सतिवन (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट

Sativan (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt

सुबह मैं अपने कमरे में बैठा एक रोचक जासूसी उपन्यास का आखिरी अध्याय बड़े चाव से पढ़ रहा था। तभी बाहर के बरामदे से किसी की पदचाप और खंखारने की आवाज आयी। मैंने सिर उठाकर दरवाजे की ओर देखा, तो पंचायत अफ़सर पत्मनाभन नंपियार बरामदे में खड़े थे।

"अरे आप ! आइए-आइए !" मैंने उपन्यास में खलनायक की गरदन के पीछे बढ़ने वाले रोमावृत हाथों के नजदीक अपनी उँगली रखते हुए अफसर को भीतर आने का निमंत्रण दिया ।

मोटे-ताजे, गोरे-चिट्टे नाटे पंचायत अफसर पत्मनाभन नंपियार। उनका सिर गंजा था नाक पर चश्मा। वे बर्ताव और बातचीत में शुष्क थे। उनकी शक्ल दस्तावर दवा पीकर, रास्ता भूलकर आने वाले की तरह लगती थी।

"हमारी नयी सड़क का काम आज शुरू हुआ है," अफसर ने कुर्सी पर आसीन होने के बाद फरमाया, "ठेकेदार पोक्कर हाजी सोलह मजदूरों से पूर्व की ओर काम करा रहा है।"

"इस खुशख़बरी के लिए बधाई ?" मैंने हँसते हुए सिर हिला कर कहा । मैंने उन्हें बधाई अपने दिल से ही दी थी। वे शुष्क स्वभाव के थे, फिर भी पंचायत के काम में इतनी योग्यता और ईमानदारी से करने वाला और कोई अफ़सर शायद ही केरल में या अन्य कहीं नज़र आए। हमारी नयी तूंपोला पंचायत की आश्चर्यजनक उन्नति का मुख्य कारण पत्मनाभन नंपियार की ही योग्यता, उत्साह और ईमानदारी थी।

"मैं आपको एक जरूरी बात याद दिलाने आया है, उस 'कुलियन कोना सतिवन की बात ।" अफसर ने अपना गंजा सिर खुजलाते हुए कहा, "वह जगह पंचायत को सड़क बनाने के लिए दान देने की बात थी। अब उसका इकरारनामा हो जाना चाहिए।

उपन्यास में खलनायक की गरदन की ओर बढ़ते रोमावृत हाथों की याद कर मैंने कहा, "अच्छा, यह बात है ?"

"हाँ । यह काम आज ही हो जाता, तो अच्छा होता।" अफसर ने कहा ।

मैं वह बात बड़े मामा से कहना एकदम भूल गया । "कोई बात नहीं । उसमें कोई दिक्कत नहीं होगी। वह हमारे घराने की ऊसर जमीन है ?..."

"यह तो ठीक है। मगर इकरारनामा जरूरी है, ताकि आगे कोई झंझट न हो।"

उपन्यास के रोमावृत हाथ आगे क्या करते हैं, यह जानने के सामने अफसर की इकरारनामे की बात मुझे बेकार लगी। मैंने कहा, "ठीक है। अब आप जाइए।"

मुझे तुरन्त लगा कि मुझे उनसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी। हो सकता था कि वे पंचायत के बारे में मुझे कुछ और भी बताना चाहते हों। लेकिन बात तो मुंह से निकल गयी थी। अब मैं क्या करता?

अफसर मेरी बात सुनते ही फौरन उठे और बिना कुछ कहे बाहर निकल गये।

मैंने उपन्यास समाप्त किया। (वे रोमावृत हाथ नायक के ही थे ।) फिर किताब बन्द की, तो सहसा ही पंचायत अफ़सर पत्मनाभन नंपियार का उतरा चेहरा मेरी आँखों के सामने नाच उठा। तब मैंने अफसर को खुश करने के लिए 'कुलियन कोना' की समस्या के बारे में उसी रात भोजन करने के बाद बड़े मामा से मिलने का निश्चय किया।

