सती मैया का चौरा (उपन्यास) : भैरव प्रसाद गुप्त

Sati Maiya Ka Chaura (Hindi Novel) : Bhairav Prasad Gupta

पहला भाग और दूसरा भाग

कॉलेज के दिनों में कब और कैसे उसका नाम ‘प्रेमी’ पड़ गया, यह वह आज भी नहीं जानता। उसका यही नाम युनिवर्सिटी तक प्रचलित रहा। लडक़े, प्रोफ़ेसर, सभी उसे इसी नाम से पुकारते। उसका असल नाम किसी को मालूम न हो, यह बात नहीं, लेकिन जाने क्यों कोई भी उसे उस नाम से न पुकारता। यहाँ तक कि हॉस्टल और मेस के नौकर-चाकर भी उसे ‘प्रेमी बाबू’ कहकर ही पुकारते। उसकी अपनी ज़बान उर्दू थी, उसने कॉलेज में और युनिवर्सिटी में भी उर्दू ले रखी थी। ‘बज़्मे उर्दू’ का वह बराबर सेक्रेटरी रहा और कॉलेज और युनिवर्सिटी के उर्दू रिसालों का एडीटर भी। लेकिन साथ ही वह ‘हिन्दी परिषद्’ की कार्यकारिणी का विशेष सदस्य भी रहा था और उसके ज़माने में ‘हिन्दी पत्रिका’ का कोई ऐसा अंक न निकला, जिसमें उसका कोई-न-कोई लेख न छपा हो। उर्दू-प्रोफ़ेसरों के मुक़ाबिले में हिन्दी के प्रोफ़ेसर भी उसका कम सम्मान न करते थे। और उसका साहस तो देखिए, वह हिन्दी-परिषद् के कार्यक्रमों और उत्सवों में ही नहीं, वार्षिक वाद-विवाद-प्रतियोगिता में भी भाग लेने को तैयार हो जाता था। उसे याद है...

पहली बार जब लडक़ों को मालूम हुआ कि वह भी ‘हिन्दी परिषद्’ की वाद-विवाद-प्रतियोगिता में सम्मिलित हो रहा है, तो कॉलेज में एक तहलक़ा-सा मच गया। जिसने भी नोटिस-बोर्ड पर लटकी सूची में उसका नाम पढ़ा, चकित होकर पासवाले लडक़े से कहा-अरे, देखा तुमने, प्रेमी भी हिन्दी डिबेट में भाग ले रहा है!

और यह बात एक सनसनीख़ेज ख़बर की तरह सारे कॉलेज में फैल गयी। प्रेमी उस वक़्त तक कॉलेज में मशहूर हो चुका था। वह इतिहास, राजनीति और उर्दू की डिबेटों में अव्वल आकर नाम कमा चुका था। लेकिन वह हिन्दी वाद-विवाद-प्रतियोगिता में भी भाग लेगा, यह बात कोई स्वप्न में भी न सोच सकता था। हिन्दी हिन्दी है और उर्दू उर्दू! उर्दू का कोई विद्यार्थी यह साहस करेगा, इसकी कल्पना भी किसी को न थी। हिन्दी वाद-विवाद-प्रतियोगिता केवल किसी साधारण विषय के प्रतिपादन की प्रतियोगिता नहीं, वह किसी शुद्ध साहित्यिक विषय पर ठेठ साहित्यिक भाषा में धारा-प्रवाह बोलने और विषय-प्रतिपादन की प्रतियोगिता है। भला क्या खाकर प्रेमी इसमें भाग लेने का साहस कर रहा है?

हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए तो यह बात और भी हैरत में डालनेवाली थी। वे भली-भाँति जानते थे कि उनकी प्रतियोगिता भाषा और साहित्य दोनों दृष्टियों से कितनी कठिन होगी। उनके दोनों प्रोफ़ेसर संस्कृत विभाग भी सम्हाले हुए थे और उनके मुँह से भूलकर भी कोई उर्दू का शब्द न निकलता था। लेखों में विशेष रूप से वे शुद्ध साहित्यिक भाषा पर ज़ोर देते थे। वे ही प्रतियोगिता के निर्णायक होंगे। भला उर्दू का विद्यार्थी प्रेमी उन्हें कैसे सन्तुष्ट कर सकता है? बोलने की शक्ति भले ही उसमें जितनी हो, लेकिन वह भाषा कहाँ से लायगा?

और उर्दू के विद्यार्थियों को तो ऐसा लगा, जैसे उनका कोई पठ्ठा दूसरे के अखाड़े में दंगल मारने जा रहा हो। कॉलेज में, हॉस्टल में, सभी जगह वे हिन्दी-विद्यार्थियों को ललकारने लगे, चिढ़ाने लगे-चुल्लू-भर पानी में डूब मर जाने का यह मुक़ाम है!

और सुना तो यह भी गया कि हिन्दी-संस्कृत के प्रोफ़सरों को जब यह बात मालूम हुई तो वे हँसे, लेकिन फिर गम्भीर होकर उन्होंने आपस में राय-बात की कि कहीं सचमुच यह दुस्साहसी लडक़ा उनके विभागों को नीचा न दिखा दे। इस सम्भावना को देखते हुए उन्हें पहले ही कोई-न-कोई उपाय सोचना चाहिए और बहुत सोच-समझकर वे इस निर्णय पर पहुँचे कि कम-से-कम उन्हें अपने दो पठ्ठों को तो अवश्य तैयार करना चाहिए और उन्हें सभी दाँव-पेंच सिखा देना चाहिए, यानी कि उन्हें पहले से ही प्रतियोगिता का विषय ही नहीं बता देना चाहिए, बल्कि उसके पक्ष और विपक्ष में एक-एक श्रेष्ठ वक्तृता स्वयं तैयार करके उन्हें रटा भी देना चाहिए।

जब यह अफ़वाह कॉलेज में फैली, तब तो और भी हो-हल्ला शुरू हो गया। देखा यह गया कि हिन्दी-संस्कृत विभाग के विरोध में सारा कॉलेज ही उठ खड़ा हुआ और अचानक प्रेमी उन-सबका हीरो बन गया। सब उसके प्रति सहानुभूति दर्शाने लगे, उसकी पीठ ठोंकने लगे, उसकी जीत की कामना करने लगे और हिन्दी-संस्कृत के विद्यार्थियों को सरे-आम धिक्कारने लगे।

उर्दू-फ़ारसी के दोनों प्राफ़ेसरों ने पहले इस बात को प्रेमी का महज़ एक मज़ाक समझा था। लेकिन अब, जब उनके कानों में ये बातें पड़ीं तो सहज ही उन्हें भी कुछ दिलचस्पी हुई। उन्होंने एक दिन दोपहर की छुट्टी में प्रेमी को अपने कमरे में बुलाया।

एक ने कहा-भई प्रेमी, ये कैसी बातें सुनाई दे रही हैं?

-क्या बताएँ, मौलाना, मुझे सख़्त अफ़सोस है,-प्रेमी ने मुरझाये-से स्वर में कहा-मुझे अगर मालूम होता कि एक मेरे नाम देने से ऐसा बवाल मचेगा, तो मैं अपना नाम हर्गिज़ न देता। मैं तो अब सोच रहा हूँ कि अपना नाम वापस ले लूँ। नाहक़...

-भई वाह!-दूसरे ने कहा-यह तो वही मसल हुई कि आग लगाके जमालो दूर खड़ी! ...नहीं, साहब, अब नाम आपके दुश्मन वापस लें! हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा! हम तो आपकी हिम्मत पर निसार हैं कि आपने अपना नाम दिया और उनके छक्के छूट रहे हैं

-हाँ, भई,-पहले ने कहा-हमने तो सुना है...

-वह सब न कहिए, मौलाना,-प्रेमी कुछ झुँझलाया-सा बीच ही में बोल पड़ा-यह-सब न कहिए! मैंने तो ख़ाब में भी न सोचा था कि यह-सब होगा। मैंने तो सोचा था कि मेरे नाम देने से लोगों को ख़ुशी होगी। एक ग़ैर ज़बान का तालिबइल्म समझकर लोग मेरी हिम्मत-अफ़जाई करेंगे। लेकिन यहाँ तो मुक़ाबिले की एक ग़ैर-सेहतमन्द फ़िज़ा तैयार कर दी गयी; इसे अपने डिपार्टमेण्ट की इज़्ज़त का सवाल बना दिया गया और...क्या बतावें, मौलाना, मुझे सख़्त अफ़सोस है, आजकल कॉलेज और हॉस्टल की जिस फ़िज़ा में मैं साँस ले रहा हूँ, उसमें मेरा दम घुट रहा है! सोचता हूँ, यह कैसी कमबख़्ती मुझ पर सवार हुई, जो मैं अपना नाम दे बैठा।

-नहीं-नहीं, प्रेमी साहब!-दूसरे ने कहा-आप ऐसी बात दिल में न लाइए। आपने जो किया, बिल्कुल ठीक किया है। हम आपकी हिम्मत की दाद देते हैं। हमें पन्द्रह साल हो गये इस कॉलेज में पढ़ाते, कभी भी ऐसा नहीं देखा गया कि हमारे डिपार्टमेण्ट के किसी तालिबइल्म ने हिन्दी डिबेट में हिस्सा लिया हो। आप तो एक रिकार्ड क़ायम करने जा रहे हैं, एक तवारीख़ लिखने जा रहे हैं! हमें आप पर फ़ख्र है। आप इस तरह पस्त-हिम्मती से काम न लें। अब क़दम उठाया है तो पीछे न हटिए। बात इतनी आगे बढ़ गयी है कि अब आप पीछे हटेंगे तो सिर्फ़ आपकी किरकिरी न होगी, हमारे डिपार्टमेण्ट की भी बदनामी होगी।

-आप भी ऐसा ही सोचते हैं, मौलाना?-प्रेमी ने जैसे निढाल होकर कहा।

-और क्या सोचें, भई?-पहले ने कहा-हमारा यह पाँचवाँ कॉलेज है और इसी पेशे में हमारे बीस साल गुज़र चुके हैं। एक बेहतर कॉलेज की खोज में हमारी ज़िन्दगी सर्फ़ हो गयी, लेकिन वह मिलने से रहा। हर जगह एक ही बात देखी, जैसे किसी बड़ी मजबूरी से उर्दू-फ़ारसी के डिपार्टमेण्ट चलाये जा रहे हों। उनका बस चले तो आज ही ये डिपार्टमेण्ट बन्द कर दिये जायँ। हिन्दी-संस्कृत डिपार्टमेण्ट की तो जैसे हमसे पैदाइशी दुश्मनी है। एक दबंग सौत की तरह ये हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए हमेशा तैयार बैठे रहते हैं। प्रिन्सिपल हमेशा इनकी तरफ़दारी करता है, उन्हें हमसे कहीं ज्यादा सहूलियतें देता है, कहाँ तक आपको गिनाएँ कैसी-कैसी बेइज़्ज़तियाँ और हक़तल्फ़ियाँ बर्दाश्त करनी पड़ती हैं! अब यह एक अपना ही मामला लीजिए...

-मेरी बात छोडि़ए, मौलाना। मुझे ऐसी बातों में दिलचस्पी नहीं। मैं तो हर ज़बान की इज़्ज़त अपनी ज़बान ही की तरह करता हूँ।-प्रेमी ने कहा-इस तरह की बातें तो मेरी समझ ही में नहीं आतीं।

-हम भी तो यही चाहते हैं, प्रेमी साहब,-दूसरे ने कहा-लेकिन ये हमें फूटी आँख भी नहीं देख सकते, यह हमारी पूरी ज़िन्दगी का तजुर्बा है। ...आप ज़रूर उनकी डिबेट में हिस्सा लें। हम ख़ुदा से दुआ करेंगे कि आप ज़रूर कामयाब हों! सचमुच, आप अव्वल आ जायँ, फिर तो मज़ा आ जाय! लेकिन आप इस बात का पूरा ख़याल रखें कि ये हर साज़िश, ‘‘बेइंसाफ़ी’’ और बेईमानी से काम लेंगे, यह बात अब साफ़ हो गयी है। लेकिन आप घबराएँ नहीं, हम-सब उस रोज़ जलसे में शामिल होंगे और देखेंगे कि कैसे कोई नाइंसाफ़ी करते हैं। बल्कि हम प्रिन्सिपल से ये भी दरख़ास्त करने की सोच रहे हैं कि चूँकि हमारे डिपार्टमेण्ट का भी एक तालिबइल्म डिबेट में हिस्सा ले रहा है और हमें इस बात का पूरा-पूरा शक है कि इसमें तरफ़दारी होने जा रही है, इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि जजों में किसी दूसरे डिपार्टमेण्ट का भी एक हेड हो। ...

-नहीं-नहीं, मौलाना!-प्रेमी सिर हिलाकर बोल उठा-मेरी तो आप लोगों से यह दरख़ास्त है कि इस मामले में आप ख़ामोश ही रहें, वर्ना सच ही मैं अपना नाम वापस ले लूँगा, फिर चाहे जो हो। मैं यह हर्गिज़ नहीं चाहता कि मेरी वजह से इस गन्दी ज़हनियत को हवा मिले और लोगों में एक बेहूदा ज़ज़्बा फूट पड़े।

-हम भी तो यह नहीं चाहते। लेकिन जब एक तरफ़ से यह बात शुरू हो गयी है तो...

-तो भी हम ख़ामोश रहें, यही अच्छा है।-प्रेमी बोला-उनकी डिबेट में एक मेरे शामिल होने-न-होने की आख़िर अहमियत ही क्या है। मैं यह नहीं चाहता कि मेरी वजह से लोग एक-दूसरे की पगड़ी उछालने पर आमादा हो जायँ।

-आपका यह बड़ा ही नेक ख़याल है, प्रेमी साहब,-पहले ने कहा-लेकिन हम कहने से बाज़ न आएँगे कि अभी आपके तजुर्बे बहुत कच्चे हैं। जब आप दुनिया देखेंगे... ख़ैर, छोडि़ए इन बातों को। हमारा जो फ़र्ज़ था हमने अदा किया। आप हमारी बात मानें, या न मानें, आपकी मर्ज़ी! लेकिन एक बात सुन लें कि अब आप मैदान में उतरकर अपना क़दम पीछे नहीं हटा सकते।

-मैं सोचूँगा,-सिर झुकाकर प्रेमी ने कहा।

-सोचूँगा नहीं,-दूसरे ने कहा।-अब सोचने-समझने का वक़्त नहीं रहा। -लेकिन, प्रेमी साहब,-पहले ने पूछा-यह तो बताइए, क्या आप सच ही इतनी अच्छी हिन्दी...

-मैंने मध्यमा बारह साल की उम्र में पास की थी।-प्रेमी ने सिर ऊँचा करके कहा।

-यह क्या बला है, जनाब?-दूसरे ने पूछा।

-हिन्दी का यह एक खासा आला इम्तिहान है...

-वल्लाह, तब क्या पूछना है!-दोनों एक साथ बोल उठे। फिर एक ने यह शेर पढ़ा :

यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा

या मैं रहूँ ज़िन्दाँ में या वो रहें ज़िन्दाँ में

और तभी घण्टा बज उठा, टन-टननन...और प्रेमी को लगा कि घण्टे ने प्रोफ़ेसर का मुँह ठीक ही बन्द किया है। वह तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गया। लेकिन अभी वह पाँच क़दम भी आगे न बढ़ पाया था कि सहसा उसे लगा, जैसे वह शेर कोई साघारण शेर न हो। वह शेर उसके दिमाग़ में गूँजकर उसके दिल में समा गया और फिर उसके होंठों पर झंकार की तरह काँप गया। उसे लगा, मौलाना ने चाहे जिस मतलब से यह शेर पढ़ा हो, यह तो एक बहुत बड़ा शेर है, इस शेर का तो एक बहुत बड़ा मतलब है, एक बहुत बड़ा मक़सद है। वह खड़े-खड़े गुनगुनाने लगा....और यह शेर आज भी उसके साथ है, एक अमोघ मन्त्र की तरह इस शेर ने सदा उसकी रक्षा की है, सहायता की है, प्रेरणा दी है...उसने इसे लाखों बार आज तक गुनगुनाया है, हज़ारों बार मज़ा ले-लेकर गाया है और सैकड़ों बार इस तरह ज़ोर-ज़ोर से चीख़कर पढ़ा है, जैसे चाहता हो कि इस शेर से दुनिया का कोना-कोना गूँज उठे, उसके दिल-दिमाग़ में इस शेर की गूँज के सिवा और कोई आवाज़ न रहे...।

लेकिन उस दिन तो इस शेर के महत्व का उसे आभास-भर मिला था और वह उसे गुनगुनाता अपने क्लास-रूम में चला गया था। लडक़े उसकी ओर देख रहे थे, संकेत कर रहे थे। प्रोफ़ेसर की भी निगाह बार-बार उस पर आ पड़ी थी। और वह फिर उसी वातावरण में आ गया। शेर उसके होंठों से ग़ायब हो गया। प्रोफ़ेसर के लेक्चर की तरफ़ उसका ध्यान लगता ही न था। और फिर जब वह आज की अपनी समस्या को ही लेकर अपने में ग़र्क़ हो गया, तो उसे अपने बचपन की इसी तरह की एक घटना की याद आ गयी।

वह नहीं बता सकता कि उस वक़्त उसकी उम्र क्या थी, लेकिन यह उसके जीवन की पहली घटना है, जो उसे आज भी याद है। इससे पहले की कोई बात, दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने पर भी, उसे याद नहीं आती। एक तरह से वह मानता है कि उसके होश-हवास की ज़िन्दगी इसी घटना से शुरू हुई है। अगर यह घटना न घटी होती, तो आज वह जो है, वह न होता, और कुछ ही होता, जैसा कि उसके आस-पास के बहुत-से लोग हैं, जिनके साथ उसे जीना पड़ रहा है, लडऩा पड़ रहा है।

उसे याद है कि उस दिन गाँव में एक बहुत बड़ा जुलूस निकला था। बाहर शोर सुनकर वह घर की औरतों के साथ दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था। एक बहुत ही मोटा-तगड़ा, गोरा-चिट्टा आदमी आगे-आगे डण्डे पर बहुत बड़ा झण्डा झुलाते और नारे लगाते चला जा रहा था। उसके भरे हुए चेहरे पर बहुत ही बड़ी और ख़ूबसूरत दाढ़ी थी। वह मोटिये का कुर्ता और लुंगी पहने हुए था। उसके सिर के पट्टे पर एक गोल बूटेदार टोपी थी, जो उसके घने बालों से बोझल सिर पर बहुत छोटी लगती थी। उसकी आवाज़ बहुत बुलन्द थी। उसके पीछे लोगों का ताँता लगा हुआ था। सभी बड़े ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। वह अम्मा का हाथ छोड़ अनजाने ही दरवाज़े से निकलकर ओसारे में आ खड़ा हुआ और ताली बजाने लगा। सामने से गुज़रते हुए लोग उसकी ओर देखकर हँसे, तो वह शर्माकर फिर दरवाज़े में घुस गया और उसने अम्मा के लटकते दुपट्टे में मुँह छुपा लिया। भीड़ गुज़री जा रही थी और नारे गूँज रहे थे। धीरे-धीरे वह फिर ओसारे में आ खड़ा हुआ। अब छोटे-छोटे लडक़े और बच्चे उछलते-कूदते भीड़ के पीछे जा रहे थे। वह अचानक कूदकर उनमें शामिल हो गया। पीछे अम्मा की आवाज़ सुनाई दी, लेकिन उसने उसकी परवाह नहीं की और लडक़ों-बच्चों के साथ उछलता-कूदता आगे बढ़ गया।

सारा गाँव रौंदकर जुलूस बड़े दरवाज़े पर जा रुका। वहाँ लोगों का बहुत बड़ा आलम था। थोड़ी देर तक लोग ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाते रहे। बच्चों के साथ उसने भी झिझकते-झिझकते नारा लगाया था-महात्मा गाँधी की जय!

फिर लोग सिर उठा-उठाकर नीम के बड़े, झंगार पेड़ पर देखने लगे। उसने भी उचक-उचककर देखा तो एक काला-नाटा आदमी हाथ में झण्डेवाला डण्डा लिये पेड़ पर दन-दन चढ़ा जा रहा था। वह एकटक उसकी ओर देखता रहा। वह आदमी बिलकुल ऊपर चढ़ गया और फिर एक शोर उठा। पास का एक लडक़ा हाथ ऊपर उठाकर चीख उठा-वो, वो देखो! झण्डा!-फिर ज़ोर से तालियों की गड़गड़ाहट हुई, तो वह भी तालियाँ पीटने लगा।

नीम के ऊपर हवा में झण्डा फहरा रहा था। वह उसकी ओर देख रहा था, तालियाँ बजा रहा था और ख़ुशी से उछल रहा था कि तभी एक बड़े लडक़े ने उसे कन्धे से दबाकर चुप करने को कहा। उसने चौंककर सामने देखा, तो लोग बैठ गये थे और वह दढिय़ल गला फाड़-फाडक़र कुछ बोल रहा था।

उसकी समझ में कुछ भी न आ रहा था। वह कभी दढिय़ल को हाथ उछालते और कभी अपने आस-पास के कुलबुलाते बच्चों को देखता था। वह बड़ा लडक़ा एक ओर खड़ा-खड़ा जैसे उसे घूर रहा था। उससे उसकी आँखें मिलतीं, तो वह सिर नीचे कर लेता। हाँ, जब लोग तालियाँ पीटते तो वह भी खड़ा होकर तालियाँ बजाने लगता। लेकिन जल्दी ही वह बड़ा लडक़ा आकर उसे फिर बैठा देता।

बड़ी देर तक वह दढिय़ल बोलता रहा, तो उसका मन ऊबने लगा। उसकी समझ में न आ रहा था कि क्या करें...कि अचानक उसके कान में कुछ ऐसे शब्द पड़े, जिन्हें, उसे लगा, वह समझ रहा है। वह दढिय़ल की ओर ग़ौर से देखने लगा और उसके कानों में शब्द पड़ रहे थे-तमाकू पीना मुसलमान के लिए...है हिन्दू के लिए...है...तमाकू के पत्ते पर सूअर के बाल, गाय के बाल उग आये हैं...महात्मा गाँधी ने कहा है...-आ-रे! वह चौंक-सा पड़ा। उसने घूमकर आस-पास देखा, लडक़े-बच्चे आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे। उसने भी कुछ कहना चाहा कि तभी उस बड़े लडक़े ने आकर डाँट दिया-चुप रहो!

वह फिर दढिय़ल की ओर देखने लगा। कानों में शब्द पड़ रहे थे-हाथ उठाकर कसम खाओ...

सबने हाथ उठा दिये। उसने इधर-उधर देखा तो लडक़े-बच्चे भी हाथ उठाये हुए थे, सो उसने भी दोनों हाथ उठा दिये। तभी किसी के बड़े ज़ोर से हँसने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। उसने इधर-उधर देखा, तो वही बड़ा लडक़ा हँस रहा था। उसने सहमकर हाथ नीचे कर लिये।

लडक़ों में फिर खुसुर-फुसुर शुरू हो गयी। पास का ही एक लडक़ा कह रहा था-चलो, खेत में चलकर देखें, तमाकू के पत्ते पर...

एक-एक करके लडक़े खिसकने लगे और आख़िर वह भी खिसक गया।

उसे याद था, अब्बा के खण्ड के पास तमाकू के खेत-ही-खेत हैं। वह दौड़ने लगा। वह सोच रहा था, अब्बा तो जुलूस में नहीं थे न? वह तमाकू बहुत खाते-पीते हैं...उनको भी क़सम खाना चाहिए...तमाकू के पत्ते पर सूअर के बाल...

अब्बा के खण्ड का दरवाज़ा खुला था, दूर से ही दिखाई दे रहा था। वह ज़रा देर के लिए ठिठक गया, कहीं अब्बा देख न लें। दरवाज़े के सामने से ही रास्ता है। उनका पलंग दरवाज़े पर ही पड़ा रहता है। वह उसी पर बैठकर पानदान से पान लगाकर खाते हैं, लिखते हैं, पढ़ते हैं...पास ही फ़र्श पर फ़र्शी पड़ी रहती है, उसकी निगाली लाल है और उस पर सफ़ेद गोट लगी है। चिलम कटोरे के बराबर है और उस पर ऊपर तक लाल-लाल कोयले दहकते रहते हैं...अब्बा की आँखे भी कितनी बड़ी-बड़ी और लाल-लाल हैं! कभी गुरेरकर देखते हैं तो कितना डर लगता है! और कभी प्यार से देखते हैं तो कितना अच्छा लगता है!

वह सहमा-सहमा, एक-एक डग धीरे-धीरे बढ़ाता, खण्ड के दरवाज़े की ओर देखता आगे बढ़ रहा था। ज़रा दूर जाने पर पलंग के पैताने अब्बा के फैले हुए पाँव दिखाई पड़े, तो समझ गया कि वह लेटे हुए हैं, वे उसे नहीं देख सकते और वह आश्वस्त हो चलने लगा। खुली ओड़चन पर अब्बा के पाँव दिखाई दे रहे थे। अब्बा का बिस्तर कितना मुख़्तसर है...एक दरी, एक चादर और एक तकिया। दिन-भर गुमेटकर बिस्तर सिरहाने तकिये की तरह पड़ा रहता है। अब्बा अम्मा की तरह गद्दे, मसहरी वग़ैरा क्यों नहीं रखते? लडक़े कहते हैं, वो बहुत बड़े आदमी हैं, उनके पास बहुत ज़मीन और रुपया है, फिर वो इस तरह क्यों रहते हैं, अपना सब काम अपने हाथों से ही क्यों करते हैं? अम्मा के पास तो दो लौंडियाँ हैं, अम्मा तो अपने हाथ से कोई काम नहीं करती, पलंग पर पानदान लिये बैठी रहती है और हुकुम चलाया करती है...सहसा वे पाँव हिल उठे, तो वह भाग खड़ा हुआ और खेतों में ही जाकर रुका।

आस-पास गोंइड़े के खेतों में तमाकू के काले-काले पौधे खड़े थे। उनके बैल के कान की तरह बड़े-बड़े पत्ते ऐसे हवा में हिल रहे थे, जैसे बैल कान हिलाकर मुँह पर बैठी मक्खियाँ हाँक रहा हो।

वह एक खेत में घुस गया और ग़ौर से पत्तों को हाथों में ले-लेकर देखने लगा। पत्तों पर धूल की मोटी तह जमी थी, हाथ लगाने पर मन गिनगिना उठता था, जैसे मुँह में किनकिनी भर गयी हो। फिर भी वह धूल की तह उँगलियों से हटा-हटाकर बालों को ढूँढ़ रहा था। कई सफ़ेद-सफ़ेद रोओं-से बाल मिलते थे, लेकिन सुअर का बाल तो बड़ा और कड़ा होता है, उसकी पीठ पर दूर ही से दिखाई पड़ता है, वह कितना घिनौना होता है, उसे तो दूर से ही देखकर जी मतला उठता है...मैला खाता है...उसे लगा कि यह जो पत्तों को छूने से मन गिनगिना उठता है, कहीं...

तभी उसे सुनाई पड़ा-मिला कोई बाल?

उसने आँखें उठाकर आवाज़ की ओर देखा, खेत के दूसरे कोने पर कोई लडक़ा खड़ा उसी से कह रहा था-मुझे तो बहुत-सारे मिल गये।

-मुझे तो नहीं मिले,-उसने कहा-लाओ तो देखें।

वह लडक़ा फुर्ती से पौधों के बीच कूदता-फाँदता, कितनी ही नाज़ुक-नाज़ुक पत्तियों और पौधों को अपने पैरों से तोड़ता, उसके पास आ खड़ा हुआ और दोनों हथेलियाँ फैलाकर, दिखाता हुआ बोला-देखो।

-दुत! ये तो रोएँ हैं!-कहकर वह हँस पड़ा।

-नहीं, ये गाय के बाल हैं!-उस लडक़े ने आँखें मटकाते हुए कहा।

-लेकिन मैं तो सुअर के बाल खोज रहा हूँ...

-तो क्या तुम मुसलमान हो?-उस लडक़े ने कहा।

-हाँ, मैं सुअर के बाल खोज रहा हूँ, अब्बा को दिखाऊँगा। वो तमाकू बहुत खाते-पीते हैं। मुझे ढूँढ़ दो।

-आओ, उस खेत में चलें। सुअर के बाल बड़े-बड़े होते हैं न, उस खेत के पौधे बड़े-बड़े हैं, उसमें ज़रूर मिलेंगे।

दोनों दौड़ते हुए उस खेत में पहुँच गये। उस लडक़े ने कहा-बड़ी गन्दगी है, मेंड़ पर पाँव रखकर चलो, नीचे देखते रहना...अरे, तुम्हारे पाँव में तो लग गया!

उसने झुककर देखा, दाहिना पाँव चिफन गया था। रूआँसा होकर बोला-अब क्या करूँ, अम्मा देखेगी तो मारेगी।

-चलो, उसका हाथ पकडक़र उस लडक़े ने कहा-वहाँ नारी चल रही है, धो लो।

-वहाँ तो पास ही अब्बा का खण्ड है, देखेंगे तो...

-तो चलो, पोखरे चलें, पास ही तो है।

-नहीं, अम्मा कहती है, पोखरे पर नहीं जाना चाहिए, वहाँ बुड़ुआ (जल-प्रेत) रहते हैं, बच्चों को पकड़ लेते हैं।

-उँह! बुड़ुआ नहीं सुड़ुआ रहते हैं! चलो मेरे साथ! मेरा तो स्कूल वहीं है। पोखरे में दोपहर की छुट्टी में हम रोज़ डुबुक-डुबुक नहाते हैं।-उस लडक़े ने उसका हाथ खींचा।

सहमे-सहमे ही वह उसके पीछे-पीछे चलने लगा। रह-रहकर वह अपने पीछे ताक लेता था कि कहीं कोई देख न रहा हो।

-तुम इस्लामिया इस्कूल में पढ़ते हो?-उस लडक़े ने पूछा।

-नहीं, घर में मोली साहब पढ़ाते हैं।

-क्या पढ़ाते हैं, अलिफ-बे-अउआ, माई-बाप कउआ?-दोनों हँस पड़े।

-जाने क्या पढ़ाते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। बहुत पीटते हैं। एक कच्ची कइन हमेशा अपने पास रखते हैं। ज़रा भी हिज्जे ग़लत हुए कि सर्र-से कइन पीठ पर आ पड़ती है। गले से ऐसी आवाज़ें निकालते हैं कि मालूम होता है क़ै कर देंगे। आजकल सिपारा रटवा रहे हैं :

अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन अर्रहमानिर्रहीम....

-बस! बस कर, यार नहीं तो,-अचानक उस लडक़े ने झुककर अपना पाँव देखते हुए कहा-अरे-रे! यार, मेरे पैर में भी लग गया। देख, इस घास पर तू अपना पाँव रगड़ ले।

उसने अच्छी तरह अपना पाँव रगड़ लिया, तो चलते हुए उस लडक़े ने कहा-हमारे इस्कूल में भी बड़े पण्डित जी कभी-कभी इस्लोक रटवाते हैं, ओम भूरभूवह...-और वह ज़ोर से हँसकर बोला-पण्डितजी जब इस्लोक पढ़ते हैं, तो उनका मुँह देखते ही बनता है, कभी चोंगे की तरह होता है, तो कभी दोने की तरह, और आँखें ऐसे मूँद लेते हैं, जैसे कच्चा आम खा रहे हों।

-पोखरे के पासवाला आम का बाग़ मेरे अब्बा का है...

-अच्छा! तब तो, यार, बड़ा मज़ा आयगा! तू भी हमारे इस्कूल में पढ़ न! राम किरिये, मार बहुत कम पड़ती है और परार्थना में तो बड़ा मजा आता है : हे परभुआ नन्ददाता ग्यान हमको दीजिए....और पोखरे में ख़ूब गद्दी छलकाएँगे, छल-छल-छल...और छुआछूत, बिछिली के खेल खेलेंगे और धोती में मछली छानेंगे और तैरना सीखेंगे और जब तेरे बाग़ में टिकोरे लगेंगे, तो खूब खाएँगे। वह कलमी का बाग़ है न, साला अगोरिया एक टिकोरा नहीं छूने देता। पकड़ लेता है, तो सीधे पण्डितजी के पास लाता है...

-हमारे घर तो खाँची-खाँची आम आता है!

-पेड़ से तोडक़र खाने का मज़ा ही और होता है!

-तुझे पेड़ पर चढऩा आता है?

-वाह, एक छन में पुलुँगी पर चढ़ जाऊँ!

-मुझे भी सिखा देगा?

-जरूर-जरूर। लेकिन तू मेरे इस्कूल में तो आ!

-अम्मा नहीं आने देगी, पोखरा....

-तू मेरे साथ आना। अम्मा से मैं कह दूँगा। तेरा घर कहाँ है?

-छोटी मसजिद के पास।

-अच्छा, तो कल सुबह मैं आऊँगा। अम्मा से कह रखना। मैं तो कई घरों से लडक़ों को बुलाने जाता हूँ। देखते हो न!-कहकर उस लडक़े ने ज़ोर से कुहनी मोडक़र बाज़ू की सिधरी दिखाई और कहा-जो लडक़ा गैरहाजिर होता है, उसे पकड़ लाने के लिए पण्डितजी मुझे ही भेजते हैं। तू कल तैयार रहना, मैं आऊँगा, तेरा नाम क्या है?

-मन्ने।

-अरे, वाह! मेरा नाम है मुन्नी, मुन्नी लाल! आओ, दोस्ती कर लें।-कहकर उसने दाहिने हाथ की तर्जनी टेढ़ी करके आगे बढ़ायी।

-अभी मेरा जिस्म गन्दा है।

मुन्नी हँसकर बोला-मैं भूल गया था। चलो, दौड़ चलें।

चार-पाँच दिन बाद जब उसके अब्बा को पता चला कि वह प्राइमरी स्कूल में पढऩे जा रहा है, तो वह एक दिन स्कूल में आ पहुँचे। उन्हें देखते ही तीनों टीचर अपनी-अपनी कुर्सी छोडक़र उनके पास आ खड़े हुए और उन्हें सलाम किया। फिर एक ने दौडक़र कुर्सी ला सहन में रख दी। बड़े पण्डितजी बोले-तशरीफ़ रखिए, आपने क्यों तकलीफ़ की, मुझे ही बुला लेते।

-नहीं,-उसके अब्बा बोले-हम खड़े-ही-खड़े दो बातें करना चाहते हैं। हमें ख़ुद काम था, आपको क्यों बुलाते? हेड मुदर्रिस कौन हैं?

-ख़ादिम हाज़िर है,-बड़े पण्डितजी ने कहा-फ़रमाइए!

दरवाज़े की ओट में खड़े मन्ने का दिल धडक़ रहा था। मुन्नी उसका हाथ पकड़े बाहर देख रहा था।

-मेरा लडक़ा आपके स्कूल में आ रहा है।

-यह तो हमारी ख़ुशक़िस्मती है। हम ख़ुद ही आपकी ख़िदमत में हाज़िर होनवाले थे। आपके साहबज़ादे बड़े ही होनहार मालूम होते हैं।

-वह मेरा इकलौता लडक़ा है।

-हमें मालूम है, हुज़ूर। आप हमें न जानें, आपको इलाक़े में कौन नहीं जानता? आपके घराने की शान-शौकत और आपकी फ़क़ीरी, दोनों के क़िस्से आज हर ज़बान पर है।

-आप कौन-कौन-सी ज़बानें जानते हैं?

-अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिन्दी, संस्कृत और थोड़ी अंग्रेज़ी भी।

-वाह! आप तो बड़े आलिम मालूम होते हैं, मालूम न था, माफ़ कीजिएगा। आपसे मिलकर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। एक मामूली स्कूल का मुदर्रिस इतनी ज़बानों का मालिक हो सकता है, किसी के ख़ाबों-ख़याल में भी नहीं आ सकता।

-मुझे ज़बानों के सीखने का बेहद शौक़ है। यह सब ज़बानें मैंने घर में ही अपनी मेहनत से सीखी हैं। क़ुरान और वेदों का भी मुताला किया है।

-बस, तो ठीक है। मेरा लडक़ा आपसे ही पढ़ेगा। मैं ज़बान को सबसे ज़्यादा अहमियत देता हूँ, क्योंकि अच्छी तरह ज़बान जाने बग़ैर कोई आदमी अदब का मुताला नहीं कर सकता और बग़ैर अदब के मुताले के कोई आदमी सच्चा इंसान नहीं बन सकता। और मैं तो चाहता हूँ कि मेरा लडक़ा अदीब बने। आप तो जानते ही हैं, मुझे शायरी का शौक़ है। लेकिन मैं कुछ कर न सका। मैं चाहता हूँ, मेरा लडक़ा मेरी तमन्ना पूरी करे!

-बड़े बुलन्द ख्याल हैं आपके! मैं कोई कोशिश उठा न रखूँगा।

-इस्लामिया स्कूल के मास्टर आज सुबह मेरे पास आये थे। उनका कहना था कि हिन्दी स्कूल के लडक़ों की ज़बान ख़राब हो जाती है। उन्होंने यह भी फ़रमाया कि मुसलमान होने की हैसियत से मुझे अपने लडक़े को इस्लामिया स्कूल में ही दाख़िल कराना चाहिए। ... ख़ैर, अब मुझे ख़ुद इतमीनान हो गया। आप मेरे लडक़े को पढ़ाइए। आपको पन्द्रह रुपये माहवार मिलेंगे। आदाब अर्ज़ है।-और वह पलटकर चल पड़े।

मन्ने और मुन्नी उछलते-कूदते अपनी-अपनी जगह पर जा बैठे।

बड़े पण्डितजी स्कूल में दाख़िल हुए, तो अपनी कुर्सी पर न जा, मन्ने के पास आकर बोले-आप मेरे साथ तशरीफ़ लाइए।

मन्ने ने अपने टीचर की ओर देखा। वह मुँह लटकाये अपनी कुर्सी के पास खड़े थे, कुछ बोलने को हुए, लेकिन फिर ताव खाकर कुर्सी पर बैठ गये।

बड़े पण्डितजी ने बायें हाथ से मन्ने की तख़्ती उठा, दाहिने हाथ से बड़े प्यार से उसका हाथ पकडक़र उसे उठाया और अपनी कुर्सी के पास ला एक चटाई पर बैठा दिया। फिर ख़ुद भी बैठकर कहा-अब आप यहीं तशरीफ़ रखेंगे। मैं ख़ुद आपको पढ़ाऊँगा। अपना सिपारा भी कल लाइएगा।

मन्ने को पहले तो बड़ी कोफ्त हुई। दोपहर की छुट्टी में जब वह निकला, तो मुन्नी से बोला-फिर वही सिपारा, वही रटव्वल! यार, तेरे स्कूल में आने से कोई फ़ायदा न हुआ।

-मेरा तो साथ है?

-हाँ, यह तो है। लेकिन मोली साहब की तरह यह भी ज़रूर पीटेगा।

-नहीं, चाहो तो बाज़ी लगा सकते हो! यह तुझे अँगुली से भी नहीं छुएगा। तेरे अब्बा उसे पन्द्रह रुपया देंगे।

-देखो।

मुन्नी की बात ही सही निकली। बड़े पण्डितजी मन्ने को बड़े प्यार-दुलार से पढ़ाते, ख़ुद उससे कहीं ज़्यादा मेहनत करते। मन्ने का दिल आप ही बढऩे लगा। एक-एक साल में दो-दो क्लास लाँघने लगा और तीन साल बीतते-बीतते मुन्नी को दर्जे चार में जा पकड़ा।

सबसे ज़्यादा इसकी ख़ुशी मुन्नी को हुई। मन्ने को अपने साथ पा उसकी ख़ुशी का ठिकाना न था। इनकी दोस्ती गाँव में तब तक मशहूर हो गयी थी। लेकिन मुन्नी को एक बात हमेशा खलती रहती थी कि मन्ने और वह अलग-अलग दर्जे में पढ़ते हैं, एक ही दर्जे में पढ़ते, तो कितना अच्छा होता!

मुन्नी खेल-कूद और शरारतों में ही तेज़ न था, पढऩे में भी वह एक ही ज़हीन था। उसके मुक़ाबिले का कोई दूसरा लडक़ा स्कूल में न था। लेकिन यह भी सच है कि जितनी मेहनत मन्ने पर हुई थी, उतनी मुन्नी पर नहीं। जहाँ तक पाठ्यक्रम का सम्बन्ध था, मुन्नी को पछाड़नेवाला कोई लडक़ा न था, लेकिन मन्ने का भाषा और विषय-ज्ञान उससे कहीं आगे था। जब भी डिप्टी-इन्स्पेक्टर स्कूल में आते, बड़े पण्डितजी मन्ने को उनके आगे खड़ा कर देते और बड़े गर्व से कहते-ये चार भाषाएँ बोल सकते हैं, संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी और उर्दू। आप किसी भी भाषा में इनसे सवाल पूछ सकते हैं।

मन्ने फर-फर जवाब देता, तो लडक़े, मास्टर, सभी अचरज से उसकी ओर देखते।

दर्जे चार में मन्ने पहुँचा, तो बड़े पण्डितजी उसे लेकर उसके अब्बा के पास पहुँचे।

सलाम-बन्दगी के बाद उन्होंने कहा-ये दर्जे चार में पहुँच गये। अब इस साल ये हमारे स्कूल का आख़िरी इम्तिहान देंगे। इम्तिहान ये एक ही ज़बान में दे सकते हैं, हिन्दी में या उर्दू में। आज मैं इन्हें आपके पास लेकर इसलिए हाज़िर हुआ हूँ कि यह ज़बान का मसला तै हो जाय, तो इनकी पढ़ाई का सिलसिला आगे चले।

अब्बा थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले-यह तो इन्हीं के तै करने की चीज़ है,-उन्होंने मन्ने की ओर संकेत करके कहा-क्यों, बेटे, क्या इरादे हैं?

तपाक से मन्ने बोला-पिताजी, मैं हिन्दी लेकर ही परीक्षा दूँगा।

सुनकर अब्बा एक क्षण को उसका मुँह तकते रहे। फिर ज़ोर से हँस पड़े। बोले-जाइए, पण्डितजी, इन्होंने कह दिया। इनकी हिन्दी तो अभी मेरी समझ के बाहर हो गयी है!-और वह फिर हँसने लगे।

मन्ने के मन में उस समय केवल एक बात थी, वह यह कि मुन्नी हिन्दी पढ़ता है, तो वह भी हिन्दी ही पढ़ेगा। लेकिन स्कूल में और गाँव में उसके कई-कई अर्थ लगाये गये और अब्बा और बड़े पण्डितजी कुछ दिन काफ़ी परेशान रहे। इस काम के लिए इस्लामिया स्कूल के मास्टरों और प्राइमरी स्कूल के नायबों में सन्धि हो गयी। नायब बड़े पण्डितजी से उसी दिन से ख़ार खाये हुए थे, जब से उनकी आमदनी पन्द्रह रुपये बढ़ गयी थी। उन्होंने गाँव में यह प्रचार किया कि हिन्दू लडक़े, मुन्नी, के मुक़ाबिले में पण्डितजी ने मुसलमान लडक़े मन्ने, को खड़ा कर दिया है और इस्लामिया स्कूल के मास्टरों ने यह कि मन्ने तो अब ज़रूर काफ़िर हो जायगा।

मन्ने की अम्मा ने बहुत समझाया कि, बेटा तू उर्दू लेकर इम्तिहान दे। लेकिन वह टस-से-मस न हुआ। मुन्नी के पिता ने उसे बहुत समझाया कि, बेटा, तू मन्ने का साथ छोड़ दे, तुरक के साथ दोस्ती कैसी? देख, अब वह तेरा ही मुक़ाबिला करने को तैयार है। लेकिन मुन्नी न माना।

दोनों मिलते तो सब बातें करते और कहते-यार, मैं तो चाहता हूँ, तू ही अव्वल आये!

उन दो मासूम, नन्हीं जानों की भावनाओं का ज्ञान किसे था! उन्हें दीन-दुनिया की अभी ख़बर कहाँ थी? एक अनजान, प्राकृतिक, कोमल और पवित्र मित्र-भाव से चालित उनके निर्दोष मन अपना एक अलग संसार बसा रहे थे, जिसके विषय में वे स्वयं भी अपरिचित थे। उस संसार में उन दो के अतिरिक्त और कोई न था और कुछ न था। उन्हें एक-दूसरे के साथ रहने-सहने, खेलने-कूदने, खाने-पीने, पढऩे-लिखने में ऐसा नैसर्गिक आनन्द प्राप्त होता था, जिसकी कोई परिभाषा नहीं, जिससे स्वयं अनभिज्ञ रहते हुए भी वे कुछ ऐसा अनुभव करते कि उनके जीवन में वही सब-कुछ है, उसके सिवा कुछ नहीं, गोकि यह भी उनके ज्ञान के परे की बात थी कि जीवन क्या है या कुछ भी क्या है। यह कुछ ऐसा ही था, जैसे शिशु को माँ के दूध का स्वाद लग जाता है, जो यह नहीं जानता कि दूध क्या है, लेकिन उसे पीने में उसे एक स्वाद मिलता है, एक सुख मिलता है और जब उसे नहीं मिलता, तो वह रोता है, बेचैन हो जाता है, छटपटाता है...

वह आज अपनी स्मरण-शक्ति पर बहुत ज़ोर देता और आज तक के ज्ञान-अर्जन के बल पर भी उस भावना को किसी परिभाषा में बाँधने का प्रयत्न करता है, लेकिन असफल रहता है, उसका स्वाद उसकी आत्मा में अब भी बसा है और जीवन के अन्त तक बसा रहेगा, लेकिन वह उसकी व्याख्या करनें में आज भी असमर्थ है और कदाचित् अन्त तक असमर्थ ही रहेगा, गूँगा जैसे कभी बोल नहीं सकता, अपने हृदय की बात कह नहीं सकता। उस वक्त की एक-एक घटना उसे आज भी याद है, कभी-कभी वह जान-बूझकर उन्हें याद करता है और उच्छ्वसित होता है, ओह, क्या वक्त था, क्या ज़माना था! वह हृदय, वह मन...काश, वैसा ही आजीवन रहता...वह अज्ञान कितना पवित्र, कितना मधुर, कितना सुन्दर था! और आज का ज्ञान कितना दूषित, कितना कटु और कितना कुरूप है! एक छोटी-सी बात में भी उस समय कितना सुख या दुख अनुभव होता था, कैसे मन हँसता या रोता था...वह हँसी और वह रुदन...कितनी सच्चाई थी उनमें, जैसे फूल खिलता है और मुरझा जाता है, जैसे मन और व्यवहार में कोई अन्तर ही न हो। और आज...आज की याद कल आयगी, तो आत्मा हाहाकार कर उठेगी, न रोएगी, न हँसेगी, दूषणों के इतने मोटे-मोटे आवरण इस पर कैसे चढ़े हैं, किसने चढ़ाये हैं कि अब आवरण-ही-आवरण रह गया है, आत्मा नाम की जैसे कोई चीज़ ही न रह गयी हो, जिसका हाहाकार भी जैसे अतीत की एक गूँज हो, और कुछ नहीं...दुख-सुख का कोई अर्थ नहीं, पश्चात्ताप, प्रायश्चित का कोई अर्थ नहीं...

इस तरह के कुण्ठा के भाव जाने कितनी बार आये हैं और चले गये हैं, लेकिन वे बचपन की घटनाएँ एक बार आकर फिर कभी नहीं गयीं, कोमल, सम्वेदनशील, पवित्र आत्मा और प्राण पर पड़े वे चिन्ह आज भी अमर हैं, सदा अमर रहेंगे, वे कभी मिट नहीं सकते, मिटाये नहीं जा सकते, लाख आवरण उन्हें ढँक नहीं सकते...अच्छे शेरों की तरह उन्हें बार-बार याद करने, दुहराने और गुनगुनाने को जी चाहता है...

मिडिल स्कूल पर फ़ुटबाल का मैच था। स्कूल में दोपहर के बाद छुट्टी हो गयी और दर्ज़े तीन-चार के लडक़ों के घर से खाना खा आने के बाद बड़े पण्डितजी स्वयं उन्हें साथ लेकर क़स्बे के मिडिल स्कूल पर मैच दिखलाने ले चले। सरगनाई के सब स्कूलों को डिप्टी इन्स्पेक्टर की हिदायत थी कि बड़े लडक़ों को साफ़ कपड़े पहनाकर हेडमास्टर मैच दिखाने ज़रूर ले आएँ।

मन्ने और मुन्नी ने पहली बार फ़ुटबाल नाम की चीज़ देखी। मुन्नी तो देखकर मचल उठा कि उसके पास पैसे होते तो ज़रूर एक फ़ुटबाल ख़रीदता और रोज़ शाम को वे सब तालाब के मैदान में खेलते। फिर कैसा मज़ा आता!

मन्ने बोला-हाँ, मेरे पास भी पैसे नहीं हैं, नहीं तो ज़रूर ख़रीदता!

पास ही एक अजनबी लडक़ा खड़ा था। उनकी बात सुनकर बोला-ख़रीदते कहाँ से? फ़ुटबाल कोई यहाँ मिलता है! वह तो बलिया में मिलता है।

उसकी बात सुनकर दोनों चुप हो गये। जब उस लडक़े ने अपना मुँह फेर लिया, तो मन्ने बोला-तुम्हारे बाबूजी तो बराबर बलिया जाते हैं, उनसे क्यों नहीं मँगा लेते?

मुन्नी उदास होकर बोला-वो नहीं लाएँगे। आज बहुत रोया, तो दो पैसे बड़ी मुश्किल से दिये।

-मेरे अब्बा ने तो दो आने दिये हैं, यह देखो!-मन्ने ने अचकन की जेब से दुअन्नी निकालकर दिखाई।

-तुम्हारे अब्बा तो बहुत बड़े आदमी हैं। क्यों न...-कहते-कहते मुन्नी रुक गया।

-हाँ, मैं अब्बा से कहूँगा।

शाम को मैच ख़त्म होने पर जब लडक़े वापस लौटे, उन्हें बड़ी प्यास लगी थी। बड़े पण्डितजी से उन्होंने कहा, तो उन्होंने कहा कि बाज़ार में दुकानदार से रस्सी-डोल लेकर, कुएँ से खींचकर पी लेना। और वह लडक़ों को छोड़ अपने घर चले गये। उनका घर क़स्बे में ही था।

सब लडक़ों के पास कुछ-न-कुछ पैसे थे। किसी ने एक पैसे का नमकीन सेव, किसी ने खेसिया, किसी ने बैंगनी, किसी ने गट्टा और किसी ने लकठा या बतासा ख़रीदा। मुन्नी भी दो पैसे का दो छत्ता सेव ख़रीद लाया और मन्ने से बोला-लो, खा लो, तो कुएँ पर चलकर पानी पियें।

मन्ने हाथ फैलाकर बोला-दे दो।

-क्यों? इसी में खाओ न!-मुन्नी बोला।

मन्ने पास ही खड़े लडक़ों की ओर देखकर बोला-देख लेंगे तो...

-तो क्या कर लेंगे? तुम खाओ तो!-मुन्नी ने दोना उसकी ओर बढ़ा दिया।

मन्ने ने सहमकर लडक़ों की ओर देखा और हाथ बढ़ा दिया। लेकिन वह मन-ही-मन डर रहा था।

लडक़ों की नज़र उन्हीं की ओर थी। उनमें खुसुर-फुसुर हुई, लेकिन बोला कोई कुछ नही।

सेव ख़त्म हो गया, तो मुन्नी बोला-चलो, अब कुएँ पर पानी पी लें।

-रुको,-मन्ने ने जेब से दुअन्नी निकालकर कहा-कोई मिठाई लाओ।

-कितने की?

-सबकी।

-दो आने की?-मुन्नी चकित होकर बोला-कौन मिठाई?

-जो चाहो, लाओ, अब्बा ने कहा था, मिठाई खाना।

मिठाई लाकर वह देने लगा, तो मन्ने ने कहा-अपने ही हाथ में रखो और मुझे हाथ में दे दो।-और फिर हाथ फैला दिया।

-दुत! खाओ न इसी में से। डरना तो मुझे चाहिए उलटे तुम...

-तुमको किसी ने कुछ कहा, तो क्या मुझे...

-खाओ, खाओ! अभी तो खाया है, फिर....

मन्ने ने फिर लडक़ों की ओर सहमी-सहमी नज़रों से देखा। लडक़ों की आँखों में अबकी जलन थी, इतनी सारी जिलेबी!

मन्ने ने एक उठाकर मुँह में डाली, तो एक लडक़ा बोला-मुन्नी! चलो घर, तो तुम्हारे बाबूजी से कहेंगे, तुम मन्ने का जूठा खा रहे थे।

मुन्नी ने उसकी ओर घूरकर देखा, तो वह लडक़ा एक लडक़े के पीछे चला गया।

मन्ने ने कहा-मैं कह रहा था न?-और उसने हाथ खींच लिया।

-नहीं, तुम खाओ!-मुन्नी ने ज़िद करते हुए कहा।

-तुम मेरे हाथ में दे दो न, वैसे भी तो खाऊँगा ही।-मन्ने ने सिर झुकाकर कहा-ज़िद मत करो इन लोगों के सामने।

-नहीं!-मुन्नी ने और भी ज़िद करके कहा-नहीं खाओगे, तो सब फेंक दूँगा!

मन्ने ने उसके तमतमाये चेहरे की ओर देखा और फिर दोने की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया।

अब बाक़ी लडक़ों का एक गोल बन गया। सभी उन्हें खाते हुए देख रहे थे और सिर हिला-हिलाकर धिरा रहे थे, बोलने की हिम्मत किसी में न थी। मुन्नी उन सब में आयु ही में बड़ा न था, वह अपनी ताक़त और शरारत में भी सबसे बढ़-चढक़र था। उससे सभी लडक़े दबते थे। वे दस-बारह थे, और ये दो और मन्ने तो इतना कमज़ोर और नाज़ुक था कि उसकी एक में गिनती करना भी बेकार था। फिर भी उनमें किसी की हिम्मत न थी कि खुल्लम-खुल्ला मुन्नी को छेड़े। उन्हें अपनी समूह-शक्ति का ज्ञान न था, उन्हें डर था कि मुन्नी एक-एक को पीट-पाटकर रख देगा।

मुन्नी और मन्ने जलेबी ख़त्म कर कुएँ पर पहुँचे, तो लडक़े पहले से ही जगत पर खड़े पानी खींच-पी रहे थे। उन्होंने उन्हें देखा, तो उनके मस्तिष्क में एक अस्पष्ट-सी धार्मिक भावना उभर आयी, ऊपर से उन्हें इसका भी बल था कि मुन्नी कुएँ की जगत पर चढक़र उनसे लड़ाई न करेगा, क्योंकि वैसा करने में उसे डर रहेगा कि कहीं कोई लडक़ा कुएँ में गिर न जाय। इसी जोश में एक लडक़ा बोल गया-मुन्नी, तुम जगत पर मत चढऩा, तुम मुसलमान का जूठा खाते हो!-उसे यह आशा थी कि दूसरे लडक़े भी उसका साथ देंगे और एक हो-हल्ला वहाँ मच जायगा और मुन्नी को शर्मिन्दा होना पड़ेगा। लेकिन मुन्नी के तेवर देख सभी लडक़े सहमे कुत्तों की तरह दुम दबाकर एक-दूसरे के पीछे छुपने लगे कि कहीं मुन्नी जगत पर न चढ़ आये और उन्हें कुएँ में न ढकेल दे।

मुन्नी आगे बढऩे ही वाला था कि मन्ने ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा-जाने दो, चलो और कहीं पानी पी लें।

अपना हाथ छुड़ाते हुए मुन्नी ने मन्ने का सूखा मुँह देखा, तो थथम गया। उसका मन मसोसकर रह गया। बोला-अरे, तुम क्यों डर रहे हो? मैं अभी इन सा...

मन्ने ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया। बोला-चलो, मैं डरता नहीं, लेकिन यह बेइज़्ज़ती तुम्हारी नहीं, मेरी ही हो रही है। मैं तो कभी भी कुएँ पर पानी नहीं पीता। छोटी-से-छोटी जाति का आदमी भी कुएँ पर मुझसे बड़ा हो जाता है और ऐसी नज़र से देखता है, मानो मुझसे छू जाने ही से सब-कुछ गन्दा हो जायगा। मैं तो प्यास से मर जाऊँ, लेकिन कुएँ पर न जाऊँ! चलो।

मुन्नी होठ काटता हुआ सडक़ पर आ गया। बोला-फिर चलो, किले के पोखरे में पी लेंगे।

-ऊँ-हूँ! अम्मा कहती है, पोखरे का पानी पीने से खाँसी हो जाती है।

-दुत! मैं तो जाने कितना पानी पी गया, मुझे कभी कुछ न हुआ।

-नहीं, कहो तो एक बात कहूँ?

-बोलो।

-मैं तो जब भी अब्बा के साथ क़स्बे में आता हूँ, मवेशीख़ाने के मुंशी के पास ही पानी पीता हूँ। वह पास ही तो है।

-तो चलो।

-लेकिन वह...

-अरे, चलो, यार! तुम तो ख़ामख़ाह परेशान होते हो।

-ख़ामख़ाह नहीं, मुन्नी, लोग यही कहेंगे कि मैंने ही...

-तुमसे मैं छोटा और कम समझदार हूँ न!

-नहीं, तुम मेरी जगह होते...दरअसल बात यह है कि मेरे कारण तुम नीचे जाते हो...

-शु:! नीचे-ऊपर क्या होता है रे? मैं नहीं जानता कि मुझमें और तुझमें कोई फ़र्क है। फ़र्क रहा तो दोस्ती क्या? चल जल्दी, गला सूख रहा है।

मुंशी ने देखा, तो ख़ुश होकर हँसता हुआ बोला-आइए, मन्ने साहब! अस्सलाम वलैकुम! कैसे आना हुआ?

-वलैकुम सलाम! मैच देखने आये थे। प्यास लगी है।

-तो पानी पीजिए। इस कुर्सी पर तशरीफ रखिए। ...बैठिए बैठिए, आप भी बैठ जाइए!-मुंशी ने मुन्नी से कहा और फिर पुकारा-ओ रमज़ान!

