़ लगाए हुए है। वहाँ निर्मल आकाश में मोती-से चमकते हुए तारे अपने स्वामी निशानाथ के प्रसन्न करने को निशा-वधूटी के लिये उपहार बन रहे हैं। यहाँ कन्या के सूर्य के प्रचंड आतप में कीचड़-पानी सूख जाने से स्वच्छ हो, छिटकी हुई चाँदनी के मिस हँसती-सी धरती फूले हुए कल्हार, गुलनार, कुई, कुंद आदि भाँति-भाँति के फूलों का गहना सजे, उसी निशा नई दुलहिन को मुँह-देखाई देने को प्रस्तुत है। ऐसे समय अरबी घोड़े पर सवार एक आदमी देख पड़ा, भेष इसका सिपाहियाना था; उमर में यद्यपि ५० के ऊपर डाँक गया था, पर डीलडौल से ४० के भीतर मालूम होता था। बाल इसके दो-एक कहीं-कहीं पर पक गए थे सही, किंतु उतने से यह किसी को नहीं बोध होता था कि यह तरुनाई से ढुलक चला है। नई उमर का जोश, साहस, हिम्मत और दिलेरी में यह चढ़ती उमरवाले जवानों के भी आगे बड़ा था, और ये ही सब बाते मानो साखी भर रही थीं कि कचलपटी और छिछोरपन से यह कहाँ तक दूर हटा हुआ है। पढ़ा-लिखा यह कुछ न था, पर जैसी कुछ मुस्तैदी इसमें देखी जाती थी, उससे स्वामिभक्ति इसके चेहरे से झलक रही थी। चौड़ी छाती और बदन की मजबूती से यह क्षत्रिय मालूम होता था, और डील का न बहुत नाटा था न बहुत लंबा। कुछ ऊंघता अलसाता-सा काग़ज का एक पुलिंदा हाथ में लिए लंबे-चौड़े पक्के मकान के फाटक पर आकर यह खटखटाने लगा। दासी ने आय किवाड़ खोल कहा---"बाबू सोवत हैं।" इसने कहा-"बड़ा जरूरी काग़ज़ है। सोकर उठे, तो यह पुलिंदा उन्हें दे देना।" पुलिंदा दासी के हाथ में पकड़ाय आप चल दिया। दासी ने किवाड़ बंद कर लिया और भीतर चली गई।

दूसरा प्रस्ताव

नर की अरु नल-नीर की गति एक करि जोय;
जेतो नीचो ह्वै चलै, तेतो ऊँचो होय।

हिंदुस्तान मे अवध का प्रांत भी सदा से प्रसिद्ध होता आया है। पृथ्वी का यह सम भू-भाग अनेक छोटी-बड़ी नदियों से सिंचा हुआ उपज और पैदावारी में और प्रांतों की अपेक्षा आगे बढ़ा हुआ है। यद्यपि बंगाल, बिहार, तिरहुत आदि कई एक और सूबे भी जलप्राय देश होने से अधिक उपजाऊ हैं, किंतु वैसे पुष्ट धान्य, जैसे अवध में उपजते है, और प्रांतों में कहाँ! उन-उन प्रांतों की उपज शारदीय अर्थात् कुँवारी और अगहनी-मात्र है, धरती के अत्यंत निर्बल और अधिक जलमय होने से वासंती अर्थात् चैती फसल वहाँ बिलकुल या बहुत कम होती है, और अगहनी में भी ज्वार, बाजरा आदि कई एक प्रकार के अन्न की खेती का तो नाम भी नहीं है। और ठौर जब कि जेठ-बैसाख की तपन और लूह मे मुलसकर कहीं हरियाली का लेश भी नहीं रहने पाता, यहाँ तब भी हरिततृण-आच्छादित पृथ्वी मरकतमयी-सी प्रतीत होती है। अवध इक्ष्वाकु और रामचंद्र के समय से वीर बाँकुरे क्षत्रियों का उत्पत्ति स्थान प्रसिद्ध है। सरकारी फ़ौज में अब भी बेसवारे के सिपाहियों का दर्जा अव्वल समझा जाता है। पंजाब की लड़ाई में ज़र्रार सिक्खों के दाँत यदि किसी ने खट्टे किए, तो इन बैसवारेवालों ही ने। अस्तु, इस अवध के इलाके में पुण्यतोया सरिद्वरा गोमती के तट पर अनंतपुर नाम का एक पुराना कस्बा है। यहाँ सेठों का एक पुराना घराना है, जो अपनी कदामत का पता उस नगर की प्राचीनता के साथ-ही-साथ बराबर देता चला आता है। इस घराने के सेठ लोग पहले दिल्ली के बादशाहों के खज़ानची बहुत दिनों तक रहे, किंतु इधर थोड़े दिनों से समय के हेरफेर से यह खानदान बिलकुल दब गया; और अब सिवा किले-से बड़े भारी मकान के कोई निशान इस घराने के पुराने बड़प्पन का बाकी न रहा। किंतु इधर हाल में यह खानदान फिर जुगजुगाने लगा, और सेठ हीराचंद, जिनसे मेरे इस कथानक का आरंभ है, बड़े प्रसिद्ध और भाग्यवान् पुरुष हुए, जिन्होंने अपने उद्यम और व्यापार से असंख्य धन-संपत्ति के सिवा बहुत-से गाँव-गिराँव और इलाके भी बढ़ाए। नसीबे का सिकंदर यह यहाँ तक था कि इसके भाग से मिट्टी छूते सोना होता था, जिस काम को अपने हाथ में लेता, उसे बिना छोर तक पहुँचाए अधूरा कभी नहीं छोड़ देता था। नीति भी है—

विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।

अपने काम में भरपूर लाभ उठाते हुए इसके कृतकार्य होने का कारण भी यही था। स्वयं यह बड़ा विद्वान् न था, न क्रम-पूर्वक किसी ग्रंथ का अनुशीलन किए था; पर प्रत्येक विषय के पंडित और विद्वानों के सत्संग में बड़ी रुचि रखता था। इस कारण यह इतना बहुश्रुत हो गया था कि ऐसे-वैसे साधारण योग्यतावाले ग्रंथचुंबकों की इसके सामने मुँह खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। पर इससे यह अपनी योग्यता के अभिमान से किसी का अपमान करता हो, सो नहीं। योग्यता के अनुसार साक्षर-मात्र का आदर और प्रतिष्ठा करता था। यहाँ तक कि कोई शिष्ट मनुष्य अपने द्वेष्यवर्ग का भी हो, तो वह रोगी को औषध के समान उसका महामान्य हो जाता था, और अपना निज बंधु भी अनपढ़ा और दुश्चरित्र हो, तो वह साँप से डसी अँगुली-सा उसे प्यारा न होता था। वरन् वह ऐसे को त्याग देता था—

द्वेष्योऽपिसम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्;
त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदढ्गुलीवोरगक्षता।

उस समय ठौर-ठौर अवध में पाठशालाएँ ऐसों ही की दी हुई वृत्ति से चलती थीं। हमारे यहाँ पंडितों की छात्र-मंडली में उत्तरहा अब तक प्रसिद्ध हैं, विशेष कर यहाँ के वैयाकरण तो एक उदाहरण हो गए हैं। कहावत प्रचलित है--"नैन चैन की चंद्रिका रही जगत् में छाय" इत्यादि। अपव्यय या फिजूलखर्ची से इसे चिढ़ थी। कहा भी है—

इदमेव हि पाण्डित्यमियमेव विदग्धता;
अयमेव परो धर्मो यदायान्नाधिको व्ययः।

ऊपरी दिखाव और चटक-मटक से इसे अत्यंत घिन थी, जाहिरदारी को यह दिल से नापसंद करता था। जिस किसी को आमद से जियादह खर्च करते देखता, उसे यह निरा बेईमान और दिवालिया मानता था, और न कभी ऐसों का अपने किसी काम में विश्वास करता था।

इससे यह मत समझो कि यह महाटंच, वज्र सूम था। काम पड़ने पर यह बेदरेग़ लाखों लुटा देता था, और बेजा एक पैसा भी उठ गया हो, तो उसके लिये दिन-भर पछताता था। जैसा कहा है—

यः काकिणीमप्यपथप्रपन्नां समुद्धरेन्निष्कसहस्रतुल्याम्;
कालेषु कोटिष्वपि मुक्रहस्तस्तं राजर्सिहं न जहाति लक्ष्मीः।

दिन-रात सदा एक ही काम में लगे रहना इसे बहुत बुरा लगता था। सबेरे से साँझ तक खाली तेल और पानी से देह चिकनाते हुए फैशन और नज़ाकत के पीछे ज़नरव़ा बन केवल अपने आराम और भोग-विलास की फिक्र के सिवा और कुछ न करना इसे बिलकुल नापसंद था। न हरदम खाली सुमिरनी फेरना ही इसे भला लगता था, न यह आठों पहर अर्थ-पिशाच बन केवल रुपया-ही-रुपया अपने जीवन का सारांश मान बैठा था। वरन् समय से धर्म, अर्थ, काम, तीनों को पारी-पारी सेवता था। व्यासदेव के इस उपदेश को अपने लिये इसने शिक्षागुरु मान रक्खा था——

धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः
यस्त्वेकसेव्यः स नरो जघन्यः।

बुद्धिमान और सभाचतर ऐसा था कि जरा-से इशारे में बात के मर्म को पकड़ लेता था। केवल एक ही में नितांत आसक्ति न रख धर्म, अर्थ, काम, तीनो में एक-सी निपुणता रखने से कभी किसी चालाक के जुल में यह नहीं आता था। संसार के सब काम करता था, पर जितेंद्रिय ऐसा था कि कच्ची तबियतवालों की भाँति लिप्त किसी में न होता था——

श्रुत्वा दृष्ट्वा च स्पृष्ट्वा च मुक्त वा घ्रात्वा च यो नरः;
यो न हृप्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः।

व्यापार में इसकी बुद्धि की स्फूर्ति उस समय के रोजगारियों में एक उदाहरण हो गई थी। नगर-नगर इसकी कोठी, आढ़त और दूकाने इतनी अधिक थी कि उनका इंतिज़ाम इसी की अथाह बुद्धि का काम था। धर्म में निष्ठा, ब्राह्मण में भक्ति, शक्ति रहते भी क्षमा इत्यादि ऐसे लोकोत्तर गुण इसमें थे कि उनकी उपमा किसी दूसरे पुरुष में ढूँढ़ने से भी मिलना दुर्घट है।अस्तु, लड़के इसके कई हुए, किंतु बहुत कुछ उपाय के उपरांत केवल एक ही जीता बचा। पिता के उसमें एक भी गुण न हुए। इसकी अत्यंत सिधाई और सादापन देख लोग इसे भोंदूदास कहते थे; पर नाम इसका रूपचंद था।आशा होती थी, कदाचित् अपनी उमर पर आने से रूपचंद भी पिता के समान गुणागर होते। किंतु ईश्वर का कर्तब कुछ कहा नहीं जा सकता। २५ वर्ष की थोड़ी ही उमर में दो पुत्र, एक कन्या छोड़ यह सुरधाम को सिधार गया। सेठ हीराचंद को यद्यपि इसका बड़ा सदमा पहुँचा, किंतु उस दुःख को अपने धैर्यगुण से दबाय उन दो पौत्रों ही को निज पुत्र-समान पालन-पोषण करने और पढ़ाने-लिखाने लगा, और इतनी धन संपत्ति पाकर जैसा विनीत भाव और नवंता अपने में थी, वैसी इन लड़कों में भी हो जाने का प्रयत्न करने लगा।

तीसरा प्रस्ताव

गुणैर्हि सर्वत्र पदं निधीयते

उसी नगर में एक महापुरुष विद्वान रहते थे। दूर-दूर देश के छात्र और विद्यार्थी इनके स्थान पर पढ़ने के लिये टिके रहते थे। नाम इनका शिरोमणि मिश्र था। गुण में भी यह वैसे ही विद्वन्मंडलीमंडन-शिरोमणि के समान थे। अध्यापकी के काम में दूर दूर तक कालाक्षरी के नाम से प्रसिद्ध थे, अर्थात् काला अक्षर-मात्र शास्त्र का कैसा ही दुरूह और कठिन कोई ग्रंथ होता, उसे यह पढ़ा देते थे। अनुपपन्न, गरीब विद्याथियों को, जिन्हें यह परिश्रमी, पर सर्वथा असमर्थ देखते थे, यथाशक्ति उनके गुज़रान के लायक छात्रवृत्ति भी देते थे। सेठजी इनको बहुत मानते थे, इसलिये कितनों को तो शिरोमणिजी अपने पास से देते थे, और कितनों को सेठ से दिलाते थे। सेठ इनका बड़ा भक्त था, और इन्हें मूर्तिमान प्रत्यक्ष देवता समझ एक बार दिन-रात-भर मे इनका दर्शन अवश्य आय कर जाता था। मिश्रजी जैसे श्रुताध्ययन-संपन्न वैसे ही सद्वृत्त और सदाचारवान् थे। "न केवलया विद्यया तपसा वापि पात्रता", सो इनमे न केवल विका ही, किंतु तपस्या भी पूरी थी। स्वभाव के अत्यंत गंभीर और देखने में साक्षात् गणेश की मूर्ति मालूम होते थे। इनका चौड़ा लिलार और दमकती हुई मुख की धुति दामिनी की दमक के समान देखनेवाले के नेत्र को मानो चकाचौंधी-सी उपजाती थी। इनकी सत्पात्रता का कहना ही क्या। याज्ञवल्क्य लिखते हैं—

कुक्षौ तिष्ठति यस्यान्न विधाभ्यासेन जीर्यति;
कुलान्युद्धरते तस्य दश पूर्वाणि दशापराणि।

सो अध्यापकी में तो यह यहाँ तक परिश्रम करते थे कि चार बजे तड़के से आठ बजे रात तक निरंतर पढ़ाया करते। केवल मध्याह्न में तीन-चार घंटे विश्राम लेते थे। सबेरे से दस बजे तक भाष्य, वेदांत, पातजल आदि आर्ष ग्रंथों का पाठ होता था, और दूसरी जून काव्य, कोष, व्याकरण, गणित, ज्योतिष इत्यादि का। सिवा इसके जिस जून जो कोई जो कुछ पढ़ने आता था, वह उसे विमुख नहीं फेरते थे। किंतु केवल इतना विचार अवश्य रहता था कि असत् शास्त्र या निरीश्वरवादवाले ग्रंथ, जैसे कपिल का दर्शन, पहली जून नहीं पढ़ाते थे। प्रातःकाल के समय जब त्रिपुंड्र और रुद्राक्ष धारण किए कोड़ियों विद्यार्थी अपना-अपना आसन बिछाय संथा लेने को इनकी गद्दी के चारों ओर घेरकर बैठ जाते थे, उस समय यह मालूम होता था, मानो ऋषि-मंडली के बीच पद्मासन पर ब्रह्मा विराजमान हों। उस समय देखनेवाले के चित्त में यही भासती थी कि धन्य है इन विद्यार्थियों को, जो प्रतिदिन, प्रतिक्षण इनके दरस-परस से अपना जन्म सफल करते हैं। सरस्वती भी धन्य है, जो इनके मुख-कमल के संपर्क का सुखानुभव करती हुई ऐसे महात्मा के प्रसन्न, गंभीर और विमल मन-मानस मे राजहंसी के समान वास करती है, जहाँ से काव्य, कोप, अलंकार, तर्क आदि अनेक विद्या निकल-निकल नदी के समान प्रवाह-रूप में बहती छात्र-मंडली का कायिक और मानसिक दोनों पाप धोए देती है। न केवल विद्या ही के कारण इनकी सब कोई प्रशंसा करते थे और इनके बड़े मोतकिद हो गए थे, किंतु अनेक असाधारण लोकोत्तर गुणों से भी। शांति और क्षमा के यह आधार थे, तृष्णालता-गहन-वन के काटने को मानो कुठार थे अज्ञान-तिमिर के हटाने को सहस्रांशु थे; हठ और दुराग्रह आदि महाक्रूर ग्रह के अस्ताचल थे; उदार भाव के उदयगिरि थे, क्षमा और उपशम-महावृक्ष के मूल थे; धर्म की ध्वजा, सत्पथ के दिखलानेवाले, शील के सागर, सौजन्य-सुमन के कुसुमाकर थे। किबहुना, हीराचंद के तो पंडितजी सर्वस्व ही थे। उस प्रांत के छोटे-बड़े सभी ताल्लुकेदार इन्हें मानते थे, और प्रतिमास असंख्य धन इनकी भेट भेज देते थे। पंडितजी उस धन में से केवल साधारण भोजन और मोटा-मोटा कपड़ा पहन लेने के सिवा सब-का-सब अपने पास पढ़नेवाले विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति में खर्च कर देते थे। लड़का-बाला इनके कोई न था; पर इस बात का इनको कुछ सोच न था, उन विद्यार्थियों ही को अपना पुत्र मानते थे। वरन् पुत्र से अधिक प्रेम उनमें इनका था। उन सबों में दूर-देश का एक विद्यार्थी आकर थोड़े दिनों से यहाँ पढ़ने लगा था। यह किस नगर या ग्राम का रहनेवाला था, यह कुछ मालूम नहीं; पर बोली इसकी कुछ-कुछ मारवाड़ियों की-सी थी। जो हो, इसके शील-स्वभाव और बुद्धि की तीक्ष्णता से पंडितजी इस पर यहाँ तक रीझ गए कि इसे अपना पट्टशिष्य मानने लगे। और सब बातों में पंडितजी की अनुहार तो इसमें थी ही, किंतु बोलने में पटु और बर्बर होना, यह एक बात इसमें विशेष पाई गई। पंडितजी अध्यापक बहुत अच्छे थे; किंतु अत्यंत शांतशील होने के कारण शास्त्रार्थ करने में उतने प्रवीण न थे। इसमें दोनो बातें होने से गुरुजी भी इसका विशेष आदर करने लगे। सेठ हीराचंद जब पंडितजी के दर्शनों को आते थे, तो उसका वाक्पाटव और पैनी बुद्धि की तेजी देख प्रसन्न हो जाते थे, और इसके ये गुण हीराचंद के मन में जगह पाते गए। नाम इसका चंद्रशेखर था; किंतु पंडितजी का यह अत्यंत कृपापात्र था, इससे यह इसे चंदू कहते थे। सेठ अपने बालकों के लिये ऐसा एक आदमी खोज रहा था, जो उन्हें पढ़ावे तो थोड़ा, पर इधर-उधर की चतुराई की बातें उन्हें सुनावे बहुत। चंदू में यह गुण देख उसी को सेठ ने अपने दोनो पौत्रों के पढ़ाने के लिये नियत कर दिया।

चौथा प्रस्ताव

यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता;
एकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्।
( जवानी,धन-दौलत,प्रभुताई और अज्ञानता,इनमें से एक-एक अनर्थ ले करनेवाले होते हैं,फिर जहाँ ये चारो इकट्ठे हो जाय, उसका क्या कहना।)

धनाधिए राजराज कुबेर का-सा असंख्य धन और देव-राज इद्र के-से अनुपम ऐश्वर्य के स्वतंत्र अधिकारी अपने'दो पौत्रों को छोड़ सेठ हीराचद सुरधाम सिधार गए। सेठ के प्राण-धन-समान प्यारे पडित शिरोमणि ने भी इनके वियोग की आग के दाह में प्राह भरते हुए अपने जीवन को झुल-माला अनुचित मान और सेठ-सरीखे धर्मात्मा को वहाँ भी धर्मोपदेश से सनाथ रखने को इनका साथ दे दिया।'राजा'और'बहादुर'का-सा सिर्फ दुलार में पुकारने का नहीं,वरन्वा वास्तक में अपनी बेइंतिहा विभव की निश्चय दिलानेवाली दुहरी मुहर के समान अपने दो पौत्रों का नाम सेठ ने ऋद्धि-नाथ और निधिनाथ रक्खा था। इनमें ऋद्धिनाथ बड़ा था और निधिनाथ छोटा। करोड़ों का धन अपने अधिकार में पाय अब इन दोनों के नाम की पूरी-पूरी सार्थकता हो गई। शील-स्वभाव और आकृति मे दोनों की ऐसी समता पाई जाती थी, मानो वे हीराचद के सुकृत-सागर की सीप के एक-सी आभावाले छोटे-बड़े दो मोती हैं. या उसके पुण्य की दो पताकाएँ हैं,या वंश-वृद्धि करनेवाले बीजांकुर-न्याय के दो उदाहरण हैं, या एक ही डंठल के दो गुलाब हैं,या वसंत ऋतु के चैत्र वैशाख दो महीने हैं। साँचे के-से ढले इन दोनों के एक-एक अंग और रंग-रूप में यहाँ तक तुलना थी कि दाहने गाल पर एक तिल जैसा बड़े के था,ठीक वैसा ही एक तिल छोटे के गोल कपोल पर भी,चंद्रमा के गोलाकार मंडल में अंक के समान,शोभा दे रहा था।सामुद्रिकशास्त्र में लिखे हुए इनके अंग-प्रत्यंग में ऐसे-ऐसे एक-से लक्षणों को देख बोध होता था मानो ये दोनो जब गर्भ में थे,तभी इनका शुभ-अशुभ भावी परिणाम नियत कर बिधना ने इन्हें पैदा किया था।न केवल इन दोनो के शरीर की सुघराहट और बनावट ही में समता थी,बरन शील-स्वभाव,रंग-ढंग, बोल-चाल,रहन-सहन,सब इन दोनों का एक-सा था। उमर इस समय बड़े की चौदह और छोटे की बारह वर्ष की थी। कुछ दिनों तक ये दोनोंबराबर उसी क्रम पर चले गए,जिस क्रम पर सेठ इन्हें रख,गया था। चंदू नित्य इनके घर पढ़ाने आता। कभी-कभी यही दोनों उसके घर जाते थे। चंदू इन्हें पढ़ातातो थोड़ा,पर इधर-उधर की चतुराई की बातें,जो इनकी कोमल बुद्धि में सहज में समा सके और सोहावनी मालूम हो,बहुत सुनाया करता था। ये भी बड़े शांत और विनीत भाव से उसकी बातें सुनते और गुरु के समान उसका यथोचित आदर करते थे। चंदू की योग्यता और पांडित्य का प्रकाश हम पहले कर आए हैं कि यह पंडितजी का पट्टशिष्य था,और उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थियों में सबसे चढा-बढ़ा था;बल्कि शिरोमणि महाराज के सब उत्तम गुण इसमें देखे गए,अंतर केवल इतना ही पाया गया कि स्वभाव का यह अत्यंत तीक्ष्ण और क्रोधी था,लल्लोपत्तो और जाहिरदारी इसे आती ही न थी,बल्कि ऐसे लोगों पर इसे जी से घिन थी।उन ब्राह्मण और पंडितों में न था कि केवल दूसरों ही के उपदेश के लिये बहुत-से ग्रंथों का बोझ लादे हो,पर काम में पतित महामंद शूद्र से भी अधिक गए-बीते हो। लोभ,कपट और अहंभाव का कहीं संपर्क भी इसमें न था। स्वलाभसंतोष,सिधाई और जीव-मात्र की हितेच्छा की यह मूर्ति था।

विप्रान् स्वलामसंतुष्टान् साधून भूतसुहृत्तमान्;
निरहङ्कारिणः शान्तान् नमस्ये शिरसाऽपकृत्।
(ऐसे ब्राह्मण जो स्वलाभ-संतुष्ट हैं,साधु है,प्राणिमात्र के हित चाहनेवाले हैं,अहंकार-रहित हैं,शात स्वभाव के हैं, भगवान् कहते हैं, मैं उन्हें बार-बार सिर से प्रणाम करता हूँ।)

मानो भगवत् के इस श्रीमुखवाक्य का आधार यह था।इसकी चरितार्थता ऐसे ही ब्राह्मणों के विद्यमान रहने से हो रही है।अफसोस!यदि समस्त ब्रह्ममंडली या उनमें से अधिकांश चंदू के समान उन-उन सुलक्षणों से सुशोभित होते,तो इस नई रोशनी के जमाने में भी इनके विरुद्ध मुंह खोलने को किसी की हिम्मत न पड़ सकती और न ये सर्वथा पतित‌ हो ऐसी गिरी दशा में आ जाते।अस्तु, वे सब उत्तम गुण इसके लिये अवगुण हो गए।साथ के पढ़नेवाले ही इसके गुण-गौरव को न सह इसकी खुचुर मे लग गए। यह किसे प्रकट नही है कि आपस'की नाइत्तिफाकी के बीज दूसरे की तरक्की पर जलने ने ही हिंदुस्तान को मुदत से कबाब कर रक्खा है। फिर जिस जाति का चंदू है,उसकी तो यह स्वास खसूसियत-सी हो गई है।कहावत है"नाऊ,बाम्हन,हाऊ;जाति देखि गुर्रऊ" "सिरे की मेड़ कानी'के भाँति प्राह्मण ही,जो हिंदू-जाति का सिरा और हिंदुस्तान के सब कुछ हैं,इस लक्षण के हुए,तो औरों की कौन कहे। चंदू इस बात को जान गया था कि लोग हमसे खार खाते हैं,और हमारी खुचुर में लगे हुए हैं,फिर भी अपना कर्तव्य काम समझ उन दोनों बालकों को सिखाने और उन्हें ढंग पर चढ़ाने से यह विमुख न हुआ।इसने सोचा कि हीरा-चंद-सरीखे सत्पात्र के घराने की प्रतिष्ठा और भलमनसाहत इन्हीं दोनों के सुधरने या कुडंग होने से बनती या बिगड़ती है। दूसरे, सेठजी का एहसान इस पर इतना अधिक था कि उसे याद कर यद्यपि यह स्वभाव का बहुत सज्ञा और खरा था,तो भी इस काम से अलग न हुआ।

अब वर्ष ही दो वर्ष के उपरांत तरुनाई की झलक इन दोनों पर आने लगी। नई-नई तरंगे सूझने लगी;नई उमर का तकाजा शुरू हो गया; अमीरी के अल्हड़पन ने आकर जब जगह की, तो उसी तरह के सब सामान इकट्ठे होने की फिक्र हुई। एकाएक अज्ञान-तिमिर के छा आने पर चाँदनी समान चंदू के उपदेश को प्रकाश पाने का अवसर ही न रहा।असंख्य वन और राजसी वैभव पर अपनी स्वतंत्र अधिकार देख दोनों में एक साथ चढ़े हुए दर्पदाह ज्वर की दाहन बुझाने, को सदुपदेश शीतलोपचार इनके लिये किसी भाँति कारगर न हुआ। बबुआ से बाबू साहब बनने का शौक बढ़ा;जी मे नई-नई उमंगों का समुद्र उमड़-उमड़ लहराने लगा। सेठ की दौलत पर गीध के समान ताक लगाए बैठे हुए मीरशिकार भाँड़-भगति दूर-दूर से आ जमा होने लगे,रखुशामदी,चुटकी बजानेवाले मुफ्तखोरों की बन पड़ी।चंदू की शिक्षा के अनु-सार चलने की कौन कहे,उसके नाम की चर्चा भी चित्त में दोनों को बिच्छू के डंक की भाँति व्यथा उपजाने लगी।इनकी पसंद या तबियत के खिलाफ जरा-सा कोई कुछ कहता,तो वह इनका पूरा दुश्मन बन जाता था। चंदू जब इनकी कोई अनुचित बात देखता,उसी दम इन्हें टोक देता और आगे के लिये सावधान हो जाने को चिता देता था।यह इन दोनों को जहर लगता था,और जी से यही चाहते थे कि कौन-सा ऐसा शुभ दिन होगा कि इस खसट से हमारा पिंड छूटेगा। जो अनंतपुर सेठजी-सरीखे विद्यारसिक भोजदेव के मानो ननावतार के समय दूर-दूर से मुड़-के-मुड़ नित्य नए विद्वानों के आने-जाने से छोटी काशी का नमूना बना हुआ था,वही अब भाँड़-भगतिए,कत्थक-कलावतों के भर जाने से मन और दिल्ली की अनुहार मारने लगा।हमारे बाबू साहब को इस बात का हौसला नित-नित बढ़त ही गया कि जो अमीरी के ठाटवाट हसारे यहाँ हों,वे अवर के बड़े-बड़े नौवाबजादे और ताल्लुक़दारों के यहाँ भी देखा मे न आवें। बड़े बाबू का हौसला देख छोटे बाबू साहब क्य पीछे हट सकते थे? इस तरह दोनो मिल खेत सींचनेवा दोगले की भाँति सेठ की चिरकाल की कमाई का संचित धा दोनो हाथों से उलच-उलच फेकने लगे। इस तरह वहाँ अजान लोगों का दल इकट्ठा होते देख और इन दोनों के कुढंग औ कुचाल की बढ़ती देख चंदू-सा सुजान अचानक अंतर्दा हो गया। पर जी में इसके इस बात की चोट लगी रह गा कि हीराचंद-सरीखे सुकृती की संपत्ति का ऐसा बुरा परिणार होना अत्यंत अनुचित है।