मैं अपने बड़े मामा से आप लोगों का परिचय करा दूं। वे एक कट्टर रूढ़िवादी कारणवर (घर के मुखिया) हैं। सिर पर तीन इंच की चोटी और कानों की बालियों का अब भी वे संरक्षण करते हैं। उनके मुंह में एक भी दाँत नहीं बचा है। मैंने नकली दांतों को लगवा लेने का आग्रह उनसे कई बार किया था। फिर भी उन्होंने मेरी बात नहीं मानी थी। मसूढ़ों को बाहर दिखाते हुए एक कार्टूनी हंसी हँसकर वे कहते थे, "अरे बच्चू ।' मुझे क्या अब शादी करनी है ?" बड़े मामा ने शादी की ही नहीं थी। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे थे । पान-सुपारी या सूंघनी का प्रयोग भी वे नहीं करते । धूम्रपान की बात से भी वे कोसों दूर हैं । इस तरह के बुजुर्ग होने पर भी विचारों से प्रगतिवादी थे। हमारे इलाके में पंचवर्षीय योजना के लागू हुए, डाक घर खुले और प्राइमरी स्कूल शुरू हुए अधिक दिन नहीं हुए थे। बैटरी से चलने वाला रेडियो घर आया और उसमें से 'गन्धर्व गान' निकला, तो ताली बजाकर ताल देते हुए पहले-पहल उन्होंने ही बधाइयां दी थीं। मैं तूंपोला पंचायत का सभापति चुना गया, तो खुशी के मारे उनकी आँखों में आँसू आ गये । वह दृश्य आज भी मैं भूला नहीं हूँ। अपने घराने में एक आदमी पंचायत का सभापति हुआ, इससे उन्हें बड़ी खुशी हुई थी। कभी-कभार वे मुझे अपने पास बैठाकर पंचायत की कार्यवाहियों के बारे में पूछताछ करते और कहते, "अप्पुक्कुट्टन, हमें अच्छी सड़कें और पगडंडियाँ चाहिए। हमारे शरीर में जिस तरह रगें हैं, उसी तरह हमारे इलाके में सड़कें और पगडंडियाँ होनी चाहिए।"

मैं भी उनकी राय से सहमत होता ।

हमारे गाँव से दो मील पूर्व और डेढ़ मील पश्चिम एक-एक पुरानी सड़क थी। लेकिन उनको मिलाने वाली कोई सड़क नहीं थी। उनके बीच चट्टानें, टीले, तराइयाँ और छोटे-छोटे खेत थे। बारिश के दिनों में लोगों को परेशान करने के लिए एक छोटी-सी नदी भी थी। उसके अलावा एक नाला भी था उस नाले की एक दास्तान भी थी। करीब तीस बरस पहले इस इलाके के पटवारी की औरतों को नहाने के लिए ढाई मील दूर नदी पर जाना पड़ता था । यह देखकर पटवारी बहुत दुखी होता था। उसने नदी को अपने घर के पास लाने के लिए एक नाला खोदवाने का बदोबस्त किया। उसने घर के पास से ही नाला खोदवाने की शुरुआत की। अभी आधा ही काम पूरा हुआ था कि पटवारी के पास की रकम खतम हो गयी थी। फिर नाला वहीं तक खुदकर रह गया। उसने अगर नाला नदी के पास से खुदवाना शुरू किया होता, तो उसके घर की औरतों को नहाने के लिए अधिक दूर नहीं जाना पड़ता । वे आधी दूरी तय करके ही वे नाले में नहा सकती थीं। उस पटवारी की अक्ल की यादगार रूप में वह ऊबड़-खाबड़ नाला अब भी मौजूद है।

तूंपोला पंचायत को एक पंचायत बनाने के लिए मैने मामा की सलाह के अनुसार नयी सड़कें बनवाने का जोर दिया। पंचायत अफसर पत्मनाभन नंपियार ने यह काम पूरा करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की। हमने पहले पूर्व और पश्चिम की सड़कों को जोड़ने वाली एक नयी पंचायत-सड़क बनाने की योजना बनायी भी। इस सड़क के मार्ग में पड़ने वाली जमीनों को उनके मालिकों ने पंचायत को दान देने में ना-नुकर नहीं की थी। महज एक-दो अहातों के मालिकों को कुछ पैसे देने पड़े थे । सड़क पश्चिम से आधा मार्ग तय करने पर दो टीलों के बीच की तराई से एक छोटे खेत की ओर जाती थी। खेत और टीले के बीच चढ़ाई थी। उस चढ़ाई के एक हिस्से को काटकर सड़क का निर्माण करना था। उस चढ़ाई की जगह को लोग 'कुलियन कोना' कहते थे। वह हमारे घराने की ही एक पुरानी जगह थी। पंचायत अफ़सर ने उसी जगह के बारे में मुझसे बात की थी।

उस रात मैं भोजन कर बड़े मामा से बात करने उनके दुमंजिले मकान के ऊपर उनके कमरे में पहुंचा।