रमज़ान आया तो वह बोला-दौडक़र मिठाई...

-नहीं-नहीं, हम मिठाई खा चुके हैं,-जल्दी से मन्ने बोला।

-वाह, ऐसा आपने क्यों किया? क्या हमारे यहाँ...

-नहीं, माफ़ कीजिए!-मन्ने ने सिर झुकाकर कहा।

-नहीं, मैं तो आपके वालिद से शिकायत करूँगा कि...ये,-उसने मुन्नी की ओर संकेत करके कहा-ये तो...

-ये मेरे दोस्त हैं, हम दोनों ने अभी साथ ही मिठाई खायी है।

-समझ गया,-मुंशी रमज़ान से बोला-अन्दर से मन्ने साहब के लिए तुम पानी लाओ और दौडक़र हलवाई से बोल आओ कि जल्दी गिलास साफ करके एक गिलास पानी दे जाय...

-लेकिन,-मुन्नी समझकर कुछ कहने ही वाला था कि मन्ने ने उसका हाथ दबा दिया।

-वालिद साहब तो ख़ैरियत से हैं?-मुंशी बोला।

-दुआ है। आप अपनी फ़रमाइए!-मन्ने बोला।

-सब ख़ुदा का शुक्र है। उनसे मेरा सलाम कह दीजिएगा।

-ज़रूर।

उधर से हलवाई का लडक़ा पानी लेकर आया और इधर से रमजान। दोनों पानी पी चुके, तो मुंशी बोला-शाम हो गयी, डर लगे तो कहिए, रमज़ान को साथ कर दूँ?

-नहीं, हम चले जायँगे,-उठते हुए मन्ने ने कहा-आदाब!

-तसलीम! ख़ुदा आपकी उम्र दराज़ करे, आपको हमेशा ख़ुश रखे!

मुन्नी दंग था। इस तरह का उसका यह पहला अनुभव था। ज़रा दूर होते ही बोला-यार, इसने तो तुम्हारी बहुत इज़्ज़त की!

-और तुम्हारी!

-वह तो तुम्हारी वजह से, वर्ना मुझे वह क्या जाने?

-नहीं, यह-सब अब्बा की वजह से हुआ।

-मेरे बाबूजी की वजह से तो मुझे कोई नहीं पूछता। मैं तो जब भी कस्बे के बाज़ार में आता हूँ, कूएँ पर ही पानी पीता हूँ...कोई इतनी इज्जत से मुझे कुर्सी पर नहीं बैठाता...

-वाह! तुम अपने बाबूजी...

तभी एक ओर शोर सुनाई पड़ा। दोनों चौंक उठे। लडक़े रास्ते के एक ओर खड़े उन्हीं का इन्तज़ार कर रहे थे। एक ने कहा-मुन्नी, तुमने मुंशी के यहाँ का पानी पिया है न?

मुन्नी सहसा कोई जवाब न दे सका। इस समय उसकी मन:-स्थिति कुछ गिरी हुई-सी थी। मन्ने ने कहा-हलवाई के यहाँ से उसका आदमी पानी ले गया था।

-झूठ!

मुन्नी तब तक सम्हल चुका था। कडक़कर बोला-पिया है तो तुम्हारे बाप का क्या!

-वह तो घर चलने पर मालूम होगा!

-कहो तो मैं अभी तुमको मालूम करा दूँ?-और उसने आँखें निकालकर देखा।

उस लडक़े की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी।

वे आगे बढ़ गये, तो लडक़े भी उनके पीछे-पीछे हो लिये।

रास्ते में कई जगह झड़प होते-होते बची। जैसे-जैसे गाँव नज़दीक आता गया, बालकों की हिम्मत बढ़ती गयी और मुन्नी निढाल होता गया। आगे बढक़े बोलनेवाला लडक़ा कैलास था। यह उसी के दर्जे में पढ़ता था। बहुत अच्छे कपड़े पहनकर, तेल से चिकना होकर वह स्कूल में आता था। खाने की बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाता था। मास्टर उसको बहुत मानते थे, उसके घर से आये सीधे की बड़ी प्रशंसा करते थे। पास कराई सबसे अधिक देता था और हर साल अपने मास्टर को एक पियरी पहनाता था। लेकिन पढऩे में वह मुन्नी से पीछे ही रहता था। मुन्नी की समझ में न आता था कि मास्टर लोग उसे ज़्यादा क्यों मानते हैं, गाँव के लोग उसे उससे ज़्यादा क्यों मानते हैं? इसीलिए मन-ही-मन उसकी उससे लगती थी। ...उसे सन्देह हुआ कि सच ही कैलास कहीं चुग़ली न कर दे।

मन्ने और मुन्नी जाने कितनी बार एक-दूसरे के साथ, एक-दूसरे का जूठा खा चुके थे। लेकिन ऐसा वे अकेले में, छुपकर ही करते थे। दोनों को इसका एक अज्ञात भय था कि ऐसा करना ठीक नहीं, कोई देख लेगा तो बुरा होगा। क़स्बे में मुन्नी ने जो ऐसा किया तो इसका कारण यही था कि वह गाँव से दूर था और उसे विश्वास था कि लडक़ों को इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी या फिर गाँव पहुँचते-पहुँचते वे सब भूल जायँगे।

उस रात मन्ने को नींद न आयी। रह-रहकर उसकी आँखें खुल जातीं, जाने मुन्नी पर क्या बीती हो? वह लेटे-लेटे हाथों की अँजुरी बनाकर दुआ करता-ख़ुदा, मुन्नी को कुछ न हो! ...वह सोच रहा था, कैलास एक ही बदमाश लडक़ा है, वह उससे भी कितना जलता है। अम्मा कहती है, कैलास के पिता और उसके अब्बा में पुश्तैनी दुश्मनी है, दोनों में बराबर मुकद्दमा चलता रहता है, कभी एक-दूसरे से बात नहीं करते! ...कैलास को एक निशाने से यह दो चिड़ियाँ मारने का मौका मिला है, जाने क्या करे।

दूसरे दिन मन्ने बड़ी बेताबी से अपने घर मुन्नी का इन्तजार कर रहा था। मुन्नी हमेशा उसके घर आता और वहाँ से दोनों एक साथ स्कूल जाते। लेकिन उस दिन मुन्नी उसके घर न आया। देर हो गयी तो वह अकेले स्कूल के लिए चल पड़ा।

मुन्नी चुपचाप कक्षा में सिर लटकाये बैठा था। उसके सिर में तेल चमक रहा था और मुँह और आँखें सूजी हुई मालूम पड़ती थीं। कैलास बहुत ख़ुश था। वह बड़े पण्डितजी की कुर्सी के पास खड़ा उनसे कुछ लहरा रहा था। मन्ने को जाने कैसे-कैसा लग रहा था। उसने कई बार कुहनी से मुन्नी को धकियाया, लेकिन उसने उसकी ओर ताका तक नहीं। मन्ने रूआँसा हो गया। क़रीब था कि रो पड़ता कि इतने में उसके बस्ते पर एक चिट आ गयी। लिखा था, इस समय चुप रहो। दोपहर की छुट्टी में अपने बाग़ में मिलो।

बड़े पण्डितजी उस दिन दोनों में से किसी से न बोले। रह-रहकर गुस्से से उनकी ओर देखते थे। मन्ने को यह बड़ा अजीब लग रहा था। वह यह नहीं समझा था कि बड़े पण्डितजी भी इसे बुरा मानेंगे। उन्होंने तो कई बार कहा था कि वह उनकी दोस्ती से बहुत ख़ुश हैं। ...लेकिन यह बड़े पण्डितजी! इनके चरित्र का रहस्य बहुत दिनों बाद खुला। ...

दोपहर को बाग में मिले तो मुन्नी बाग़ के एकान्त कोने में जा मन्ने से लिपटकर रोने लगा। मन्ने ने सिहरकर पूछा-क्या हुआ? क्यों रोते हो? क्या तुम्हारे बाबूजी ने....

मुन्नी पीठ से कुर्ता हटाकर, रोते हुए ही बोला-देखो।

गोहिए के कई नीले-नीले निशानों पर हल्दी के नन्हें-नन्हें कण देख मन्ने की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। कुछ देर के लिए वह इस तरह ख़ामोश हो गया, जैसे अन्तर की असह्य पीड़ा ने उसे मूक बना दिया हो...

मन्ने को दुख का वह पहला अनुभव आज भी याद है, वह उसे भूल नहीं सकता। उसने कहा-मुन्नी, यह-सब मेरे ही कारण हुआ।

-नहीं,-मुन्नी उसकी आँखें अपने कुत्र्ते के दामन से पोंछते हुए बोला-यह-सब कैलास के कारण हुआ। इसका मज़ा मैं उसे चखाऊँगा। वह साला चाहता है कि हमारी दोस्ती टूट जाय, लेकिन यह नहीं होने का! उसका बाप मेरे यहाँ रात आया था, उसी के सामने बाबूजी ने मुझे....-वह फिर सिसक पड़ा।

अब मन्ने की बारी थी। उसने उसके आँसू पोछे और बोला-रोओ मत, मुझे बहुत दुख होता है।

अचानक मुन्नी चुप हो गया और ज़रा देर बाद ही हँसकर बोला-आम खाओगे?

आम की फ़सल जा रही थी, दो बार फल उतर चुके थे। इक्के-दुक्के आम डालों पर आड़े-अलोते दिखाई पड़ रहे थे।

इस अचानक परिवर्तन से मन्ने जैसे एक झटका-सा खा गया था। सम्हलकर बोला-आज मैं तुम्हें अपने हाथ से आम तोडक़र खिलाऊँगा।

-नहीं!-मुन्नी ने ज़ोर देकर कहा-तुम्हें पेड़ पर चढऩा नहीं आता। यही है तो अगोरिये को बुलाओ।

-नहीं, आज तो अपने हाथ से ही तोडक़र मैं तुम्हें खिलाऊँगा! आओ, खोजें।-कहकर वह ऊपर पत्तों में देखने लगा।

मन्ने को एक भूली बात याद आ गयी। बोला-मन्ने, एक बार और कैलास के बाप ने मुझे बाबूजी से पिटवाया था।

-कब?-मन्ने अचकचाकर बोला।

-तब तुमसे दोस्ती नहीं थी। एक बार कैलास के बाग की चारदीवारी फाँदकर हम कई लडक़े बेर खाने घुसे थे। हमें मालूम न था कि उसका अगोरिया बाग में है। उसने हम लोगों को दौड़ाया। मैं सबसे छोटा था। सब दीवार चढ़-चढक़र भाग गये, लेकिन मैं पकड़ा गया। वह मुझे पकडक़र कैलास के बाप के यहाँ ले गया। मुझे देखकर वह बहुत गुस्सा हुआ। बोला, इसे इसके बाप के पास ले जाओ और कहो कि यह हमारे बाग़ में घुसा था। बाबूजी को मालूम हुआ तो वे आग-बबूला हो गये। उन्होंने मुझे खमिहे में रस्सी से बाँध दिया और कई छिकुनें मारीं। वह गुस्से में चीख रहे थे, इसी उम्र में लाला की छत तोड़ने गया था! मैं तेरी हड्डी तोडक़र रख दूँगा! ...साला लाला!

-जाने दो, अब तो हमारा अपना बाग़ है!-मन्ने ने उसका ग़ुस्सा कम करने के लिए कहा और फिर पत्तों के झुरमुट में आम ढूँढऩे लगा।

मन्ने को पेड़ पर चढऩा न आता था, फिर वह बहुत कमज़ोर भी था। मुन्नी ने सोचकर कहा-जाने दो, कहीं आम नहीं है। आज हम आम नहीं खायँगे।

-नहीं, जी! आज तो मैं तुम्हें ज़रूर आम खिलाऊँगा और अपने हाथ से तोडक़र!-मन्ने मचल उठा-अपने से ढूँढुंगा भी, तुम मत देखो।

सीपिया के एक छोटे पेड़ की एक डाल की पुलुंगी पर एक जोड़ा आमों को देखकर मन्ने उछल पड़ा। नन्हें-नन्हें पत्तों के बराबर ही वे आम थे और पत्तों के रंग के ही काले-हरे। कई बार तो वे आँख-मिचौली भी खेल गये।

मुन्नी ने देखा तो काँप उठा। बोला-नहीं, तुम मत चढ़ो। बड़ी पतली डाल पर हैं। आओ, और किसी पेड़ पर ढूँढ़ें।

-नहीं, मैं तो सिपिया ही आज खिलाऊँगा!-कहकर मन्ने जूता पहने ही अत्यधिक उत्साह से उछलकर, एक छोटी-सी डाल पकडक़र, झूल गया और तुरन्त पैर ऊपर फेंक, उसमें उलझा दिये कि तभी अरराकर डाल बोल गयी ओर मन्ने चारों ख़ाने चित्त ज़मीन पर।

मुन्नी के तो जैसे होश ही उड़ गये। उसने आँखों में दहशत लिये डाल को खींचकर हटाया, तो मन्ने चट उठ खड़ा हुआ और अपने कपड़े झाड़ने लगा। बोला-चोट नहीं लगी है।

-सच कहना?-शंकित मुन्नी बोला।

-सच!-कहकर मन्ने अपना बायाँ हाथ दाहिने हाथ से दबाने लगा।

-देखें,-मुन्नी ने वह हाथ अपने हाथ में लिया, तो मन्ने बोला-ज़रा अँगुलियाँ खींच दे, शायद कलाई पर चोट लगी है। लेकिन कोई ख़ास....

अँगुलियाँ खींचता हुआ मुन्नी बोला-मैं कह रहा था, तुम नहीं माने।

-अरे, कुछ नहीं हुआ है।

-हुआ क्यों नहीं? ...तुम जूते पहने ही पेड़ पर चढऩे लगे। पेड़ पर भूत होते हैं। हम लोग तो पहले हाथ जोडक़र गोड़ लागते हैं, फिर पेड़ पर चढ़ते हैं। जाने...

-दुत! ...छोड़ दो अब। अबकी जूता उतारकर चढू़ँगा।

तभी अगोरिया वहाँ आ पहुँचा। बोला-डाल कैसे टूटी? कोई चढ़ा था का?

सरकार ने मना किया है कि देखना, कहीं मन्ने बाबू...

मुन्नी झट बोल पड़ा-मैं चढ़ा था। वो आम तो तोड़ दे।

-हाँ-हाँ, जल्दी तोड़ दे!-मन्ने ने वहीं बैठते हुए कहा, उसे ज़ोफ़ आ रहा था, वह लेट गया।

-अरे, यह क्या?-शंकित होकर मुन्नी बोला और झुककर देखा, तो चीख पड़ा।

अगोरिये ने लपककर देखा, तो मन्ने बेहोश हो गया था। उसने एक बार घूरकर मुन्नी की ओर देखा और बोला-सच बताना, बाबू पेड़ पर से गिरे थे?

मुन्नी ने सिर हिलाकर कहा-नहीं।

लेकिन अधिक सवाल-जवाब का यह अवसर न था। अगोरिया मन्ने को अपनी गोद में उठाकर चल पड़ा और मुन्नी को पीछे आने से मना कर दिया।

दोपहर के बाद मन्ने स्कूल नहीं आया। मुन्नी भी खाने घर नहीं गया। उसका मन रो रहा था, जाने मन्ने को क्या हुआ? वह बहुत चाहकर भी उसके घर न जा पाया। बाबूजी ने मना कर दिया है। लेकिन मन्ने को क्या हुआ? शाम को कई चक्कर मुन्नी ने मन्ने के घर के लगाये, लेकिन अन्दर जाने की उसकी हिम्मत न हुई।

दो दिन तक मन्ने से भेंट न हुई। तीसरे दिन मालूम हुआ कि मन्ने की कलाई टूट गयी है। उसके अब्बा उसे लेकर बैठवाने के लिए मऊ गये हैं। जब तक मन्ने वापस न आ गया, मुन्नी चुपके-चुपके रोता रहा और रात-दिन मन-ही-मन राम-राम की रट लगाये रहा। उसके बाबूजी रोज़ सुबह राम-नाम गाते थे और कहते थे-राम-राम कहु बारम्बारा, चक्र सुदर्शन है रखवारा!

कलाई पर पट्टी बाँधे मन्ने को उस दिन शाम को मसजिद के पास देखकर मुन्नी उससे आँखें न मिला पा रहा था। मन्ने ने ही हँसकर कहा-ठीक हो गया। कोई चिन्ता की बात नहीं। तुम्हारी पीठ पर निशान है, तो मेरी कलाई पर!-और वह हँस पड़ा।

लेकिन मुन्नी की आँखें भर आयीं। वह उस पट्टी को कई क्षण सहलाता रहा। बोला कुछ नहीं।

मन्ने ही बोला-कल स्कूल आऊँगा। तुम्हें आम न खिला सका, इसका अफ़सोस ताज़िन्दगी रहेगा। लेकिन एक चीज़ तुम्हारे लिए लाया हूँ।

-क्या?

-अभी नहीं बताऊँगा। कल शाम को मैं तुम्हारे घर आऊँगा।

-मेरे?

-हाँ। तुम मेरे घर नहीं आ सकते, तो मैं तो आ सकता हूँ! अब्बा से मैंने पूछा था। उन्होंने कहा, ज़रूर जाओ।

-कहीं मेरे बाबूजी...

-वह तो आने पर ही मालूम होगा। पहले ही से क्यों डरें?

-तो आज ही चलो।

-अच्छा, तुम चलो, मैं आ रहा हूँ।-कहकर मन्ने अपने घर की ओर भाग गया।

अपने घर की गली के मुहाने पर खड़ा मुन्नी इन्तज़ार कर रहा था। धीरे-धीरे शाम झुक आयी। बाबूजी बाज़ार से आ गये, लेकिन मन्ने नहीं आया। वह बड़ी बेचैनी से मुहाने पर खड़ा रहा। पाँवों में मच्छर काटते, तो झुककर वह हाथ चट-चट पाँवों में मारता और खुजलाता, लेकिन वहाँ से हटने का नाम न लेता। उसे विश्वास था कि मन्ने ने कहा है तो आयगा ज़रूर। लेकिन इतनी देर क्यों हो रही है, उसकी समझ में नहीं आता था।

दरवाज़े पर ओरियानी से लटकी सिकड़ी में लालटेन टाँगकर बाबूजी हाथ-मुँह धोने दाबे पर बैठे, तो उनकी नज़र मुन्नी पर पड़ी। उन्होंने वहीं से पुकारा-वहाँ अँधेरे में खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? चल इधर।

मुन्नी अनमना-सा अपने ओसारे में आ खड़ा हुआ। लेकिन बाबूजी जब अँगोछे से मुँह ढाँककर सन्ध्या-वन्दन में बैठ गये, तो वह फिर गली की मोहानी पर जा पहुँचा।

गली की मोहानी पर जाने कब से मन्ने खड़ा था। मुन्नी को आते देख उसने अपने हाथ पीछे कर लिये।

-मैं कितनी देर से इन्तज़ार कर रहा था!-मुन्नी ने उलाहने के स्वर में कहा।

-अम्मा मना कर रही थी। कहती थी, रात को कहाँ जाओगे, कल चले जाना। खण्ड का बहाना करके आया हूँ। चलो, अपने घर चलो।

-दरवज्जे पर ही बाबूजी सन्ध्या-वन्दन में बैठे हैं। एक घण्टे तक नहीं उठेंगे।

-ओफ़! ...अच्छा, बोलो, मेरे हाथ में क्या है?

-मिठाई।

-ऊँ-हूँ! सोचकर बोलो।-सिर हिलाकर मन्ने ने कहा।

-कोई किताब,-सोचते हुए मुन्नी ने कहा।

-ऊँ-हूँ, और सोचो।

-कोई चिन्ह बताओ।

-खेलने की चीज़ है,-आँखें मलकाते मन्ने ने कहा।

-तो लट्टू?

-ऊँ-हूँ।

-तो ताश?

-ऊँ-हूँ।

-और कोई चिन्ह बताओ।

-गोल-गोल है।

-चकई?

-ऊँ-हूँ।

-तो यार, तू ही बता दे, मैं हार गया।

-मान गये?

-हाँ।

और मन्ने ने तुरन्त हाथ आगे कर दिये।

-फुटबाल!-मुन्नी चीख़ उठा और लपककर उसे इस तरह अपने हाथों में ले लिया, जैसे...मन्ने की समझ में उस समय न आया था, लेकिन आज वह उपमा दे सकता है, जैसे पिता अपने शिशु को गोद में लेता है!

वह मुन्नी की ख़ुशी! जैसे उसके हाथों में दुनिया आ गयी हो, गद्गद कण्ठ से वह बोला-मन्ने!

मन्ने ने उसके हाथों पर अपने हाथ रख दिये। ख़ुशी का जीवन में वह पहला अनुभव उसे आज भी याद है। ...कितनी छोटी-सी चीज और कितनी बड़ी ख़ुशी! ...आज भी कभी वे मिलते हैं, तो उन अनुभवों को दुहराये बग़ैर नहीं रहते। एक-एक अनुभव, एक-एक घटना, एक-एक बात दुहरायी जाती है। अकेले में भी मन्ने अपने अतीत के बारे में सोचता है, तो मुन्नी की बात साथ-साथ आ ही जाती है, जैसे उसकी कोई भी बात मुन्नी की बात के बिना अधूरी हो, जैसे उसका जीवन मूल हो तो मुन्नी का ऐसा भाष्य, जिसे पढ़े बिना कोई मर्म तक न पहुँचे।

और फिर वह घटना घटी। छमाही इम्तिहान में मन्ने अव्वल आया और गाँव में कोहराम मच गया। मुन्नी को लोग चिढ़ाने लगे-और दोस्ती करो तुरुक से!-बड़े पण्डितजी को स्कूल में आकर कई लोग धमकी दे गये, इस बात को वे आगे ले जायँगे। यह सरासर अन्याय है! उनकी बदली कराके दम लेंगे! हिन्दुओं के स्कूल में मुसलमान अव्वल आ जाय! नायबों ने आग भडक़ायी, बड़े पण्डित का यह पक्षपात है और कुछ नहीं, रुपये जो पाता है! ...

मन्ने-मुन्नी भी यह-सब सुनते, लेकिन उनकी समझ में ज़्यादा कुछ न आता। मुन्नी को कोई अफ़सोस या शिकायत न थी। उनके सम्बन्ध में कोई अन्तर न आया। ...

फिर सुना गया कि बड़े पण्डितजी को लाला ने बुलाया था। बड़े पण्डितजी से उन्होंने जवाब तलब किया था। बड़े पण्डितजी ने उनसे माफी माँग ली और वादा किया कि आगे ऐसा न होगा। और फिर उन्हें मालूम हुआ कि वे कैलास को रात को पढ़ाएँगे। वे रात को उसी के घर रहेंगे, वहीं भोजन बनाकर खाएँगे। मन्ने को विशेष रूप से पढ़ाना अब बन्द कर देंगे।

मन्ने ने यह बात अपने अब्बा को बतलायी, तो उन्होंने बड़े पण्डितजी को उसी दिन दोपहर की छुट्टी में अपने पास बुलाया और मन्ने के सामने ही पूछा-मेरा लडक़ा जो कह रहा है, क्या सच है, पण्डितजी?

पण्डितजी ने सिर झुकाकर कहा-जी, हुजूर।

-लेकिन ऐसा क्यों? आप लाला के लडक़े को उसके घर रात को पढ़ाएँगे, मेरे लडक़े पर तो स्कूल में आप ख़ास तवज्जोह देते थे, यह आप अब भी कर सकते हैं।

-मैं मजबूर हूँ,-बड़े पण्डितजी ने वैसे ही सिर झुकाये कहा।

-लेकिन क्यों? इसमें किसी की भी क्या मजबूरी हो सकती है?

-हुज़ूर ने सब सुना ही होगा।

-सुना तो है, लेकिन आपकी मजबूरी की वजह मेरी समझ में नहीं आती। ...अच्छा, आप यह बताइए, मेरा लडक़ा आप ही अव्वल आया था कि आपने योंही उसे अव्वल कर दिया?

-ये आप ही अव्वल आये थे, इसमें मेरी कोई तरफ़दारी नहीं।

-फिर लोगों के कहने में आकर आप इन्साफ़ का रास्ता क्यों छोड़ते हैं?

-मैं मजबूर हूँ, मुझमें इन लोगों का मुक़ाबिला करने की ताकत नहीं। इनकी मर्जी के खिलाफ़ कुछ भी करने की मुझमें हिम्मत नहीं।

-इतने आलिम होकर भी...

-मैं मजबूर हूँ...

-अगर सालाने में भी मेरा लडक़ा अव्वल आया...

-मेरे हाथ से अब ये अव्वल नहीं आ सकते। मैं वादा कर चुका हूँ। इसी वादे पर मुझे माफ़ी मिली है।

-आप ऐसे कमीने हैं, मुझे मालूम होता तो मैं अपने लडक़े को...आप निकल जाइए यहाँ से! आपका मुँह देखना भी गुनाह है।

अब्बा मारे ग़ुस्से के काँपने लगे।

बड़े पण्डितजी सिर झुकाये ही बाहर निकल गये, तो अब्बा पलंग से कूदकर बाहर आये और चीख़कर बोले-मेरा लडक़ा अब भी वहीं पढ़ेगा और हम देखेंगे कि आप उसके साथ कैसे ग़ैरइन्साफ़ी करते हैं!

रास्ते पर जाते हुए कई लोग अब्बा की चीख़ सुनकर ठिठक गये। बड़े पण्डितजी काँपते हुए लम्बे-लम्बे डग भरते भागे-से जा रहे थे।

तब अब्बा मन्ने की ओर मुख़ातिब हुए-जाओ, मन लगाकर पढ़ो। तुम अव्वल आने लायक हुए, तो तुम्हें कोई ताक़त नीचे नहीं गिरा सकती! मैं ख़ुदा का बन्दा हूँ, मुझे उसकी ज़ात पर भरोसा है!

मन्ने ने मुन्नी से यह-सब बताया, तो उसने कहा-ऐसा हरामी है वह! ... ख़ैर, तुम कोई चिन्ता न करो। तुमसे आगे कोई नहीं जा सकता।

लेकिन वैसा हुआ नहीं। सालाना इम्तिहान आया, तो लडक़ों में शोर हो गया कि बड़े पण्डितजी ने पर्चों के सभी सवाल हल करके कैलास को रटवा दिये हैं। किसी लडक़े ने कहा, रटवाने की क्या ज़रूरत? वह घर पर भी लिखवाकर कापी बदलवा सकते हैं!

नतीजा निकला, तो मालूम हुआ, कैलास अव्वल, मुन्नी दूसरा और मन्ने तीसरा!

मन्ने को मालूम न था कि ऐसा क्यों हुआ, लेकिन प्रेमी जानता है कि ऐसा क्यों होता है। इसका उसे बराबर दुख रहता, लेकिन वह क्या कर सकता था? क्या करने लायक़ अभी वह था? लेकिन वह सोचता, कभी कुछ करने लायक़ हुआ तो...

क्लास से निकला तो वह शेर उसे फिर याद आया, यह सर जो...

शाम को हास्टल के अपने कमरे का ताला खोलकर वह अन्दर घुसा, तो उसका सिर भन्ना रहा था। अन्दर से चिटखनी लगाकर वह बिस्तर पर गिर पड़ा...ये मज़हब, ये धर्म, जिनके प्रवत्र्तक संसार के सर्वश्रेष्ठ मनुष्य थे, जिनका उद्देश्य मानवता को ऊँचा उठाना था और मनुष्य के अन्दर दया, सच्चाई, भ्रातृत्व और श्रेष्ठतर भावनाओं को विकसित करना था, आज केवल ढकोसला रह गये हैं; आज उनकी आड़ में क्या-क्या अनाचार हो रहे हैं; कैसे-कैसे अत्याचार तोड़े जा रहे हैं; किस तरह एक-दूसरे के लिए ज़हर बोया जा रहा है; एक को दूसरे का शत्रु बनाया जा रहा है, एक को दूसरे से लड़ाया जा रहा है...यह सब क्यों हो रहा है, क्यों? उसके सामने उसकी अपनी सारी ज़िन्दगी बिछी थी, बचपन से लेकर आज तक...कितनी-कितनी ऐसी घटनाएँ हैं...हिन्दू-मुसलमान के संकुचित दायरों के बाहर जो क़दम उठाना चाहता है, उसे भी घसीटकर उसी दायरे में डालने की कोशिश होती है...जैसे इन दायरों के बाहर, इन दायरों के ऊपर कोई ज़िन्दगी ही न हो। कितनी बार उसे ख़ुद झुँझलाहट हुई है कि आख़िर उसे ही क्या पड़ी है, जो वह इन गन्दी भावनाओं से दामन बचाकर रहना-सहना चाहता है और अक्सर दोनों की शत्रुता के पाटों में पिस-पिसाकर रह जाता है। दोनों की गालियाँ सुनता है, दोनों के बीच रुसवा होता है...लेकिन नहीं, वह झुँझलाहट बहुत देर तक क़ायम नहीं रहती और चारों ओर से समाज के वे तत्व सहारा देकर उसे स्वस्थ बना देते हैं, जिनका उसकी आत्मा पर संस्कार चढ़ा है, जिनके जीवन, व्यवहार और आचरण से उसने संसार के सर्वश्रेष्ठ अनुभव, सच्चे सुख-दुख के अनुभव प्राप्त किये हैं, जिनके प्रेम, विश्वास, मित्रता, भ्रातृत्व और मानवता से उसका हृदय प्रकाशमान है...नहीं-नहीं, वह अपनी राह नहीं छोड़ेगा! मुन्नी और अब्बा-जैसे कितने लोग उसके सामने हमेशा खड़े रहते हैं, जो उसे प्रेम देते हैं, साहस और दिलासा देते हैं, शक्ति और विश्वास देते हैं, उसका पथ-प्रदर्शन करते हैं, उसे प्रकाश देते हैं। अब्बा! अब्बा! ...मरहूम अब्बा की याद आते ही वह तड़प-सा उठा...

ज़िले के हाई स्कूल से आठवें का इम्तिहान देकर वह गर्मी की छुट्टियों में घर वापस आया, तो एक कहानी उसे सुनने को मिली। चमरौटिया की एक कमसिन, ख़ूबसूरत, कुँआरी लडक़ी दोपहर को गाँव की दूकान से कोई सौदा लेकर तेलियाने से ग़ुजर रही थी कि नन्दराम का बेटा, किसन, अपनी बैठक से निकलकर उसे ज़बरदस्ती गोदी में उठाकर बैठक के अन्दर ले गया और उसके मुँह में कपड़ा ठूँसकर उसे बेहुरमत कर दिया। वह लडक़ी जब उसके शिकंजे से छूटी, तो बाहर निकलकर रोने-चिल्लाने लगी। भीड़ इकठ्ठी हो गयी। उसके माँ-बाप भी सुनकर दौड़े-दौड़े आये। लेकिन इसी बीच किसन न जाने कहाँ चम्पत हो गया था। बैठक ख़ाली थी, लेकिन बलात्कार के चिन्ह वहाँ स्पष्ट थे। उस लडक़ी का कपड़ा भी ख़ून से तर था, उसे देखकर उसकी माँ छाती पीट-पीटकर, दहाड़ मार-मारकर रोने लगी। उसका बाप ग़ुस्से में चिल्ला-चिल्लाकर गाली बकने लगा। गाँव-भर में हंगामा मच गया। देखते-देखते सारा गाँव वहाँ इकठ्ठा हो गया। चमरौटिया के जवान लाठी ले-लेकर आ जुटे और आँखों से आग बरसाते हुए तेली की सात पुश्तों का बखान करते ललकारने लगे-कहाँ है वह हरामी का बच्चा? उसे घर में से निकालो! उसका खून पिये बिना हम वापस न जायँगे। नहीं तो तुम्हारी बहू-बेटियों...

नन्दराम अपनी बिरादरी का मुखिया था। उसकी सारी बिरादरी उसे बीच में लिये खड़ी थी। उनमें से कई लोग चिल्ला रहे थे-वह कुकर्मी मिल जाय, तो हम खुद उसकी तिक्का-बोटी कर दें! लेकिन उसका कहीं पता नहीं है। जाने कहाँ मुँह काला कर गया! ...

और उन टोलियों के बीच गाँव के लोगों का ठठ्ठा लगा था। सब जाने क्या-क्या चीख़-चिल्ला रहे थे। कोई बात साफ़ सुनायी नहीं पड़ रही थी। चमारों ने कई बार जोश में आकर गाँव के लोगों के बीच से होकर तेलियों तक पहुँचने की कोशिश की, लेकिन हर बार लोगों ने उन्हें रोक-थाम लिया-बलवा करने से क्या फायदा? वह कुकर्मी जब है ही नहीं, तो निरपराधों का सिर वे क्यों तोड़ेंगे?

आख़िर लडक़ी का बाप चिल्लाया-हम गरीबों का कोई तरफदार नहीं! हमारी लडक़ी की जिनगी खराब हो गयी! हमारी इज़्जत बरबाद हुई, पानी लुट गया। और यहाँ लोग खड़े-खड़े तमासा देख रहे हैं! हमें बदला लेने से रोक रहे हैं। उस तिरछोल का बाप धनी है ना, सब उसी की तरफदारी कर रहे हैं। किसी को सरम-लिहाज नहीं। चलो, थाना चलो! उस तिरछोल (बदमाश) को इन्हीं लोगों ने कहीं छुपा दिया है...

तभी नीली पगड़ी सिर पर लपेटता भागा-भागा चौकीदार आ पहुँचा। लोग उसकी ओर मुख़ातिब हो गये। लडक़ी की माँ उसके दोनों पैर अँकवारी में छानकर, रो-रोकर फ़रियाद करने लगी-चन्नन भैया, हमारे मुँह का पानी उतर गया! नननवा के तिरछोल ने हमारी बिटिया की इज्जत दिन-दहाड़े उतार ली! देखो-देखो, अपनी आँखों ही सब देखो!-और वह घूँघट में मुँह छुपाये, गठरी बनी अपनी बेटी की खून से तर फुफुती उठाकर दिखाने लगी।

लडक़ी का बाप बोला-हमें थाना ले चलो! रपोट लिखाओ!

तेली-बिरादरी की ओर से आवाज़ आयी-ओ चन्नन! हमारी भी सुन लो!

चन्नन कह रहा था-अरे, पैर तो छोड़! समझने-बुझने तो दे हमें!

-समझना-बुझना का है?-एक चमार नौजवान बिफर उठा-हाथ कौ आरसी का? चलो, हमैं थाने लै चलो!

-यह-सब कानून की बात है, ठण्डे दिल से सोचना पड़ता है। दोनों फरीकैन की बात सुननी पड़ती है।

-अरे, उनकी तू का सुनेगा? उनकी इज्जत उतरी है कि हमारी?-उसका बाप चिल्ला उठा-तू दुसाध होकर भी इस तरह बात करता है, चल, हमारे साथ!

-पहले उनसे कहो, लाठियाँ घर में रख आवें। नहीं तो हमको यह भी रपोट करनी पड़ेगी कि चमार लाठियाँ लेकर नन्नन महाजन के घर पर चढ़ आये थे!

-थूह!-लडक़ी की माँ ने चन्नन के मुँह पर थूक दिया और चिल्लाकर बोलीं-जा, जा, महाजन ने तेरे लिए चहबच्चा खोल रखा है! हरामी कहीं का! भगवान करे, तेरी बेटी का भी मुँह काला हो! तू उफ्फर पड़े! तेरी आँखों में माँड़ा पड़े, जो तू देखकर भी नहीं देखता! तेरी इस पगड़ी में आग लगे! ...

चन्नन तेली-बिरादरी की ओर बढ़ गया।

और बाप अपनी लडक़ी का हाथ पकडक़र उसे उठाता हुआ बोला-चल रे, जिमिदार बाबू के यहाँ चल! हमारे ऊपर भी भगवान है! ऐसा अँधेर नहीं है, आसमान में अभी सूरज चमक रहा है! ...

और एक भीड़ उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। लडक़ी का घूँघट उसकी छाती तक लटका हुआ था। रोते-रोते उसकी हिचकी बँध गयी थी। उसके गले से रोने की आवाज़ न निकल रही थी। रह-रहकर हिचकी लेती, तो उसका सारा शरीर काँप उठता। उसकी एक बाँह बाप पकड़े था और दूसरी माँ और दोनों अपने ख़ाली हाथों को हवा में लहरा-लहराकर फटे गले से चीख़-चीख़कर नन्नन तेली और उसके बेटे किसन को गालियाँ और अभिशाप देते हुए, इन्साफ़ के लिए गाँव को गुहराते हुए गली-दर-गली चले जा रहे थे। सुन-सुनकर घरों की औरतें दरवाज़े पर आ-आ, आँखें फाड़-फाडक़र वह दृश्य देखतीं और लडक़ी के माँ-बाप के अभिशापों और गालियों में एक-आध अपनी ओर से भी जोड़ देतीं।

चीख़-पुकार सुनकर मन्ने के अब्बा चारपाई से उठकर दरवाज़े पर आ खड़े हुए। उनके सामने एक भीड़ चली आ रही थी। पास पहुँचते ही लडक़ी की माँ उसकी बाँह छोडक़र दौड़ी और मन्ने के अब्बा के पाँवों में गिरकर फ़रियाद करने लगी-दुहाई है सरकार की! हमारी इज्जत आज दिन-दुपहरिये लुट गयी! नन्नन तेली के लडक़े किसनवा ने हमारी लडक़ी की जिनगी खराब कर दी! दुहाई है सरकार की! ...

लडक़ी की ओर देखते ही मन्ने के अब्बा सब समझ गये। उनकी लाल-लाल, बड़ी-बड़ी आँखों से जैसे लुत्ती छिटकने लगी। उन्होंने भीड़ की ओर देखा और बोले-चलो भाग जाओ यहाँ से! तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसे में लडक़ी को चारों ओर से घेरे हुए खड़े हो? चलो, हटो यहाँ से!

धीरे-धीरे भीड़ छँट गयी और चमारों के सिवा वहाँ और कोई न रह गया, तो वे बोले-लडक़ी को अन्दर ले जाओ और मेरी चारपाई बाहर निकालो।

माँ लडक़ी को लेकर अन्दर चली गयी और बाप ने चारपाई बाहर निकालकर सहन में डाल दी। बैठते हुए बोले-कहो, जतन, कैसे क्या-क्या हुआ?

जतन ने सब-कुछ बता दिया, तो वे बोले-जाओ, कहारों से बोलो, पालकी ले आएँ। किसुनवा के बारे में पहले भी इस तरह की बहुत-सी बातें सुन चुके हैं। अब भी उसे न रोका गया, तो गाँव की बहू-बेटियों की इज़्जत मिट्टी में मिल जायगी! ...लेकिन रुको, एक बात सुन लो और अच्छी तरह तुम-सब चमार समझ लो कि इस मामले में मेरे हाथ डालने का क्या मतलब होता है? मेरे कौल से तुम-सब वाक़िफ़ हो। एक बार कदम आगे बढ़ाकर पीछे हटाना हम नहीं जानते। चाहे हमारी सारी ज़मींदारी फूँक जाय, लेकिन जब हम इस मामले में हाथ डालेंगे, तो तेली के छोकरे को बिना सज़ा कराये चैन न लेंगे! अगर तुम्हारे इरादे पक्के हैं तो बोलो, तुम तो कभी पीछे न हटोगे?

चमारों ने एक स्वर से कहा-नहीं, सरकार, यह कैसे हो सकता है?

-कैसे हो सकता है, कहने से काम नहीं चलेगा। पहले यह समझ लो कि इस मामले में मेरी दिलचस्पी को लोग क्या-क्या रंग देंगे और उसके कैसे-कैसे माने निकालेंगे! हिन्दू-मुसलमान का नारा देंगे और शोर मचाएँगे कि हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए मुसलमान ज़मींदार ने यह साज़िश की है। यह कहा जायगा कि गाँव के हिन्दू ख़तरे में हैं, सभी हिन्दूओं को मिलकर ज़मींदार का मुकाबिला करना चाहिए। यह भी मुमकिन है कि यह अफ़वाह उड़ायी जाय कि तुम्हारी लडक़ी से हमारे तअलुक़ात हैं, वग़ैरा-वग़ैरा! और तुम लोग भी हिन्दू ही हो, मुमकिन है कि मज़हब के नाम पर तुम लोगों पर दबाव डाले जायँ, महाजनों के पास पैसे की कमी नहीं, यह भी हो सकता है कि तुमको हज़ार-पाँच सौ का लालच दिया जाय, वग़ैरा-वग़ैरा...यह सब इसके पहलू हैं, सब समझकर जवाब दो। और साथ ही यह भी समझ लो कि इस वक़्त ग़ुस्से के मातहत या मियाँ के लिहाज से तुमने हाँ कर दी और फिर बीच में जाकर हमें धोखा दिया जाय, तो हमसे बढक़र तुम्हारा कोई दुश्मन न होगा। सब ठण्डे दिल से सोच-विचार लो, फिर जवाब दो। हो सकता है, मुक़द्दमा चला, तो सालों चले, हाईकोर्ट तक जाना पड़े, क्योंकि यह चमारों और बनियों के बीच की लड़ाई नहीं रहेगी, यह मुसलमान ज़मींदार और महाजनों के बीच लड़ाई हो जायगी, इसमें दोनों की इज़्जत का सवाल होगा। और हम मर जाना बेहतर समझेगें, लेकिन झुकना नहीं, इसलिए कि हमें इस बात का एतमाद है कि हम एक इन्साफ़ के लिए लड़ रहे हैं, अपने एक असामी की इज़्जत के लिए लड़ रहे हैं। एक ज़ुल्म, एक ज़िनाकारी के ख़िलाफ़ खड़े हुए हैं। हमारा इसमें कोई मतलब नहीं, कोई ख़ुदग़र्ज़ी नहीं।

चमार सन्नाटे में आ गये। उन्हें यह सब क्या मालूम था। उनका तो यह सीधा-सादा ख़याल था कि उनकी एक लडक़ी की इज़्जत बरबाद की गयी है, वे जाकर थाने में फ़रियाद करेंगे और मुजरिम पकड़ लिया जायगा और उसको सज़ा हो जायगी। बस!

उन्हें चुप देखकर मन्ने के अब्बा बोले-तो इससे अच्छा है कि तुम लोग गाँव की पंचायत बुलाओ और उसमें अपनी अरदास डालो। फिर जो पंचों का इन्साफ़ हो, मानो।

-नहीं, नहीं, पंचायत से हमें इन्साफ़ की उम्मीद नहीं। पंच हम गरीबों के साथ इन्साफ़ नहीं करेंगे।-जतन बोला।

-फिर क्या चारा है? तुम लोगों ने नाहक़ इतना शोर मचाया। जो हो गया था, सो हो गया था। लडक़ी को ढाँक-छुपाकर घर ले जाते। धीरे-धीरे बात आयी-गयी हो जाती। मुझे बेहद अफ़सोस है, लेकिन मैं क्या कर सकता हूँ।

-क्या बताएँ, सरकार। लडक़ी को देखकर छाती फटती है। किसनवा मिल जाता, तो उसका खून पिये बिना हम न छोड़ते!-एक नौजवान बोला-अब हम आपकी सरन में आये हैं। आप जैसा कहें हम करने को तैयार हैं।

-हमें जो कहना था, कह चुके। तुम लोग तो गाँवदारी के मामलों से वाक़िफ़ हो। यहाँ के हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं। हर बात को फ़िरक़ावारना रंग दे दिया जाता है। यहाँ किसी बात की नवैयत नहीं देखी जाती। यहाँ देखा यह जाता है कि कोई ज़ुल्म या ज़्यादती किसने की और किसके साथ की। अगर किसी मुसलमान ने किसी हिन्दू के साथ कोई ज़ुल्म किया तो मुसलमानों के लिए यह ऐन ख़ुशी की बात होगी और वो उसकी हर तरह तरफ़दारी करेंगे, उसे बचाएँगे। और दूसरी तरफ़ चूँकि यह ज़ुल्म किसी मुसलमान ने किया है, तो हिन्दूओं के लिए इससे बड़ा कोई ज़ुल्म ही नहीं हो सकता और उसे सजा दिलाये बिना वो चैन नहीं ले सकते। इसी तरह इस बात को उलटकर भी देखा जा सकता है। बल्कि आज तो यह नौबत आ गयी है कि दोनों तरफ़ से झूठ-मूँठ बातें उठायी जाती हैं और एक-दूसरे को फँसाने की हर कोशिश की जाती है। यह गाँव की बदक़िस्मती है, लेकिन क्या किया जाय। कोई चारा नहीं। ...

दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी लडक़ी की माँ यह-सब सुनते-सुनते थक गयी। उसकी समझ में ये बातें न आ रही थीं। आये थे हरि-भजन को, ओटन लगे कपास! वह बौखलाकर बोलीं-सरकार, कुछ हमारी भी फरियाद सुनेंगे कि यह रमायन ही सुनाते रहेंगे? हमारी तो छाती फट रही है और इन लोगन की बतकूचन ही खतम नहीं हो रही!

-हम तो तैयार हैं,-मन्ने के अब्बा ने कहा-यही लोग आगे-पीछे कर रहे हैं। ख़ूब सोच-समझकर ही काम करना चाहिए!

-यह सोचने-समझने का बखत है?-वह बिफरकर बोलीं-कौन मुँहझौंसा आगे-पीछे कर रहा है?-जिसे पीठ दिखानी हो, अभी मैदान छोडक़र चला जाय। बिरादरी साथ देना नहीं चाहती, तो न दे, मैं अकेली अपने बूते पर लड़ूँगी, जान दे दूँगी, लेकिन पीछे न हटूँगी! मेरी लडक़ी की जिनगी जिसने नासी है, उसे जेहल कराये बिना दम न लूँगी! कैलसिया के बाबू, तुम काहे नहीं बोलते? तुम्हारी बेटी...

-थोड़ी देर ठहर तू। आपस में हम सोच-विचार कर लें। दस आदमी की लाठी एक आदमी का बोझ। बिरादरी के लोग ही साथ छोड़ देंगे, तो यह धरती रसातल में पहुँच जायगी। तू जरा दम ले।-जतन ने कहकर अपने लोगों की ओर देखा।

-हम तो तैयार हैं,-एक नौजवान बोला-सरकार जब आगे हैं तो हमारा पीछे हटना डूब मरने की बात है।

-तुम्हारे लिए ही नहीं,-मन्ने के अब्बा बोले-हमारे लिए भी यह शर्म की बात है कि तुम लोग इस हालत में मियाँ के दरवाजे पर आये और ख़ाली हाथ वापस लौट गये। लेकिन इस हालत में मैं यह शर्मिन्दगी उठाना बेहतर समझता हूँ, बनिस्बत इसके कि कोई क़दम उठाकर पीछे हटाना पड़े। वह किरकिरी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।

-कोई भी बरदास्त नहीं कर सकता,-एक दूसरा नौजवान बोला-सरकार, आप हमें हुकुम दें। हम किसी भी हालत में आपकी चौखट न छोड़ेंगे।

-हाँ, सरकार, आप जो किरिया चाहें, हमें खिला लें,-जतन बोला-क्यों भाइयों, तुम लोग तैयार हो न?

-हाँ-हाँ,-सबने एक साथ कहा-हम सरकार का साथ किसी भी हालत में न छोड़ेंगे। हम आपके साथ जान दे देंगे, लेकिन मुँह न मोड़ेंगे।

मन्ने के अब्बा थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गये। फिर कलाई पर बँधी घड़ी की ओर देखकर बोले-अच्छा, तो एक आदमी जाकर कहारों से बोलो कि एक पालकी लेकर जल्द आएँ, तब तक मैं नवाज़ पढ़ लेता हूँ।-कहकर मन्ने के अब्बा अन्दर चले गये।

उन्हें देखकर कैलसिया खड़ी होने लगी, तो वे बोले-तू बैठी रह।-और वे आँगन में चले गये। एक कोने में दो घड़े रखे हुए थे। उन्होंने बधने में पानी ढाल, पास ही पड़ी छोटी चौकी पर बैठकर वज़ू किया। फिर कमरे में आ, खूँटी पर टँगे मुसल्ले को ले, आँगन के ओसारे में पड़ी चौकी पर चढ़ गये।

उन्होंने शेरवानी पहनकर कहा-कैलसिया, चल, पालकी में बैठ!

सुनकर सभी उनका मुँह तकने लगे, तो वे बोले-अब यह चमारों की इज़्जत नहीं, मियाँ की इज़्जत है। जल्दी इसे पालकी पर बैठाओ। और पोखरे के खण्ड पर जाकर बोलो-मेरा घोड़ा लाये।

आगे-आगे पालकी, उसके पीछे मन्ने के अब्बा घोड़े पर और उनके पीछे कन्धों पर लठ्ठा लिये चमारों का दल थाने के लिए रवाना हुआ, तो जिसने देखा, दाँतों से उँगली काटी। गाँव में शोर मच गया, मियाँ कैलसिया को पालकी पर चढ़ाकर थाने ले जा रहे हैं! जिसने जहाँ सुना, वहीं से दौड़ा-दौड़ा आया यह अजूबा देखने! चमार की लडक़ी पालकी पर! वाह रे मियाँ! ...

किसी ने कहा-अब तेली के छोकरे की ख़ैरियत नहीं!

किसी ने कहा-बाँह पकड़े तो ऐसा आदमी! कीचड़ को भी चन्दन बना दे!

किसी ने कहा-ऐसी बारात देखनी भी क़िस्मत में बदी थी! क़िस्मत की सिकन्दर है यह चमार की छोकरी! आज ही दुनिया की नज़रों से गिरना उसकी क़िस्मत में लिखा था और आज ही दुनिया की नज़रों में चढऩा भी!

रास्ते-भर लोगों ने चिहा-चिहाकर यह दृश्य देखा और पीछे-पीछे चलते चमारों से खोद-खोदकर सब बात पूछी। और मियाँ सिर्फ़ सामने देख रहे थे। पश्चिम में झुकता सूरज उनका माथा चूम रहा था और उनकी आँखों में रंग भर रहा था।

कहारों की नज़रें झुकी हुई थीं और वे अपनी स्वाभाविक चाल, आह-ऊह और बोली भी भूले हुए थे, जैसे आज कोई दुलहिन नहीं, एक ग़िलाज़त का बोझ ढोये जा रहे हों और उनका कन्धा जल रहा हो।

थाने पर डोली उतरी और सिपाहियों को जब कहानी मालूम हुई, तो वे डोली के इर्द-गिर्द कुत्तों की तरह मँडराने लगे।

मन्ने के अब्बा पूरी बातें बता चुके, तो थानेदार बोला-आप क्यों यह ज़हमत अपने सिर उठा रहे हैं? इन सालों की कौन ऐसी बहू-बेटी है, जो बची हुई है। इनके लिए तो यह सब खाने-पीने की तरह है।

-यह ठीक है,-मन्ने के अब्बा बोले-लेकिन इस मामले में मैंने बहुत सोच-विचारकर हाथ डाला है। तेली का छोकरा बहुत सरहंग हो गया है, इस तरह की कितनी हरकतें वह पहले भी कर चुका है...

-तो उसे ठीक करना कौन मुश्किल बात है? हम अभी चलते हैं....

-वह तो ग़ायब हो गया है...

-तो उसके घरवाले तो होंगे...

-आप जैसा चाहें, करें, लेकिन रिपोर्ट और लडक़ी का बयान लिख लें। इस मामले को मैं आगे तक ले जाना चाहता हूँ। अब यहाँ तक आ गया, तो पीछे नहीं हटूँगा।

-आप जैसा चाहें। लडक़ी को बुलवाएँ।

आश्चर्य! यह गाँव की अपमानित कैलसिया पालकी से निकली, या कोई दुर्गा? सिपाही, चमार, सभी चकित! घूँघट माथे तक उठा हुआ, सिर ऊँचा, आँखों में क्षोभ का तेज, मजबूत कदम! जब वह थाने के फाटक की ओर चली, तो सभी लोग सहमे-सहमे उसका मुखड़ा देखते रह गये। उसके खून के धब्बों से भरे कपड़े पर किसी की निगाह ही नहीं गयी। यह आश्चर्यजनक परिवर्तन! कैलसिया के माँ-बाप तक चकित थे। यह कैलसिया क्या हो गयी? ...पालकी का जादू...या मियाँ के व्यक्तित्व का प्रभाव...या चोट खायी सर्पिणी का क्षोभ...या क्या कहा जाय...यह कैलसिया! इस पर तो आँख ही नहीं ठहरती!

मियाँ हत्बुद्धि! थानेदार अवाक्! कुछ क्षणों तक मेज़ के सामने खड़ी कैलसिया को वे देखते रहे। बग़ल में बैठा मुंशी आँखें झपकाता रहा।

-नाम?

-कैलासो।

-बाप का नाम?

-जतनदास!

-कौम?

-चमार!

-उम्र!

-चौदह!

-गाँव?

-पियरी!

-बयान लिखाओ।

-मैं दोपहर को....

कैलसिया ने बेधडक़ वह बयान लिखवाया, वह तफ़सील दी कि सब दंग रह गये। दारोग़ा और मुंशी बार-बार मियाँ का मँुह ताक रहे थे। और मियाँ के चेहरे पर जैसे एक चमक बढ़ती जा रही थी।

बयान ख़त्म करके वह बोली-अब मैं जा सकती हूँ?

-हाँ,-कहकर दारोग़ा ने उस परकाला को एक भरपूर नज़र देखना चाहा, लेकिन इसके पहले ही वह कमरे से बाहर थी। और शान से चलकर वह पालकी में जा बैठी और पल्लों को खड़ाक से बन्द कर लिया।

-कमाल है, साहब!-थानेदार बोला-आधा मुक़द्दमा तो आप आज ही जीता समझिए! ख़ूब तैयार किया है आपने!

-क़सम ले लीजिए जो अब तक एक बात भी मैंने उससे की हो,-मियाँ बोले-यह सच्चाई की ताक़त है।

-अब हमसे भी झूठ?-मुंशी ने आँख मारी।

-झूठ मैं नहीं बोलता, आप जानते हैं!

-सो तो ठीक है, लेकिन क्या सच ही....

-मुझे ख़ुद हैरत है। मैं तो सोच रहा था कि पहले ही इसे समझा देना चाहिए, लेकिन वैसा मैं कर न सका।

-अच्छा, तो उसका कपड़ा भी दाख़िल करवा दीजिए,-थानेदार बोला-और डाक्टरी सर्टिफ़िकेट भी ले लीजिए। इसका मुक़द्दमा आप ज़रूर लडि़ए। काफ़ी हंगामा रहेगा। इस लडक़ी की हिम्मत तो क़ाबिलेदीद है। कचहरी में तिल रखने को जगह न मिलेगी।

-शुक्रिया! मैं अभी उसका कपड़ा बदलवाता हूँ।

-यहाँ दस्तख़त कर दीजिए,-मुंशी ने कहा।

क़स्बे से एक नयी साड़ी मँगवाकर डोली में डाल दी गयी और उसकी धोती मुहरबन्द करके दाख़िल कर दी गयी।

बोर्ड के अस्पताल का डाक्टर कहीं केस पर गया था। तै हुआ कि इसी समय जिले चला जाय और वहाँ से सार्टिफ़िकेट हासिल किया जाय। देर करना ठीक न था।

कस्बे के बाज़ार में मियाँ ने आधा सेर मिठाई ख़रीदकर डोली में भिजवायी और कहलवाया कि मियाँ ने कहा है, इसे खाकर पानी पी लो। तुमने बड़ी शाबाशी का काम किया है। मियाँ बहुत ख़ुश हैं।

डोली से ख़ाली दोना नीचे गिरा, तो एक आश्चर्य का धक्का फिर लोगों को लगा। डोली के अन्दर से कैलसिया ने कहलवाया-सरकार से कह दो, मुझपर भरोसा रखें। मैंने उनकी सब बातें सुनी हैं। उनकी इज्जत पर मैं जरब न आने दूँगी।

कहारों को पैसा मिला-जाओ, दारू पी लो और रास्ते के लिए सीधा बाँध लो। लम्बी मंज़िल है, रातो-रात लौटना भी है।

जतन और एक नौजवान को छोड़ सभी चमारों को वापस कर दिया गया। मसजिद में जाकर मियाँ नवाज़ पढ़ आये।

कहारों ने अबकी डोली उठायी, तो उनकी आँखें ऊपर उठी हुई थीं। और आगे बढ़े, तो उनके मुँह से आह-ऊह निकलने लगी और फिर एक ने बोली निकाली-बायाँ कन्धा दम लगा!

और बायाँ कन्धा बोला-हयँ! हयँ!

दाहिना बोला-होंय! होंय!

और फिर हयँ-हयँ और होंय-होंय की रागिनी छिड़ गयी। और इस रागिनी के बीच कैलसिया गीत की कडिय़ों का विषय बन गयी :

-हयँ-हयँ!

-होंय-होंय!

-घूँघट सरका!

-होंय-होंय!

-सूरज चमका!

-होंय-होंय!

-जियरा डोला!

-होंय-होंय!

-हियरा बोला!

-होंय-होंय!

-बिजली-बाना!

-होंय-होंय!

-तीर-कमाना!

-होंय-होंय!

-झुका जमाना!

-होंय-होंय!

-वाह जनाना!

-होंय-होंय! ...

कड़ियाँ महुए के फूलों की तरह टप-टप कहारों के मँुह से टपक रही थीं। घोड़ा पीछे-पीछे दुलकी चाल से ताल देता चला जा रहा था और मियाँ की रह-रह मुस्की छूट रही थी। उनका शायराना दिल झूम-झूम उठता था। उनके पीछे-पीछे बेचारे चमार लपके हुए चल रहे थे, उनको सिर्फ़ इसी बात की चिन्ता थी कि कहीं वे पीछे न रह जायँ। ...