पाँचवाँ प्रस्ताव

इक भीजें चहलै परै वू,बहैं हजार;
किते न औगुन जग करै बै-नै बढती बार।

शिशिर की दारुण शीत से जैसे सिकुड़े हुए देह धारियों के एक-एक अंग वसंत की सुखद ऊष्मा के संचार हो ही फैलने लगते हैं,उसी तरह कुसुमबाण की गरमी शरीर में पैठते ही नव युवा और युवतियो के अग-प्रत्यंग में सलोनापन भीजने लगता है।तन में,मन में, नैन में नई-नई उमंगें जगह करती जाती हैं;एक अनिर्वचनीय शोभा का प्रसार होने लगता है। प्रिय पाठक,नई उमर की मनोहर पुष्प-वाटिका की कुछ अंकथ कहानी है,इसका ढंग ही कुछ निराला है। हमने बसत की सुखद अज्मा के संचार की सूचना पहले आपको दे दी है।नई-नई कलियो को फूटकर विकास पाने का स्वच्छंद अवसर इसी समय मिलता है,अत्यंत कटीले और मुरझाए हुए पेड़,जिनकी ओर बारा का माली कभी झाँकता भी नहीं,एक साथ हरे-भरे हो लहलहा उठते हैं।तव उन नए पौधों का क्या कहना,जो नित्य दूध और दाख-रस से सींचकर बढ़ाए गए हैं।इस समय,जिसका हमारे यहाँ के कवियों ने वयस्संधि नाम रक्खा है,जिसके वर्णन में कालिदास,भवभूति,श्रीहर्ष,मतिराम,बिहारी आदि अपनी-अपनी कविता का सर्वस्व लुटाए बैठे हैं,आज हम भी उसी के गुन-ऐगुन दिखाने के अवसर की प्रार्थना आपसे करते है।हमारे पाठकों में जो सब ओर से लहराते हुए सिंधु-समान इस चढ़ती उमर के उफान को,जिसे ऊपर के दोहे मे कवि ने नै वै कहा है खेकर पार हो गए है.और अब शांति धरे मननशील महामुनि बन बैठे है,वे जान सकते हैं कि यह चढ़ती जवानी क्या बला है,और कैसे-कैसे ढंग पर आदमियों को दुलकाए फिरती है। यह नए-नए हौसलो की भूलभुलैया में छोड़ हजारो चक्कर दिलाती है;राग-सागर की तरंगों में तरेर फिर उमड़ने ही नहीं देती। हम ऊपर कह पाए हैं,कि इन दोनों बावुओं में न केवल चढ़ती जवानी का जोश उफान दे रहा था,अपितु धन,संपत्ति प्रभुता और स्वतत्रता का पूरा प्रादुर्भाव था,जिसके कारण तरल-तरंगिणी-तुल्य तारुण्य-कुतर्की ने अत्यंत सहायता पाय इन्हें चारों ओर से अपना ताबेदार करने में लव-मात्र भी त्रुटि न की।धन-मद ने भी इस नए पाहुते ने बै की पहुनाई के लिये सब भाँति सन्नद्ध हो सत्संग की श्रद्धा को शिथिल कर डाला।अब इन कुचालियों को महात्मा हीराचंद की दिखाई हुई सुराह पर चलना महा जजाल हो गया।इनके हृदय की आँखों में कुछ ऐसा अनोखा अधकार छा गया कि राहु की छाया-समान उसका आभास इनके यावत् कामों में प्रसार पाने लगा।झूठी-झूठी बातों से मन को लुभानेवाले नुशामदी चापलूसों के ठट्ट-के-ठट्ट जमा हो इन्हें अपने ढग पर उतार लाए। इन्हें इस बात का जान बिलकुल न रहा कि ये सब अपने मतलब के दोस्त है;काम पड़ने पर ये कोई हमारा साथ न देंगे।चिरकाल तक अभ्यसित चंदू के चोखे चुटीले उपदेशों की वासना भी न रही। नए-नए लोग जिनकी बड़े सेठजी के समय कभी सूरत भी न देख पडती थी,वे उनके दिली दोस्त हो गए। इनका रोब और दिमाग देख किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि इनसे।इसके लिये कुछ मुह पर लाये। पुराने बूढ़ों में से जिसने कभी कुछ कहने का साहस किया. वह इनका जानी दुश्मन बन गया ऐसों का संग करना कैसा,बल्कि उनका नाम सुन चिढ़ उठते थे। ऐसे लोगों से दूर रहना ही इन्हे पसद आता था।नाच-तमाशे, खेल-कूद,सवारी-शिकारी,पोशाक और घर की सजा-वट की ओर अजहद शौक बढ़ा। दोनो बाबू सदा इसी चेष्टा में रहते थे कि इन सब सजावटो मे आस-पास के अमीर,ताल्लुकेदार और बाबुओ मे कोई हमारे आगे न बढ़ने पावे,और इसी चढ़ा-उतरी में लाखो रुपया ठिकरी कर डाला अपनी खूब-सूरती,अपनी पसंद,अपनी बात सबके अपर रहे। इनके कहने को जरा भी किसी ने दूखा कि त्योरी बदल जाती,मिजाज बरहम हो जाता था।दुर्व्यसन के विष का बीज बोनेवाले चापलूस चालाकों की बन पड़ी।एक चापलूस बोला-"बावू साहब,आपके घराने का बड़ा नाम है;आज दिन अवध के रईसो मे आपका औवल दरजा है।बड़े सेठ साहब सीधे-सादे बनिया आदमी थे,इसलिये उनको वही सोहाता था।अब आपका नाम बड़े-बड़े ताल्लुकेदारो और रईसों में है।आपकी रप्त-जन्त और इज्जत बहुत बढ़ी है।नित्य का आना-जाना ठहरा,एक-न-एक तकरीब,जल्से और दरबार हुओं ही करते है। तब आप वैसा सब सामान न कीजिएगा,तो किस तरह बाप-दादों की इज्जत और अपने खानदान की बुजुर्गी कायम रख सकिएगा?" दूसरा बोला-"जी हाँ हुज़र,बहुत ठीक है। सामान तो सब तरह का इकट्ठा करना ही चाहिए।" तीसरा बोला-"इन सजावटों के लिये लाख-पचास हजार रुपए आपके लिये क्या हक़ीकृत हैं। मैं हाल में लखनऊ गया था,एस० वी० कंपनी की दूकान पर शीशे-आलात वगैरह का नया चालान आया है। मैं समझता हूँ,आपके कमरों की सजावट के लिये पंद्रह-बीस हजार,के शीशे काफी होंगे।” बाबू साहब इन धूतों की चापलूसी पर फूल उठते थे। जिसने जो कुछ कहा,तत्काल उसे मंजूर कर लेते थे। आठ बार,नौ तेवहार लगे ही रहते थे। दिन बारा-बगीचों की सैर,यार दोस्तों के मेल-मुलाकात में बीतता था;रात नाच-रंग और जियाफ्तों की धूमधाम में कटने लगी।दिल्ली,घागरा,बनारस,पटना आदि के नामी तायके सदा के लिये अनंतपुर में बुलाकर टिका लिए गए। अपने घर का सब काम-काज देखना-भालना तो बहुत दूर रहा,बड़े बाबू साहब को हुडी-पुरज़ों पर दस्तखत करना भी निहायत नागवार होता था। मुनीम और गुमाश्तों की बन पड़ी। सब लोग अपना-अपना घर भरने लगे। इधर ये दोनो हाथों से दौलत को उलच-उलच फेकते थे,उधर मुनीम-गुमाश्ते तथा और कार्यकर्ता,जिनके भरोसे इन दोनों ने सब काम छोड़ रक्खा था अपना घर भरने लगे।इसी दशा में हीराचंद के सुकृत धन का हाल सौ जगह से रसते हुए घड़े का-सा हो गया,जो देखने में कुछ नहीं मालूम होवा,किंतु थोड़े ही अरसे में घड़ा छूछे-का-छूछा रह जाता है। सच है-

समायाति यदा लक्ष्मीर्नारिकेलफलाम्बुवत् ;
विनिर्याति यदा लक्ष्मीर्गजभुक्तकपिन्थवत् ।

छठा प्रस्ताव

किमकार्य कदर्याणाम्
(दुष्ट तथा नीच के लिये, कोई ऐसा बुरा काम नहीं है, जिसे वे न कर सकें।)

ग्रीष्म की ऋतु है। जेठ का महीना है। दोपहर का समय है। सब ओर सन्नाटा छा रहा है। तिग्मांशु की तीखी खर- तर किरणों से समस्त ब्रह्मांड तच लोह-पिड का अनुहार कर रहा है। क्या स्थावर, क्या जंगम, यावत् पदार्थ सब पानी-ही-पानी रट रहे हैं । जिसे छुओ, वही अंगारे-सा गरम बोध होता है, मानो त्वंगिद्रिय शीत-स्पर्श से निराश हो जल में शैत्य गुण का निर्देश करनेवाले (शीतस्पर्शवत्याप.) कणाद महामुनि की बुद्धि का भ्रम मान बैठी है । एक तो अत्यंत दंडायसान दिन, उसमें ललाटंतप चंडांशु के प्रचंड आतप के ताप से संतप्त, शीतलच्छाया का सहारा लिए हुए, यह जंगम जगत् भी स्थिर भाव धारण कर, मौन अवस्था मे, दुःखदायी ग्रीष्म के उच्चाटन का मानो मंत्र-सा जप रहा है।

लक्ष्मी जब आने लगाती है, तो नारियल के फल में पानी के समान आती है। भीतर पानी इकट्टा रहता है, बाहर किसी को नहीं पता लगता। वही जब जाती है, तो हाथी के खाए कैथे के समान होता है। कै्था समूचा हाथी लीद कर देता है, पर भीतर बसूदा गायब रहता है।

जंगम जगत् की इस मौन दशा में कभी-कभी पुराने खँडहरों पर बैठी चील का भयंकर किकियाना जो कानों को व्यथा पहुँचा रहा है, सो मानो बीच-बीच उस उच्चाटन मंत्र की सुमिरनी पूरी होने का पता देता है। प्रत्येक गृहस्थ के यहाँ घर-घर सब लोग भोजन के उपरांत विश्राम-सुख का अनुभव कर रहे हैं, नींद आ जाने पर पंखा हाथ से छुट गया है, खर्राटे भरने लगे हैं । स्त्रियाँ गृहस्थी के काम-काज से छट: कारा पाय दुधमुंहे बालकों को खेला रही हैं। कोई-कोई बालक-बालिकाओं को इकट्ठ कर उनके रिझाने की कहानियाँ कह रही हैं । कोई-कोई रूपगर्विता बार-बार दर्पन में मुख देख-देख वेश-भूषा की सजावट कर रही हैं । कोई-कोई बड़ी जंगरैतिन गृहस्थी का सब काम शेष होते देख जेठ के दीर्घ दोपहर की ऊब दूर करने को सूप की फटकार से अपने परोसी के विश्राम में विक्षेप डाल रही हैं। हवा के साथ लड़नेवाली कोई कर्कशा न लड़ेगी, तो खाया हुआ अन्न कैसे पचेगा, यह सोच अपने परोसियों पर बाण-से तीखे और रूखे वचन की वर्षा कर रही है । कोई सरला सुशीला घर की पुरखिन अपनी बहू-बेटियों को एकत्र कर उन्हें अच्छे-अच्छे उपदेश दे रही है। कोई पढ़ी-लिखी एकांव में बैठी तुलसी-कृत रामा- यण या सूर के पदों का अभ्यास कर रही है । कोई कोम लांगी अपनी प्यारी सखी को कसीदा या कारपेट सिखाती हुई परस्पर प्रेमालाप के द्वारा मध्याह्न के निकम्मे घंटों को सफल कर रही है। खेलवाड़ी बालक, जिन्हें इस दोपहर में भी खेलने से विश्राम नहीं है, गप्प हाँकते हुए-दूसरे-दूसरे खेल का बदोबस्त कर रहे हैं । बँगलों पर साहब लोगों के पदाघात का रसिक पंखाकुली, अपने प्रभु के पादपद्मको मौनो बारंबार झुक-झुक प्रणाम करता-सा ऊँघ रहा है; पर पंखे की डोसे हाथ से नहीं छोड़ता । सहिष्णुता और स्वामिभक्ति में बढ़ सौहार्द इसी का नाम है।

अस्तु, ऐसे समय रंगीन कपड़ा सिर पर डाले अठखेली चाल से एक नौजवान आता हुआ दूर से देख पड़ा। धीमे स्वर से कुछ गाता हुआ चला आ रहा था । ज्यों-ज्यों पास आता गया, इसकी पूरी-पूरी पहचान होती गई। पहले इसके कि हम इसका कुछ परिचय आपको दें, यह, निश्चय जान रखिए कि चंदू-सरीखे बुद्धिमानों के सदुपदेश के अकुर का बीजमार करनेवाला अकालजलदोदय के समान यही मनुष्य था । यद्यपि अनतपुर मे सेठ के घराने से इस कदर्य का पुराना संबंध था, कितु सेठ हीराचंद के जीते-जी इसका केवल आना-जाना-मात्र था। इसके घिनौने काम और दुरा चार से हीराचंद सदा घिन रखते थे । इस कारण जब-तब इसे ऐसी फटकार बतलाते थे कि सेठ के घराने से अत्यंत घिष्ट-पिष्ट रखने की इसकी हिम्मत न होती थी। पाठकजन यह सेठजी के पूज्य पुरोहित के घराने का था। नाम इसका वसंतराम था, पर सब लोग दसे बसता-बसंता कहा करते थे। नाक फसड़ी, होठ मोटे, आँखे घुच्चू-सी. माथा बीच में गडढेदार, चेहरा गोल, रंग काला मानो अंजन-गिरि का एक टुकड़ा हो । पढ़ना-लिखना तो इसके लिये "काला अक्षर भैस बराबर" था। जब यह मा के गर्भ में था, तभी इसके बाप ने यमपुर को राह ली। केवल नाम-मात्र के ब्राह्मण इन पुरोहितों की पहले तो सृष्टि ही निराली होती है कि पुरोहिती कर्म से जीनेवाले सौ-पचास इकटू किए जाय, तो बिरले एक-दो उन में ऐसे निकलेंगे, जो आवारगी, उजड़पन और छिछोरेपन से खाली होंगे । विद्या, गुण अथवा किसी प्रकार की योग्यता का तो जिक्र ही क्या, उनमें साधारण रीति की मनुष्यता ही हो, तो मानो बड़ी कुशल है । तब इस रंडा पुत्र का कहना ही क्या । इस अभागे को तो जन्म ही से कोई कुछ कहने-सुननेवाला न था।

एकेनापि कुपुत्रेण कोठरस्थेन वहिना ;
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा ।
(किसी एक खोडर में रक्खी हुई आग से जैसे कुल वन जल जाता है, वैसे कुल मे कुपुत्र के उपजने पर समस्त वंश-का-वंश नष्ट हो जाता है। )

कुपुत्रों में भी यह उस तरह का कुपूत न था कि खोडर में रक्खी आग के समान केवल अपने ही कुल को भस्म करे, अपिच जहाँ-जहाँ इसकी थोड़ी भी पैठ या संचार हो गया, वहाँ वहाँ इसने भरपूर अपना-सा उस घरानेवालों को कर दिखाया। यह सदा इसी ताक में रहा करता था कि किस घराने में कौन-कौन नए केडे हैं। उन्हें किसी-न-किसी तरह अपने ढंग पर चढ़ाय खातिरखाह गुलछरें उड़ाया करता, जब देखा, अब यहाँ कुछ सार न रहा, तो निर्गधोज्झित पुष्प के समान उसे त्याग भ्रमर के समान दूसरा ठौर ढूँढ़ने लगता । इस क्रम से इसने न जानिए कितने कुलप्रसूत नई उमर- वालों का शिकार कर अमीर शिकारी के फन मे पूरा उस्ताद हो रहा था। इन बाबुओं को तो इसने ऐसा फंसा रक्खा था कि इसके विना उन्हे एकदम चैन न पड़ती, मानो दोनो बाबुओं का यह बसंता सर्वस्व हो गया था। और, यह ऐसा चालाक था कि जिस ढंग पर चाहता काठ के खेलौने के माफिक दोनो को दुलकाता फिरता । हम पहले लिख आए हैं कि यह पढ़ा-लिखा न था, तब हबशियों के-से इसके मोटे- मोटे होठों पर बड़े-बड़े और चौड़े दांतों को देख "क्वचिदन्ता भवेन्मूर्ख" सामुद्रिक के इस लक्षण में कचित् शब्द की चरितार्थता मानो इसी के लिये रक्खी गई थी ; बड़े दाँत- वाले कोई मूर्ख देखे गए, तो यही। दूसरे इसकी कंजी आँखें साखी दे रही थी कि कदर्यता इसमें किस दर्जे तक पहुंची हुई है। पाठक, आप बसंता से भरपूर परिचय कर रखिए, अभी आपको इससे बहुत काम पड़ना है, क्योंकि हमारे इस किस्से के कई एक नायक प्रतिनायकों में चंदू का प्रतिनायक यही होता रहेगा। चंदू-सा सुपात्र, भलामानुस और बसंता के समान नटखट कुपात्र कहीं बिरले पाओगे। यों बाबू साहब बराय नाम काठ के उल्लू बनाकर थाप दिए गए थे, असल में मानो हीराचंद का वलीअहद यही बन बैठा था, और उनके धन का सब सुख भोगनेवाला यही अपने को मानता था। ऐसे दोपहर के समय यह क्यो घर से निकला, और क्या इसका मनसूबा था, इसका रहस्य जानने को कौन न उकताता होगा; किंतु सहसा किसी रहस्य का उद्घाटन उपन्यास-लेखकों की रीति के विरुद्ध है, इससे इस प्रस्ताव को यही समाप्त करते हैं।

सातवाँ प्रस्ताव

सन्ततिः श्लाध्यतामेति पितृणां पुण्यकर्मभिः ।
(ॐ बाप-दादों के पुराय कर्म से संतान की उन्नति और प्रशंसा होती है।)

अनंतपुर से ईशानकोण के दो कोस पर एक मठ था । यह मठ किसी प्राचीन देवस्थान में हो, इसका कहीं से कुछ पता नही लगता ; क्योंकि किसी पुराने लेख, इतिहास या पुराण मे इसकी कही चर्चा नहीं पाई गई। कितु साथ ही इसके यह भी कोई नहीं जानता कि कब से इस मठ की पूजा और मान आरंभ किया गया; न यही कोई बता सकता है कि किस बड़े सिद्ध या महात्मा का यह आश्रम या तपोभूमि है। इस मठ में किसी देवी-देवता की मूर्ति न थी ; न इसके समीप आप-पास कोई कुंड, देवखात, नदी, झरने आदि थे, जिससे हम इसे कोई पुराना तीर्थ कह सकें। इस मठ का कुल हलका पौन कोस के गिर्द में था। चारों ओर से लहलहे, सघन वृक्षों की शीतल छाया और ठौर-ठौर लताओं से छाए हुए कुंजों को रमणीयता मन को हरे लेती थी । ग्रीष्म का सताप और जाडे की कपकपी कभी वहाँ नाम को भी न व्यापती थी । बरसात के पानी का एक अच्छा लहरा घने वृक्षों की छाया में एक साधारण-सी बूंदाबांदी मालूम होती थी । बोध होता है, मानो ये सब विटप और लताएँ वर्षा, वात, शीत, आतप के निवारक इस मठ के लिये एक क़ुदरती छाता बन गए हैं । हम ऊपर लिख आए हैं कि वहाँ कोई देव-मंदिर या किसी देवता की प्रतिमा स्थापित न थी, जिससे तीर्थ होने का कोई चिह्न -वहाँ प्रकट होता हो ; किंतु तपोभूमि-सदृश उस स्थान का माहात्म्य ऐसा देखा जाता था कि वहाँ पहुंचते ही मन में सतोगुण का भाव आप-से-आप उदय हो आता था । मन कैसा ही उदासीन और मलीन हो, वहाँ जाने से प्रसन्न और प्रफुल्लित हो उठता था । इस आश्रम का मुख्य स्थान कई एक पुराने- पुराने वट वृक्षों के बीच एक मढ़ी-सी थी, जिसके भीतर गज-भर का लंबा-चौड़ा और आधा गज ऊँचा एक पक्का चबूतरा-सा बना था । यात्री या जियारत करनेवाले उसी चबूतरे की पान, फूल, मिठाई इत्यादि से पूजा करते थे। दस-बीस कोस के गिर्द में यह स्थान ऐसा प्रसिद्ध था कि दूर-दूर से लोग यहाँ मानमनौती करने आते थे । इस चबू- तरे के एक ओर एक धूनी-सी थी, जिसमें रात-दिन गुग्गुल, लोबान और चदन की लकड़ी सुलगा करती थी। लोग कहते हैं, यह अग्नि यहाँ द्वापर के अंत से आज तक नहीं बुझी, और अर्जुन ने जब खांडव वन जलाया था, तो उसकी परिशिष्ट अग्नि लाकर यहीं स्थापित कर दी, और प्रलय काल में जब महादेवजी के तीसरे नेत्र से अग्नि निकल- कर संपूर्ण विश्व को भस्मसात् करेगी, उसी में यह धूनी की आग भी मिलकर शिव की नेत्राग्नि को दोचंद भड़का देगी। इस मठ के पडे या पुजारी थोड़े-से जटाधारी काले-काले योगी या गुसाई लोग थे। वे ही यहाँ प्रधान या मुखिया थे। जो कुछ इस मठ में चढ़ता था, वह सब इन्ही लोगों में बँट जाता था। आवारगी, उजड्डपन और असत् व्यवहार में ये गुसाई, भी और-और पडे तथा तीर्थलियों से किसी बात में कम न थे । इस स्थान के पुरातन और पवित्र होने में कोई संदेह नहीं; किंतु इन अपढ़ योगियों का दुराचरण देख घिन होती. थी, और यह मठ यहाँ तक बदनाम हो गया था कि बहुत-से भलेमानुस शिष्ट जन वहाँ आना या साल में जो कई मेले इस मठ के हुआ करते थे उनमें शरीक होना मर्यादा के विरुद्ध समझते थे । वैशाख और जेठ, दो महीने के प्रति मंगलवार को यहाँ बड़ी भीड़ होती थी। हजारों आदमी आस-पास के गाँव और नगर के यहाँ आते थे। सैकड़ों दुकानें लगती थीं। सबेरे से दस बजे रात तक इस मेले का ठाट रहता था।

हम अपने पाठकों को इसके पहले एक नए आदमी का परिचय दे चुके हैं, जो दोनो बाबुओं का मानो जीवन-सर्वस्व था, जिसके विना एक क्षण उन्हें कल न पड़ती थी, और बाबुओं को इसके चंगुल में देख भीड़-की-भीड़ ओछे-छिछोरे इसकी खुशामद में लगे रहते थे। उन्हीं मे इस मठ के बहुत-से योगी भी थे। इसलिये इस मठ में तो मानो वसंतराम का राज्य-सा था । जो-जो अत्याचार यहाँ आकर यह कर गुजरता था, वे बुरे तो सबको लगते थे, कई एक बूढ़े-बूढे गुसाई तो लहू का पूंट पीकर रह जाते थे पर उन बाबुओं के मुलाहिजे से कुछ न कहते थे । यद्यपि ऐसे-ऐसे छिछोरों के दु संग से इन दोनो बाबुओं की भी सब कलई दिन-दिन खुलती जाती थी, और सम्मान जैसा औवल दरजे के रईसों को मिलना चाहिए, उसमें भले लोगों के बीच नित्य-नित्य कमी होती जाती थी, तो भी पुराने सेठ सुकृती हीराचंद की पहली बातों को याद कर सभी चुप रह जाते थे । क्या अचरज, इन गुसाइयों को भी हीराचद ही की भलमनसाहत का खयाल आ जाता हो, जिससे ये लोग बसंता तथा इन बाबुओं का अनेक तरह का उपद्रव मठ के मेलों में देखकर भी चुप रह जाते थे। जो हो, हम प्रस्तुत का अनुसरण करते हैं।

एक बूढ़ा ब्राह्मण-'हाय-हाय! हाँफते-हाँफते कंठगत प्राण आ रहा है। झूठ कहते हों, तो हमारे सात पुरखा नरक में गिरे। न जानिए, आज किस कुसाइत में घर से निकले कि हाथ गरम होना कैसा एक फूटी झंझी से भी भेट न हुई। भीड़ और हुल्लड़ के घिस्संघिस्सा में अंग चूर-चूर हो गए। भला बचकर किसी तरह से बाहर निकल आए, मानो लाखों भर पाए। क्या कहते हो, ‘तो क्यों आया?’ अरे न आवें, तो क्या करें। एक तो गरीब दूसरे बड़ा कुनबा। अब भी क्या हीराचंद-से दानी और पात्रापात्र का विवेक रखनेवाले बैठे हैं, जो हम-ऐसों की दीनता पर पिघल उठेंगे? ईश्वर इनका सत्यानाश करे, न जानिए कहाँ-कहाँ के ओछे-छिछोरे इकट्ठे हो गए कि हमारे बाबुओं को कुढंग पर चढ़ाय बिगाड़ डाला। सेठ के समय तो हम किसी के आगे हाथ पसारना कैसा, घर के बाहर कभी पाँव भी नहीं रखते थे। वही अब तुच्छ-से- तुच्छ आदमियों के सामने दिन-भर गिड़गिड़ाते फिरते हैं, तब भी साँझ को अच्छी तरह पेट-भर अन्न नहीं मिलता। आज इस मठ का मेला समझ आए थे कि किसी से दो-चार पैसे पा जायेगे, सो इस बसंता का सत्यानाश हो, पास का भी जो कुछ आज कमाया था, सब खो चले, और तन का एक-एक कपड़ा, देखो, चिरबत्ती हो गया। बचा की खूब पूजा भी की गई, जनम-भर याद रहेगा। अरे यह कहो, न जानिए किसकी पुन्याई सहाय लगी कि दोनो बाबू सँभलकर निकल भागे, नहीं तो सब इज्जत खाक में मिल जाती। और, कब तक बचे रहेंगे ? यही लच्छन हैं, तो एक दिन बढ़ई का हाथ गया दाखिल है । बकरे की मा कब तक खैर मनावेगी ? हा! सोने का घर खाक में मिला जाता है । क्या कहते हो, 'बड़े सेठ बाबुओं को तो चंदू के हाथ में सौंप गए थे ।' हाँ-हाँ, सौप तो गए थे, पर कटकरूप दुष्टों के रहते जब उस बेचारे की कुछ चलने पाती ? लाचार हो वह भी छोड़कर चला गया। चंदू-से गुनी, सुशील, भलेमानुस की तो जहाँ तक तारीफ की जाय, सब कम है। उसके सुयश की सुगधि के सामने बूढ़े बाबा मडन महाराज को हम लोग भूल ही गए थे। धिक । नराधम! पापी! कर्म चांडाल! तेरा इतना साहस ! हा-हा-हा! बचा पर खब पड़ी; स्त्रियों का भेख धर कैसा बइयरबानियों में जा मिला था । पूजा भी हुई, और अब पुलिस के चंगुल में पड़ गया है। वे लोग सब तके हई हैं, बसंतवा से भरपूर दाँव लेगे। सच है, बुरे काम का बुरा अंजाम । दोनो बाबू भी बसंता की इस दुष्ट अभिसंधि में अवश्य थे । कुशल हुई, जो इन्हें भी इसमें फंसते देख एक आदमी इनको उस भीड़ से किसी तरह अलग कर गाड़ी पर चढ़ाय ले भागा। यह आदमी कौन था, मैं अच्छी तरह न पहचान सका ; पर मुझे दूर से चंदू का-सा चेहरा उसका मालूम हुआ। जो हो, अब हम भी घर जाय।"