बड़े मामा उस समय एक हाँडी में लेह भर रहे थे। वे अपने लिए खुद दवाइयाँ तैयार कर उनका सेवन करते थे।

"कहो, अप्पुक्कुटन, पंचायत के काम-काज कैसे चल रहे हैं ?" बड़े मामा ने पत्ते से हाँडी का मुंह ढंककर, एक चिथड़े से हाथों को पोंछते हुए पूछा और मसूड़ों को दिखाते हुए हँस पड़े। बड़े मामा का चेहरा हंसते वक्त रोने के समान और रोते वक्त हँसने के समान दिखायी देता था।

मैंने उन्हें पंचायत के नये कार्यक्रमों के बारे में बताया। उसमें मुख्य कार्य सड़क का निर्माण है । नयी सड़क की योजना, उसकी लम्बाई, खर्च के हिसाब आदि की बातें सुनकर उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ। फिर थोड़ी देर कुछ सोचने के बाद उन्होंने कहा, “सड़क के किनारे कहीं भेड़ों को पानी पीने के लिए एक पोखरी और एक पंडाल भी बनवाना चाहिए । उनका खर्चा मैं दे दूंगा।"

मैंने कहा, पोखरी और पंडाल तो पुरानी चीजें हैं और है फिजूल खर्ची भी । आगे चलकर सड़क के किनारे चाय और दूसरी चीजों की दुकानें बनेंगी। हो सकता है कि इस सड़क पर बसें भी चलने लगें।

बड़े मामा को मेरी बात से सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने सिर्फ सिर हिलाया।

फिर मैंने 'कुलियन कोना' के बारे में बात शुरू की, "कोरन टीले के निचले हिस्से से जाकर, कुलियन कोना चढ़कर, चन्दोमन खेत से होकर नयी सड़क जाएगी । कुलियन कोना की वह जगह पंचायत को दान देना है।"

"क्या ?" उन्होंने अजीब स्वर में कहते हुए मेरी ओर आंखें फाड़कर देखा ।

"हमारे कुलियन कोने से होकर ही नयी सड़क जाएगी। वह जगह हमें पंचायत को देनी है।" मैंने ऊँची और स्पष्ट आवाज़ में दुहराया।

"हमारे कुलियन कोने से ?""तब वह सतिवन का क्या होगा ?" बड़े मामा ने शंकित होकर पूछा।

"जहाँ सतिवन है, वहीं से सड़क जाएगी। वहाँ तो अब एक ही पेड़ है। उसे कटवा दिया जाएगा।

बड़े मामा ने भारी असमंजस में पड़कर सिर झुका लिया। उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयीं, नसें ढीली हो गयीं, गालों की ढीली चमड़ी लटक गयी और उनकी मुद्रा कथकली नट की उस मुद्रा की तरह हो गयी, जब वह मन की चिन्ता का भाव प्रदर्शित करता है। उनकी पकी हुई भौंहें बारबार ऊपर-नीचे हो रही थीं। नीचे का ओठ काँप रहा था। गड्ढों में फंसी आँखें फैली हुई थीं। ठुड्डी की हड्डी हौले-हौले हिल रही थी और हाथ जैसे कोई किशारा करते उठे हुए थे।

"वह जगह हमें पंचायत को दान दे देनी चाहिए," मैंने फिर अपनी राय दी।

तब उन्होंने अपने मन का भाव दबाते हुए मेरी ओर घूरकर देखा । उनका ऐसा विकृत चेहरा मैंने पहले कभी भी नहीं देखा था।

"अप्पुक्कुट्टन अब तुम यहाँ से चले जाओ!" मामा ने चीखकर कहा, "मेरी मृत्यु के बाद ही तुम सतिवन को काट सकते हो !" (आखिरी वाक्य उन्होंने दबी आवाज में कहा था ।)

मैं यह सोचता हुआ कमरे से बाहर निकला कि बड़े मामा को आज क्या हो गया है ? बड़े मामा ने क्या कोई ऐसी दवा खा ली थी, जिसमें अफीम की या गाँजा की मात्रा अधिक थी? जरूर कोई गड़बड़ी तो हुई ही थी।

मैंने अपने कमरे में आकर, बिस्तर पर एक नया जासूसी उपन्यास पढ़ने के लिए उठाया । मगर मेरा ध्यान उपन्यास पढ़ने में केन्द्रित नहीं हो रहा था। मेरा मन बार-बार बड़े मामा की बातों में ही उलझ-उलझ जाता था। अगर मामा कुलियन कोना देने से इनकार कर दें तो मैं क्या कर सकता था। पंचायत का सभापति होकर मैं ही अपनी जगह सड़क के निर्माण के लिए नहीं दूंगा, तो लोग क्या कहेंगे। मेरी समझ में न आ रहा था कि आखिर उस सतिवन का क्या महत्त्व था कि बड़े मामा उसके कटने की बात सुनते ही मर्माहत हो गये थे।