पास के गाँव में मन्ने और मुन्नी अब्बा के दोस्त बाबू साहब के यहाँ चने का होलहा खाने गये थे। बाबू साहब उन्हें गाँव के बाहर ताल के किनारे खेत में ले गये थे। तर खेत में इस समय भी हरे-हरे पौधे मोतियों से दामन भरे झुके-झुके खड़े थे। बाबू साहब ने अपने हाथ से पोढ़े दानेवाले पौधे उखाड़े और मेंड़ पर ही ईख के पुआल में आग लगा होलहा फूँका था। फिर अँजूरी में उठा-उठाकर हवा में ओसाया था। फिर वहीं चुन-चुनकर खाने बैठ गये थे। तभी बाबू साहब ने यह कहानी सुनाई थी। कैलसिया की वारदात की ख़बर पा वे गाँव में आये थे, लेकिन उसके पहले ही मियाँ थाने चले गये थे। बाबू साहब थाने पर पहुँचे, तो मालूम हुआ, वे वापस चले गये। वापसी में बाज़ार में पता चला कि मियाँ ज़िले पर गये हैं। और वे भी ज़िले को रवाना हो गये। रातो-रात वे उन्हें अस्पताल में जा मिले, तो मियाँ ने सब-कुछ उन्हें सुनाया।

बाबू साहब बोले-अब मुक़द्दमा चल रहा है। सब बनिये एक ओर और मियाँ अकेले! मुसलमान भी उनका साथ नहीं दे रहे। कह रहे हैं, उन्हें क्या पड़ी थी एक चमार की लडक़ी के लिए यह तरद्दुद करने की? अब वे जानें और उनका काम जाने। मुक़द्दमा पैसे का खेल है। बनियों के पास पैसा-ही-पैसा है। उन्होंने इस मुक़द्दमे को एक धार्मिक लड़ाई का रूप दे दिया है। सब मिलकर लड़ रहे हैं। हाईकोर्ट तक लड़ेंगे। चमारों के पास कुछ है नहीं, लेकिन मियाँ को कोई चिन्ता नहीं। वे आन पर जान देने वाले हैं। देखें, क्या होता है।

मन्ने और मुन्नी लौटे, तो उनके मन उत्सुकता से भरे हुए थे। वे कैलसिया को देखना चाहते थे। जाने क्यों, उसके प्रति उनके मन में सहानुभूति और श्रद्धा भरी हुई थी।

मन्ने ने कहा-चलो, चमरटोलिया की ओर से होकर चलें।

मुन्नी ने कहा-नहीं, यह ठीक नहीं। गाँव में है तो कभी-न-कभी वह दिखाई पड़ ही जायगी।

-गाँव में वह निकलती होगी?-मन्ने ने सवाल किया।

-क्या कहते हो?-मुन्नी बोला-जो थाना-कचहरी देख आयी, वह गाँव में डरेगी? मैं तो जानूँ, वह शेरनी की तरह गाँव की गलियों से गुज़रती होगी। औरत जिस रास्ते पर एक बार पाँव रख देती है, उससे मुडऩा नहीं जानती, उस पर ठिठकना नहीं जानती, अन्त तक पहुँचकर दम लेती है।

दोनों फिर चुप-चुप चलने लगे। गाँव में घुसे, तो उन्होंने लक्ष्य किया कि लोग उन्हें अजीब-अजीब नज़रों में देख रहे हैं। वे चौकन्ने थे, इसलिए इन नज़रों को पहचानने से न रहे।

दस-बारह दिन बाद एक दिन दो बजे के क़रीब बिलरा मन्ने को बुलाने आया। उस समय मन्ने और मुन्नी पोखरेवाले एकान्त खण्ड में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। छुट्टियों में वे खाने और सोने ही अपने-अपने घर जाते, वर्ना सदा एक साथ, गाँव से अलग-थलग, एकान्त खण्ड में या बाग़ में पड़े-पड़े किसी विषय पर बहस करते या कुछ पढ़ते-लिखते। शाम को तालाब के किनारे घण्टों टहलते। वे दीन-दुनियाँ से बेख़बर अपने में डूबे रहते। मुन्नी के बाबूजी अब उसे कुछ न कहते। लडक़ा बड़ा हो गया था और उनसे कहीं अधिक पढ़-लिख गया था। अब उससे उलझने में उन्हें डर लगता। ...कई बार आर्य समाज के जलसे में बड़े-बड़े उपदेशकों को वह सरे-आम ललकार चुका था। मन्ने दूर से ही खड़े होकर सब सुनता था और उसकी छाती गज़-भर की हो जाती थी। इस-सबसे गाँव के सीधे-सादे, अपढ़ लोगों पर मुन्नी की धाक जम गयी थी और कोई भी उससे उलझने की हिम्मत न करता था।

उस धार्मिक समाज के प्रति मुन्नी में एक विद्रोह भर उठा था, जिसका मन्त्री कैलास था, और कैलास का सबसे बड़ा गुण यह था कि उसका बाप धनी था। आर्य नवयुवक सभा की वाद-विवाद-प्रतियोगिता में वह हर साल हिस्सा लेता था और हमेशा कैलास के विरोध में बोलता था और उसे पछाड़े बिना न छोड़ता था। आम जलसे में कैलास की बोलने की हिम्मत न थी, लेकिन मुन्नी ज़रूर उठकर बोलने को समय माँगता था। वह तो मन्ने से यह कहकर ही जाता था कि बिना बोले मैं रहूँगा नहीं। तुम दूर से खड़े होकर सुनना।

एक बार एक भारी गलेवाले उपदेशक पूर्व-जन्म के कर्म पर पूरे दो घण्टे बोलते रहे। सभा पर इनके भाषण का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि सब वाह-वाह कर उठे। अन्त में वे बोले-आज आपकी जो अवस्था है, वह-सब आपके पूर्व जन्म के कर्मों का फलाफल है। आप ग़रीब हैं, अन्धे हैं, लूले हैं, लंगड़े हैं अथवा अन्य किसी व्याधि अथवा दुरवस्था से पीडि़त हैं और चाहते हैं कि अगले जन्म में आपको इनसे मुक्ति मिले, तो इस जन्म में आप अच्छे कर्म करें!

मुन्नी के आग ही तो लग गयी। वह बीच सभा में उठ खड़ा हुआ। तालियों की गड़गड़ाहट अभी पूरी न हुई थी कि लोगों की दृष्टि उस पर जा पड़ी। वह चिल्लाकर बोला-सभापतिजी, इस विषय पर बोलने के लिए मुझे पाँच मिनट दें।

उन महोपदेशक ने उसकी ओर वैसे ही देखा, जैसे कोई पहलवान अखाड़े में किसी उछलते-कूदते बच्चे की ओर देखता है। सभापति ने उनकी ओर देखकर आँखों-ही-आँखों में उनकी अनुमति चाही, तो वे बोले-हाँ, हाँ, बोलने दीजिए।

वह बोलना शुरू ही करनेवाला था कि महोपदेशक उठ खड़े हुए और बोले-बालक, तू व्याख्यान क्या देगा? बस, मेरे एक प्रश्न का तू उत्तर दे दे तो हम समझें?

मुन्नी ने दबंगई से कहा-प्रश्न बाद में कीजिएगा, पहले मुझे बोल लेने दीजिए!

लोग अचरज से उसकी ओर देख रहे थे।

महोपदेशक बोले-तू बोलेगा क्या? मेरे प्रश्न का तू उत्तर-भर दे दे, मैं मान लूँगा।

-अच्छा तो पूछिए!-क्षोभ से नथुने फडक़ाता मुन्नी बोला। सभा में सन्नाटा छा गया।

महोपदेशक ने आँखें निकालकर कहा-कोई शिशु अन्धा क्यों पैदा होता है?-और वे अकडक़र बैठ गये।

सभा के दिल की धडक़न एक क्षण को रुक गयी। सभी मुन्नी की ओर देखने लगे। ऐसा विकट प्रश्न! बेचारा लडक़ा क्या जवाब देगा?

मुन्नी ने गम्भीर होकर एक बार चारों ओर देखा। सभापति की बग़ल में कुर्सी पर बैठा मन्त्री कैलास मुस्करा रहा था। मुन्नी ने एक बार दाँत पीसे और फिर बोला-आर्य महोपदेशक महोदय! आपके इस प्रश्न पर मैं वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश डालना चाहता था, लेकिन आपको मेरा बोलना पसन्द नहीं, इसलिए आपके प्रश्न के उत्तर में मैं भी आपसे और इस सभा से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। आप ध्यान से सुनें! किसान खेत में लाखों बीज डालता है। बाद में देखता है कि कुछ बीज सड़ गये हैं, कुछ कमज़ोर पौधे निकले हैं और कुछ बहुत अच्छे निकले हैं। ऐसा क्यों? ...

सभा में ताली की गड़गड़ाहट गूँज उठी। महोपदेशक उठकर कुछ कहना ही चाहते थे कि मुन्नी बोला-मुझे सवाल पूरा कर लेने दीजिए, क्या ऐसा इसलिए होता है कि कुछ बीजों के पूर्व जन्म के कर्म बुरे थे और कुछ के मद्धिम और कुछ के अच्छे?

सभा में हल्ला मच गया। गँवारों के ज़ेहन में भी बात सीधे उतर गयी। लगातार कई मिनट तक तालियाँ पिटती रहीं। मुन्नी ने हाथ जोडक़र महोपदेशक को सिर झुकाया और बोला-लोगों को बुद्धू बनाकर आप अपनी फ़ीस और भत्ता सीधा करें, प्रणाम!-और मंच से कूदकर अँधेरे में ग़ायब हो गया।

दूर अँधेरे में मन्ने खड़ा उसका इन्तज़ार कर रहा था। दोनों लिपटकर इतना हँसे कि उनके पेट में बल पड़ गये।

सो, मुन्नी को टोकनेवाला गाँव में कोई न था। गाँव ने मौन रूप से उसका धर्म-विद्रोह, अर्थात मुसलमान लडक़े से उसकी मित्रता और उसके साथ रहना-सहना स्वीकार कर लिया था।

ठीक यही हाल मन्ने का भी उसके समाज में था। और अब वे दोनों निर्भय ही नहीं, दबंग होकर एक साथ रहते थे।

मन्ने ने कहा-तुम भी चलोगे?

मुन्नी ने कहा-नहीं, लेकिन तुम जल्दी लौटना।

बिलरा के साथ चलते हुए मन्ने ने कहा-अभी आ जाऊँगा। तुम यहीं ठहरो।

अब्बा पलंग पर सामने पानदान रखे बैठे थे। कमरे के अन्दर के दरवाज़े पर बोरा बिछाकर एक लडक़ी बैठी थी। उसके चेहरे पर एक ऐसी चमक थी, जो अन्तर की शक्ति, साहस और निर्भयता का पता देती है। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से मर्दानगी टपकती थी। वह साफ़, धुले हुए कपड़े पहने थी। उसकी साड़ी की किनारी चौड़ी और चटक रंगों की थी। उसके बाल अच्छी तरह सँवारे हुए थे और बाल के ज़रा ही नीचे बायीं भौंह के ऊपर एक आध इंच का कटने का निशान था।

उस लडक़ी ने उठकर मन्ने को सलाम किया, तो सहसा मन्ने से कोई जवाब देते न बना। वह ठमककर उसकी ओर देखता रह गया।

अब्बा ने कहा-इसका जवाब दो! यह कैलसिया है।

यह कैलसिया है! मन्ने की समझ में न आया कि वह उसे क्या जवाब दे। बौखलाहट में उसने दाहिना हाथ माथे के पास ले जाकर कह दिया-सलाम!

-तुम्हारे स्कूल से एक कार्ड आया है! तुम्हारा नतीजा है!-कहकर उन्होंने सिरहाने लिपटे बिस्तरे के नीचे से एक कार्ड निकालकर उसे थमा दिया।

अस्थिर होकर, बड़ी उत्सुकता से मन्ने ने कार्ड लेकर देखा और ख़ुश होकर बोला-अब्बा, मैं पास हो गया!

-तब तो, मियाँजी, मिठाई खिलाइए!-चहककर कैलसिया ने कहा।

-अभी लो!-मन्ने के अब्बा ने बाहर खड़े आदमी को पुकारा।

-अभी हलवाई के यहाँ से उसी के बत्र्तन में एक सेर मिठाई लाओ।

-अजी, मैंने तो योंही...

-योंही क्या,-मन्ने के अब्बा ने कैलसिया की बात काटकर कहा-तुमने बिल्कुल ठीक बात कही है!

-अब्बा, मैं मुन्नी को भी बुला लाऊँ?-मन्ने ने हर्ष-विह्वल स्वर में कहा।

-हाँ-हाँ, ज़रूर!

मन्ने दौड़ता हुआ पोखरे के खण्ड पर पहुँचा और कार्ड मुन्नी के हाथ में थमाता हुआ बोला-नतीजा आया है! देखो! ...और चलो, अब्बा ने मिठाई मँगायी है। उन्होंने तुम्हें बुलाया है।

देखकर मुन्नी ख़ुश होकर बोला-तुम्हारी पोज़ीशन तो बहुत अच्छी आयी है। पता नहीं, मेरा क्या हुआ। मेरा कार्ड भी घर पर आया होगा। तुम चलो, मैं अपना कार्ड देखकर आता हूँ।

-अभी डाक थोड़ी बँटी होगी! अब्बा तो आदमी भेजकर रोज़ अपनी डाक मँगाते हैं। चलो डाकख़ाने, वहीं तुम्हारा कार्ड होगा।-मन्ने ने कहा।

दोनों डाकख़ाने पहुँचे, तो वहाँ कैलास भी अपना कार्ड लिये खड़ा था।

मुन्नी ने चौकी पर कागज़ फैलाये बैठे हुए मुंशी से उत्सुकता-भरे स्वर में कहा-मेरा कार्ड दीजिए!

मुंशी ने उत्सुकता का मज़ा लेते हुए कहा-पहले मिठाई खिलाओ, फिर कार्ड लो!

-अरे लाइए, मुंशीजी!-मुन्नी उसकी क़लम पकड़ते हुए बोला-मिठाई तो आप कैलास से खाइए!

-वो तो खिलायँगें ही, गोकि उन्हें तरक्क़ी ही मिली है। लेकिन तुमने तो बाज़ी मारी है। तुम पर हमारा हक़ पहले पहुँचता है!-हँसते हुए मुंशी ने कहा।

-दीजिए भी!-मुन्नी की उत्सुकता आकुलता से भर उठी-क्यों परेशान करते हैं!

-तो वादा ही करो,-मुंशी ने क़लम खींचते हुए कहा।

-हाँ, भाई,-कैलास बोला-तुम्हें तो गाँव-भर को मिठाई खिलानी चाहिए!

-तुम्हारे जैसा धन्ना सेठ का बेटा मैं होता, तो ज़रूर गाँव-भर को खिलाता!

-मुन्नी ताव खाकर बोला-ख़ैर, मुंशीजी, मैं आपको मिठाई ज़रूर खिलाऊँगा! लाइए अब!

-तो वादा पक्का रहा न?

-मैं झुठ नहीं बोलता, लाइए!

मुंशी ने बस्ते के नीचे से चिठ्ठियाँ निकालीं और उनमें से ढूँढक़र मुन्नी का कार्ड बढ़ाया।

लपककर मुन्नी ने कार्ड लिया, तो दूर खड़ा मन्ने भी उसके पास आ गया। दोनों देखते ही उछल पड़े। कैलास ओंठ दाँतों-तले दबाये उन्हें देख रहा था।

-हो न अव्वल? मुबारक! मेरी मिठाई न भूलना!-मुंशी बोला।

लेकिन उन दोनों का अब वहाँ ठहरना मुश्किल हो रहा था। बिना कोई जवाब दिये मुन्नी वहाँ से भाग खड़ा हुआ और उसके पीछे-पीछे मन्ने भी। रास्ते में दोनों ने अपने कार्डों का मिलान किया।

-गणित में तुम्हें कम नम्बर मिले हैं,-मुन्नी ने कहा।

-हाँ, गणित में मैं मुसलमान हूँ। अरिथमेटिक में मेरा बस नहीं चलता। ख़ैरियत कहो कि ज्योमेट्री बचा लेती है।-मन्ने बोला।

-पहले तो ऐसा नहीं था? बात यह है कि तुम अपना बहुत-सा समय साहित्य-अध्ययन में व्यतीत कर देते हो!-और मुन्नी ठहाका मारकर हँसा।

मन्ने पहले तो चौंका, पर फिर वह भी ज़ोर से हँस उठा। सहसा उसे मिडिल स्कूल की एक घटना याद आ गयी। टीचरों की मीटिंग हो रही थी। उनके दर्जे के टीचर ने विद्यार्थियों से कहा था कि आप लोग बाहर मैदान में जाकर पढिय़े। लेकिन लडक़े बाहर जाकर खेलने-कूदने और शोर मचाने लगे। तब मन्ने ने अपने टीचर से शिकायत की-पण्डितजी, विद्यार्थी अपना मूल्यवान समय व्यर्थ व्यतीत कर रहे हैं!-सुनकर टीचर उसका मुँह ताकने लगे। जब क्लास लगी तो मुसलमान होते हुए भी इतनी शुद्ध हिन्दी बोलने के कारण उसकी प्रशंसा करते हुए टीचर ने यह बात सारी क्लास को सुनाई। और तब से लडक़े यही वाक्य बोलकर उसको चिढ़ाने लगे।

-उसका तो चस्का पड़ गया है,-वह बोला-अरिथमेटिक में मन ही नहीं लगता। अब तो मनाता हूँ, कब इससे पिण्ड छूटे। ख़ैर, तुम्हारे अव्वल आने की मुझे बेहद खुशी है!-मन्ने ने कहा-देखा, कैलास कैसे देख रहा था!

-उसका कार्ड तो हमने देखा नहीं,-मुन्नी बोला।

-वो दिखाता ही नहीं,-मन्ने बोला-मुंशीजी तो कह रहे थे, उसे तरक्क़ी मिली है।

-प्राइमरी स्कूल के बड़े पण्डितजी की याद है?

-छोड़ो, यार!

खण्ड में पहुँचे तो बिलरा हाथ में फूल के कटोरे में मिठाई लिये खड़ा था। मुन्नी ने अब्बा को सलाम किया। मन्ने के अब्बा दुआ देकर बोले-बैठिए आप लोग!

उनके पलंग के सामने एक खटिया इसी बीच बिछा दी गयी थी। मुन्नी उस पर बैठने में झिझका, तो मन्ने भी उसका मुँह देखता ठिठका रहा। ज़मींदार के सामने कोई बनिया चारपाई पर न बैठता था। इसके पहले इतने वर्षों के बीच भी कभी मुन्नी उनके पास न आया था। आज भी शायद वह न आता, लेकिन ख़ुशी की रौ में यों ही वह मन्ने के साथ चला आया था। चले आने के बाद ही उसे अनुभव हुआ कि यह उसने क्या किया? दरअसल वह इस बात से डरता था कि कहीं मन्ने के अब्बा ने उसे पीढ़ी पर बैठने के लिए कह दिया, जैसा कि वह बनियों को कहते हैं (छोटी जाति के लोग तो उनके सामने फ़र्श पर ही बैठते हैं) तो क्या होगा, मुन्नी अपने स्वाभिमान की रक्षा उस समय कैसे करेगा? इसी कारण वह उनके पास जान-बूझकर ही कभी न आता था। इसके पहले केवल एक बार वह उनके पास जाने को मजबूर हुआ था। उसे वह घटना आज भी अच्छी तरह याद है, हमेशा याद रहेगी। ...

शाम को तालाब के किनारे मैदान में वे फ़ुटबाल खेल रहे थे। एक बार उसका पैर ख़ाली पड़ गया और वह धड़ाम से गिर पड़ा। उठने के थोड़ी देर बाद ही उसके दाहिने पैर का अँगूठा दर्द करने लगा, लेकिन उसने किसी को कुछ बताया नहीं। घर आकर माई से कहा, तो उसने हल्दी-चूना गर्म करके उस पर कई बार छोपा। लेकिन रात-भर दर्द होता रहा। गर्म-गर्म हल्दी से थोड़ा आराम मिलता, लेकिन ठण्डी होते ही दर्द फिर शुरू हो जाता। सुबह को माई ने कहा-कोई नस इधर-उधर हो गयी है, जाकर किसी से बैठा लाओ।

गाँव में दो ही बैठानेवाले थे। एक गर्जन मेहतर और दूसरे मन्ने के अब्बा। लोग कहते थे, गर्जन बड़े हरहट्टपन से बैठाता है, दर्द की परवाह नहीं करता। उसके यहाँ जाने की हिम्मत उसकी न पड़ी और मन्ने के अब्बा के यहाँ जाने का साहस तो बहुत कम लोगों में था, क्योंकि वह ज़मींदार थे। लेकिन सुना था कि वह बहुत मुलायमियत से बैठाते हैं, दर्द नहीं होता। उसने सोचा, मन्ने से कहे और उसके साथ ही उसके अब्बा के पास चले। फिर जाने क्या हुआ कि वह अकेले ही चल पड़ा।

सुबह की सफ़ेदी छायी हुई थी, अभी किरण न फूटी थी। पहुँचा, तो खण्ड का दरवाज़ा बन्द था। वह ज़रा दूर ही सहन में खड़े हो दरवाज़ा खुलने का इन्तज़ार करने लगा।

पास की घेराई से उनका चरवाहा हाथ में घड़े लेकर निकला, तो मुन्नी ने पूछा-मियाँ साहब देर से उठते हैं क्या?

-नहीं, बहुत सवेरे उठते हैं। इबादत कर रहे होंगे। तुम्हें का काम है?

पैर का अँगूठा दिखाता हुआ वह बोला-बैठवाना है।

उसने ज़रा अचरज से उसकी ओर देखा, फिर शायद तुरन्त ही उसे ख़याल आ गया कि वह मन्ने बाबू का दोस्त है, तब बोला-थोड़ी देर रुक जाओ, अभी दरवज्जा खोलकर वे टहलने निकलेंगे।

वह खड़ा-खड़ा मन-ही-मन घबराता रहा कि जाने क्या हो। दरवाज़ा खुला तो वह सचमुच बहुत घबरा गया, मुँह से बकार ही न फूटा, आँखें संकोच से ज़मीन में गड़ गयीं।

उन्होंने ही कहा-आदाब अर्ज़ है! कहिए, आज सूरज पच्छिम में निकलेगा क्या?

वह तो हक्का-बक्का हो उठा। सिर उठाकर देखना भी मुश्किल।

-अरे वाह! यह क्या बात है? आइए अन्दर!-उन्होंने हँसते हुए कहा, लेकिन वह टस-से-मस न हुआ। वैसे ही धरती को घूरता रहा।

आप इतना शर्माते हैं, मुझे मालूम न था। ख़ैर, आप हमारे यहाँ आये, मुझे बेहद ख़ुशी हुई। अब फ़रमाइए, मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?

लडख़ड़ाते स्वर में उसने कहा-मेरे पाँव का अँगूठा....

-ओह, तो यह बात है?-उन्होंने व्यस्त होकर कहा-बैठिए, बैठ जाइए!

वह पैर आगे करके वहीं बैठ गया। उन्होंने बैठकर अँगूठे को अपने हाथ की एक अँगुली से धीरे-धीरे दबा-दबाकर देखते हुए कहा-कोई ख़ास बात नहीं है। आप ज़रा अच्छी तरह बैठ तो जाइए।

वह पाँव आगे फैलाकर चूतड़ पर बैठ गया।

-मेरी ओर देखिए,-अँगूठा पकडक़र उन्होंने कहा।

उसने सकुचाई और शर्माई हुई आँखें उठायीं, तो वे मुस्कराते हुए बोले-आप यहाँ आये, इसके लिए मैं आपका क़तई शुक्रगुज़ार नहीं...

वह बेबूझ की तरह देखता रहा। उसे इसका भी खयाल न रहा कि उनकी अँगुलियाँ उसके पैर के अँगूठे के साथ कौन-सा खेल खेल रही हैं।

वे कहते गये-आपके पास दस अँगुलियाँ हैं, लेकिन मैं शुक्रगुजार सिर्फ एक अँगुली का हूँ, इस अँगूठे का, जिसकी वजह से आप हमारे यहाँ आये, बाक़ी नौ का नहीं...

और जैसे मुन्नी की जान ही निकल गयी...अँगूठे में कहीं चट-से कुछ बोल उठा और ज़ोर से अँगूठा पकड़े वह चिल्ला उठे-बिलरा! बिलरा!

हाथों में कुहनी तक सानी लगाये उनका चरवाहा घेराई से भागा-भागा आया, तो वे चिल्लाते हुए बोले-अन्दर से कोई कपड़ा लाओ!

वह ज़रा देर में अन्दर से बाहर आकर बोला-सरकार, कोई कपड़ा नहीं है।

-अजब नामाकूल आदमी है!-उसी स्थिति में अँगूठा पकड़े ही वे चिल्लाये-अन्दर कोई कपड़ा ही नहीं दिखता तुझे?

-एक लुंगी टँगी है...

-ला, ला, वही ला! ...मेरे पास एक समझदार आदमी होना चाहिए! ये उजबक...

बिलरा बाँह पर लुंगी लटकाये हुए आ खड़ा हुआ, तो वे बोले-अबे, खड़ा-खड़ा मुँह क्या ताकता है? फाडक़े एक चौड़ी पट्टी दे मुझे!

-यह नयी लुंगी...

-अबे, फाड़ता है जल्दी कि...

चर्र से लुंगी फटने की आवाज़ आयी।

पट्टी बाँधकर वे बोले-ज़रा देर हो ही गयी। क्या बताऊँ, मुझे भी पहले ख़याल न आया कि पट्टी की ज़रूरत पड़ेगी। आपको अपने पास पाकर मैं भी जैसे अपना आपा खो बैठा! खैर, देखिए, क्या होता है। कल भी आप सुबह आइएगा, एक बार और देख लूँगा। आइएगा न?

उसने सिर हिलाया।

-मन्ने मियाँ के क्या हाल-चाल हैं?

बाप बेटे के बारे में किसी से कुछ पूछे? उसने कुछ न कहा।

-अरे, एक बात तो मुँह से निकालिए!

-मन्ने की कलाई टूटी थी, तो आपने ही क्यों न बैठा दी? मऊ क्यों ले गये थे?-वह किसी तरह बोला।

वे हँसने लगे। बोले-आपको नहीं मालूम, उसकी एक हड्डी टूट गयी थी। मुझे डर था कि कहीं मैं अच्छी तरह न जोड़ सका, तो...समझे न? आपका तो ज़रा-सा...

-अब मैं जा रहा हूँ।

-बैठिएगा नहीं?

उसने सिर हिलाया।

-तो जरा रुकिए,-वे अन्दर गये और मुठ्ठी में कुछ लेकर बाहर आये।

लेकिन वह रुका नहीं, भाग खड़ा हुआ और वे चिल्लाते रहे-अरे सुनिए! ...सुनिए! ...

-अरे, बैठते क्यों नहीं?-अब्बा बोले-कि आज भी भागने का इरादा है?-और वे ज़ोर से हँसकर बोले-इनकी एक बार की एक बात सुनाएँ?

मुन्नी पानी-पानी होकर बोला-सुनाएँगे तो सच ही भाग जाऊँगा!

-तो फिर बैठिए!

मन्ने ने उसका हाथ पकडक़र खटिया पर बैठा दिया, तो अब्बा बोले-लाओ, भाई, मिठाई मुन्नी साहब को दे दो, यही अपने हाथ से बाँटकर सबको खिलाएँगे। चलिए, सबसे पहले आप कैलसिया को दीजिए।

कैलसिया! मुन्नी की नजर अभी उस पर पड़ी ही न थी। उसने चकित होकर आँखें उठायीं, तो सुनाई पड़ी एक रुपहली आवाज़-इन लोगन की जोड़ी देखकर मेरी आँखें जुड़ा जाती हैं!

मुन्नी ने उसकी ओर देखा, तो उसकी आँखें झपक गयीं। पहले ही परिचय, पहली ही दृष्टि में वह उसका प्रशंसक बन गया। जैसी उसने कल्पना की थी, वही साकार रूप। कैलसिया सुन्दर है, कैलसिया साहसी है और अब यह भी मालूम हुआ कि वह मधुर भी है।

-लेकिन इसी गाँव में कितने आदमी हैं,-बिलरा बोला-जो इनका साथ फूटी आँखों नहीं देख पाते। जाने कैसी-कैसी कुचराई करते रहते हैं...

-अरे, उसकी परवाह न करो, भइया!-कैलसिया बोली-अब मुझी को लेकर कैसी-कैसी बातों का ढोल नहीं पीटा जाता...

-कैसी बातों का?-मुस्कराते हुए अब्बा ने कहा-ज़रा मैं भी तो सुनूँ?

-आप का नहीं जानते?-शर्माकर आँखें झुकाती वह बोली-आपको भी जैसे यह-सब सुनकर बड़ा मजा आता है!

-वाह! मजे की बात में मज़ा क्यों न आये? ज़रा बता तो, लोग क्या कहते हैं? तू तो जानती ही है, मुझसे कोई कुछ नहीं कहता।

-किसकी हिम्मत है जो आपसे कोई कुछ कहेगा? जबान न खींच लेंगे आप!

-किसी की ज़बान मैं क्या खींच लूँगा? ...फिर किसी की ज़बान खींच लेने से ही क्या कोई बात रोकी जा सकती है? सच, बता न, मैं भी सुनना चाहता हूँ!

-दुत!-उसने आँखें मटकाकर कहा।

-दुत क्या? जो बात गाँव के सैकड़ों लोग कहते हैं, उसे कहने में दुत क्या?

-पाप लगेगा!

-नहीं, तुझे पाप नहीं लगेगा, बल्कि मन में कुछ होगा, तो कहने से वह भी निकल जायगा।

-का कहते हैं!

-तो कह ही डाल!

-इन लोगन के सामने आप मुझसे का कहलवाना चाहते हैं?

-ये क्या अब बच्चे रह गये हैं? इनसे अब कुछ छुपाकर भी क्या छुपाया जा सकता है? फिर छुपाया ही क्यों जाय? क्यों न इन्हें यह सब जानने-समझने का मौका दिया जाय। इन्सानी फ़ितरत जब तक ये नहीं जानेंगे, क्या करेंगे? फिर मन्ने साहब को तो एक अदीब बनना है। इनके लिए तो यह-सब जानना बहुत ज़रूरी है। और फिर इन्हें भी इसी गाँव में रहना-सहना है। इन्हें गाँव की फ़ितरत जाननी ही चाहिए। वर्ना बाद में इन्हें बड़ा दुख उठाना पड़ेगा। ...तू बता, कैलसिया, इनके सामने ही बता! मुझे इसमें कोई ऐब नहीं दिखाई देता। अकेले में तो शायद यह-सब तुझसे मैं पूछ भी न सकूँ! ...बोल!

कैलसिया अँगुलियाँ एक-दूसरे में उलझाने लगी। कसमसाकर उसने कई साँसें लीं। फिर भी बोल न फूटा।

-वाह! कचहरी में तो तेरी ज़बान कैंची की तरह चलती है और यहाँ ऐसा जता रही है, जैसे मुँह में ज़बान ही नहीं!

-यह बात ही ऐसी है, मियाँ। आप नहीं मानते तो मैं का कहूँ।

कैलसिया हैरान थी कि मियाँ को यह क्या हो गया है? क्यों बच्चों की तरह जि़द कर रहे हैं? उन्हें गाँव की ऐसी कौन-सी बात है, जो न मालूम हो? फिर उसी के मुँह से ये क्यों सब सुनना चाहते हैं, वह भी इन लोगों के सामने? मियाँ के मन में क्या है? गाँव की वह नीच जाति की लडक़ी है, गँवार लड़कियों से भी गँवार। एक बात कहने-समझने की लियाक़त भी उसमें नहीं। थाने में, कचहरी में वह कैसे क्या बोल आयी, वह-सब वह ख़ुद समझने बैठे, तो न समझ पाये। मियाँ के साथ, सामने वह खड़ी होती है, तो न जाने कौन-सी शक्ति उसमें कहाँ से आ जाती है, जाने कैसे सरस्वती उसकी जिह्वा पर आ विराजती हैं और वह फर-फर बोलने लगती है। लोग हैरान हो-होकर उसका मुँह निहारते हैं। आज गाँव में, जवार में, जि़ले में कौन नहीं जानता? वह एक कलंकित लडक़ी है। कलंक का दाग़ लग जाने पर आँख उठाना भी कठिन हो जाता है। उस दिन गाँव की लडक़ी होकर भी जो घूँघट उसके मुँह पर गिरा था, वह फिर कभी उठेगा, ऐसा वह सोच भी न सकती थी। लेकिन उसके बाद इन्हीं मियाँ के कारण जाने वह लोक-लाज, वह भय कहाँ चला गया? थाने पर पालकी से वह उतरी, तो क्या वह वही कलंकित कैलसिया थी? कैसे फर-फर वह सारा बयान लिखा गयी। कैसे बाज़ार में आध सेर मिठाई डोली में बैठी-बैठी अकेले खा गयी, पास ही माई थी, बापू थे, जाने कितने अपनी बिरादरी के लोग थे, किसी का मुँह भी न छूआ। अस्पताल में कैसी बेझिझक होकर उसने मुआयना करवाया। डोली में बैठते ही और यह जानकर कि मियाँ घोड़े पर उसके पीछे-पीछे आ रहे हैं, कैसा एक नशा-सा उसके दिल-दिमाग पर छा गया था। इतने बड़े मियाँ ने उस चमार की लडक़ी के लिए, जिसके माथे पर कलंक का टीका लग गया था, जिसके लिए आँख उठाना भी कठिन था, जो गाँव की नज़रों में हमेशा के लिए गिर गयी थी, पालकी मँगवायी, उसके पीछे-पीछे दौड़े...ओह, क्या यह सब कभी कोई सपने में भी सोच सकता था। ...नशा न चढ़े तो क्या हो? टिटिहरी को आसमान के बराबर घोंसला मिल गया हो जैसे! रात के समय जब पालकी गाँव में पहुँची, तो कौन उसके मन में बैठा कह रहा था कि मियाँ उसे अपने घर में ही उतारेंगे? लेकिन जब वह डोली पर से उतरी तो देखा, यह तो उसी का माटी का घिरौंदा है। उसके जी में आया कि पलटकर फिर तुरन्त पालकी में बैठ जाय और कहारों से कहे कि उसे मियाँ के पास पहुँचा दो, किसकी हिम्मत है जो उसकी बात टाल जाय! लेकिन उसी क्षण उसने पाया कि मियाँ का घोड़ा वहाँ कहीं नहीं है और उसका नशा अचानक टूट गया और वह कटे पेड़ की तरह माई की अँकवारी में गिर पड़ी।

रात-भर उसे लगा कि वह अजनबी घर में है, आस-पास के लोगों से उसका कोई नाता नहीं, ताड़ की चटाई पर लाकर यह किसने उसे पटक दिया? कितने ही औरत-मर्द उसे घेरे रहे। उसकी महीन साड़ी छू-छूकर देखते रहे। बार-बार कहते रहे, कैसा भाग्य है इसका, मियाँ ने इसका हाथ थाम लिया! ...यह कैसी चमक आ गयी है इसके चेहरे पर! ...यह तो पहचानी ही नहीं जाती! ...कितनी सुन्दर दिखाई देती है! ...जैसे उसके कलंक की बात सब भुला बैठे हों, जब वह खून से लथपथ घूँघट काढ़े...लेकिन अब वही उस बात को क्यों याद करे? ...

सुबह हुई तो सचमुच उसे अपना वह घर काटने लगा। और सचमुच वह निकल पड़ी। माई ने पूछा-कहाँ?

उसने कैसे कह दिया-मियाँ के यहाँ!

और वह शेरनी की तरह उसी तेलियाने से निकली, आँखे फाड़े सामने देखते, बेग़म चाल से। ऐसा लगता था कि धरती स्वयं उठ-उठकर उसके पाँवों की मनुहार कर रही है, लेकिन वह है कि अपने पाँवों से धरती को ठोकर मारती जा रही है! उसकी वह नयी, बारीक धोती...आज लोगों की नजरें उसी पर फिसलती रहीं।

कैलसिया के जी में आया कि वह चिल्लाकर कहे, मियाँ तुम्हीं ने कैलसिया को ऐसा बना दिया! लेकिन उसने ऐसा कहा नहीं। इतने दिनों में ही मियाँ को वह जान गयी है। किसी की किसी भी बात का जबाव दिये बिना वे नहीं रहते। न कोई लिहाज, न शर्म; न झिझक, न डर। और ज़बान क्या है, जैसे पहाड़ी नदी! लोग कानों से नहीं सुनते, आँखों से उनका मुँह ताकते है। ऐसा आईने की तरह साफ और शीशम की तरह सीधा और पहाड़ की तरह अडिग और शेर की तरह बेगम और आसमान की तरह बड़ा व्यक्तित्व...एक चमार की लडक़ी के साथ चलते हुए...संसार के आठों आश्चर्य क़दम-क़दम पर झुककर जैसे सलाम बजाते हैं। किसकी हिम्मत है कि उनके सामने मुँह खोले...और उस दिन...

मियाँ जि़ले से रात को लौटे थे। सुबह वह आयी, तो उन्होंने सिरहाने के लिपटे बिस्तर के नीचे से निकालकर दो फल दिये।

चिकने-चिकने, सुन्दर-सुन्दर, गोल-गोल फलों को हाथ में लेकर वह बोली-ये कौन फल हैं?

-सेब,-मियाँ ने कहा-खाकर देखो।

वह एक मुँह के पास ले जाकर काट ही रही थी कि दरवाज़े पर साइकिल टिकाकर एक युवक ने कहा-सलाम!- और अन्दर आ गया और उसे घूर-घूरकर देखने लगा और वह सेब कैलसिया के दाँतों में ऐसे दबा रहा, जैसे छूट ही न रहा हो।

अब क्या था। मियाँ ज़रा मुस्कराये और तपाक से बोल उठे-क्या देख रहे हो, तुम्हारी अम्मा है!

वह तो मारे लाज के अन्दर भाग गयी। जाने उस युवक पर क्या बीती। बस, मियाँ का चित कर देने वाला ठहाका देर तक गूँजता रहा।

वह बेसाख्ता हँस पड़ी। यह प्रसंग जब कभी, जहाँ कहीं उसे याद आता है, वह इसी तरह हँस पड़ती है। इसमें कौन-सा भाव रहता है, वह नहीं जानती, बस मन आप ही हँस पड़ता है, पागल की तरह! और ऐसी बेबात की हँसी सुनकर कौन चकित न हो।

मन्ने, मुन्नी, बिलरा चकित होकर उसकी ओर देखने लगे। उसकी हँसी थमने ही को न आ रही थी। कोई लडक़ी भी भला मर्दों के सामने इस तरह हँसती है? लेकिन नहीं, वह लडक़ी ही है, उसने आँचल उठाकर मुँह ढँक लिया, और उन्होंने देखा कि उसकी पुष्ट छातियाँ उसकी झूली के बटन तोड़े दे रही हैं। और उसी तरह मुँह ढँके ही वह बोल गयी-लोग कहते हैं, मियाँ कैलसिया से फँसे हुए हैं!

-और तुम्हें शर्म लगती है!-मियाँ ने मुस्कराकर कहा।

झट आँचल मुँह से हटाकर वह आँखें फाडक़र बोली-मुझे काहे की सरम? मेरे मुँह पर कोई कहकर तो देखे! उसकी इज्जत न उतार दूँ तो मेरा नाम कैलसिया नहीं।

-बाप रे बाप! तुझसे बात करते तो अब मुझे भी डर लगता है! ना-ना, इसीलिए बुज़ुर्ग लोग कह गये हैं कि...

-छोटे को मुँह नहीं लगाना चाहिए!-कैलसिया ने बात पूरी कर दी और फिर उसी तरह हँस पड़ी।

-नहीं-नहीं-मियाँ बोले-मैं तो कह रहा था कि औरत की आँख से शर्म न जाय!

और चमार की लडक़ी अचानक गम्भीर हो गयी। बोली-सरम तो चली गयी! लेकिन, मियाँ, आप ही ने तो उस दिन कहा था कि कैलसिया, जो चला जाय, उसके लिये दुख न मनाना चाहिए, आगे कुछ न जाय, ऐसी कोसिस करनी चाहिए। ...अपने भगवान् की यह बात मैंने गाँठ से बाँध ली है। अब कुछ भी न जायगा, कुछ भी नहीं! किसी की हिम्मत नहीं जो मुझसे कुछ भी छीन ले सके! अब वह कैलसिया नहीं रही, वह मर गयी! यह नयी कैलसिया जनमी है, जो अपने भगवान के सिवा किसी को नहीं जानती, किसी को नहीं मानती। ...और उसकी आँखे मुँद गयीं।

और मुन्नी और मन्ने को लगा, जैसे वे किसी मन्दिर में बैठे हों।

लेकिन मियाँ बोले-यह मुसलमान का घर है, रे कैलसिया! तू यहाँ भगवान-वगवान का नाम न ले! ...ले, मिठाई खा। कब से बिलरा कटोरा लिये खड़ा है।

और कैलसिया की तन्द्रा टूट गयी। बोली-अरे, मैं तो भूल ही गयी थी! मुन्नी बाबू, दो मिठाई!-और उसने हाथ फैला दिये।

मुन्नी किसी का भी इस तरह हाथ फैलाना बर्दाश्त नहीं कर पाता। बोला-क्या मैं ही एक अछूत हूँ यहाँ?-और हँस पड़ा-रख बिलरा कटोरा पलंग पर, जिसको खाना होगा, आप ही निकालकर खायगा!

-अरे-रे, ऐसा मत कीजिए, साहब !-अब्बा बोले-आप कैलसिया को नहीं जानते, यह सब सफ़ाचट कर जायगी! और कहीं हलवाई को मालूम हो गया, तो कटोरे का दाम भी मुझे चुकाना पड़ेगा! आप जानते नहीं, किसी के हाथ से अपने हाथ में लेकर खाने में भी एक मज़ा आता है।

कैसे हैं यह मन्ने के अब्बा? क्या किसी को भी छोडऩा नहीं जानते? ...गाँव के लोग इनसे आतंकित रहते हैं। गाँव के ये सबसे बड़े जमींदार हैं। जमींदार नाम ही आतंक का है। लेकिन कैसे हैं ये मन्ने के अब्बा? ...कैलसिया एक चमार की लडक़ी है...यह बिलरा उनका चरवाहा है...यह मुन्नी गाँव के एक मामूली बनिये का लडक़ा है...और यह मन्ने है उनका बेटा...भावी ज़मींदार, जिसका आतंक लोगों ने न माना, तो ताश के पत्तों के महल की तरह एक फूँक में सब ढह जायगा। बीस साल की जि़न्दगी इसी गाँव में मुन्नी की भी हुई...एक काम तो मन्ने के अब्बा करते, जिससे उनका आतंक सिद्ध होता। छोटे-छोटे ज़मींदारों, इनके भाई-बन्दों के रोज़-रोज़ कितने-कितने ज़ोर-ज़ुल्म के क़िस्से सुनने में आते हैं, लेकिन आतंक सबसे अधिक इन्हीं का है। इसी आतंक के बल पर इनकी ज़मींदारी चल रही है, रोब माना जाता है। और यह भी जैसे उस आतंक को तोडऩा नहीं चाहते। न किसी से मिलते हैं, न बात करते हैं। नमाज़ और तसबीह...

मुन्नी ने देखा, कैलसिया अब भी हाथ फैलाये हुए थी। बोली-बाबू, यह तो हमारी आदत हो गयी है, मन में बुरा नहीं लगता, न यही समझते हैं कि यह बुरा है...

-बल्कि मन करता है,-मियाँ मुस्कराकर बोले-कि कोई अपने हाथ से दे और हम खायँ! ...मन्ने साहब की अम्मा जब तक जि़न्दा रहीं, मैं हमेशा ऐसा ही करता था। जब कोई चीज़ वे लातीं, मैं हाथ फैला देता था। वह डाँटतीं, यह क्या आदत है तुम्हारी? और मैं कहता, तुम अपने हाथों की मिठास से मुझे महरूम रखना चाहती हो? ...

तभी बाबू साहब आ गये। उनके आते ही समस्या हल हो गयी। मन्ने के अब्बा अपनी बात तोडक़र बोले-लीजिए, पुजारीजी आ गये! इन्हीं के हाथ से आप लोग परसाद लीजिए!

सबने बाबू साहब को सलाम किया।

पलंग पर उनके पास ही बैठते हुए बाबू साहब ने कहा-क्या बात है, मियाँ बहुत ख़ुश नज़र आते हैं?

-कब से आयी मिठाई आपकी राह देख रही है!-मियाँ ने हँसते हुए कहा।

-किसी अच्छे आदमी का मुँह देखकर आज चला था!- बाबू साहब बोले-लेकिन बात क्या है? ऐसे ही मिठाई आयी है, या कोई ख़ास...

-नहीं, ख़ास बात ही है, बल्कि दो बातें हैं!-मियाँ ने कहा।

-अच्छा! तब तो दो बार मिठाई मिलनी चाहिए! बातें भी ज़रा सुन लूँ।

-एक तो यह है कि मन्ने साहब के पास होने की आज ख़बर आयी है...

-मुबारक ! लेकिन यह तो कोई ख़ास बात हुई नहीं, इनको तो पास होना ही था। दूसरी बात सुनाइए!

-दूसरी बात यह है कि कैलसिया ने इनके पास होने की ख़बर सुनकर कहा, मियाँजी, तब तो मिठाई खिलाइए।

-हाँ, यह ज़रूर ख़ास बात है!- कहकर बाबू साहब हँस पड़े। बोले-यह कैलसिया भी एक ही बेवकूफ़ है, ऐसी-वैसी मामूली चीजों के लिए मुँह खोला करती है! यह नहीं होता कि एक ही बार मियाँ से कोई ऐसी चीज़ माँग ले कि जि़न्दगी-भर की छुट्टी हो जाय!-और वे फिर हँसने लगे।

कैलसिया भी आँचल से मुँह ढाँककर हँस पड़ी। मियाँ उसकी ओर देख रहे थे। बोले-बाबू साहब, कोई ग़लत बात नहीं कह रहे...

कि कैलसिया ने आँख झुकाये ही, हाथ उठाकर अँगुली के सामने दीवार की ओर संकेत किया।

सब लोग उसकी ओर देखने लगे। शीशे में मढ़ी एक छोटी-सी तख़्ती टँगी थी। सुन्दर अक्षरों में यह सुभाषित लिखा था :

माँगत-माँगत मान घटे, अरु प्रीत घटे नित के जाये से।

ओछे की संगत बुद्धि घटे, अरु क्रोध घटे मन के समझाये से।।

बाबू साहब हँसकर बोले-तोते की तरह मियाँ ने तुम्हें तो पाठ पढ़ा दिया, लेकिन ख़ुद अपना पाठ भूल गये! इसीलिए लोग कहते हैं, इनकी मति बौरा गयी है!

मियाँ जी हँसने लगे। बोले-अच्छा, आप तो इन लोगों की बातों के चक्कर में आकर मिठाई ख़राब न कीजिए! उठिए, बिलरा कब से मिठाई लिये खड़ा है।

-खड़ा है?- बाबू साहब ने उठते हुए कहा-यह तो मैंने देखा ही नहीं, ला, ला रे, बिलरा !

-देखिएगा, पलंग से छू न जाय!-मियाँ ने हँसते हुए कहा।

-आपकी संगत से और क्या होगा? एक धरम-करम रह गया था, देखते हैं, अब वह भी ख़तरे में है। ...अरे बिलरा, दौडक़र बग़ल के बनिये के यहाँ से लोटा मँजवाकर पानी तो ला।

बाबू साहब! प्रेमी को जब भी बाबू साहब की याद आती है, एक ही शब्द उसके मुँह से निकलता है-फ़रिश्ता! फ़रिश्ता! ...

दरवाज़े पर तभी ठक-ठक की आवाज़ हुई और फिर-प्रेमी! प्रेमी!- की पुकार।

प्रेमी की तन्द्रा टूटी। उसके दिमाग़ ने एक झटका खाया। पुकार आती जा रही थी-प्रेमी! प्रेमी। दरवाज़ा खोलो!

यह पाण्डे है। अनमना-सा उठकर, सिटकनी खिसकाकर दरवाजा खोल दिया।

पाण्डे ने अन्दर आकर कहा-अँधेरे में क्यों पड़े हो?

प्रेमी ने कोई उत्तर न दिया। उसने बिजली का बटन दबा दिया और चारपाई पर जा बैठा। उसका सिर झुका हुआ था।

उसकी बग़ल में बैठकर पाण्डे ने कहा-यार, वह बात सही है। कल पण्डितजी ने मुझे अपने घर पर बुलाया था। कल ही तुमसे बतानेवाला था, लेकिन बता न सका! तुमको यह जानकर कितना दुख होगा, यही सोचता रहा।

प्रेमी ने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा, लेकिन बोला कुछ नहीं। फिर उसी तरह सिर झुका लिया।

-पण्डितजी ने मुझे विषय बता दिया है। मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ। शायद इससे तुम्हारे प्रति होनेवाला अन्याय कुछ कम हो जाय।

-नहीं-नहीं!-प्रेमी ने ज़ोर से सिर हिलाकर कहा-मुझे जानने की कोई जरूरत नहीं। अन्याय इससे कम न होगा, बल्कि उसका भार मेरे सिर पर आ पड़ेगा। मैं यह नहीं सह सकता!

-लेकिन मुझे तो बिना बताये शान्ति नहीं मिलेगी,-पाण्डे ने दुखी स्वर में कहा-मेरे ही लिए तुम सुन लो!

-नहीं, पाण्डे, तुम मुझे मत बताओ!-प्रेमी ने झुँझलाकर कहा-अपनी शान्ति के लिए मेरी शान्ति नष्ट न करो। उस स्थिति में मैं प्रतियोगिता में कभी भी भाग न लूँगा, यह समझ रखो। मुझे पारितोषिक की कोई चिन्ता नहीं। मैं तो योंही बोलना चाहता था। बात यहाँ तक बढ़ जायगी, मैं न जानता था। खैर, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। तुम्हारे-जैसे इंसान पर मुझे गर्व है। तुमने मुझे आज जीत लिया, मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा!

-मुझे बनाओ मत!-पाण्डे ने मर्माहत स्वर में कहा-इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं, बड़ाई तुम्हारी है, जिसे दग़ा दे जाना मेरे लिए असम्भव था। जो तुम्हें नहीं जानता, तुमसे जल सकता है; लेकिन जो तुम्हें जानता है, उसका सिर तुम्हारे सामने झुके बिना नहीं रह सकता। तुम जिस स्थिति में रहते हो, वह कम विकट नहीं है। वास्तव में तुम सच्चे इंसान हो और हैवानों के विरुद्ध अपने आदर्श के लिए संघर्ष कर रहे हो। तुम...

-नहीं-नहीं, यह अन्तर इतना बड़ा नहीं है!-प्रेमी ने उसकी बात काटकर कहा-एक सीढ़ी ऊपर-नीचे हम ज़रूर हैं, लेकिन सीढिय़ों पर रपटन बहुत है। ऊपर चढऩा बहुत कठिन है, नीचे फिसलना बहुत आसान। जिन लोगों ने मेरा हाथ पकडक़र इस सीढ़ी पर ला खड़ा किया, आज उनका सहारा मुझे न रहे, तो पता नहीं, फिर कहाँ जा गिरूँ। अभी मेरी अपनी कोई ताक़त नहीं, लेकिन यह चाह ज़रूर है कि मैं गिरूँ नहीं। तुम्हारे-जैसे लोगों से मुझे सहारा मिलता है। तुमने आज जो काम किया है, उसका महत्व तुम अपने लिए कुछ न समझो, यह हो सकता है, लेकिन इसका महत्व मेरे लिए कितना बड़ा है, यह तुम नहीं जान सकते। फूल बेचारे को क्या मालूम कि उसका सौन्दर्य एक मनुष्य के मन-प्राण के लिए क्या महत्व रखता है। प्रकृत गुण की यही विशेषता है, जो किसी भी संस्कारगत गुण में नहीं पायी जाती। मैं ऐसे ही एक फूल के बारे में सोच रहा था, जब तुमने दरवाजा खटखटाया। कहो तो तुम्हें भी कुछ सुनाऊँ, उसके विषय में?

-तुम ख़ुद भी तो एक फूल से कम नहीं हो, तुम्हें अगर यह मालूम होता कि तुम्हारी हस्ती क्या है, तो तुम यह-सब मुझसे न कहते। तुम्हारी स्थिति में रहकर मेरे लिए तो जीना मुश्किल हो जाता। तुम्हें क्या मालूम नहीं कि मुसलमान तुम्हें काफ़िर कहते हैं, हिन्दू तुम्हें धूर्त मुसलमान कहते हैं और कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो तुम्हें रँगे सियार या चमगादड़ के नाम से याद करते हैं।

-मालूम है, लेकिन उनकी लांछनाओं को मैं कोई महत्व ही नहीं देता, इसलिए उनकी बातों का मुझपर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। आज का वातावरण ही कुछ ऐसा बन गया है कि सर्व-साधारण के लिए उसके ऊपर उठकर कोई बात करना कठिन है। तुम्हारे पण्डितजी ने जिस मनोवृत्ति का परिचय दिया है, हमारे मौलाना भी उससे ऊपर नहीं है। फिर लडक़ों की बात कौन करे! आज अगर लडक़ों को यह बात मालूम हो जाय कि तुमने पण्डितजी की बात मुझे बता दी है, तो वे तुम्हें भी शायद ग़द्दार के नाम से याद करें। इसलिए मेरी और तुम्हारी परिस्थिति में कोई विश़्ोष अन्तर नहीं है। सच पूछो तो हमारे-तुम्हारे-जैसे सभी लोगों की यही स्थिति है। निष्पक्ष आचरण ही आज कटहरे में खड़ा है और साम्प्रदायिक द्वेष का बोलबाला है। इस बाढ़ की प्रबल धारा में कितने बह जाएँगे; कितने रह जाएँगे, कौन जानता है? लेकिन जो रह जाएँगे...

तभी पर्दा उठा और वियोगी की आवाज़ आयी-भई प्रेमी, चलते हो रेस्तराँ?-और पाण्डे पर उसकी निगाह पड़ी तो बोला-आप भी यहीं हैं! वाह, हम लोग तो तुम दोनों को लेकर लड़ रहे थे कि प्रतियोगिता में अव्वल कौन आयगा, और तुम लोग यहाँ चोंच में चोंच डाले बैठे हो? मिली जोड़ छुटेगी क्या?

और वह जोर से हँस पड़ा और उसके साथ ही उसके हाथ की कटोरी का घी छलक उठा।

-देखो, देखो, अपना घी बचाओ!-पाण्डे बोला-सुना गया था कि कल तुमने एक पाव मलाई खायी!-और वह भी जोर से हँस पड़ा।

-मैं जितना भी खाऊँ-पीऊँ, उससे कुछ बनने-बिगड़ने का नहीं! मैं तो आल्सो रैनवालों में हूँ। सुहागिन वो जिसे पिया चाहे! लेकिन, बेटा, इसे मैं कोई मर्दानगी नहीं समझता! प्रेमी की बात ही और है। मैं तो इसकी प्रशंसा करता हूँ।

-भाई वियोगी,-प्रेमी बोला-मुझे तो बख़्शो!

-नहीं, आज मैं आपको छोड़नेवाला नहीं!-वियोगी बोला-भगवान् क़सम, आज मैंने एक ऐसी फडक़ती हुई चीज़ लिखी है कि सुनोगे तो कहोगे! चलो, उठो!

-मैं तो एक शर्त पर चलने को तैयार हूँ,-पाण्डे बोला।

-क्या?-वियोगी ने पूछा।

-अगर तुम अपना घी खिलाओ!

-यह नहीं होने का!-प्रेमी बोला-इसी डर से तो यह मेस में शामिल नहीं होता।

-और तुम किस डर से मेस में शामिल नहीं होते?-वियोगी ने प्रेमी से पूछा।

-गोश्त के!-पाण्डे बोला।

सभी जोर से हँस पड़े।

-तो चलो,-वियोगी ने कहा।

-मेरी शर्त मान लो!-पाण्डे बोला-मैं तो चलने को तैयार हूँ।

-यार, तुम क्यों टाँग अड़ाते हो, मैं तो प्रेमी से कह रहा हूँ।

-अच्छा, तो आज मेरे खिलाफ़ मोर्चा बनाने की तैयारी है!-पाण्डे बोला-जाओ, भाई प्रेमी, इसी बहाने आज तुम्हें इनका घी तो खाने को मिले!-और वह हँस पड़ा।

प्रेमी जानता था, रेस्तराँ में आज किस तरह की बातें होंगी। वह बोला-नहीं, अभी तो मैं नहाया-धोया भी नहीं। तुम चलो, मैं आता हूँ।

वियोगी चला गया तो पाण्डे बोला-बड़ा ही निरीह प्राणी है, बाल बढ़ा रहा है।

-वियोगी है, सुध न रहती होगी!-प्रेमी बोला।

दोनों हँस पड़े।

-इसके वियोगी नाम की भी एक कहानी है, पाण्डे, सुनोगे?

जाने दो! आजकल उपनामों की सभी कहानियाँ एक-सी ही होती हैं। कई सुन चुका हूँ।

-मैं तो इस पर एक लेख लिखने की सोच रहा हूँ।

-ज़रूर लिखो, बड़ा दिलचस्प होगा।

तभी खोजता-खोजता पाण्डे के मेस का नौकर आ बोला-आपकी थाली लग गयी है, लाऊँ?

-हाँ,-कहकर पाण्डे उठा। बोला-तो मैं क्या करूँ? मेरे जी में आता है कि मैं प्रतियोगिता में भाग ही न लूँ।

-नहीं-नहीं, तुम ऐसा हरग़िज न करना! ...फिलहाल तुम जाकर खाना खाओ। फिर बातें होंगी।-पाण्डे के कन्धे को थपथपाते हुए प्रेमी ने उसे बाहर पहुँचा दिया।

मन बहुत खिन्न था। कुछ भी करने को जी नहीं हो रहा था। उसने दरवाज़ा फिर बन्द कर दिया और मेज़ पर जा बैठा। दो दिन पहले आयी बाबू साहब की चिठ्ठी उठा ली और पढऩे लगा। ...बाबू साहब! बाबू साहब! ...

उस समय वह दसवें में पढ़ रहा था। एक शाम अचानक गाँव से बिलरा ज़िले के स्कूल में आया और कहा कि बाबू साहब ने बुलाया है, तुरन्त चलिए।

मन्ने ने पूछा-क्या बात है? ऐसी मेरी क्या ज़रूरत पड़ गयी?