आठवाँ प्रस्ताव

कोयला होय न ऊजरो सौ मन साबुन लाय ।

यद्यपि इन दोनो बाबुओं की आँख का पानी ढरक गया था, शरम और हया को पी बैठे थे, कार्य-अकार्य में इन्हें कुछ संकोच न रहा, धृष्टता, अशालीनता और बेहयाई का जामा पहन सब भाँति निरंकुश और स्वच्छंद बन गए थे ; पर उस दिन इनका पुलीस के घेरे में आ जाना और बसंता के साथ इनकी भी लेव-देव करने पर लोगों की ताक देख दोनो कुछ- कुछ सहम-से गए, और मन-ही-मन अपनी कुचाल पर कायल होने लगे। वह आदमी, जिसे हम सौ अजान में एक सुजान कहेंगे, और जो इन दोनो को भीड़ से बाहर निकाल लाया, जिसका पूरा परिचय हम अपने पाठकों को दे चुके हैं, उसने इन्हें घर पहुँचाय इनसे बिदा माँगी। ये दोनो अत्यंत लजित थे। आँख इसके सामने न कर सके। सिर नीचा किए घर तक गाड़ी पर बैठे चले आए। गाड़ी से उतरते भी इनकी कुछ बोलने की हिम्मत न होती थी; कितु उनके उस समय के हृद्गत भाव से प्रकट होता था कि ये दोनो उस महात्मा सुजान के बड़े एहसानमंद हैं। इन्हें अत्यंत लज्जित और बुझा मन देख यह बोला-"बाबू, तुम कुछ मत डरो, न किसी तरह का संकोच मन में लाओ। बीती बात का अब विचार ही क्या ? 'गतं न शोचामि ।' आगे के लिये सँभलकर चलो। अभी कछ बिगड़ा नहीं, सवेरे का भूला साँझ को घर आवे, तो उसे भूला न कहेंगे । अब इस समय तो रात हो गई, थके- थकाए हो, जाओ, खा-पीकर आराम करो। कल सबेरे मैं तुम्हारे यहाँ फिर आऊँगा।” यह कहकर उसने अपने घर की राह ली।

अब नित्य के आनेवाले सन्नाटा पाय लौटने लगे। कोई कहता था-"आज क्या सबब, जो बाबुओं के बैठने का कमरा बंद है। बसंता भी नही देख पड़ता । बाबुओं को भगवान् सलामत रक्खे, हम लोगों की घड़ी-दो घड़ी बड़े चैन और दिल्लगी में कटती है। हम लोग यहाँ बैठ कितना हल्ला- गुल्ला और धौलधक्कड़ किया करते हैं, पर बाबू साहब कभी चूँ नहीं करते।" दूसरे ने कहा-"सच है, रियासत के माने ही यह हैं । इस समय अब इस दहार में तो दूसरा ऐसा रईस नहीं है। हरकसेबाशद कोई आवे, यहाँ से आजुर्दा न लौटेगा।" तीसरे ने कहा-"सच है, इसमें क्या शक । बाबुओं की जितनी तारीफ की जाय, सब जा है । पर यार बसंता भी बड़ा, बेनजीर आदमी है । यह सब उसी के दम का जहूरा है। जब से वसंतराम का अमल-दखल हुआ, तब से हम लोगों ने भी इस दरबार में जगह पाई। बड़ी बात, मनहूस कदम उस पंडत का तो पैरा उड़ा। बसंता ही ऐसा था, जिसने हजार-हजार कोशिशों के बाद बाबुओं को उसके चंगुल से छुड़ाय आजाद किया। न जानिए कहाँ का मरा बिलाना कुंदेनातराश इस दरबार में आ भिड़ गया था।"

इधर इन दोनो सेठ के लड़कों में बड़े को, जिसे छोटे की अपेक्षा कुछ-कुछ समझ आ चली थी, मन में भाँति-भाँति का हरन-गुनन करते टाइमपीस पर घंटा और भिनट गिनते नींद न पड़ी। रात भोर हो गई। चिड़िया चहचहाने लगीं; स्कूल के पढ़नेवाले परिश्रमी बालक ब्राह्मी वेला समझ अपना-अपना पाठ घोख-घोख सरस्वतीदेवी का अनुशीलन करने लगे। प्रत्येक घरों में वृद्धजन समस्त दिन के कल्याणसूचक हरि के पवित्र नामोच्चारण में तत्पर हो गए; चंडूखानों में अफीमची और चंडूबाजों की रात-भर की पार्लियामेंट के बाद पीनक की सुखनींद का प्रारंभ हो गया; आस-पास मंदिरों में मंगला- आरती के समय का सूचक घड़ियाली और शंख-शब्द सुन भक्त जन जय-जय कहते दर्शन के लिये दौड़े फेरीवाले भिख- मंगे भोर ही अलापते गलियों में घूमने लगे; पौफट होते ही अपनी प्रेयसी निशा-नायिका का वियोग समझ चंद्रमा के मुख पर उदासी छा गई । बने-बने के सब साथी होते हैं, बिगड़े समय कोई साथ नहीं देता, मानो इस बात को सिद्ध करते हुए अपने मालिक चंद्रमा को विपत्ति में पड़ा देख नमकहराम नौकर की भाँति तारागण एक-एक कर गायब होने लगे ; अथवा काल-कैवर्त ने आकाश-महासरोवर में निशारूपी जाल बड़ी दूर तक फैलाय जीती हुई मछली की भाँति सबों को एक साथ समेट लिया; अथवा यों कहिए कि सूर्य लका कबूतर की तरह अपनी काबुक से निकलते ही चावल की बड़ी-बड़ी किनकी-से इन तारों को एक-एक कर सबों को चुग गया ; अथवा प्रातः संध्या अपने रक्तोत्पल- सहश हाथ को सब ओर फैलाय-फैलाय अपनी प्रिय सखी. वासर-श्री का उसके कांत दिनमणि सूर्य से मिलने का समय जान, इन तारा-मौक्तिकों का हार उसके लिये गूंथने को इन्हें इकट्ठा कर रही है। अपने विजयी प्रभाकर की विजय-पताका- समान सूर्योदय की लाली सब ओर दिशा-विदिशाओं में छा जाते ही अंधकार का हृदय-सा मानो फट सौ-सौ टुकड़े हो गया। शनैः-शनैः उदयाचल बालमदार के फूलों का गुच्छा-सा, अथवा पूर्व-दिगंगना के लिलार पर रोली का लाल बेदा-सा, या उसी के कान का कुंडल-सा या आसमान-गंबज पर सोने का कलश-सा अथवा देवांगनाओं के मस्तक का शीस- फूल-सा अथवा चराचर विश्व-मात्र को निगल जानेवाले काल महासर्प का अडा-सा सूर्य का मंडल कमल के वन को प्रफुल्लित करता हुआ, चक्रवाक के विरहाग्नि को बुझाता हुआ, जगल जगत्मात्र के नेत्रों को प्रकाश पहुँचाता हुआ श्रोत्रिय धर्मशील ब्राह्मणों को संध्या और अग्निहोत्र आदि कर्म मे प्रवृत्त करता हुआ पूर्व दिशा मे सुशोभित होने लगा।

सब लोग अपने-अपने रोज़मरे के काम मे प्रवृत्त हुए। बाबू भी रात-भर जागने की खमारी में अलसाने-से शौचकर्म और दतून-कुल्ला से फारिग हो अपने कमरे मे आबैठे । कितु आज रोज़ का-सा इनका चेहरा खश न था। देखते ही भासित हो जाता था कि चित्त में इनके कोई गहरी चोट का धक्का लग गया है। नौकर-चाकर तथा और सब लोग, जो इनके पास नित्य के आनेवाले थे, इन्हें उदास और बुझामन देख मन-ही-मन अनेक तरह के तर्क-वितर्क करने लगे। पर इनकी उदासी का कारण न जान सके।

इसी समय चंदू दूर से आता हुआ देख पड़ा। पंडि- ताई, नेकचलनी और पल्ले सिरे का खरापन इसके चेहरे पर झलक रहा था। इसकी गंभीरता और सागर-समान गुफ- गौरव में स्वच्छ उदार भाव मानो लहरा रहा था। इन बाबुओं की भलाई और खैरख्वाही इसे दिल से मंजूर थी। लल्लोपत्तो, जाहिरदारी और नुमाइश की ज़रा भी गुंजाइश इसके मिजाज में न पाय दुनियादारों की इसके सामने कुछ न चलती थी। जो लोग बाबुओं को फँसाय अब तक बेखटके लूट-मार खा-पो रहे थे, उनके जी में खलबली-बैठ गई। कानोकान कहने- लगे-"क्या है, जो यह मनहूस-क़दम आज फिर यहाँ देखा पड़ा । इसके सामने अब हम लोगों की एक भी न चलेगी। बड़ी मुश्किलों से इसका पैरा यहाँ से बह गया था। क्या सबब हुआ, जो बाबुओं को आज इसकी फिर चाह हुई ?" चंदू को आता देख बाबू उठ खड़े हुए। इसके पाँव छू, हाथ पकड़ अलग कमरे में ले गए, और मना कर दिया कि यहाँ कोई न आवे । यहाँ बैठ इधर-उधर की दो-एक और बातें कहने के उपरांत चंदू बोला-

"बाबू, अब तुम्हे इन साथियों की परख हुई होगी। ये सब अपने मतलब के यार हैं, तुम्हें सब तरह पर बिगाड़ अपने-अपने घर बैठेंगे। सपूती के ढंग से बड़े सेठजी के दिखाए पथ पर जो अब तक तुम चले गए होते, तो तुम्हारे सुयश की सुगंध संसार में चौगुनी फैलती। सभ्य-समाज और बड़े लोगों में प्रतिष्ठा और इज्जत पाते; धन-संपत्ति भी चंद्रमा की कला-समान दिन-दिन बढ़ती जाती। बाबू, मै जी से तुम्हारा उपकार और भला चाहता हूँ; किंतु जब मैंने अपनी ओर तुम्हारी अश्रद्धा और अरुचि देखी, तो अलग हो गया। अस्तु। अब भी तुम चेतो, और अपने को सँभालो, अभी कुछ बहुत नहीं बिगड़ा। सेठजी के पुण्य-प्रताप से तुम्हें कमी किस बात की है? बाबू तुम ऐसे निरे मूर्ख भी नहीं हो, जो अपना भला-बुरा न समझ सकते हो। किंतु तुम भी क्या करो, यह नई जवानी का मदरूप अंधकार ऐसा ही होता है, जो नसीहत और उपदेश की सहस्रदीपावली की जगमगाहट से भी दूर नहीं हो सकता। इस उमर में जो एक प्रकार की खुदी सवार हो जाती है, जिसे दर्पदाहज्वर की गरमी कहना चाहिए, वह सैकड़ों शीतोपचार से भी नहीं घट सकती। विष-समान विषयास्वाद से उत्पन्न मोह ऐसा नहीं होता कि झाड़-फूँक और टोना-टनमन का कुछ असर उस पर पहुँचे।

"इस चढ़ती जवानी में यदि कहीं ईश्वर का दिया भोग-विलास का सब सामान और मनमानी धन-संपत्ति मिली, तो शिक्षा, विज्ञान, चातुरी और फिलासफी सब उलटा ही असर पैदा करती हैं। उपदेश और विद्याभ्यास, दोनो इसीलिये है कि आदमी को बुरे कामों की ओर से हटाय भले कामों मे लगावे । यह एक प्रकार का ऐसा स्नान है, जो शरीर के नहीं, वरन् मन के मैल को धोकर साफ कर देता है। इस पुनीत तीर्थोदक में एक बार भी जिसने भक्ति-श्रद्धा से स्नान किया, वह जन्म-भर के लिये शुद्ध और पवित्र हो जाता है । और, इस तार्थोदक से स्नान का उपयुक्त समय यही था। सेठजी-से बुद्धिमान् यह सब सोच-समझ तुम्हें मेरे सिपुर्द कर आप निश्चिंत हो बैठे थे। मैंने पहले ही कहा कि श्रद्धा इसके लिये पहली बात है। जब उसमें कमी देखी गई, तो मै अलग हो गया। फिर भी सेठजी का पूर्व-उपकार समझ जी न माना, इसलिये आज फिर मैंने तुम्हें एक बार और चिताने का साहस किया। आशा है, अब आप मेरे इस कहने पर कान देगे, और अपने काम-काज मे मन लगावेगे।

"तुम्हें चाहिए कि तुम ऐसे ढंग से चलो कि भले मनुष्यों में तुम्हारी हँसी न हो; बड़े लोग तुम्हें धिक्कारे नहीं; तुम्हारे हितैषी तुम्हारा सोच न करे; धूर्त भाँड़-भगतिए तुम्हें ठगे नही; चतुर सुजान तुम्हारा निरादर न करे;खु़शामदी लोग अपने कपट-जाल में तुम्हें फँसाय शिकार न वनावे; ओछे और टुच्चों की सोहवत से दूर हटते रहो । बुद्धिमान् लोग कह गए हैं–

नाक, लाज अरु आफ़त काज—
द्रव्य बचा के राखो साज।

"यह मत समझो, सेठजी की कमाई सदा ऐसी ही स्थिर बनी रहेगी। बराबर ख़र्च करते रहो, और उसमें मिलाओ कभी कुछ नहीं, तो असंख्य धन भी नहीं रह जाता। और भी कहा है—

घर का ख़र्च देखा करो;
भारी देखो, हलका करो।

"बाबू, अभी तुम्हें नहीं मालूम होता, पीछे पछताओगे। चिकने मुँह के ठग की भाँति इस समय सभी तुम्हारी हाँ में हाँ मिलाते हैं। पीछे तुम्हारी छाया तक बरकाने लगेंगे। कहावत है—'छूछा, तोहिं को पूछा?'

तिहीदस्ती भी चलाती है कहीं अच्छी चाल;
ख़ाली थैली न खड़ी होती कभी लक्खों साल।

'मन नहिं सिधु समाय।' इस मन की उमंग को बढ़ाते क्या लगता है। एक बात में ज़रा-सा तरहदारी और अच्छेपन का दखल-भर होना चाहिए। अच्छी धोती को अच्छा अँगरखा, अच्छी पगड़ी न होगी तो सजावट और तरहदारी कोसों दूर भगेगी। जब अच्छा दुशाला हुआ, तो मोतियों की माला क्यों न हो। नफ़ीस पोशाक के लिये नफ़ीस सवारियाँ भी होनी चाहिए। जब सवारी हुई, तो दस-पाँच यार-दोस्त क्यों न हों? अब खान-पान, लेन-देन सब उज्ज्वल होने की ओर ख्याल दौड़ा। तात्पर्य यह कि एक बात में भी जहाँ ज़रा-सी तरहदारी और अच्छेपन को जगह दी गई कि वह रुई की आग हो जाती है। किसी ने सच कहा है—

एक शोभा के लिये मन मारा,
तो किया अनेक पीड़ा से निस्तारा।

"बाबू, तुम समझते हो सदा दिन ही रहेगा, रात कभी होगी ही नहीं। बड़े सेठ साहब कितनी मेहनत और उद्योग से तुम्हारे लिये कुबेर की-सी संपदा संचित कर गए हैं। तुम्हारी सपूती इसी में है कि तुम उसे बनाए रहो। तुम कहोगे, यह जाति का दरिद्र ब्राह्मण अमीरी की क़दर जाने क्या! पर मैं कहता हूँ, वह अमीरी किस काम की, जिससे पीछे, फक़ीरी झेलनी पड़े। सच है—

धनवंतों के घर के द्वार।
सब सुख आवै बारबार।
जिसके होवै पैसा हाथ,
उसका देवैं सब कोई साथ।
उद्योगी के घर पर अड़ी
लक्ष्मी झूमें खड़ी-खड़ी।

"धनी के पास सब आते हैं, वह किसी को ढूँढ़ने नहीं जाता। कहा है—

प्यासा ढूँढै मीठा कूप;
कूप न ढूँढै प्यासा भूप।

"बाबू, मैंने यावत् बुद्धिबलोदय तुम्हें चिताने में कोई बात उठा नहीं रक्खी । मानना-न मानना तुम्हारे अधीन है-

"स्याने को जरा इशारा; मूरख को कोडा सारा।"

यह कह चंदू उठ खड़ा हुआ । बाबू ने बड़ी नम्रता-पूर्वक प्रणाम किया । चंदू आशीस दे घर की ओर चंपत हुआ। कुछ दिन तक इसकी नसीहत का बाबू पर बड़ा असर रहा, और ठीक-ठीक क्रम पर चला किया।अत को हज़ार मन साबुन से धोते रहो, वही कोयले का कोयला।

नवाँ प्रस्ताव

चार दिना की चाँदनी, फिर अंधियारा पाख ।

चंदू के उपदेश का असर बड़े बाबू पर कुछ ऐसा हुआ कि उस दिन से यह सब सोहबत-संगत से मुंह मोड़ अपने काम में लग गया। सवेरे से दोपहर तक कोठी का सब काम देखता-भालता था, और दोपहर के बाद दो बजे से इलाकों का सब बंदोबस्त करता था। वसूल और तहसील की एक- एक मद खुद आप जाँचता था । उजड़े असामियों को दिलासा दे ओर उनकी यथोचित सहायता कर फिर से बसाता था, और जो कारिंदों की गफलत से सरहंग हो गए थे, उन्हे दबाने और फिर से अपने कब्जे में लाने की फिक्र करता था। सुबह-शाम जब इन सब कामो से फुरसत पाता था, तो गृहस्थी के सब इंतजाम करता था। भाई-बिरादरी, नाता रिश्ता तथा हबेली में किस बात की ज़रूरत है, इसकी सब सलाह और पूछ-ताछ नित्य घड़ी-आध घड़ी अपनी मां से किया करता था। इसकी मां रमादेवी अब इसे सुचाल और क्रम पर देख मन-ही-मन चंदू की बड़ी एहसानमंद थी, और जी से उसे असीसती थी । चंदू का इन बाबुओं से यद्यपि कोई लगाव न रह गया था, पर रमादेवी से सब सरोकार इसका वैसा ही बना रहा, जैसा हीराचद से था। रमा बहुधा चंदू को अपने घर बुलाती थी, और कभी-कभी खुद उसके घर जाय इन बाबुओं का सब हाल और रग-ढंग कह सुनाती था । चंदू पर रमा का पुत्र का-सा भाव था. बल्कि इन दोनो की कुचाल से दु:खी और निराश हो चंदू को इसने अपना निज का पुत्र मान रक्खा था । रमा यद्यपि पढ़ी- लिखी न थी, पर शील और उदारता में मानो साक्षात् शची- देवी की अनुहार कर रही थी। पुरखिन और पुरनियाँ स्त्रियों के जितने सद्गुन हैं, सबका एक उदाहरण बन रही थी। सरल और सीधी इतनी कि जब से अपने पति हीराचंद का वियोग हुआ, तब से दिन-रात में एक बार सूखा अन्न खाकर रह जाती थी। सब तरह के गहने और भाँति-भाँति के कपड़ों के रहते भी केवल दो धोतियों से काम रखती थी। कितनी राँड-बेवाओं और दीन-दुखियाओं को, जिन्हें हीराचंद गुप्त रूप से कुछ-न-कुछ दिया करते थे यह बराबर अपनी निज की पँजी से, जो सेठ इसके लिये अलग कर गए थे, बराबर देती रही। शील और संकोच इसमें इतना था कि जो कोई इसे अपनी जरूरत पर आ घेरता था. उसके साथ, जहाँ तक बन पड़ता था, कुछ-न-कुछ सलूक करने से नहीं चूकती थी। घर के इंतजाम और गृहस्थी के सब काम-काज में ऐसी दक्ष थी कि बहुधा जाति-बिरादरीवाले भी काम पड़ने पर इससे आकर सलाह पूछते थे। बूढ़ी हो गई थी, पर आधा घूघट सदा काढ़े रहती थी। केवल नाम ही की रमा न थी, गुण भी इसमे सब वैसे ही थे, जिनसे इसका रमा यह नाम बहुत उचित मालूम होता था। प्रायः देखा जाता है कि सास और बहुओं में और बहू-बहू में भी बहुत कम बनती है, और इस न बनने मे बहुधा हम उन कमबख्त सासों ही का सब दोष कहेंगे, क्योंकि बहू बेचारी का तो पहलेपहल अपने मायके से ससुर के घर मे आना मानो एक दुनिया को छोड़ दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है, फिर से नए प्रकार की जिंदगी में पाँव रखना है , जिसे यहाँ कुछ दिनो तक सब जितनी बातें नई-नई देख पड़ती हैं। जैसे कोई पखेरू, जो पहले स्वच्छंद मनमाफिक विचरा करता था, पिंजड़े मे एकबारगी लाय बंद कर दिया जाय, सब भाँति पराधीन, आजादगी को कभी ख्वाब में भी दखल नहीं, अतिम सीमा की लाज और शरम ऐसा गह के इसका आँचल पकड़े रहती है कि अभी एकदम के लिये भी छुट्टी नहीं दिया चाहती। इस दशा में जो चतुर-सयानी घर की पुरखिने है, वे ऐसे ढग से साम-दाम के साथ नई बहुओं से बरतती हैं कि उन्हें किसी तरह का क्लेश न हो, और सब भाँति अपने बस की भी हो जायँ। सास यदि फूहर और गँवार हुई, तो दोनो में दिन-रात की कलकल और दाँताकिट-किट हुआ करती है। इस हालत में वह घर नहीं, वरन् नरक का एक छोटा-सा नमूना बन जाता है। इस रमा का क्या कहना है, यह तो मानो साक्षात् कोई देवी थी। स्त्रियों के दुर्गुणों की इसमें छाया तक न आई थी। इसने अपनी दोनो बहुओं को ऐसे ढंग से रक्खा कि वे दोनों इसकी अत्यंत भक्त और आज्ञाकारिणी हुईं, और आपस में ऐसा मिल-जुलकर रहती थी कि बहन-बहन मालूम होती थी। यह कोई नहीं कह सकता कि ये देवरानी-जेठानी हैं। ससुरार के सुख के सामने मायके को ये दोनों बिलकुल भूल गईं। पाठकजन, हम आशा करते हैं, आप लोगों को ऐसी ही रमा की-सी घर की पुरखिन और दो सुशीला बहुओं की-सी बहू मिलें, जैसी सेठ हीराचंद और इन दोनो बाबुओं को मिली हैं।

दसवाँ प्रस्ताव

संगत ही गुन ऊपजे, संगत ही गुन जाय।

हीराचंद के घर से दस घर के फासिले पर कुछ कच्चा कुछ पक्का एक मकान था। उसमें नंददास नाम का एक मनुष्य रहता था। यह कौन था, और कब से यहाँ रहता था, इसका कोई ठीक पता नहीं मालूम ; पर इतना अलबत्ता पता लगता था कि यह हीराचद की बिरादरी का था, और इन बाबुओं को भैया-भैया कहा करता था । इससे यह भी कुछ टोह लगती थी कि इसका बाबुओं के घराने से कोई दूर का रिश्ता भी रहा हो, तो क्या अचरज ! बाबू के सब नौकर इसे नंदू बाबू कहा करते थे। बाप इसका शुरू में कपड़े तथा दूसरी-दूसरी देशी चीजों की एक साधारण-सी दूकान करता हुश्रा निरा बकाल के सिवा किसी गिनती में , न था। मसल है, 'तीन दिवाले साव" । वह इस हिकमत को अमल में लाकर कई बार दिवाला काढ़ और पीछे आधे- तिहाई पर अपने देनदारो से मामला कर लाख-पचास हजार की पूँजी भी इसके लिये छोड़ गया था। इसलिये नंदू अपना दिमाग इन बाबुओं से कुछ कम न रखता था। थोड़ी उर्दू जानता था; टूटी-फूटी अँगरेजी भी बोल लेता था। वही के दिहाती मदरसों में पढ़ा था ; दो - एक छोटे-मोटे इम्तिहान भी पास किए था। बस, इतना ही कि मुख्तारी और मुसिफी तक वकालत करने का अख्तियार हासिल था। पर कानूनी लियाकत मे अपने आगे हाईकोर्ट के वकीलो को भी कुछ माल न गिनता था, और साधारण लियाकत मे तो बृहस्पति और शुक्राचार्य को भी अपना चेला समझे बैठा था। तरहदारी और अमीरी में पूरा दम भरता था, पर उस तरह को तरहदारी और अमीरी नहीं कि गाँठ का पैसा खो बैठे, वरन् ऐसे-ऐसे लटके सीखे था कि किसी ऐसे बड़े मालदार नए उभरे हुए को ढूँढ़े, जिसे कोई रोकने-टोकनेवाला न हो, पर वह कमसिनी ही में खुदमुख्तार बन बैठा हो। नितांत अल्पज्ञता के कारण इतना मदांध और निर्विवेक था कि बहुधा अपने छिछोरपन और सिफलापन के सबब शिष्ट-समाज में कई बार भरपूर दक्षिणा पा चुका था, तो भी अपने छिछोरपन से बाज नहीं आता था। यदि कोई समझदार और तमीज़वाला होता, तो आत्मगौरव न रहने के रंज से समाज में फिर मुँह न दिखलाता। पर ग़ैरत को तो यह घोलकर पी बैठा था; इसकी आँख का पानी ढरक गया था। शरम और हया कैसी होती है, जानता ही न था। सच मानिए, शिष्ट समाज और शराफत के कलंक ऐसे ही लोग होते हैं, जो जाहिरा में दिखलाने को ऐसा रँगे-चुँगे चूना-पोती क़बर के माफिक बने-ठने रहते हैं कि बस, मानो रियासत के खंभ हैं, शिष्टता के स्रोत हैं, भलमनसाहत के नमूने हैं। पर भीतर पैठकर देखो, तो उनके घिनोने और मैले कामों से जी इतना घिनाता है कि ऐसों का संपर्क कैसा, मुख-मात्र के अवलोकन में महाप्रायश्चित्त लगता है। ऐसों के संपर्क से जो बचे हुए हैं, उन पर ईश्वर की मानो बड़ी कृपा है। आँख चुंधी, गाल फूले, चेचक-रू, कोती गरदन, पस्त कद, किंतु बनावट और सजावट से यह कामदेव से उतरकर दूसरा दरजा अपना ही कायम करता था। नंदू ही के समानशील लोगों का एक गण-का-गण था, जो महादेव के गण नदी- भृंगी के समान इसके आश्रित थे। उन सगे मे एक इसका बडा विश्वासपात्र था । नाम इसका रघुनदन था, पर नंदू इसे रग्घू कहा करता । रघू जाति का ब्राह्मण था, पर कदयता से अत्यत पामर महाशूद्र से भी गया-बीता था। केवल नामधारी ब्राह्मण था । नंदू का कोई ऐसा काम न होता था, जिसमे रग्घू मौजूद न रहे । सच तो यों है कि नंदू इस रग्ब् का इतना आश्रित हो गया था कि विना इसके नंदू लु ज-पुज सा रहता । तारबकीं के समान नंदू जिस काम मे इसे प्रवृत्त कर देता था, उसे पूरा होते जरा देर नलगती थी। बसता जैसा उन बाधुओं का परिचारक और मुफ्तखोरा खुशागदी था, वैसा ही रग्घू नंदू बाबू का अनुचर था ( अतर उसमे और इसमें केवल इतना ही था कि बसता निपट निरक्षर कुंदे- नातराश था, पर रघू को अक्षरों से भेट थी। पर वही नाम-मात्र को, इतना कि जिससे हर इसे पढ़ा-लिखा या साक्षर नहीं कह सकते । वसंता निपट उजडऔर जघन्य था, कितु रग्धू चालाकी में एकता और अमीरों का रत्व पहचान उन्हे खुश रखने के हुनर मे बहुत प्रवीण था । जहाँ-जहाँ नंदू आया-जाया करता था, वहाँ-वहाँ रग्घू उसका पुछल्ला ही था। तब क्यों- कर सभव था कि इसके चरण भी कहाँ न पधारं । इस द्वार से प्राय अनंतपुर के छोटे-बडे रईम तथा आस-पास के ताल्लु- केदारो से इसकी भरपूर जान-पहचान हो गई थी। यहाँ तक कि इन अमीरों में यह "नंदू के रग्घू" इस नाम से प्रसिद्ध था। रग्घू की भी अपनी तरहदारी और अंदाज़ का दिमाग नंदू बाबू से कुछ कम न था। घर में चाहे भूँजी भाँग न हो, पर बाहर यह ऐसे अंदाज से रहता था एक नया आदमी, जो इसका सब कच्चा हाल नजानता हो, इसे बड़ा अमीर मान लेता।