अगले दिन सुबह ही फिर पंचायत अफ़सर के गंजे सिर का दर्शन हुआ। मुझे मालूम हुआ कि अफसर को कुलियन कोने के बारे में कुछ चिन्ता थी। उन्हें यह भी शिकायत थी कि मैं सभापति होकर भी पंचायत रोड के निर्माण की जगहों को देखने क्यों नहीं गया।

"मैं थोड़ी देर के बाद उधर आऊंगा,” मैंने अफसर से बड़े अदब से कहा, "और कुलियन कोने का इकरारनामा कल सुबह दूंगा।"

सुनकर अफसर चले गये । लेकिन उनके चेहरे से मुझे लगा कि मेरी बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ था।

ग्यारह बजे मैं पंचायत-सड़क की जगहों को देखने जा पहुँचा। अफ़सर की रिपोर्ट ठीक थी। ठेकेदार हाजी के मजदूर फावड़ों से, टीलों, चट्टानों और अहातों को खोद रहे थे और टोकरियों में मिट्टी ढो-ढोकर सड़क पर डाल रहे थे। वे इस तेजी से काम कर रहे थे कि लगता था कि दो दिन के अन्दर ही कुलियम कोने तक पहुँच जाएंगे। यह सोचते ही मेरा दम फूलने लगा।

मुझे बड़े मामा का मन बदलने के लिए एक बार कोशिश करनी चाहिए, मैंने सोचा। फिर भी वे नहीं मानते, तो मुझे विद्रोह करने के लिए तैयार होना पड़ेगा।

मैं उसी दिन रात बड़े मामा के यहां फिर पहुंचा।

बड़े मामा का विरोध करने की बात सोचते ही मेरा मन सिहर-सिहर उठता।

सीढ़ियाँ चढ़कर मैं ऊपर बरामदे में पहुँचा और एक बार इधर-उधर देखा । चाँदनी फैली हुई थी। वहाँ से कुलियन कोना चांदनी में दिखायी दे रहा था। उस टीले पर नीले आकाश के नीचे अकेला खड़ा वह ऊँचा वृक्ष दूध-सी चाँदनी में यक्षिणी के प्रासाद की तरह दिखायी दे रहा था।

कुलियन कोना और सतिवन के बारे में मैंने कई कहानियाँ बचपन में सुनी थीं। बचपन में ओणम के दिनों में हम वहाँ फूल तोड़ने जाते थे।

मेरा खयाल था कि वह टीला 'कुलियन कोना' था और वृक्ष सतिवन था। मैंने बचपन में जो कहानियां सुनी थीं, वे आज भी मुझे याद थीं। मैंने सुना था कि सतिवन की डालों पर चांदनी की तरह श्वेत शरीर वाली, नग्न यक्षिणियाँ चाँदनी में झूला झूलकर क्रीड़ा करती थीं और मुंह से चिनगारियाँ उगलने वाले शैतान पेड़ के नीचे शुक्रवार की रात में चक्कर लगाते हुए नाचते थे। वे पथिकों को गुमराह कर इधर-उधर दूर-दूर तक घुमाते और आखिर दो मील दूर भगवती-मंदिर के अंधकूप में गिरा कर मार डालते । लोग दिन में भी वहां से गुजरते हुए डरते थे। मैंने वृक्ष के नीचे ओझाओं द्वारा चढ़ायी गयी मिट्टी की मूर्तियाँ, चूने से पोती मिट्टी की हांडियां, जली हुई अगरबत्तियां, मुर्गे के सिर आदि पड़े हुए देखे थे।

ऐसे अंधविश्वासों और प्रेत-कथाओं से सम्बद्ध सतिवन को काट डालना उस इलाके के लिए वरदान ही होता, ऐसा मैं समझ रहा था । बड़े मामा क्यों रोक रहे थे, मेरी समझ में न आ रहा था। किसी भी ऐसे सुधार के कार्य में बड़े मामा ने कभी रुकावट पैदा नहीं की थी । खासकर पंचायत की तरक्की के कामों में वे बड़े उत्साह से भाग ले रहे थे । सड़क बनवाने की योजना भी उन्हीं की थी। लेकिन अब उनका इस कार्य में रुकावट डालना मुझे बड़ा विचित्र लगा। मुझे सन्देह हुआ कि कहीं बड़े मामा ने उस पेड़ के नीचे कोई मूल्यवान वस्तु तो नहीं गाड़ रखी थी यह सब सोचकर उस पेड़ को काट डालने की मुझे जिद-सी हो गयी । मगर बड़े मामा की अनुमति के बिना मैं यह काम कैसे कर पाऊँगा, यह समझ में न आ रहा था।