बिलरा सिर झुकाकर बोला-और मुझे कुछ नहीं मालूम। आप तुरन्त चल पडि़ए। आखिरी मोटर छूटने का बखत हो गया है। बाबू साहब ने कहा था, साथ ही लेकर आना, देर बिलकुल न करना।

वह चल पड़ा। मोटर में भी उसने एकाध बार बिलरा से कुछ जानना चाहा, लेकिन वह कुछ न बोला, चुपचाप, उदास, सिर लटकाये बैठा रहा।

क़स्बे में मोटर रुकी तो बाबू साहब खड़े मिले। उन्होंने उसका हाथ पकडक़र नीचे उतारा।

सलाम करने के बाद उसने पूछा-क्या बात है, बाबू साहब? इस तरह आपने मुझे क्यों बुलाया?

सिर झुकाये बाबू साहब ने कहा-घर चलिए-और उन्होंने कदम बढ़ा दिया।

वह पीछे-पीछे चल रहा था। उसकी समझ में कुछ भी न आ रहा था, मन जाने कैसा हो रहा था, जाने क्या बात है। कोई कुछ बताता क्यों नहीं? रास्ते में कई बार उसका मन तड़पा कि बाबू साहब से वह पूछे, लेकिन वह पूछ न सका। बाबू साहब से उसका कोई खास सम्बन्ध न था। छुट्टियों में एकाध बार वह उनके यहाँ हो आता, बाबू साहब ख़ुद जो जी में आता सुना जाते। वह उनसे खुला न था, अपनी ओर से शायद ही कभी कुछ कहता। बाबू साहब भी बिलरा की ही तरह उदास, मौन, सिर लटकाये चल रहे थे।

घर पहुँचते ही सब-कुछ मालूम हो गया। सुबह अचानक अब्बा के दिल की धडक़न बन्द हो गयी थी। सुनकर वह काठ हो गया। एक बूँद आँसू भी उसकी आँख से न निकला। वह इस तरह ख़ामोश होकर बैठ गया, जैसे हमेशा के लिए गूँगा हो गया हो।

तीन-तीन बहनें और बेवा बुआ उससे लिपट-लिपटकर बिलख रही थीं और बिरादरी और मुहल्ले की कितनी औरतें उन्हें समझा रही थीं। लेकिन मन्ने को जैसे कुछ भी दिखाई न पड़ रहा था, कुछ भी सुनाई न पड़ रहा था। वह ख़ामोश था और एक टक शून्य में निर्भाव आँखों से तक रहा था। फिर सहसा उसने दोनों हाथों से मुँह ढाँक लिया।

थोड़ी देर बाद ही पट्टीदार जुब्ली मियाँ ने वहाँ आकर कहा-उठो, चलो, सब तैयारी हो चुकी है। बिरादरी बाहर खड़ी इन्तजार कर रही है। मय्यत सुबह से पड़ी है और अब रात होने को आयी। वक़्त बरबाद करना ठीक नहीं।

उसने अन्दर-ही-अन्दर ताक़त और हिम्मत बटोरने की कोशिश की और उठ खड़ा हुआ।

बाहर भीड़ लगी थी। अँधेरे में कई लालटेनें थोड़े-थोड़े प्रकाश का घेरा बनाये सहन और मसजिद में इधर-उधर दिख रही थीं। मसजिद से लोगों के वज़ू करने, कुल्ले और खँखारने की आवाज़ें आ रही थीं। ओसारे में वह ज़रा देर के लिए ठिठका और एक बार इधर-उधर देखा। बाबू साहब लपककर उसके पास आये और उसके कन्धे पर हाथ रख दिया।

जुब्ली ने कहा-जनाज़े की नमाज़ होने जा रही है! शामिल होना हो तो चलो, जल्दी वज़ू करो।

मन्ने को नमाज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बहुत हुआ तो ईद में वह अब्बा के साथ नमाज़ पढऩे ईदगाह चला जाता था। जुब्ली मियाँ की बात उसने समझी। दूसरा कोई मौक़ा होता तो वह उनसे भी समझता। धर्म के रीति-रिवाजों को लेकर अक्सर हम-उम्रों से उसकी झड़प हो जाती।

अपनी बात कहकर तेजी से जुब्ली मसजिद की ओर चला गया, तो बाबू साहब ने कहा-चलिए, जनाजे की नमाज़ पढि़ए।

उसने बाबू साहब के मुँह की ओर एक बार देखा और धीरे से ओसारे से उतरकर मसजिद की ओर बढ़ा। बाबू साहब साथ-साथ चलते रहे।

मसजिद के दरवाजे पर जनाज़ा रखा था। लालटेन की धँुधली रोशनी उस पर पड़ रही थी। उसके जी में आया कि एक बार पुकारे, अब्बा! लेकिन उसे याद नहीं कि कभी इस प्रकार उसने अब्बा को पुकारा हो। अब्बा उसे कितना प्यार करते थे, लेकिन उससे, उसी से क्या, सबसे कितना अलग-अलग रहते थे, जैसे उनकी दुनियाँ ही सबसे अलग हो। वीरान खण्ड में वे अकेले पड़े रहते, न घर से कोई वास्ता, न दूसरों से। गाँव में किसी के यहाँ जाते-आते भी नहीं।

बाबू साहब का हाथ फिर उसके कन्धे पर आ पड़ा और वह मसजिद में दाख़िल हो गया।

नमाज़ के बाद लोग निकले और जनाज़ा उठा। मन्ने और बाबू साहब एक ओर और जुब्ली और कोई एक अन्य दूसरी ओर।

बड़े दरवाजे पर फिर नमाज हुई और फिर क़ब्रगाह पर।

आख़िरी दीदार के मौक़े पर आख़िर मन्ने की आँखों से आँसू ढुलकने लगे। बाबू साहब का एक हाथ उसके कन्धे पर था और दूसरा अपनी आँखों पर। मन्ने का कलेजा खामोश चीखों से फटा जा रहा था, अब्बा जा रहे हैं! ...अब्बा जा रहे हैं!

लाश क़ब्र को सौंप दी गयी। फिर एक लालटेन लटकायी गयी...देख लो, एक बार और जानेवाले को देख लो! यह आख़िरी बार है, फिर कभी न देख पाओगे? धरती हमेशा के लिए उसे अपनी गोद में छुपा लेगी! ...

मन्ने झुका, तो उसके जी में आया, वह कूदकर अब्बा से जा लिपटे। कितनी बार उसके जी में आता था कि वह अब्बा से लिपट जाय, लेकिन उसे याद नहीं कि कभी वह अपने अब्बा से लिपटा हो। अम्मा की मौत का उसे कुछ भी अच्छी तरह याद नहीं, लेकिन इतना उसे ज़रूर याद है कि अम्मा के जाने के बाद अब्बा बिलकुल ही बदल गये थे। बहनों का भी यही अनुभव था और उसका अपना भी। वे उन्हें बुलाकर कभी प्यार न करते, कभी कोई मीठी बात न करते...क्यों, अब्बा क्यों अचानक इस तरह बदल गये? क्या वे जानते थे कि इतनी ही उम्र में मर जायँगे और अगर उन्होंने हमें प्यार दिया, तो हमें बहुत दुख होगा? अब्बा! अब्बा! अपनों के सम्बन्ध को क्या इस तरह बहलाया जा सकता है? ...अब्बा! अब्बा! क्या यह सच है? या आप खुद प्यार से डरते थे कि आप हमारा प्यार पा लेंगे तो हमसे ज़ुदा होते आपको वैसा ही दु:ख होगा, जैसे अम्मा से ज़ुदा होते? अब्बा! अब्बा! यह कितना अच्छा होता कि तुम हमें प्यार कर लेते, मन भरकर प्यार कर लेते, हम तुम्हें प्यार कर लेते, कोई हसरत न रखते! ...अब्बा! अब्बा? मैं तुम्हारी लाश से ही एक बार क्यों न लिपट लिया? अब्बा! अब्बा! तुमसे हमें क्यों डर लगता था? तुमने यह डर क्यों हमारे दिलों में पैदा किया था? इसका क्या राज़ था, अब्बा?

बाबू साहब के एक हाथ ने उसके कन्धे को खींचा और दूसरे ने उसके हाथ में मिट्टी थमा दी।

क़ब्र पुर गयी।

साईं ने मन्ने के पास आकर कहा-चलिए, बाबू, घर पर भी कुछ, रस्मे पूरी करनी होंगी। बड़ी रात हो गयी।

मन्ने कब्र को ताक रहा था, उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे।

साईं ने एक बार फिर कहा। फिर जुब्ली ने उसका हाथ पकडक़र कहा-चलो, अब यहाँ क्या खड़े हो? बिरादरी इन्तज़ार कर रही है। बहुत देर हो गयी!

मन्ने उसी तरह क़ब्र को ताकता खड़ा रहा।

आखिर बाबू साहब बोले-आप लोग चलिए, मैं इन्हें लेकर आता हूँ।

धीरे-धीरे सब लोग चले गये। क़ब्रगाह में सन्नाटा छा गया। मन्ने उसी प्रकार खड़ा रहा, बाबू साहब उसी प्रकार खड़े रहे।

एक ओर से अपने पाँवों से सूखे पत्तों को चरमराते हुए एक और प्राणी उनके पास आ खड़ा हुआ। बाबू साहब ने उसकी ओर देखा और होंठों में ही कहा-कैलसिया, तू कहाँ थी?

कैलसिया ने कोई जवाब न दिया। उसने आगे बढक़र क़ब्र पर सिर पटक दिया और दोनों हाथ फैलाकर, क़ब्र से लिपटकर, फूट-फूटकर रोने लगी।

मन्ने के जी में कब से आ रहा था कि वह भी ऐसा ही करे, अब्बा की क़ब्र से लिपटकर रोये...इतना रोये...इतना रोये कि...लेकिन वह वैसा न कर सका। और कैलसिया! कैलसिया शायद अब्बा के उसकी अपेक्षा कहीं ज़्यादा नज़दीक थी। ओह! ओह!

कैलसिया बिलख रही थी-मियाँ! मैं तुमको कन्धा भी न दे सकी! मैं तुमको मिट्टी भी न दे सकी! मियाँ, मैं औरत क्यों हुई? मियाँ, मैं चमार क्यों हुई? मियाँ! मियाँ! मियाँ!-और वह अपना सिर बार-बार क़ब्र पर पटकने लगी।

मन्ने मन-ही-मन जैसे चीख़ उठने को हुआ, कैलसिया, तू उन्हें कन्धा न दे सकी, उन्हें मिट्टी न दे सकी, लेकिन तू उनकी क़ब्र से लिपट तो सकती है! और मैं, उनका बेटा? मैंने कन्धा भी दिया है, मिट्टी भी दी, लेकिन मैं उनकी क़ब्र से लिपट नहीं सकता। जाने कहाँ, मन में कैसी एक दहशत बैठी हुई है कि अगर मैंने ऐसा किया, तो जाने अब्बा क्या कर बैठें।

सूखे पत्ते सन्नाटे को खडख़ड़ाते हुए गिर रहे थे। गहन अन्धकार में केवल कुछ आहों, कूछ मूक और कुछ अस्फुट स्वरों का प्रकाश था। इसी प्रकाश में तीन प्राणी चार प्राणियों को देख रहे थे, या कौन जाने, एक प्राणी अपने तीन प्राणियों को, जो उसके जीवन में सबसे अधिक नज़दीक थे, देख रहा था।

मन्ने घर से खण्ड की ओर जब चला, तो रात जाने कितनी बीत चुकी थी।

बाहर सहन में छोटी चौकी पर बाबू साहब लेटे थे। और दरवाजे पर लालटेन रखे कुहनियों में सिर डाले बिलरा ज़मीन पर बैठा था।

आहट पाकर बाबू साहब थके स्वर में बोले-कौन है?

-मैं हूँ,-मन्ने ने कहा।

बिलरा सुनकर चट उठ खड़ा हुआ और एक ओर होकर चूतड़ की धोती झाड़ने लगा।

मन्ने ने कहा-बाबू साहब, आपने कुछ भोजन किया?

-इच्छा नहीं है। आपको आराम करना चाहिए।-बाबू साहब ने जमुहाई लेते हुए कहा।

-नहीं, ऐसे आप कैसे रहेंगे? बिलरा, बाबू साहब के लिए...

-नहीं, नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। आप आराम कीजिए।-बाबू साहब ने हाथ हिलाकर कहा-ऐसे मौक़े पर हम लोगों के यहाँ उपवास करने का रिवाज है। आप और कुछ न सोचिये।

मन्ने से बाबू साहब का यह पहला साबिक़ा था। थोड़ी देर पहले के मन्ने में और इस समय के मन्ने में कितना फ़र्क़ आ गया था! ...मन्ने बाबू अपना कत्र्तव्य समझते हैं, ऐसे में भी उन्हें अपने कत्र्तव्य का ज्ञान है! बाबू साहब कुछ आश्वस्त हुए।

लालटेन उठाकर, भिड़ा दरवाज़ा ठेलकर मन्ने अन्दर घुसा। अब्बा की चारपाई उसी तरह पड़ी थी। सिरहाने लिपटा हुआ बिस्तर वैसे ही पड़ा था। दीवारों पर सुभाषित उसी तरह टँगे थे...वह पैताने खड़ा हुआ हर चीज़ देख रहा था और उसे लग रहा था कि जैसे हर चीज़ आज अब्बा के बदले उसे पाकर हैरत से उसकी ओर देख रही हो और उसे पहचानने की कोशिश कर रही हो। ...उसने आगे बढक़र अन्दर का दरवाज़ा खोलना चाहा, तो पाँव किसी से टकरा गये। उसने चौंककर नीचे देखा, ज़मीन पर कैलसिया पड़ी थी। अब्बा के जूतों पर उसका सिर पड़ा था। वह गहरी नींद में सो रही थी। मन्ने कुछ देर तक उसे देखता रहा, कुछ सोचता रहा। ...मन्ने के अब्बा न रहे, बाबू साहब के दोस्त न रहे, लेकिन इस कैलसिया के वह कौन थे? यह चमार की जवान लडक़ी यहाँ पड़ी है, जैसे किसी से रूठकर ज़मीन पर पड़ी-पड़ी सो गयी हो। आज इसे कोई मनानेवाला नहीं, कोई उठानेवाला नहीं। आज जैसे उसे मालूम हो गया हो कि उसका अधिकार अब्बा की सिर्फ़ एक ही चीज़ पर रह गया है और वह उसे बड़े जतन से किसी मूल्यवान वस्तु की तरह सिर के नीचे दबाये सो रही है कि कहीं नींद में उसकी वह चीज़ कोई खींच न ले। ...उसके जी में आया कि वह कैलमिया को उठाकर चारपाई पर सुला दे और उसे बता दे कि उसके प्रति जो भी उसके कत्र्तव्य होंगे, वह उन्हें निबाहेगा, अब्बा की किसी भी ज़िम्मेदारी को वह छोड़ेगा नहीं। ...लेकिन तभी वह सहम उठा। क्या अब्बा के बराबर उसमें शक्ति और साहस है? ...समझ-बूझ है? ...दुनियाँ और ज़िन्दगी का ज्ञान है? ...उसने अभी देखा ही क्या है? जाना ही क्या है, समझा ही क्या है? ...यह जवान लडक़ी...इसे वह क्या जानता-समझता है?

तभी बिलरा की आवाज़ बाहर से आयी-बाबू, कैलसिया सो गयी है का? उसे उसके घर पहुँचा आऊँ।

और बौखलाकर मन्ने ने कहा-हाँ, सो गयी है। इसे जगाकर पहुँचा आ।

बिलरा अन्दर आया और बिना किसी झिझक के कैलसिया का हाथ पकडक़र उसे उठाने लगा-कैलसिया! कैलसिया! उठ, घर चल! ...अरे, तुझे नींद आ गयी, रे? ...उठ अभागी!-और उसने उसकी बाँह पकडक़र खींची।

कैलसिया कसमसाकर उठ बैठी और चिहाकर देखा।

-चल-चल, घर चल! तुझे कैसे नींद आ गयी, रे?-बिलरा बोला।

और कैलसिया को जैसे फिर कुछ याद आ गया, वह सहसा फूट-फूटकर रोने लगी।

-अरी, उठ री! बाबू कब से खड़े हैं!- बिलरा बोला।

कैलसिया ने आँख उठाकर देखा और उठ खड़ी हुई और एक क्षण ऐसे खड़ी रही, जैसे वह मन्ने से कोई एक बात सुनना चाहती हो और फिर आँचल से आँखें ढँकती दरवाजे से बाहर हो गयी।

वह चली गयी। कमरा जैसे बिलकुल सूना हो गया। मन्ने सोच रहा था और मन-ही-मन कट रहा था। उसने कुछ कहा क्यों नहीं? ...लेकिन वह कहता क्या? ...कुछ भी, एक बात, एक शब्द, कुछ भी। वह चली गयी, चली गयी! अब्बा चले गये, तो वह यहाँ क्यों रहती, कैसे रहती? बिलरा कुछ सोचकर ही तो उसे लिवा ले गया है। अब्बा रहते, तो क्या बिलरा बाहर से उसे घर पहुँचा आने की बात कहता? ...अब्बा से कैलसिया के क्या सम्बन्ध थे? कैलसिया क्या कुछ सोचकर यहाँ, आकर सो गयी थी? ...मन्ने ने अब्बा के जूतों की ओर देखा और सहसा उसे लगा, जैसे यह राम की खड़ाऊँ हो...अभी इस पर कैलसिया का सिर पड़ा था। उसने बड़े सम्मान से उन जूतों को उठाकर देखा और कमरे के कोने में पड़े पानदान और फ़र्शी के पास उन्हें रख दिया।

फिर चारपाई की ओर पलटा। लेकिन उस पर बैठने की उसे हिम्मत नहीं हुई। उसने चारपाई को, उसके सिरहाने बड़े सलीके से लपेटकर रखे बिस्तर को देखा। अब्बा रहते तो इस बिस्तर को फैलाकर इस पर सोये रहते। यह चारपाई, यह बिस्तर जैसे अब्बा के इन्तज़ार में हैं, लेकिन आज अब्बा नहीं आये, वह अब कभी नहीं आएँगे। क्या यह चारपाई और यह बिस्तर सदा इसी तरह पड़े-पड़े अब्बा का इन्तज़ार करते रहेंगे? ...अब्बा! आप रहते तो आज यहाँ क्या होता! और आप नहीं हैं, तो यहाँ क्या है? मैं यहाँ की हर चीज़ के लिए अजनबी हूँ, यहाँ की हर चीज़ मेरे लिए अज़नबी है। कोई किसी को नहीं पहचान रहा है। एक आपके बिना जैसे सब-कुछ बदल गया है। जो मैं कल था, आज न रहा। जो ये कल थे, आज न रहे। मैं आज अनाथ हूँ, ये आज अनाथ हैं। अब्बा! अब्बा! आप हमें इस तरह, इतनी जल्दी अचानक क्यों छोड़ गये? ...

लालटेन की रोशनी जैसे रो रही हो। चारपाई-बिस्तर जैसे कराह रहे हों। पानदान, फ़र्शी, जूते जैसे आह भर रहे हों। सुभाषितों से जैसे आँसू टपक रहे हों। मुसल्ला जैसे रो-रोकर कह रहा हो, भाई, अब मुझपर नमाज़ कौन पढ़ेगा? ...

और सहसा जाने कहाँ से एक आवाज़ आयी-तुम! तुम! तुम!

मन्ने ने आँखें पोंछी और लालटेन लिये आँगन में चला गया। घड़े को हिलाकर देखा। पानी भरा हुआ था। अब्बा पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ते थे।

बधने में पानी उँड़ेलकर उसने वज़ू किया। मुसल्ला उतारकर उसने बरामदे की चौकी पर डाला और नमाज़ पढऩे लगा।

नमाज़ पढऩे के बाद लालटेन उठाकर वह फिर कमरे में दाखिल हुआ, तो लगा, जैसे सिरहाने का बिस्तर बोल उठा हो, अब मुझे फैलाओ। उसने झुककर बिस्तर फैलाया। तकिया उठाकर, चादर उठायी, तो लद से कोई चीज़ गिरी। उसे लगा, जैसे वह चीज़ बोल उठी हो, अब्बा तो इस तरह चादर नहीं उठाते थे कि मैं नीचे गिर पड़ूँ? ज़रा सम्हालकर!

उसने झुककर देखा, फ़र्श पर एक नोट बुक पड़ी थी। उसने चादर ज्यों-की-त्यों छोडक़र नोट बुक उठायी और लालटेन के पास बैठकर उसे देखने लगा।

पहले पृष्ठ पर बड़ी ही सुन्दर अरबी लिपि में लिखा था :

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

उसने अगला पृष्ठ खोला। उसी लिपि में लिखा हुआ था :

... कैलसिया के मुक़द्दमे का फैसला हो गया। ख़ुदा ने ठीक ही मुलज़िम को सज़ा दिलायी। मेरा फ़र्ज़ ख़त्म हुआ। अगर अपील होगी तो मैं मुक़द्दमे की पैरवी नहीं करूँगा। जो हो, अब उससे मेरा कोई मतलब नहीं। हाँ, कैलसिया की शादी अब ज़रूर और जल्दी कहीं करा देना चाहिए। ...

अगले पृष्ठ के बीच में उसी लिपि में यह शेर दर्ज था :

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती

इससे है ये ज़ाहिर कि यही हुक्मे ख़ुदा है

इस शेर को कई बार पढक़र उसने पन्ना पलटा, लेकिन आगे के सभी पन्ने खाली थे। वह फिर वही शेरवाला पन्ना पलटकर वह शेर पढऩे लगा :

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती

इससे है ये ज़ाहिर कि यही हुक्मे ख़ुदा है

क्या यह शेर अब्बा ने आज सुबह ही लिखा था?

-मन्ने बाबू, हमसे कुछ पूछ रहे हैं क्या?-बाहर से बाबू साहब की आवाज़ आयी।

-नहीं,-खड़े होते हुए मन्ने ने कहा-आप अन्दर आ जाइए, बाबू साहब। बाहर कितना अँधेरा है!

-यह अन्दर का अन्धकार है, मन्ने बाबू,-उठते हुए बाबू साहब ने कहा- इसमें कोई रोशनी काम नहीं करती!

दरवाजे पर बिलरा से बाबू साहब का पाँव टकरा गया, तो वे बोले-बिलरा, अभी तू बैठा ही है का, रे? अरे, तू का सती हो रहा है, बे? जा, सार में सो रह।

-बिलरा लौट आया क्या?-बाहर लालटेन दिखाता मन्ने बोला।

अन्दर आते हुए बाबू साहब बोले-यह कहीं गया था क्या?

-कैलसिया को पहुँचाने गया था,-मन्ने ने कहा।

-कैलसिया चली गयी? कब? मैं भरम गया था क्या?-बाबू साहब बोले-उसे आपने कुछ कहा?

-नहीं। ...

-नहीं? ओह! ...उसे...उसे... ख़ैर। ...यह बिस्तर किसने छुआ?-बिस्तर की ओर देखते हुए बाबू साहब ने शंकित होकर पूछा-आपने?

-जी हाँ, मैं ही फैला रहा था।-मन्ने ने अपराधी की तरह कहा।

-इसे एहतियात से छुइएगा। यह मियाँ का बिस्तर ही नहीं, एक फ़क़ीर की झोली भी है। जाने इसके सिरहाने उन्होंने क्या-क्या रखा हो, डाकखाने की पास बुक, रुपया-पैसा, जरुरी काग़ज़ात...

तीजा के बाद जब घर-बाहर की भीड़-भाड़ खत्म हो गयी, सर-सम्बन्धी चले गये, तो मन्ने के लिए सब ओर एक भयानक सन्नाटा छा गया। क्या करे, क्या न करे की परिस्थिति में उसका अनुभवहीन दिल-दिमाग़ छटपटाने लगा। खण्ड में कभी अब्बा की चारपाई पर वह बैठ जाता, कभी बाहर सहन में निकलकर, दोनों हाथ पीछे बाँधे, सिर लटकाये टहलने लगता, कभी अन्दर आँगन में उसी तरह घूमता। चेहरे पर परेशानी, आँखों में वहशत, मन-प्राण में अकुलाहट और होठों पर अब्बा का वही शेर :

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती...

जैसे अब्बा कुल सरमाया यह एक शेर ही उसके लिए छोड़ गये हों। इस शेर को वह कई बार गुनगुना चुका था, लेकिन कोई ऐसा मतलब वह इससे न निकाल पा रहा था, जिससे उसे कुछ सुकून हासिल होता, आगे का कोई रास्ता दिखाई पड़ता, कुछ रोशनी मिलती, कुछ साहस, कोई आशा बँधती। उसका खुदा में कोई विश्वास न था, ‘हुक्मे खुदा’ उसकी समझ के बाहर की बात थी। शेर की पहली पंक्ति ज़रूर एक माने रखती थी। ऐसी स्थिति जरूर आदमी की जि़न्दगी में आ सकती है, लेकिन उसे ‘हुक्मे खुदा’ समझकर ओढ़-बिछाकर सो रहने के क्या माने? उस परिस्थिति से लडऩा, उस पर काबू पाना, उससे निकलने का संघर्ष करना आदमी का काम है, न कि उसे ‘हुक्मे खुदा’ मानकर हाथ-पाँव डाल देना? ...तो वह क्या करे? क्या करे? जो परिस्थिति उसके सामने हैं...

घर में तीन कुँवारी बहनें हैं, दो उससे बड़ी और एक उससे छोटी, दो शादी की उम्र पार कर चुकी हैं और तीसरी भी अपनी उम्र पर आ चुकी है। बुआ कहती हैं, अब्बा तीनों लड़कियों के दहेज के सामान बनवाकर रख गये हैं, जेवरात, बर्तन, कपड़े, फ़र्नीचर, सब। बस, लडक़े ठीक करके उनकी शादी कर देनी है। बाबू साहब कहते हैं, मियाँ ने बहुत कोशिश की, लेकिन उनके मन-लायक कोई एक भी लडक़ा न मिला। रिश्तेदारियों में वे लड़कियों को न देना चाहते थे। वे कहते थे, ऐसा करने से वे उनकी ज़मीन-जायदाद नोच-खसोट लेंगे, मन्ने के लिए कुछ भी न बचेगा, उल्टे उसे तरह तरह की परेशानियाँ उठानी पड़ेंगी, लोग उसकी ज़िन्दगी तबाह करके छोड़ेंगे। वे चाहते थे कि ख़ुद कमाते-खाते लडक़े मिलते, जिन्हें उनकी ज़मीन-जायदाद का कोई लोभ न होता। उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन वैसे लडक़े मिले नहीं और लड़कियाँ अभी तक बिनब्याही रह गयीं। लोग भुनभुनाते रहते, ऐसी जवान लड़कियाँ घर में डाले हुए हैं! रिश्तेदार अलग उनसे नाराज़ थे। लेकिन मियाँ किसी की किसी बात की परवाह न करते थे। ...वे अपने मन के राजा थे, अपने मन की करते थे। ...अब न वो रहे, न वो बातें रहीं, उनके साथ उनकी बातें गयीं।

सियाहा से पता चलता है कि उनके पास क़रीब दो सौ बीघा ज़मीन है, जिससे क़रीब चार हज़ार रुपये सालाना लगान वसूल होता है और गाँव में उनकी तीन आने ज़मींदारी है। ...दो साधारण बैल हैं। अपनी भी कुछ खेती होती है, जिससे घर के खर्च का अनाज निकल आता है। तीन पट्टीदार हैं, जिनमें ज़नाना घर बँटा हुआ है। बुआ कहती हैं, वे उन्हें एक आँख नहीं भाते, उनकी हालत अच्छी नहीं है, बेच-खुचकर अपना बहुत-कुछ खा चुके हैं, अब मन्ने की ज़मीन-जायदाद पर उनकी आँखें गड़ी हैं। उनसे बहुत होशियार रहना चाहिए। उनमें जुब्ली सबसे ज़्यादा ख़तरनाक, मक्कार और डाही है।

नक़द के नाम पर डाकखाने की पासबुक में क़रीब एक हज़ार रुपये जमा हैं, बस।

मन्ने सोचता था, (मन्ने ही क्या सारा गाँव ही सोचता था) अब्बा बहुत बड़े आदमी हैं, उनके पास लाखों रुपया है। गाँव तो अब भी वही सोचेगा, लेकिन आज मन्ने को मालूम हो गया कि वह कितने पानी में है। उसे आश्चर्य हुआ कि अब्बा के पास इतना ही रुपया था। बाबू साहब कहते हैं, उनके पास रुपया आता कहाँ से? दादा के ज़माने में जब पट्टीदारों में झगड़ा हुआ था और अलग्योझा हुआ था, तो नक़द के नाम पर दादा को कुछ भी न मिला था। जुब्ली के दादा का ही उस समय चिराग़ जलता था। मन्ने के दादा सीधे और शरीफ़ आदमी थे, ज़मींदारी से पैसा कमाना न जानते थे। लगान से जो चार-एक हज़ार की सालाना आमदनी होती थी, वह ख़र्च में ही पार हो जाती थी। नक़द के नाम पर उन्होंने मियाँ के लिए कुछ भी न छोड़ा था। मियाँ भी कुछ वैसे ही निकले। ज़मींदारी का फ़ायदा उठाकर जुब्ली आज अपना सारा ख़र्चा निकाल लेता है, लेकिन मियाँ के लिए ज़मींदारी से एक पैसा भी कमाना हराम था। पैसा कहाँ से जमा होता? बँधी-बँधायी जो आमदनी है, उससे तो खर्चा चलना ही मुश्किल है।

मन्ने ने पूछा-बाबू साहब, ऐसा भी तो हो सकता है कि रुपये की कमी के ही कारण अब्बा मेरी बहनों की शादी न कर सके?

-हो सकता है,-बाबू साहब ने कहा-ऐसा भी हो सकता है। लेकिन ज़रूरत पड़ने पर उन्हें रुपया मिल सकता है। उनका मान बहुत था। जवार के कुछ बहुत ही बड़े आदमियों के यहाँ उनका रसूख़ था। यही कैलसिया के मुक़द्दमे की बात ले लीजिए। इसमें मामूली ख़र्चा तो न हुआ होगा। लेकिन ख़र्च के डर से वे किसी ज़रूरी मामले में पीछे हटनेवाले आदमी न थे, वे किसी-न-किसी तरह इन्तज़ाम कर ही लेते थे।

-लेकिन मैं क्या करूँ?-परेशान होकर मन्ने बोला-मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है। तीन-तीन बहनों की शादी करनी है। अगर मैं पढ़ूँ तो मेरे खर्चे का सवाल है और यह भी सवाल है कि जगह-जायदाद की देख-भाल कौन करेगा, मैं तो बाहर रहूँगा?

-जहाँ तक आपकी पढ़ाई के ख़र्च का सवाल है, मियाँ ने उसका पक्का इन्तज़ाम कर रखा है। उनकी यह मंशा थी कि आप जहाँ तक पढ़ सकें, पढ़ें। आपकी पढ़ाई में कभी कोई ख़लल न पड़ेगा। आप सियाहा ग़ौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि आपके हर महीने के खर्च के लिए एक या दो मातबर असामी छोड़े गये हैं। वे पहली तारीख़ को आप ही मियाँ के पास पैसे दे जाते थे और मियाँ आपको साठ रुपये का मनीआर्डर कर देते थे। सो, इस सवाल के बारे में आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दूसरा सवाल लड़कियों की शादी का है। बुआ ने आपको बताया ही होगा कि मियाँ दहेज का सारा सामान कर गये हैं। नक़द जो खर्च होगा, उसका इन्तज़ाम भी हो जायगा। मैं हूँ न! आप उसकी चिन्ता न करें, वक़्त आने पर देखा जायगा और यही नहीं, अभी से उसके लिए इन्तज़ाम किया जायगा। मुमकिन हो तो बहुत सादे ढंग से ये शादियाँ की जाएँगी। मियाँ की बात मियाँ के साथ गयी। वे तो ये शादियाँ बड़ी शान से करना चाहते थे। कहते थे, ज़रूरत पड़ेगी, तो कुछ ज़मीन भी बेंच देंगे, उनका जो हिस्सा है, उन पर ही खर्च कर देंगे। वे जो चाहते, कर सकते थे, बड़े दिलवाले आदमी थे। लेकिन आप तो वह-सब नहीं कर सकते।

-और यहाँ की देख-भाल कैसे होगी? जुब्ली मियाँ कह रहे हैं, उन पर सब छोड़ दूँ। बुआ का कहना है, वह मक्कार आदमी है, सब हड़प जायगा। उस पर कुछ भी नहीं छोड़ा जा सकता। वह तो ताक लगाये बैठा है। ...बुआ पूछती हैं, क्या तुम्हारा पढऩा बहुत ज़रूरी है? उनका कहना है कि अब तुम घर-बार सम्हालो। तुम्हारे दादा और अब्बा ने तो स्कूल का मुँह ही नहीं देखा था। उन्हें डर है कि मेरे यहाँ न रहने से सब बरबाद हो जायगा। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ। ...बाबू साहब, इस समय आपके सिवा मुझे अपना कोई दिखाई नहीं देता। अब आप ही मेरे लिए कोई रास्ता बताइए। अब्बा की जगह मैं आप ही को जानता-समझता हूँ । मुझे और किसी पर न भरोसा है, न विश्वास है। मुझे अभी कुछ अनुभव नहीं, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि बुआ जो कहती हैं, वह गलत नहीं है। जुब्ली मियॉँ पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ सकता। इस हालत में यही तो हो सकता है कि मुझे अपनी पढ़ाई छोडऩी पड़े। बाबू साहब, इसका मुझे जीवन-भर दु:ख रहेगा। मैं पढ़ाई नहीं छोडऩा चाहता।

-आप पढ़ाई मत छोडि़ए!-बाबू साहब ने दृढ़ स्वर में कहा-मियाँ कहते थे कि आपको ऊँची-से-ऊँची तालीम दिलाएँगे और आपको इस क़ाबिल बना देंगे कि आप चाहें तो कहीं भी आज़ाद ज़िन्दगी बसर कर सकें। इस गाँव के गन्दे माहौल से वे आपको दूर देखना चाहते थे। वे कहते थे कि आप बहुत बड़े अदीब बनेंगे और उनके ख़ानदान का नाम रोशन करेंगे। किसी रिसाले में आपकी कोई चीज़ निकली थी, उसे पढक़र उन्होंने मुझे सुनाया था। उस वक़्त उनका चेहरा देखते बनता था। मारे ख़ुशी के वे फूले न समा रहे थे।

-लेकिन यहाँ के इन्तज़ाम का क्या होगा?-मन्ने ने पूछा।

-यहाँ का इन्तज़ाम कोई बड़ी बात नहीं है,-बाबू साहब ने कहा-आप उसकी फ़िक्र न करें। फ़सल कटने के बाद, गर्मियों का वक़्त ही वर-वसूली और बर बन्दोबस्त का होता है। उस समय आपकी गर्मियों की छुट्टी होती ही है। बाक़ी समय जो थोड़ा-बहुत छिट-पुट काम होगा, उसके लिए हम हैं न।

मन्ने की समस्या हल हो गयी। एक कैलसिया की बात रह गयी। अब्बा ने लिखा है, उसकी शादी ज़रूर करा देनी चाहिए। उसने चाहा कि उसकी बात भी छेड़े, लेकिन वह हिचक गया। कैलसिया जो उसके सामने खण्ड से चली गयी थी, फिर कभी न आयी थी। जाने वह क्या सोचती है। शायद सोचती हो कि मियाँ न रहे तो उसका यहाँ कौन रहा? ...उसने सोचा, शायद बाबू साहब ही कुछ कहें, लेकिन उन्होंने भी कुछ न कहा, तब वह भी टाल गया।

बाबू साहब बोले-एक बार असामियों को अपने सामने बुला लें, जो कुछ कहना-सुनना हो, उनसे कह दें और उन्हें पर-पहचान लें। आगे उनसे बराबर का वास्ता है। बिलरा से आप कह दें, वह एक-एक को जानता है, सबको इकठ्ठा कर देगा।

उस दिन सुबह ही से असामी आना शुरू हुए। देखते-देखते सारा खण्ड भीतर-बाहर भर गया। चेहरे उसे कुछ पहचाने-से लगे, लेकिन उनमें से कभी किसी से उसने कोई बात की हो, उसे याद नहीं। उनमें ज़्यादातर कोइरी, भर और चमार थे। देह पर कपड़े के नाम पर एक मैली-कुचैली धोती, बाक़ी सब नंग-धड़ंग, काले-कलूटे। मियाँ की प्रशंसा में सबके मुँह से शब्द झर रहे थे। सभी दुखी थे।

मन्ने अब्बा की चारपाई पर आगे सियाहा खोले बैठा था। एक-एक का नाम पढक़र अपने पास बुलाता। वह आकर सिर झुकाकर सलाम करता। मन्ने सिर उठाकर देखता। एक-आध बात करता और कहता, अब अब्बा की जगह बाबू साहब हैं, वे जैसा कहें, करना पड़ेगा।

असामी सिर झुकाकर कहता-जैसा सरकार का हुकुम!

मन्ने कहता-जाओ,-और दूसरा नाम पुकारता।

सभी एक तरह के हैं, एक ही तरह की बातें करते हैं। इनमें से किसी एक को ढूँढ़ निकालना मुश्किल है।

लेकिन यह ख़त्म हो जाने के बाद बाबू साहब ने कहा-इनमें एक-से-एक भरे पड़े हैं! सब तरह के इंसान आपको मिल जाएँगे, एक-से-एक बढक़र शरीफ और एक-से-एक बढक़र बदमाश। मियाँ आदमी पहचाननेवाले थे। कभी-कभी इनकी बड़ी ही दिलचस्प कहानियाँ सुनाते थे।

मन्ने ने बताया-अब्बा ने सियाहा में असामियों के बारे में भी लिखा है, कि कौन कैसा है, उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।

-अच्छा?

-जी हाँ! और उन्होंने ईद, मुहर्रम वग़ैरा त्योहारों के लिए भी असामी छोड़ रखे हैं।

-उनका सब इन्तज़ाम ही ऐसा था, पक्के उसूल के आदमी थे, आप एक पर्चा बनाकर, हिन्दी में हमें लिखकर दे दें।

-बहुत अच्छा।

-गर्मियों की छुट्टी में मुंशीजी को बुलाएँगे। वे आपकी जगह-ज़मीन की पड़ताल करा देंगे। कहाँ आपका कौन-सा खेत है, कौन सी बाग-बावली है, सब आपको जान लेना चाहिए। यह दुनियाँ बड़ी अजीब है, कब, कौन मौका पाकर कहाँ दबा बैठेगा, कोई नहीं जानता।

और मन्ने पढऩे स्कूल चला गया। बाबू साहब उसके पीछे फ़कीर बन गये। अपने घर से, काम-काज से जैसे उनका सब नाता ही टूट गया। वे मन्ने के ही होकर रह गये। वे आते और खण्ड में उसी चारपाई पर बैठते, जो ज़रूरी काम होते, निबटाते। बिलरा को खेती के बारे में सहेजते। बुआ से घर के बारे में पूछवाते, जब जिस चीज़ की घर में ज़रूरत पड़ती, मँगवाकर पहुँचवाते। घर में सबके मुँह पर बाबू साहब-बाबू साहब, बाहर सबके मुँह पर बाबू साहब-बाबू साहब! जब कोई ज़रूरत पड़ती, बाबू साहब!

मन्ने अब्बा को बहुत कम ख़त लिखता था, लेकिन बाबू साहब को वह बराबर लिखता। देखने में मन्ने की समस्या हल हो गयी थी, लेकिन मन्ने की आँखें जिस स्थिति में खुली थीं, उसकी मानसिक व्याकुलता की कोई सीमा न थी। बाबू साहब ने उसे बहुत समझया कि वह कोई चिन्ता न करे, बस मन लगाकर पढ़े। कभी यह न सोचे कि उसके अब्बा नहीं है। वह सब-कुछ सम्हाल लेंगे। लेकिन चिन्ता ऐसी थी कि उसका पीछा ही न छोड़ रही थी। तीन-तीन बहनों की शादी करनी है और घर में रुपया नहीं। साल में क़रीब चार हज़ार की आमदनी, सब ख़र्च, घर का, उसकी पढ़ाई का, इज़्जत आबरू का, बीमारी-हिमारी का...कैसे क्या होगा? उसे चिन्ता न होती तो क्या होता?

पढऩे बैठता है तो उसका मन भटक जाता है। वह घर के बारे में ही सोचने लगता है। कैसे क्या होगा? बेचारे बाबू साहब क्या कर सकते हैं? उसकी वे क्या मदद कर सकते है, कैसे मदद कर सकते हैं?

बाबू साहब हर चिठ्ठी में ताक़ीद करते कि वह कोई चिन्ता न करे। इस समय उसका केवल एक कत्र्तव्य है और वह है, पढऩा। वह निश्चिन्त होकर पढ़े। लेकिन उससे पढ़ा न जाता।

मुन्नी उसकी यह हालत देखता, तो मन-ही-मन कुढ़ता। पूछने पर मन्ने उसे कुछ बताता नहीं। मुन्नी की समझ में कुछ भी न आता। वह बाबू साहब को चिठ्ठी लिखता कि मन्ने बहुत उदास रहता है, पढऩे में उसका जी ही नहीं लगता। बाबू साहब फिर वैसी ही चिठ्ठी लिखते। लेकिन अपने को मन्ने समझाने में असमर्थ था। अब्बा का शेर वह बराबर गुनगुनाता रहता :

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती...

उस दिन उसे इस शेर के कोई माने न मिलते थे और उसने सोचा था कि यह क्या कि परिस्थिति को हुक्मे ख़ुदा समझकर आदमी अपना हाथ-पाँव तोडक़र बैठ जाय? ...लेकिन आज जैसे इस शेर का मतलब समझ में आ गया हो। वह सोचता, अब्बा ठीक ही कह गये हैं:

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती...

और इम्तिहान में वह फ़ेल हो गया। उसने अपनी हालत ऐसी बना ली कि लोग देखते और तरस खाते।

बाबू साहब मन-ही-मन कुढ़ते। मुन्नी मन-ही-मन दुखी रहता। लेकिन कोई कुछ कर न पा रहा था। मन्ने ऐसा ख़ामोश, ऐसा निराश, ऐसा पस्त हिम्मत हो गया था कि वह किसी से कोई बात ही न करता था। ठण्डी साँसें भरता, सिर के बाल नोचता, फटी-फटी आँखों से देखता और वह शेर पढ़ता :

बिगड़ी है कुछ ऐसी कि बनाये नहीं बनती...

आख़िर बाबू साहब से जब न सहा गया, तो उन्होंने एक दिन कहा-यह आपको क्या हो गया है? आप मुझसे तो बताइए!- और उठकर उन्होंने खण्ड का दरवाजा बन्द कर दिया।

मन्ने सिर झुकाये बैठा रहा।

-बोलिए, आपको क्या तकलीफ़ है?-बाबू साहब ने कहा।

मन्ने ने एक बार फटी-फटी आँखों से उनकी ओर देखा और सिर झुका लिया।

बाबू साहब कडक़कर बोले-तो सुनिए! इसका मतलब यह है कि मैं आपका कोई नहीं, आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं!

-बाबू साहब!-आख़िर मन्ने का बोल फूटा-ऐसा मत कहिए?

-ऐसा न कहूँ तो कैसा कहूँ? आपकी हालत देखकर सारा गाँव हँसता है और मेरा ख़ून सूखता है। आपसे मैं आज सब-कुछ साफ़-साफ़ कह लेना चाहता हूँ! आप मुझसे कहीं ज़्यादा पढ़े-लिखे और समझदार हैं। आप अब कोई बच्चे नहीं, जो किसी बात को समझ नहीं सकते। मैंने आपसे कितनी बार कहा कि आप कोई भी चिन्ता न करें, पढ़ाई पर ध्यान दें, लेकिन आपने अपने को पागल बना लिया और फ़ेल हो गये। इसका क्या मतलब है? मैंने आपसे कहा कि यह न समझिए कि अब्बा न रहे, मैं हूँ। आप सारी जि़म्मेदारी मुझपर छोड़ दीजिए और जैसे पहले रहते-सहते थे, रहे-सहें। लेकिन आप पर मेरी बातों का कोई असर नहीं हुआ। इसका मतलब यही तो हुआ कि आपने मेरी किसी बात पर भी विश्वास नहीं किया?

-नहीं, बाबू साहब! आप ऐसा मत कहिए!-मन्ने रोकर बोला-आप सब जानते हुए...

-लेकिन आप यह क्यों नहीं सोचते कि आपके चिन्ता करने से तो दूर, आपके जान देने से भी कोई समस्या हल नहीं हो सकती? ...बाबू, यह ज़िन्दगी बड़ी सख़्तगीर है। परिस्थितियों के हवाले अगर आपने अपने को छोड़ दिया, तो गये! परिस्थितियों पर क़ाबू पाने का नाम ज़िन्दगी है। धैर्य से, शान्ति से, ठण्डे दिल से, हिम्मत से लड़ते रहने का नाम ज़िन्दगी है। मियाँ की यही सबसे बड़ी खूबी थी। वे किस स्थिति में हैं, कभी किसी को मालूम न हो सका। उनका कहना था, बाबू साहब, अपनी कमजोरी का इज़हार आपकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी हार है। घर में आप चना भुनाकर खाइए, लेकिन इस एहतियात से कि उसकी गन्ध पड़ोस तक न जाय। ...और आज क्या हो रहा है? ताली बजने में अब कितनी देर रह गयी है? आप कुछ सोचते हैं? अक्लमन्द के लिए इशारा काफ़ी है!-और बाबू साहब का सिर रंज से झुक गया।

-बाबू साहब, मैं क्या करूँ? मेरी समझ में कुछ नहीं आता...

-इस तरह आपकी समझ में कुछ भी नहीं आएगा। आप घुल-घुलकर जान भी दे देंगे, तो भी नहीं आएगा। इस तरह समझने की यह बात ही नहीं है। लेकिन आपको मेरी बात तो समझनी चाहिए। मैं क्षत्री हूँ, एक बार मेरे मुँह से जो बात निकल गयी, उसके पीछे मेरी जान भी चली जाय, तो चिन्ता नहीं। मैंने आप से कहा था कि आप सारी अपनी ज़िम्मेदारी मुझ पर छोड़ दीजिए, इसका मतलब समझना क्या बहुत मुश्किल है? अगर मुश्किल है तो एक बार फिर सुन लीजिए! मैं क्षत्री हूँ और कहता हूँ कि जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, आप पर कोई ज़रब न आने दूँगा! आपकी हर मुसीबत को मैं झेलूँगा! मियाँ के ख़ानदान पर कोई उँगली उठाये, जब तक मेरे तन में जान है, बर्दाश्त न कर सकूँगा! आप मुझ पर भरोसा रखें और यह सूरत उतार फेंके! मियाँ की आबरू मेरी आबरू है! आप मुझे जानते नहीं, मियाँ मुझे जानते थे :

रघुकुल रीति सदा चलि आई।

प्रान जाहि बरु बचन न जाई।।

उठिए! मुझे मालूम न था कि आप इस उम्र में भी ऐसे बच्चे है। मुझे ख़ुद ही कभी यह सब कहना पड़ेगा, मैंने कब सोचा था! ख़ैर।

प्रेमी को हँसी आ गयी। मन की सारी खिन्नता धुल गयी थी। वह मेज़ से उठा और कपड़े पहनकर रेस्तराँ के लिए निकला। दरवाज़ा बन्द कर सडक़ पर आया, तो सन्नाटा छा चुका था। हॉस्टल की कुछ खिड़कियों से रोशनी झाँक रही थी। कॉलेज के फाटक को बन्द कर, गोरखा चौकीदार ड्यूटी पर खड़ा हो फक-फक बीड़ी खींच रहा था। बग़ल की फिरकी घुमाकर वह अन्दर घुसा। वह सोच रहा था, सचमुच उस समय वह कितना कच्चा, कितना भावुक, कितना कमजोर था! बाबू साहब ने उसे न सम्हाला होता, तो उसकी नाव किस घाट लगती। जिस स्थिति को देखकर ही उसके हाथ-पाँव फूल गये थे, उसका मुक़ाबिला वह क्या करता। लेकिन बाबू साहब ने किस हिम्मत से उसकी एक-एक समस्या को हल कर दिया! जैसे वे जानते हों कि जब तक ये समस्याएँ उसे घूरती रहेंगी, उसका दिमाग़ ठिकाने नहीं रह सकता।

अगली गर्मी आते-न-आते उन्होंने दो बहनों के रिश्ते तय कर दिये। लडक़े रिश्तेदारियों के ही थे। कोई बहुत अच्छे न थे, लेकिन यह मीन-मेख निकालने का मौक़ा न था। उन्होंने कहा, आँधी में घाट नहीं देखा जाता, जहाँ भी सम्भव हो, नाव को किनारे लगा दिया जाता है।

लेकिन जुब्ली से यह भी न देखा गया। मन्ने से जला-भुना तो वह बैठा ही था। शादी के मामले में भी मन्ने ने जब उससे कोई राय-बात न की और न कोई सहायता ही माँगी, तो आग में जैसे घी पड़ गया। उसका ख़याल था कि बाबू साहब भले ही और सब काम सम्हाल लें, लेकिन निकाह-शादी ऐसे काम हैं, जो भाई-बिरादरी की मदद के बिना नहीं होते। उसने सोच रखा था कि ऐसे अवसर पर ही मन्ने को वह अपने चंगुल में फँसाएगा। लेकिन जब बात बहुत आगे बढ़ गयी और मन्ने उसके पास एक बार भी न आया, तो उसे लगा, जैसे उसके हाथ का तोता ही उड़ा जा रहा हो। उसने अब दौड़-धूप शुरू कर दी। जहाँ रिश्तेदारियाँ लगी थीं, वहाँ जाकर पहले तो उसने जड़ ही मार देने की कोशिश की। लेकिन वहाँ के लोग तो बहुत पहले ही से इन रिश्तों के लिए लालायित थे, अब सुअवसर आने पर किसी के बहकावे में न आ सकते थे। जुब्ली वहाँ से अपना-सा मुँह लेकर वापस आया, तो उसने दूसरा पैंतरा भाँजा, बिरादरी वालों को भडक़ा दिया। बिरादरी का सरगना तो वह था ही! निकाह की तारीख़ नज़दीक आ गयी, तो उसने बिरादरी की एक गुप्त बैठक बुलायी और लोगों से कहा कि चूँकि मन्ने ने ये रिश्ते बिना उनकी राय-बात के तय किये हैं और रिवाज के मुताबिक़ उन्हें बटोरकर इत्तिला देने की भी तकलीफ़ नहीं उठायी, इसलिए बिरादरी को वे रिश्ते मंजूर नहीं। बिरादरी को भी यह बात खली कि एक हिन्दू के चक्कर में पडक़र मन्ने बिरादरी को कुछ समझ ही नहीं रहा है, यह तो सरासर उनका अपना अपमान है। इसे वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। इस मौक़े पर वे ज़रूर तानेंगे।

औरतों से होकर जब बात बुआ तक पहुँची, तो उन्होंने अपना सिर पीट लिया। उन्होंने तुरन्त मन्ने को बुलाया। बोलीं-बेटा, यह तुमने क्या किया? कुल एक हफ्ता बारात आने को रह गया, दो-दो बारातें साथ आ रही हैं, और तुमने अभी तक बिरादरी को इत्तिला तक नहीं दी। लोग हमारी नाक काटने को तैयार बैठे हैं। वे तान देंगे तो कैसे क्या होगा? जब से यह सुना है, हमारे तो हाथ-पाँव फूल रहे हैं!

बेवकूफ़ की तरह उनका मुँह तकते हुए मन्ने ने कहा-हमें यह सब कहाँ मालूम था? तुम्हें बताना चाहिए था? अब क्या किया जाय?

-तुम अभी जाकर जुब्ली से बात करो। शाम को बिटोर करो और उन्हें इत्तिला दो और उनकी मदद माँगो। सब काम छोडक़र यह काम करो! ओफ़! यहाँ लड़कियाँ माँझे में बैठी हैं, उधर बिरादरी तनी बैठी है! औरतों ने भी हमारे यहाँ आना-जाना बन्द कर दिया है! कैसे क्या होगा? यह बड़ी भारी ग़लती हो गयी!

मन्ने ने बाबू साहब से यह-सब कहा, तो उन्होंने कहा-बुआ ठीक कह रही है। बिरादरी को ज़रूर इत्तिला देनी चाहिए थी। ...लेकिन एक बात मैंने और सुनी हैं। जुब्ली मियाँ हमारे रिश्तेदारों के यहाँ भी दौड़-धूप आये हैं। उन्होंने रिश्ते काटने की भी पूरी कोशिश की है। इससे मालूम होता है, दाल में कुछ काला ज़रूर है। वे आपके पट्टीदार हैं, शायद आपको नीचा दिखाना चाहते हैं। इसलिए ज़रा चौकन्ना होकर काम करने की ज़रूरत है। आप शाम की बटोर कीजिए। कहने को तो न रह जाय कि आपने जानकर कोई परवाह न की।

-आप भी बटोर में रहेंगे न?-मन्ने ने चिन्तित होकर कहा।

-कहाँ-कहाँ मैं आपके साथ रहूँगा? बिरादरी की बटोर में बाहर का आदमी नहीं रहता। आपको घबराने की ज़रूरत नहीं । जो होगा, देखा जायगा। लेकिन आप अपना सम्मान बनाये रखें। अनुचित बात पर आपको झुकाने की कोई कोशिश करे, तो हरग़िज न झुकें। जुब्ली मियाँ की चाल समझकर ही अपना मुहरा उठाएँ।

शाम को बटोर हुई। मन्ने को बड़ा ताज्जुब हुआ कि बात इस तरह शुरू हुई, जैसे वह कोई अपराधी हों और लोग उसे सज़ा देने के लिए इकठ्ठा हुए हों।

उसने कहा-मैं लडक़ा हूँ। मुझे रस्म-रिवाज कुछ मालूम नहीं था। अब मालूम हुआ है तो यह बटोर इत्तिला देने के लिए बुलायी है।

इमाम की तरह जुब्ली बोला-तुम इतने बड़े हो गये। ज़िले के बड़े स्कूल में पढ़ते हो। यह कैसे समझा जा सकता है कि ये मामूली रस्म-रिवाज भी तुम्हें मालूम न हों?

एक दूसरे ने ताव में आकर ताना मारा-अरे साहब, बड़े आदमी के लडक़े हैं, इन्हें बिरादरी की क्या परवाह!

एक तीसरे ने रद्दा जमाया-परवाह न थी, तो यह बटोर क्यों की? ये अपने घर में खुश, हम अपने घर में ख़ुश!

एक चौथे ने कहा-नये ज़माने के आदमी हैं, सब रस्म-रिवाज तोडऩा चाहते हैं!

एक पाँचवा बोला-तोडऩा चाहते हैं, तो तोड़ें न! हम देख लेंगे, ये शादियाँ कैसे होती हैं!

और फिर चारों ओर काँव-काँव होने लगी। मन्ने का दिमाग़ भन्ना उठा। उसकी समझ में कुछ भी न आ रहा था। उसके जी आया कि वह वहाँ से भाग खड़ा हो। कैसे जाहिलों के बीच वह आ पड़ा। कोई उसकी बात समझने की कोशिश नहीं करता, सब अपनी ही हाँके जा रहे हैं, उसे बोलने भी नहीं देते।

आख़िर जुब्ली ने शान्ति स्थापित की और जज की तरह कहा-मन्ने, लोग जो कह रहे हैं, ठीक ही कह रहे हैं। बिरादरी के बाहर निजात नहीं। तुमने जो बिरादरी की तौहीन की है, वह कोई मामूली ग़लती नहीं। तुम्हें लडक़ा समझकर, अपना समझकर मैं यही कहना चाहता हूँ कि तुम बिरादरी से अपनी ग़लती के लिए माफ़ी माँग लो। मैं बिरादरी से मिन्नत करूँगा कि वह इस बार तुम्हें माफ़ कर दे। ग़लती चाहे जितनी बड़ी हो, लेकिन यह तुम्हारी पहली ग़लती है और माफ़ी के क़ाबिल है।

इतना-सब हो जाने के बाद जुब्ली का यह फैसला सुनकर मन्ने को जैसे आग ही लग गयी। वह भडक़ उठा-भाई साहब, आप मेरे बड़े भाई और घर के बुज़ुर्ग हैं। क्या आपका कोई फ़र्ज नहीं था? मुझे कोई बात मालूम न हो तो क्या आपको बताना न चाहिए था? लेकिन नहीं, आप मुझे क्यों बताते? आपको तो मुझे नीचा दिखाने की साजि़श से ही फ़ुरशत नहीं थी। आपकी एक-एक हरकत का मुझे पता लग गया है, और मुझे बेहद रंज है कि आप भाई की तरह मेरी मदद नहीं, दुश्मन की तरह मुझे जि़च देना चाहते हैं। लेकिन यह होने का नहीं, आप यह समझ रखें! आप बिरादरी को ही नहीं, सारी दुनियाँ को भडक़ाकर मेरे खिलाफ़ कर सकते हैं, लेकिन मैं किसी भी ग़ैर-इन्साफ़ी के सामने अपना सिर झुका दूँगा, यह बात आप अपने ख़ाबो-ख़याल में न लाएँ! मैं कहना चाहता हूँ कि मेरा कोई जुर्म नहीं और इसलिए मेरी ओर से माफ़ी माँगने का कोई सवाल ही नहीं उठता। भाई साहब की इस ग़ैरइंसाफ़ी के सामने सिर झुकाने से मैं कतई मजबूर हूँ! आगे आप लोगों की जो मर्ज़ी।

तीन बित्ते के उस लौंडे की यह बात सुनकर तो बिरादरी को जैसे साँप सूँघ गया। मारे ग़ुस्से के जुब्ली का चेहरा तमतमा रहा था। और सब उल्लू की तरह उसी का मुँह ताक रहे थे। जुब्ली का ख़याल था कि उसके इस नाटक से मन्ने पर उसका रोब जम जायगा, उसे मालूम हो जायगा कि उसका क्या स्थान है और उसके बिना मन्ने का कोई काम नहीं हो सकता। लेकिन मन्ने ने तो जैसे उसकी बिसात ही उलट दी। आख़िर उसने कहा-अगर तुम मजबूर हो तो बिरादरी भी मजबूर हैं! आज से बिरादरी अपने सब ताल्लुक़ात तुमसे क़ता करती है!

थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। लोगों को यह न मालूम था कि बात यहाँ तक पहुँच जायगी। आख़िर मन्ने भी बिरादरी का मातबर आदमी था, बल्कि सबसे बड़ा ज़मींदार था।

मौलवी साहब ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा, खोदनी से कान खुजलाये और बोले-बिरादरी और मुखिया का फैसला सर-आँखों पर। लेकिन एक अर्ज़ मेरी है। आप लोग तो जानते ही हैं कि मन्ने बाबू मेरे शागिर्द हैं और इनके घर से मेरे दूसरी तरह के भी ताल्लुक़ात हैं। इसलिए मेरी अर्ज़ थी कि आप लोग मुझे इज़ाजत दें कि कम-से-कम इस मौक़े पर मैं मन्ने बाबू के साथ रह सकूँ?

एक दूसरा बोला-मैं भी इसी तरह की इजाज़त का ख़ाहिशमन्द हूँ।

एक तीसरा बोलने को हुआ, तो जुब्ली बौखला उठा। वह चिल्लाकर बोला-बिरादरी का फैसला हमने सुना दिया! इसके ख़िलाफ जो भी कोई कुछ करेगा, अपनी जि़म्मेदारी पर करेगा!-और वह उठ खड़ा हुआ।

बुआ को यह-सब मालूम हुआ, तो वह रोने लगीं। बोलीं-बाबू, तुमने यह क्या किया? अपने ही लोग शादी में शामिल न होंगे, तो शादी कैसी ? यह जुब्ली अपने ही जिस्म का हिस्सा है, अपना ही ख़ून है। लोग सुनेंगे तो मुँह पर थूकेंगे कि शादी के मौक़े पर तो दुश्मनों को भी पूछा जाता है और यहाँ...

मन्ने को यह सुनकर ग़ुस्सा आ गया। बोला-इतना ही वह प्यारा है, तो, बुआ, तुम भी उसके साथ चली जाओ, मुझे छोड़ दो!

बुआ सन्नाटे में आ गयीं। मन्ने यह क्या बोल रहा है? ऐसे मौक़े पर बुआ उसका साथ छोड़ दें? वह माथा पीटती हुई बोली-बेटा, तू मेरी बात नहीं समझता। ऐसे मौक़े पर आदमी को झुककर ही रहना चाहिए। ब्याह-शादी अकेले कर लेना किसी के बूते की बात नहीं। हज़ार काम होते हैं, उन्हें करने के लिए हज़ार हाथ होने चाहिए!

-देखो, कैसे होता है!-मन्ने बोला-तुम चुपचाप देखो!

-लेकिन, बाबू...

-कुछ नहीं! ग़ैर इन्साफी के सामने मैं सिर नहीं झुका सकता! किसी मूज़ी के हाथ का खिलौना बनकर मैं ज़िन्दा नहीं रहना चाहता!-और वह घर के बाहर हो गया।

खण्ड में चौकी पर बैठे मौलवी साहब लिफ़ाफों में दावतनामे भर रहे थे। बाबू साहब गम्भीर होकर चारपाई पर बैठ गये थे। उन्होंने मन्ने से कहा-आलमारी में पतों की बही होगी, निकाल दीजिए और स्कूल के अपने साथियों के पते भी मौलवी साहब को लिखा दीजिए।

मन्ने समझ गया कि मौलवी साहब से बाबू साहब को सब मालूम हो गया है। वह उनका मँुह देखने लगा, तो बाबू साहब फिर बोले-आपने बिलकुल ठीक किया। अपने चार-छै साथियों को तुरन्त बुला लीजिए। सब हो जायगा।

-हो कैसे नहीं जायगा?-मौलवी साहब बोले-किसी का कोई काम रुकता है!

बही निकालकर वह पते बोलने लगा। मौलवी साहब लिखने लगे।

अचानक एक पते पर मन्ने रुक गया। बोला-बाबू साहब, यह उर्वशी कौन है?

-यह एक तवायफ़ है। मियाँ कभी-कभी उसके यहाँ जाया करते थे। ख़ुशी के मौकों पर उसे बुलाना वे कभी न भूलते थे। उसे आप ज़रूर दावत दें। वह आकर नाचेगी। बारात में रौनक़ रहेगी।

मन्ने उनका मुँह ताकता रहा, तो कुछ समझकर वे बोले-वैसी कोई बात नहीं। उर्वशी बहुत अच्छा गाती है। मियाँ को गज़लें सुनने का शौक़ था। आप उसका नाम लिखवाइये।

मन्ने के कई साथी आ गये और उन्होंने काम बाँटकर अपने-अपने हाथ में ले लिये। सब इन्तजाम बाक़ायदा हो गया। और एक दिन दो छोटी-छोटी बारातें आ पहुँचीं। शाम को एक-एक कर दोनों लड़कियों के निकाह हुए। रात को दस्तरख़ान बिछे। उर्वशी का मन मोहनेवाला नाच तम्बू में हुआ। दूर खड़े-खड़े और मन-ही-मन पेंच-ताव खाते हुए जुब्ली और उसकी बिरादरी के लोग तमाशा देखते रहे और यहाँ सब काम ऐसी ख़ूबसूरती से निबट गये कि सबके मुँह पर वाह-वाह!

आनन-फ़ानन में शादियाँ हो गयीं। लड़कियाँ अपने-अपने घर चली गयीं। मन्ने चकित था कि जिस काम को वह इतना भारी समझता था, कैसे चट-पट पूरा हो गया!

बाबू साहब ने कहा-आदमी में हौसला होना चाहिए। दुनियाँ में कोई काम मुश्किल नहीं होता। एक लडक़ी और रह गयी है, लेकिन उसके लिए अभी वक़्त है, इत्मीनान से उसकी शादी की जायगी।

मन्ने की हिम्मत खुल गयी। अब किसी बात से वह परेशान नहीं होता। उसके अन्दर यह विश्वास जड़ जमा चुका है कि कोई ऐसी समस्या नहीं जो हल न हो सके। बाबू साहब सदा उसकी आँखों के सामने रहते हैं और वह सोचता है कि दुनियाँ में ऐसे भी इन्सान हैं, जिन्हें यादकर आदमी को साहस और शक्ति मिलती है, विश्वास और प्रेरणा मिलती है, सुख और राहत मिलती है।

रेस्तराँ ख़ाली हो चुका था। एक ओर की मेज़ पर मैनेजर खाना खा रहा था। उसने उसे देखते ही बड़े सम्मान के साथ अपनी ही मेज़ पर बुला लिया और उसके लिए नौकर को खाना लगाने का आदेश दिया।

यह मैनेजर भी एक ही आदमी है। मनुष्यता में इसका ऐसा अटूट विश्वास है कि कभी किसी लडक़े से पैसों के लिए तक़ाज़ा नहीं करता। क्रान्तिकारियों और विद्यार्थियों के बड़े-बड़े क़िस्से इसके पास हैं। जब भी मौक़ा मिलता है, सुनाने लगता है-एक थे मनोहर साहब! तीन महीने तक उनका रुपया ही नहीं आया। मुझसे उधार लेकर वे फ़ीस देते थे। खाना तो हमारे यहाँ खाते ही थे। इम्तिहान खत्म हुआ, तो बिना किसी इत्तिला के चलते बने। लडक़ों ने कहा, खा-पीकर, ले-देकर रफूचक्कर हो गये। लेकिन, साहब, मुझे विश्वास था, वे मेरी नेकी नहीं भूलेंगे और भूल ही जायँगे तो मुझे दु:ख न होगा, क्योंकि मैंने एक अच्छा काम ही किया था। और जानते हैं, साहब, फिर क्या हुआ? ...पूरे सात साल बाद उनका एक बीमा मेरे पास पहुँचा, चार सौ रुपये का। उसमें एक ख़त भी था। उन्होंने लिखा था...

प्रेमी उसके ये किस्से बड़े चाव से सुनता था, गोकि कुछ लडक़ों का कहना यह था कि मैनेजर ये क़िस्से गढ़-गढक़र इसलिए सुनाता है कि लडक़ों में नैतिकता जगी रहे और कोई उसका पैसा न मारे।

प्रेमी ने बैठते ही कहा-सुनाइए, मैनेजर साहब, क्या हालचाल हैं?

मैनेजर बोला-क्या सुनाऊँ, प्रेमी साहब,...मुझे बहुत दुख होता है। जब प्रोफ़ेसर ही ऐसे हो गये हैं तो देश का...

-छोडि़ए, मैनेजर साहब, ऐसी बातें बार-बार कहने-सुनने की नहीं होतीं। अच्छे-बुरे कहाँ नहीं होते? मैं तो कहता हूँ कि दस प्रोफ़ेसर नहीं, एक आप...

-आप यह क्या कहते हैं?-चकित होकर मैनेजर बोला।

-मेरा यह ख़याल है कि यहाँ लडक़े आपके संसर्ग में आकर जो सीखते हैं, वह प्रोफ़ेसरों से नहीं! प्रोफ़ेसरों को हम भूल जाएँगे, लेकिन आपको नहीं। आप जैसे इन्सानों को ही देखकर लडक़े इन्सान बनते है...

-आपको आज यह क्या सूझी है, प्रेमी साहब?- मैनेजर जैसे बौखलाकर बोला-मैं इस छोटे रेस्तराँ का मालिक...

-इससे क्या होता है? किसको यह मालूम नहीं कि आप फ़स्र्ट क्लास एम०ए० और एल-एल०बी० हैं। आप राजनीतिक कारणों से तीन बार जेल जा चुके हैं। यहाँ लडक़ों के बीच जो आप रेस्तराँ खोलकर बैठे हैं, इसका उद्देश्य...

मैनेजर हो-होकर जोर से हँस पड़ा।

-आप तो, प्रेमी साहब, मज़ाक करते है! लीजिए, आपका खाना लग गया। शुरू कीजिए।-कहकर मैनेजर फिर हँस पड़ा-प्रतियोगिता में आपको सुनने मैं ज़रूर आऊँगा। आपसे मुझे बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं। आप एक बड़े साहित्यकार हो सकते हैं...

-बस-बस, मैनेजर साहब! थोड़ी चटनी मँगवाइऐ। आपकी बात हज़म करने के लिए...

दोनों ज़ोर से हँस पड़े।

मैनेजर बोला-आज हमारे देश को आप जैसे आदमियों की ही ज़रूरत है। साम्प्रदायिकता के ज़हर को अगर हमने दूर न किया तो हमारी आज़ादी की लड़ाई मज़हबों की लड़ाई में डूब जायगी और...प्रेमी साहब, कल एक मेरा बहुत ही पुराना साथी आ रहा है। वह एक मशहूर क्रान्तिकारी है। मेरी बड़ी इच्छा थी कि आप उससे मिलते।

-ज़रूर-ज़रूर, मैनेजर साहब! उनसे मिलकर मुझे बेहद ख़ुशी होगी!

-लेकिन यह बात किसी को मालूम न हो। आप तो जानते ही हैं...

-मैं कुछ भी नहीं जानता, मैनेजर साहब, मैं इस मामले में बिलकुल ही कोरा हूँ। मेरा एक लडक़पन का साथी है, उसे इन बातों में बड़ी दिलचस्पी है। उसने कभी-कभी वैसा कुछ साहित्य मुझे भी पढऩे को दिया है। मुझे वह साहित्य बहुत अच्छा लगता है, पढक़र जाने कैसा एक जोश रग-रग में लहरें लेने लगता है और फिर मुझे डर लगने लगता है। ...मैनेजर साहब, मेरी घरेलू स्थिति बड़ी ख़राब है। घर का मैं अकेला आदमी हूँ। यह तो हमारे एक बाबू साहब हैं, जिनकी कृपा से मैं पढ़ रहा हूँ, वर्ना मेरे लिए तो घर छोडऩा भी असम्भव था।

-आपके वे साथी कहाँ हैं?-उत्सुकता से मैनेजर ने पूछा।

-वह मद्रास चला गया है। वह बहुत ही ग़रीब घर का लडक़ा है, लेकिन उसे मालूम न था कि वह ग़रीब है। वह सोचता था कि पिताजी के पास इतना पैसा है कि उसकी पढ़ाई चलती रहेगी। लेकिन हाई स्कूल पास करने के बाद उसने आगे पढऩे के लिए कहा, तो उसके पिताजी ने सब स्थिति खोलकर उसके सामने रख दी और कहा, बेटा, यह तुम इतना कैसे पढ़ गये, हम तुम्हारा ख़र्चा कैसे जुटा सके, यही आश्चर्य की बात है। अब हमारी स्थिति ऐसी नहीं कि तुम्हारी आगे की पढ़ाई का इन्तज़ाम कर सकें। अब तुम कुछ करो-धरो। कोई नौकरी कर लो और हमारी कुछ मदद करो। ...वह मेरे पास आकर रोने लगा। उसके सब सपने चूर-चूर हो गये थे। वह पढऩे में बहुत तेज़ था। उसकी कितनी ही कविताएँ, कहानियाँ और लेख पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके थे। लेकिन मैं क्या कर सकता था। इस वाक़या के एक साल पहले मेरे वालिद का इन्तक़ाल हो गया था और उनके जाने के बाद मुझे मालूम हुआ था कि मेरी स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं। मेरे जी में बहुत आया कि मैं उसकी कुछ मदद करूँ, लेकिन मैं मजबूर था। मैं उसके आँसू न पोंछ सका और वह आज मद्रास में कोई मामूली नौकरी कर रहा है। उसकी रचनाएँ कभी-कभी पत्र-पत्रिकाओं में दिखाई पड़ जाती हैं। जब भी मुझे उसकी याद आती है, मुझे अपनी पढ़ाई एक गुनाह लगती है। मैं सोचता हूँ, मैंने उसकी मदद क्यों न की? आख़िर मैं कैसे पढ़ रहा हूँ। अगर मैं सचमुच चाहता, उसे सहारा देता, तो क्या मेरे साथ-साथ वह भी न पढ़ लेता? यहाँ हम ट्यूशन कर सकते थे। ...लेकिन मुझमें शायद साहस न था, या मुझे या उसे कोई अनुुभव न था कि इस तरह भी पढ़ाई हो सकती है। कालेज की पढ़ाई का मतलब हमारे लिए बनारस इलाहाबाद की ख़र्चीली पढ़ाई थी। वह तो यहाँ आने के बाद मालूम हुआ कि कितने ही ग़रीब लडक़े यहाँ बिना घर की मदद पाये, ट्यूशनें और पार्ट टाइम काम करके भी पढ़ लेते हैं। ...वह पढ़ सकता था, मैनेजर साहब, लेकिन मैं क्या बताऊँ? मुझे लगता है कि यह मेरी ही ग़लती है, जो वह न पढ़ सका। वह बड़ा ही स्वाभिमानी और संकोची जीव है। एक बार भी मुँह खोलकर उसने मुझसे कुछ नहीं कहा, किसी की मदद लेना उसके स्वभाव के विरुद्ध है, कोई उसे ग़रीब कहे, यह उसे असह्य था। इसी कारण मैंने कुछ भी नहीं कहा। लेकिन मुझे लगता है कि मैं बहुत स्वार्थी हूँ, सच्चा दोस्त नहीं। मुझे कुछ करना चाहिए था। मुझे ताजि़न्दगी इसका अफ़सोस रहेगा। उसकी प्रतिभा...

-हमारे यहाँ अधिकतर प्रतिभाओं की यही दशा है, प्रेमी साहब!-मैनेजर बोला-यहाँ जैसे हर बीज पत्थर के नीचे दबा है। दबकर उसका सड़-गल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं, आश्चर्य तो इसका है कि कैसे कोई बीज पत्थर तोडक़र एक विशाल वृक्ष बन जाता है। कौन जाने, आपके मित्र...

-मैं उससे निराश नहीं हूँ, मैनेजर साहब। वह एक दिन ज़रूर चमकेगा! लेकिन ताजि़न्दगी अफ़सोस मुझे इस बात का रहेगा कि जिसने मुझे इन्सानियत का पहला सबक़ सिखाया, मैं उसकी कोई मदद न कर सका, शायद मैं कर सकता था।

-कहते-कहते, उसकी आँखे भर आयीं।

मैनेजर कई क्षण तक ख़ामोश उसकी ओर देखता रहा। कालेज की घड़ी ने ग्यारह बजाये, टन, टन...

-अरे, आपकी थाली तो अभी योंही पड़ी है! खाइए, प्रेमी साहब!-मैनेजर जैसे परेशान होता हुआ बोला।

-अब खाया न जायगा, मैनेजर साहब,-प्रेमी ने एक ठण्डी साँस ली और उठ खड़ा हुआ।

वह अपने कमरे में आकर बिस्तर पर पड़ गया। उसका मन ख़ूब रोने को हो रहा था। मुन्नी की याद बहुत आ रही थी। हाई स्कूल पास करने के बाद जब उसकी पढ़ाई रुक गयी, वह बेकार हो गया, तो कितना दुखी था। घर में मामूली काम-धाम था, जिसे उसके पिता और बड़े भाई करते थे। मँझले भाई बेकार ही थे। यहाँ उसके लिए कोई काम न था। पिता बार-बार कहते थे, वह कोई नौकरी ढूँढ़ ले। बेकार रहकर कब तक भार बना रहेगा? अचानक ऐसी परिस्थिति के चक्कर में पडक़र जैसे उसके होशो-हवास ही गुम हो गये थे। वह बिलकुल चुप और उदास हो गया था। अख़बार में ‘वाण्टेड’ देखकर वह अजिऱ्याँ देता और इन्तज़ार करता, लेकिन कहीं से कोई जवाब न आता और वह और चुप और उदास और निराश हो जाता। हाई स्कूल उसने प्रथम श्रेणी में पास किया था, लेकिन उसकी कहीं पूछ नहीं थी। एक साल ऐसे ही बीत गया, तो ‘वाण्टेड’ पर से उसका विश्वास ही उठ गया, उसने अजिऱ्याँ देना भी बन्द कर दिया। मन्ने उसकी यह हालत देखता और मन-ही-मन रोता। वह बार-बार सोचता कि क्या वह उसके लिए कुछ नहीं कर सकता? उसके कई रिश्तेदार रेलवे में नौकर थे। चुपके-चुपके वह उनके यहाँ गया था, उनसे मुन्नी के लिए कोशिश करने को कहा था, लेकिन उसका भी कोई नतीजा न निकला था। दरअसल उन्होंने उस हिन्दू लडक़े में कोई दिलचस्पी न ली। उनका कहना था कि हज़ार-पाँच सौ वह ख़र्च करे, तो शायद कुछ बन जाय। उनका ख़याल था कि भले मुन्नी के घरवालों के पास पैसा न हो, मन्ने के पास है और वह अपने दोस्त के लिए ख़र्च कर सकता है। उन्हें क्या मालूम कि मन्ने की स्थिति क्या है।

और इसके बाद बहनों की शादी का झमेला खड़ा हो गया और मन्ने कुछ दिनों के लिए मुन्नी को बिलकुल ही भूल गया। इन झंझटों से पार हुआ तो जुलाई आ गया। बाबू साहब उसे कॉलेज भेजने की तैयारी करने लगे, लेकिन वह ख़ुद ही हैरान था कि कैसे क्या होगा। शादियों में वह तीन-चार हज़ार का ऋणी हो गया था। बाबू साहब ने कहाँ से इस ऋण का प्रबन्ध किया था, उसे नहीं मालूम, लेकिन उसे मालूम था कि यह ऋण उसे ही भरना है। उसने यह बात बाबू साहब से कही तो उन्होंने कहा-आप इसकी चिन्ता न करें, सब हो जायगा। आपकी ज़मीन-ज़मींदारी की ही आमदनी से धीरे-धीरे यह क़र्जा पट जायगा। अब बस आपकी पढ़ाई का ही ख़र्चा रह गया है, घर में तो कोई ख़र्च है नहीं, बुआ और एक बहन के खाने-पीने से कहीं अधिक तो घर की खेती से आ जाता है। जो हो, अभी आपका काम यह-सब देखना नहीं है, आप अपना ध्यान बस पढ़ाई में लगाइए।

मन्ने के मन में आया कि वह बाबू साहब से मुन्नी के बारे में कोई बात करे, लेकिन वह कर न सका। एकाध बार उसके मन में उठी कि क्यों न कुछ खेत बेच दे, लेकिन यह बात सोचना भी जैसे उसे अपराध लगा। सारे गाँव में किरकिरी हो जायगी। मन्ने की हालत ख़राब है, वह खेत बेंच रहा है! सारी साख हवा हो जायगी। हर तरफ़ से उसकी ओर उँगली उठेगी।

नहीं, बाबू साहब उसका यह प्रस्ताव किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे।

फिर भी उसने मुन्नी से कहा-मेरे साथ इलाहाबाद चलो।

मुन्नी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया-मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा?

मन्ने ने कहा-और कुछ नहीं, तो इतना तो है ही कि वह बड़ी जगह है, शायद वहाँ तुम्हें कोई काम मिल जाय।

-ख़र्च के लिए पैसा कहाँ है?-मुन्नी ने पूछा।

-तुम उसकी चिन्ता मत करो, वहाँ मेरे साथ रहना।-सहमते हुए मन्ने ने कहा।

-नहीं, यह कैसे हो सकता है?

-क्यों नहीं हो सकता? मेरे साथ रहने में तुम्हें क्या आपत्ति हो सकती है?

-कहीं भी बेकार क्यों रहा जाय?

इस पर मन्ने क्या कहता? मन्ने के पास अपने पैसे का बल रहता, तो शायद वह कहता, क्या मेरा पैसा तुम्हारा नहीं? तुम चलो और कॉलेज में नाम लिखाओ। लेकिन उसके पास पैसा था कहाँ? फिर भी उसने कहा-मैं चाहता हूँ कि जब तक तुम्हें कोई काम न मिले, तुम मेरे साथ रहो।-मन्ने के मन में कहीं कुछ कचोट रहा था, वह इसी कचोट के कारण अधिक नहीं तो कुछ भी करना चाहता था। मित्र के प्रति अपने कत्र्तव्य का पालन वह न कर पा रहा था, उसके लिए जिस त्याग की आवश्यकता थी, उसे पूरा करना उसके बस की बात न थी। फिर भी इस कत्र्तव्य का ज्ञान उसे था और वह इस ज्ञान को, जैसे भी हो, बहलाना चाहता था। वह सोचता था, शायद आगे कोई रास्ता निकल आये।

मुन्नी ने कहा-यों तुम्हारे साथ रहने में मुझे ख़ुशी ही होती। लेकिन मैं सोचता हूँ कि अब हमारा साथ-साथ रहना नहीं हो सकता। मेरा रास्ता अलग है, तुम्हारा अलग। ये रास्ते शायद अब कभी भी एक-दूसरे से न मिलें!-उसका गला भर आया-शायद इतने दिनों तक ही हमारा साथ था। ऐसा हम कब सोचते थे, लेकिन यह जि़न्दगी बड़ी कठोर है, किसको कहाँ ले जाकर फेंक देगी, कौन जाने!

मन्ने की आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे। भावावेश में वह बोला-नहीं, यही सोचकर हम एक साथ रहने की कोशिश तो नहीं छोड़ देंगे! तुम मेरी एक बात, सिर्फ़ एक बात मान लो, तुमने कभी भी मेरी कोई बात नहीं टाली, आज सिर्फ़ एक बात मेरी मान लो, तुम मेरे साथ इलाहाबाद चलो!

-उसके बाद?-मुन्नी ने जैसे कठोर होकर कहा-जो परिस्थिति मेरे सामने दिखाई देती है, उससे मैं आँखें कैसे मूँद लूँ?

-आगे जो होगा, देखा जायगा। इस समय तो मैं सिर्फ़ एक बात के लिए तुमसे कह रहा हूँ!-मन्ने उसी आवेग में बोल रहा था।

-तुम्हारे पास पैसा है, शायद तुम परिस्थति पर क़ाबू पा सकते हो, लेकिन मैं...-मुन्नी मन्ने का उड़ता रंग देखकर अचानक चुप हो गया।

मन्ने के दिल पर जैसे कोई भारी चोट लगी। उसने आज तक मुन्नी से यह न बताया था कि उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है। उसके जी में आया कि अभी वह सब-कुछ बता दे, लेकिन फिर कुछ सोचकर वह इस विषय में चुप ही रहा। लोगों की तरह मुन्नी का भी ऐसा सोचना स्वाभाविक ही है। मुन्नी का यह ख़याल वह क्यों तोड़े? उसे अपना ही क्या कम दुख है, जो वह अपना भी उसके में जोड़ दे। उसे कम-से-कम अपनी ओर से तो आश्वस्त रहने दे कि उसे कोई तकलीफ़ नहीं, उसके पास पैसा है। ...एक पीड़ा उसके मन में हँस उठी। फिर भी वह बोला-अगर मेरे पास पैसा है, तो उसे तुम अपना ही समझो। जो हो, तुम इलाहाबाद मेरे साथ चलो!-मन्ने को अब जैसे ज़िद हो गयी। वह अन्धा हो चुका था।

मुन्नी ने कोई छुटकारा न देखा, तो उसका मन रखने के लिए कह दिया-मैं कोशिश करूँगा।

मुन्नी ने अपनी माँ से इलाहाबाद जाने की बात कही। बाप से कहने की उसमें हिम्मत न थी। माई ने कैसे उसके लिए पच्चीस रुपये का इन्तज़ाम कर दिया, उसे नहीं मालूम।

कॉलेज की शानदार इमारत, सैकड़ों लडक़ों की भीड़...खुशी में दमकते उनके चेहरे...और जाने मुन्नी को क्या हुआ कि उसने मन्ने का साथ छोड़ दिया। वह जाने कहाँ-कहाँ बिना जाने-समझे दिन-भर शहर में मँडराता रहा। शाम को थका दिल-दिमाग़ लिये वह लौटा, तो मन्ने को फाटक पर ही इन्तज़ार में खड़ा पाया।

देखते ही मन्ने बोला-तुम कहाँ चले गये थे?

मुन्नी ने अपना सवाल किया-सब हो गया?

-हाँ, हास्टल में कमरा भी मिल गया।

-तो कमरे में ही चलो।

कमरे में चार चारपाइयाँ पड़ी थीं। प्रश्न की दृष्टि से मुन्नी ने मन्ने की ओर देखा, तो वह बोला-फ़स्र्ट इयरवालों को इसी हास्टल में जगह मिलती है, यह फोर सीटेड कमरा है। पता नहीं और तीन कौन होंगे। ...हाँ, यह तो बताओ, दिन में तुमने खाना...

-मैं तो इस वक़्त भी खाना खाकर आया हूँ,-मुन्नी ने कहा।

-ऐसा तुमने क्यों किया? मैं तो तुम्हें खोजता रहा...

-देखो, तुम मुझसे इस तरह का कोई सवाल न पूछोगे! मैं तुम्हारा कोई मेहमान नहीं हूँ!-मुन्नी ने कठोरता से कहा।

मन्ने अवाक्, जरा देर बाद बोला-ऐसा तुम क्यों कहते हो?

-मैं बिलकुल ठीक कह रहा हूँ। मेरे चक्कर में तुम बिलकुल न रहो। मैं कोई बच्चा नहीं हूँ। तुम अपना काम देखो।-उसी लहजे में मुन्नी बोला।

-यह क्या हुआ है तुम्हें?-चकित मन्ने ने पूछा।

-कुछ नहीं हुआ है,-जो मुन्नी के मन पर आज ग़ुज़री थी, वह कोई बताने की चीज़ न थी। फिर सहसा वह सम्हल गया। यह क्या कर रहा है वह? बोला-अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ रहूँ, तो जैसे मैं चाहूँ रहने दो।

मुन्नी को यह अचानक क्या हो गया, मन्ने के लिए समझना मुश्किल था। इस तरह का व्यवहार तो उसने कभी भी न किया था। मन्ने का मुँह लटक गया। वह ख़ामोश हो गया।

मुन्नी निखहरे पलंग पर लेट गया। मन्ने सिर झुकाये बैठा रहा। ख़ामोशी छायी रही।

एक महीने तक यह ख़ामोशी न टूटी। मुन्नी की हालत देखने लायक़ हो गयी थी। दाढ़ी बढ़ी हुई, मुँह लटका हुआ आँखों में उदासी, चिन्ता और निराशा। वह कोई बात न करता। जाने दिन-भर कहाँ रहता। शाम को वापस आता तो एक-न-एक किताब साथ लाता और रात में देर-देर तक पढ़ता रहता और फक-फक बीड़ी खींचता। मन्ने का मन कटता रहता। उसकी हालत देखकर वह अन्दर-ही-अन्दर रोता, लेकिन कुछ कहने की, पूछने की उसकी हिम्मत न होती। शाम को वह उसका इन्तज़ार करता रहता, आता तो कहता, चलो खाना खा लो।

मुन्नी कहता-मैं खाना खाकर आया हूँ।

और फिर ख़ामोशी छा जाती।

मुन्नी सुबह नहा-धोकर जाने लगता, तो मन्ने नाश्ते के लिए पूछता। मुन्नी उसकी ओर एक क्षण के लिये देखता और कहता-नाश्ता मैं नहीं करता-फिर अपने हाथ की किताब उसकी ओर बढ़ाकर कहता-यह किताब पढ़ोगे?

मन्ने किताब ले लेता और मुन्नी चला जाता।

वे किताबें एंगिल्स, माक्र्स, लेनिन या स्तालिन की हुआ करतीं। एक दिन उसने देखा, तो एक किताब पर ‘यूथ लीग स्टडी सर्किल’ की मुहर लगी थी। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि वह वहाँ जाय और देखे कि वह कैसी संस्था है, जहाँ मुन्नी जाता है और जहाँ से ऐसी-ऐसी किताबें लाता है।

लेकिन उसी दिन शाम को जब मुन्नी लौटा, तो बोला-मैं कल जा रहा हूँ।

-कहाँ?-मन्ने ने चकित होकर पूछा।

-मद्रास।

-क्यों? क्या बात है, मुझे बताओ, इतनी दूर...

-वहाँ एक नौकरी मिल गयी है।

-कैसी नौकरी!

-‘समाज सेवा आश्रम’ नामक वहाँ कोई संस्था है, हिन्दी पढ़ाने का काम है। वेतन मिलेगा तीस रुपया।

-तीस रुपया और मद्रास?

-नौकरी नहीं है, कहते हैं, सेवा है, समाज की सेवा, राष्ट्रभाषा की सेवा!-और मुन्नी ज़ोर से ठहाका लगाकर हँस पड़ा।

बहुत दिनों के बाद वह हँसा था। मन्ने को ऐसा लगा, जैसे कोई बुत अचानक हँस पड़ा हो। वह उसकी ओर आश्चर्य से देखता रहा।

-इस तरह क्या देखते हो? मैं आज ख़ुश हूँ। चलो, आज साथ-साथ खाना खाएँगे। कहते हैं, ऐसा सेवा-कार्य, जिसमें उदर-पोषण की भी व्यवस्था हो, किसी को सौभाग्य ही से मिलता है!-और वह फिर हँस पड़ा।

लेकिन खाना उन दोनों में से किसी से भी न खाया गया। उठकर कमरे में चले आये।

मन्ने ने कहा-तो कल ही चले जाओगे?

-हाँ, टिकट और राह-ख़र्च मिल गया है।

-माँ-बाप से मिलने घर नहीं जाओगे? इतनी दूर जा रहे हो...

मन्ने सोचता था, माँ-बाप इस मामूली नौकरी पर उसे इतनी दूर न जाने देंगे।

-नहीं, अब तो सीधे मद्रास जाना है।

-सुनेंगे तो वे क्या सोचेंगे?

-कुछ नहीं सोचेंगे। बल्कि ख़ुश ही होंगे, कुछ तो काम कर रहा हूँ!

-नहीं, तुम मिलकर जाओ, जाने फिर कब आना हो।

मुन्नी को भी इसका ख़याल था, लेकिन उसे डर भी था कि कहीं वे उसे रोक न लें और अब वह रुकनेवाला न था। बोला-इन बातों में क्या रखा है? ...पिछले कुछ महीनों के अनुभवों ने मुझे ऐसी कठोर धरती पर ला पटका था कि हर चीज़ से मेरी आस्था ही उठी जा रही थी। दोस्त, माँ-बाप, भाई-बहन...संसार, संसार के रिश्ते, जीवन, जीवन के आदर्श...जैसे सब-कुछ थोथे हों, कहीं कुछ न हो। एक मैं अकेला था, जंगल के अन्धकार में घिरे हुए एक मुसाफ़िर की तरह, जिसे कोई रास्ता न मिल रहा हो। चीख़ना बेकार था, क्योंकि कोई सुननेवाला न था। आँखों के सामने छाया हुआ अन्धकार, लगता था, जैसे अब मुझे लीलकर ही दम लेगा! ...ओह, बेकारी कितना बड़ा अभिशाप है! यह इन्सान को मुर्दा बना देता है! ...यह अच्छा हुआ कि मैं तुम्हारे कारण यहाँ आ गया। उस संयोग को भी मैं कभी न भूलँगा, जिससे यूथ लीग से मेरा सम्पर्क हुआ। उसका मन्त्री बहुत ही अच्छा आदमी है। वह मुझे पढऩे को किताबें देता था, मुझसे बातें करता था। किताबें पढऩे और उसकी बातों से ही अपनी परिस्थिति का ज्ञान मुझे हुआ, मुझे मालूम हुआ कि यह जंगल क्या है, यह अन्धकार क्या है, और मैं क्यों यहाँ घिर गया हूँ। मुझे मालूम हुआ कि यह जंगल बहुत बड़ा है, यह अन्धकार चारों ओर फैला हुआ है और यहाँ लाखों-करोड़ों लोग मेरी ही तरह घिरे हुए हैं। इन लाखों-करोड़ों को, जो अलग-अलग घिरे हुए हैं और जो यह समझे हुए हैं कि वे अकेले ही हैं, अगर यह अहसास हो जाय कि वे लाखों-करोड़ों हैं, जिनकी स्थिति एक है, जिनका मार्ग, मुक्ति-मार्ग एक है, लक्ष्य एक है और वे अपना हाथ बढ़ाकर एक-दूसरे का हाथ थाम लें और आगे बढ़ें तो यह जंगल साफ़ हो सकता है, यह अन्धकार दूर हो सकता है, यह परिस्थिति बदली जा सकती है...अपने ही जैसे लाखों-करोड़ों का अहसास...तुम समझ सकते हो, यह कितनी बड़ी शक्ति है...जैसे अकेले अपने में ही करोड़ों की शक्ति का अहसास...यह एक ऐसी किरण है, जिससे सूरज की आँखें भी चौंधिया जायँ! ...उसी मन्त्री ने मेरी इस नौकरी की व्यवस्था की है। सुनकर मुझे हँसी आये बिना न रही। सोचकर मुझे अब भी हँसी आती है। लेकिन उसने कहा, यह तो एक आवश्यक आधार है, जनता और काम कहाँ नहीं हैं। तुम जाओ! सेवा-कार्य और उदर-पोषण हमारी व्याख्या नहीं है, वह तो उनकी है, जिन्होंने आदमी माँगा है और जो चाहते हैं कि इस सुनहरी व्याख्या से आदमियों के दिलों में लगी हुई आग बुझ जाय। फिर भी उसका उपयोग तो हम अपने ही क्षेत्र की तरह करेंगे।

गाड़ी के समय से कुछ पहले ही वे स्टेशन पहुँच गये। थोड़ी देर तक वे ख़ामोश प्लेटफ़ार्म के शोर में टहलते रहे। फिर अचानक मुन्नी को जाने क्या हुआ कि वह बोला-मैं घर होकर ही जाऊँगा। चलो, टिकट बदल लें।

मन्ने की समझ में मुन्नी की बहुत-सी बातें आज न आ रही थीं। एक ऐसी ही बात यह भी थी। मन्ने के दिल-दिमाग़ में तो आज एक ही बात गूँज रही थी, मुन्नी जा रहा है, दूर, बहुत दूर! जाने फिर कब मिले, मिले, न मिले...वह अपनी बातें ही लिये हुए गोता लगा रहा था, मुन्नी की बातें उसकी समझ में कैसे आतीं!

लेकिन उसने उसकी यह बात सुनी तो जैसे उसका सिर धारा से ऊपर आ गया। एक आशा की कौंध से उसकी आँखें चमक उठीं। बोला-मैंने तो कितनी बार कहा...

-क्या करें, मन नहीं मानता। यह मन...और वह चुप हो गया, जैसे आगे की बात कहने के लिए भाषा में शब्द ही न हों और उसने बढक़र बेंच पर से अपना तह किया हुआ दरी-तकिया उठा लिया।

घर से उसका एक संक्षिप्त पत्र आया। उसकी एक-एक बात मन्ने को आज भी याद है :

...सुनकर बाबूजी ने आँख न मिलायी।

कल चला जाऊँगा।

आज शाम को बाबूजी फूट पड़े-यह तो वही हुआ न, जैसे दशरथजी ने राम को बन भेज दिया! ...

माई की मैं क्या लिखूँ...

पढ़े फ़ारसी बेंचे तेल, देखो जी क़ुदरत का खेल!

गाँव के हर आदमी की ज़बान पर यही फ़िक़रा था। जब भी किसी की नज़र मन्ने पर पड़ जाती, अनायास यह फ़िक़रा उसके होंठों पर आ जाता। मन्ने सुनता तो मन-ही-मन झुँझला उठता। बाबू साहब सुनते तो मन-ही-मन कटकर रह जाते। मन्ने ने कब सोचा था कि इतना पढ़-लिखकर भी आख़िर उसे गाँव में ही सडऩा पड़ेगा, सब पढऩा-लिखना बेकार हो जायगा। बाबू साहब ने कब सोचा था कि मन्ने की यह गति होगी। उन्होंने तो सोचा था, उनकी तो जीवन की सबसे बड़ी साध थी कि मन्ने पढ़-लिखकर एक दिन कोई बड़ा अफ़सर बनेगा, किसी शहर में शानदार बंगले में रहेगा, मोटर पर चढ़ेगा, बड़ा रोब होगा, बड़ा रुतबा होगा, बड़ा मान होगा, बड़ी ठाठदार ज़िन्दगी होगी। लोग देखेंगे, तो अदब से सिर झुकाएँगे। चारों ओर प्रशंसा होगी। चारों ओर से बड़े-बड़े खानदानों से उसकी शादी के रिश्ते आएँगे। बड़ी धूम-धाम से उसकी शादी होगी। बाबू साहब साफ़ा बाँधकर, हाथी पर चढक़र, अल्लम-बल्लम, बाजे-गाजे और अतिशबाज़ियों के साथ बारात के आगे-आगे, मन्ने के पिता की तरह जाएँगे और लौटने पर मन्ने से कहेंगे-बेटा, अब तुम्हारा सब-कुछ ठीक हो गया। तुम अफ़सर बन गये, तुम्हारी शादी हो गयी, तुम्हारी ज़िन्दगी सुधर गयी, तुम्हारा भविष्य सँवर गया। अब मेरे करने को कुछ भी शेष न रह गया। अब मुझे छुट्टी दो, कुछ राम-भजन करूँ। ...-बाबू साहब उस अवसर पर मन्ने को सदा की तरह आप न कहकर तुम कहेंगे और बेटा कहकर पुकारेंगे!

और मन्ने ने सोचा था कि पढ़-लिखकर जब उसे कोई अच्छी नौकरी मिल जायगी, तो वह बाबू साहब से कहेगा-अब्बा, मैं जो-कुछ बना हूँ, आप ही ने बनाया है। आपने मेरे लिए जो-कुछ किया है, उसे मैं एहसान का नाम दूँ, तो मेरे-जैसा कोई नाअहल बेटा नहीं। अब मैं अपने पैरों पर खड़ा हो गया। आपकी कृपा से अब मुझे कोई कमी नहीं। अब आप इस ज़मीन-जायदाद को अपना ही समझिए, इससे मेरा कोई मतलब नहीं। आपने मुझे जो दिया है, वही मेरे लिए ज़रूरत से ज़्यादा है। अब्बा, ना न कीजिए! मैं आपको कुछ दे रहा हूँ, ऐसा न समझिए। आपके ऋण से जीवन-भर मैं उऋण न हो पाऊँगा! ...मन्ने सदा की तरह इस अवसर पर उन्हें बाबू साहब न कहकर अब्बा कहेगा और उनके चरणों की रज माथे से लगाएगा।

लेकिन वह अवसर ही न आया। दोनों ताकते-के-ताकते रह गये। घटनाएँ कुछ इस तरह घटीं कि दोनों की आशाएँ मिट्टी में मिल गयीं।

कोई ऐसा दिन न जाता, जब मन्ने एक-न-एक बार अपने अतीत को स्मरण न करता। यह कुछ वैसा ही था, जैसे कोई रोगी अपने बिस्तर पर पड़ा-पड़ा अपने स्वास्थ्य के दिनों को याद करता है और बराबर यह सोचने का प्रयत्न करता है कि कब और कैसे वह इस रोग के चंगुल में फँस गया।

मन्ने को याद आता है...इण्टरमीडिएट के पहले वर्ष के अन्त में कॉलेज-पत्रिका का वार्षिक अंक निकला था। उसमें सबसे दिलचस्प जो चीज़ थी, वह यह कि दूसरे वर्ष के छात्रों और पहले वर्ष के कुछ प्रमुख छात्रों को उपाधियाँ मिली थीं। इस सूची में मन्ने का भी नाम था। उसे उपाधि मिली थी ‘हिन्दी-उर्दू के बीच की कड़ी’।

दूसरे वर्ष के अन्त में पत्रिका के वार्षिक विशेषांंक में उसे उपाधि मिली थी, ‘साहित्य : मेरा भविष्य!’

बी०ए० के प्रथम वर्ष में उसे ‘भावी नेता’ की उपाधि मिली थी और दूसरे वर्ष में ‘उज्ज्वल भविष्य’ की। एम.ए. प्रथम वर्ष में उसे ‘महान् पार्लियामेण्टेरियन’ की उपाधि मिली थी और दूसरे वर्ष...दूसरे वर्ष की कहानी बड़ी दर्दनाक है...शायद वहीं, शायद वहीं मन्ने इस रोग के चंगुल में फँसा था...लेकिन नहीं, शायद उससे पहले, बहुत पहले ही रोग का एक कीटाणु...

इण्टरमीडिएट दूसरे वर्ष की परीक्षा देकर वह गर्मी की छुट्टियों में घर आया था। तीन-चार दिन तक तो वह ख़ूब सोया, दिन सोया, रात सोया, जैसे महीनों से वह सोया ही न हो, हरदम उसकी आँखों में नींद भरी रहती। जब परीक्षा के कड़े परिश्रम की थकान मिटी, होश-हवास दुरुस्त हुए, तो उसके ध्यान में आया कि बाबू साहब कुछ उदास हैं, उखड़े-उखड़े-से मालूम होते हैं। इस बीच वह उनसे कई बार मिला था, लेकिन कोई विशेष बात न हुई थी, उनकी ओर उसने ध्यान से देखा भी न था। बाबू साहब ने भी हर बार यही कहा था-आप आराम कर लीजिए, फिर बातें होंगी। आप बहुत थके हुए मालूम होते हैं।

खण्ड के जिस कमरे में अब्बा की चारपाई पड़ी रहती थी, वह बहुत ही छोटा और बिलकुल किसी किसान की कोठरी की तरह था। मन्ने जब भी छुट्टियों में घर आता था, इसी कमरे में, अब्बा की चारपाई पर ही बैठकर ज़मीन-जायदाद का काम देखता था। जो कोई मिलने आता, उसी कमरे में वह उससे मिलता। मन्ने के पास आने-जाने वालों की संख्या काफ़ी थी। दूर-दूर से स्कूल या कालेज के साथी उससे मिलने आते, रिश्तेदारों में तो बराबर कोई-न-कोई आता ही रहता। कानूनगो, थानेदार या पटवारी उस हलक़े में आते, तो उसी के यहाँ ठहरते, गाँव के लोग और असामी वग़ैरह तो थे ही। मन्ने सबकी ख़ातिर करता, सबसे बातें करता। सब उसकी मिलनसारी और मधुरता की प्रशंसा करते।

बाबू साहब ने देखा कि यह कमरा अब मन्ने के लायक़ नहीं रहा। मियाँ की बात दूसरी थी, वे किसी से मिलना-जुलना ज़्यादा पसन्द न करते, कभी-कभार ही उनके पास कोई दिखाई देता। रिश्तेदारों से भी वे कोई ख़ास मतलब न रखते थे। लेकिन अब वैसा न था। मन्ने जब तक रहता, एक भीड़-सी लगी रहती। गाँव के लोगों का ही नहीं रिश्तेदारों और उसके सभी परिचितों का ख़याल था कि मन्ने बहुत पैसेवाला है, शायद यही कारण हो कि लोग उससे उसी तरह चिपटे रहते थे, जैसे गुड़ के ढेले से चींटे।

जो हो, लेकिन बाबू साहब ने उस कमरे की बग़ल में, सामने का हिस्सा तोड़वाकर एक अच्छा-सा कमरा बनवा दिया था। सामने एक दरवाजे के दोनों ओर बड़े-बड़े जँगले और आँगन में खुलता एक दरवाज़ा। एक अच्छा पलंग, एक बढिय़ा तख़्त, चार कुर्सियाँ और दो स्टूल भी उस कमरे के लिए उन्होंने बनवा दिये थे।

बाबू साहब चाहते थे कि गर्मियों की छुट्टी में मन्ने के आने के पहले ही यह कमरा मुकम्मिल हो जाय, लेकिन आख़िरी समय, जब दीवारों पर करनी चलनी थी, एक ऐसी बात हो गयी कि वह काम रह ही गया, बाबू साहब की दिलचस्पी जैसे अचानक ही जाती रही। वे खिन्न हो उठे।

सुबह का समय था, उसी कमरे में पलंग पर मन्ने बैठा था और सामने के तख़्त पर बाबू साहब।

मन्ने ने कहा-बाबू साहब, यह कमरा आपने बनवा दिया, बहुत अच्छा किया। बैठने-उठने के लिए एक कमरे की बहुत ज़रूरत थी।

बाबू साहब सिर झुकाये ख़ामोश बने रहे।

मन्ने ने थोड़ी देर तक बोलने का इन्तज़ार किया, उन्हें ध्यान से देखता रहा। फिर दीवारों को देखते हुए बोला-बस, एक ही काम इसमें बाक़ी रह गया है। करनी चल जाय और सफ़ेदी हो जाय, तो कमरा हँस उठे। फिर अब्बा के कमरे में जो सुभाषित लगे हुए हैं, उन्हें इसी कमरे में लाकर टाँग दूँ।

बाबू साहब वैसे ही चुप्पी साधे रहे।

मन्ने को अबकी उनकी चुप्पी खटकी। उसने उनके चेहरे से भाँपने की कोशिश की, लेकिन किसी बात की सुनगुन हो, तब तो कुछ समझ में आये। वह फिर बोला-यह दो दिन में तो हो जायगा न, बाबू साहब? आप यह भी करा दीजिए।

अबकी सिर नीचे किये ही बाबू साहब बोले। उनके स्वर में एक अजनबीपन, एक खीज की गन्ध-सी थी-अब तो आप आ ही गये हैं, करा लीजिए।

बाबू साहब की यह बात! तीन बरसों के साथ में यह पहली बार बाबू साहब के मुँह से ऐसी बेलस की बात निकली थी। मन्ने एकदम सन्नाटे में आ गया। वह बड़ी देर तक अनबूझ आँखों से बाबू साहब का झुका चेहरा देखता रहा। लेकिन बाबू साहब ने अपनी आँखें न उठायीं। उनका नथुना फडक़-सा रहा था। आख़िर मन्ने जैसे अबस होकर बोला-बाबू साहब!-और आगे बोलने के लिए जैसे उसके पास कोई शब्द ही न हो, उसका गला बैठ गया।

बाबू साहब ने अबकी सिर उठाया, लेकिन मन्ने से जैसे वे आँख ही न मिलाना चाहते हों। रूखे स्वर में बोले-भर पाये बाबू साहब!

कोई बहुत ही गम्भीर बात है, वर्ना बाबू साहब इस मुद्रा में! उनके मुँह से ऐसी बात! जिन बाबू साहब ने उसे पुत्रवत् समझकर, उससे बड़े होकर भी कभी उसे आज तक तुम कहकर नहीं पुकारा; जिन बाबू साहब का साया उसके सिर पर न होता, तो जाने आज वह क्या होता; जो बाबू साहब सदा उसके उज्ज्वल भविष्य के सपने देखते रहते हैं; जो बाबू साहब उसे लेकर ही अपना घर-द्वार, काम-काज त्यागकर उसके द्वार पर धूनी रमाये बेठै हैं, वही, बाबू साहब आज ऐसी बात कहें, ऐसे स्वर में! ज़रूर कोई बहुत ही गम्भीर बात हुई है, कुछ अनहोनी घटी है।

अब मन्ने के सिर झुकाने की बारी थी, जैसे उसी से कोई अक्षम्य अपराध हो गया हो। आँखें नीचे गाड़े ही मन्ने काँपते स्वर में बोला-आपको अब्बा की सौगन्ध! बाबू साहब, पूरी बात कहिए! अगर मुझसे कोई ग़लती हुई हो...अगर मैंने आपकी शान के ख़िलाफ़ कुछ कहा-किया हो...

-आप करें या आपके असामी, उसमें क्या फ़र्क पड़ता है?-तेज़ आवाज़ में जैसे बाबू साहब फट पड़े-आपका काम क्या हमने इसलिए सम्हाला है कि भर-चमार भरे बाज़ार में मेरा पानी उतारें?

-क्या हुआ? किसने आपका अपमान करने का साहस किया?-बात समझते ही मन्ने की पस्ती जाती रही। वह तैश में आकर बोला-आपका अपमान मेरा अपमान है, बल्कि मेरे अब्बा का अपमान है! किसकी शामत आयी है, आप बताइए तो! मैं तो ख़्वाब में भी नहीं सोच सकता कि मेरा कोई भी आदमी आपसे आँखें तक मिलाने का साहस करेगा! ...बाबू साहब, मुझे दुख इस बात का है कि आप अब तक ख़ामोश क्यों रहे, आपने उस कमबख़्त को ज़िन्दा क्यों छोड़ा? आप मेरे अब्बा की जगह पर हैं, अब्बा की सारी ताक़त आपके हाथ में है। मुझे बेहद अफ़सोस है कि आप ख़ुद मुझसे यह बात कहते हैं! बताइए, वह कौन बदमाश है, उसने कौन-सी बेहूदा हरकत की है?

बाबू साहब का चेहरा सुर्ख हो रहा था, ग़ुस्से के मारे उनके नथुने फडक़ रहे थे, आँखें उबल-सी रही थीं। बोले तो जीभ लटपटा रही थी।

मन्ने की पढ़ाई के ख़र्च के लिए अब्बा के वक़्त ही से बीस मातबर, ख़ैरख़्वाह, स्वामीभक्त असामी चुनकर रख छोड़े गये थे। अब्बा के रजिस्टर में एक खास जगह उनके नामों की सूची थी और उनमें से हर एक के बारे में नोट लिखे हुए थे, जिनमें उनकी ख़ैरख़्वाही और मातबरी का वर्णन किया गया था कि ये खास आदमी हैं, इनके साथ पुश्तों के ताल्लुक़ात हैं, ये हमेशा वक़्त पर काम आते हैं, इनका बराबर ख्याल रखा जाय और जब भी, जो भी ज़रूरत इन्हें पड़े, इनकी हर तरह मदद की जाय, इन्हें हमेशा अपना आदमी समझा जाय और इनके साथ अपनों-सा व्यवहार किया जाय।

इनमें से हर आदमी के आगे महीने के नाम लिखे थे और रुपये की एक रक़म लिखी थी।

बाबू साहब का अब तक का अनुभव था कि जब जिस असामी की बारी आती, वह उस महीने की पहली तारीख़ को अपनी रक़म बाबू साहब के यहाँ आप ही जमा कर जाता और बाबू साहब दूसरे दिन वह रक़म मन्ने को मनीआर्डर कर देते। इसमें कभी कोई दिक्क़त पेश न आती, कभी कोई व्यवधान न पड़ता, जैसे हर असामी इसको अपना सबसे बड़ा और पहला फ़र्ज़ समझता हो और उसे पूरा करना सबसे अधिक आवश्यक। अब्बा का यह पक्का इन्तज़ाम मन्ने की पढ़ाई की गारण्टी था और यह इस तरह चलता था कि किसी ग़ैर को या गाँव के दूसरे लोगों को इसका बिलकुल पता न था।

मई की पहली तारीख़ को जमुना भर की बारी थी। बाबू साहब कमरा बनवाने में रात-दिन एक किये हुए थे। दस मई को मन्ने आने वाला था। बाबू साहब की उत्कट इच्छा थी कि उसके आने के पहले वह कमरा बिलकुल तैयार हो जाय।

शाम हो गयी, तो उन्हें एकाएक ख़याल आया कि आज पहली तारीख़ है और रुपया नहीं आया। रुपया तो सुबह ही आ जाना चाहिए था, ऐसा ही हमेशा से होता आया है। क्या बात हुई कि आज रुपया अभी तक नहीं आया? वे चिन्तित हो उठे। उन्होंने मज़दूरों को छुट्टी दी, कल के लिए ताक़ीद की और खण्ड के सहन में ही चारपाई डालकर बैठ गये।

बिलरा गगरे में पानी भरकर लाया और बाबू साहब से नहा लेने के लिए कहा।

बाबू साहब ने कहा-अभी ज़रा रुक जा। एक आदमी का इन्तज़ार है।

बाबू साहब के हाथ में पैसा नहीं। यह दौनी का समय था, किसान खलिहान उठने पर ग़ल्ला बचेंगे तो लगान की वसूली शुरू होगी, तब पैसा-ही-पैसा हो जायगा।

जमुना की बारी है, वह मातबर आदमी है। कभी आज तक उसने गड़बड़ नहीं की। अबकी उसे क्या हो गया? कहीं भूल तो नहीं गया है? आजकल किसानों का होश कहाँ ठिकाने रहता है, खुले खलिहान में पड़ा धन जब तक घर में न आ जाय, न दिन चैन, न रात नींद।

उन्होंने बिलरा को पास बुलाकर पूछा-जमुनवा गाँव में तो है?

बिलरा भी भटोलिया (भर-टोली) का ही रहनेवाला है। बोला-है तो गाँव में ही। बाकी का बतायी, बेचारा बड़ा परेसान है। एक ही तो लडक़ा है उसके, वह आज पनरह-बीस दिन से बुखार में पड़ा है। बुखार उतरने का नाम ही नहीं लेता, आँख नहीं खुलती, बिलकुल लट गया है। कस्बे के हकीम की दवा करा रहा है। गाँव-कस्बा एक किये है। कई बार हकीमजी आकर देख गये हैं। लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा। दोनों बेकत के चेहरे पर हवाई उड़ रही है। दौनी का बखत है, बड़ी बेकसी में पड़े हैं।

बाबू साहब का माथा ठनका, तभी तो, तभी तो! लेकिन चारा क्या है? बोले-ज़रा उसको बुला तो ला।

बिलरा ने लौटकर बताया-जमुना कस्बा गया है। उसकी औरत से कह आये हैं।

बाबू साहब की चिन्ता बढ़ गयी है। छुट्टी होनेवाली न होती, तो कुछ देर-सबेर भी रुपया जाता। लेकिन अब काम कैसे चलेगा? ...जाने किसका-किसका देना होगा? कहीं जमुना सच ही रुपया न लाया, तो कैसे बनेगा? ...फिर दूसरा ख़याल आया, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। जमुना ने रुपया अलग छोड़ रखा होगा। वह जानता है कि उसका रुपया किस काम आता है। वह ग़फ़लत नहीं कर सकता, वह ज़िम्मेदार आदमी है, कभी उसने धोखा नहीं दिया। ...अगर कोई बात होती, तो ज़रूर कह जाता।

नहा-धोकर वे बड़ी देर तक वहीं चारपाई पर बैठे-बैठे जमुना का इन्तज़ार करते रहे। बैठे-बैठे थक गये, तो अँगौछा सिरहाने रख लेट गये। पुरवा रसे-रसे बह रहा था। दिन-भर की थकी देह अलस रही थी। रह-रहकर आँखें झिप जाती थीं। फिर भी वह ज़रा-ज़रा देर बाद सामने की पगडण्डी की ओर देख लेते थे। किसी के आने की आहट होती, तो तुरन्त उठकर बैठ जाते थे।

जमुना न आया, बिलरा बैलों को नाँदों से उकड़ाकर, सार का दरवाज़ा बन्द कर, बाबू साहब की चारपाई के पास आ ज़मीन पर बैठ गया। बाबू साहब अपने घर चले गये होते, तो वह भी अब खाने-पीने घर जाता। लेकिन अब मालिक के रहते वह कैसे चला जाता? जाने कौन काम पड़ जाय? फिर भी अब बैठना उसे खल रहा था। दिन-भर का थका माँदा, दोपहर को आध सेर सत्तू घोलकर खाया था, भूख चमक आयी थी और पेट में मीठी-मीठी-सी चुभन हो रही थी। काम पूरा हो जाने पर एक मिनट भी रुकना काट खाता है। अभी नहाना-धोना बाक़ी ही था।

बड़ी देर तक बाबू साहब सुगबुगाये नहीं, तो आख़िर वही बोला-मालूम होता है, जमुनवा अभी कस्बे से नहीं लौटा। हकीम-डागदर की बात ठहरी, कहीं मरीज देखने चले गये होंगे और जमुनवा उनकी राह देख रहा होगा। लौटा होता तो अब तक जरूर आ गया होता।

बाबू साहब ने कहा-तू जाकर एक बार और देख आ, काम बड़ा जरूरी है!