नंदू का बड़ा प्रेमी और दिली दोस्त एक तीसरा आदमी और था । इसके जन्म-कर्म का सच्चा हाल किसी को मालूम न था । पर नंदू इसे हकीम साहब कहा करता था । हकीम साहब अपने को नवाबजादा बतलाते थे, और अपनी पैदाइश का हाल बहुत छिपाते थे। पर जो असल बात होती है, वह किसी-न-किसी तरह अंत को प्रकट हो ही जाती है। अस- लियत इसकी यों है कि इसका बाप कंदहार का रहनेवाला, नवाब शुजाउद्दौला के खुशामदी उमराओं में से था। इसने एक खानगी रख ली थी । उससे एक लड़की और एक लड़का हुआ था । उपरांत का हाल फिर कुछ मालूम नहीं कि यह लखनऊ से यहाँ क्योंकर आया, और कब से यह अनंतपुर में आ बसा । उस कंदहासी अमीरी की दूसरी ओलाद इसकी हमशीरा को भी बराबर तलाश करते रहिएगा, तो हमारे इसी किस्से में कही-न-कहीं पर अवश्य ही पा जाइएगा । यह हकीम साहब बाहर तो बड़े तूमतड़ाँग और लिफाफे से रहते थे, पर भीतर मियांँ के सिवा एक टूटी खाट और तीन सनहकी के कुछ न था। असल मे इसका नाम क्या था, कौन जाने ; पर सब लोगों में हकीम फीरोजबेग कंदहारी अपने को मशहूर किए था। नंदू इसका सिद्धसाधक था। इसलिये जहाँ तक बन पड़ता, छोटे-बड़े सबों में इसकी बहुत-सी तारीफ कर-कराय इसका प्रवेश उस ठौर करा देता था। यह क्यों इसकी इतनो सिफ़ारिश करता था इसका भेद भी, आप धीरज धरे चले चलिए, खुली जायगा। इस बात की ताक में तो यह न जानिए कब से था कि किसी-न-किसी तरह हीरा- चंद के घराने में हकीम साहब का प्रवेश करावे; पर चद् के कारण, जो देखते ही आदमी की नस-नस पहचान जाता था, दूसरे हीराचद को स्त्री रमादेवी के कारण, जिसे हकीमी दवा तथा मुसलमानों से किसी तरह संपर्क रखने में घिन और चिढ़ थी, नंदू की कुछ चलती न थी। हकीम भी यह केवल नाम ही का हकीम था; हिकमत मुतलक न पढ़ा था । मुसलमानों में यह एक चलन है कि जो लोग कुछ पढ़े-लिखे होते हैं; और उन्हें कहीं कुछ जीविका का डौल न लगा, तो वे या तो हकीम बन जाते हैं, या मौलवी हो लड़कों को पढ़ा अपना पेट पालते हैं। पढ़ा-लिखा तो यह बहुत ही कम था: पर शीन-काफ का ऐसा दुरुस्त और बातचीत ऐसी साफ करता था कि कही से पकड़ न हो सकती थी कि यह मख है। तस्वी एकदम इसके हाथ से न छूटती थी। देखनेवाले तो यही समझते थे कि हकीम साहब बड़े दीनदार और खुदा-परस्त हैं, पर इस तस्वी से कुछ और ही मतलब निकलता था । तस्बी की गुरियों को जो वह जाहिरा में फेरा करता था, सो मानो इसकी गिनती गिना रहा था कि इतनों को मै अपनी चालाकी का शिकार बना चुका हूँ। तस्बी फेरते-फेरते जो कभी-कभी आँख मूंद लेता था, सो मानो बक-ध्यान लगा- कर यह सोचता था कि नए असामियों को अब क्योंकर चंगुल में लाऊँ।

नंदू बहुधा बड़े बाबू से हकीम साहब की तारीफ किया करता था। दो-एक बार अपने साथ ले भी गया । पर सिवा बंदगी सलाम और रामरमौअल के पहले के माफिक मुखातिब अपनी ओर तथा हकीम की ओर उन्हें न देख मन-ही-मन मसोस कर रह जाता, और चंदू को सैकड़ों गालियाँ दिया करता कि इस खूसट के कारण मेरा जमा-जमाया कारखाना सब उचटा जाता है।

अस्तु । एक रात को अचानके बाबू के पेट में ऐसा शूल उठा कि उन्हें किसी तरह कल न पड़ती थी। मारे पीड़ा के उनकी आँख निकली पड़ती थी, दाँत बेठे जाते थे। सब लोग घबड़ा गए । कई एक वैद्य और डाँक्टर बुलाए गए । दवाइयाँ भी चार-चार मिनट पर कई बार और कई किस्म की दी गई। पर दवाइयाँ तो कोई सजीवन बूटी हई नहीं कि गले के नीचे उतरते ही अमृत वन जायें । कितु अमीरी चोचलों में इतना सबर और धीरज कहाँ ? सब लोग दौड़-धूप में लगे हुए- जिसे जो सूझा-तदवीरें कर रहे थे कि हकीमजी को साथ लिए नंदू भी आया, और बोला-"हकीमजी, इस जून आपके उस अर्क की ज़रूरत है, जो आपने एक बार मुझे दिया था। जनाब, अर्क क्या है सजीवन मूल है, देखिए, कैसा तुर्त-फुर्त आपको राहत होती है।" हकीम बोला- "जनाब-आली, मुझे क्या उजर है। अल्लाहताला आपको सेहत दे।" उसके पहले नींद की दवा दी जा चुकी थी, औघाई आ रही थी कि इसी समय हकीम का वह अर्क भी दिया गया। अर्क पीने के बाद ही बाबू को नीद आ गई, रात-भर खूब सोया किए।

दूसरे दिन नंदू फिर आया, और बाबू को चगा देख बोला-"भैया, अब तक तो मैं जब्त किए था, कुछ नहीं कहता-सुनता था. आपको वह पंडित किसी समय ऐसा धोखा देगा कि जन्म-भर पछताते रहेंगे। ये अंडित-पंडित गँवर- दल होते हैं । ये हम लोगो की शाइस्तह जमात में कभी कदर पाने लायक हो सकते हैं ? उस अहमक ने तो कल आपकी जान ही ली थी। यह तो कहिए, हकीम साहब कल आपके लिये ईश्वर हो गए, जान बचाई. नही तो कुछ बाकी रह गया था ? हकीम साहब बड़े काविल आदमी हैं। मैं कहाँ तक उनकी तारीफ करूं। अब तो आपसे उनसे सरोकार हो चला है। दिनोंदिन ज्यों-ज्यों उनसे लगाव बढ़ता जायगा, आप उनकी सिफतों को पहचानेगे । खैर, आपको सेहत हो गई। यकीन जानिए: कल की रात हम लोगों की ऐसे तरद्ददुद में बीती कि जन्म-भर याद रहेगा। अच्छा, तो बंदगी, अब रुखसत होता हूँ। दोपहर तक फिर आऊँगा, और हकीम साहब को भी लेता आऊँगा।"

इसकी बातों का बाबू पर कुछ ऐसा असर पड़ा कि उसी दम से इनकी तबियत में चंदू की ओर से घिन हो गई, और जो कुछ क्रम इसमें सुधराहट और भलाई के आ चले थे, सब बिदा होने लगे। इन धूर्त चौपटों की बन पड़ी। बसंता भी इस समय तक जेल में छ महीने काट आ मिला। इन बाबुओं को ऐगुन की खान कर उन्हें अपना शिकार बनाने को पूरा अखाड़ा जमा हो गया। सच है-"संगत ही गुन ऊपजै, संगत ही गुन जाय ।"

ग्यारहवाँ प्रस्ताव

अवलम्बनाय दिनभर्तु रभून पतिप्यतः कर-
सहस्रमपि । ( भारवि )
(नीचे को गिरते हुए सूर्य की हजार किरणें भी उसको सँभाल न सकी।)

अनंतपुर की घनी बस्ती के बीचोबीच लंबे दो खंड का एक पक्का मकान था, यद्यपि यह मकान बड़ा लंबा-चौड़ा तो न था, पर चारो ओर से हवादार और ऐसे क्लिता का बना था कि रहनेवाले कोसिब ऋतु में आराम पहुंच सकता था। इस मकान के आगे के हिस्से में ऊँची पाटन का एक वसीह कमरा था, जिसकी दीवारें चटकीली सुफैदी पुती ऐसी घुटी हुई थीं, मानो संगमरमर की बनी हों। और, यह कमरा इस ढंग से आरास्ता था कि इसमें थोड़ी ही अदल-बदल करने से अँगरेजी ढंग का उमदा ड्राइंगरूम भी हो सकता था। बाहर से देखनेवाले समझते होंगे कि यह मकान बराबर ऐसा ही पुख्ता, वसीह और सुथरा होगा, किंतु इस बघमुँहे मकान में यह कमरा ही सबकी नाक था । इस कमरे के पीछे पाँव रखते ही ओकाई आने लगती थी, और दुर्गंध से नाक सड़ जाती थी।

हम पहले कह पाए हैं, हीराचंद के समय जो अनंतपुर काशी और मथुरा का एक उदाहरण था, वह इन बाबुओं के जमाने में दिल्ली और लखनऊ का एक नमूना बन गया । कुछ अरसे से इस मकान में एक ऐसे जीव आ टिके थे, जिनकी हुस्नपरस्तों के बीच उस समय अनंतपुर में धूम थी । यह कौन थे, कहाँ से आए थे, और कब से यहाँ आकर बसे थे, कुछ मालूम नहीं, न यही कुछ पता लगता कि किस वसीले से.यहाँ अनंतपुर-ऐसे छोटे कस्बे में यह आ रहे । यद्यपि दिल्ली, लखनऊ, कलकत्ता, बबई, लंदन, पेरिस आदि बड़े-बड़े नगरों में ऐसे जीवों की कमती नहीं है, हिंदू, मुसलमान, पारसी, यहूदी, कश्मीरी, आरमीनी, अॕगरेज इत्यादि हरएक क़ौम और जाति मे एक-से-एक चढ़-बढ़ के खूबसूरती और सौंदर्य में एकता हुस्नवाले सैकड़ों मौजूद हैं, पर यहाँ स्थान-भ्रष्ट के समान ऐसों का आ टिकना अल- बत्ता एक अचरज या कौतुक था । जो हो, यहाँ के लोग इसके निस्बत भाँति-भाँति की कल्पनाएँ कर रहे थे। कोई लखनऊ की बेगमातों में इसे मानते थे; कोई कहते थे 'नही-नही यह दिल्ली के शाही घरानों में से हैं"; किसी का ख्याल था यह कश्मीर से आई है इत्यादि ; और कोई इसे यहूदिन समझता था । वयक्रम इसका देखने में बाईस के ऊपर ओर पचीस के भीतर मालूम होता था। गोरा रंग, हीना से दामिनी-सी दमकती हुई इसके एक-एक सुडौल साँचे के ढले अगो पर सुंदरापा बरस रहा था। बातचीत, चाल-ढाल और वजेदारी से यह किसी अच्छे घराने की मालूम होती थी। इसको परदे में रहते न देख लोगों के मन में दृढ़ विश्वास जम गया था कि यह बंबई की कोई पारसिन या यहूदिन है । थोड़ा उर्दू-फारसी भी पढ़ी थी, इसलिये इसकी जबान साफ और शीन-क़ाफ दुरुस्त था। एक प्रकार की संजीदगी और शऊर इसके चेहरे की मिठास और सलोनापन के साथ ऐसी मिल-जुल गई थी कि देखने- वाले के लोचनों की इसे बार-बार देखने की ग्यास कभी बुझती ही न थी । यह अपने घने केश-जालो मे अलकावली की गूथन से तथा विकसित-पुडरीक-नेत्रों से वर्षा और शरत ऋतुओं का अनुहार कर रही थी । पद्मराग-समान लाल और पतले होंठ, गोल ठुड्डी, ऊँचा-चौड़ा माथा, कुद की कली-से दाँत, सीधी और बराबर उतार-चढ़ावदार सुग्गा के टोंट-सी या तिल के पुष्प-सी नासिका गोल कपोल, सुदर आँख, रेशम के लच्छे-से सिर के बाल, सब मिल इसके चेहरे पर एक अनोखी छवि दरसा रहे थे। यह अपने को हुमा वेगम के नाम से प्रसिद्ध किए थी। यह हुमा केवल खूबसूरती और शऊर में ही एकता न थी, कितु गाना- बजाना इत्यादि कई तरह के हुनर में भी अपनी सानी न रखती थी।अनंतपुर-ऐसे छोटे-से कस्बे में तो इस कोकिलकठी के सौंदर्य और गाने की धूम थी।यद्यपि यहाँ के छोटे-बड़े रईस सभी इसके मुश्ताक हो रहे थे, कितु नंदू तो इस पर तन-मन से लट्टू था।अपने मामूली काम-काज से फुरसत पाते ही वहाँ पहुँचता था । हुमा भी, जो शऊर और ढंगदारी में पल्ले दर्जे की चालाक थी, इसकी नस-नस पहचान गई थी, और इसे अपना खेलौना बनाए थी।अस्तु।उच्च पद से नीचे गिरते हुए मनुष्य की हजार-हजार तदबीर सब व्यर्थ होती है । सूर्य जब डूबने लगता है, तो उसे हजार किरने सब एक साथ थामती हैं, पर वह नहीं रुकता, इसी तरह डूबते हुए इन बाबुओ को सम्हाल रखने को चंदू तथा रमा ने कितनी-कितनी तदबीरे और यतन किए, कितु एक भी कारगर न हुए, अत को विष की गाँठ-सी यह हुमा ऐसी यहाँ आ बसी कि नंदू-सरीखे कुढगियों को अपने ढंग पर इन बाबुओं को दुलका लाने और गढ़कर अपना ही-सा बना देने के लिये मानो औजार हुई। मसल है "एक तो तित लौकी, दूसरे चढी नीम" ये बाबू लोग तो यों ही यौवन और धन के मद से अंधे हो रहे थे । चंदू-सरीखें चतुर, सयाने, प्रवीण के उपदेश का बीज लाख-लाख तरह पर उलटी-सीधी बात सुझाने से कभी-कभी जम आता था, तो चारो ओर से दुःसंग ओले के समान गिर उस टटके जमे हुए अंकुर का कहीं नाम और निशान भी न रहने देते थे । इसी दशा में रूप-राशि हुमा ने अपने रूप का ऐसा गहरा जादू इन पर छोड़ा कि अब फिर सम्हलने की कोई आशा न रही । पर चंदू इनकी ओर से सर्वथा निराश न हुआ था, यह इन्हें बार-बार सीधी राह पर लाने की फिकिर में लगा ही रहा । सौ अजान में एक सुजान पर ध्यान जमाए हमारे पाठक यदि हमारे साथ ऐसे ही धीरे-धीरे चले चलेगे, तो अंत को एक बार चंदू को कृतकार्य होते पावेंगे।

बारहवाँ प्रस्ताव

धूतैर्जगहच्यते
(धूर्त लोग संसार को ठगते है)

अनंतपुर में छोटे-छोटे मुक़दमों की काररवाई के लिये तीसरे दरजे की मुंसिफी, तहसीली की कचहरी और पुलिस का एक थाना के सिवाय और कुछ न था। फौजदारी तथा दीवानी के जो कोई भारी और पेचीदा मुक़द्दमें होते थे,सब वहाँ के जिले की कचहरी लखनऊ में भेज दिए जाते थे। हाल में एक मुसिफ सुकर्रर होकर आए थे। यह कौन थे, क्या इनका मजहब था, कुछ पता न लगता था; कितु अपने रंग-ढग से नेचरिए जाहिर होते थे। पोशाक इनकी बिलकुल अँगरेजी वजा की थी, यहाँ तक कि कभी-कभी अँगरेजी टोपी (हैट) भी इस्तेमाल करते थे; खाने-पीने में भी इन्हें किसी तरह का परहेज़ न था, पैदाइश के तो हिंदू ही थे पर यह नहीं मालूम कि इनकी क्या जाति थी। कोई इन्हें कश्मीरी समझता था कोई इस समय के तालीमयाफ्ता पढ़े-लिखे लालाओं में मानता था। डाढ़ी और चुटिया दोनो इनके न थी, रंग भी गोरा था, इसलिये जियादह लोगों की यही राय थी कि यह कोई हाफकास्ट केरानी या योरपियन है। पंडित या वावू की उपाधि से इन्हें बड़ी चिढ़ थी, यह साहब बनने और अपने नाम के आगे मिस्टर लिखने की चाल बहुत पसंद करते थे, और अपने दोस्तों से इस बात की ताकीद भी कर दी थी। यह मिजाज या बर्ताव में अपने को सुशिक्षितों के सिरमौर मानते थे, पर दिल पर सुशिक्षा का असर पहुंचा हो, इसका कहीं कुछ लेश भी न था। चालाकी में अच्छे-खासे पट्ठे थे, दस-पंद्रह वर्ष मुंसिफ और सदराला रह कही कुछ थोड़ा- बहुत नीचा खाकर वल्कि पिट-पिटाकर भी आठो गाँठ कुम्मैद हो चुके थे । भाँड़ों की नकल है कि दो सौ जूते खाकर भी इज्जत न गँवाई । अपना रग जमाने में तथा पाकेट गरम करने के फन मे यह पूरे उस्ताद गुरुओ के भी गुरु थे, बल्कि यह ऐसे ही लोगों का कौल है कि ऐसा बलद इख्तियार हासिल कर जिसने दियानतदारी की, और फूँक-फूँक पाँव रखता हुआ कोरे-का-कोरा बना रहा, उसे चुल्लू-भर पानी में डूब मरना चाहिए। ऐसे लोग इसकी दो वजह कहते हैं–एक तो सियाह-सुफैदी का कुल इख्तियार हाथ मे आना, दूसरे बमुकाबिले अँगरेजों के, जो छोटे-से-छोटे ओहदे पर डेढ़ हज़ार-दो हज़ार महीने में तनख्वाह सहज में फटकारा करते हैं, हम जो जन्म-भर नौकरी कर लियाकत का जौहर दिखलाते हुए बराबर नेक नाम रह बुड्ढे होते-होते पाँच सौ-छ सौ महीने में पाने लायक समझे गए, तो इतने में होता ही क्या है, इतना तो हमारे शराब-कवाब का खर्च है। ऐसे लोगों की, जो अपने गुनों में सब तरह भरे-पूरे हैं, किसी नए जिले में पहुंचते ही पहली बात सरिश्ते की जाँच और मातहतों पर तंदीही करना है। जिन्हें अपने काम में बर्क और जाँच की कसौटी में कसने पर खरे और बेलौस पाया, उन्हें तबदील या मौकूफ़ करने की फिकिर मे लगे। यह सब इसलिये करते हैं, जिसमें ऊपर के हाकिमों को सबूत हो जाय कि यह दफ्तर की सफाई और अपने सरिश्ते का काम दुरुस्त रखने में बड़ा निपुण है। निश्चय जानिए यह सब उसी से बन पड़ेगा, जो कलम का जोरावर, जबान का तर्रार और हिम्मत का दबंग हो। जो ऐसा नहीं है, बोदा और लियाकत में खाम है, वह पाकेट गरम करने में भी सदा डरा करेगा, उसे चालाकी के खुल जाने का खौफ हमेशा दामनगीर रहेगा। पहले वर्ष-छः महीने भीतर-भीतर उस जिले का हाल दरियाफ्त करेगे कि यहाँ कौन- कौन रईस हैं, किस हैसियत के मुकदमे लड़नेवाले हैं, क्या उनकी चाल चलन है, किस तरह की उनको सोहबत है, क्या काम उनके यहाँ होता है, इत्यादि-इत्यादि। किसी छोटे वकील को अपने इजलास में बड़ा रखना भी एक ढंग ऐसे लोगों का रहता है। अस्तु। हमारे उक्त मुसिफ साहब यह सब भरपूर समझ-बूझ गए थे, और अब इस समय डेढ़ वर्ष के ऊपर यहाँ जमे इन्हें हो भी गया था। उनके जिले-भर में जो जहाँ जैसे छोटे-बड़े ताल्लुकेदार, रईस तथा सेठ, साहूकार, महाजन थे, सब इनकी निगाह पर चढ़ गए थे। उन्हीं में ये दोनो बाबुओं का भी सब कच्चा हाल दरियाफ्त किए हुए यही ताक में थे कि किसी तरह कोई मुकद्दमा इन बाबुओं का दायर हो। दो-एक मुलाकाते भी उनकी इनसे हो चुकी थीं, तोहफे और नजर-भेंट की चीजे तो अक्सर आया ही करती थीं। नंदू, जिसे बाबुओं ने थोड़े दिनों से अपना मुख्ताराम कर रक्खा था, मुंसिफ साहब तक बाबुओं की रसाई करा देने का एक जरिया था। मसल है "चोरै चोर मौसियायत भाई"। इधर ये तो कुछ अपनी गौं में थे कि यह बड़े आला रईस के घर का गुर्गा है, इसके जरिए मनमाना माल कट सकता है, उधर नंदू अपनी ही घात में था कि ऐयाशी का चस्का तो इसे लगा ही है, किसी तरह इस मरदूद को भी बाबुओं की भाँति अपने चंगुल में फंसा ले। तब क्या, हमी हम देख पड़े, और अवध में बड़े-से-बड़े नवाबों से मेरा रुतबा और ठाठ कुछ कम न रहे। बस, यही हुमा बेगम इसके लिये भी काफी होगी। इसी नियत से यह अक्सर किसी-न-किसी बहाने लखनऊ में महीनों आकर टिका रहता था, और मुसिफ साहब से रफ्त-जप्त भी खूब पैदा कर ली थी। यहाँ अपनी गैरहाजिरी में हकीम साहब से खूब ताकीद कर दिया था कि वह बाबुओं के रहन- सहन और चाल-चलन को अच्छी तरह, चौकसी के साथ, देखते रहें, क्योंकि उसे, यह डर बनी ही रही कि कहीं ऐसा न हो कि चंदू फिर कोई उपाय बाबुओं को ढंग पर लाने का कर गुजरे और उसका जमा-जमाया सब खेल उचट जाय। इस बीच यहाँ हकीम साहब से बड़े बाबू साहब की वेहद घिष्ट-पिष्ट बढ़ गई, दिन-दिन-भर रात-रात-भर बाबू गायब रहते थे। बाबू, हकीम और नंदू, ये तीनो हुमा के ऐसे भक्त हो गए कि रातोदिन उसकी उपासना मे लगे रहा करते थे। पर इसमें मुख्य उपासना बाबू ही की थी, क्योंकि वे दोनो तो मानो भारे के टट्टू-से थे, उपासनाकांड का पूरा दारमदार केवल बाबू ही पर आ लगा था। उधर छोटे बाबू की एक निराली ही गुट्ट कायम हो गई और दोनो मिलकर आवारगी में औवल दरजे की सार्टीफिकेट के बड़े उत्साही कैंडिडेट हो गए। हम ऊपर कह आए हैं, बड़े बाबू को चिट्ठी-पत्रियों पर दस्तखत करना भी बहुत जन होता था। कोठी तथा इलाकों का सब काम मुनीम, गुमास्ते और कारिदों के हाथ में आ रहा। बहती गंगा मे हाथ धोने की भाँति सभी अपना-अपना घर भरने लगे। नंदू मालामाल हो गया, क्योंकि हुमा की फरमाइशे इसी के जरिए मुहैया की जाती थीं और वहाँ का कुल हिसाब-किताब सब इसी के सिपुर्द था। यद्यपि बाबू की हुमा से रसाई कराने का खास जरिया हकीम हा था, पर इसके हाथ केवल ढाँक के तीन पत्ते रहे। कारण इसका यही था कि नंदू जात का बकाल रुपए को अपनी जिंदगी का सर्वस्व माननेवाला महा टच बनिया था, रुपए की कदर समझता था, और यह इसका सिद्धांत था कि मान, प्रतिष्ठा. बड़ाई. शील, संकोच, मुलाहिजा सब रुपए के अधीन है। उसमे यदि हानि होती हो, तो उमदा-उमदा सिफ्ते और बड़े-बड़े गुन भार में झोंक दिए जायँ–

अर्थोऽस्तु नः केवल–येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ।
(हमे केवल धन चाहिए, जिस एक के बिना जितने गुण हैं, सब तिनके के समान हैं।)

इधर हकाम एक तो मुसलमान, दूसरे पुराने समय की अमीरी की बू मे पगा हुआ था, घर में भूँजी भाँग भी चाहे न हो, पर जाहिरा नुमाइश नवाबो ही की-सी रहना चाहिए। हकीम साहब, जो दाने-दाने को मुहताज थे, बाबू की बदौलत अमीरो के-से सब ठाठ-बाट और ऐश-आराम मे गर्क हो गए।

बाबुओं का सवाई डेहुड़ा खर्च हकीम साहब का हो गया। जोड़ने की कौन कहे, कर्जदार रहा किए। दूसरी बात हकीम साहब के यह भी जिहननशीन थी कि हुमा की यह सब कमाई जो इस समय बाबू को फंसा बेशुमार माल चीर रही है, वह भी तो आखिर मेरी ही है ; क्योंकि सिवा मेरे हुमा के और दूसरा है कौन, हुमा भी जाहिरा में तो हकीम से कुछ सरोकार न रखती थी, पर भीतर-भीतर दोनों एक ही थे। दोनो के सूरत- शकल में भी एक ऐसा मेल था कि ताड़बाजों के लिये बहुत कुछ शक करने की गुंजायश थी। रमा अपने दोनो लड़कों के कुढंग से सोने का घर मिट्टी होते देख भीतर-ही-भीतर चूर-चूर थी, खाना-पीना तक छोड़ दिया, और दुबलाकर लकड़ी-सी हो गई थी। सौ-सौ तदबीरें उनके सम्हलने की कर थकी. पर इन दोनो को राह पर आते न देख जहाँ तक हो सका कार- बार सब तोड़ बैठी। बाहर की दूकानें सब उठा दिया, केवल उतना ही मात्र रख छोड़ा जिसे वह अपने आप सम्हाल सकती थी, और जिसे इसने देखा कि उठा देने से बड़े सेठ हीराचंद के नाम की हलकाई होगी, और उसके स्थापित ठौर-ठौर धर्म- शाला, पाठशाला सदाबत इत्यादि का खर्च न सट सकेगा। दूसरी बात रमा को यह भी मालूम हुई कि एक चंदू को छोड और जितने लोग पुराने पुराने इस घर के असरइत थे, सबों ने, किसी को सम्हालनेवाला न पाकर. जिससे जहाँ जितना लूटते-खाते बना, मनमानता लूटा-खाया; मानो ये लोग सेठ >के घराने के बिगड़ने के लिये उलटी माला-सी फेर रहे थे। चंदू अलबत्ता बाबुओं को राह पर लाने की फिकिर मे लगा ही रहा। छिपा-छिपा रोज-रोज का इन दोनो का सब रंग-ढंग तजवीजा किया, और अपने भरसक छल-बल-कल से न चूका, जब-तब आकर रमा को भी ढाढ़स दे जाता था। रमा का मन तो यद्यपि इन लडकों की ओर से बिलकुल बुझ-सा गया था, पर यह अब तक हिम्मत वाँधे था कि इन दोनो को राह पर एक दिन अवश्य ही लाऊँगा, किंतु जब तक ये गदहपचीसी के पार न होंगे, और नई उमर का तकाजा ज्वर के समान चढ़ा रहेगा, तब तक इनका ढंग से होना दुर्घट है। उसे विश्वास था कि यदि बडे सेठ साहब की सुकृत की कमाई है, और वह सिवाय भले कामों के मन से कभी किसी बुरी बात की ओर नहीं गए, तो संभव नहीं कि उनकी औलाद पर उस भलाई का असर न पहुँचे। यह कहावत कि 'बाढ़ै पूत पिता के धर्मे" कभी उलटी होगी ही नहीं। चंदू इसी फिकिर में था कि किसी तरह नंदू से बाबुओं का लगाव छूट जाता, तो इन दोनों का ढंग से हो जाना कुछ कठिन न होता। इधर नंदू भी मन में खूब समझे हुए था कि यह पंडित मेरा पक्का दुश्मन है । यह यहाँ का रहनेवाला नहीं, एक अजनवी परदेशी ने ऐसा कदम जमा रक्खा है कि बड़ी सेठानी बहू मा जो यह कहता है, वही करती हैं ; नहीं तो जैसा मैंने बाबू को काठ का उल्लू बनाय अपने ताबे में कर छोड़ा था, वैसा ही रमा बहू को भी, स्त्री की जाति हैं, मुट्ठी में करते क्या लगता था । इसलिये इसे चंदू से मेरे जी में हर तरह पर खटका है, क्या जानिए यह एक दिन मेरी सब चालाकी बाबू . के जी में नक्श करा दे। खैर, देखा जायगा; अब तो इस समय हीराचंद की कुल दौलत और राज-पाट सब मेरे हाथ में है, अभी तो जल्द बाबू का वह नशा उतरनेवाला है नहीं, तब तक में तो मै कुल दौलत सेठ के घराने की खींच लूँ गा; पीछे से ये दोनो लड़के होश मे आ ही के क्या करेंगे।