मैं धीरे से बड़े मामा के कमरे में दाखिल हुआ । वहाँ सन्नाटा छाया था। मुझे सन्देह हुआ कि बड़े मामा सो तो नहीं गये।

बड़े मामा की मेज पर एक बत्ती हलकी रोशनी छोटी सी जल रही थी। और मामा पलंग पर चादर ओढ़कर लेटे हुए थे।

मैं खंखारकर खड़ा हो गया । पलंग पर फिर भी कोई हरकत नहीं हुई। एक पत्ते के गिरने की आवाज सुनने पर फौरन नींद से जाग जाने वाले मामा मेरे खंखारने पर भी एक सूखे पेड़ की तरह पड़े रहे।

तब मैंने पलंग के नजदीक जाकर उनकी देह छूकर पुकारा । फिर भी मामा में कोई हरकत नहीं हुई । तब मैंने शंकित होकर उनका हाथ पकड़ कर लिया । लेकिन मेरा हाथ उनके हाथ की बर्फ की तरह ठंडक महसूस कर तुरन्त छूट गया। मैंने कांपते हाथ से चादर उठाकर देखा, बड़े मामा निष्प्राण पड़े थे।

तकिये पर एक कागज पड़ा देखकर मैंने उसे उठा लिया। और उसे खोलकर देखा । बड़े मामा ने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-

गोपनीय अप्पुक्कुटन को मामा की ओर से-

मैंने जिस स्त्री से मोहब्बत की थी, उसने मेरी और घराने की इज्जत बचाने के लिए कुलियन कोना के सतिवन की डाल पर लटककर अपनी जान दे दी थी। इस घटना को हुए पचास बरस बीत गये हैं। ओणम के दिन ही यह घटना घटी थी। मैं सतिवन को देखकर ही जिन्दा रहा। अब मैं जा रहा हूँ। पंचायत की सड़क बनने में कोई अड़चन न पड़े, तुम कुलियन का कोना दान कर दो। और सतिवन को काट डालो।

(बड़े मामा ने बहुत अधिक अफ़ीम खाकर आत्महत्या की थी। मेज पर पड़ा अफ़ीम का पत्ता और उनका काला पड़ा शरीर इस बात के सबूत थे।)

कमरे की खुली हुई खिड़की से मैंने बाहर देखा । दूर कुलियन कोना और सतिवन दिखाई दे रहा था । मुझे लगा कि आधी शती के पार एक अज्ञात प्रेम की स्मृतियाँ एक रेशमी छाता मोर-पंख की तरह चाँदनी में सतिवन के ऊपर आसमान में उड़ रही थीं।

आगरा के किले में बंदी-गृह के कमरे से जिस प्रकार शाहजहां खिड़की से अपनी प्रेमिका का मकबरा ताजमहल देखकर जिन्दा रहा था, उसी तरह मेरे बड़े मामा भी अपने कमरे की खिड़की से कुलियन कोना का अपने प्रेम का स्मारक सतिवन देखकर जिन्दा रहे थे। यह सोचकर जैसे मुझ पर भी अफीम का-सा नशा हो गया।

बड़े मामा के क्रिया-क्रर्म तक सड़क का निर्माण कार्य स्थगित कर दिया गया। फिर एक सुबह मजदूर सतिवन को काट गिराने पहुँच गये और मैं वहाँ खड़ा-खड़ा कुल्हाड़ी की एक-एक चोट में आधी शती के पार उस अज्ञात प्रेम की कहानी की गूँज सुनता रहा । फिर मेरा सिर घूमने लगा और मैं बेहोश-सा हो गया।

(बाद में लोगों ने मुझे बताया कि मैं चक्कर खाकर गिर पड़ा था और पंचायत अफसर पत्मनाभन नंपियार ने मुझे उठाकर लिटा दिया था।)

आज कुलियन कोना से होकर जाती नयी सड़क हमारी तूंपोला पंचायत की विजय-पताका की तरह दिखाई देती है। सतिवन के सामने सड़क के किनारे पंचायत की बत्ती का नया खंभा गाड़ दिया गया है।