कसमसाकर उठते हुए बिलरा बोला-हम तो कहते थे, आप दिन भर के थके-हारे हैं, घर जाकर खा-पीकर आराम करते। जमुनवा जैसे ही लौटेगा, हम उसे आपके घर ही भेज देंगे।

-नहीं, तुम अभी आकर हमें ख़बर दो, फिर जाना। तुम समझते नहीं, कितना ज़रूरी काम है।-बाबू साहब उठकर बैठते हुए बोले-जाओ, देर मत करो।

बिलरा चला गया, तो बाबू साहब फिर लेट गये। उनकी चिन्ता बढ़ गयी थी, फिर भी थकान और नींद के मारे अब वह ठीक तरह से कुछ सोच न पा रहे थे। रात काफ़ी ग़ुजर चुकी थी। हवा तेज़ हो गयी। लोगों की आवा-जाही बन्द हो गयी थी। सार से रह-रहकर बैलों की गहरी-गहरी साँसें फों-फों के स्वरों में सुनाई पड़ जाती थीं। बाबू साहब की नाक कब बजने लगी, उन्हें नहीं मालूम।

बिलरा लौटा, तो बाबू साहब को उस दशा में देखकर उसका सारा क्षोभ जाता रहा। बेचारे थके-हारे, भूखे-प्यासे निखहरी चारपाई पर सो रहे हैं। किसके लिए ये अपनी देह को साँसत में डाले हुए हैं? न हीत-परीत, न कुछ मिलना-न जुलना। अपना घर-बार छोडक़र दूसरे के लिए इस तरह कौन फकीर होता है?

वह बोला-सरकार!

बाबू साहब ऐसे चिहुँककर उठ बैठे, जैसे सोकर उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। खाँसकर बोले-नहीं आया क्या?

-आ गया है। कहा है, कल भोरे मुलाकात करेगा। लडक़े की हालत अच्छी नहीं है। औरत रो रही है।-कहते हुए बिलरा ज़मीन पर बैठ गया।

बाबू साहब ज़रा देर ख़ामोश रहकर बोले-अच्छा, तू जा।

-आप उठें तो चारपाई अन्दर रखके ताला लगा दें,-बिलरा बोला-आपको भी आज बड़ी बेर हो गयी।

-अब आज यहीं सो रहेंगे। देह अलसा गयी है। जाने को मन नहीं करता। हमारी गोजी सिरहाने रख दे, ताला बन्द करके चाभी दे दे।-कहते हुए बाबू साहब फिर लेट गये।

-और खाना-पीना?-बिलरा ने चिन्ता प्रकट करते हुए कहा-ऐसे ही सो रहेंगे का?

-हाँ,-आँख मूँदते हुए बाबू साहब बोले-कुछ खाने-पीने को मन नहीं करता।

-ऐसे ही कैसे सो जाएँगे?-बिलरा ने जोर देकर कहा-कहिए तो दयाल हलवाई के यहाँ से पूड़ी बनवाकर ला दें।

-नहीं, तू अब जा। हम सिर्फ़ सोएँगे। अब कल देखा जायगा।-कहकर बाबू साहब ने करवट बदल ली।

-ई तो अच्छा नहीं लगता, सरकार, कि आप बिना ख़ाये-पिये ही सो जायँ। ...न हो, कुछ मर-मिठाई ही ला दें।

-नहीं, कुछ भी मन नहीं करता। तू जा, हमें सोने दे।

मन मसोसकर बिलरा रह गया। गोजी लाकर सिरहाने दीवार से टिका दी और दरवाजे में ताला लगा, चाभी बाबू साहब के हाथ में थमाकर बोला-तो जायँ?

-हाँ, सुबह ज़रा जल्दी आना। न हो, जमुनवा की ओर से होते आना।

-बहुत अच्छा।

बिलरा चला गया।

बाबू साहब के मन में आया कि खुद वह उसी वक्त जमुना के वहाँ जायँ और समझ लें कि क्या बात है। लडक़ा बीमार है, तो क्या उसके पास यहाँ आने का भी समय नहीं? ...लेकिन फिर यह सोचकर कि जो हो, रात को तो कुछ होगा नहीं। सुबह, जैसा होगा, देखा जायगा। नींद का हमला बहुत तेज़ था। दिमाग़ कुछ काम न दे रहा था। उन्होंने सो जाना ही ठीक समझा।

सुबह की सफ़ेदी अभी धपी ही थी कि बिलरा उठ बैठा। रात उसे अच्छी नींद नहीं आयी थी। रह-रहकर बाबू साहब के बेखाये-पिये सो रहने की बात उसके मन में कसक उठती थी। उसके घर में घी और आटा होता, तो वही पूड़ी छनवाकर बाबू साहब को खिला आता। मोटे, उसिने चावल का भात और अरहर की पतली दाल रात उसके गले में अटक-अटक गयी थी। औरत ने कई बार उससे पूछा था-ई का हुआ है तुम्हें? कौर-कौर पर लोटा-लोटा भर पानी चढ़ा रहे हो?

-कुछ नहीं, अनतिया की माई। ...बाबू साहब आज बेखाये-पिये सो गये।-बिलरा ने न जाने कैसा मुँह बनाकर कहा-बड़ा मोह लगता है। ऐसा बेलौस आदमी हमने नहीं देखा। दूसरे पर अपने को निछावर करना इसी को कहते हैं!

-घर काहे नहीं गये? हमारे यहाँ की रसोई खाते तो...

-अरे, हमारे यहाँ की कच्ची रसोई वह कैसे खाएँगे? घी-आटा होता...

-घी तो सूँघने के लिए भी नहीं है! आटा तो पैंचा माँग भी लाती। ...लेकिन अब तो गाँव में सोता पड़ गया है।

-जाने दो, ई तो मन में एक बात उठी थी। उनको खाना होता तो हमने तो हलवाई के यहाँ से बनवाकर लाने को कहा था। उन्होंने ही मना कर दिया। जाने दे, कभी-कभी ऐसा होता है कि सब-कुछ रहते हुए भी मुँह में दाना नहीं पड़ता।

-जाने किसका मुँह आज देखा था बेचारे ने!

फिर रात-भर बिलरा इसी बात को लेकर अपनी नींद ख़राब करता रहा, इसे क्या कहा जाय! थोड़ी देर पहले ही ज़रा देर होने की सम्भावना देख वह बाबू साहब पर क्षुब्ध हुआ था और उसके थोड़ी देर बाद ही उसका हृदय उनके लिए पानी-पानी हो उठा था। हमारे यहाँ कितने लोग बेखाये-पिये नहीं सो जाते! कौन किसके लिए अपनी नींद ख़राब करता है, दर्द महसूस करता है? बिलरा-जैसे लोगों के लिए तो यह साधारण-सी बात है। बेचारों की ज़िन्दगी में जाने कितने ऐसे दिन आते-जाते रहते हैं। फिर उस छोटी-सी, साधारण बात के लिए बिलरा-जैसे छोटे, साधारण इन्सान को इतनी बड़ी परेशानी क्यों? काश, बाबू साहब भी उसी की तरह छोटे, साधारण इन्सान होते! ...

बिलरा की यह मूक, अप्रकट भावना क्या बाबू साहब-जैसे लोगों तक कभी पहुँचेगी? यह वही बाबू साहब तो हैं, जो उससे काम लेने में ज़रा भी रू-रियायत नहीं करते, उसकी सुविधा-असुविधा का कभी ख़याल नहीं करते, ज़रा-ज़रा में उसे डाँट देना, गाली दे देना तो साधारण-सी बात!

वह उठकर जमुना के पास पहुँचा। जमुना बाहर ज़मीन पर अँगौछा बिछाकर, कमर में धोती लपेटे सोया पड़ा था। गेंडे की तरह मज़बूत, मूरत की तरह सुडौल और सूअर की तरह काला उसका शरीर धरती पर ऐसा लग रहा था, जैसे गड़हे में भैंसा बोह ले रहा हो। सों-सों उसकी नाक बज रही थी।

बिलरा के जी में आया कि वह उसे उसी तरह सोया छोड़ दे। कैसा निश्चिन्त पड़ा है। जाने कब सोया हो!

उसने घर के दरवाजे की ओर नज़र उठायी। एक पल्ला उढक़ा था और दूसरा खुला। अन्दर अन्धकार छाया था। उसने पास जाकर झाँका। खटोले पर लडक़ा शायद सो गया था। नीचे धरती पर उसकी माँ निखरहे नींद में अचेत पड़ी थी।

वह जमुना के पास आकर फिर खड़ा हो गया। हाथ की लाठी को उसने कई बार योंही-सा धरती पर बजाया कि शायद आहट पा जमुना आप ही उठ बैठे। लेकिन जमुना तो मुर्दे की तरह निरभेद पड़ा था। जाने कितने दिनों की उखड़ी नींद आज जमकर आयी थी और जमुना को चित्त कर गयी थी।

बिलरा का मन फिर उसे जगाने को न हुआ। सो लेने दो, जाने नींद टूटने पर फिर उस पर क्या बीते!

आस-पास से लोगों के खँखारने और थूकने की आवाज़ें आने लगी थीं। लोग दिशा-फ़रागत के लिए पोखरे की ओर जा रहे थे। गाँव जाग रहा था। बिलरा को जल्दी बैलों को खिला-पिलाकर तैयार कर खलिहान में ले जाना था। साले आजकल मिचरा-मिचराके सानी-भूसा खाते हैं और दौनी में हबक-हबककर अन्न पर मुँह मारते हैं। जौ और गेहूँ साले खाने को तो जाने कितना खा लेते हैं, लेकिन पचाने के नाम पर छेरना शुरू कर देते हैं। धौरा कितना हरक गया है।

वह तेजी से खण्ड की ओर जा रहा था। सोच रहा था, बाबू साहब जरूर जमुनवा के बारे में पूछेंगे, गया था उसके पास? वह कह देगा, गया था, लेकिन वह घर पर नहीं था, शायद दिसा-फरागत के लिए निकल गया है।

दूर से ही सहन में बाबू साहब टहलते हुए नज़र आये। भूखे पेट नींद जल्दी ही उचट गयी होगी।

वह कतराकर, सार के दरवाजे पर जाकर, खड़ा हो टेंट से चाभी निकालने लगा कि बाबू साहब की आवाज़ आयी-जमुनवा के यहाँ गया था?

-जी, सरकार। वह मिला नहीं, सायद दिसा-फरागत के लिए निकल गया था।

-नाँद भरके, बैलों को लगाके, जल्दी जाकर उसे देख और पकड़ ला।

बाबू साहब की ओर बिलरा ने आँख चुराकर तेज़ निगाह से देखा। बाबू साहब की आवाज़ बड़ी करख़्त थी, झुँझलाहट भी उसमें स्पष्ट थी। सुबह-सुबह, राम-नाम की बेला, बाबू साहब की आँखे लाल हो रही थीं भगवान ख़ैर करे!

बाबू साहब की चिन्ता अब क्षोभ में बदल गयी थी। ख़ाली पेट क्षोभ और ग़ुस्से के कीटाणुओं मंख जाने कहाँ की शक्ति और आग भर देता है। बाबू साहब का तन-मन जैसे फुँका जा रहा था। वे एक बिफरे शेर की तरह जैसे पिंजड़े में चक्कर लगा रहे थे। रह-रहकर उनकी घनी मूँछे काँप-काँप जाती थीं।

-बिलरा अभी तक तेरा सानी-पानी नहीं हुआ? जा, जल्दी उसे पकड़ ला!-बाबू साहब जैसे चीख पड़े।

सुबह हो गयी थी, पछुआ घूम गया था। पगडण्डी पर लोगों की आवा-जाही शुरू हो गयी थी।

बिलरा भागमभाग जमुना के पास पहुँचा। जमुना उठकर बैठा था। बिलरा बोला-चलो, बाबू साहब से मिल लो।

-चलो, हम आते हैं। जरा बेरा तो होने दो।-जम्हुआई लेता जमुना बोला।

-नहीं, अभी चलो!-बिलरा ज़िद करके बोला-बाबू साहब इन्तिजार कर रहे हैं। उनसे बात कर लो, फिर कुछ करना। उनका मिजाज कुछ गरम मालूम देता है।

-गरम तो ज़रूर होगा, मगर हम का करें?-जमुना सिर झुकाकर बोला-हम पर जो पड़ी है, भगवान मुदई को भी न दिखाएँ!

-पता नहीं, का बात है, कल साँझ ही से जमुनवा-जमुनवा ही उन्होंने रट लगा रखी है। चलकर तू मिल ले, मेरी जान छूटे।

-तेरी जान तो छूट जायगी, लेकिन हमारी? का बताएँ, अकल कुछ काम नहीं करती।-उठकर, अँगौछा झाडक़र कन्धे पर रखते हुए जमुना ने कहा-लडक़े की बीमारी ने तो हमारी बधिया ही बैठा दी। खैर, चलो, बाबू साहब से मिल लें। मिले बिना कैसे काम चलेगा।-कहकर उसने दरवाजे की ओर बढक़र अन्दर झाँका और बोला-अभी बेखबर सो रहे हैं। चलो, तब तक हो ही आएँ। जागने पर तो फिर वही टण्टा शुरू हो जायगा।

आगे-आगे जमुना, पीछे-पीछे बिलरा। दोनों के सिर झुके हुए। जमुना का इसलिए कि देखो, का होता है? पहली बार ऐसा मौका पड़ा है और बिलरा का इसलिए कि जाने बेचारे जमुना पर का बीते! बाबू साहब का मिजाज गरम है।

दोनों को दूर से ही देखकर बाबू साहब चारपाई पर बैठ गये। उनकी मनोदशा और भी बिगड़ गयी थी। जमुना की चाल से ही उन्हें शंका हो गयी थी कि दाल में ज़रूर कुछ काला है। चिन्ता, उसके ऊपर भूख और उसके ऊपर क्रोध...और सबके ऊपर यह कि इतना होने पर भी काम बनता दिखाई नहीं देता।

आगे बढक़र बिलरा सिर झुकाये ही सार में घुस गया। जमुना ने सिर झुकाकर और हाथ उठाकर सलाम किया और खड़ा हो गया।

गदहे की तरह निरीह जीव जमुना का चेहरा इस समय देखने लायक़ था। लगता था, जैसे सौ जूते पड़े हों और उसने चुपचाप, खड़े-खड़े, आँख मूँदे सब सह लिया हो। उसका रोआँ-रोआँ गिरा था और आँखें शर्म से, दुख से झुकी थीं, गला सूख रहा था, कोई बात निकल नहीं रही थी।

अब बाबू साहब को कोई सन्देह न रह गया। अब तक वे अन्धे हो चुके थे। आग सहसा भडक़ उठी। कडक़कर बोले-क्या आकर खुत्थ की तरह खड़ा हो गया? तेरा मुँह देखने के लिए बुलाया है क्या?

सूखी, सहमी आवाज़ में, सिर झुकाये ही जमुना बोला-का बताएँ, सरकार! हम बिपदा में पड़ गये, हाथ खाली हो गया है...

-हूँ!-बाबू साहब की आँखों में जैसे खून उतर आया। स्वर में ऐंठ लाते हुए चिल्लाकर बोले-बड़ा मातबर है! बड़ा ईमानदार है! बड़ा इज़्ज़तदार है! ...ऐसा था तो तूने दो-चार दिन पहले आकर क्यों न बताया? अब बाबू के पास तेरा सिर जायगा?-वे क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे। बासी मुँह झाग-झाग हो रहा था।

उनकी बिजली की तरह कडक़ती आवाज़ सुनकर बिलरा दरवाजे पर आ सहमी आँखों से झाँकने लगा। सामने पगडण्डी पर जाने-आनेवाले लोग ठिठक-कर खड़े हो, आँखें फाड़-फाडक़र उधर देखने लगे।

जमुना को जैसे काठ मार गया। ज़िन्दगी-भर की उसकी कमाई जैसे-क्षण भर में लुट गयी हो। उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। अच्छे घोड़े को एक चाबुक और भले आदमी को एक बात! दुख के मारे जमुना का शरीर जैसे पानी-पानी होकर बहा जा रहा हो। जिस दरबार में उसे आज तक इज़्ज़त मिली, जहाँ कभी एक बात नहीं कही गयी, वहीं आज...जमुना की आँखों के सामने मियाँ नाच उठे, वे होते...वे होते, तो आज इस मौके पर उसकी मदद करते, इस तरह उसका पानी न उतारते...

-बोलता क्यों नहीं, हरामी?-बाबू साहब खड़े होकर चीख पड़े, जैसे बैठे-बैठे वह उतनी जोर से न चीख़ पाते।

गदहे की कोख में जैसे पैना घोंप दिया गया हो। जमुना मर्माहत होकर मुड़ा और पाँव आगे बढ़ाया कि पीछे से लपककर बाबू साहब ने उसकी गर्दन पकड़ ली-ऐसे तू नहीं जा सकता! बोलकर जा कि आज...

झटका देकर, अपनी गर्दन छुड़ाकर, आँखें गिरोरकर जमुना बोला-हाथ मत लगाइए। जो आपने कहा, वही बहुत है।

-वही बहुत नहीं! अभी तो...-बाबू साहब ने फिर लपककर उसका हाथ पकडऩा चाहा, लेकिन वह फलांगकर दूर जा खड़ा हुआ।

लोगों की भीड़ समीप घिर आयी। बाबू साहब काँपते हुए चीख़े-बिलरा!

लेकिन जमुना को अब कोई पकड़ न सकता था। गदहे की दुलत्ती सहने की शक्ति किसमें हैं! उसकी आँखों से चिनगारी छूट रही थी, वह चीख़े जा रहा था-हमारा लडक़ा मर रहा है...और यह...न हमारा ठाकुर, न मालिक, हमारा पानी उतार रहा है! बड़ा आया ज़िमीदार के सिर पर चढक़र मूतनेवाला! ...आन के भतार पर तेल बुकवा! ...- और वह पलट-पलटकर जलती आँखों से बाबू साहब की ओर देखता, बड़े-बड़े डग नापता पगडण्डी पर चला गया। लोग हक्के-बक्के देखते रह गये, कभी बाबू साहब को, कभी जमुनवा को। लोगों की समझ में न आ रहा था कि आखिर हुआ क्या, देवता बाबू साहब का यह कौन-सा रूप है और गऊ जमुनवा को यह क्या हो गया?

बाबू साहब हाथ पर माथा झुकाये चारपाई पर बैठे थे, जैसे घड़ों पानी उन पर पड़ गया हो। कैसे आँख उठाएँगे अब? धरती फट जाती, तो अच्छा होता। लोगों के शब्द उनके कानों में गर्म सीसे की तरह पड़ रहे थे-दूसरे के बल पर इन्हें इस तरह नहीं कूदना चाहिए! ...अरे भाई, कोई बात थी, तो मालिक को आ जाने देते, खुद हाथ उठाने का हक़ इन्हें कहाँ से मिलता है? ...जमुनवा का लडक़ा पनरहियन से बीमार है, ऐसे में तो दुश्मन भी अपनी दुश्मनी भूल जाता है, और इन्हें देखो, मरने पर कोंदों दल रहे हैं! ...और देखो न जमुनवा को, कैसा गऊ आदमी है और आज...चींटी भी ऐसे में काट खाती है, भाई! ...

और बिलरा किंकत्र्तव्यविमूढ़-सा दरवाजे के पास खड़ा था।

बाबू साहब के अपमान की यही कहानी थी। बाबू साहब ने ख़ुद यह कहानी सुनाई, तो इसका क्या रूप हो गया, किस बात पर जोर पड़ा, कौन-सी बात हल्की हो गयी, यह समझना कोई कठिन बात नहीं। और मन्ने पर ठीक ही इसका प्रभाव पड़ा। वह होशो-हवास खो बैठा, क्रोध से अन्धा हो गया। बाबू साहब से कहीं अधिक उसकी आँखें लाल हो उठीं, जैसे बाबू साहब पर एक पड़ा हो, तो उस पर सौ। जमुना की ओर से कुछ सुनने की बर्दाश्त उसमें न रही। जमुना के अतीत को वह भुला बैठा। उसने एकतरफा डिग्री दे दी और चीख़कर बोला-उसे अभी पकडक़र बुलवाइए, बाबू साहब! ...ओह, उसकी ऐसी हिम्मत! कुत्तों से उसकी बोटी-बोटी न नुचवा दी, तो मैं अपने बाप का बेटा नहीं!-और उसने जोर से पुकारा-बिलरा!

आवाज़ से ही बिलरा सहम गया और समझ गया कि कुछ गड़बड़ी हुई है। जमुनवा के काण्ड के समय से ही वह बराबर सहमा-सहमा रहता है, पता नहीं कब उसकी गर्दन रेत दी जाय। ...बाबू साहब के कहने पर भी उसने जमुनवा को नहीं पकड़ा था। किसी को क्या मालूम कि उसकी जगह कोई और होता, तो भी उसे उस हालत में वह न पकड़ पाता, ना, पकड़ने को मन ही न होता, और मन होता भी तो क्या वह किसी अकेले के बस का था! ...मियाँ कभी भी यह-सब काम बिलरा से न लेते थे। उनके ज़माने में एक पियादा था, वही यह-सब काम करता था। मियाँ के बाद पियादे का काम भी उसी से लिया जाने लगा। उससे यह-सब होता नहीं। क्या करें? इस पेट के लिए, देखें, अभी का-का करना पड़ता है!

सहमा हुआ जाकर खड़ा हुआ तो मन्ने बोला-जा, चौकीदार को तुरन्त बुला ला!

बिलरा की जान में जान आयी। बच गया! लेकिन आसार अच्छे नहीं दिखाई पड़ते। कैसे गुरेरकर देखा था मन्ने बाबू ने। कुछ-न-कुछ होकर ही रहेगा आज!

मन्ने बाबू का गुरेरकर देखना कैसा अस्वाभाविक लगता है, जैसे खरगोश के कन्धे पर किसी को तलवार दिखाई दे जाय। सफेद रंग, छरहरा बदन, खबसूरत चेहरे से हमेसा सराफत टपकती रहती थी। देखकर मन में एक खुसी होती थी। कैसे नर्मी से, हँसकर हमेसा बात करते थे। कभी गुस्सा नहीं, कभी कोई कड़वी बात नही। और आज...आज उनकी आँखें कैसी डरावनी दिखाई देती थीं, चेहरा कैसा भयानक हो गया था! ...आदमी अपने खूबसूरत चेहरे को भी काहे बिगाड़ लेता है?

मालूम होता है कि बाबू साहब ने उस दिन की सभी बातें उन्हें बतायी हैं। इसी से उनका दिमाग खराब हो गया है। हँसुवा अपनी ही ओर तो खींचता है। मन्ने बाबू जमुनवा की ओर से थोड़े ही कुछ सुनेंगे। बेचारा जमुनवा, वह परेशान न होता, दुख में न होता, तो वैसा बेवहार करता? दुख में आदमी सहानुभूति चाहता है, और जब उसके बदले उसे गाली मिलती है, तो उसका दिमाग खराब न हो, तो का हो? बीमार आदमी कितना चिड़चिड़ा हो जाता है! ...लेकिन मन्ने बाबू काहे को यह-सब सुने-समझेंगे? परयागराज में पढ़ते हैं, कितना बड़ा दिमाग है, फिर भी यह छोटी-सी बात, जो उसके-जैसा गँवार आदमी भी समझ सकता है, वो नहीं समझेंगे, कितने अफसोस की बात है! का छोटे आदमी का सुख-दुख, मान-अपमान धियान देने की कोई चीज़ नहीं? बड़े आदमी की बात ही बात है और छोटे आदमी की बात कोई बात ही नहीं? आदमी इस तरह अन्धा काहे हो जाता है? ...बाबू साहब उस दिन बेखाये-पिये सो गये, तो उसे कितना दुख हुआ! वह भी तो कितनी ही बार बेखाये-पिये सो जाता है, बाबू साहब या मन्ने बाबू सुनें, तो का उन्हें तकलीफ होगी? सायद न हो। ऐसा होता तो का बेचारे दुखी जमुनवा के साथ उन्हें सहानुभूति न होती? ...बेचारे का लडक़ा मर गया, इकलौता लडक़ा! ...बिलरा की आँखों में आँसू भर आये। ...अब जाने उस पर का बीते! हे भगवान् उसकी रच्छा करो! जिमिदार चाहे जितना भी सरीफ हो, वह जिमीदार ही है! गेहुअन का बच्चा गेहुअन ही होता है! उसके खून ही में जहर भरा होता है! कब किसको डस ले, का कहा जा सकता है। हे भगवान! ...

चौकीदार को नये कमरे में पहुँचाकर बिलरा सार में चला आया। खलिहान में दौनी हो रही थी। पनपियाव लेने वह खण्ड में आया था। आते ही यह हुकुम उसे मिला था। उसका मन कड़वा हो रहा था, दिल-ही-दिल में वह सहमा हुआ था। बाबू साहब से पनपियाव माँगने की हिम्मत न हो रही थी। साथ ही वह यह भी जानना चाहता था कि चौकीदार किसलिए बुलाया गया है, उसे जो सन्देह है, क्या वह ठीक है?

और नये कमरे से आवाज़ आयी-चन्नन, हमने तुम्हें एक बहुत ही ज़रूरी काम से बुलाया है!

-हुकुम कीजिए, सरकार! हमें तो जैसे ही हुकुम मिला, आ हाजिर हुए! सरकार मजे में तो रहे?

-हाँ, लेकिन यहाँ आकर जो-कुछ सुना है, उससे सब मज़ा किरकिरा हो गया है। तुम कहाँ थे उस वक़्त, जब जमुनवा...

-उस रात को, सरकार, थाने पर हमारी डिउटी लगी थी। गाँव वापस आये, तो सब मालूम हुआ। हमने उसी बखत जाकर जमुनवा को बहुत डाँटा था। ...का बताएँ, सरकार, सरकार के दरबार का आदमी है, नहीं तो...

-उसे तुम हमारा आदमी कहते हो? हमारा आदमी होता, तो हमारे ही साथ ऐसी बदमाशी करता? ...तुम जाकर उसे अभी पकड़ लाओ। हम उससे अब ख़ुद ही निबटेंगे!

-बहुत अच्छा, सरकार! अभी लाकर हाजिर करते हैं!

बिलरा ने सार के दरवाजे से झाँककर देखा, चन्नन ऐसे अकडक़र चल रहा था, जैसे किसी बहुत ही महत्वपूर्ण काम पर वह जा रहा हो। लेकिन थोड़ी दूर जाते ही उसकी चाल साधारण हो गयी। बिलरा के मुँह से सहसा ही निकल गया, एक ही साला है यह चन्नन भी!

चन्नन एक साधारण चौकीदार था। तनख़्वाह पाता था तीन रुपये और साल में एक नीली पगड़ी और एक ख़ाकी कुर्ता, लेकिन रहता था काफ़ी आराम से। थानेदारों, सिपाहियों और मुखिये (अगर वह दमदार हुआ तो) के हुकुम बजाते-बजाते उसके पाँव घिस जाते थे, लेकिन वह इतना बड़ा पालिटिशियन और डिप्लोमेट था कि सारा गाँव उसकी अँगुली पर नाचता था। क्या बड़े, क्या छोटे, क्या ज़मींदार, क्या किसान, सभी से फ़ायदा उठा लेता था और तारीफ़ यह कि सब यह समझते थे कि वह अपना आदमी है। उसकी चालें इतनी गहरी और पेंचदार होतीं, उसका व्यवहार इतना महीन होता, उसकी बातचीत इतनी बुद्धिमत्तापूर्ण होती कि साधारणतया उसकी गहराई में पैठ, उसे समझ लेना किसी के लिए भी कठिन होता। कभी वह पकड़ में भी आ जाता, तो दाँव देकर इस तरह साफ़ निकल जाता कि लोग देखते रह जाते। एक ही शातिर आदमी था, गाँव में उसका कोई मुक़ाबिल न था। बड़ों-बड़ों के वह छक्के छुड़ा देता था।

पिछले वर्ष गर्मियों की बात है। मुन्नी एक महीने की छुट्टी पर मद्रास से गाँव आया था। एक दिन सुबह धोती बग़ल में दबाये वह पोखरे पर नहाने जा रहा कि रास्ते में ही चन्नन मिल गया। उसने बड़े अदब से झुझकर सलाम किया-बाबू, एक बड़ी खुसी की बात है!

मुन्नी ने अचकचाकर उसकी ओर देखा। उसके जैसे साधारण आदमियों को चन्नन सलाम करे, यह एक अनसुनी बात थी। उसका माथा ठनका। बोला-क्या बात है?

-बाबू, जि़ले के कुछ बड़े लोग आये हैं आपको देखने!-चन्नन एक षोडशी की तरह मुस्कराकर, शर्माकर बोला-आपकी सादी के सिलसिले में!

मुन्नी ने दूसरा झटका खाया। बोला-बड़े आदमी मेरे यहाँ क्यों सम्बन्ध करने आने लगे? तुम्हें ग़लतफ़हमी हुई है। तुम्हें लाला के यहाँ जाना चाहिए!

-नहीं, बाबू, उन लोगन ने आपका नाम लेकर हमें आपको बुलाने को भेजा है! वो लोग आपको देखना चाहते हैं। आपसे बात करना चाहते हैं। चलिए तो!-दाँत चियारकर वह बोला।

मुन्नी को अब हँसी आ गयी। बोला-कौन लोग हैं, ज़रा सुनूँ तो!

-अफसर लोग हैं, बाबू! थाने से थानेदार को लेकर आये हैं! हाजीजी की कोठी में उतरे हैं! चलिए!

-ऐसा था, तो उन्हें हमारे घर आना चाहिए था, पिताजी से बात करना चाहिए था?-मुन्नी ने अब उसे घेरना चाहा।

-वो तो जाएँगे ही , लेकिन पहले आपको देख तो लें। पसन्द आ जाने पर वो लोग आपके यहाँ उठ आएँगे। ऐसा वो लोग कहते थे, बाबू! चलिए, चलिए!

उसकी उत्सुकता देखकर मुन्नी को फिर हँसी आ गयी। बोला-अभी नहाने जा रहा हूँ। नंग-धड़ंग मुझे देखकर वो लोग क्या सोचेंगे! तुम चलो, मैं नहा-धोकर, सज-सँवरकर दिखाने लायक़ होकर आता हूँ!-मुन्नी ने चुहल की।

चालाक चन्नन ताड़ गया। बोला-वाह, बाबू! अरे, आपको सजने-सँवरने की का जरूरत है। आप तो ऐसे ही इतने अच्छे लगते हैं कि का कहा जाय! आप चलिए तो! बस एक छन उनके सामने चलकर खड़े हो जाइए! चलिए!

उससे पिण्ड छुड़ाना कठिन समझ मुन्नी ने आखिर सोचा, चल के देख ही लें, क्या बात है।

हाजीजी की कोठी नयी बनी है। रिटायर जेलर ने यह कोठी बनवायी है और दो बार हज कर आया है। गाँव में नयी क़िस्म की यह पहली कोठी है। बैठका कोच और कुर्सियोंं से सजा है।

कोठी के बरामदे में चौकी पर पाँच सिपाही बैठे थे। उन्हें देखते ही मुन्नी का माथा ठनक गया। उसने पीछे-पीछे आते हुए चौकीदार की ओर देखा, तो वह बोला-बैठके में वो लोग हैं, चलिए।

बैठके के दरवाजे पर पाँव रखते ही मुन्नी ठिठक गया। अन्दर सामने के कोच पर ही जो तीन व्यक्ति बैठे दिखाई दिये, उनमें से एक जिले का सी०आई०डी० सुपरिण्टेण्डेण्ट, दूसरा सी०आई०डी० इन्स्पेक्टर और तीसरा पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट था।

सी०आई०डी० सुपरिण्टेण्डेण्ट ने उसे देखते ही कहा-आइए, आइए!

उसके फूले हुए चेहरे और शैतानी आँखों की ओर देखते हुए मुन्नी अन्दर दाखिल हुआ। फिर इधर-उधर देखा तो दरबार भरा हुआ था। गाँव का मुखिया लाला एक ओर पीढ़ी पर बैठा था और दूसरी ओर दूसरा मुखिया नूर मुहम्मद एक कुर्सी पर, नूर मुहम्मद की बग़ल में एक कुर्सी पर दारोग़ा बैठा था।

मुन्नी एक कुर्सी की ओर बढ़ा, तो नूर मुहम्मद बोल उठा-उस पीढ़ी पर बैठो!

मुन्नी की आँखे लाल हो उठीं। वह जानता था कि नूर मुहम्मद यह बात अवश्य कहेगा। पीढ़ी, कुर्सी और चारपाई का भेद जो गाँवों में है, वह अच्छी तरह जानता था। ज़मींदार के सामने चारपाई पर या कुर्सी पर बैठने का अधिकार केवल उसके सजातीय लोगों को ही प्राप्त है। यहाँ की पूरी ज़मींदारी पहले मुसलमानों के हाथ में थी। गाँव का कोई भी अन्य जाति का आदमी उनके सामने कुर्सी या चारपाई पर न बैठ सकता था। यह भी सुना जाता है कि पहले किसी अन्य जातिवाले को चारपाई या कुर्सी बनवाने का अधिकार ही नहीं था। फिर यहाँ के बनियों में कुछ बड़े-बड़े महाजन हो गये, तो उन्होंने घर के अन्दर सोने के लिए चारपाइयाँ और पलंग बनवाये, लेकिन उनमें भी यह साहस न था कि खुले-आम बाहर चारपाइयाँ डालकर बैठते या सोते। फिर मुसलमान ज़मींदार कमजोर हो गये, उन पर महाजनों का क़र्ज़ लद गया, महाजन खेत और ज़मींदारी रेहन रखने लगे, तो यह क़ानून कुछ और ढीला हो गया। महाजन अब बाहर भी चारपाइयाँ डालने लगे, लेकिन कोई मुसलमान ज़मींदार उधर से गुज़रता, तो तुरन्त चारपाइयाँ उठा दी जातीं। मुन्नी को ही क्या, सब आत्मसम्मानियों को यह बात बेहद खलती थी। इसी कारण एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना आत्मसम्मान के विरुद्ध समझा जाता था।

लाला तीन आने का आज ज़मींदार था, उसके पास सौ बीघे के ऊपर खेत थे। लेकिन उसकी हीन भावना अभी तक न गयी थी। वह आज भी मुसलमान ज़मींदारों के सामने पीढ़ी पर ही बैठता था। उसका मन इस बात को आसानी से स्वीकार कर लेता हो, ऐसी बात नहीं। वह अब हर तरह से मुसलमान ज़मींदारों को तंग करता था, लेकिन उनके सामने पड़ता, तो दुम दबा लेता था।

मुन्नी बिफर गया। बोला-क्या आप लोगों ने मेरा अपमान करने के लिए यहाँ बुलाया है?

नूर मोहम्मद बोल उठा-इसमें बेइज़्ज़ती का कोई सवाल नहीं। गाँव का यह क़ायदा है। ज़माने से चला आता है। लाला को देखो पीढ़ी पर बैठे हैं। इनकी इसमें कोई बेइज़्ज़ती नहीं और तुम्हारी बेइज़्ज़ती हो जायगी? लाला से भी बढक़र तुम्हारी इज़्ज़त है क्या? तम्बाकू-नमक बेचनेवाले का लडक़ा...

-चुप रहो! तुम्हारे जैसे जाहिल से मैं इज़्ज़त की तारीफ़ करना नहीं सीखना चाहता!-मुन्नी फट पड़ा।

नूर मुहम्मद की यह सरासर तौहीन थी। उसका चेहरा तमतमा उठा। वह कुछ बोलने ही वाला था कि पुलिस सुपरिण्टेण्डेट बोल पड़ा-नहीं-नहीं, आप कुर्सी पर ही तशरीफ़ रखिए!

-नहीं, मैं यहाँ अब एक क्षण भी नहीं रुकना चाहता! यह मक्कार, गद्दार नूर मुहम्मद, जिसके पास अपना घर भी रहने को नहीं, कांग्रेसियों के ख़िलाफ़ मुखबिरी करते-करते आज मुखिया बन गया है, तो सोचता है कि यह जिसकी चाहे बेइज़्ज़ती कर सकता है!-कहकर मुन्नी पलट पड़ा।

पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट ने उठकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा-आप नाराज़ न होइए। कुर्सी पर बैठिए!-और उसने मुन्नी को अपने सामने एक कुर्सी पर बैठाते हुए नूर मुहम्मद से कहा-आप ज़रा देर के लिए बाहर चले जाइए।

चुटीले साँप की तरह लहराता हुआ नूर मुहम्मद कमरे से बाहर हो गया, तो लाला भी उठकर बाहर चला गया। वह पीढ़ी पर बैठे और उसके सामने ही यह मुन्नी कुर्सी पर, यह सरासर उसकी तौहीन थी!

मुन्नी कुछ शान्त हो गया, तो सी०आई०डी० सुपरिण्टेण्डेण्ट बोला-वाह साहब, वाह!

मुन्नी सम्हल गया। अगला मोरचा उसके सामने था।

पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट बोला-अगर नूर मोहम्मद की जगह कोई आपकी बिरादरी का होता, तो...

-आपने देखा नहीं, नूर मुहम्मद के पीछे-पीछे लाला भी चला गया? आप इसका मतलब नहीं समझते?-

इसका मतलब नहीं समझते? मुन्नी शान्त स्वर में बोला-यहाँ बिरादरी का, धर्म का प्रश्न नहीं है। मूल प्रश्न है, बड़े और छोटे का, धनी और ग़रीब का। यह कमबख़्त नूर मुहम्मद आज इतराया हुआ है, इसे अपनी सही हक़ीक़त नहीं मालूम, वर्ना उसमें और मुझमें कोई फ़र्क़ नहीं। लेकिन लाला और उसमें फ़र्क़ है। ख़ैर छोडि़ए, यह बात। आप लोगों ने मुझे बुलाया था...

-हाँ, साहब,-सी.आई.डी. इन्स्पेक्टर बोला-आप किसी बालेश्वर सिंह को जानते हैं?

-हाँ, ज़रूर जानता हूँ, क्रान्तिकारी बालेश्वर सिंह को जि़ले का कौन आदमी नहीं जानता?-मुन्नी ने चट जवाब तो दे दिया लेकिन तुरन्त मन में आया, यह ऐसा सवाल क्यों पूछ रहा है?

-उनसे आपका क्या सम्बन्ध है?

मुन्नी अब चौकन्ना हो गया था। बोला-कोई नहीं।

-आपका उनसे कब का परिचय है?

-जि़ले के स्कूल में पढ़ते थे, तभी से।

-आपसे इनका परिचय कैसे हुआ?

-मुझे याद नहीं।

-फिर भी, कुछ तो ज़रूर याद होगा?

-एक जलसे में उनका गाना सुनकर मैं मुग्ध हो गया था। फिर स्कूल के एक कवि-सम्मेलन में उनके निकट आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस कवि-सम्मेलन की व्यवस्था का भार मुझी पर था। ...तभी से वो मेरे कमरे में भी आने लगे। वह कभी-कभी मेरे कमरे में ही रात को रह जाते थे। बड़े जोशीले गाने सुनाते थे और क्रान्तिकारियों की रोमांचकारी कहानियाँ कहने में तो वह बड़े ही दक्ष थे।

-आख़िर बार वह आपको कब मिले?

-मद्रास में।

-आपके पास कै दिन ठहरे?

-एक रात।

-क्या खाया?

-रात को बारह बजे मेरे पास आये थे। उस वक़्त मेरे पास खाने के लिए चन्द केलों के सिवा कुछ न था। वो बड़े भूखे थे, सब केले खा गये।

-फिर?

-फिर क्या?

-उनसे उस रात क्या-क्या बातें हुईं?

-कोई बात नहीं हुई, वे बहुत थके थे, सो गये। और सुबह चार बजे ही, बिना मुझे जगाये, जाने कहाँ चले गये।

-फिर उनसे आपकी मुलाक़ात कब हुई?

-कभी नहीं। ...लेकिन आप ये सवाल...

-आप जवाब देते जाइए! आपका काम यह पूछना नहीं है। आप जानते हैं न, हम कौन हैं?

-अच्छी तरह! आप सी०आई०डी० इंसपेक्टर हैं। आप टाउन क्लब की ओर से हाकी टोर्नामेण्ट में खेलते थे। आप बहुत अच्छे खिलाड़ी थे, मुझे याद है। और आप...

-बस, तो ठीक है। आप हमारे सवालों के जवाब देते जाइए! ...अब आप यह बताइए कि मन्ने बाबू से आपके क्या सम्बन्ध हैं?

-वो मेरे दोस्त हैं।

-उनके साथ आप खाते-पीते भी हैं?

-जी, हाँ।

-लेकिन आप हिन्दू हैं, वो मुसलमान?

-मैं आदमी-आदमी में कोई फ़र्क़ नहीं समझता!

-बड़े क्रान्तिकारी विचार हैं आपके! लेकिन अभी आप नूर मुहम्मद...

-उसके काले कारनामों से मुझे नफ़रत है! ...

-लेकिन लाला...

-उसकी शोषक वृत्ति से मुझे नफ़रत है! ...

-हूँ! ...अच्छा, यह बताइए, बालेश्वर सिंह और मन्ने बाबू के बीच क्या सम्बन्ध है?

-यह मैं नहीं जानता।

-आपके वो दोस्त हैं, कुछ तो जानते ही होंगे।

-वो ज़मींदार हैं। उनका बालेश्वर सिंह से क्या सम्बन्ध हो सकता है?

-ज़मींदार होने से क्या होता है? उनके भी विचार आपकी ही तरह हैं! ...

-यह आप उन्हीं से पूछें तो अच्छा है। इधर मैं उनसे दूर ही रहा हूँ।

-पहले का बताइए। ज़िले के स्कूल में जब आप लोग पढ़ते थे...

-जैसा मेरा सम्बन्ध था, वैसा ही उनका।

-ठीक!-उसने ‘विशाल भारत’ की एक प्रति निकालकर मुन्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा-‘क्रान्तिकारी और स्वतन्त्रता का आन्दोलन’ लेख आपका ही लिखा है?

-जी!

-और भी किसी क्रान्तिकारी से आपका परिचय है?

-नहीं!

-फिर आपने यह लेख कैसे लिखा?

-अध्ययन करके...

इंस्पेक्टर ने सुपरिण्टेण्डेण्ट की ओर देखा, तो उसने सिर हिलाया।

मुन्नी बोला-अब मुझे इजाज़त हो तो मै। नहा आऊँ?

-ज़रूर, लेकिन हम आपसे कुछ और बातें भी जानना चाहते हैं। आप कितनी देर में नहाकर लौटेंगे?

-कम-से-कम दो घण्टे में।

-इतनी देर तक आप नहाते हैं?

-चार घण्टे भी लग सकते हैं। आजकल पानी में उतरने पर बाहर निकलने को किसका मन करता है। आप इन्तज़ार कर सकें...

-हम तो महीनों आपका इन्तज़ार कर सकते हैं!

-अच्छा, तो मैं जाता हूँ।

मुन्नी बाहर निकला, तो सोचा, साला चन्नना मिले, तो उसकी ज़रा ख़ातिर की जाय। लेकिन वह वहाँ कहीं था ही नहीं। ...

छै महीने तक मुन्नी गाँव में नज़रबन्द रहा, एक मामूली बात के लिए!

बालेश्वर सिंह एक रेल-डकैती के सिलसिले में गिरफ्तार हो गये थे। उनके पास एक डायरी और एक किताब बरामद हुई थी। डायरी में मद्रास की उस रात मुन्नी के यहाँ केले खाने का जि़क्र था, और किताब पर मन्ने का नाम था। मन्ने के एक पुलिस रिश्तेदार ने उसे बचा लिया था, उसी से ये-सब बातें बाद में मालूम हुईं। छै महीने तक एक सिपाही मुन्नी पर चौबीसों घण्टे पहरा देता रहा था।

छै महीने तक चन्नना उसे दिखाई न दिया। बालेश्वर सिंह का केस रफ़ा-दफ़ा हो गया, तो मुन्नी की नज़रबन्दी टूटी और एक दिन अचानक क़स्बे के रास्ते में बल्लम लिये हुए चन्नना से मुन्नी की भेंट हो गयी।

मुन्नी कुछ बोले, इसके पहले ही चन्नना ने सिर झुकाकर सलाम किया। कहा-बाबू हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ी आपके दरवज्जे से पुलिस हटवाने में!

-लेकिन वो जो मेरी शादी...

-अरे, बाबू, का बताएँ! अफसर लोगन की बात! ...राम किरिए, उन लोगन ने वही बात हमसे कही थी! ...हमको अगर मालूम होता कि कोई ऐसी-वैसी बात है तो भला हम आपको अगाह न कर देते?

-स्साला!-मुन्नी के जी में आया कि उसके मुँह पर थूक दे, लेकिन चन्नना का मुँह देखकर आगे न वह कुछ कर सका और न कह सका। चन्नना का मुँह देखने लायक़ था। जैसे ऐसा निरीह प्राणी संसार में कोई दूसरा न हो। लगता था, जैसे अब रो ही देगा।

-बाबू, हमने राम की किरिया खायी, फिर भी आप विश्वास नहीं करते?-उसने भर्राये गले से कहा-आगे कभी मोका पड़े, तो हमारा काम देखिएगा!-और उसने झुककर मुन्नी का पाँव पकड़ लिया। बोला-आप जानते नहीं, बाबू, गाँव में जितने मुसलमान हैं, सब गद्दार हैं। देश की आजादी के लिए काम करनेवाले आपके भाई के मुकद्दमे में पुलिस की ओर से इन्हीं लोगन ने गवाही दी थी और अब आपको भी गिरफ्तार कराने के फिराक में हैं।

-मुझे मालूम है!-मुन्नी ने कहा-लेकिन तू जो करता है, वह भी मुझे मालूम है! भला चाहता है तो अपना रास्ता देख! भाग जा!

-लीजिए, बाबू आप तो ख़ामख़ाह के लिए हम पर नाराज हैं। जो हो, हम हिन्दू हैं, मुसल्लों का साथ कभी न देंगे। बखत आयगा, तो आप देखेंगे, बाबू!-आगे क़दम बढ़ाता हुआ चन्नना बोला।

मुन्नी के आग लग रही थी। यह साला अपने को बहुत बड़ा डिप्लोमेट लगाता है। अन्धों में काना राजा बना फिरता है! उसका जी चाहा, क्यों न इसका दिमाग़ ठीक कर दें। लेकिन फिर मन में आया, इस कमबख़्त के मुँह क्या लगना। यह समझता ही क्या है?

चार डग आगे बढक़र चन्नना बोला-आज उस सिपाही पर बड़ी डाँट पड़ी, जो आप पर तैनात था। दारोगा साहब कह रहे थे, उल्लू का पट्टा छै महीने उस छोकरे के पीछे पड़ा रहा और नाम को भी एक बात न निकाल सका, न बना सका। हमको सन्देह है, बाबू, कि फिर कोई जाल बिछाया जायगा। आप होसियार रहें!

-जा-जा! बड़ा कहीं का हमारा हितैषी बना है!-मुन्नी ने उसे झाड़ दिया।

और फिर मुन्नी को जो मालूम हुआ, उससे हमेशा के लिए सिद्ध हो गया कि चन्नना कोई मामूली कमीना नहीं!

इधर मुन्नी को होशियार कर गया और उधर उसके खिलाफ़ जाल बिछाने में भी उसी का पहला हाथ था। उसके सबसे नज़दीक के अफसर बेचारे पर इस तरह डाँट पड़े और वह ख़ामोश बैठा रहे, यह कैसे मुमकिन था?

मुन्नी जिस दिन मद्रास के लिए रवाना होनेवाला था, उसके पिछली शाम की बात है।

सदा की तरह मुन्नी और मन्ने शाम को सैर करने के लिए निकले थे। पूस का महीना था। मुन्नी और मन्ने की तरह शाम भी उदास थी। आसमान में अभी रंग खिले ही न थे कि अँधेरे ने अपनी कूँची फेर उसका चेहरा काला कर दिया और ओस ने उसकी आँखों को धुँधला बना दिया। दोनों मित्र तालाब के किनारे भींगी दूब पर बैठे थे और दुखी मन से बातें करते जा रहे थे। जाने फिर कब मिलना हो!

कभी इन्होंने मन-ही-मन सोचा था कि एक साथ पढ़े-लिखेंगे, एक साथ कहीं नौकरी करेंगे और एक साथ ही सारी ज़िन्दगी बिताएँगे। लेकिन ज़िन्दगी शुरू होने के पहले ही परिस्थितियों ने उन्हें अलग कर दिया और अब उनके बीच दूरी भी कोई साधारण न थी।

मन्ने का स्वर रह-रहकर भींग जाता था। मुन्नी उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न कर रहा था, गोकि उसका मन भी कम भारी न था।

जाने कितनी रात वहाँ बैठे-बैठे बीत गयी। दोनों में से किसी का भी मन उठने को न हो रहा था। कल मुन्नी मद्रास चला जायगा, मन्ने अकेला पड़ जायगा। फिर कौन आता है यहाँ अकेले सैर करने!

उनकी यह सैर गाँव में मशहूर थी। दोनों गाँव में रहते तो इस सैर में कभी नाग़ा न पड़ता। शाम को कभी किसी को इनमें से किसी की ज़रूरत पड़ती, सो उसे गाँव का कोई भी आदमी सीधे तालाब का रास्ता बता देता। बचपन में उन्होंने इसी तालाब के किनारे गेंद खेला था। यह खेल हर छुट्टी में हाईस्कूल तक बराबर चलता रहा था। तब गाँव के अधिकतर पढऩेवाले लडक़े इस खेल में शामिल होते थे। अब सब बड़े हो गये। कितने दर्जा चार पास करके और कितने मिडिल पास करके अपने दुखड़े-धन्धे में फँस गये। हाई स्कूल तक बहुत कम पहुँच सके, उसके आगे तो बस एक-दो। सभी बिछुड़ गये। सभी की याद आज भी आती है। किसी से भेंट हो जाती है, तो बात करते जाने कैसा-कैसा लगता है। आज कितना अन्तर आ गया है! उनके जीवन-स्तरों में कितनी भिन्नता आ गयी है! कोई किसान बन गया है, तो कोई तेली और कोई बनिया। कोई प्राइमरी स्कूल का मास्टर हो गया है, तो कोई पटवारी या ज़िला कचहरी में क्लर्क। फिर भी जैसे सबको अपने वे बचपन के दिन याद हों। मिलते हैं, तो आँखों में एक ऐसी चमक आ जाती है, जैसे बादलों में से कोई तारा झाँक जाय। वही प्रेम, वही ख़ुशी! सब उन दिनों को याद करते हैं और साथी होने का दावा करते हैं। फिर भी आज उनमें जो अन्तर आ गया है, उसे कौन दूर कर सकता है! वे दिन भी थे, जब सब अपने को बराबर समझते थे, ग़रीब-अमीर, बड़े-छोटे में क्या भेद है, इसका ज्ञान किसी को न था।

दोनों पुराने वक्तों में जैसे खो गये थे। कैसी-कैसी बातें याद आ रही थीं और मन में हूक उठ रही थी। ओह, यह ज़िन्दगी कितनी कठोर है, कितनी कड़वी!

उठने के पहले मुन्नी ने एक बहुत पुरानी तुकबन्दी सुनाई, जो उसने बचपन की याद में किन्हीं ऐसे ही क्षणों में जब छठवीं या सातवीं में वह पढ़ रहा था, लिखी थी। मन्ने को उसकी कुछ पंक्तियाँ आज भी याद हैं और ऐसे क्षणों में वह उन्हें होंठों में ही गुनगुना उठता है :

आओ फिर ताज़ा करें गुज़रा ज़माना एक बार

आओ फिर गा लें मधुर बचपन का गाना एक बार

आ खिलौनों की नुमायश फिर सजा लें एक बार

बाँसुरी वो बाँस को ला फिर बजा लें एक बार

आ खुरच धरती घिरौंदें फिर बनाएँ एक बार

आ उड़ाकर धूल उसमें फिर नहाएँ एक बार

ठीकरे तू कर जमा मैं चुन रहा तिनके यहाँ

आज मन्दिर भी हमारा फिर रहे बनके यहाँ....

उठे, तो मन्ने ने कहा-चलो, ज़रा उस कुएँ पर भी चलें, वर्ना यह कहेगा कि मुन्नी जाते समय मुझसे बिदा लेने भी नहीं आया!

बरसात के दिनों में जब तालाब समुन्दर बन जाता, चारों ओर पानी-ही-पानी हो जाता, तो किनारे डोड़हा साँपों से और बिच्छुओं से भर जाते। कहीं बैठने के लिए सुतबस जगह न मिलती, तो मन्ने और मुन्नी इसी कुएँ की ऊँची जगत पर आ बैठते। यह भी ज़मीन की सतह तक पानी से भरा रहता और इसमें भी साँप और छोटी-छोटी बेंगुचियाँ तैरती हुई दिखाई पड़तीं। कभी-कभी जब किसी साँप के मुँह में पड़ा मेंढक आत्र्तनाद करता, तो दोनों का मन दया से भर आता और वे उठकर ढेला मार-मारकर साँप के मुँह से उसे छुड़ाने का प्रयत्न करते।

गर्मी के दिनों में इस कुएँ पर पुर चलते। शाम को उन्हें प्यास लगती, तो चौने में खड़े होकर, किसी की भरी कूँड़ मोहरे पर रुकवाकर, झुककर चुल्लू-चुल्लू पानी पीते। इस पर अधिकतर लोहे की कूँड़ चलती, इसलिए मन्ने को कोई मना न करता।

इस कुएँ को भी भुलाना मुश्किल है, जैसे उनके इतिहास में इसका भी एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया हो और उस शाम तो...

मन्ने बिलकुल दाँती पर जा खड़ा हुआ और शेरवानी के नीचे से एक देशी पिस्तौल निकालकर बोला-मुन्नी, जानते हो यह क्या है?

मुन्नी पिस्तौल देखकर पहले ही अचकचा गया था। सहमकर बोला-क्यों? यह तो कोई पुरानी पिस्तौल है।

-हाँ,-कहते हुए मन्ने ने उसे कुएँ में फेंक दिया।

कुएँ के अन्दर ऐसी आवाज़ गूँज उठी कि चारों ओर का शान्त, भींगा वातावरण चौंक-सा उठा।

मुन्नी ने व्याकुल होकर पूछा-यह तुमने क्या किया?

मन्ने के होंठों पर एक करुण, मन्द मुस्कान आ गयी, ठीक आसमान के पाँचवीं के चाँद की तरह, जो ओस के पर्दे से अपना अस्तित्व दिखाने का व्यर्थ-सा प्रयास कर रहा था। बोला-बैठो, बताता हूँ। इस पिस्तौल से तुम्हारी ज़िन्दगी बाल-बाल बच गयी आज!

मुन्नी ऐसे बैठ गया, जैसे उसके पाँव अचानक नि:शक्त हो गये हों, उसके कानों में जैसे ठायँ-ठायँ कुछ बज रहा हो और उसके दिमाग़ में जैसे बिजली की धारा प्रवाहित हो रही हो। वह वहशत-भरी आँखों से मन्ने की ओर देखता रह गया।

मन्ने को जैसे ही महसूस हुआ कि उसकी बात का गलत मतलब भी हो सकता है, तो चट बोला-अरे नहीं, वैसा क्या कभी भी सम्भव है! तुम वैसी कोई बात मन में न लाओ। मैं तो तुम्हें एक बड़ी ही दिलचस्प बात सुनाने जा रहा हूँ। कैसे अहमक़ हो तुम! क्या तुम यह समझ बैठे कि मैं तुम्हें इस पिस्तौल से मारनेवाला था और इस डर से कि कहीं सचमुच ही मैं इसे तुम पर न चला दूँ, इसे कुएँ में फेंक दिया है! हा-हा-हा!-मन्ने अट्टाहास कर उठा।

मुन्नी का मन धीरे-धीरे शान्त हो गया। सूखे गले से वह बोला-बाप रे बाप! कैसी बात मन में उठी थी! थू:!-और उसने जोर से थूक दिया।

-सुनो!-मन्ने बोला-यह पिस्तौल जुब्ली के दादा के ज़माने की थी। तुम जानते हो, जुब्ली के दादा पिण्डारा (पिण्डारियों के राज्य) के दीवान थे?

-हाँ, सुना है,-मुन्नी विकल स्वर में बोला-तुम मुझसे कुछ न पूछो, बस कहते जाओ!

कल तक मुझे इस पिस्तौल का कुछ भी पता न था। कल सुबह-ही-सुबह, जैसे बड़ी जल्दी में हो, जुब्ली मेरे पास खण्ड में आया और बैठते ही बोला, मेरे वालिद कहते हैं, तुम्हारे वालिद के पास मेरे दादा की एक पिस्तौल है। उसे ढूँढक़र मुझे अभी दो। उसकी एक सख़्त ज़रूरत पड़ गयी है।

-मैंने कहा, मुझे तो उसके बारे में कुछ नहीं मालूम, ढूँढक़र बताऊँगा।

-वह बोला, अभी मेरे सामने ढूँढ़ो न! तुम्हारे वालिद का सब सामान तो इसी खण्ड में है। कहीं-न-कहीं पिस्तौल भी जरूर ही पड़ी होगी। उठो, जल्दी करो, मुझे अभी ज़रूरत है।

-मैंने ज़रा गौर से उसकी ओर देखा, तो मेरा माथा ठनक गया। बोला, उस पुरानी पिस्तौल की क्या ऐसी ज़रूरत पड़ गयी? होगी भी कहीं, तो अब तक सड़-गल गयी होगी, भला वह किस काम आएगी?

-जैसी भी हो, जिस हालत में भी हो, मुझे वही चाहिए! उठो, ढूँढक़र दो। जुब्ली पर जैसे एक-एक छन भारी पड़ रहा हो।

-मेरी समझ में कुछ आ नहीं रहा था कि क्या बात है? मैंने कुछ-न-कुछ उसके मुँह से निकलवाना ज़रूरी समझा। बोला, क्या काम है, आप बताइए पहले, तभी मैं उठूँगा।

-तुम्हें बताने-लायक़ बात नहीं है, वह बोला, तुम ढूँढक़र दो!

-अब मैं भी ज़िद पर आ गया। बोला, जब तक आप बताएँगे नहीं, मैं नहीं उठूँगा।

-उठो, वह बोला, ज़िद मत करो लडक़ों की तरह।

-जैसी आपकी ज़िद, वैसी ही मेरी। मैं बोला, जब तक आप बताएँगे नहीं, मैं उठने का नहीं!