सच है, धूर्त और कुटिललोगों की कार्रवाई का लखना बड़ा ही दुर्घट है । कोई निरालाही तत्त्व है, जिससे वे गढ़े जाते हैं। ऐसों की जहरीली कुटिल नीति ने न जानिए कितनों को अपने पेच में ला जड़-पेड़ से उखाड़ डाला । इसलिये जो सुजान हैं, वे ही उनकी कुटिलाई के दाँव-पेंच से बचे हुए अपनी चतराई के द्वारा दूसरों को भी अँधियारे गड्ढे में गिरने से रोक लेते है।

तेरहवाँ प्रस्ताव

योऽर्थे शुचि:स शुचिर्न मृद्वारिशुचि:शुचि।
(जो रुपए-पैसे के मामले मे शुद्ध या ईमानदार है, वे ही पवित्र या ईमानदार है। मिट्टी और जल से बार-बार हाथ-धोकर जो अपने कोपवित्र करते हैं, वे पवित्र नही है)

यह हम अपने पाठकों को प्रकट कर चुके हैं कि हमारे इस उपन्यास के मुख्य नायक दोनो बाबू बहुत-सा फिजूल खर्च करते-करते अब संकीर्णता में आने लगे। कहा है- भक्ष्य-माणो निराधानः क्षीयते हिमवानपि" संचय न किया जाय, और रोज उसमें से ले-लेकर खर्च हो, तो कुबेर का खजाना भी नहीं ठहर सकता, तब बड़े सेठ हीराचंद की संपत्ति कितनी और कै दिन चलती। जिस तालाब में पानी का निकास सब ओर से है, आता एक ओर से भी नहीं, तो उसका क्या ठिकाना। बाबुओं को अब खर्च का तरद्दुद हर जून रहा करता था, और इसी चिंता में रहते थे कि किसी तरह कहीं से कुछ रकम हाथ लगे। अस्तु ।

अनंतपुर मे नंदू के मकान से सटा हुआ कच्चा-पक्का एक दूसरा घर था । चूना-पोती कबर के माफिक यह घर बाहर से तो बहुत ही रँगा-चुंगा और साफ था, पर भीतर से निपट मैला, गंदा और सब ओर से गिरहर था । अब थोडा इस घर के रहनेवाले का भी परिचय बिना दिए हमारे प्रबंध की शृखला टूटती है । यह घर बाहर से जो ऐसा रँगा- चुँगा और भीतर श्मशान-सा शून्यागार था, इसका कुछ और ही मतलब था। और, वह मतलब आपको तभी हल होगा, जब आप मालिक मकान से पूरे परिचित हो जायँगे। मालिक मकान महाशय को आप कोई साधारण जन न समझ रखिए। फितनाअंगेजी और उस्तादी मे यह बड़े-बडे गुरुओं का भी गुरू था । अनंतपुर के सब लोग इसे उस्तादजी कहा करते थे। हमारे पढ़नेवाल नंदू के चाल-चलन और शील-स्वभाव से भरपूर परिचित हो चुके हैं, पर वह चालाकी में इसके पसंगे में भी न था । नंदू इसे चचा कहा भी करता था । सकल- गुणवरिष्ठ हकीकत में यह चचा कहलाने लायक था । नाम इसका बुद्धदास था, और जैन धर्म-पालन में अपने को बड़े- बड़े श्रावकों का भी आचार्य समझता था। साँस लेने और छोड़ने में जीव-हिंसा न हो, इसलिये रातोदिन मुंह पर ढाठा बाँधे रहता था, पर चित्त में कहीं दया का लेश भी न था। पानी चार बार छानकर था पर दूसरे की थाती समूची-की- समूची निगल जाता था डकार तक न आती थी। दिन में चार बार मंदिर में जाता था, पर मन से यही बिसूरा करता था कि किस भाँति कही से विना मेहनत, बेतरदुद, डले-का-डला रुपया हाथ लग जाय । साथ ही यह भी याद रखने लायक है कि आप निर्बसी थे ; आगे-पीछे आपके कोई न था ; कृपण इतने थे कि चार रुपए महीने में गुजर करते थे। जाहिरा में दस-पाँच रुपया पास रख घड़ी-दो घड़ी के लिये टाट बिछाय बाजार में जा बैठते थे, और पैसों की शराफी अपना पेशा प्रकट किए थे, पर छिपी आमदनी इसकी कई तरह की ऐसी थी कि उसका हाल कोई-कोई बिरले ही जानते थे। अनंतपुर में तो नंदू-ऐसे दो ही एक इसके चेले थे, किंतु लखनऊ के चालाक और उस्तादों में इसकी धूम थी। भेख छिपाए दो-एक परदेशी इसके फन के मुश्ताक टिके ही रहते थे। यह अपने को कीमियागर प्रसिद्ध किए था ; पढ़ा-लिखा एक अक्षर न था, पर खुशनवीसी मे ईश्वर की देन उस पर थी। मानो इस फन को यह मा के पेट से ले उतरा था। किसी भाषा का कैसा ही बदखत या खुशखत लेख हो, यह जैसे-का- तैसा उतार देता था। दस रुपए सैकड़ा इसकी उजरत मुकर्रर थी, अर्थात् दस्तावेज वगैरह सौ रुपए का हो, तो उसकी बनवाई यह दस रुपया लेता था, दो सौ का हो, तो बीस, यों ही सौ-सौ पर दस बढ़ता जाता था । और बहुत-से फन इसे याद थे, पर उन सबों के जिकिर से हमें यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । बुद्धदास शोकीन और तरहदारों में भी अपना औवल दरजा मानता था। उमर इसकी ४० के ऊपर आ गई थी। दाँत मुँह पर एक भी बाकी न बचे थे तो भी पोपले और खोड़हे मुँह में पान की बीड़ियाँ जमाय, सुरमे की धजियों से आँख रँग, केसरिया चदन का एक छोटा-सा बिदा माथे पर लगाय, चुननदार बालावर अगा पहन, लखनऊ के बारीक काम की टोपी या कभी-कभी, लट्टूदार पगड़ी बाँध जब बाहर निकलता था, तो मानो ब्रज का कँधैया ही अपने को समझता था । होठ बड़े मोटे, रग ऐसा काला, मानो हब्श देश की पैदाइश का कोई आदमी हो, आँख घुच्चू-सी, गाल चुचका, डील ठेगना, बाल खिचड़ी उस पर जुल्फ, गरदन कोतह, मुँह घोड़े का-सा लबा, शैतानी और फसाद तथा काइयाँपन इसके एक-एक अग से बरसता था। यह विष की गाँठ अनंतपुर का रहनेवाला न था ; थोड़े दिनों से यहाँ आकर बसा था । कहा है-"समानशीलव्यसनेषु सख्यम्" नंदू और यह दोनों एक-से शील-सुभाव के थे, और नंदू की इससे पटती भी खूब थी, इसलिये अचरज क्या कि उसी ने इसे कहीं बाहर से बुलाकर अपने घर के पास ही टिका लिया था। इसे नंदू चचा कहता था, इससे मालूम होता है, कदाचित् कोई घर का रिश्ता भी इससे रहा हो ! नंदू भी, जो चालाकी में एकता था, इस घात से इसे और टिकाए था कि इसके दूसरा कोई और था ही नहीं, अंत को इस वज्र कृपण का धन सिवा मेरे कौन पा सकता है ! जो हो, एक रात को नंदू ने आकर इसका किवाड़ खटखटाया । इसने चुपके से आय किवाड़ खोल दिया। दोनो भीतर चले गए, और किवाड़ बंद कर लिया। नंदू बोला-"चचा, बड़े बाबू ने आज आपको उस मामले के लिये याद किया है–आपकी उजरत कौड़ी ऊपर दिलवाऊँगा ।" यह बोला–"उजरत की कौन-सी बात है । मुझे तुमसे या बाबू से किसी तरह पर इनकार नहीं है।"

चौदहवाँ प्रस्ताव

बह-वह मरैं बैलवा, बैठे खायँ तुरंग।

पाठक जन, आप लोगों को याद होगा, हमारे इस किस्से के पहले प्रस्ताव का पहला दृश्य एक घुड़सवार था, जो आधी रात के समय काग़ज़ का एक पुलिंदा लिए आया था और दरवाजे का फाटक खुलवाय पुलिंदा दे चला गया था। हमारे पढ़नेवालों को अवश्य इस बात के जानने की रुचि हुई होगी कि यह कागज का पुलिदा क्या था, और क्यों ऐसा ताबड़तोड़ मँगाया गया।

हम ऊपर कह आए हैं, सेठ हीराचंद का अनंतपुर मे एक बहुत पुराना घराना था । हीराचंद से पाँच पुश्त पहले इसके पुरखों में से एक कोई मानिकचंद नाम का, घर से पाँच कोस पर अपने ही नाम का एक गाँत्र बसाय. बाग, बागीचा, कुआँ, तालाब, रमने इत्यादि कई एक रमणीक सजावटों से इस स्थान को अत्यंत मन रमानेवाला कर आप वहीं जाय रहने भी लगा। उपरांत इसके कई एक लड़के-लड़कियाँ, पोते-परपोते हुए, और यह सब भाँति रँजा- पुजा होकर संसार में भाग्यवानी की सीमा को पहुँच गया था; बल्कि बीच में हीराचंद के घराने की बड़ी अवतरी आ गई थी, यह तो हीराचंद ही ऐसा भाग्यवान् पुरुष हुआ कि पहले से भी अधिक इस घराने को चमका दिया । मानिकपुरवाले सेठों का तो कोई नाम भी न जानता था, पर हीराचंद का विमल यश चहूँ ओर छाया था। जिस समय का हाल मैं लिखता हूँ, उस समय मानिक- चंद के घराने में बची-बचाई पुरानी दौलत तो थोड़ी- बहुत रह गई थी, पर उसका सुख विलसनेवाला कोई न रहा । ७० वर्ष का एक बुड्ढा बच रहा ; जैसे किसी हरे-भरे बाग़ के उजड़ जाने पर उसमें कटीले पेड़ का एक ठूठँ बच रहे। मानिकपुर भी उजड़कर कसबे से एक छोटा-सा पचास घर का पुरवा रह गया। सिवाय इस बुड्ढे के मानिकचंद की लड़कियों के संतान में भी एक आदमी बच रहा था । नाम इसका मिट्ठल, मानो नहूसत और दरिद्रता का एक पुतला था। इस बुड्ढे के घर से अलग एक दूसरे कच्चे मकान में यह रहा करता था। शकल से महादिहाती ग्रामीण मालूम होता था। न केवल सूरत ही शकल से यह दिहाती था, वरन् शऊर और ढंग भी इसके सब दिहातियों के से थे। दस-पाँच बिगहे की खेती करता था, और वही इसकी आजीविका थी। कभी-कभी अर्थ-पिशाच वह बुड्ढा भी इसकी कुछ सहायता कर देता था। रिश्ते में वह उसका भानजा लगता था । नाम इस यक्षवित्त कृपण बुड्ढे का धनदास था। धनदास कुछ तो बुढ़ापे के कारण, जब कि और सव इंद्रियाँ शिथिल हो केवल तृष्णा और लोभ ही को विशेष बढ़ा देती हैं, और कुछ इस कारण से भी कि इसकी बारी फुलवारी बिलकुल उजड़ गई थी, ठूठँ-सा अकेला आप ही बच रहा था, लड़के, पोते, नाती, अपनी स्त्री तक को इसने फूँके तापा था, इसलिये इसका जी सब भाँति बुझ गया था, और कभी किसी बात के लिये हौसिला ही नहीं उभ- ड़ता था। साँप-सा खाट बिछाए उसी संदूक के पास पड़ा रहता था, जिसमें इसके सब काग़ज, पत्र, रुपया पैसा, नोट इत्यादि रक्खे हुए थे। सिवाय थोड़ी-सी पुराने फैशन की फारसी के और कुछ पढ़ा-लिखा न था, न इसे कभी किसी सभ्य नमाज में शरीक होने या अच्छे सभ्य लोगों से मिलने का मौका मिला था। वेईमानी या ईमानदारी से जैसे बन पड़े केवल रुपया जमा होता चला जाय, इसी को यह बड़ी पंडिताई, बड़ी चतुराई, बड़ा धर्म समझे हुए था। इस दशा में मनुष्य को उदार भाव कहाँ से आ सकता है। न जानिए कितनों की तो इसने थाती पचा डाली थी, इन्हीं कारणों से इसके लिये अर्थपिशाच की पदवी बहुत सुघटित बोध होती है। सत्तर वर्षे का हो ही गया था एक-एक अंग पलित और जीर्ण हो चले थे, रोगग्रसित रहा करता था। अचानक एक साथ ऐसा बीमार हो गया कि विलकुल खाट से लग गया, और मालूम होता था कि दो ही एक दिन में इसका वारा-न्यारा हुआ चाहता है। इसकी बीमारी की खबर वावुओं को पहुंची। खवर पाते ही इन दोनो के जी में खलबली पड़ी। इसलिये नहीं कि बुड्ढा बीमार है. चलकर उसकी कुछ सेवा-टहल करें, या दवा-दारू की कुछ फिकर करे बल्कि इसलिये कि जल्द चलकर जो उसके पास माल-मताल है. उसे जैसे हो अपने कब्जे में लाये। चलती बार नंदू भी इनके साथ हो लिया। दोनों का चोली-दामन का साथ था भला यह क्योंकर वावुओं को छोड़ अपनी चालाकी से चूकता, और बाबू को भी इसके विना कहाँ कल पड़ सकती थी। दो-एक दिन तो धनदास बहुत ही बुरी हालत में रहा ; लोग अगुलियो घड़ी और लहमा गिन रहे थे कि इसकी हालत कुछ सुधरने लगी। दो-तीन दिन तो पड़ा रहा, उपरांत बोला भी और कुछ खाने के लिये इसने इच्छा प्रकट की। बाबू इसे चंगा होते देख मन में बड़े उदास हुए, सब उम्मीदें जाती रहीं, और जो बात सोच रक्खी थी एक भी न हो सकी ; पर ऊपर से ऐसी लल्लो-पत्तो और चुना-चुनी करते जाते थे कि धनदास को किसी तरह पर यह विश्वास न हुआ कि यह मेरा अनिष्ट सोच रहा है, और मेरे साथ कुछ खेल खेला चाहता है। इसके बाद भी अपनी दुरभिसंधि छिपाने को बाबू दो-एक दिन वहाँ रहकर धनदास से बिदा हुए, और नंदू को वहाँ ही छोड़ गए। भीतर-भीतर इशारा तो कुछ और ही था, पर ऊपर से धनदास के सामने नंदू से कहा– "नंदू बावू. मैं तो अब जाऊँगा, पर तुम चचा साहब की अच्छी तरह फिकर रखना। देखो, इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो। इनके पथ्य और इलाज इत्यादि की तद- वीर रखना।" और धनदास से बोला-'चाचा साहब, क्या करूँ, मै बड़ा लाचार हूँ। मेरे न रहने से कोठी तथा इलाकों का सब कारबार बंद होगा । मै नंदू बाबू को छोड़े जाता हूँ, यह मेरे बड़े रफीक हैं, आपकी सेवा-टहल की सब फिकिर रक्खेगे, और किसी तरह की तकलीफ आपको न होने पावेगी । मै घुड़सवार एक हलकारे को छोड़े जाता हूँ, जब आपको किसी बात की जरूरत आ पड़े, तुरंत इसे भेज मुझे इत्तिला देना।" यह कह बुड्ढे को सलाम कर यह वहाँ से बिदा हुआ। नंदू , जो चालाकी मे पूरा उस्ताद था और अपने को इसमें एकता समझता था, ऐसे ढंग से रहा और ऐसी सेवा-टहल की कि धनदास का यह बड़ा विश्वसित हो गया। यहाँ तक कि इसने अपनी ताली-कुंजी सब इसके सिपुर्द कर रक्खा। अपने पुराने नौकरों की भी बात न मान जो यह कहता वैसा ही धन- दास करने लगा। एक तो बूढ़ा था, दूसरे बीमारी के कारण चिरचिरा हो गया था। नंदू को यह एक बड़ी हिकमत हाथ लगी कि जब इसे किसी पर झुंझलाते और चिरचिराते देखता, तो इश्तियालक देने की भाँति दो-एक कोई ऐसी बातें , कह देता कि इसकी चिरचिराहट और चौगुनी बढ़ जाती थी । जिस पर यह झुँझला उठता था, उसकी मानो शामत आई । और, इस झुंझलाहट में वह चिल्लाता था, रोने लगता था, यहाँ तक कि मूड़ भी पीट डालता था। ऐसे मौके पर नंदू को अपनी खैरख्वाही जाहिर करने का मौका मिलता था। निदान यह बुड्ढा विलकुल सठिया गया । होशहवास भी दुरुस्त न रहते थे। मृत्यु के दिन समीप होने के जितने लक्षण होने चाहिए, सब इसमें आ गए । इस प्रकार के कृपण, कदर्य जीवन से जीनेवालों का यही तो परिणाम होता है, जो मानो आदमी के भले-बुरे होने की बड़ी भारी परख है। सुकृती मनुष्य की मरण-अवस्था ऐसी सुख की होती है कि किसी को मालूम नहीं होता कि कब उसके चोला से जान निकल गई; आनन-फानन पलक भँजते-भँजते शरीर से उसके प्राण की यात्रा होती है। वह दुष्कृती, जैसा यह बुड्ढा था, महीनों तक पड़े अनेक, यातना और यंत्रणा भोगते हैं, पर प्राण-वियोग शरीर से नहीं होता।

एक दिन रात को यह कहरता-कहरता सो गया, और इसके सब पुराने नौकर भी नींद के बस हो गए कि नंदू ने ताली का गुच्छा, जो इसकी तकिया के नीचे रक्खा रहता था, धारे से खींच वह संदूक जिसे धनदास अपना प्राण समझता था, आहिस्ते से खोल, काग़ज़ का पुलिंदा उसमें से निकाल लिया, और संदूक फिर बंद कर ताली वैसे ही तकिया के नीचे रख दिया। इसने पुलिंदा उसी अहल्कारे को दिया और कहा-"तुम अभी जाकर इस पुलिंदे को बाबू साहब को दे आओ, पर खबरदार होशियार रहना, यह बड़े काम का कागज़ है, इसमें से कोई भी गिर जायगा, तो बड़ा हर्ज होगा।" अहल्कारा सलाम कर पुलिंदे को अपनी कमर में कस रवाना हुआ। नंदू भी जाकर चुपके सो रहा, पर अपनी इस अभिसंधि में कृतकार्य होने की खुशी में देर तक इसे नींद न आई, सोचता था "लाखों की जायदाद मालमताल अब मेरे बाबुओं को बेखरखसे हाथ लग जायगी, बाबू से चहारुम मेरा ठहर गया ही है, तब क्या हमीहम कुछ दिनों में देख पड़ेंगे। चहारुम क्या, यह बिलकुल माल मैं अपना ही समझता हूँ, क्योंकि बाबुओं को तो मैने अपने जाल में फंसा ही रक्खा है। बाबू के पास जो कुछ है, उसके सब कर्ता-धर्ता सिवाय मेरे दूसरा है कौन। हा ! हा ! हा ! मैं भी अपने फन में क्या ही उस्ताद हूँ, कैसे अपनी डाँक जमा रक्खी है कि अब बाबू के दरबार में मैं-ही-मैं हूँ। उस उजड्ड पंडित चंदू ने हरचंद चाहा, कितना ही फटफटाया, पर उसकी एक भी दाल न गली। सब तरह पर बाबुओं को मैंने अपनी मूठी में करी तो लिया। छि.! यह पडित भी अहमकों की जमात का एक नमूना देख पड़ा ; बदतमीजी की यह बानगी है, मानो शऊर और समझ के चश्मे पर बड़ा भारी पत्थर का ढोंका रख दिया गया हो। खूबी यह कि कौड़ी-कौड़ी मात हो रहा है, फिर भी अब तक अपनी शरारत से बाज नहीं आता। मै भी मौका तजवीज रहा हूँ, बचा को ऐसा फँसाऊँगा कि अब की बार जड़-पेड़ से उखाड़ डालूँगा, और अनंतपुर में कहीं इसका निशान भी न रह जायगा। मैंने एक बार पहले भी संदूक को खोला था, ताकि देखूँ इसमें क्या है, सिवाय और चीजों के उस पुलिंदे को भी पाया, जिसमें पचास हजार के कई किता सिर्फ नोट के उसमें थे। दस हजार का एक किता तो मैंने अपने लिए अलग उड़ा रक्खा । और भी कई एक दस्तावेज़ उसमें हैं। यहाँ से चलकर मैं सबों को ठीक करुँगा। इसीलिये तो बुद्धदास को अपने घर के पास ही टिका रक्खा है, और सब तरह की नाज़बरदारी उसकी उठा रहा हूँ। खासकर उस वसीयत को दुरुस्त करना है, जिसमें बुड्ढे ने मिट्ठूमल के लिये कुछ इशारा कर दिया है । मिट्ठू-ऐसे खूस देहकानी को इतनी कसीर रकम मिलकर क्या होगी, इसे तो हम लोगों के हाथ में आना चाहिए। बाबुओं का रंग-ढंग देख घर की सब रकम बड़ी सिठानी ने दाब रक्खी, दोनों बाबू माँ के मरने के वादे पर कर्ज ले-लेकर इन दिनों अपना काम चला रहे हैं। अब इतनी कसीर रकम एक साथ मिल जाने से, कुछ दिनों के लिये सुबीता हो गया। खैर, देखा जायगा। इसमें शक नही, आज मैं महीनों की कोशिश और तदबीर के बाद आखिर कामयाब हुआ।" इतने में उसे नींद आ गई. और वह सो गया।

पंद्रहवाँ प्रस्ताव

नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।
शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥ (मनु.)

अधर्म करने का फल अधर्मकारी को वैसा जल्दी नहीं मिलता, जैसा पृथ्वी में बीज बो देने से उसका फल बोनेवाले को थोड़े ही दिन के उपरांत मिलने लगता है। किंतु अधर्म का परिपाक धीरे-धीरे पलटा खाय जड़-पेड़ से अधर्मी का उच्छेद कर देता है।

अनंतपुर से आध मील पर सेठ हीराचंद का बनाया हुआ नंदन-उद्यान नाम का एक बाग है। हीराचंद के समय यह बारा सच ही नंदन-वन की शोभा रखता था । सब ऋतु के फल-फूल इसमें भरपूर फलते-फूलते थे । ठौर-ठौर सुहावनी लता और कुंज वृदावन की शोभा का अनुहार करते थे। संगमर्मर की रविशों पर जगह-जगह फौवारेजेठ-वैशाख की तपन मे सावन- भादों का आनंद बरसा रहे थे। एक ओर इस बाग के बड़ी लंबी-चौड़ी बारहदुवारी थी, जिसमें हीराचंद नित्य अपने काम-काज से सुचित्त हो संध्या को यहाँ आते थे, पंडित, साधु, अभ्यागत तथा गुणी लोगों से यहीं मिलते थे. और अपने वित्त के अनुसार सबों का थोड़ा या बहुत, जो कुछ हो सकता सत्कार-सम्मान करते थे। अस्तु । हीराचंद की बात उन्ही के साथ गई, अब उसको गाई गीत के समान फिर-फिर गाने से लाभ क्या ?