-हूँ:! वह बोला, यह खूब रही! भई, मैं अपनी चीज़ तुमसे माँग रहा हूँ। इसमें तुम्हारा क्या आता-जाता है? मैं उसे चूल्हे में झोंकूँगा, उससे तुम्हारा मतलब?

-मतलब क्यों नहीं है? अब्बा जो-कुछ छोड़ गये हैं, सबसे मेरा मतलब है! मैंने कहा, मैं उनकी रखी हुई कोई चीज़ उठाकर किसी को कैसे दे सकता हूँ?

-लेकिन वो तो मेरी चीज़ है, उसने बिगड़ते हुए कहा, तुम नाहक बहस न करो। चलो, उठकर उसे ढूँढ़ो। नहीं, मैं ही ढूँढ़ लेता हूँ। कहकर वह उठ खड़ा हुआ।

-नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते! मैंने भी उतने ही ज़ोर से कहा-आप अन्दर नहीं जा सकते! आख़िर इस बात का क्या सबूत है कि वह आपकी ही चीज़ है?

-मेरे अब्बा कहते हैं कि तुम्हारे अब्बा किसी ज़रूरत से उसे माँगकर लाये थे। तब से उन्हीं के पास है।

-आपके अब्बा के कहने ही से तो मैं नहीं मान लूँगा कि वह आप लोगों की चीज़ है! मैं तहक़ीक़ात करूँगा, समझूँगा, बूझूँगा, तब किसी नतीजे पर पहुँचूँगा। मैंने कहा, अगर वह आपकी चीज़ होगी, तो अब्बा कहीं-न-कहीं ज़रूर लिख गये होंगे। मैं देखकर आपको बताऊँगा। आप तो जानते ही हैं कि अदना-से-अदना चीज़ के बारे में भी अब्बा कुछ-न-कुछ लिख गये हैं। आप लोगों के बारे में भी वो कुछ लिखकर छोड़ गये हैं। मैं ऐसे ही आपकी बात नहीं मान लूँगा?

-वाह, वह नर्म पड़ा, तुम तो ज़रा-सी बात को अफ़साना बनाये डाल रहे हो! अरे, भई, वह एक बेकार-सी चीज़ है, किसी मसरफ़ की नहीं।

-फिर उसके लिए आप इतने परेशान क्यों हैं?

-एक ज़रूरत पड़ गयी है।

-वही तो मैं जानना चाहता हूँ!

-विवश होकर आख़िर वह बोला, मुझे क्या ज़रूरत होनी थी उसकी, मीर साहब को ज़रूरत है।

-मीर साहब का नाम सुनते ही मैं चौंक गया। मेरी शंका शायद ठीक ही थी। तुम जानते हो न, तुम पर जो सिपाही तैनात था, उसी को लोग मीर के नाम से पुकारते हैं! बोला, उन्हें क्या ज़रूरत पड़ गयी? कहाँ हैं वो?

-मेरी बैठक में हैं।

-तो आप चलिए। मैं ढूँढक़र, उन्हें बुलाकर उन्हें ही दे दूँगा।

-मुझे क्यों नहीं देते? इसमें क्या फ़र्क़ पड़ता है?

-फ़र्क़ है। मैं मीर साहब से बात किये बिना आपको या उनको नहीं दे सकता। आप चलिए। मैं ढूँढक़र ख़ुद लेकर आता हूँ। चन्नना भी वहीं हैं क्या?

-हाँ।

-अच्छा तो आप जाइए। मैं आता हूँ।

-विवश होकर वह चला गया, तो मैंने बिलरा को बुलाकर कहा, देख, जुब्ली मियाँ के दरवाजे पर चन्नना बैठा है, उसे चुपके से ज़रा बुला तो ला। ध्यान रखना, अन्दर बैठके में सिपाही बैठा है, जुब्ली मियाँ अभी गये हैं, किसी को कुछ मालूम न हो।

-चन्नना मेरा नाम सुनते ही आ गया। उसके कमरे में दाख़िल होते ही मैंने उठकर दरवाज़ा बन्द कर लिया और उसे आँगन में ले जाकर पूछा, मीर साहब आज कैसे आये हैं?

-एक दक्क़ाक़ साला चन्नना! उसके चेहरे पर एक शिकन तक न आयी। साफ़ बोल गया, राम किरिए, सरकार, हमें कुछ नहीं मालूम! हमें अभी जुब्ली मियाँ ने बुलवा भेजा था। मीर साहब से तो हमारी भेंट भी नहीं हुई अभी तक।

-अब मैंने रोब से काम लिया। उस साले को मैं ख़ूब पहचानता हूँ। बोला, देख चन्नना! मीर साहब का तो इसमें कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन साले, मैं तेरी सारी चौकीदारी निकालकर ही दम लूँगा! यह न भूल कि तू मेरी ही ज़मीन में रहता है! साले, किरिया खाते तुझे शर्म नहीं आयी? अभी जुब्ली मियाँ मुझसे सब बता गये, और तू...

-सरकार, उसने एक ही झड़प में दाँत चियार दिये और बकने लगा, जुब्ली मियाँ की ही यह कारिस्तानी है, सरकार! हमारा इसमें कोई दोस नहीं। हम तो सरकार के गुलाम हैं, आप जो कहें...

-कहता जा, मैं कडक़कर बोला, ज़रा तेरी भी तो सुन लूँ। देखूँ, तू अब भी झूठ बोलता है या सच? मैंने फिर उसे बुत्ता दिया।

-वह भूत की तरह बकने लगा, बात यह है, सरकार, कि मीर साहब की तरक्की खटाई में पड़ गयी है। उनका अगले महीने हेड कान्स्टेबिली का चानस है। लेकिन दरोगा साहब का कहना है कि छै महीने तक एक के पीछे पड़ा रहा और कोई बात न निकाल सका, न पैदा कर सका, ऐसे आदमी की वह सिफारिस नहीं कर सकते।

-फिर?

-फिर जुब्ली मियाँ ने उन्हें एक चाल बतायी।

-क्या?

-वो तो आपको बता ही चुके हैं।

-ज़रा तुम्हारे मुँह से भी सुनूँ?

-यही कि उनके पास एक पुरानी पिस्तौल है। किसी तरह वो मुन्नी बाबू के घर रखवा देंगे और दूसरे दिन ख़ाना-तलाशी होगी और मुन्नी बाबू को...समझ गये न?

-सच?-मुन्नी चौंक उठा-क्या यह सच है? ...

-बिल्कुल!-मन्ने बोला-मैंने हर बात जैसी-की-तैसी तुमसे कही है। ...मुझे जो शंका हुई थी, वह बिलकुल ठीक निकली। जब मालूम हुआ, तो मैं भी तुम्हारी तरह सन्नाटे में आ गया था। ये दरिन्दे कब क्या कर गुज़रेंगे, क्या कहा जा सकता है। ग़ुस्से से मेरा तन-बदन फुँकने लगा, लेकिन मसलहतन मैंने अपने-आपको क़ाबू में रखा और दरवाज़ा खोलकर चन्नना को बाहर कर दिया और उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि अगर किसी को यह बात मालूम हुई कि मैंने तुमसे इसके बारे में कुछ पूछा था, तो तेरी चमड़ी क़ायम न रहेगी, समझ रखना!

-वह चला गया, तो मुझे खटका हुआ कि अभी शायद चन्नना ने कुछ बातें दाब ली हों। चन्नना और सोलहों आने सच बात बता दे, असम्भव! ऐसा करने लगे, तो वह अपने बाप का बेटा नहीं! लेकिन इसके पहले कि उसके बारे में कुछ किया जाय, यह ज़्यादा ज़रूरी था कि पिस्तौल का पता लगाकर हथिया लिया जाय। कहीं ऐसा न हो कि पिस्तौल मेरे पास न होकर जुब्ली के ही पास हो। दरवाज़ा फिर बन्द करके मैं पिस्तौल ढूँढऩे लगा। नीचे के दोनों कमरों और ऊपर के कोठे का चप्पा-चप्पा छान डाला। अब्बा की हर आलमारी और बक्सा देख डाला, लेकिन कहीं भी पिस्तौल नहीं मिली। अब मुझे भय हुआ कि कहीं जुब्ली को गलतफ़हमी तो नहीं हो रही कि पिस्तौल मेरे पास है? कहीं उसी के पास पिस्तौल न हो। अब्बा किसी की चीज़ रखनेवाले आदमी न थे, इसलिए यह सन्देह और भी पक्का हो गया कि हो-न-हो पिस्तौल जुब्ली के ही पास है, उसके अब्बा को याद नहीं।

-अब मैं अब्बा के रजिस्टरोंं का बस्ता उठा लाया। सोचा, शायद किसी कापी में कहीं पिस्तौल का ज़िक्र हो। अब्बा अपनी ज़िन्दगी की हर ख़ास बात दर्ज कर गये हैं, साथ ही अपने वारिस के लिए हर ज़रूरी हिदायत भी दे गये हैं। डायरी वे बराबर लिखते थे। इन रजिस्टरों और डायरियों में हमारे ख़ानदान का पूरा इतिहास भरा पड़ा है। उन्हें ध्यान से पढक़र उनकी हर बात, हर हिदायत अच्छी तरह मैं समझ लूँ और उन पर आचरण करूँ, तो मेरा हर काम अच्छी तरह से चलता रहे। यह ज़मींदारी का काम जितना ख़तरनाक है, उतना ही पेचीदा। बड़ी समझ- बूझ से काम लेने की ज़रूरत होती है। अब्बा की तरह शायद ही दुनियाँ में कोई आदमी मिले, जो अपने वारिस के लिए इस तरह की बातें तहरीर कर जाय।

-ख़ैर, तो देखते-देखते, सच ही एक डायरी में एक जगह पिस्तौल का ज़िक्र मिल गया। मैं बड़ी उत्सुकता से उसे पढऩे लगा :-

...मर्द का काम यह है कि दोस्ती करे, तो दोस्ती निभाये, और दुश्मनी करे, तो दुश्मनी निभाये, याने दोस्त बनकर दुश्मनी न करे और दुश्मन बनकर दोस्ती न दिखाये। ऐसा करना नामर्दों का काम है। मर्द वह जो दोस्त के लिए जान दे दे; मर्द वह जो दुश्मन से आमने-सामने लड़े, उसकी पीठ में छुरा न भोंके। ...यह भाई साहब जो शीतल महाजन के साथ कर रहे हैं, यह सिर्फ़ नामर्दी है। उन्हें उससे दुश्मनी है, तो आमने-सामने लड़ें और उसे ज़िच दें। यह क्या कि उसे धोखा देकर नीचा दिखाएँ। लेकिन आमने-सामने लड़ने की उनमें हिम्मत नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि उसकी पीठ पर मैं हूँ।

...आज दारोग़ा से जो बात मालूम हुई है, उससे मेरा सिर भिन्ना रहा है। जी में आता है कि अभी चलकर भाई साहब से दो-दो बातें करूँ! ...आख़िर इस दुश्मनी की क्या वजह है? शीतल महाजन से मेरा बर-व्यवहार चलता है, भाई साहब चाहते हैं कि उनके साथ भी वह बर-व्यवहार चलाये। शीतल महाजन उस दिन कहता था कि आपके भाई साहब आये थे। लडक़ी की शादी के मौक़े पर पाँच हज़ार रुपया माँगते थे, मैंने टाल दिया। उन पर इतमीनान नहीं होता। कई छोटी-छोटी रक़में पहले ही खाये बैठे हैं। महाजनी का यह कोई तरीक़ा नहीं। बहुत बिगडक़र गये हैं। कहते थे, तुम्हें देख लूँगा! मुझे डर है कि वह कोई-न-कोई बदमाशी मेरे साथ ज़रूर करेंगे। इस माने में वे गाँव में कितने बदनाम हैं, आप जानते ही हैं। ख़ामख़ाह के लिए लोगों को परेशान करते रहते हैं! अरे भाई, बर-व्यवहार में कौन-सी ज़बरदस्ती! जहाँ मन पसरेगा, हम व्यवहार करेंगे, जहाँ खटका देखेंगे, वहाँ क्यों अपनी रक़म गढ़े में फेकेंगे?

...और अब इस तरह वह महाजन का पानी उतारने पर तुले हुए हैं, तो मेरा भी कोई फ़र्ज़ होता है।

...मैं उनकी पिस्तौल उनके कमरे से उठा लाया हूँ।

-आगे की तारीख़ में लिखा था :

...पिस्तौल ग़ायब होने का पता भाई साहब को लग गया है। सबसे पूछ रहे हैं। सबको डाँट रहे हैं। लेकिन किसी को पता हो तब तो बताये।

...आख़िर मैंने उन्हें अपने यहाँ बुलाया और पूछा-आप उस बेकार की पिस्तौल के लिए क्यों इतने परेशान हो रहे हैं? आख़िर वह है किस काम-लायक?

वे बनने लगे-अब्बा की निशानी है, उसे मैं जान के पीछे रखता था। तुम्हें कुछ मालूम है क्या?

हँसकर मैंने कहा-मुझे मालूम तो है, लेकिन जब तक आप नहीं बताएँगे कि उसकी क्या ज़रूरत है, मैं कुछ भी पता न दूँगा।

-उसकी ज़रूरत की क्या बात है,-वे मेरी ओर शक की नज़र से देखते हुए बोले-तुमने कोई शरारत तो नहीं की है?

-करूँ भी तो इसमें क्या बुराई है?-मैंने फिर हँसकर कहा-क्या उस पर मेरा कोई हक़ नहीं?

-अच्छा, तब तो तुम्हीं मेरे कमरे से उठा लाये हो! लाओ, दो, मुझे उसकी ज़रूरत है। फिर तुम्हें ही दे दूँगा।-वह हाथ बढ़ाते हुए बोले।

-पहले आप बताइए कि उसकी क्या ज़रूरत है?

-अच्छा, लाये हो न तुम्हीं? पहले यह बता दो!

-नहीं, पहले आप बताइए, उसकी क्या ज़रूरत पड़ गयी?

-नहीं, बताने-लायक़ बात नहीं। तुम पिस्तौल दे दो, कल तुम्हें ख़ुद ही मालूम हो जायगा कि उसका क्या इस्तेमाल हुआ?

-आप शीतल महाजन के खिलाफ़ उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं न?

वे चौंक उठे। बोले-तुम्हें कैसे मालूम?

-मुझे सब मालूम हो गया है। कल दारोग़ा से मुलाक़ात हुई थी...

-ओह, तब तुमसे क्या छुपाना?

-लेकिन यह मर्दों का काम नहीं! किसी की पीठ में छुरा भोंकना...

-क्या बेकार की बात करते हो। सीधी उँगली घी न निकले, तो आदमी क्या करे?

-दूसरे के बर्तन से आख़िर ज़बरदस्ती कोई घी निकाले ही क्यों?

-तुमसे उसका बर-व्यवहार है न, इसीलिए तुम ऐसी बातें कर रहे हो! लेकिन तुम एक बात भूलते हो। इन्हीं महाजनों के पेट में हमारी कितनी ज़मींदारी घुस गयी, यह मालूम है न? जो थोड़ी-बहुत बच गयी है, वह जल्दी ही चली जायगी। ये हिन्दू हमें भिखारी बनाने पर तुले हैं, तो क्यों न हम भी अपने हथकण्डों का इस्तेमाल कर अपना उल्लू सीधा करें? एक ज़माना था कि इन हिन्दुओं में किसी की हिम्मत न थी कि हममें से किसी से आँखें मिला सके और आज अकडक़र सामने से निकलते हैं। यह-सब देखकर भी क्या तुम्हारे सीने में आग नहीं धधकती।

-क्यों धधके? आपसे क्या उन्होंने आपकी ज़मीन-जमींदारी जोर-जुल्म से छीनी है? आप खुद ऐयाशी में अपना सब-कुछ फूँक दें तो इसमें उनकी क्या ग़लती? आप बेंचने पर मजबूर हैं और उनके पास पैसा है, वे ख़रीदते हैं। कल आप ज़मींदार थे, तो आप उन पर हुकूमत करते थे, कल वो ज़मींदार होंगे, वो आप पर हुकूमत करेंगे। यह तो मामूली-सी बात है। इसमें हिन्दू-मुसलमान का सवाल कहाँ उठता है?

-वे दिन आने के पहले ही मैं मर जाना बेहतर समझूँगा! तुम जि़न्दा रहना और उनकी हुकूमत सहना! ... ख़ैर, मैं तुमसे कोई बहस नहीं करने आया था। तुम मेरी पिस्तौल दे दो। और मेरे रास्ते में रुकावट मत बनो।

-यह नहीं हो सकता! मेरे रहते आप शीतल को इस तरह नीचा नहीं दिखा सकते। उसने आपका कुछ नहीं बिगाड़ा।

-मैं भी उसका कुछ बिगाडऩा नहीं चाहता। मुझे पाँच हज़ार रुपयों की ज़रूरत है, वो मुझे दे दे।

-आप पर उसे भरोसा नहीं, वो नहीं देगा।

-कल उसके यहाँ पिस्तौल बरामद होगी और बाँधकर मेरे दरवाजे लाया जायगा, तो आप ही पाँच हज़ार उगल देगा। तुम देखना, लाओ मेरी पिस्तौल!

- मैं नहीं देता!

-भाई के सामने एक काफ़िर की तरफ़दारी कर रहे हो?

-यहाँ इन्सानियत का सवाल है। किसी को भी इस तरह जाल में फँसाना मैं इन्सानियत की तौहीन समझता हूँ!

-बड़े फ़रिश्ता बने हो, तो तुम्हीं रुपये मुझे दे दो न!

-मेरे पास होता तो मैं आपको दे देता। आप जानते हैं...

-मैं यहाँ के सब मुसलमानों की हालत जानता हूँ। बस लिफ़ाफ़ा रह गया है। ... ख़ैर, तुम मेरी पिस्तौल दो।

-मैं नहीं देता!

-तो फिर मैं क्या करूँ, तुम्हीं बताओ! तुम्हारी भतीजी की शादी का सवाल है।

-इस जालसाजी से बेहतर है कि आप दिन-दहाड़े उस पर डाका डालिए।

-हूँ,-वे बमक उठे-तू आस्तीन का साँप है! तू मेरा भाई नहीं, दुश्मन है! ...मैं तुझसे भी निबटूँगा! ...और वे चले गये। ...

-आगे दस तारीखों तक पिस्तौल का कोई ज़िक्र नहीं,-मन्ने बोला-उसके बाद फ़िर जिक्र मिला :-

...कुछ नहीं हुआ। अब इस आग में कोई दम नहीं। यह राख होकर ही रहेगी!

...खण्ड के भीतर बड़े कमरे के दायीं ओर एक छोटा कमरा है। उसमें जाने क्या-क्या कूड़ा-करकट भरा हुआ है। उसी में एक टूटे काठ के बक्से में वह पिस्तौल रख दी है, और तहरीर कर दी है कि आगे जो भी मेरी जगह पर आये, उसके काम आये। मेरे भाई साहब की दुश्मनी बरक़रार रहेगी, उसकी निशानी यह पिस्तौल है। लेकिन यह पिस्तौल एक और बात की भी निशानी है कि मेरा वारिस इस निशानी को मेरी एक क़ीमती मिल्कियत की तरह समझे और उसकी हिफ़ाजत करे! ...

-तो क्या यह पिस्तौल तुम्हें वहीं मिली?-मुन्नी ने पूछा।

-हाँ,-मन्ने बोला-उसे पाकर इत्तमीनान हो गया कि जुब्ली अब इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। उसे वहीं जैसा-का-तैसा छोडक़र मैंने कमरा बन्द कर दिया और उस पर ताला जड़ दिया। आँगन में आकर मैं हाथ धो ही रहा था कि बाहर दरवाज़े की कुण्डी खटकी। मैंने हाथ पोंछकर अपने को संयत किया और दरवाज़ा खोला, तो मीर खड़ा था।

-मीर बेचारा बहुत सीधा आदमी है। पुलिस विभाग के लायक़ नहीं, तुम तो जानते ही हो। जब वह यहाँ तुम पर तैनात था, तुम कहीं इधर-उधर गाँव में ही चले जाते, वह छटपटाने लगता था। मुझसे आकर पूछता था, वे कहीं बाहर तो नहीं चले गये? मैं मज़ाक में उससे कहता कि हाँ, ज़िले पर गया है! तो वह और घबरा उठता। कहता, देखिए, बस, वे मेरी नौकरी का ख़याल रखें और जो जी में आये करते रहें। कहीं भी जाना हो तो मुझे इत्तिला दे दें। ...छै महीने तक वह गाँव में पड़ा रहा और कुछ भी न कर सका। दूसरा कोई होता, तो रोज़ एक-न-एक वारदात खड़ी कर देता। यही वजह है कि बेचारे का रिटायर होने का वक़्त आया और अभी हेड कान्स्टेबिल भी न बन सका।

-मैंने कहा, मीर साहब, यह आपको क्या सूझी?

-उसने कहा, यह मेरी सूझ नहीं। आप सोच सकते हैं कि मेरे दिमाग़ में इतनी बारीक बातें आ सकती हैं?

-तो फिर यह नायाब सूझ किसकी है? मैंने पूछा।

-चन्नना की। उसी ने मुझसे कहा कि वह नूर मुखिया की मदद से ज़रूर कुछ-न-कुछ करेगा। फिर यहाँ जुब्ली साहब को शामिल किया गया और पूरा नक्शा तैयार हो गया। अब मालूम हुआ कि पिस्तौल तो आपके पास है। ...मिली वह? चन्नना ने ज़िम्मा लिया है कि वह मुन्नी के घर में पिस्तौल पहुँचा देगा। मिल गयी हो तो मुझे दे दें।

-मीर साहब, आप समझते हैं कि आप मुझसे क्या कह रहे हैं?

-मैं समझता हूँ। मुझे तो जैसे ही मालूम हुआ कि पिस्तौल आपके पास है, मैंने जुब्ली मियाँ से कहा कि फिर तो जाने दीजिए यह-सब। लेकिन उन्होंने कहा कि मुन्नी से आपकी दोस्ती है तो क्या हुआ, एक मुसलमान के लिए आप इतना भी न करेंगे! आख़िर आप तो कुछ कर नहीं रहे हैं, करेंगे तो हमीं-सब। फिर यह किसे मालूम होगा कि किसने यह सब किया।

-और आप पिस्तौल लेने मेरे पास चले आये! आप सचमुच बड़े भोले हैं, मीर साहब? ...मुझे यह समझने में अब ज़रा भी मुश्किल नहीं पड़ रही कि आप भी इस जाल में फँसाये ही गये हैं। सच तो यह है कि आपके बहाने चन्नना, नूर और जुब्ली अपना कारनामा दारोग़ा को दिखाना चाहते हैं। आप जाइए, मीर साहब! आख़िरी वक़्त में आप अपने दामन पर क्यों एक बेगुनाह के ख़ून का धब्बा लगाना चाहते हैं! आपने जो नाम पैदा किया है, वह कोई मामूली दौलत नहीं! लोग आपको नेक सिपाही के नाम से याद करते हैं और बहुत दिनों तक याद करते रहेंगे। आप दीन-ईमानवाले आदमी ही बने रहें, मैं यही चाहता हूँ।

-वह बेचारा सिर झुकाकर माफ़ी माँगने लगा। उसने यह भी कहा कि मैं उसकी ओर से तुमसे भी माफी माँग लूँ।

-कितने कमीने लोग हैं!-मुन्नी बोला-एक नेक इन्सान को भी...

-इनकी कमीनगी की कहानियाँ तुम सुनोगे तो...

-जाने दो, न सुनना ही अच्छा है। लेकिन पिस्तौल को तुमने कुएँ में क्यों फेंक दिया?

-क्या यह भी तुम्हें बताना पड़ेगा? अब्बा यह सही ही लिख गये हैं कि यह पिस्तौल एक ऐसी चीज़ की निशानी है जो बड़ी क़ीमती है। लेकिन मेरा ख़याल है कि उन्होंने इसे जतन से छुपाकर जो रख दिया, यह उनकी ग़लती थी। असल में वह चीज़ क़ीमती है, यह निशानी नहीं। इसे वे उसी वक़्त कुएँ में फेंक देते, तो आज यह नौबत ही नहीं आती। और आज सब-कुछ समझकर भी अगर मैं इसे कुएँ के हवाले न करता तो आगे जाने यह फिर किस-किस पर सितम ढाती। मैं यहाँ रहता नहीं, जुब्ली एक ही शातिर आदमी है, इसे वह ज़रूर ढूँढ़ निकालता। आज इसे कुएँ के सिपुर्द करके मुझे इत्मिनान हो गया कि आगे कम-से-कम इसकी वजह से किसी बेगुनाह का गला नहीं रेता जायगा। ...चलो, अब चला जाय। रात बहुत बीत गयी।

लौटकर चन्नना आया, तो ग़ुस्से में मन्ने की आँखें लाल थीं, रोआँ-रोआँ गनगना रहा था। बोला-नहीं आता, सरकार!

-नहीं आता?-मन्ने चीख पड़ा-तुम उसे पकडक़र क्यों नहीं लाये?

-वो हमारे पकड़ने के बस का है, सरकार? जरा हाथ लगाया, तो बोला, हाथ बढ़ाया, तो तोडक़े रख देंगे। ...कई लोग जमा हो गये थे। सबके सामने उसने हमें बेइज्जत करके रख दिया! मैं का बताऊँ, सरकार! आपका आदमी न होता...

-फिर वही बात तुमने कही?-मन्ने बिगड़ उठा-स्साले, तू बिलकुल झूठ बोल रहा है। उसकी हिम्मत कि बुलाने पर न आये?

चन्नना रोने लगा। बोला-एक ओर उस अदना आदमी ने हमें बेइज्जत किया, इधर सरकार गाली दे रहे हैं। हम पर विश्वास न हो तो सरकार किसी और को भेजकर पुछवा लें।

-तू भाग जा यहाँ से! तेरी राय की हमें ज़रूरत नहीं!-मन्ने ने डाँटकर कहा।

चन्नना भींगी बिल्ली की तरह वहाँ से चम्पत हो गया।

-बाबू साहब, क्या सच ही ऐसा हो सकता है?-मन्ने ने सिर झुकाकर कहा-हम बुलाएँ और जमुनवा न आये, यह कैसे मुमकिन है?

-सब-कुछ मुमकिन है!-बाबू साहब तो अन्धे हो गये थे। जमुनवा का सारा अतीत उनकी आँखों के सामने से तिरोहित हो गया था। उन्हें अपने अपमान के सिवा कुछ दिखाई न दे रहा था। बोले-जो मेरा अपमान कर सकता है, आपका नहीं कर सकता? ...अच्छा हुआ कि आपने अपनी आँखों ही देख लिया!

-अब क्या किया जाय?-मन्ने ने वैसे ही सिर झुकाये कहा।

-जैसा आप समझें,-बाबू साहब ने कहा-लेकिन एक बात समझ लें कि एक सरकश को अपने क़ाबू में न किया, तो कल सभी इसी तरह उठ खड़े होंगे। नर्मी से ज़मींदारी नहीं सम्हलती। आपके बुलाने पर कोई असामी न आये, यह कोई मामूली बात नहीं!

-फिर क्या किया जाय?-सोचते हुए मन्ने बोला-आप अभी टोले जायँ। वहाँ से अपने चार जवानों को बुला लाएँ। देखें, यह साला कैसे नहीं आता है।

बाबू साहब लाठी उठाकर चले गये।

मन्ने का दिमाग़ खराब हो गया था। बाबू साहब का अपमान, ख़ुद उसका अपमान...जमुनवा-जैसा आदमी ही ऐसा करने लगे, तो फिर दूसरे असामियों का क्या ठिकाना? ...अब्बा ने जमुनवा के बारे में लिखा है...जाने दो, उसे याद करना बेकार है। अब्बा ताक़तवर आदमी थे। उनका सारे गाँव पर रोब था। सब उनसे बचते थे, कोई सिर उठाने की हिम्मत न करता था। मुझे कौन क्या समझता है। मुझमें है ही क्या? ...कुछ होता तो यह जमुनवा ही...नहीं, इस मामले को सख़्ती से निपटाना ही होगा। ...बाबू साहब का अपमान...नहीं, यह बर्दाश्त करने की बात नहीं...इससे धाक उखड़ जायगी और फिर धाक ही न रही, तो और क्या रह जायगा? है ही क्या? मुझे तो अपनी हक़ीक़त मालूम है; गाँव वाले भले कुछ न जानें। ...बाबू साहब क्षुब्ध हैं...अगर वे सच ही बिगड़ गये और सब-कुछ छोडक़र चले गये, तो मेरा क्या बनेगा? ...आख़िर मेरे कारण वे क्यों अपमानित हों? फिर यह सिर्फ़ उनके अपमान का ही सवाल नहीं है, उनके दबदबे का भी सवाल है। असामियों में उनकी किरकिरी हो गयी तो फिर वे क्या कर पाएँगे, उनकी कौन सुनेगा?

ज़िन्दगी में पहला ऐसा मौक़ा आया था। ऐसे मौक़े पर क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, उसे कुछ भी मालूम न था। ज़मींदार का वह लडक़ा था, लेकिन ज़मींदारों के हथकण्डों का उसे कोई ज्ञान न था। अब्बा हमेशा उसे दूर-दूर रखते थे। वे चाहते थे कि उनका बेटा अदीब बने। वह ख़ुद कुछ भी बनना चाहता था, लेकिन ज़मींदार नहीं। इसमें उसे कोई दिलचस्पी न थी। लेकिन जैसे सहसा ही सब-कुछ उलट-पलट गया। अब्बा चल बसे और सब कुछ उसी के सिर पर पहाड़ की तरह आ पड़ा। ...वह क्या करता? उसके सामने चारा ही क्या था? अब्बा अगर सब-कुछ लिख न गये होते, तो वह कैसे-कैसे क्या-क्या करता, समझना कठिन है। बाबू साहब अगर उसकी सहायता को न आते तो वह क्या करता? शायद पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती और इसी ज़मींदारी के दुष्चक्र में पडक़र ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती। बाबू साहब के बड़े एहसान हैं...और उन्हीं बाबू साहब का इस कमबख़्त जमुनवा ने अपमान कर दिया! ...

लेकिन अब वह करेगा क्या? चौकीदार के बुलाने पर भी जमुनवा नहीं आया। इतना वह जानता है कि जमुनवा को जैसे भी हो यहाँ लाना पड़ेगा। बाबू साहब जवानों को बुलाने गये हैं। वे जमुनवा को पकड़ लाएँगे। उनके सामने जमुनवा की एक न चलेगी, सीधे से न आयगा तो वे उसे बाँधकर यहाँ ला पटकेंगे। लेकिन उसके बाद क्या होगा? मन्ने उसके साथ कैसा सलूक करेगा? ...बाबू साहब से उसने क्यों न पूछ लिया कि उसे क्या करना होगा? लेकिन उस वक़्त किसी बात का उसे होश ही कहाँ था? बाबू साहब की बात सुनकर वह अन्धा हो गया था और उस समय अगर जमुनवा उसके सामने पड़ जाता, तो वह उसके ऊपर एक दरिन्दे की तरह टूट पड़ता और उसकी बोटी-बोटी नोंच लेता...लेकिन कहीं जमुनवा भी अपना हाथ उठा देता तो? ...जाहिर है, जहाँ तक शारीरिक शक्ति का सम्बन्ध है, जमुनवा के एक हाथ का भी वह नहीं...

मन्ने के पास नैतिक साहस है, सिद्धान्त की शक्ति है। नीति के स्तर पर वह किसी से भी लोहा ले सकता है, सिद्धान्त के स्तर पर वह किसी से भी लड़ सकता है। लेकिन यह किस स्तर की लड़ाई है? जमुनवा के साथ उसकी यह कैसी लड़ाई है? ज़मींदार और असामी की? मालिक और गुलाम की? राजा और प्रजा की?

तो वह ज़मींदार है, मालिक है राजा है! ...मन्ने की अन्तरात्मा व्यंग से हँस पड़ी, वह ज़मींदार है! मालिक है! राजा है! ...और जमुनवा असामी है, ग़ुलाम है, प्रजा है!

लेकिन इन दोनों के बीच लड़ाई का आधार क्या है?

...तुम्हारी नीति, तुम्हारे सिद्धान्त के पास इस प्रश्न का उत्तर है, मन्ने? इस लड़ाई को तुम किसी भी प्रकार, किसी भी नीति अथवा सिद्धान्त से जोड़ सकते हो, मन्ने?

...जमुनवा को एक पक्ष के रूप में मानने को तैयार हो, मन्ने?

...मन्ने, अगर तुम इन्सान हो, तो नैतिकता और सिद्धान्त के नाम पर तुम्हें इन प्रश्नों के उत्तर देने पड़ेंगे। बिना ये उत्तर दिये तुम जमुनवा से कोई लड़ाई नहीं ठान सकते।

...जमुनवा ने बाबू साहब का अपमान किया, एक यही आधार इस लड़ाई का है न?

...लेकिन निरीह जमुनवा ने, जो कल तक तुम्हारा वफ़ादार असामी था, जिसके बारे में अब्बा लिख गये हैं कि उसे अपना आदमी समझा जाय, यह अपराध क्यों किया?

...इसका उत्तर कौन देगा?

...बाबू साहब?

...तुम?

...नहीं! इस प्रश्न का उत्तर केवल जमुनवा दे सकता है!

...तुम उसके विरुद्ध कुछ भी करने से पहले उससे पूछोगे?

...बाबू साहब के सामने उसे खड़ाकर तुम यह सवाल उससे पूछोगे? है इतना नैतिक साहस तुममें?

मन्ने को लगा कि उसका इन्सान कटहरे में खड़ा है और जमुनवा उसकी ओर अँगुली उठाकर यह सवाल कर रहा है। ...उसका दिमाग़ चकरा उठा। उसकी नैतिकता थर्रा उठी। उसके सिद्धान्त काँप उठे। उसकी इन्सानियत सहम गयी।

...मन्ने, अब तक तुमने कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं, कॉलेज में, समाज में। उन लड़ाईयों को लड़ते समय तुम्हारे मन में कोई दुविधा न उठी। न्याय, सत्य, नैतिकता, सिद्धान्त की इन लड़ाइयों ने तुम्हें अदम्य उत्साह, अपार शक्ति तथा अटूट विश्वास प्रदान किया है। गर्व से तुम्हारा माथा सदा ऊँचा रहा है। तुमने किसी भी अन्याय के सामने अपना सिर नहीं झुकाया है, किसी असत्य को तुमने स्वीकार नहीं किया है, किसी अनीति के सामने झुके नहीं, कभी तुमने अपना सिद्धान्त नहीं छोड़ा। कितने जोश से यह शेर तुम पढ़ते हो :

यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा

या मैं रहूँ जिन्दाँ में या वो रहे ज़िन्दाँ में

और आज?

...आज ज़रा-सी बिछलन पर तुम्हारे पाँव रपटे जा रहे है। ज़रा-सी बात पर तुम अन्धे होकर सत्य और न्याय का गला घोंटने जा रहे हो। एक कमजोर आदमी पर तुम अपनी ताक़त दिखाने जा रहे हो। एक निस्सहाय व्यक्ति को, बिना उसकी बात सुने, बिना उसका पक्ष समझे दण्ड देने जा रहे हो। उसकी सारी वफ़ादारी को भुलाकर उस पर अमानुषिक अत्याचार करने जा रहे हो। बाबू साहब के साथ पक्षपात या स्वयं अपने साथ पक्षपात क्या पक्षपात नहीं? दीवार क्या बाहर ही खड़ी है, तुम्हारे अन्दर कोई दीवार नहीं? बाहर से सर टकराने की तमन्ना तुम मन में पाले हुए हो, लेकिन इन अन्दर की दीवारों से? ...एक साधारण-सा स्वार्थ ही कि अगर बाबू साहब छोड़ गये, तो तुम्हारी पढ़ाई खटाई में पड़ जायगी, तुम्हें पछाड़े जा रहा है, तो आगे क्या होगा? इस छोटी-सी दीवार से ही टकराकर तुम्हारा सर ख़ून-ख़ून हुआ जा रहा है, तो तुम उन बड़ी-बड़ी दीवारों से, जो तुम्हारे अन्दर और बाहर खड़ी हैं, जिनकी ताक़तों का अभी तुम्हें पूरा-पूरा ज्ञान नहीं, जिनका निर्माण सदियों से मानव की पाशविक प्रवृत्तियों ने किया है, जिनकी नींवें हमारे मन में, समाज में, बहुत गहरे तक गड़ी हैं, क्या खाकर सिर टकराओगे?

...जीवन में यह तुम्हारी पहली साधारण परीक्षा है। तुम्हारा सारा आदर्श, सिद्धान्त, शक्ति नीति और वह-सब, जो तुममें अच्छा है, आज कसौटी पर है! इसमें ही अगर तुुम असफल हो गये, खरे न उतरे, तो आगे क्या होगा, इसकी कल्पना तुम आज नहीं कर सकते। यह ज़िन्दगी बड़ी सख़्तगीर है, बड़ी पेचीदा है, इसका नाम ही एक मुसलसल इम्तिहान है और इन इम्तिहानों में अधिकतर लोगों को असफलताएँ ही हाथ लगती हैं...

मन्ने लेटे-लेटे सोच ही रहा था कि बाहर एक शोर-सा हुआ। वह उठकर दरवाज़े पर आया। सामने बिफरे बाघ की तरह कन्धे पर लाठी ताने बाबू साहब आगे-आगे आ रहे थे और उनके पीछे-पीछे चार लठैतों के बीच घिरा हुआ जमुनवा वैसे ही शर्म से सिर झुकाये आ रहा था, जैसे सिपाहियों के बीच अपराधी! मन्ने से यह दृश्य देखा न गया। वह अन्दर चारपाई पर जा बैठा। इस दृश्य की कल्पना उसने कब की थी? और आज वही इस दृश्य का सूत्रधार बना है! उसने हथेली पर माथा टेक दिया।

दूसरे दरवाजे से सब अन्दर आ गये, तो दरवाज़ा बन्द करने की आवाज़ आयी।

बाबू साहब मन्ने के पास आकर बोले-वह आ गया।

अब?

मन्ने ने सिर उठाया। आवाज़ गले से फूट नहीं रही थी। किसी तरह हकलाकर बोला-मुझे आप क्या कहते हैं?

-चलकर उसे जूते से पीटिए! उसे मालूम हो जाय कि उसके ऐसे व्यवहार का क्या नतीजा होता है!-बाबू साहब की आँखों में ख़ून चमक रहा था।

-वह आपका अपराधी है, आप ही...

-नहीं, वह आपका अपराधी है, वर्ना मेरा उससे क्या सम्बन्ध है?-बाबू साहब ऐंठकर बोले-उठिए, कमजोरी न दिखाइए। कमजोर हाथों से ज़मींदारी नहीं चलती। उठिए, आपके हाथ से उसे चोट नहीं लगेगी, आप उसके मालिक हैं। मेरे हाथ से उसे बहुत चोट लगेगी, मैं उसके लिए ग़ैर हूँ। उठिए!

-बाबू साहब!-जैसे मिमियाकर मन्ने बोला-आप यह क्या कहते हैं? मैं...मैं...

-यही करना था, तो आपने उसे क्यों पकड़वा मँगाया? क्या अब आप ख़ुद मेरा अपमान...

मन्ने उठ खड़ा हुआ। उसे लगा, जैसे उसका सिर हवा में उड़ने लगा है। वह दौडक़र आँगन में गया और पैर से जूता निकालकर पटापट जमुनवा के सिर, मुँह, गर्दन, पीठ पर बरसाने लगा।

कोई विरोध नहीं। जमुनवा सिर झुकाये आँखें मूदे ऐसे बैठा था, जैसे वह माटी का लोंदा हो।

मन्ने मारते-मारते थक गया, तो हाथ में जूता लिये ही कमरे में आ चारपाई पर धम्म से गिर पड़ा। उसके हाथ का जूता काँप रहा था, उसकी पिण्डलियाँ थरथरा रही थीं, उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था और साँस हफर-हफर चल रही थी।

जमुनवा कब चला गया, बाबू साहब ने कब मने के हाथ से जूता लेकर नीचे रख दिया, उसे नहींंं मालूम।

बड़ी देर के बाद उसे होश आया। उसने आँखें खोलीं, तो सामने पीढ़ी पर बाबू साहब बैठे थे। उसने फिर आँखे मूँद लीं।

-मुझे मालूम होता कि आप इतने कमजोर हैं, तो...

मन्ने ने आँखें खोलीं और हाथ उठाकर देखा, हाथ पहले ही की तरह काँप रहा था।

बाबू साहब ने लपककर उसका हाथ थाम लिया। बोले-इस हाथ को बड़े-बड़े काम करने हैं! इस ज़रा-सी बात पर ही यह काँपने लगे, तो...

-बाबू साहब,-मन्ने आँखें मूँदकर साँस की आवाज़ में बोला-आप जाइए। इस समय मुझे अकेले छोड़ दीजिए।

-यह कैसे हो सकता है?-बाबू साहब हँसकर बोले-आप अभी तक बच्चे ही रहे। ज़र, ज़मीन और ज़न कमजोर हाथों में नहीं रहते। आप सयाने हुए। आज नहीं तो कल सब आपको ही सम्हालना होगा। इस तरह आप कमजोरी दिखाएँगे तो सब-कुछ, जो बाप-दादा छोड़ गये हैं, आपके हाथों से सरक जायगा। ये असामी, जो आपके सामने दुम दबाकर, सिर झुकाकर खड़े होते हैं, आप पर गुर्राने लगेंगे और जिसे जो मिलेगा, धर दबाएगा! जुब्ली मियाँ को देखिए, हालत बिलकुल ख़राब है, लेकिन ज़मींदारी कमाना वे जानते हैं। इसी कमाई से उनका ख़र्चा चलता है। आपकी कमजोरी ही के कारण आपकी ज़मींदारी का भी वही फ़ायदा उठाते हैं। आपके कई खेत उन्हीं के कब्जे में हैं। हर घड़ी उनके दरवाजे पर भीड़ लगी रहती है। कोई-न-कोई टण्टा हमेशा खड़ा किये रहते हैं और एक को दबा, दूसरे को उभार अपना उल्लू सीधा किया करते हैं। और एक आप हैं कि पढ़ाई के रुपयों के भी लाले पड़ रहे हैं। हम क्या कर सकते हैं? आपकी तरह हम तो मामलों के अन्दर दख़लन्दाजी नहीं कर सकते। ...कम-से-कम छुट्टियों में तो आप ज़मीन-जायदाद के कामों में दिलचस्पी लिया कीजिए। ...मुंशी राम जीवन लाल से मैंने बातें की है। आप जब कहें, उन्हें बुला दें। वे आपके खेतों की पड़ताल करा देंगे। बड़े बुजुर्ग और तजुर्बेकार आदमी हैं, गाँव की राई-रत्ती से वाक़िफ़ हैं। ....आपका नुक़सान हमसे नहीं देखा जाता...

ये सारी बातें मन्ने के कान में गर्म सीसे की तरह पड़ रहीं थीं। आख़िर अधिक सहना असम्भव हो गया, तो तडक़कर उसने आँखें खोलीं और बोला-बाबू साहब, यह सब मुझसे नहीं होगा, नहीं होगा! और उसने फिर आँखें मूँद लीं।

बाबू साहब हँस पड़े। बोले-यह ज़िन्दगी बड़ी सख़्तगीर है! भावुक व्यक्तियों को यह पीसकर रख देती है! ... ख़ैर, मैं जा रहा हूँ। खलिहान में ओसावन लगा है। आप मेरी बातों पर सोचिए। ...हाँ, आँगन में वे जवान बैठे हैं, उन्हें कुछ देना होगा न!

-आप जो चाहिए, कीजिए,-मन्ने आँखें मूँदे ही बोला-इस समय मुझे छोड़ दीजिए।

यह बाबू साहब का कौन-सा रूप आज मन्ने ने देखा है? फ़रिश्ते के अन्दर यह शैतान कहाँ छुपा बैठा था? ...छि:, मन्ने! यह तेरे मँुह से बाबू साहब के लिए कैसी बात निकल रही है? क्या तू सच ही बिलकुल बच्चा है? तेरा दुख, तेरी ख़ुशी, तेरी नाराज़गी क्या बच्चों की ही तरह है? अभी एक बात पर तू किसी को अपने सिर पर बैठा लेता है और अभी एक बात पर तू किसी को पैरों-तले रौंदने लगता है। तू अभी किसी को फ़रिश्ता बना देता है, अभी किसी को शैतान। ...इन्सान को समझना क्या इतना आसान है? क्या एक बात, एक काम से ही इन्सान को समझा जा सकता है? ...अगर यही बात है, तो अपने बारे में तेरा क्या ख़याल है? ...तेरा आज का यह काम...तू भला किस शैतान से कम है? ...जमुनवा से जाकर पूछ, वह तेरे बारे में इस समय क्या सोच रहा है? ...और मन्ने की विचारधारा सहसा टूट गयी। जिस उँगली को उसने बाबू साहब की ओर उठाया था, वही उँगली उसकी ओर घूम गयी, तो वह ख़ामोश हो गया। अपने बारे में, अपनी दुर्बलताओं और बुराईयों के बारे में सोचना कितना कठिन काम है! डाक्टर के हाथ से अपना फोड़ा चिरवा लेना उतना कठिन नहीं, लेकिन अपने ही हाथ से अपना फोड़ा चीरना पड़ जाय, तो? ...

...मन्ने, तुम्हारे अनुभव सच ही बिलकुल कच्चे हैं। तुमने अभी दुनिया बिलकुल ही कम देखी है। तुम्हारे सिद्धान्तों, तुम्हारी नैतिकताओं, तुम्हारी अच्छाइयों में अभी कोई दम नहीं। ज़रा-से में सब टूट-फूटकर रह जाता है। भावुकता के आईने में अभी तक तुमने जो-कुछ देखा है, जीव का सत्य उसके परे है। यह आईना तोडक़र जीवन के सत्यों से जब तक सीधे आँख न मिलाओगे, तुम सपनों के संसार में ही विचरा करोगे और ज़रा-ज़रा-सी बात पर तुम बच्चों की तरह हँसते-रोते रहोगे, ख़ुश-नाराज़ होते रहोगे...पढ़ाई में तुम भले ही तेज़ हो, विवादों में भले ही तुम पुरस्कार प्राप्त कर लो...लेकिन आज यह बात तय हो गयी कि ज़िन्दगी का एक इम्तिहान भी अभी तुम पास नहीं कर सकते। ज़िन्दगी वह किताब नहीं, जिसे तुम बाज़ार से ख़रीद लाओ और पढक़र, रटकर, उस पर किये गये सवालों का जवाब देकर पास हो जाओ। ज़िन्दगी वह किताब है, जिसमें इतने सफ़हे हैं कि आज तक कोई गिन न सका, और जिसके सफ़हों की तायदाद हमेशा बढ़ती रहती है। हर नया इन्सान जो इस संसार में आता है, उसके सामने यह किताब बन्द पड़ी रहती है। इन्सान जब पहली बार आँख खोलता है, उस किताब की जिल्द का एक कोना-भर ही देखकर हैरत में पड़ जाता है। इसका आवरण ही देखने और समझने के लिए एक ज़िन्दगी चाहिए। और तुमने अभी इसका क्या देखा है? समझ लो कि आज तुमने इस किताब का पहला अक्षर देखा है और उसी से तुम इतने मर्माहत हो उठे हो और अपने ही सामने इतने गिर गये हो। फिर आगे क्या होगा, क्या होगा?

मन्ने दिन-भर चारपाई पर पड़ा रहा। मन-ही-मन इसी तरह की बहुत-सी बातें सोचता रहा। उसे कोई प्रकाश दिखाई न दे रहा था। कई बार उसके मन में आया था कि वह अभी चलकर जमुनवा से माफ़ी माँग ले...बाबू साहब नाराज़ हों तो हों, उसे वह भले ही छोड़ दें, लेकिन दिल में पश्चात्ताप की आग लिये वह कैसे जी सकेगा? ...फिर...फिर...क्या होगा? ...बाबू साहब उसे छोडक़र चले जाएँगे। सारा भार उसी पर पड़ जायगा। उसकी पढ़ाई ख़त्म हो जायगी। आगे की ज़िन्दगी के सारे सपने धरे-के-धरे रह जाएँगे। ...और फिर क्या वह अपने इस दिल-दिमाग़ से, इस नातजुर्बेकारी से अपनी ज़मीन-जायदाद को सम्हाल पाएगा? ...नहीं, नहीं! तो फिर?

गाड़ी इसी तरह थोड़ी दूर चलकर ठप्प हो जाती। जितना वह सोच सकता था, सोच रहा था, लेकिन हर बार उसकी गाड़ी इसी तरह ठप्प पड़ जाती थी, उसका दिमाग़ जवाब दे देता था। जंगल की आग में घिरे एक हिरन की तरह उसकी हालत हो रही थी, कहीं कोई रास्ता दिखाई न पड़ता था...

रह-रहकर वह अपने दोनों हाथों को देखता, एक हाथ काँपता रहता और दूसरे पर एक निशान एक तारे की तरह चमकता रहता। एक हाथ में एक निरपराध का ख़ून लगा है और दूसरे हाथ पर दोस्ती और मुहब्बत का एक निशान है। कितना फ़र्क़ है इन दोनों हाथों में! लगता है, जैसे तारे की चमक मद्धिम पड़ गयी हो, उस पर ख़ून का छींटा पड़ गया हो। ...मन्ने! मन्ने! यह तुमने क्या किया?

कई बार छोटी बहन ने ज़नाने से उसे खाना खाने के लिए कहलवाया, लेकिन मन्ने ने हर बार यही कहला दिया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं, आज वह खाना नहीं खायगा।

दोपहर की छुट्टी में खलिहान से बाबू साहब आये थे। उसे उस वक़्त तक उसी हालत में देखकर उन्होंने कहा था-यह क्या? अभी तक आप ऐसे ही पड़े हैं? उठिए, नहा-धोकर खाना खाइए।

लेकिन कुहनी से मुँह छुपाये मन्ने वैसे ही पड़ा रहा। उसने एक बात न कही।

तब जैसे परेशान होकर बाबू साहब ने कहा था-ऐसा समझता तो आपसे कुछ भी न कहता। फिर काहे को यह-सब होता। मुझे मालूम न था कि आपका दिल इतना कमजोर है। वर्ना मैंने जैसे आपके लिए इतना-सब किया, यह अपमान भी चुप मारकर झेल लेता!-और वे बाहर चले गये थे।

मन्ने को फिर एक झटका लगा था। बाबू साहब यह क्या कह गये? ...यही तो अभी उसे सबक़ दे रहे थे कि...और अभी फिर यह क्या कह गये? इन्हें भी समझना आसान नहीं...शायद किसी को भी समझना आसान नहीं। वह खुद अपने को कहाँ समझ पाता है! कौन इस बात पर यक़ीन करेगा कि उसने अभी-अभी एक आदमी को, बिना उससे एक बात किये जूते से पीटा है? ...यह बात अगर कॉलेज तक पहुँच जाय? ...मन्ने पर फिर वही कुण्ठा की स्थिति छा गयी और उसे लगा कि कहीं चुल्लू-भर पानी मिले तो वह डूब मरे। और कोई रास्ता नहीं, यह मुँह अब दिखाने-लायक नहीं रहा।

ये बाबू साहब कह रहे थे कि वे उसके लिए अपमान भी झेल लेते। और उसने अभी उन्हें शैतान कहा था। ओफ़! वह किस भूल-भुलैया में डाल दिया गया है कि कहीं कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ता। जिधर भी वह चलता है, थोड़ी दूर चलने पर ही मालूम होता है कि उसने ग़लत रास्ता पकड़ लिया है। ...मन्ने, यह ज़िन्दगी ही एक भूल-भुलैया है, इसका कोई रास्ता सीधा नहीं जाता, बल्कि इसका कोई रास्ता ही नहीं, रास्ता तो इन्सान को बनाना पड़ता है। एक रास्ते पर वह असफल होता है, तो दूसरा रास्ता गढ़ता है और उस पर चलता है...और फिर अक्सर ऐसा भी होता है कि इन्सान जि़न्दगी-भर रास्ते ही गढ़ता रहता है और उन पर चलता रहता है और अन्त में वह पाता है कि वह कहीं भी नहीं पहुँचा।

...मन्ने, हो सकता है कि तुम भी कहीं न पहुँचो। ...पहली ही सीढ़ी पर जब तुम्हारा यह हाल है, तो पहाड़ पर तुम क्या चढ़ोगे? ...लेकिन कोई बात नहीं, शर्त रास्ता ढूँढऩे की है, उस पर चलने की है, लेकिन आज तो तुम जैसे इससे भी इनकार कर रहे हो। ...मन्ने, यह समझ लो कि इससे इनकार ज़िन्दगी का रास्ता नहीं, मौत का रास्ता है और ऐसी मौत का मतलब होता है, कुछ नहीं, कुछ नहीं...क्या तुम कुछ भी नहीं, मन्ने?

फिर यह शेर तुम्हारे लिए क्या माने रखता है, जिसे तुमने एक दिन बहुत बड़ा शेर कहा था, जिसे तुम वक़्त पड़ने पर गुनगुनाते हो, जोर-जोर से पढ़ते हो :

यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा

या मैं रहूँ जि़न्दाँ में या वो रहे जि़न्दाँ में

...नहीं, मन्ने, तुम एक बात को ही ज़िन्दगी और मौत का सवाल मत बना लो। इस बात को तुम एक दीवार ही समझो और इससे भी सर टकराने का साहस बाँधो और आगे बढ़ो। एक ही ठोकर पर तुम इस तरह मुँह के बल गिर पड़ोगे, तो इस दुर्गम पथ पर आगे कैसे बढ़ोगे? ...

कई दिन तक मन्ने गुम-सुम बना रहा। सिर्फ़ खाना खाने के लिए वह सिर झुकाये ज़नाने में जाता और लौटकर खण्ड में पड़ रहता। रास्ते में एक बार भी वह आँख न उठाता, उसे लगता कि चारों ओर से उस पर अँगुलियाँ उठी हुई हैं और उसे आँखें घूर रही हैं। उसका ख़याल था कि गाँव में चारों ओरे थू-थू हो रही होगी; जो भी सुनता होगा, उसके मुँह से गालियाँ निकल रहीं होंगी। ...

बाबू साहब से भी वह आँख न मिलाता। वे आते, थोड़ी देर चुपचाप बैठते और चले जाते। वे भी कुछ न कहते। दोनों के बीच जैसे एक दीवार खिंच गयी हो। दोनों जैसे अपने-अपने विचारों की चक्कियों में घुमर-घुमर पिसे जा रहे हों। दोनों जैसे अपने को एक-दूसरे के सामने अपराधी समझते हों।

एक दिन दोपहर का समय था। मन्ने खाना खाकर खण्ड में आ गया था और दरवाज़ा बन्द करके लेटा हुआ था। उसे इस समय मुन्नी की बहुत याद आ रही थी। वह सोच रहा था कि इस समय मुन्नी अगर उसके पास होता, तो उसे इस मन:स्थिति से निकलने में उससे बड़ी सहायता मिलती। वह बातें करता, उसके सामने सारी परिस्थिति रखता और उससे सम्मति माँगता। हो सकता है कि यह-सब जानकर वह उस पर बहुत बिगड़ता कि यह उसने क्या किया? वह उसे डाँटता कि मालूम होता है, तुम भी इन्हीं-सब ज़मींदारों की राह पर चलोगे! तुममें भी कहीं दरिन्दों का ख़ून है, जिसने समय आने पर अपना रंग दिखा दिया। मैं तुम्हारे बारे में ऐसा नहीं सोचता था। मैं तो सोचता था कि और कुछ भले न हो, कम-से-कम तुम एक शरीफ़ इन्सान बनोगे, गाँव के सामने एक मिसाल रखोगे कि पढ़े-लिखे, समझदार आदमी कैसे होते हैं। लेकिन तुमने तो मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया! ...

मन्ने चाहता था कि इस समय कोई उसे डाँटनेवाला ही मिल जाता...कि तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज़ आयी।

मन्ने ज़रा चौककर उठ बैठा। इस समय कौन आ सकता है? बाबू साहब आजकल दोपहर को ही अपने घर चले जाते हैं। बिलरा भी खाना खाने घर गया होगा।

फिर दस्तक हुई, तो उसने उठकर कुण्डी खोली और दरवाज़ा खोलते हुए बोला-कौन है?

-सलाम, बाबू!

-कैलसिया! तू?-मन्ने के मुँह से निकला और उसके चेहरे पर एक लू का थपेड़ा-सा लगा।

-हाँ, अन्दर तो आ जाने दीजिए! मैं तो खड़ी-खड़ी यहाँ झुलस गयी!- कैलसिया बोली और उसका इन्तज़ार किये बिना कि मन्ने दरवाजे से हटे, वह अन्दर घुसने लगी, तो मन्ने आप ही हटकर चारपाई पर बैठ गया।

कैलसिया उसके सामने फ़र्श पर बैठती हुई बोली-हमें नहीं आना चाहिए था का?

-नहीं, आना क्यों नहीं चाहिए?-मन्ने आँखें नीचे किये हुए बोला-लेकिन तेरा तो तीन साल से कुछ पता ही नहीं था।

-का करते?-कैलसिया ने आँखें चमकाकर कहा-आपने घर से निकाल दिया, तो हम कहाँ रहते?

मन्ने की आँखों के सामने उस रात का दृश्य नाच गया। उस समय उसने क्या समझकर वैसा किया था, मन्ने जानता है, लेकिन यह किसी को घर से निकालने की तरह था, यह तो उसके दिमाग़ में आज तक नहीं आया था। बोला-नहीं, ऐसा समझकर तो मैंने तुझे उस रात तेरे घर नहीं भेजवाया था!