आगे के दिन पाछे गए, हरि से कियो न हेत ,
अब पछिताए क्या भया, चिडियाचुन गई खेत । ,

जिस फलवत धरती मे अमृत रसवाले दाखफल और केसर उपजते थे, उसी मे काल पाय ऊँटकटारे और अनेक कटैले पेड़ जम आए, तो इसमें अचरज की कौन-सी बात है ! कालचक्र की गति सदा एक-सी रहे, तो वह चक्र क्यों कहा जाय- "नी-चैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ।"
गत. स कालो यत्रास्ते मुक्तानां जन्म बल्लिषु ;
उदुम्बरफलेभ्योऽपि स्पृहयामोऽधुना वयम् ।
(वह समय गया, जब लताओं मे मोती पैदा होते थे। अब तो गूलर के भी लाले पड़े हैं।)
बरसात का आरंभ है। रिमझिम-रिमझिम लगातार पानी की छोटी-छोटी फूही ग्रीष्म-संताप-तापित वसुधा को सुधादान के समान होने लगीं। काली-काली घटाएँ सब ओर उमड़- उमड़ बरसने लगीं, मानो नववारिद वन-उपवन, स्थावर-जंगम, जीव-जंतु-मात्र को बरसात का नया पानी दे जीवदान से जितने दानी और वदान्य जगत् में विख्यात हैं, उनमें अपना औवल दरजा कायम करने लगे। या यों कहिए कि ये बादल जालिम कमबख्त जेठ माह के जुल्म से तड़पते. हाँपते, पानी- पानी पुकारते जीवों को देख दया से पिघल खिन्न हो आँसु 'बहाने लगे। नदी-नाले उमड़-उमड़ अपना नियमित मार्ग छोड़ वैसा ही स्वतंत्र बहने लगे, जैसा हमारे इस कथानक के मुख्य नायक दोनो बाबू बेरोक-टोक विवेक के मार्ग को छोड़, शरम ओर हया से मुँह मोड़, दुस्संग के प्रवाह में बह निकले। विमल जलवाले स्वच्छ सरोवर जिनमे पहले हस, सारस, चक्रवाक कलध्वनि करते हुए विचरते थे, उनके मटीले गँदले पानी में अब मेंढक वैसे ही टर- टर करने लगे, जैसा इन बाबुओं के दरबार में, जहाँ पहले चंदू-सा मतिमान्, सुजान, महामान्य था, वहाँ नंदू तथा रग्घू-सरीखे कई एक ओछे छिछोरे बाबू को दुर्व्यसन के कीचड़ में फंसाय आप कदर के लायक हुए । सूर्य, चंद्रमा, तारागण सबों का प्रकाश रात-दिन मेघ से उप मंद पड़ जाने से जुगुनू कीडों की क़दर हुई, जैसा दुर्दैव-दलित भारत की इस भारत दशा में चारों ओर जब अज्ञान-तिमिर की घटा उमड़ आई, तो साधु, सदाचारवान्, सत्पुरुष कही दर्शन को भी न रहे; झूठे, पाखंडी, दुराचारी, मक्कार पुज- वाने लगे। दिन में सूर्य का, रात में चंद्रमा का दर्शन किसी- किसी दिन घड़ी-दो घड़ी के लिये वैसे ही धुणाक्षर-न्याय- सा हो गया, जैसा अन्यायी राजा के राज्य में न्याय और इंसाफ कभी-कभी विना जाने अकस्मात् हो जाता है। पृथ्वी पर एकाकार जल छा जाने से भू-भाग का सम-विसम-भाव, तत्त्वदशी शांतशील योगियों की चित्तवृत्ति के समान, जाता ही रहा । हिंदोस्तान में बरसात का मौसिम बड़े आमोद-प्रमोद का समझा जाता है, और उस समय जब इस उन्नीसवीं सदी की आशाइशे और आराम रेल, तार इत्यादि कुछ न थे, सभी लोग बरसात के सबब अपना-अपना काम-काज छोड़ देने को लाचार हो जाते थे। यही कारण है कि जितने तिहवार और उत्सव सावन-भादों के दो महीनों में होते हैं, उतने साल-भर के बाकी दस महीनों में भी नहीं होते। उद्यमी और काम- काजी लोग भी जिनको विना कुछ उद्यम और परिश्रम किए केवल हाथ पर हाथ रख बैठे रहने की चिढ़ है, और एक क्षण भी ऐसा व्यर्थ नहीं गँवाया चाहते, जिसमें वे अपने पुरुषार्थ का कुछ नमूना न दिखलाते हों। वे वर्षा ऋतु में शिथिल और ढीले पड़ जाते हैं। तो आवारगी और व्यसन के हाथ में अपने को सौपे हुए इन दोनों बाबुओं का क्या कहना! जिनको हर दम कोई नई दिल्लगी, नए शगल की तलाश. रहती है। मसल है "एक तो तित लौकी, दूजे चढ़ी नीम"

कपिरपि च कापिशायन,
मदमत्तो वृश्चिकेन संदष्ट;
अपि च पिशाचप्रस्त
किम्ब्रमो वैकृतं तस्य।
(एक तो बंदर, दूसरे शराब के मद में मतवाला, तीसरे बीछी से डसा हुआ, चौथे पिशाच से ग्रसित ऐसे की दशा का क्या कहना।)

'रईस और प्रतिष्ठित लोगों में बरसात के दिनों में बाहरी ओर बाग-बगीचों में आमोद-प्रमोद का आम-दस्तूर हो गया है । सुबीतेवाले सभी अपने इष्ट-मित्रों को साथ ले बहुधा बगीचों में जाय नाच-रंग, खाना-पीना दो-एक बार अवश्य करते हैं। ये दोनों बाबू तो जब से बरसात शुरू हुई, तब से रातोदिन बगीचे ही मे जा रहे, कभी आठवें-दसवें घड़ी-दो घड़ी के लिये घर आते थे। एक दिन साँझ हो गई थी। घटा चारों ओर छाई हुई थी; राह-बाट कुछ नजर न पड़ती थी; बगीचे के बाहर खेतों की मेड़ पर ठौर-ठौर खद्योतमाला हरी-हरी घासों पर हीरा-सी चमक रही थी; छिनछिन पर गरजने के उपरांत काली-काली घटाओं में दामिनी क्रोधित कामिनी-सी दमक रही थी, सब ओर सन्नाटा छाया हुआ था; केवल नववारिद-समागम से प्रफुल्ल भेक-मंडली नाऊ की बरात के समान सब अलग-अलग ठाकुर बने टरटर ध्वनि से कान की चैलियाँ झार रहे थे । एक ओर झीगुर अलग अपनी वाचाट वक्तृता से दिमाग चाटे डालते थे। पेड़ के पत्तों पर गिरने से वर्षा के जल का टप-टप शब्द भी सुनाई देता था। कभी-कभी पेड़ पर बैठे पखेरुओं का ओदे पंख झारने का फड़फड़ शब्द कान में आता था। बारह- दुवारी भीतर-बाहर सजी और झाड़-फनूसो से आरास्ता थी; रोशनी की जगमगाहट से चकाचौधी हो रही थी, जशन की तैयारी थी । नंदू, हुमा और हकीम, तीनों बैठे प्याले पर प्याला ढलका रहे थे। दोनों बावुओं की हुस्नपरस्ती में धूम थी, इसलिये तमाम लखनऊ और दिल्ली के हसीन यहाँ आ जुटे थे।

बुद्धू पाँड़े अफीम के झोंक में ऊँघता तलवार की मुठिया हाथ में कस के गहे डेहुड़ी पर बैठा हुआ मानो वरीय रहा था-"कहाँ-कहाँ के चौपट चरन इकट्ठ भए हन, अस मन ह्वात है कि इन हरामखोरन का अपन बस चलत तो काला- पानी पठे देतेन । हाय ! यह वही बाग और बारहदुआरी अहै, जहाँ इनहिन बरसात के दिनन मा नित्य वेद-पाठ और बसत- पूजा ह्वात रही। अनेकन गुनी जनन केर भीर-की-भीर आवत' रही, और बड़े सेठ सबन केर पूजा-सम्मान करतु रहे, तहाँ अब। भाड़, भगतिए, रंडी, मुंडी पलटन-की-पलटन आय जुरे हैं। एक बार एक मुसलटा बारहदुवारी के भीतर घुस गवा रहा, तब बड़े सेठ साहब सगर बारहदुआरी धोआइन रहा, वही अब निरे मुसलमानै मुसलमान भरे हैं। न जानै इन दोनों बाबुअन का का है गवा । नंदुआ का सत्यानास होय, कैसा जादू कर दिहिस है कि चंदू महाराज और सेठानी बहू हजार- हजार उपाय कर थकी, कोउनौ भाँति दोनों बाबू राह पर नहीं आवत । वादिना बाबू बुद्धदास का बुलवाइन रहा, हम रात के वहिके घर गइन रहा, पर एहका कुछ भ्याद नखुला, ओकर बाबू से गिष्ट पिष्ट अच्छी नहीं । ऊ तो बड़े कजाक और जालिया है।" हमने अपने पढ़नेवालों को इस सच्चे स्वामि- भक्त का परिचय एक बार और दिलाना इसलिये उचित समझा कि यह मनुष्य भी हमारे इस किस्से का एक प्रधान पुरुष है; यह आगे बड़ा काम देगा, इसलिये इसे हमारे पाठक याद रक्खें।

अब और एक नए आदमी का परिचय यहाँ पर देना मुनासिब जान पड़ता है, क्योंकि ऐसे दो-एक और लोगों को बिना भरती किए हमारे कथानक की श्रृंखला न जुड़ेगी। क्यक्रम इस पुरुष का ३५ और ४० के भीतर था, नाम इसका पंचानन था। पंचानन के जोड़ का दिल्लगीबाज और रसीली तबियत का आदमी कम किसी ने देखा या सुना होगा। मनुष्य चाल-चलन का किसी तरह बुरा न था, बल्कि चंदू- सरीखे शुद्ध-चरित्र को मैत्री के भरपूर लायक था, और कसौटी के समय चाल-चलन की शिष्टता भी 'इसमें चंदू ही के टक्कर की थी, इसी से चंदू से इसकी पटती भी थी और अनंतपुर की छोटी-सी बस्ती में दोनों का घर भी एक ही जगह पर वरन् सटा-सटा था। दोनो के घर के बीच केवल एक दीवाल-मात्र का अंतर था। गंभीरता या संकोच का यह जानी दुश्मन था । मुसिफो तक की मुख्तारी एक मामूली ढर्रे पर कर लेना, जो कुछ मिले, उतने ही से अपने लड़के-बालों को खाने-पीने से सब भाँति प्रसन्न रखना, 'न ऊधो के देने न माधो के लेने" और साँझ को निश्चित लंबी तान सो रहना, केवल इतने ही को यह अपने जीवन का सार समझता था। अच्छा खाना, अच्छा पहनने का इसे हद से ज़ियादह शौक़ था, तेहवार और कचहरी में तातील का बड़ा मुश्ताक था। किसी के यहाँ जियाफत में शरीक होने का इसे बड़ा हौसिला था । किसी के यहाँ कुछ काम पड़ने पर दावत खाना या उसको बेवकूफ बनाय जियाफ़त दिलवाने में यह बहुत कम फ़र्क समझता था । सारांश यह कि इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि जिसमे कुछ हँसी व दिलबहलाव हो, वही करना । हर हाल में खुश रहना और दूसरों को खुश रखना इसका सिद्धांत था । इसी से क्या छोदे, क्या बड़े, सव उमर के लोगो से यह मिलता था. और उचित तथा योग्य बर- ताव से सबो को प्रसन्न रखता था। जिस तरह अपने हम- उमरवालों से मिलता था, उसी तरह कम उमरवाले लड़को से भी मिल उनको राजी कर देता था। वरन् इसके मसख़रे पन से बूढ़े लोग भी खुश रहते थे, और कोई इसे बुरा न कहता था। यह बात तो कभी इसके मन में आती ही न थी कि ऊँचे पद से और रुपए के कारण मनुष्य की प्रतिमा और इज्ज़त में कुछ अंतर आ सकता है। इसलिये जहाँ कहीं कुछ चुटकी लेने का अवसर मिलता था, यह विना कुछ बोले नही रहता था. चाहे वह आदमी कौड़ी-कौड़ी का मुहताज हो या करोड़पती क्यों न हो। संसार में यदि किसी से दबता था, या किसी की बुजुर्गी करता था, तो केवल चंद्रशेखर की। पंचानन के मन में चंद्रशेखर का ऐसा रोब जमा हुआ था, जिसे ख्याल कर अचरज होता था। यद्यपि चंदू से भी कभी- कभी यह दिल्लगी छेड़ बैठता था. किंतु दो-एक गंभीर विचार की भावना कभी को कुछ देर के लिये इसके मन में अवकाश पाती थी, तो चंदू ही के बार-बार की नसीहत और उपदेश से ! मसखरापन का बर्ताव यह साधारण रीति पर सबके साथ रखता था, कितु मन में सोचता था कि हम बड़े गौरव के साथ लोगों से बर्तते हैं । इस तरह यह लोगों के बीच अपने को खिलौना बनाए था सही, पर सबों का सेवक और सबसे छोटा अपने को मानता था । सर्व-साधारण में यह परोपकारी विदित था, और अपने इख्तियार-भर जो किसी का कुछ भला हो सके, तो उससे मुँह नहीं मोड़ता था। घमंड का इसमें कहीं लेश भी न था, सूरत भी भगवान ने इसकी ऐसी गढ़ी थी कि इसे देख हसी आती थी। बढ़ी लंबी नाक, नीचे को झुके हुए छोटे-छोटे मोंछे, पस्त क़द, पेट के ऊपर दोनो खड्डेदार छाती-जैसा किसी गहरी नदी के ऊपर आगे की ओर झुका हुआ कगारा हो। बाल सुफेद हो चले थे, पर जुल्फ सदा कतराए रहता था। अस्तु, आज के जलसे में यह भी शरीक था । वहाँ हुमा को देख वह बोला-"बाबू ऋद्धिनाथ, तुमने ऐसा चुंबक पत्थर अपने पास रख छोड़ा है कि किस पर इसकी कोशिश का असर नहीं पहुंच सकता ? ठीक है, ऐसी सोने की चिड़िया आपके हाथ लगी है, तभी तो आपने हम लोगों को बिलकुल भुला दिया।"

ऋद्धिनाथ-खैर, गड़े मुरदे न उखाड़िए, बतलाइए, अब आप लोगों की क्या खातिरदारी की जाय (जूही का एक- एक गजरा सबों के गले में छोड़)। चलिए, आप लोगों को बाग़ की सैर करा लावे (एक बड़ी भारी संदूक दो कुलियों के सिर पर लदाए हुए रग्घू को दूर से आता देख ) । लाओ- लाओ, अच्छे वक्त से लाए।

सब लोग-'यह क्या है ? यह क्या है ?" (संदूक खोल सब लोग एक-एक बाजा उठा लेते हैं)-वाह रे । रग्घू महाराज, अच्छी जून यह तुहका तुम लाए, और क्या हिसाब से लाए कि डेढ़ कोड़ी बाजे और यहाँ डेढ़ ही कोड़ी बाजे के बजवइए भी।

नंदू-(ऋद्धिनाथ से) बाबू साहब, हमने कहा था, बाजे हरगिज़ ज़ियादह न होंगे, बल्कि हुमा का हाथ फिर भी बाजा से खाली ही रहा।

पंचानन-अच्छा, आप लोग अपना-अपना बाजा ले चुके हों, तो हम 'प्रोपोज़' करते हैं कि हुमा हम सब लोग बाजा बजानेवाले की बैंडमास्टर की जाय।

नंदू-मैं आपके इस प्रोपोजल को सेकंड करता हूँ। (मन में ) हुमा या ये दोनों बाबू सैब इस वक्त मेरे क़ब्जे में हैं हुमा में हुमापन पैदा करनेवाला भी मैं ही हूँ। आज यह पुराना चंडूल पंचानन अच्छा आ फंसा । यह उस गँवार पंडित का जिगरी दोस्त है। यह भी मेरे दल में आज आ शरीक हुआ, इस बात की मुझे बड़ी खुशी है । बुद्धदास के जरिए मैंने जो कार्रवाई की थी, उसमें भी मैं भरपूर कामयाब हुआ, सच है, ऐब करने को भी हुनर चाहिए।

बुधू पाँड़े अफीम के झोंक में एक बारगी चौक पड़ा, और अपने सामने पुलिस के दो आदमियों को बातचीत करते देख चौकिन्ना हो पूछने लगा-"तुम कौन हो ? किसके पास आए हो?"

पुलिस-सेठ हीराचद के वलीअहद ऋद्धिनाथ व नंदू व बुद्धदास तीनों कहाँ हैं ? उनके नाम का वारेंट है, तोनों फ़ौजदारी सिपुर्द हुए हैं । साथ हथकड़ी के तीनों को अदालत में हाज़िर करने का हुक्म हमें है। बुद्धू –(मन में) हमने तो पहले सोचा था कि इन चौपटहों का साथ हमारे बाबू को किसी दिन खराब करेगा। जो वात आज तक इस घराने में कभी नहीं हुई, उसकी नौवत पहुँची, तो अब बाकी क्या रहा। सच है, बुरे काम का बुरा अंजाम। देखिए, आगे अब और क्या-क्या होता है ?

सोलहवाँ प्रस्ताव

छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति।
(दुख में और भी दुख पड़ते हैं।)

मेरे मन कुछ और हैं, कर्ता के कुछ और।

सब लोग अपनी-अपनी पसंद के माफिक स्वच्छंद आमोद-प्रमोद में लगे हुए थे। एक ओर प्याले पर प्याला चल रहा था, दूसरी ओर पौ छक्के का शगल शुरू था कि अचानक इस खबर के जाहिर होते कानो कान सब आपस में कानाफूसी करने लगे। एकबारगी सन्नहटा छा गया। नंदू का चेहरा जर्द 'पड़ गया। वहाँ से निकल जाने की तदबीर सोचने लगा। दोनो बाबू भी घबरा गए और इस ख्याल मे थे कि नंदू उनका दिली खैरख्वाह है, अपने ऊपर सब ओढ़ लेगा, उन. दोनो पर आँच न आवेगी। इधर नंदू इस फिकिर में लगा कि जिस इलज़ाम पर वारेट आया है, वह इन बाबुओं पर थाप दे, तो हम साक बरी रहे । सच है 'आपत्सु मित्र' जानीयात्" और इसी यत्न में लगा कि किसी तरह से चंपत हो। अस्तु, और सब लोग किसी-न-किसी बहाने वहाँ से खिसकने लगे, पर नंदू की कोई घात निकलने की नहीं लगती थी। इतने में घर से एक दूसरी खबर आई–"सरस्वती बहुत बीमार हो गई है, उलटी साँस चल रही है, जल्दी घर चलो।"

छोटे बाबू की दो वर्ष की लड़की सरस्वती दोनो बाबुओं को बहुत हिली थी। घर में कोई छोटा लड़का न रहने से सब उसे बहुत प्यार करते थे. और वह घर-भर की खिलौना थी। बाबू को दोचंद तरद्दुदुद मे पड़े देख सब लोग बड़े फिकिर में हुए, किंतु नंदू के आकार और चेष्टा से मालूम होता था कि इसे वाबुओं के साथ कोई सहानुभूति नहीं है, केवल अपने बचाव के प्रयन में अलबत्ता लग रहा है । पंचानन, जो कभी बाबुओं के किसी जलसे और नाच-रंग में आज तक शरीक न हुया था, और बाबू के दिली दोस्तों से इसकी जियादह रब्त-जब्त न रहने से अच्छी तरह उनके गुप्त चरित्र और छिपे चाल-चलन से वाकिफ न था, नंदू की उस समय की रुखाई से अचरज में आया। यद्यपि पंचानन तरदुद और फिकिर से कोसों दूर हटता था, पर इस समय बावुओ को अत्यंत उदास, व्याकुल ओर चितामग्न देख यह भी सन्नाटे में आ गया। कुछ इस कारण भी कि चंदू का, जिसे यह सबसे अधिक मानता था, सेठ के घराने से बहुत लगाव समझ दोनो के साथ इसे हमदर्दी हो आई; नंदू पर इसे क्रोध भी आया कि यह धूर्त नमकहराम इस मुसीबत और चवकुलिश से किसी तरह रिहाई न पा सके, और इसके फँसाने की फिकिर मे हुआ। पचानन मुसिफी तक की वकालत की सनद हासिल किए था, इमलिये कानून की बाराकियों को भी भरपूर समझता था। नंदू को बातो मे फँसाय वाबुओं को,आँख के इशारे से वाग के पिछवाड़े की खिड़की से बाहर निकाल दिया।

पंचानन–(नंदू से) बाबू नदलाल, आप ऐसे सयाने कौआ इन बगुलों के दल मे कैसे फंसे ? आपको तो अपनी चालाकी का दावा था। 'क्या खूब फैसा कफस में यह पुराना चंडूल-लगी गुलशन की हवा दुम का हिलाना गया भूल।" सच है, सयाना कौआ जरूर गलीज खाता है । खैर, अब बतलाओ, उस्तादों को क्या नजर करोगे, हम इससे पैरवी कर तुम्हे अभी इस मुसीबत से रिहा करे।

नंदू–आप यकीन न लावेंगे, मेरा इसमें कोई कुसूर नहीं है इन बाबुओं ने मुझे भी फँसाय खराब किया।

पंचानन–जो !आप ठीक कह रहे हैं।भला किसे शामत सवार है कि आप की बात पर यकीन न लावे। हम क्या हमारे बाप-दादा अपने-अपने वक्त. मे सब आप पर यकीन लाए हुए थे। वल्लाह, ऐसे नए नबी पर जो यकीन न लाया, तो कौन दूसरे पैराबर, आवेगे, जो हम-ऐसे गुनहगारों का गुनाह माफ करेंगे। हाल से हमारे प्रपितामह की भेजी हुई हमारे नाम की एक चिट्ठी आई है कि बाबू नंदलाल जो कहें, उसमें एक शोशा भी गलत न समझो। तब भला मुमकिन है कि आपकी बात का यकीन न करें ?

नंदू–आप तो ठट्ठों में उड़ाते हैं, यह मौका दिल्लगी का नही है।

पंचानन–जी नहीं, दिल्लगी की इसमें कौन-सी बात है, उस वक्त दिल्लगी. अलबत्ता थी, जब खूब गुलछरें उड़ते थे। खेर, बाबुओं के बचाव की सूरत बिलफैल किसी-न-किसी ढंग से हो जायगी। बावू दोनो चंपत भी हो गए, अब आप अपनी कहिए।

नंदू–(सब ओर देख) (स्वगत ) हाय ! बांबू क्या चले गए, तो अब यह सब बला हमी को सहना पड़ेगी । पंचानन चालाकी में हमसे भी दूना ज़ाहिर होता है, और हमको फँसाने के लिये इसने मन में तय कर लिया है, तो अब हमारा निस्तार कठिन मालूम होता है। खैर, अब इसी की खुशामद करें (प्रकट) बाबू पंचानन, आप चाहे, तो मुझे भी यहाँ से निकाल सकते हैं, मै आपका बड़ा एहसानमंद हूँगा।

पंचानन– आप कुछ संदेह न करे, मै आपकी भरपूर खबर लूँगा । ( वारेटवालों को बुलाकर ) बाबू ऋद्धिनाथ तो यहाँ नहीं हैं, और यहाँ आए भी नहीं। बाबू नदलाल अल- बत्ता हाजिर हैं, इन्ही से बुद्धदास का भी पता आपको लग जायगा। (नंदू से ) नंदलाल, बाबू अब कहिए, जो कुछ आपको कहना हो; बुद्धदास के गिरफ्तारी के जिम्मेवार भी आप ही हैं । (दारोगा से) दारोगा साहब, बाबू नंदलाल बड़े रईस हैं, इनके साथ किसी तरह की रियायत हो सकती हो, तो मैं सिफारिश करता हूँ, कर दीजिए। क्योंजी बाबू नंदलाल, यही आपका मतलब न था कि मैं अपनी ओर से आपके लिये न चूकूँ? खैर, मै अब जाता हूँ, दारोगा साहब और आप दोनो आपस मे यहाँ निपटते रहिए।

सत्रहवाँ प्रस्ताव

अपना चेता होत नहिं, प्रभु-चेता तत्काल।

पंचानन नंदू को उसी बाग़ में पुलिस के दारोगा से मिलाय आप चंपत हुआ। दारोगा अपने ढंग पर था कि इससे कुछ पुजावे भी, और बात-ही-बात में इससे कबुलवा भी ले कि'मै कुसूरवार हूँ।" इधर नंदू अपने ढंग पर था कि दारोगा को जरा भी उस बात की टोह न लगे, जिसके लिये वारेट आया है, और फँसे, तो हम और वाबू दोनो इसमें शामिल रहें। बाबू भी शरीक रहेंगे, तो मुकदमे की भरपूर पैरवी की जायगी। मैं अकेला पड़ गया, तो वे मौत की मौत मरा।

नंदू–(मन में) पंचानन का यहाँ से चला जाना मेरे हक मे निहायत मुजिर हुआ। वेशक मैने ग़लती की, जो इसे अपनी जमात मे शरीक किया। मैंने कुछ और सोचा, यहाँ कुछ और ही वात हो गई। यह तो मैं जानता था कि यह उसी चंदू का दोस्त है, लेकिन मैंने समझा कि यह ठठोल,दिल्लगीबा, मुफ्त- खोरा है; हमेशा अपने को खुश रखना किसी दूसरे को फँसाय दिल्लगी देखना और हमेशा आराम से जिदगी काटना इसका मकूला है। इसी से मैने अपनी जमात में इसे बुलाया भी पर इस वक्त की कार्रवाई से मैं इसे पहचान गया। यह चंदू का निहायत सच्चा दोस्त है, चालाक तो पंचानन वेशक है, कितु बड़ा खरा, बेलौस और सच्चा आदमी जान पड़ता है, यह मेरे आमालों को जानता है, क्योकि अब मै खयाल करता हूँ, तो इसे छनक मेरी ओर से तभी से थी, जब से इसने यहाँ कदम रक्खा। क्या तअज्जुब यह वारेट भी चंदू और पंचानन दोनो की साँट में आया हो। खैर, यहाँ तो मै इस मरदूद दारोगा से किसी भाँति निपटे लेता है, पर मेरे घर पर मेरी गैरहाजिरी में यह पंचानन और चंदू दोनो मिल कोई फसाद बरपा करेगे कि मुझे जरूर फँस जाना पड़ेगा। बुद्धदास का भी नाम इस वारेंट में है. उसे बिलकुल इसकी खबर नहीं है, उसको भी चंदू तके हुए है। बाबू को तो वह किसी-न-किसी तदबीर से बचा लेगा, यह मुसीबत मुझे और बुद्धदास, दोनो को भुगतना पड़ेगी। खैर, तो अब इसे टटोले; देखे, यह किसी तरह मेरे चंगुल में आ सके, तो बहुत अच्छा हो। (प्रकाश) हुजूर मै ग़रीब आदमी हूँ, और सब तरह पर बेकसूर हूँ, मै तो जानता भी नहीं, यह क्या बात है। हाँ, अलबत्ता इन बाबुओ का मेरा दिन-रात का साथ है। खैर, अब मेरी इज्जत हुजूर के हाथ है, मुझे आपकी खिदमत करने में भी कोई उन नहीं है। मेरी जैसी औकात है, बाहर नहीं हूँ।

दारोगा–(मन में) मैं इस बदमाश को खूब जानता हूँ। इसमें शक नहीं, इन बावुओं को इसी ने खराब किया है।बाबुओं को क्या! इसने न जानिए कितने रईसों को बिगाड़ डाला। इस मूँजी को तो मै बहुत दिनों से तके था, कई बार मेरे चंगुल में आया, पर अपनी चालाकी से बचता चला गया। अच्छा, पहले इसे टटोले तो, इसमें कहाँ तक दम है।मुझे पूरा विश्वास है, यह सब शरारत इसी की है। पर तो भी इससे पता लग जायगा कि इन बाबुओं की कहाँ तक इसमें दम्तं दाजी है, और कौन-कौन लोग इसमें शरीक हैं। मैने उस हैरत-अंगेज बुद्धदास की भी फिकिर कर रक्खी है । सेठ हीरा- चद की शराफत का खयाल कर इन बाबुओं पर मुझे भी रहम आता है, पर इन बदमाशो को तो हरगिज न छोडूंगा। (प्रकाश) कहिए, आप क्या कहते हैं। इज्जत तो इस नाजक ज़माने में, मैं हूँ या आप हों, बचा रहना खूदा के हाथ में है. इसोलिये अलमद लोग फूँक-फूँक पाँव रखते हैं। मसल है 'साँच को आँच क्या?" अगर आप इसमे है नहीं, तो डर किस बात का | "कर नहीं, तो डर क्या ?" अदालत इंसाफ के लिये है, वहाँ दूध का दूध पानी का पानी छान- बीन अलग-अलग कर दिया जाता है, आप बेफिकिर रहें, कुसूर नहीं किया, तो तुम्हारा कुछ न होगा। नंदू–जी हाँ, माफ कीजिए, आपकी बात कटती है।अदा- लत में इंसाफ होता है, यह आप नाहक कह रहे हैं।उलटे का सीधा, सीधे का उलटा वहाँ हमेशा होता है। इंसाफ तो ऐसा ही कभी साजनादिर होता है। दूसरे यह कि अदालत तो रुपए की है। अदालत ही पर क्या, रुपए से क्या नहीं होता। खैर, हुजूर से मै तकरीर नहीं किया चाहता, आप जो कहें, मै उसे अंगीकार किए लेता हूँ।

दारोगा–(मन में ) बुराइयों के करने में इसका जहबा खुला है। अदालत ऐसे-ही-ऐसों की करतूत से बिगड़ती जाती है। अक्सर रुपए के जोर से यह अब तक बचता चला आया, , इसी से इसके दिमाग में यह बात समाई हुई है कि अदालत रुपए की है। खैर, तुम बचा हमी से ठीक लगोगे। (प्रकट) "मुझे यकीन कामिल हो गया कि तुम जरूर इसमें कुसूरवार हो, वह कोई दूसरा खलीफ मामला रहा होगा, जब तुम रुपए के खर्च से बच गए । जानते हो, यह कैसा टेढ़ा मुकदमा है; जनाब ये जाल के मुकद्दमे हैं, इसमें चौदह और डा- मिलं की सजाएँ हैं। ऐसे-ऐसे गंदे ख्यालों को दूर रखिए कि अदालत मे उलटे का सीधा और सीधे का उलटा होता है । अदालत इंसाफ के लिये है । ऐसे लोगों ने, जैसे आप हैं. अलबत्ता अदालत को बदनाम कर रक्खा है।"

चौदह और डामिल का नाम सुन इसका चेहरा जर्द पड़ गया, नस-नस ढीली हो गई। जो समझे था कि मैं अपनी चालाकी से बच जाऊँगा, और पुलिस को भी अपना तरफदार कर लूँगा; वे सब उम्मीदे जाती रही, गिड़गिडाकर बोला-"अच्छा, तो अब मेरे निस्तार की क्या सूरत हो सकती है ? आप निश्चय जानिए, मै बेकसूर हूँ, बाबू का मेरा दिन-रात का साथ है, इससे आपको मेरी ओर भी शक है, और मैं भी खरावी में पड़ता हूँ।"

दारोगा–जी हाँ, ठीक है, आप बिलकुल बेकसूर हैं। तुम समझते हो, मेरे आमाल छिपे हैं।जनाब, आप ही ने वाबू को भी खराव किया। आप-ऐसे लोगों का ऐसे-ऐसे मुकहमों से निस्तार होना मानो आवारगी और बुराई को फरोग़ पाने के लिये इशतियालक देना है। अच्छा, आप तो अब रवाना हों, उन दोनो की भी फिकिर की जायगी। नकीअली। लो, तुम इन्हें ले चलो, मै अब बाबू और बुद्धदास के लिये जाता हूँ। खैर, बाबू को तो मै जानता हूँ, बुद्धदास का पता क्योंकर लगाऊँ ? वाबू नदलाल, आप बतला सकते हैं, बुद्धदास कहाँ मिल सकेगा। मैं समझता हूँ, बुद्धदास का नंबर तुमसे बहुत चढ़ा-बढ़ा है, बल्कि उसी के भरोसे तुम्हे भी ऐसे-ऐसे कामों के लिये हिम्मत होती है।

नंदू–मै सच कहता हूँ बुद्धदास से मुझे कोई सरोकार नहीं है, सिर्फ इतना ही कि वह भी कभी-कभी बाबू साहब के यहाँ आया-जाया करता है। मुझे तो यह भी खबर नहीं है कि वह कौन-सा काम है, जिसके लिये आप मुझे और बुद्धदास को इस वारेट में गिरफ्तार करते हैं।

दारोगा–जी हाँ, आप कुछ नहीं जानते, आप तो कोई मुनरिख हैं।खैर, मुझे इससे क्या ग़र्ज़ है, मुझे तो अदालत के हुक्म का तकमीला करने से ग़र्ज़ है।आप वहीं जाकर अपनी सफाई कर लेना। लो, इसके हाथ में हथकड़ियाँ छोड इसे ले जाओ, मै अब उन दोनो के तलाश में जाता हूँ।

अठारहवाँ प्रस्ताव

पानी में पानी मिलै, मिलै कीच में कीच।

सवेरे की नमाज से फारिग हो अफीम के नशे के झोंक में ऊँघते हुए कोतवाल साहब कुर्सी पर बैठे सोच रहे हैं "कोतवाली का भी क्या ही नाजक काम है। उधर शहर के आवारा और बदमाशों को दाव में रखना, और उनके जरिए मतलव भी निकालना, इधर रईसों पर भी चाप चढ़ाए रहना, ऐसा कि जिसमें कोई उभड़ने न पावे। जट से मैजिस्ट्रेट तक सबको अपनी कारगुजारी से खुश रखना और उनके खयाल में सुखरुई हासिल किए रहना कितना मुश्किल काम है। सुबह से शाम तक ऐसे-ऐसे पेचीदह झगड़े आ पड़ते है कि कुछ कहा नहीं जाता। उस दिन उस जौहरी के दस हजार के जवाहिरात उड़ गए। मुझे मालूम है, जिन लोगो का यह काम है। पता भी मैने लगा लिया है, पर जौहरी मरदूद बड़ा कजाक काइयाँ है, एक झझी नहीं गलाना चाहता और बातों- ही-बात मे काम निकालना चाहता है। मैने सोच रक्खा है, आधे पर मामिला तय करेगा, तो खैर बेहतर, नही बचा कुल से हाथ धो बैठेगे। ५०० रुपए रोज विना पैदा किए दातुन करना हरान है। अच्छा, फिर हमारा गुजारा भी तो किसी तरह होना चाहिए। बड़े-बड़े नबाबो का जो खर्च न होगा, वह हम अपने जिम्मे बाँधे हैं। १० रुपए रोज बी बन्नो को ज़रूर हो चाहिए ; किले-सी बड़ी भारी इमारत जुदा छेड़े हुए हैं. जिसमे लक्खों रुपए सोख गए। हमनिवाले दस-पाँच दोस्त दस्तरखान के शरीक न हों, तो नाम में फर्क पडे । चार- चार फिटन, कोतल सवारी के घोडे वगैरा का सब खर्च कहाँ से आवे,आखिर अल्लाहताला को हमारी भी तो फिकिर है। रोज नया शिकार न भेजे तो इतना बड़ा अटाला कैसे पार हो–(पीनक से जग) कोई है। अवे ओ फहमुआ ! (थोड़ा ठहर ) अवे ओ फहमुआ ! (थोड़ा ठहर ) अवे ओ फहमुआ ! मर गया क्या ?

फहमुआ–हाँ साहब हे आएऊ (आँख मीजता हुआ नींद में भरा आता है)

कोतवाल–हरामजादा अभी तक पड़ा-पड़ा सोता ही था; तू अपनी इस आदत से बाज न आएगा। बीसों मरतबा कह चुके। तुझे होश नहीं आता, समझेरह, खाल खिचवा लूँगा।

फहमुआ–हुजूर माफ करे, कसूर भा, अब आगे से ऐसा न करिहौ। (हुक्का भर सामने लाय रख देता है )

(कोतवाल हुक्के की निगाली होठों के नीचे दाब पीनक में आय फिर मन में) इसमें कुछ शक नही, कोतवाली का ओहदा भी एक छोटी-सी बादशाहत है, मगर हुक्काम जिला अपने चंगुल में हों, तब। पहले जो साहब थे, उन्हें तो मैने खूब साँट रक्खा था। शहर के इंतजाम का कुल दारमदार, साहब ने मुझ पर छोड़ रक्खा था; जो चाहता था, सो करता था। क्या कहें, साहब हमारे बड़े खूबी के आदमी थे। लोगों ने बहुतेरा मेरे खिलाफ कान भरा, पर उन्होंने एक न सुना। जो याफ्त मुझे उनके जमाने में हो गई, वह अब काहे को होना है । नया कलट्टर बड़ा सख्त-मिज़ाज मालूम होता है, आदमी यह बेलौस जरूर है, मुझे उम्मीद नहीं होती कि यह किसी तरह मेरे चंगुल में आ सकेगा। बेलौस और बड़ा मुंसिफ-मिजाज है ; रैयत की भलाई का भी उसे बहुत ख्याल है । खैर, देखा जायगा। कल से एक नया शिकार हाथ आया है, तीन वारेटगिरफ्तारी अदालत से, मेरे पास आए हैं; इस वारेट में सेठ हीराचंद के घराने के लोग शामिल हैं। मुकद्दमा यह ऐसा हाथ आया है कि खूब ही पाकेट गरम होने का मौका मिलेगा, ५ तोड़े भी हाथ न आए, तो कुछ न हुआ। इधर कई दिनों से बिलकुल खाली जाता था, अल्लाह ने एक साथ भारी रकम भेज दो। कल रात बी बन्नी कड़कविजली और झूमड़ के लिये झगड़ रही थी, यह रकम गोया उसी के नसीव से हाथ आवेगी। दारोगा सुजानसिह और नक़ीअली कास्टेबिल को मैने इसके लिये तनात किया है, मालूम नहीं क्या हुआ। (पीनक से जग एक फूँक हुक्के की ले)–अबे फहमुआ, नामाकूल कैसी तंबाकू भर लाया है, कलेजा तक झुलस गया। अहमक तुझसे हजार मरतबा कहा गया, तू अपनी आदतों से बाज न आएगा। आठ रुपए सेरवाली तबाकू जो अभी कल मिट्ठू तबाकूवाला नजर दे गया, उसे क्या किया, क्यों नहीं भरा ?

फहमुआ–साहब, भूल गएउँ हं, भरे लावत हो।

(नकीअली सलाम कर नंदू को सामने हाजिर कर)

'हुज़ूर, यह तो मिले हैं, बाकी दोनो की फिक्र मे दारोगा साहब गए हैं।"

कोतवाल–आहा !आप हैं कहिए आप तो बाबू साहब के बड़े दोस्त हैं। (मन में ) खैर, पहले इसी मूँजी से निपट ले। यह बड़ा बदमाश और चालाक है। अच्छा, आज चगुल में आया। (प्रकाश ) आप लोग देखने ही के सुफेदपोश हैं, पर काम जो आप लोगों से बन पड़ता है, वह एक हकीर छोटे-से-छोटा आदमी भी न करेगा। उस जाली दस्तावेज़ में आप का भी दस्तखत है। सच वतलाओ, तुमने किस तरह उस पर दस्तखत किया। आप तो कानून से भी वाकिफ हैं, अदालत की बातों को अच्छी तरह समझते हैं, तब, मालूम होता है, इसमें कुल शरारत आप ही की है।

नंदू–हुजूर, जब वह दस्तावेज़ जाली है, तब मेरा दस्तखत भी जाल से बना लिया गया, तो इसमें अचरज क्या है।

कोतवात–खैर, तुमने भी यकरार किया कि दस्तावेज जाली है, और यही तो मेरा मतलब है। (नकीअली से) अच्छा, इसे ले जाओ, पहरे में रक्खो। उन दोनो को भी आ जाने दो, तो जो कुछ कार्रवाई होगी की जायगी।

उन्नीसवाँ प्रस्ताव

विपदि सहायको बन्धुः।
(जो विपत्ति मे सहायता करे ,वही बंधु है।)

निशा का अवसान है। आकाश मे दो-एक चमकीले तारे अब तक जुगजुगा रहे हैं। अरुणोदय की अरुणाई से पूर्व दिशा मानो टेसू के रंग का वस्त्र पहने हुए दिननाथ सूर्य की अगवानी के लिये उद्यत-सी हो अपनी सौत पश्चिम दिशा को ईर्ष्या-कलुषित कर रही है। लोग जागने पर रात के सन्नहटे को हटाते हुए अपने-अपने काम में लगने की तैयारी करते सब ओर कोलाहल-सा मचाए हुए हैं। कोई सवेरे उठ भगवान् के पवित्र नामोच्चारण में प्रवृत्त हैं; कोई शौच कर्म के लिये हाथ में सोंटा और लोटा लिए बहिर्भूमि को जा रहे है; कोई दंत- धावन के लिये वृक्ष की डालियाँ तोड़ रहे हैं; कोई अपने छोटे- छोटे बालकों को गुरूजी के यहाँ ले जा रहे हैं,कोई मचलाए हुए लड़कों को फुसला रहे हैं; खेतिहर बैल और हल लिए खेत की ओर जा रहे हैं।

ऐसे समय सुजानसिह दारोगा तीन कांस्टेबिल साथ लिए बाबू की कोठी के द्वार पर यमदूत-सा,आ बिराजे, और यही कोशिश में थे कि ज्यों ही दोनो बाबुओं में से कोई भी बाहर निकले कि उन्हे वारेंट दिखा गिरफ्तार कर ले।

बाबुओं की हवेली के पिछवाड़े खिड़की-सा एक छोटा दरवाजा जनाने मकान का था। हीराचद के समय तो बीसों दास-दासी भोर ही से अपने-अपने टहल के काम मे लग जाते थे, पर वह तो अब किस्सा-किहानी की बात हो गई। पर अब भी मखनिया नाम की पुरानी चाकरानी, जो हीराचद की स्त्री के बहुत मुँह लगी थी. पुराना घर समझ अव तक टहल के काम से लगी ही रही। यह मखनिया हीराचंद का समय देख चुकी थी। बाबुओ के जघन्य आचरण पर मन ही मन कुढती थी। कोठी के दरवाजे पर पुलिस को बैठे देख खिड़की को धीरे से खटखटाया। सेठानी निकल आई, और किवाडा खोल इसे भीतर ले गई। इसे भौचक्की-सी देख कारण पूछा, तो यह कहने लगी–"बहूजी, आज काहे दुवार पर पुलिस के चपरासी बैठे हैं ?" यह सुनते ही सेठानी के हाथ-पाँव फूल गए, घबड़ा उठी–"हाय ! सब तो गया ही था, अब क्या सेठ के नाम में भी कलंक लगा चाहता है ? हाय ! कपूत किसी के न जन्में–अच्छा, तो जा चंदू को बुला ला, तब तक मैं जा उन दोनो बाबुओं को जगाती हूँ, और सावधान किए देती हूँ।"

सेठानी-(मन में ) हाय ! मुझ निगोड़ी को मौत न आई।सेठ के स्वर्गवास होते ही सोने का घर छार में मिल गया । सच है "पूत सपूते तो धन क्या. पूत कपूते तो धन क्या" सेठ के समय का राजसी ठाठ तो न जानिए कहाँ बिलाय गया । किसी तरह अपनी बात बनी रहे और जिंदगी के दिन कटें, इसी को मैं अपना सौभाग्य मानती थी, सो उसमें भी बट्टा लगा। हाय ! तिमहले पर दोनो बाबू सो रहे हैं ; इतनी सीढ़ियाँ मुझसे चढ़ी न जायँगी, और यहाँ से पुकारना ठीक नहीं, तो अब क्या करूँ? अच्छा, चंदू को आने दो।

चंदू भी अचंभे में आया कि आज इतने सवेरे सेठानी ने क्यों बुलाया। बाहर पुलिस का पहरा देख उसी खिड़की से भीतर गया।

चंदू–बहूजी, क्या आज्ञा होती है ?

सेठानी–(रो-रोकर ) चंदू, मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं भयंकर बयार बह रही है कि कहीं पता न लगता (कान में कुछ कह)।

चंदू–अच्छा, तो तुम इतनी फिकिर रक्खो कि बाबू बाहर न निकलने पावें, मै सब ठीक कर लूँगा।

बीसवाँ प्रस्ताव

बन्धनानि किल सन्ति बहूनि
प्रेमरज्जुकृत बन्धनमन्यत्;
दारुभेदनिपुरणोऽपि षडङ्घ्रि-
र्निष्क्रियो भवति पङ्कजबद्धः।

(यों तो संसार मे बहुत प्रकार के बंधन हैं, किंतु प्रेम की डोरी का बंधन कुछ और ही प्रकार का है । देखिए, जो भ्रमर काठ के छेदने में निपुण है, वही भ्रमर प्रेम के वश में हो कमल में बंधकर लाचार हो जाता है।)

पाठक ! आज अब यहाँ हम प्रेम-पुष्पावली के दो भ्रमरों का कथानक आपको सुनाना चाहते हैं। कुछ लिखने के पहले आपको सावधान किए देते हैं कि हमारे ये दोनों भ्रमर निःस्वार्थ प्रेमी हैं। इन्हें आप उस कोटि के प्रेमी न समझना, जैसा इन दिनों वहुतेरे अपना मतलब साधने के लिये परस्पर प्रेमी बन जाते हैं। जरा भी अपने स्वार्थ में चूक हो जाने पर मैत्री क्या, बल्कि साँप और नेवले का-सा हाल उन दोनों का हो जाता है। हमारे पाठक पंचानन से परिचित होंगे, जिनकी भेट हम अपने पढ़नेवालों को पहले करा चुके हैं। इस प्रेम के दूसरे भ्रमर का बार-बार नामसंकीर्तन अनुप- युक्त है। बस, समझ रक्खो, इस सौ अजान में यही एक सुजान हैं, जिसे हम प्रेम की फुलवारी का दूसराभ्रमर कह परिचय देते हैं। पंचानन ठठोल तो था ही, पर इसका ठठोलपन सबके साथ एकसा नहीं रहता था। किसी तरह के तरदुद, फिकिर और चिंता से इसे चिढ़ थी। किंतु जब अपने किसी एकांत प्रेमी को तरद्दुद में पड़ा देखता था, तो जहाँ तक बन पड़ता था, आप भी उसे तरद्दुद से बाहर करने को भिड़ी तो जाता था। इस समय चंदु को कुछ न सूझा, और कोई बात मन में न आई कि कैसे सेठ के घराने को दुर्गति से बचावें, केवल इतना ही कि पंचानन से मिल इससे इसकी कुछ सलाह करें; इसलिये कि पंचानन अदालती कार्रवाइयों को भरपूर समझता है; वह कोई ऐसी बात निकालेगा कि जिससे भरपूर निस्तार हो जाय। यद्यपि इन दोनों की गाढ़ी मैत्री तो थी, पर पंचानन अपनी ठठोल आदत से बाज़ न आ चंदू को 'चकोर' कहता था, और चंदू भी इसे 'चारु चं चरीक' कहा करते थे। आज अपने यहाँ भोर ही को चंदू को आए देख पंचानन बोले– 'आज चकोर को दिन में चकाचौंधी कैसी ? क़ु सूर माफ 'अद्य 'प्रातरेवानिष्टदर्शनम्'।"

चंदू–सच है, अनिष्ट-दर्शन भी इष्ट-दर्शन न हुआ, तो चारु चंचरीक के चिरकाल का प्रेम कैसा ?

पंचानन–आप तो जानते ही हैं कि कुशल-प्रश्न के पूछने में कैसी पेचिश उठा करती है, इससे मैंने यही बेहतर समझा कि इस आदत से बाज रहूँ। और, फिर वह प्रेम ही क्या,जब इस प्रेम के बारा के माली को प्रेम-पुष्प की सुगंधित कली हृदय के आलबाल में खिल परस्पर एक दूसरे को प्रमुदित न कर सकी।

चंदू–सच है, यदि उस आलवाल के चारों ओर कटीले पौधे न उग आए हों, इसलिये जब तक उन कटीले पौधों को उखाड़ न डालेगा, तब तक उस माली की सराहना ही क्या?

पंचानन–खैर, आप भी इस दुर्नयवी पेच में आ फंसे। "वाद मुद्दत के फँसा है यह पुराना चंडूल !” (हँसता है)

चंदू–मित्र. अब इस समय ठठोलबाज़ी रहने दो, कोई ऐसी बात सोचो, जिसमें सेठ के घराने की पत रह जाय। हम लोग निरे पोथी बाँचनेवाले अदालत की कार्रवाइयाँ और क़ानून के पेचों को क्या समझे। तुम अलबत्ता इसमें परिपक्व-बुद्धि हो। कोई ऐसी बात सोचके निकालो कि इन दोनों बावुओं का निस्तार हो, नंदू और बुद्धदास को अपने किए का फल मिले।

पंचानन-जी हाँ, बावुओं ने तो समझा था कि बढ़के हाथ मारा है। रकम इतनी हाथ लगती है कि कुछ दिन के लिये चैन है। अच्छा, तो मैं अब इस बात की खोज करुँगा कि वह जाली दस्तावेज किस ढग पर लिखा गया है, और वावुओं की साजिश उसमे कहाँ तक है। तो अब इस जून तो आप पधारे. हम इसकी फिकिर करेगे, पर पुलीस के कुत्तों का मुँह मार पिंड छुटवाना वाजिब है । अस्तु। चंदू ने उन दोनों के बचाने को क्या किया, सो आगे खुलेगा। पंचानन को जी से लग गई कि अपने मित्र चंदू की इच्छा पूरी करे। अब यह सोचने लगा कि क्या उपाय होना चाहिए कि चंदू का मनोरथ भी सिद्ध हो, और उन दोनो बदमाशों को उनके किए का फल मिले। पंचानन चालाकी और कानूनी बारीकियों के समझने में किसी से कम न था, बल्कि उस प्रांत के नामी वकील पेचीदह मुकदमों में बहुधा इसकी राय लिया करते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि जिस मुकदमे में इसने जैसी राय दी, वह हाईकोर्ट तक बहाल रही। बड़े-बड़े जालियों को यह बात-की-बात में ऐसा पकड़ लेता था कि उनकी एक भी नहीं चलती थी। पर इन सब गुणों के रहते भी इसे जो सच्चा, न्याय और इंसाफ होता था, वही पसंद आता था। "साँच को आँच क्या" यह पालिसी हमेशा इसे रुचा की। इसलिये इसको यही पसंद आया कि हीराचंद के दोनों वंशधर खुद अदालत में जाय हाजिर हों और जो सच हो, सो कह दें। इससे वे दोनों तो जरूर हो फँस जायँगे, और बाबुओं के बचाव की कोई सूरत निकल आवेगी। अब रह गया इनका एकरार कर देना, इस पर बहस और तक़रीर की बहुत कुछ गुंजाइश रहेगी। सच, पूछो, तो बड़े-बड़े बैरिस्टर और वकील जो हजारों एक दिन की बहस मुअकिल से पुजाय बेचारे को उलटे छुरा मूड़ भरपूर अपना मतलब गाँठते हैं, सो इसी तकरीर और बहस की बदौलत । वाह ! धन्य विधाता.! यह जो प्रचलित है कि "बात की करामात' सो क्या ही सटीक है। बात में बात पैदा कर देना अँगरेजी ही कानून हमे सिखाता है। पर तोफगी तो यह, जैसा मसल है "चोर से कहो चोरी करे, शाह से कहो जागता रहे।" इसी का नाम है। हमे क्या, हमे तो दिलबहलाव चाहिए, हम मुक़दमों की पेचीदगी ही में अपना दिलबहलाव निकाल लेते हैं। पर सच पूछो तो ( Litigation ) कानून की बारीकियाँ ही बेईमानी और फरेब लोगों को सिखा रही हैं। इसी से मुझे यही इसमें बचाव की सूरत मालूम होती है कि बाबू जो कुछ सच्चा हाल हो, अदालत मे जा एकरार कर दे। कानून की मशा है कि जुर्म करनेवाला कुसूरवार नहीं है, बल्कि वह जो उस जुर्म का उसकानेवाला होता है। ऐसा होने से मुकदमे में वहस की कई सूरतें पैदा हो जायँगी। कदाचित् बड़े सेठ के रईस घराने पर रहम कर हाकिम बाबुओं की रिहाई कर दे।

इक्कीसवाँ प्रस्ताव

खल उघरे तत्काल ।

मसल है "सबेरे का भूला साँझ को आवे, तो उसे भूला न कहना चाहिए।"

दूसरे दिन चंदू बाबुओं के पास गया, और पाला की मारी, मुरझानी कली-सी उनके मुख की छवि पाय चंदू के मन में सेठजी के साथ इसका पुराना सच्चा स्नेह उभड़ आया। बाबू भी इसे देख आँसुओं की धारा बहाने लगे, जिससे मालूम होता था कि अब ये दोनों राह पर आने का पूरा इरादा कर चुके हैं, और जो चूक इनसे बन पड़ी है, उसके लिये भरपूर पछता रहे हैं। चंदू भी अब इन्हें इस समय अधिक लज्जित करना उचित न समझ ढाढ़स बँधाते हुए बोला– "साँझ का भूला सबेरे आवे, तो उसे भूला नहीं कहते, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा; तुम बड़े बाप के लड़के हो, कभी संभव नहीं था कि सेठ हीराचंद ऐसे धर्मात्मा और पुण्यशील के वंशधरों का ऐसा हाल हो। तुम दुःसंग में पड़ यहाँ तक अपने को भूलकर अजान बन गए कि अंत को इस दशा को पहुँचे; अब शोक मत करो, मैं फिकिर कर चुका हूँ। ईश्वर ने चाहा और सेठ का सुकृत है, तो तुम्हारा बाल न बाकेगा, और अदालत से तुम्हारी रिहाई हो जायगी, किंतु जिनके जाल में तुम अब तक फंसे थे, और जिन्होंने चाहा था कि इन नई चिड़ियों को फँसाय कबाब-सा भूज निगल बैठे, वे ही अपने पातक-अग्नि में भुँजकर, कबाब हो जायँगे। तो अब आगे से प्रण करो कि अब अजान न बनें।"

दोनों की इस तरह पर बातचीत हो रही थी कि सड़क से चिल्लाते हुए किसी की आवाज सुन पड़ी "हाय ! मैने ऐसा नहीं समझा था कि नंदू के कारण मेरी यह दशा होगी। उस बदमाश नंदू ने अपने भरसक बाबुओं को बेवकूफ बनाकर फँसाने की कोई बात छोड़ नहीं रक्खी थी। मैं यह जरूर कहूँगा कि बाबू ऐसे रईस खानदानी की यह कभी इच्छा न रही होगी कि वे थोड़े के लिये नियत बिगाड़े। यह नंदू इस बुराई का जैसा बानीमुबानी रहा, वैसा ही यह सब मुसीबत भी उसी पर आ टूटी। मै बेकुसूर हूँ।" पुलीस के सिपाही–"चुप रह वे, सेत-मेत की टायँ-टायँ कर रहा है। उस वक्त. इन सब बातों का खयाल क्यों न किया, जब जाल रचने बैठा था। बचा, बहुत दिनों के बाद हम लोगों के चंगुल में आए हो।"

चंदू इन सब बातों को सुन मन-ही-मन प्रसन्न होने लगा, और सोचने लगा कि इसका इस जून का यह चिल्लाना मेरे लिये बहुत फायदे का हुआ। अब मैं जाऊँ, और इसकी खबर पंचानन को दूँ।

चंदू–(प्रकाश) बाबू, तुम बेखटके रहो। ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हारी रिहाई हो जायगी।

बाईसवाँ प्रस्ताव

सत्यमेव जयति नानृतम्।
(सत्य की ही विजय होती हैं, असत्य की नही।)

अंत को यह मुकदमा लखनऊ के चीफकोर्ट में पेश किया गया। पंचानन को इसमे चंदू ने गवाह नियत किया । पंचा- नन को, जो सदा चैन में रहना ही अपने जीवन का उद्देश्य माने हुए था, लखनऊ जाना नागवार हुआ, किंतु चंदू के उद्देश्य से उसे ऐसा करना ही पड़ा। दूसरे यह कि चंदू ने बाबू का कचहरी में जाना अनुचित और सेठ हीराचंद की हतक समझ इसे बाबुओं की ओर से मुखतार मुक़र्रर किया था।

मुक़दमा शुरू होने पर नंदू.बुलाया गया। यह काँपता-काँपता दो पुलीस के पहरे में जज के सामने हाज़िर हुआ। जज ने पूछा–"तुम अपनी सफाई इस मुकदमे में क्या देते हो ?"

नंदू–हुजूर, यह सब पुलीस की कार्रवाई है। मेरा इसमें कोई कुसूर नहीं; और हो भी, तो यह हरकत मैने बाबू के कहने से की।

पंचानन–नंदू बाबू, तो क्या आप इसमें बिलकुल बेकुसूर हैं? उस दिन वारंट आपके नाम आया था कि बाबू के नाम ? आप चालाकी से न चूकिएगा। सच है, अंधड़ में जब कोई बड़ा पेड़ उखड़ने लगता है, तो अपने साथ दो-एक छोटे-मोटे वृक्षों को भी ले डालता है, और आपने तो ऐसे-ऐसे कई एक बाबुओं को हलाल कर डाला। पहले आपने कहा-'हम बिल- कुल बेकुसूर हैं।" पीछे से कहते हो–"किया भी, तो बाबुओं के कहने से।" इससे साफ ज़ाहिर है कि आप अपने साथ बाबुओं को भी फँसाना चाहते हैं।

जज–(पुलीस से ) तुम दोनों इसके बारे में क्या जानते हो?

पहला पुलीस–हुजूर. इसने जाल किया है, और हमेशा से यही काम करता रहा है । इसके साथ एक आदमी बनाम बुद्धू और भी है; वह भी इसी अदालत में हाजिर है । ये दोनों आपस में मिले हुए हैं, और यही पेशा इन लोगों का है कि नई उमरवाले रईस के लड़कों को फँसाया, करे ।

पंचानन-हुजूर, यह बिलकुल सही है। आज दिन अवध- भर मे हीराचद जैसे रईस हैं, सब लोग जानते हैं, तब उनके लड़कों को क्या पड़ी, जो इतनी थोड़ी-सी रक़म के लिये ऐसी बेइज्ज़ती का काम कर गुजरेगे। अदालत को जो कुछ दरियाफ्त करना हो, मै उनकी तरफ से मुख- तार हाजिर हूँ, पर इतना ज़रूर कहूँगा कि इन दोनों का हमेशा से यही ढंग चला आया है । ये लोग रेउड़ी के लिये मसजिद ढहानेवाले हैं। क्यों नंदू बाबू, सच है न ? (नंदू सिर नीचा कर लेता है) हुजूर, अब अदालत को कोई शक इसके कुसूरवार होने में न रहा, और फिर इन दोनों का तो सदा से यही मकला रहा है कि अँगरेज़ी राज्य मे अदालत और कानूनों की पेचीदगी इसीलिये है कि जाल रचे जायँ|

जज-अगर तुम्हारा कहना सही है, तो तौहीने अदालत एक दूसरा क़ुसूर इस पर लगाया जा सकता है। अच्छा, तो इस सबके लिये इसको सात वर्ष की सख्त सजा का हुक्म दिया जाता है, और अदालत मातहत की तजवीज देखने से मालूम हुआ है कि कातिब इस जाल का बुद्धदास है । इस- लिये उसको दस वर्ष की कैद का हुक्म होता है।

तेईसवाँ प्रस्ताव

राजा करे सो न्याव, पासा पड़े सो दाँव।

नंदू का बुरा परिणाम देख इन बाबुओं को कुछ ऐसा भय-सा समा गया कि उसी दिन से इन्हें चेत हो आई । जैसा किसी को दीवानापन सवार हो गया हो, और लगातार किसी अकसीर दवा के सेवन से जब दीवानापन उतर जाय, अथवा सोने से जैसा कोई जाग पड़ा हो, या कोई मादक द्रव्य—भाँग, अफीम, शराब इत्यादि-पीकर मतवाला हो बकता फिरे, मद उतर जाने पर अथवा भूत सवार हो झार- फूँ क के उपरांत उतर जाने से होश आने पर अपने किए को पछताता हुआ मुँह छिपाता फिरे, वही हाल इस समय दोनों बाबुओं का था। अब जो इन्हें चेत आई, तो एकांत में बैठे ये घंटों तक आँसू बहाया करते और पछताते। सबसे अधिक पछतावा इन्हें बड़े सेठ साहब की बनी हुई बात के बिगड़ जाने और असंख्य धन के निकल जाने का था । "हाय ! इस बदमाश नंदू ने मुझे अपने जाल में फँसाय मेरी कौन-कौन-सी दुर्गति करा डाली।" अब इनको यह खयाल आया कि जिस बात में अब भी किसी तरह ज़रा भी उस बदमाश का लगाव रह जायगा, उसमें कुशल नहीं । “यत्रास्ते विषसंसर्गोऽमतं तदपि मृत्यवे ।" अपने चचा बुड्ढे मानिकचंद का नंदू को बाबू ने मुखतार आम कर दिया था। उस मुखतारनामे को अदालत से मंसूख करा दिया, और नंदू की . सलाह मान मानिकचंद का माल-मताल अपने कब्जे में लाने की जो अभिसंधि की थी, उससे भी अपने को अलग कर जो कुछ काग़ज उस बूढ़े सेठ का नंदू संदूक से उड़ा लाया था, और जो कुछ जायदाद थी, सब मिट्ठू को बुलाय सिपुर्द कर चंदू को उसका मुखतार कर दिया, और ये दोनों बाबू बड़े सेठ हीराचंद के चलाए पथ पर चलने लगे । परिणाम में कुछ दिन उपरांत हीराचंद के घराने की प्रतिष्ठा फिर वैसी ही हो गई । पाठक, देखिए, सौ अजान में एक सुजान कैसा गुनकारी हुआ कि सब अजानों को फिर राह पर अंत को लाया ही, नहीं तो कौन आशा थी कि ये दोनों सेठ के लड़के कभी कुढंग पर आ सुधरेगे। दूसरे यह कि जो सुकृती हैं, उनके सुकृत का फल अवश्यमेव औलाद पर आता है। हीराचंद-से सुकृती की औलाद दूषित-चरित की हों, यह अचरज था।

अंत को हम अपने पढ़नेवालों को सूचित करते हैं कि आप लोगों में यदि कोई अबोध और अजान हों, तो हमारे इस उपन्यास को पढ़ आशा करते हैं सुजान बने। इस किस्से के अजानों को सुजान करने को चंदू था, और आप लोगो को हमारा यह उपन्यास होगा।

॥इति॥

टिप्पणी-सहित कठिन-शब्दार्थ-सूची

सांकेतिक शब्द—(सं॰ से संस्कृत। अलं॰ से अलंकार। अ॰ से अरबी। फ़ा॰ से फ़ारसी। अँग॰ से अँगरेज़ी।)

पहला प्रस्ताव

खोटा—(सं॰ क्षुद्र) दुष्ट।
तातो—(सं॰ तप्त) जलता हुआ, गरम।
दुर्व्यसनी—बुरा शौक़ करनेवाला; फ़िज़ूल-ख़र्च;
अपव्ययी।
"दुर्व्यसनी……लगे हैं"—
यहाँ पर उपमा अलंकार है।
"मानो प्रकृतिदेवी……
चाहती है"—इसमें उत्प्रेक्षा
अलंकार है।
प्रेयसी—प्यारी, प्रियतमा।
"मानो हँस-सा रहे हैं"—
उत्प्रेक्षा अलं॰।
"जिसकी सम-विषम……
व्याप रही है"—उपमा अलं॰।
सम-विषम भू-भाग—ऊबड़-खाबड़ धरती।
कचलपटी—(सं॰ कछलंपटता)—आवारगी।
छिछोरपन—क्षुद्रता; नीचता।
आय—(पुरानी हिंदी के 'आसना' 'आहना' [होना]
क्रिया का पूर्वकालिक।
रूप; शुद्ध शब्द 'आहि' है।

प्रायः भट्टजी ने पुरानी हिंदी के अनुसार धातुओं का पूर्वकालिक रूप ऐसा ही लिखा है। अन्य स्थानों में भी जैसे "पकड़ाय", "बुलाय" इसी तरह से समझना चाहिए) आकर।
सोवत हैं—सोते हैं (प्रयाग के आस-पास की यही भाषा है)।

वितान—चँदवा।
"मानो वितान रूप……
दिया गया है।"…उत्प्रेक्षा अलं॰।
"मालूम होता है……होड़ लगाए हुए हैं"—उत्प्रेक्षा अलं॰।
होड़—स्पर्धा।
"मोती-से चमकते……
उपहार बन रहे हैं"—
समासोक्ति अलं॰।
निशानाथ—(निशा=रात, नाथ=स्वामी) ; चंद्रमा।
निशा-वधूटी—रात्रिरूपी नव-वधू (बहू)।
"चाँदनी……धरती"—
अपह्नुति अलं॰।
"यहाँ कन्या……प्रस्तुत
है"—समासोक्ति अलं॰।

दूसरा प्रस्ताव

जलप्राय-जलमय, वह प्रदेश ।
बहुश्रुत-( बहु - बहुत ; या स्थान, जहाँ जल अधिकता श्रुत, सुना हुआ या शास्त्र) से हो। जिसने बहुत सुना हो, अर्थात्
हरित - तृण-आच्छादित विद्वान्, पंडित। हरी-हरी घास से ढकी हुई।
ग्रंथ-चुंबक-( ग्रंथ = पुस्तक; मरकतमई-सी-मानो पन्ने चुंबक = चूमनेवाला) जो (एक प्रकार का हरा मणि) किसी विषय का पूर्ण विद्वान् से जडी न हो, वरन् ग्रंथो का केवल बाँकुरे-बंक, बाँका (यह पाठ-मात्र कर गया हो, उसके शब्द प्रायः वीर शब्द के साथ विषय को समझा न हो। श्राता है, जैसे “वीर अल्पज्ञ। बाँकुरे")। साक्षर-मात्र-जो थोडा भी पुण्यतोया-पवित्र जलवाली। पढा-लिखा हो। सरिद्वरा-नदियो में श्रेष्ठ । वृत्ति-दान। अनुशीलन-अभ्यास, अध्य वेदरेग-विना सोचे-समझे। यन। वेजा-अनुचित । जनखा-( फ्रा० - शब्द ) | नितांत-श्रत्यंत । हिजड़ा, नपुंसक। स्फूर्ति-प्रकाश, प्रतिभा । सुमिरनी-जपने की २७ दानों नवनता-नम्रता। की माला।

तीसरा प्रस्ताव

विद्वन्मंडली • मंडनशिरो- । मानसिक-मन-संबंधी। । मणि-विद्वानों के समूह में । मोतकिद-कायल । सवश्रेष्ठ । "शांति और क्षमा...कुसु- दुरूह-कठिन। | · मौकर"-इसमें रूपक अलं- अनुपपन्न-असमर्थ। कारों की लडी की लड़ी है। गुजरान-(फ्रा० - शब्द ) | तृष्णालता गहन 'वन- व्यतीत, जीविका-निर्वाहार्थ।। लोभरूपी लताओं का धना श्रुताध्ययनसंपन्न-विद्वान् । जंगल। सवृत्त-अच्छा चरित्रवाला, अज्ञानतिमिर-मूर्खतारूपी सदाचारी। अंधकार। लिलार-(सं० ललाट) सहस्रांशु-( सहस्र = हज़ार; मस्तक, माथा । अंशु-किरण ) हजार दामिनि-(सं० दामिनी) किरणवाला; सूर्य । बिजुली। दुराग्रह-किसी बात पर आर्ष-ऋषियों का बनाया हुश्रा। मूर्खता के साथ हठ करना। संथा-पाठ । कूरग्रह-पापग्रह (सितारे); भासतीथी-मालूम होता था। शनिश्चर, राहु, केतु आदि । मनमानस-मनरूपी मान अस्ताचल-(अस्त = डूबना; सरोवर; रूपक अलंकार। छिपना । अचल = जो न कायिक-शरीर-संबंधी। चले; पर्वत या पहाड ) पुराने सिद्धांत के अनुसार जहाँ सूर्य, सौजन्य - सुमन-साधुतारूपी चंद्रमा श्रादि ग्रह अस्त फूल। (छिप) हो जाते हैं। कुसुमाकर-वसंत; वाटिका । उदयगिरि-वह पर्वत, जहाँ रीझ गए-प्रसन्न हो गए। 'से सूर्य आदि ग्रह उदय पट्टशिष्य-मुख्य शिष्य । होते है। अनुहार-समानता। उपशम-शांति । वाक्पाटव-बोलने में चतुराई।

चौथा प्रस्ताव

बेइंतिहा-असंख्य । जहाँ दो चीज़ों के बीच से कार्य आकृति-शकल, सूरत। और कारण का संबंध होता है। "मानो . ...महीने हैं अंक-चिह्न; चंद्रमा में कलंक । यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकारों की सामुद्रिकशास्त्र-ज्योतिषशास्त्र एक लडी है, जिसमें रूपक का एक अंग, जिससे हस्त-रेखा अलंकार भी गौण रूप से । आदि का विचार किया विद्यमान है। जाता है। . थैसुधात सागर पुण्य का सामुद । समाय सकेसमा सके (इस बीजांकुर -न्याय-बीज और तरह का रूप भी भट्टजी की अंकुर में जो परस्पर में संबध हिंदी की खास विशेषता है। है, उसी को देखकर इस न्याय इसी तरह से "जाय सके", की उत्पत्ति हुई है, अर्थात् "खाय सके" इत्यादि)। बीज अंकुर का कारण है, उसी लल्लोपत्तो-चापलूसी, खुशा- तरह से अंकुर भी बीज का भद। कारण है। यह न्याय ,ऐसे खुचुर-(सं० कुचर ) व्यर्थ स्थान पर व्यवहार होता है, का दोष निकालना । खसूसियत-विशेषता।।। शिकार ) अमीरों का शिकार खार खाते हैं-डाह करते है। करनेवाला। जब एक अमीर अल्हड़पन-अक्खडपन, बेपर के लडके को बिगाड़ चुके, तब वाही। दूसरे, फिर तीसरे, इसी तरह दर्पदाह ज्वर-अभिमानरूपी अमीरों के लड़कों को बिगाड़- जलन पैदा करनेवाला ज्वर । कर उनके धन द्वारा जो श्राप दाह-जलन । मज़ा लूटते है। सदुपदेश शीतलोपचार खूसट-(सं० कौशिक) उल्लू, अच्छे-अच्छे उपदेशरूपी ठंडक मनहूस। पहुँचानेवाले सामान । कलामतों-(सं० कलावंत) कारगर-(फा०-शब्द)उपयोगी, किसी फ़न या हुनर में उस्ताद। लाभकारक, असर करनेवाली। दोगले-(अरबी-शब्द) वर्ण- मीर शिकार-( अमीर J संकर ।

पाँचवाँ प्रस्ताव चहले-(सं० । किचिल) । सलोनापन-. लावण्य, कीचड़। लुनाई। नै बै-(सं० नै नई । बै (वय) उमंग-इच्छा, जोश, उल्लास। उमर) नई उमर, जवानी। | अनिर्वचनीय-अकथनीय, . दारुण-कठोर । जिसका वर्णन न हो सके। सुखद-सुख देनेवाला। दाख-(फाo-शब्द) अंगूर । वयस्संधि-लडकपन और कुसुमबान-जिसका बाण । जवानी की उमर के मिलने का समय, नवयौवन । ' पुष्पधन्वा भी कहते हैं, काम तरेर-डुबाकर । देव। . अपिच-बल्कि। ऊष्मा-गर्मी। कुसुम (फूल) का हो; जिसे तरल तरंगिणी-तुल्य-चंचल । बरहम-क्रोधित ।। नदी के समान । रन्तजप्त-मेलजोल ।' तारुण्यकुतर्की-जवानीरूपी तकरीब-(अं०-शब्द) उत्सव, दुष्ट बकवादी। जलसा। चोखा ( चोक्ष)--शुद्ध और शीशे पालात-(फा०-शब्द) उत्तम । शीशे के यंत्रसाट, फानूस अजहद-बहुत अधिक। आदि। तिउरी-निगाह, दृष्टि । -:

छठा प्रस्ताव

सन्नहटा-नीरव, शब्दाभाव । । शीतस्पर्शवत्याप.- कणाद तिग्मांशु-(तिग्म = तेज़। मुनि ने पांचों तरवों में से 'अशु-किरण) सूर्य । जल तत्व की परिभाषा में तीखी--(सं. तीक्ष्ण ) तेज़ । लिखा है कि जल वह तत्व है, खरतर-तेज। जो छूने मे शीतल हो। ब्रह्मांड-~जगत्, संसार । दंडायमान-लंबा। तचा-तप्त। . ललाटंतप-ललाट (खोपडी) लोहपिंड-लोहे का गोला। को तपानेवाला, अत्यंत गरम, अनुहार-समानता। .. चैलाफाढ़ धाम । स्थावर-अचल, स्थिर, जो चडांशु (चंड तेज, गरम । चले नहीं, जैसे पेड इत्यादि। अशु-किरण) सूर्य । जंगम-चलनेवाला, चरिष्णु, उच्चाटन-तंत्र के छै अभि. जैसे मनुष्य, पशु इत्यादि । चारी या प्रयोगो में-से, एक ; यावत-जितने।' नाश। स्वगिंद्रिय-स्पशेंद्रिय, जिस | रूपगर्विता-अपने सुंदरापे के इंद्रिय से स्पर्श का ज्ञान हो। । घमंड में भरी हुई। अगरैतिन-परिश्रम करनेवाली, घिष्टपिष्ट-हरा मेलजोल । मेहनतिन । केड़े-(सं० करीर) नया पौधा विक्षेप-खलल। या अंकुर, नवयुवक । ककशा-लड़ाकिन, कटु- गुलछरे-आनंद, भोग-विलास। भाषिणी। निर्गधोज्झित पुष्प-वह प्रेमालाप-प्रेम की बातचीत। फूल, जो सुगंध न रहने से सहिष्णुता-सहन करने की । फेक दिया गया हो। शक्ति । ठौर-(सं० स्थान) जगह । सौहार्द-प्रेम। कुलप्रसूत-उत्तम वंश में अठखेली-(सं० अष्टक्रीड़ा) पैदा हुआ। ,मस्तानी या मतवाली चाल। नटखट-धूर्त, कपटी। अकालजलदोदय-समय में वलीअहंद-स्थानापन्न, वारिस । मेघों का उदय होना ।' उद्घाटन-प्रकट करना, कदर्य-नीच, तुच्छ हृदय खोल देना।'

सातवाँ प्रस्ताव

ईशानकोण-पूर्व और उत्तर । तीर्थलियों-(सं० तीर्थस्थली) के बीच की दिशा। तीर्थ के पुजारी और पंडे। देवखात-किसी. मंदिर के । फूटीझंझी-फूटी कौड़ी, (यहाँ पास का कुंड। के दलालों की बोली)। हलका-घेरा। चिरबत्ती-चिथडा-चिथडा। बइयरबानी-कुलीन स्त्री। विटप-वृक्ष । अभिसंधि-षड्यंत्र, 'चुपचाप आतप-धाम । कई श्रादमियों के मिलकर जियारत-पूजा। एक कोई खास काम करने परिशिष्ट-बची हुई। की सलाह। लहलहे-विकसित, हरे-भरे। हो।'

आठवाँ प्रस्ताव

धृष्टता-ढिठाई, निर्लज्जता। । पौफट-(स० प्रस्फुट) सूर्य अशालीनता-निर्लजता ; का उदय । ढिठाई। . "पौफट......छा गई"- निरंकुश-स्वतंत्र, स्वेच्छा रूपक अलं०। चारी। "बने बने के..... गायब हृद्गत भाव-वह भाव, जो होने लगे ।"-उत्प्रेक्षा हृदय के भीतर हो। थैमाने । हरकसे बाशद-चाहे कोई कालकैवत-कालरूपी मल्लाह। आजुर्दा-( फ़ाo-शब्द ) "कालकैवर्त...समेट खिन्न, दुखी। लिया।"~-रूपक अलं० । बेनजीर-अनुपम ; बेजोड़; "सूर्य लका कबूतर... लासानी । चुग गया"-उपमा अलं० । 'जहूड़ा-(अ. जहूर) ठाठ, रक्तोत्पल . सहश-लाल दृश्य, दिखाव। कमल के समान। मनहूस-कदम-चौपटचरण, वासर-श्री-दिन की शोभा। जिनका पाना अशुभदायक "प्रात. संध्या......इकदा कर रही है"-समासोक्ति कुंदेनातराश-जाहिल, मूर्ख।। अल। ब्राह्मी बेला-सूर्योदय के पहले प्रभाकर-सूर्य। की चार घडी। "अपने विजयी...होगया"--- मंगला आरती-वैष्णव उत्प्रेक्षा अलं०। संप्रदाय में प्रातःकाल की । शनैः शनैः-धीरे-धीरे। पहली भारती। उदयाचल बालमंदार-उदयाचल पर्वत पर उगा । पैरा-( पैर ) आगमन हुश्रा छोटा मंदार नामी श्राना। . स्वर्गीय वृक्ष। . . , परख-(सं. परीक्षा पूर्वदिगंगना-पूर्वदिशारूपी । जाँच। ., . . अंगना (स्त्री)। .। । तीर्थोदक-तीर्थ जैसे गंगा, श्रोत्रिय-वेदज्ञ, वेदपाठी यमुना का जल ।। ब्राह्मण ।।। ओछा-( सं० तुच्छ । ख्नुमारी-नशा। . 'प्राकृत उच्छ) शुद्र, छिछोरा। फ्रारिरा-छुट्टी। । टुच्चा '-(सं० तुच्छ ) नीच, खैरख्वाही भलाई चाहना । • कमीना, छिछोर। ' नुमाइश-बनावट । तिहीदस्ती-तंग हाथ, ग़रीबी। गुंजायश-स्थान, · जगह, 'तरहदारी-शौक़ीनी। .. , समाई। | नफीस-उम्दा।

'नवाँ प्रस्ताव सरहंग-धृष्ट, प्रगल्भ, बागी। | दाँताकिटकिट-लडाई,झगडा।

दसवाँ प्रस्ताव

गैरत-लज्जा। तरहदारी-सजधज का ढंग । शिष्टता-भलमनसाहत । हमशीरा-वहन। । परतेकद-नाटा। . तस्बी-मुसलमानी माला। परिचारक-सेवक ; भत्य । जप्त किए था-चुप था। जघन्य-नीच। . रुखसत-बिदा। ।

ग्यारहवाँ प्रस्ताव

वसीह-लंबा-चौड़ा। । डाइंग रूम-(अंग० शब्द ) आरास्ता-( फ्रा०-शब्द ) सजने या कपडा पहनने का सजा हुश्रा, सुसजित । कमरा, दर्शनगृह, लोगों से मिलने-जुलने का । विकसित - पंडरीक - नेत्र- कमरा। खिले हुए कमल-समान नेत्र । हुस्नपरस्त-सौंदर्योपासक। "यह अपने . कर रही क्यक्रम-उन्न। थी"--उपमा अलं० . .. संजीदगी-गांभीर्य । कोकिलकंठी-कोयल शऊर-सलीक़ा। समान शब्दवाली। अलकावली-छल्लेदार बाल । । मुश्ताक-इच्छुक। ,

बारहवाँ प्रस्ताव

नेचरिये-(अंग. Nature), 'बर्क-चतुर, चमकीला । नास्तिक, जो ईश्वर को न | बेलौस-पक्षपात-रहित । मानकर केवल प्रकृति या तर्रार-चालाक । नेचर ही को संसार का कर्ता- लियाकत में खाम-बुद्धि धर्ता मानते हैं। 'में कमी हाफकास्ट-(अँग०-शब्द) दामनगीर-संलग्न । ' केरानी, यूरेशियन, दोग़ले। | तहफे-नज़र, भेट, सौगात । कुम्मेद-(तुर्की कुमैत) वह गौ-(सं० गम्य) घात, दाँच, घोडा, जिसका रंग स्याही मतलब। लिए लाल हो। इस रंग का गुर्गा-(सं० गुरुग) गुरु का घोड़ा बहुत मज़बूत और तेज अनुगामी, जासूस, दूत । होता है। मरदूद-जड़-बुद्धि ; मूर्ख। आठो गाँठ कुम्मैद-अत्यंत उपासनाकांड-श्राराधना, चतुर, छटा हुअा, चालाक, पूजा। दारमदार-निर्भर। . सरिश्ते-विभाग। गुट्ट-(सं० गोष्टी) समूह; तदीही-सरती, सजा। मुद, दल। केंडिडेट-(अँग० . शब्द) । असरैत-आसरे' या भरोसे उम्मेदवार । पर रहनेवाले, सहारा पाने. फरमाइशें-श्रादेश, माँग। वाले, नौकर-चाकर। मुहैया-उपस्थित करना। गदहपचीसी-प्रायः १६ से २५ 'सिफतें-गुण। । वर्ष तक की अवस्था। जिसमें मुहताज-दरिद्र, निकिचन । लोगों का विश्वास है कि जेहननशीन-(फा०-शब्द ) मनुष्य अनुभव-हीन रहता है, दिल में बैठ जाना। और उसकी बुद्धि अपरिपक ताड़बाज़-भाँपनेवाला। रहती है।

तेरहवाँ प्रस्ताव

फितनाअंगेजी-(फ्रा०-शब्द) । खशनवीसी-सुदर असर दुष्टता। लिखने की कला। सकलगुणवरिष्ट-सब गुणों उजरत-मेहनताना। में श्रेष्ठ । समानसख्यम्-समान शील श्रावक-जैन गृहस्थ, सरावगी। स्वभाव के तथा समान दुख में थाती-धरोहर, अमानत। पड़े हुए लोगों में मैत्री होती है। कीमियागर-(फा०-शब्द ) घात-दाँव । रसायन बनानेवाला। । अभिप्राय-मतलब ।

चौदहवाँ प्रस्ताव ताबड़तोड़-लगातार, बरा; | पलित-जर्जर, शिथिल । बर, शीघ्र । । । चोली-दामन का साथ-बहुत छाबतरी-घटाव, बिगाड, अधिक साथ या घनिष्ठता। अवनति, बुराई। इश्तियालक-उत्तेजना। यक्षवित्त-कुबेर के समान बेखरखशे-बेखटके। धनवाला। | देहकानी-ग्रामीण।

पंद्रहवाँ प्रस्ताव

अटकटारा-(सं० उष्ट्रकंट) | रचना, जो अनजान में उसी एक कटीली झाड़ी, जिसे ऊँट प्रकार हो जाय, जिस प्रकार बडे चाव से खाता है। घुनों के खाते-खाते लकडी में नीचैर्गच्छति ...."चक्रनेमि- - ‘अक्षरों की तरह से बहुत-से क्रमेण-मनुष्य की दशा चिह्न या लकीरें बन जाती हैं। पहिए के चाके के समान कभी इस न्याय का प्रयोग ऐसे ऊपर कभी नीचे को जाती है, स्थलों पर करते हैं, जहाँ किसी अर्थात् कभी अच्छी दशा के द्वारा ऐसा अाकस्मिक कार्य होती है, और कभी खराब । हो जाता है, जो उसे ज्ञात व • ग्रीष्म-संताप-तापित-गर्मी की | अभीष्ट न रहा हो। - ताप से जली हुई। "दिन में हो जाता है"- वसुधा-पृथ्वी। उपमा अलं। नववारिद-नए बादल । सम-विषम-भाव-ऊबढ़- वन-उपवन-बाग़-बगीचे । खाबड़ स्वरूप या दशा। वदान्य-उदार । तत्त्वदर्शी-ब्रह्म का जानने- कथानक-उपन्यास, किस्सा।। वाला, ब्रह्मज्ञानी। "नदी-नाले 'बह निकले" "पृथ्वी पर... जाता ही उपमा अलं। रहा"-उपमा अलं०। कलध्वनि-मीठा शब्द । शगल-काम। "विमल - जल"."लायक नववारिद - समागम-नए हुए"-उपमा श्रलं। वादल का श्रागमन । । "सूर्य-चंद्रमा..... पुजवाने भेकमंडली-मेंढकों का समूह। लगे"-उपमा अलं। वाचाट-मुखर, वकवादी, घुणाक्षर-न्याय-ऐसी कृति या | गपोदिया। प्ररुओं-पक्षियों। कज्जाक-(तुर्की शब्द) डाकू, जशन-(फ़ा०-शब्द)जलमा। लुटेरा, चालाक ।'

सोलहवाँ प्रस्ताव

पैगंबर-अवतार, ईश्वर-दूत । । गुनहगार-पापी।

सत्रहवाँ प्रस्ताव

चंपत हुआ-ग़ायब हुआ। । डामिल-(अ-दायमुल्ह हन्स) छनक-भड़क । जन्म कैद । हैरतअंगेज-भय-जनक । । फरोग-उन्नति, वृद्धि। साजनादिर-कभी को या तकमीला-पूर्णता। कभी-कभी।

अठारहवाँ प्रस्ताव

सुर्खरई-प्रशंसा। हकीर-(फा०-शब्द) तुच्छ । हमनिवाले सहभोजी।

उन्नीसवाँ प्रस्ताव

अवसान-अंत, पोर। बहिमि-बाहर की भोर; ईर्षा - कलुषित-दाह से - बहिरी ओर। । काली। भौचक्की-घबराई हुई।

बीसवाँ प्रस्ताव

निस्वार्थ-विना मतलब के। श्राज सबेरे ही अशुभ दर्शन नामसंकीर्तन-नामोल्लेख । हुआ। चारुचंचरीक-भ्रमर, भरा। आलबाल-थावला। अद्यप्रातरेवानिष्टदर्शनम्- तोफ़गी-उम्दगी ।

इक्कीसवाँ प्रस्ताव

वानीमुबानी-जड जसाने- तौहीन-अपमान । वाला।

बाईसवाँ प्रस्ताव

तजवीज- फा०-शब्द ) राय, | कातिव-( अ० . शब्द ) फैसला। लेखक ।

तेईसवाँ प्रस्ताव

यत्रास्ते.. तदपि मृत्यवे-मिलावट है, उससे भी मृत्यु जिस अमृत में विप की कुछ भी । ही होती है ।

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