-तो का समझकर आपने वैसा किया था?-पलकें उठाकर कैलसिया बोली।

मन्ने जैसे सकते में आ गया। क्या जवाब दे इसका? यह लडक़ी उससे बड़ी है, इसे ऐसी बातों की उससे ज़्यादा समझ होनी चाहिए। क्या यह नहीं समझती कि उसने वैसा क्यों किया था? उसने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा, नहीं, कैलसिया के मुखड़े पर कोई विकार नहीं है। वह तो सीधे उससे आँखें मिलाकर यह सवाल पूछ रही है।

मन्ने को सहसा ऐसा लगा कि कमरे का वातावरण बिल्कुल बदल गया है। जिस कमरे में आज कई दिनों से उसके प्राण घुट रहे थे, जहाँ वह न जाने किन-किन यातनाओं में पड़ा हुआ तड़प रहा था, वही कमरा इस समय कैसा दिख रहा है! वह स्वयं जैसे इस समय सब-कुछ भूले जा रहा है, जैसे बहुत दिनों का चढ़ा हुआ बुखार उतर रहा हो।

इस लडक़ी के बारे में वह बहुत-कुछ बाबू साहब से सुन चुका है। इस लडक़ी को लेकर अब्बा के बारे में बहुत-सी बातें गाँव की हवा में आज भी मँडरा रही हैं। इस लडक़ी ने गाँव को एक अमर कहानी दी। ...इसमें ज़रूर कोई ऐसी चीज़ है, तभी तो पाँव रखते ही इसने यहाँ की हवा बदल दी!

यह लडक़ी उसके सामने बैठी है। इतने करीब से उसने उसे कभी नहीं देखा। उसके मन में आया कि इस कहानी बननेवाली लडक़ी को ध्यान से देखे और समझे कि आख़िर इसमें क्या है?

नहीं, वैसी कोई असाधारण बात तो इसमें नहीं है। हाँ, चेहरे पर एक असाधारण सख़्ती ज़रूर है, आँखों में एक असाधारण रोब ज़रूर है...और...और तो कुछ भी दिखाई नहीं देता। इसके दिल-दिमाग़ की बात क्या कही जा सकती है, उसे देखना-समझना क्या कोई साधारण बात है। हो सकता है, यह लडक़ी दिल-दिमाग़ से ही असाधारण हो, वर्ना...

मन्ने के मन में आया कि उसके सवाल का वह कोई जवाब दे दे, लेकिन फिर सहसा उसे लगा कि, नहीं, ऐसा करना मुश्किल है। इस लडक़ी के साथ झूठ वह नहीं बोल सकता, लाग-लपेट की बात वह नहीं कर सकता। वर्ना जाने क्या हो! क्या जाने उठकर तुरन्त चली जाय और इस समय वह चाहता था कि वह न जाय, यहाँ कुछ देर तक रहे, उससे कुछ बातें करे। कैसा अच्छा लग रहा है! जैसे लू-धूप में एक मंज़िल मारने के बाद कोई अमराई में पहुँच गया हो।

बोला-उस वक़्त मेरा दिमाग़ ठीक नहीं था। तुम्हारी हालत देखकर शायद मेरा दिमाग़ और ख़राब हो जाता। इसीलिए फ़िलहाल तुझे भेज देना ही बेहतर समझा। सोचा था, इत्मिनान होने पर तेरे बारे में सोचूँगा और कुछ करूँगा।

-और आज तक इत्मिनान नहीं हुआ! तभी तो आपने कोई खबर न ली!-आँखे तिरछी करके कैलसिया बोली।

-नहीं, ऐसी बात तो नहीं,-नीचे देखता, कुछ सोचता हुआ-सा मन्ने बोला- तेरा ध्यान बराबर मुझे बना रहा और मैं सोचता भी रहा कि तेरे बारे में क्या किया जाय।

-लेकिन कुछ सोच न पाये?-मन्द हँसी हँसकर कैलसिया बोली-बहुत मुस्किल बात थी न?

-कैलसिया,-अपने को हीन-सा अनुभव करता मन्ने बोला-मुझमें अब्बा का दम-खम नहीं। फिर भी, तेरे बारे में मैं कुछ करना चाहता था। लेकिन तभी मालूम हुआ कि तू बिना किसी से कुछ कहे-सुने गाँव छोडक़र जाने कहाँ चली गयी। ...

-और आपको छुट्टी मिल गयी?- हँसकर कैलसिया बोली। फिर सहसा उदास हो गयी-उतने दिन हम गाँव में रहे, आपने एक बार भी खबर न ली। आदमी घर के कुत्ते को भी इस तरह कहीं बिसराता है! ...और हमने सोच लिया, मियाँ के साथ ही इस घर से हमारा नाता टूट गया!-उसकी आँखें भर आयीं-मियाँ आपके अब्बा थे, बाबू साहब के दोस्त थे, और न जाने किनके-किनके का-का थे! ...हम सोचते हैं, वे हमारे कौन थे, उनका हमारे साथ कौन-सा नाता था? ...सब के लिए वो कुछ-न-कुछ छोड़ गये, हमारे लिए उन्होंने का छोड़ा?-और उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे।

मन्ने के लिए सहना कठिन हो गया। वह क्या कहे, उसके साथ जो व्यवहार किया था, यह उसी का तो स्पष्टीकरण था। ...अब्बा रहते, तो उन्होंने इसकी शादी करा दी होती। इनकी शादी में कौन अधिक खर्च होता है। दो-चार सौ बहुत होते हैं। फिर भी यह छोटा-सा काम वह नहीं कर सका। अब्बा ने जिसके लिए हज़ारों के वारे-न्यारे कर दिये, वह दो-चार सौ के लिए सोच-विचार करता रहा। ...अब्बा के लिए कोई काम मुश्किल न था। जाने वे कैसे सब करते थे। मेरे लिए तो घर का और अपना ख़र्च जुटाना ही मुश्किल पड़ जाता है। ...लेकिन, मन्ने! आख़िर तू सब करता है या नहीं? तूने दो-दो बहनों की शादी की...तू घर का और अपनी पढ़ाई का ख़र्च चलाता है...तीसरी बहन की शादी की तुझे चिन्ता है...एक कैलसिया के लिए ही तुझे इतना सोचना-विचारना क्यों पड़ा? इसका जवाब तू कैलसिया को न दे, अपने को ही दे न! इस भावुकता से क्या लाभ? जो सही बात है, तू उसे ही स्वीकार कर और इस कैलसिया से कह दे कि वह जो समझती है, वही ठीक है, मियाँ से चाहे जो भी सम्बन्ध उसका रहा हो, मन्ने के साथ उसका कोई भी सम्बन्ध नहीं, उस पर उसकी कोई भी जिम्मेदारी नहीं। वह मजबूर है। ...

आँखें पोंछकर कैलसिया ही बोली-बाबू, आप और कुछ न सोचें। कैलसिया चाहे जो हो, वो लोभी नहीं। मियाँ से उसने कभी कोई चीज़ नहीं चाही। जब तक वो रहे, उसे किसी चीज़ की जरूरत नहीं पड़ी, कभी उसने किसी बात की चिन्ता ही नहीं की। उसे लगता था कि सारी दुनियाँ ही उसकी है। ...लेकिन वो चले गये, तो अचानक ही, आपने हमें घर भेज दिया। हमें लगा कि कैलसिया की नाव बीच मँझधार में डूब गयी। उसका कोई नहीं। जिस पेड़ पर लतर फैली थी, वही जब गिर पड़ा, तो लतर का का रह गया? उसने समझ लिया कि उसका कुछ नहीं, वह अनाथ हो गयी...वह बेवा हो गयी, वह बेसहारा हो गयी। ...उसने समझ लिया कि...और कैलसिया फफक-फफककर रो पड़ी, उसका कण्ठ अवरुद्ध हो गया।

मन्ने के लिए वहाँ बैठना मुश्किल हो गया। जो वातावरण कैलसिया के आने से सहसा हल्का हो गया था, अब इतना भारी हो गया कि मन्ने के लिए साँस लेना भी कठिन हो गया। उसे लग रहा था कि कोई उसे सूए से घोंप रहा है और वह कोई भी बचाव करने में अपने को असमर्थ पा रहा है।

आँखों पर आँचल रखकर कैलसिया ही फिर बोली-और जब कई महीने बीत गये और आपने यह खबर भी न ली कि कैलसिया जिन्दा है, या मर गयी, तो हमने सोच लिया कि मियाँ के कोई बेटा नहीं, जो मियाँ की बनायी हुई एक लडक़ी की खोज ख़बर ले और वह एक रात घर छोडक़र डूब मरने के लिए निकल पड़ी...

-कैलसिया!-जैसे मन्ने की सहन-शक्ति सीमा पर आकर पट से टूट गयी हो, वह तड़पकर बोला-कैलसिया! मुझे माफ़ कर दे! मियाँ का बेटा समझकर ही तू मुझे माफ़ कर दे! मैं तेरे आगे बेहद शर्मिन्दा हूँ! अब्बा का गुनहगार तो हूँ ही!

-नहीं-नहीं, हमारे आगे आप सरमिन्दा काहे को होंगे?-सिर हिलाती हुई कैलसिया बोली-हम आपको माफ करनेवाले या आपकी गलती बतानेवाले कौन होते हैं? आपसे हमारा नाता ही कौन-सा है? आप हमें या हम आपको जानते ही कहाँ है? वो तो बात आयी, तो जाने का-का मुँह से निकल गया। मियाँ की बात मियाँ के साथ ही चली गयी! ...हम तो यही सोचते हैं कि उन्हीं के साथ हम भी काहे नाहीं मर गये? अब तो मरा भी नहीं जाता! गये थे कि नदी में डूबकर जान दे देंगे। लेकिन मियाँ ने ही जैसे हमारा हाथ पकडक़र रोक दिया, बोले, इसीलिए हमने तुझे बनाया था? आज ऐसी बुजदिली कहाँ से तुझमें आ गयी? हमें भूल गयी का? यह काहे नहीं सोचती कि मरने के बाद भी हमारी रूह तेरे साथ है? तू हिम्मत से काम ले और जी! जब तक तू जिन्दा रहेगी, हम मरकर भी जिन्दा रहेंगे, काहे कि तुझे देखकर लोग हमें जरूर याद करेंगे! ...और हम एक रात मोतिया के साथ कलकत्ता चले गये। वहाँ चटकल में सिलाई करते हैं। जिनगी एक तरह से अच्छी ही कट रही है।

मन्ने ने एक बार फिर उसे ग़ौर से देखा। मन्ने की लज्जा को जैसे कैलसिया ने ही अपने ऊपर ओढ़ लिया था और फिर उसके होंठों पर एक मुस्कान वापस आ गयी थी। अद्भुत है यह औरत! अभी रो रही थी, अभी मुस्करा रही है! मन्ने के लिए उसे समझना आसान नहीं! ...गाँव की कई रंगवों की औरतें कलकत्ता में अपने मर्दों के साथ रहती हैं और चटकल में काम करती हैं। तर-त्यौहार या बर-बियाह में आती हैं, तो उन्हें देखते ही बनता है। दाँतों में काली या लाल मिस्सी पर बत्तीसी चमकती है, होंठ चौबीसों घण्टे पान से रचे रहते हैं, चेहरे पर जैसे चमकीला कोलतार पुता रहता है, बारीक साड़ी, चाँदी के भारी-भारी गहने पर लपर-लपर बातें। देखकर ही कोई कह सकता है कि कलकतिया हैं। लेकिन इस कैलसिया को कोई कलकतिया कैसे कहे? इसमें तो कोई भी वैसी चीज़ नहीं। कैसी सीधी और साफ-सुथरी दिखाई देती है! चेहरे के रंग और चमक में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है, कलकत्ते के पानी का जैसे कोई असर ही नहीं।

कैलसिया ही आगे बोली-नौकरी मिलने में तो वहाँ देर न लगी। लेकिन लोग बाग जब हमें तंग करने लगे, तो जी उचाट हो गया। हमें डर कोई नहीं था, लेकिन वैसे में काम करना बड़ा कठिन लग रहा था। गाँव के लोगों से कहा, तो वे हँसने लगे। बोले, अभी यहाँ तुझे कोई जानता नहीं, इसीलिए छेड़-छाड़ करते हैं। जान लेंगे तो सब ख़ामोश हो जाएँगे। तू किसी बात की फिकर न कर। ...और फिर जाने कैसे हमारे और मियाँ के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ वहाँ फैल गयीं। लोगे जैसे चिहा-चिहाकर हमारी ओर देखने लगे। फिर हमारे पास से वैसे ही दूर हट गये, जैसे आग की लपट से आदमी हाथ खींच लेता है। और हमने सोचा, मियाँ यहाँ भी हमारी मदद कर रहे हैं! ...सोचा था, फिर कभी गाँव में कदम न रखेंगे। लेकिन मियाँ का थान हमें खींच ही लाया। कल दोपहर को आये थे। साँझ को दरगाह गये थे। वहाँ मियाँ की कबुर का कोई निसान ही नहीं मिला, बाबू, का आप उनकी कबुर भी पक्की नहीं करवा सकते थे? का सच की आप लोग चाहते हैं कि मियाँ का कोई निसान न रह जाय? ...यह आपने नया कमरा बनवा लिया है, उनका कमरा भी आपने छोड़ दिया? ...जरा हम उनका कमरा देख लें?

यह गँवार, नीच जाति, चमार की बेटी क्या मन्ने के लिए एक चुल्लू पानी भी नहीं छोड़ेगी? कैसे मीठी छुरी से यह उसे हलाल करती जा रही है! उसकी सारी अक़ल इसके आगे कहाँ गुम हो गयी है? क्या सच ही वह अब्बा का बेटा कहलाने-लायक़ नहीं है? क्या सच ही वह ऐसा नाशुक्रा है? ...जमुनवा...कैलसिया...यहाँ तक कि अब्बा को भी वह भुला बैठा?

-उठिए!-खड़ी होकर कैलसिया बोली और आँगन की ओर पैर बढ़ा दिया।

अब्बा के कमरे के बाहर मन्ने रुक गया और कैलसिया अन्दर चली गयी। कमरे के फ़र्श पर जैसे महीनों से झाड़ू न चला था, गर्द-ग़ुबार अटा पड़ा था। एक कोने में भूसा रखा हुआ था। दीवारों को नोनी चाट रही थी। कमरे में कहीं कोई चीज़ नहीं थी। कैलसिया की बरसती आँखें चारों ओर देख रही थीं और जाने क्या खोज रही थीं। सिसकती हुई बोली-यह हाल है उनके कमरे का! इसे हम अपने हाथ से साफ़ करते थे। मियाँ न रहते थे, तो अपने आँचल से इसे बुहारते थे! ...अब तो यहाँ उनकी कोई चीज़ भी दिखाई नहीं देती। कौन कहेगा कि यहाँ कभी मियाँ रहते थे? ...यहाँ उनकी चारपाई पड़ी रहती थी...यहाँ जाए नमाज रहता था...वहाँ...हाँ-हाँ, वह तो अभी उसी तरह टँगी है, कुरान! मियाँ। की सायद यही एक चीज़ अपनी थी, और कुछ नहीं, कुछ नहीं!-उसकी आवाज़ अचानक साफ़ हो गयी-बाबू! यह चीज़ आप हमको दे देंगे! इसे ज़रा आप उतार दीजिए! हमारा हाथ वहाँ तक नहीं पहुँचता। ओह, मियाँ कितने लम्बे थे।

मन्ने की रूह जैसे थर्रा उठी। फिर भी जाने कहाँ से शक्ति पाकर वह कमरे के अन्दर गया और जल्दी से किताब उतारकर, उसके हाथ में थमाकर, वह उस कमरे से निकलकर, अपने कमरे में आ चारपाई पड़ गया और सुबक-सुबककर रोने लगा।

बड़ी देर के बाद कैलसिया आँचल में किताब छुपाये उसके कमरे में आयी, तो मन्ने आँख पोंछता हुआ उठ बैठा।

कैलसिया बोली-अब जा रहे हैं, बाबू,-उसका गला भारी था-यह उनकी एक निसानी लिये जा रहे हैं, यह आपके किसी काम की नही। कहा-सुना माफ कीजिएगा।-और उसने दरवाजे की ओर क़दम बढ़ाया।

-ज़रा सुनो, मन्ने ने जाने कहाँ से साहस बटोरकर कहा, जैसे इस वक़्त न कह सका, तो जाने फिर कभी मौक़ा मिले, न मिले। दिल-दिमाग़ की चाहे जो भी स्थिति हो, यह मौक़ा भी अगर मन्ने ने खो दिया, तो वह अपना मुँह स्वयं को भी दिखाने-योग्य नहीं रह जायगा।

-कहिए!-कैलसिया रुककर, शंकित-सी बोली-इसे भी आप हमें नहीं देंगे का?

-नहीं,-यह वार भी झेलकर मन्ने बोला-तुम जो भी चाहो, यहाँ से ले जा सकती हो। ...मुझे एक और बात कहनी है। ज़रा देर के लिए बैठ जाओ।

कैलसिया जहाँ-की-तहाँ बैठ गयी, तो मन्ने जैसे एक ही वार में जल्दी से कह देना चाहता हो, बोला-तू शादी कर ले, कैलसिया!

कैलसिया ठठाकर हँस पड़ी।

रहा-सहा मन्ने का अस्तित्व भी जैसे उसके अट्टाहास में डूब गया। उभ-चुभ-सा करता हुआ मन्ने फिर भी जैसे तिनका जल्दी पकडक़र से बोला-अब्बा का यह तुम्हारे लिए हुक्म है। यह काम वे मेरे ज़िम्मे सौप गये हैं। यह बात वे अपनी क़लम से लिख गये हैं, कैलसिया!

-मियाँ का करजा हम जिनगी-भर न उतार पाएँगे, बाबू!-सहसा गम्भीर होकर कैलसिया बोली-अब एक तो उधार आप पर रहे!-और वह उठ खड़ी हुई।

-कैलसिया!-गिड़गिड़ाकर मन्ने बोला-क्या तू मेरे लिए एक भी रास्ता न छोड़ेगी?

-भगवान आपको खुश रखे, बाबू!-गद्गद् स्वर में कैलसिया बोली-आपने मुँह से कह दिया और हम पा गये। ...रही सादी करने की बात। तो हमें यही कहना है कि अगर मियाँ रहते और हमसे कहते, तो सायद उनका मुँह देखकर हम कर लेते, फिर चाहे जो भी हम पर बीतती। लेकिन अब,-उसने दृढ़ता से सिर हिलाकर कहा-लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू! ...हमारे लिए मियाँ की याद ही बहुत है!-और वह गोली की तरह सन्न-से बाहर निकल गयी।

इतनी देर के बाद खुले दरवाज़े से लू की एक लपट आ मन्ने का मँुह जैसे झुलसा गयी। लेकिन इस वक़्त उसमें इतनी भी ताब न थी कि वह उठकर दरवाज़ा ही बन्द कर ले।

दूसरे दिन मन्ने ने बिलरा को बुलाकर डाँटा-क्यों बे, अब्बा के कमरे में तू झाड़ू नहीं लगाता?

-इधर फुरसत नहीं मिली, सरकार!-गर्दन खुजलाते हुए बिलरा ने कहा।

-चल, अभी साफ़ कर!

-बहुत अच्छा, सरकार!

लेकिन दूसरे ही क्षण बिलरा आकर बोला-सरकार, कमरा तो साफ़ है!

-ऐं?-कहकर मन्ने ने जाकर देखा, तो सच ही कमरा साफ़ था। वह अचकचा-सा गया, फिर तुरन्त सम्हलकर बोला-यह भूसा क्यों रखा है यहाँ?

-पुराना भूसा इतना बच गया था, सरकार! नये के लिए जगह...

-हटा इसे अभी!-और फिर जाने कैसा एक करुण भाव चेहरे पर लिये वह हमने कमरे में आ गया और पुकारा-बिलरा!

-जी, सरकार!-दौडक़र आते हुए बिलरा बोला।

-कैलसिया आयी है, बे!-जैसे योंही मन्ने बोला।

-जी, सरकार, कल हमारे यहाँ चिनिया बादाम और नारियल लेकर आयी थी। मियाँ का नाम ले-लेकर बहुत रो रही थी, सरकार!

-हमें तो उसने कुछ भी नहीं दिया,-फिर जैसे योंही मन्ने बोला हो।

-आपको...आपको, सरकार,-ही-ही हँसता हुआ बिलरा बोला-आपके लिए कोई बड़ी चीज लायी होगी, सरकार!

-हमारे बारे में कुछ नहीं कहती थी?

-बात करने का मौका नहीं मिला, सरकार,-बिलरा बोला-वो सरकार के बारे में कुछ पूछ ही रही थी कि कई लोग आ गये और जमुनवा की बात चल पड़ी...

-जमुनवा की?-शंकित होकर मन्ने बोल पड़ा।

-आपको नहीं मालूम, सरकार?-बिलरा जैसे कोई बहुत बड़ी बात बता रहा हो, इस तरह बोला-वह साधू हो गया, सरकार!

-साधू हो गया?-मन्ने को जैसे सनाका हो गया, मुँह ही सूख गया।

-हाँ, सरकार! बिलरा और भी गम्भीर होकर बोला-वो तो कल साँझ से ही अँचला बाँध के गोपालदास की मठिया में पड़ा है। उसकी औरत ऐसे रो रही है कि सुनकर छाती फटती है। कई लोग जमुनवा को समझा-बुझाकर वापस लाने गये थे, लेकिन वह नहीं आया, और न किसी से एक बात की। कुछ बोलता ही नहीं, सरकार! मंगलदास कहते हैं कि यह मौनी बाबा होगा, कभी बोलेगा नहीं, और अगर कभी कुछ बोल देगा, तो वह बरम्हा की लकीर हो जायगी!

वह रुककर मन्ने का मुँह देखने लगा, तो हथेली पर माथा टेककर वह बोला-तू कहता जा।

-अब हम का कहें, सरकार,-अचानक ही दुखी होकर बिलरा बोला-लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। कोई कहता है, सरकार ने उसे पकड़ बुलवाया था, जाने उसके साथ का किया कि उसका मन संसार से बिरक्त हो गया, भले घोड़े को एक चाबुक और भले आदमी को एक बात! जमुनवा पानीदार आदमी था, जब उसका पानी ही उतर गया, तो वह कैसे रहता संसार में?-उसने फिर मन्ने की ओर देखा और आगे कहा-ऐसा कहने वालों में सिवचरना सबसे आगे था। वही कई आदमियों को लेकर हमारे यहाँ आया था पूछने कि सरकार ने जमुनवा के साथ कैसा सलूक किया? हमने तो, सरकार, उसे डाँट दिया! सरकार के साजने (दण्ड देने) से कोई असामी संसार छोड़ दे, यह तो वही बात हुआ, जैसे धोबी का गदहा डण्डा खाकर जंगल भाग जाय! ...अरे भाई, सच बात ये है कि जमुनवा को उसके लडक़े का गम खा गया!

-लडक़े का गम?-मन्ने चौंककर बोला।

-हाँ, सरकार, उसका लडक़ा मर गया न?

-कब?

-वो तो आपके आने के तीन-चार रोज पहले ही मर गया था।

-तो तुमने हमें क्यों न बताया?

-सरकार ने हमसे पूछा ही कहाँ? हम आप होकर सरकार को कैसे बताते हैं?

-बिलरा!-मन्ने ज़रा जोर से बोल पड़ा-तू तो यहाँ था, सच-सच बता कि जमुनवा ने बाबू साहब के साथ वैसा सलूक क्यों किया? वह तो वैसा आदमी नहीं था। तुझसे तो उसकी बातें हुई होंगी, तू उसकी बिरादरी का आदमी है।

बिलरा सहम उठा। उसकी जीभ जैसे तालू से सट गयी। वह मन्ने को इस तरह फैली-फैली आँखों से देखने लगा, जैसे उसकी समझ में न आ रहा हो कि सरकार यह का पूछ रहे हैं।

-डरो नहीं,-मन्ने ने नम्र होकर कहा-हम पूछते हैं, बताओ! सब सही-सही हम जानना चाहते हैं। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इसका विश्वास रखो!

बिलरा ने ज़बान से होंठ तर किये और किसी तरह कहा-बाबू साहब ने तो बताया ही होगा।

-हाँ, उन्होंने बताया था। लेकिन जितनी बातें तुम्हें मालूम होंगी, उन्हें कैसे हो सकती हैं? ग़रीब की बात ग़रीब ही बेहतर समझता है, हमा-सुमा क्या समझ सकते हैं। हम सब बातें तफ़सील से जानना चाहते हैं। तू बेधडक़ बता। एक बात भी झूठ न कहना। हम तेरे सामने बैठे हैं, इस वजह से कोई लाग-लपेट की बात न करना। तुझे सौगन्ध है!

बिलरा ने ग़ौर से मन्ने को देखा और जब उसे तसल्ली हो गयी कि सच ही सरकार सब-कुछ जानना चाहते हैं, तो वह वहीं बैठ गया और पूरी कहानी सिर नीचे कर सुना गया। और अन्त में बोला-हमारा जवान लडक़ा मर जाय, अगर हमने इसमें एक भी बात झूठ कही हो, सरकार! और जब सरकार ने जान बखसी है, तो इतना हम और भी कहना चाहते हैं कि सरकार ने जमुनवा के साथ इन्साफ किया होता, तो आज वह साधू नहीं होता। सरकार कासी-परयागराज में पढ़ते हैं, खुद ही समझ सकते हैं कि जमुनवा-जैसा आदमी जो इस हालत में पड़ गया, तो उसका दिल न टूट जाता, तो का होता? उस पर भी कसम है भगवान की कि उसने एक लफज भी सरकार के खिलाफ कहा हो।

सिर झुकाये ही धीमे स्वर में मन्ने ने कहा-अच्छा, बिलरा, अब तू जा।

यह कैसे जाल पर उसके पाँव पड़ गये है कि एक फन्दे से छुड़ाने की कोशिश करता है, तो दूसरे में पाँव जकड़ जाते हैं? क्या विधाता ने उसके जीवन की सारी यातनाओं का कोष इसी छुट्टी में खाली करने की ठान ली है? क्या उसकी आत्मा बिलकुल कुचलकर ही रहेगी? क्या उसकी आज तक की अर्जित सारी शक्ति निचुड़ जायगी? क्या उसकी सारी नैतिकता, मानवीयता, सिद्धान्तवादिता और विद्रोही प्रवृत्तियाँ दम्भ मात्र थीं कि पहली परीक्षा ही में वह एकदम नंगा होकर रह गया?

मन्ने पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था। ये ऐसे अपराध थे, जिनका कोई प्रायश्चित नहीं। उसके घोर अपराधों के स्मारक-स्वरूप जमुनवा और कैलसिया और अब्बा मीनार की तरह हमेशा उसके सामने खड़े रहेंगे और शर्म के मारे उसकी आँखें कभी भी उनकी ओर नहीं उठेंगी। जीवन-भर उसके दिल में काँटे चुभते रहेंगे।

अदना-सा बिलरा, अपढ़, उजड्ड, नासमझ होते हुए भी जिस सहानुभूति और समझ के साथ किसी की स्थिति को हृदयंगम कर सकता है, वह नहीं कर सकता। एक इन्सान के नाते बिलरा उससे कहीं महान है। एक साधारण-सा स्वार्थ, एक व्यर्थ की आत्म-प्रतिष्ठा, अपने अभिभावक का एक अकिंचन अपमान ही जब उसे इस प्रकार क्षुब्ध, नीच और अन्धा बना सकता है, इन छोटी-छोटी दीवारों को ही वह नहीं लाँघ सकता, तो इस्पाती, चट्टानी दीवारों से वह क्या सर टकराएगा? ...मन्ने! इन हौसलों के तू क़ाबिल नहीं! मियाँ को तू अब्बा कहने-लायक़ नहीं, जिन्होंने धूल का कण उठाकर माथे से लगाया और उसे हीरा बनाकर दुनिया को दिखा दिया! ...कैलसिया...जमुनवा और न जाने कितने उनके बनाये हीरे हैं, जो तेरे स्पर्शमात्र से कलुषित हो रहे हैं...तू कुछ गढ़ेगा क्या, उनकी गढ़ी हुई मूर्तियों को भी तोड़े डाल रहा है! ...

दुख, पश्चात्ताप, क्षोभ, निराशा, दुर्बलता और कुण्ठा में घिरे हुए मन्ने की वही दशा थी, जो धोबी के हाथ में पड़ने पर मैले-फटे कपड़े की होती है, जिसे वह ग़ुस्से में आ-आकर पाट पर पटकता है और जो जितना ही पटका जाता है, साफ़ कम होता है और फ़टता ज़्यादा है।

आख़िर घबराकर मन्ने ने सोचा, वह यह माहौल ही क्यों न कुछ दिनों के लिए छोड़ दे, कहीं चला जाय, कहीं भी...

बाबू साहब ने इधर कई दिनों से उसके पास आना छोड़ दिया था। वह ख़ुद भी नहीं चाहता था कि बाबू साहब से उसका आमना-सामना हो। जाने उसके मँुह से क्या निकल जाय और क्या हो जाय! लेकिन बिना उनसे कहे वह कहीं जा भी कैसे सकता था?

एक दिन दोपहर को उसने बिलरा को भेजकर बाबू साहब को बुलवाया।

बाबू साहब आकर सिर नीचे किये पीढ़ी पर बैठने लगे, तो मन्ने ने अपने पास चारपाई पर बैठने का संकेत करते हुए कहा-यहाँ बैठिए, यहाँ!

-ठीक है,-फँसे गले से कहते हुए बाबू साहब पीढ़ी पर ही बैठ गये और बोले-कहिए, किसलिए बुलाया है?

मन्ने थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गया। उसे यह समझते देर न लगी कि बाबू साहब नाख़ुश हैं। हमेशा की तरह उनका चेहरा नहीं है, उस पर एक उदासी-सी छायी है, आँखों में रंज का रंग है। उसके जी में आया कि पूछे कि वह नाख़ुश हैं क्या, लेकिन फिर सोचा कि इससे बात बढ़ सकती है, बाबू साहब भरे-भरे-से हैं, उन्हें इस समय छेडऩा ठीक नहीं, ख़ुद उसकी भी मन: स्थिति वैसी ही है। जाने फिर बात कहाँ पहुँचे।

काफ़ी देर तक सोचने के बाद वह सीधे ही बोला-मेरा मन नहीं लगता, मैं कहीं घूम आना चाहता हूँ।

मुँह लटकाये ही बाबू साहब बोले-मुझे मालुम है। लेकिन यह काम का समय है, आप कहीं नहीं जा सकते। खलिहान उठने का समय आया। ग़ल्ले-भूसे का हिसाब समझिए। फिर वसूली-तहसीली शुरू हो जायगी। उसके बाद बर-बन्दोबस्त का सवाल उठेगा। काम सामने रहेगा, तो मन आप ही लगेगा।

यह बाबू साहब क्या कह रहे हैं? ऐसा तो उन्होंने पहले कभी भी नहीं कहा। वह कुछ करने को भी कहता, तो बाबू साहब कहते, ऐसे कामों में आप अपना वक़्त बरबाद न कीजिए, कुछ पढि़ए-लिखिए, जो आगे काम आये। ...क्या बाबू साहब किसी निर्णय पर पहुँच गये हैं? क्या बाबू साहब उसे छोड़नेवाले हैं? घबराकर उसने पूछना चाहा कि ऐसा वे क्यों कह रहे हैं? लेकिन फिर ख़याल आया, यह मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ने की तरह होगा। फिर शब्दों के डंक को न वह बरदाश्त कर सकेगा, न बाबू साहब...और जो कल होनेवाला है, आज ही हो जाय!

बहुत सोचकर वह शान्त स्वर में बोला-बाबू साहब, मेरा मन अभी बहुत कमजोर है, मुझे इस काम का कोई भी तर्जुबा नहीं।

बाबू साहब की आवाज़ सख़्त हो गयी। आँखें उठाकर वे बोले-काम से तजुर्बा होता है और तजुर्बे से मन को बल मिलता है! ...मुंशीजी के यहाँ आज आदमी भेजा था। कल सुबह से ही वे आने लगेंगे। सब जरूरी बातें वे आपको समझा देंगे।-और बाबू साहब उठ खड़े हुए। और मन्ने कुछ कहे-कहे कि वे कमरे से बाहर निकल गये और मन्ने दरवाजे की ओर ताकता रह गया।

बाबू साहब चले गये। बाबू साहब तो इस तरह उसके पास से कभी भी नहीं गये...और मन्ने को लगा, जैसे बाबू साहब हमेशा के लिए चले गये, वे फिर वापस नहीं आएँगे...और मन्ने एक दलदल में फँसा जा रहा है, उसका रहा-सहा धैर्य भी छूटा जा रहा है और उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाता जा रहा है।

रात बड़ी बेचैनी में कटी। मन्ने ने क्या सोचा था और क्या हो रहा है। जैसे परिस्थिति ही उसके हाथ से निकल गयी हो, उस पर उसका क़ाबू ही न रह गया हो। अब परिस्थिति ही उसे हर नाच नचाएगी, जैसे मदारी बन्दर को नचाता है। वह कुछ भी नहीं कर पाएगा। उसकी हस्ती परिस्थिति की चक्की में पिसकर चूर-चूर हो जाएगी, वह मिट जायगा...इसी जाल में उलझकर मर जायगा, जैसे इस गाँव के हज़ारों-लाखों लोग मर गये...

नींद नहीं आ रही थी। रह-रहकर वह व्याकुल होकर उठ बैठता, घड़े से ढाल-ढालकर पानी पीता, मुँह पर पानी के छींटे देता, सिर धोता और फिर चारपाई पर आ पड़ता और आँखे मूँदता, तो फिर उन्हीं भयंकर विचारों में डूबने-उतारने लगता।

रह-रहकर परेशान हो-हो वह आँखें खोल देता। चारों ओर सन्नाटा। कहीं कोई स्वर नहीं, कोई आहट नहीं, हवा बन्द। सूने खेत; ख़मोश पगडण्डी, गाँव सो गया है, अपना सारा सुख-दुख भूलकर गाँव सो गया, सुबह उठकर फिर अपने दुखड़े-धन्धे में लग जायगा। इस गाड़ी की एक ही लीक है। इसी पर जाने कब से यह गाड़ी चल रही है और जाने कब तक चलती रहेगी।

मन्ने गाँव को छोडक़र इस लीक से हटना चाहता था। ...और आज लगता है कि गाँव उसे छोड़नेवाला नहीं, वह उसे अपनी लीक से हटने नहीं देगा! और मन्ने को सहसा ऐसा लगा कि ख़ामोश, निरीह-सा सोया पड़ा गाँव एक विकराल राक्षस हो, उसकी नींद जैसे ही खुलेगी, वह उसे अपने खूँख़्वार जबड़े में दबोच लेगा और उसकी हड्डी-पसली को चबा-चबाकर खा जाएगा...यही यह आज तक करता आया है...यही यह आगे भी करता रहेगा...इससे छुटकारा पाना असम्भव है! ...

फिर क्या होगा पढ़-लिखकर क्या होगा? जब इसी घिरौंदे में चक्कर काटकर जीवन बरबाद कर देना है, तो ज्ञान-अर्जन से क्या लाभ? यहाँ के लिए तो अभी ही वह ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ा-लिखा है, अधिक पढक़र क्या होगा? ...जाने दो, जो हो रहा है, होने दो। आख़िर जब कुछ किया ही नहीं जा सकता, तो दिमाग़ ख़राब करने से क्या फ़ायदा :

हो गयीं गालिब बलाएँ सब तमाम

एक मर्गे-नागहानी और है

...वाह, मन्ने, वाह! ज़िन्दगी अभी शुरू ही नहीं हुई और मौत का यह राग! अगर ज़िन्दगी और मौत के बीच इतना ही फ़ासला है, तो फिर ज़िन्दगी क्या है? और अगर ज़िन्दगी कुछ है,तो यह इतनी आसानी से अपने को मौत के हवाले कर देगी? ...नहीं, ज़िन्दगी हर क्षण मौत से लड़ने का नाम है! इसी खूँख़्वार लड़ाई में ज़िन्दगी निखरती है?

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना

तेरी जुल्फो का पेचो-ख़म नहीं है

...मन्ने, यह ज़िन्दगी कोई नदी नहीं, जो आप ही पहाड़ से गिरकर मैदान से बहती हुई समुन्दर में जा मिले। ज़िन्दगी एक नहर है, जिसके लिए धरती का चप्पा-चप्पा काटना पड़ता है और उसमें पानी बहाना पड़ता है। ज़िन्दगी जंगल के बीच से निकाली हुई एक पगडण्डी है! ...ज़रा सोचो तो, जंगल में एक पगडण्डी कैसे निकलती होगी? जो भयंकर जंगल को देखकर किनारे ही खड़ा हो गया, वह जंगल से पगडण्डी क्या निकालेगा?

...मन्ने, तुम्हारे उस प्यारे शेर का मतलब यही तो है। सर को सलामत रखना शर्त है और सर का दूसरा नाम ही तो ज़िन्दगी है! ...

और मन्ने, उठकर बैठ गया और वह शेर गुनगुनाने लगा और उसकी आवाज़ बुलन्द हो गयी और वह उठकर खड़ा हो गया और एक पागल की तरह चीख़-चीख़कर ‘यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा...यह सर जो सलामत है...’ बार-बार यही मिसरा पढऩे लगा।

सन्नाटे में दरारें पड़ गयीं। अन्धकार में जैसे प्रकाश का बिगुल बज उठा। सोता गाँव जैसे मुर्ग की बाँग से गूँजने लगा :

यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा! ...

सुबह की हवा ने मन्ने के गालों को छुआ, तो उस पर रतजगे, परेशानी या थकान का कोई चिन्ह नहीं था, ठीक उसी तरह, जैसे मंज़िल पर पहुँचकर आदमी रास्ते की परेशानियाँ भूल जाता है।

शीतल-मन्द बयार ने उसे निमन्त्रण दिया और वह तालाब की ओर सैर के लिए निकल पड़ा। उजाला फूट रहा था और बयार उल्लास, उत्साह और स्फूर्ति बिखेर रही थी और मन्ने मस्त होकर वही मिसरा गुनगुनाता हुआ टहल रहा था।

तालाब का पानी सूख गया था और वह चटियल मैदान की तरह मीलों तक फैला हुआ था। जगह-जगह सब्ज़ों के चप्पे वैसे ही दिखाई पड़ रहे थे, जैसे सुबह के आसमान में बादलों के टुकड़े। इन सब्ज़ों पर बैठना कितना अच्छा लगता है! मुन्नी और वह कितनी-कितनी देर तक इन सब्ज़ों पर बैठते थे और सुबह-शाम की छटा निहारते थे!

पूरब में जब लाली फूटती है और आसमान तरह-तरह के रंगों से गुलज़ार हो जाता है, तो ऐसा लगता है, जैसे तालाब के ऊपर परियाँ होली खेल रही हों और तरह-तरह के रंग उड़ा रही हों।

सब्ज़े पर बैठा मन्ने मुग्ध होकर आसमान का रंग देख रहा था। ये रंग, ये दृश्य कितनी बार उसने देखे हैं, फिर भी हर बार ऐसा लगता है, जैसे वह नया ही कुछ देख रहा हो। इन चिर नवीन दृश्यों से आँखों को कितना सुख मिलता है, हृदय में कैसा उल्लास भर उठता है! ...

-नमस्ते, मोली साहेब!

मन्ने की पीठ की ओर से आवाज़ आयी और अचकचाकर वह मुड़ा, तो हाथ में लोटा लिये, कमर में सिर्फ़ धोती बाँधे कैलास खड़ा-खड़ा हँस रहा था।

-नमस्ते, पण्डितजी! आइए! बैठिए!-हँसता हुआ मन्ने बोला।

ज़रा दूर ही बैठते हुए कैलास ने कहा-यहाँ बैठकर आप क्या कर रहे हैं?

-यह सवाल आप कितनी ही बार पूछ चुके हैं,-हँसकर मन्ने बोला-क्या सच ही आपको यहाँ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता?

-यहाँ देखने को क्या चीज़ है?-जैसे हैरत में आकर कैलास बोला-मुन्नी था, तो हम यह समझते थे कि आप लोग यहाँ एकान्त में बैठकर बातें करते हैं। जब वह चला गया, तो आपको यहाँ अकेले बैठे देखते हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि अकेले आप यहाँ क्या करते हैं।

-समझ लीजिए कि झख मारते हैं! लेकिन आप...

-हम तो यहाँ दिसा-फरागत के लिए आते है,-हँसकर कैलास बोला-कितनी साफ जगह है!

मन्ने हँसी न रोक सका। बोला-चलिए, यह तालाब आपके किसी काम तो आता है!

-कहिए, मुस्लिम लीग में आपको कौन-सी जगह मिली?-वक्र मुस्कान के साथ कैलास बोला।

-मुस्लिम लीग?-चौंककर मन्ने बोला।

-बनिए मत, हमें सब मालूम है!-कैलास बोला-गाँव में मुस्लिम लीग की अस्थापना हो गयी है। रज्जाक मियाँ सदर चुने गये हैं और जुब्ली मियाँ सेक्रटरी। ‘अलामान’ अख़बार का चन्दा कल डाकखाने से भेजा गया है।

-फिर आपने कौन-सा अख़बार मँगाया?

-हमें मँगाने की क्या जरूरत है? ‘आर्य नवयुवक सभा’ की ओर से ‘आर्य मित्र’ तो आता ही है। अब चन्दा करके ‘आज’ भी हम लोग मँगाने जा रहे हैं।

-मुझे भी पढऩे को दीजिएगा?

-चन्दे में शामिल हों, तो क्यों नहीं मिलेगा? लेकिन आप तो ‘लीडर’ मँगाते ही हैं।

-‘आज’ भी देख लेंगे, क्या हर्ज है।

-अब तो ‘अलामान’ भी आपको पढऩे को मिलेगा!

-उसे भी पढ़ लेंगे, क्या हर्ज है?

-सुने हैं, रज्जाक मियाँ कहे हैं कि हिन्दुओं को नाकों चने चबवा देंगे।

-मैंने तो कुछ नहीं सुना।

-आप क्यों सुनने लगे? एक ही थैली के चट्टे-बट्टे तो हैं!

-आप जैसा समझिए!

-सुने हैं, जल्दी ही कोई जलसा होने जा रहा है और गाजी महमूद धरमपाल को बुलाया जा रहा है। जलसे की जगह को मक्का के दिरस्यों से सजाया जायगा, सामियाने के चारों ओर रेत बिखेरी जायगी, खजूर के पेड़ लगाये जाएँगे, ऊँट बाँधे जाएँगे।

-और?

-और हिन्दुओं को भर पेट गालियाँ दी जायँगी!

-फिर आप लोग क्या करने जा रहे हैं?

-उसी समय हम लोग भी एक जलसा करेंगे और रामचन्द्र देहलवी को बुलाएँगे...

-तब तो ख़ूब मज़ा रहेगा!

-जो मज़ा रहेगा, आप लोग दखेंगे ही! हम सास्त्रार्थ के लिए ललकारेंगे!

-तब तो और भी मज़ा रहेगा! भेंड़ाओं की लड़ाई हम भी देखेंगे!

-देखेंगे या सामिल रहेंगे?

-शामिल होकर मुझे अपना सिर नहीं फोड़वाना!

-सिर तो हम फोड़ेंगे ही, हम छोड़ने वाले नहीं!

-नहीं, साहब, छोड़ेंगे क्यों? आप लोग किस बात में कम हैं!

-तो उनसे कह दीजिएगा!

-आप ही जाकर कह आइए न! आपके मुँह से ये बातें अच्छी लगेंगी और फिर आपका असर भी ज्यादा होगा!

-हर मुहल्ले में हम जवान तैयार कर रहे हैं...

-फिर क्या पूछना है...अब मेरी राय है कि कुछ और बात की जाय। कहिए, आपके पर्चे कैसे हुए?

-बहुत अच्छे नहीं हुए। सेकेण्ड किलास आ जाता, तो अच्छा था। इंजीनियरिंग में प्रवेस पा जाते।

-तो क्या इंजीनियरिंग करेंगे आप?

-हाँ, अब यही राय हो रही है। बड़ा मान है इंजीनियरों का! बाबू रामाधार प्रसाद को आप जानते हैं? पटने के अपनी ही बिरादरी के हैं। इंजीनियरी पास करके सत्रह सौ की नौकरी कर रहे हैं!

-आप तो आई०सी०एस० में बैठने वाले थे। याद है, आपकी उम्र एक साल ज़्यादा हो रही थी, जिसे कम करवाने के लिए ज़िले के एक रईस बनारस इन्स्पेक्टर के पास गये थे?

-हाँ, लेकिन अब इंजीनियर ही बनेंगे! आपका क्या इरादा है?

-अभी से क्या बताएँ।

-सुने हैं, आप वकील बनेंगे।

-मेरा अभी कुछ भी इरादा नहीं है।

-यह मुन्नी मद्रास में क्या कर रहा है?

-ठीक-ठीक कुछ मालूम नहीं मुझे।

-यह क्यों नहीं कहते कि बताते सरम आती है? सुने हैं, कोई तीस रुपल्ली की नौकरी कर रहा है!

-करते होंगे। लेकिन आप उनकी कविताएँ, कहानियाँ और लेख पत्र-पत्रिकाओं में नहीं देखते?

-उन्हें क्या देखना है? लेखकों को कुछ पैसा तो मिलता नहीं।

-पैसा ही सब-कुछ है क्या?

-और क्या? मुन्नी के पास पैसा होता, तो वह आगे पढ़ता। कितना तेज़ था! पैसे के न होने से ही तो उसकी ज़िन्दगी बर्बाद हो गयी।

-यह आप कैसे कह सकते हैं? मेरा तो ख़याल है कि गाँव में वही एक ऐसा है, जो अपने साथ-साथ गाँव का नाम भी रोशन करेगा।

-खाक करेगा! ...आप सुने हैं, उसका बड़ा भाई कांग्रेसी हो गया है?

-सुना है, यह तो बहुत अच्छा है। देश की आज़ादी की लड़ाई...

-घर में दिया जलाकर मसजिद में जलाया जाता है, यह घराना अब बरबाद होकर ही रहेगा?

-और आप घी का चिराग़ जलाएँगे! ...अच्छा, अब मैं चलूँगा। धूप निकल आयी। ...

कैलास से मिलना अच्छा ही हुआ। ऐसे आदमियों से मिलकर अनायास ही मन्ने की नैतिक शक्ति बढ़ जाती है, वह अपने को ऊँचा समझने लगता है। जो हो, मन्ने जितना भी गिर गया हो, लेकिन ऐसे मामले में तो वह झुकना नहीं जानता, साम्प्रदायिकता का ज़हर तो उसकी रगों में नहीं!

यह कैलास है। कितना ज़हर, कितनी संकीर्णता है इसमें! बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में पढ़ता है, इंजीनियर बनेगा और उसके विचार ऐसे हैं! कमबख़्त का शीन-क़ाफ़ भी दुरुस्त नहीं, कोई कोमल भावना छू तक नहीं गयी, कोई सौन्दर्य-बोध नहीं, इन्सानियत का नाम नहीं। कहता है, इंजीनियर बनेगा, ख़ूब रुपया कमाएगा...हुँ :! कितना रुपया है इन कमबख़्तों के पास, फिर भी धन की भूख नहीं मिटी! धन कमाने के सिवा और कोई जीवन का उद्देश्य नहीं। पक्का बनिया है कमबख़्त! पढ़-लिखकर, इंजीनियर बनकर भी कमर में धोती बाँधे, तोंद दिखाता हुआ यह घूमेगा। अभी कितना मोटा हो गया है। ...मुन्नी से यह कितना जलता है, उसके किसी गुण की क़ीमत नहीं इसके आगे। हीन भावना से प्रताडि़त यह धन्ना सेठ का बेटा, देखेंगे, क्या बनता है। ...

मन्ने खण्ड में पहुँचा, तो बड़े उत्साह में था। बाबू साहब आ गये थे। वह बड़े व्यस्त-से दिखाई दे रहे थे। मन्ने की चारपाई सहन से उठाकर कमरे में डाल दी गयी थी और उस पर अच्छी तरह बिस्तर बिछा दिया गया था। बिस्तर के सामने, दीवार से सटाकर दो कुर्सियाँ रखी हुई थीं। कमरा अच्छी तरह साफ़ कर दिया गया था।

बाबू साहब बोले-आप जल्दी कपड़े-वोपड़े बदलकर तैयार हो जायँ। सभी काग़ज़-पत्तर इकठ्ठा करना है। मुंशीजी आ ही रहे होंगे। ...हाँ, ज़रा क़ायदे से पेश आइएगा उनके साथ। बुज़ुर्ग आदमी हैं, आपके दादा के ज़माने के। बड़े एहसान हैं उनके इस गाँव पर। सब उनकी इज़्ज़त करते हैं, उन्हें बड़ा समझते हैं, सलाम करते हैं! ...हाँ, टोपी लगाना न भूलिएगा...

मन्ने ठीक-ठाक होकर घर से लौटा, तो खण्ड के दरवाजे पर एक छोटी, दुबली घोड़ी खड़ी थी। जीन की जगह उसकी पीठ पर एक फटी दरी तहाकर डाली हुई थी और उसे मैले निवाड़ से कसा गया था। मन्ने समझ गया, मुंशीजी आ गये हैं। उसने अपने सिर की रामपुरी टोपी ठीक की और अन्दर घुसकर चारपाई पर बैठे हुए मुंशीजी की तरफ मुख़ातिब हो, अदब से सिर झुकाकर और हाथ उठाकर कहा-आदाब करता हूँ!

हड़बडाक़र खड़े होते हुए मुंशीजी बोले-तस्लीम! तस्लीम, हुजूर! तशरीफ़ रखिए!

-आप उठ क्यों गये!-मुंशीजी का हाथ पकडक़र उन्हें बैठाते हुए मन्ने बोला-आप तशरीफ़ रख़िए! ...यह तकिया ले लीजिए और आराम से बैठिए!-और एक कुर्सी मुंशीजी के पास खींचकर बैठता हुआ बोला-रास्ते में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई?

तकिये पर टेक लगा, अधलेटे-से हो, मुंशीजी दम लेकर बोले-अब तकलीफ़ के सिवा क्या होना है, हुज़ूर। हमारे सामने के पैदा हुए लोग चले गये और हम एँडिय़ाँ रगड़ रहे हैं। ...आपके दादा हुज़ूर का हमने बिस्मिल्लाह कराया था, आपके अब्बा हुज़ूर के हाथ में हमने क़लम पकड़वाया था और आज हुज़ूर...-उनका गला भर आया, आँखें भर आयीं-हुज़ूर, जाने अभी क्या-क्या इन आँखों को देखना बदा है। दिल टूट गया है, बीनाई जवाब दे रही है, फिर भी इस लाग़र जिस्म को ढोने के लिए मजबूर हूँ। ज़ईफ़ी क्या बला है, हुज़ूर नहीं समझ सकते। क्या अच्छा होता कि मैं भी अपने ज़माने के लोगों के साथ ही चला जाता! ये दिन तो देखने को न मिलते!-और मुंशीजी की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, वे ख़ामोश हो गये।

मन्ने का मन भी भर आया। वह क्या कहे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आख़िर उसने पुकारा-बिलरा! बिलरा!-और दरवाजे पर जा खड़ा हुआ-बाबू साहब कहाँ चले गये? मुंशीजी के नाश्ते का इन्तज़ाम...

-हो जायगा, हो जायगा,-मुंशीजी बोले-बाबू साहब तो अभी कहीं गये हैं। आप तशरीफ़ रखिए, मेरे सामने बैठिए! मैं अपनी आँखें तो ठण्डी कर लूँ! ख़ुदा आपकी उम्र दराज़ करे और मैं हुज़ूर की आँखों के सामने जल्दी-से-जल्दी आँखें मूँद लूँ, अब तो यही तमन्ना है।

-ऐसी बात ज़बान पर न लाइए।-बैठते हुए मन्ने बोला-ख़ुदा पूरे सौ साल की ज़िन्दगी आपको अता करे।

-अब सौ साल में क्या बाक़ी रह गया है, हुज़ूर। आपके मुँह में घी-शक्कर। सात साल ही तो बाक़ी रह गये हैं।

-अच्छा? लेकिन ख़ुदा के फ़ज़ल से आपकी सेहत तो बहुत अच्छी है। आपको देखकर कोई नहीं कह सकता कि आपकी उम्र सत्तर से ज़्यादा है।

-यह गेहूँ और गोश्त की करामात है, हुज़ूर। अब तो दाँत कमजोर हो जाने की वजह से रोटी और एक कटोरे शोरवे पर ही क़नात करना पड़ता है। लेकिन कभी वक़्त था कि दो-दो सेर गोश्त हम एक बैठकी में सफाचट कर जाते थे।

-अच्छा?

-और क्या? ...जब हम यहाँ आते थे, तो आपके दादा हुज़ूर इसी खण्ड में बकरा कटवाते थे। पास के गाँव से पकाने के लिए हिन्दू नाऊ बुलवाया जाता था। हम और आपके दादा हुज़ूर खाने पर बैठते, तो नाऊ हमारा खाना देखता और देखते-देखते देग़ साफ़ हो जाता।-मुंशी जी एक हल्की हँसी के साथ आगे बढ़े-वो भी एक ज़माना था, हुज़ूर। याद आता है, तो बस मर जाने को जी चाहता है। अब क्या रह गया, हुज़ूर? ...उनकी बातें उन्हीं के साथ चली गयीं। आपके अब्बा हुज़ूर में तो वो बात नहीं थी। वो फ़क़ीर आदमी थे, खाने-पीने का उन्हें क़तई शौक़ न था। फिर भी जब हम आते, तो हमारे लिए वह सब इन्तज़ाम कराते। लेकिन अकेले खाने में वो मज़ा न आता। यह-सब साथ माँगता है, हुज़ूर। पता नहीं, हुज़ूर का मेज़ाज कैसा है। पड़े तो आप बिलकुल अपने दादा हुज़ूर पर ही हैं, वही चेहरा, वही रंगत, वही डील-डौल। अब मेज़ाज की ख़ुदा जाने। हम तो पहली बार हुज़ूर का नयाज़ हासिल कर रहे हैं। लेकिन सुना है कि अपने भी दादा हुज़ूर की ही तरह बड़ा दिल-दिमाग़ पाया है, मज़हबी तंगदिली या तअस्सुब आप में भी नहीं है, दोस्ती करना और दोस्ती निबाहना आप भी जानते हैं...जो हो, हमारी एक बात आप गिरह बाँध रखें कि ज़िन्दगी में खाया-पिया ही काम आता है और ख़ुदा जिसे दे, उसे इस मामले में कभी किफ़ायतशारी से काम नहीं लेना चाहिए।

तभी बाबू साहब ने कमरे में दाख़िल होकर कहा-मुंशीजी, माफ़ कीजिएगा, ज़रा देर हो गयी। अब उठकर नाश्ता कर लीजिए, फिर कुछ और होगा। ज़रा आँगन में चलने की तकलीफ़ कीजिए।

-बहुत अच्छा, हम तो आपका इन्तज़ार ही कर रहे थे,-चारपाई से उतरते हुए मुंशीजी मन्ने की ओर मुख़ातिब हुए-तो उठिए, हुज़ूर।

-मुझे माफ़ करें, मुंशीजी, मैं अभी-अभी नाश्ता करके आया हूँ।-खड़े होकर बड़ी नम्रता से मन्ने बोला।

-वाह, मेरा इन्तज़ार भी आपने...

-नहीं, मुंशीजी, मुझे यह मालूम नहीं था कि आप इतने सवेरे तशरीफ़ लाएँगे, वर्ना...

मुंशीजी हँस पड़े। बोले-देखा, बाबू साहब? ये कहते हैं...

-अभी लडक़े हैं, मुंशीजी,-बाबू साहब बोले-आप तशरीफ़ लाइए।

अन्दर आँगन में एक छोटी चौकी लगी थी। उस पर बड़ी छिपुली में आध सेर के करीब हलुआ रखा था। बिलरा ने झुककर लोटे के पानी से मुंशीजी के हाथ धुलवाये और मुंशीजी चौकी पर आराम से बैठकर नाश्ता करने लगे।

मन्ने दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा था। नाटा कद, भरा हुआ जिस्म, ज़रा कालिमा लिये लाल चेहरा, उठी पेशानी पर कुछ शिकनें, भौंहों के बाल सन के रेश की तरफ सफ़ेद, छिदरी बरौनियों के साथ चुचके आम के छिलके की तरह पपनियाँ, कुछ धँसी-धँसी-सी, छोटी-छोटी, सीसे के रंग की आँखें, भुने पापड़ की तरह मुहाँसों, तिलों और छोटे-बड़े गढ़ों से भरे हुए गाल, छोटी, ज़रा दबी हुई नाक, छोटा मुँह, दाँतों के न रहने से ज़रा-ज़रा अन्दर को घुसे हुए मोटे-मोटे होंठ, छोटी-छोटी, सफ़ेद, छिदरी मूँछें और साफ़, ज़रा लटकी-सी ठुड्डी। महीन धोती पर मलमल का कुरता, जिससे उनकी छाती के सफ़ेद बाल और जनेऊ और उनके बदन का सफ़ेद रंग झलक रहा था।

वे हाथ से हलुआ उठा-उठाकर खा रहे थे और उनके सिर की मलमल की टोपी, जिसके किनारे-किनारे ज़रा चौड़ी ननगिलाट की गोट लगी थी, जैसे धीरे-धीरे हिल रही थी और कभी-कभी ऐसा भी लगता था कि उनके मुँह से कुछ टपक-सा पड़ता है, जिसे वे तुरन्त अपनी जीभ की नोक से झेल लेने की कोशिश करते हैं।

-बड़ा लजीज़ हलुआ है,-मुंशीजी होंठ चाटते हुए बोले-कहाँ बनवाया, बाबू साहब?

-पड़ोस के बनिये के यहाँ ख़ुद बैठकर बनवाया है! घर से घी लेता आया था।

-तभी तो!-मुंशीजी हाथ रोककर बोले-बाबू साहब! हमारे देखने में दो ही कौमें खाना बनाना और खाना जानती हैं, एक ख़ानदानी मुसलमान और दूसरे ख़ानदानी कायस्थ। लेकिन जहाँ तक हलवे, पुए, पूड़ी, खीर, बखीर की बात है, खानदानी बनियों का कोई मुकाबिला नहीं कर सकता। लेकिन, बाबू साहब, सच पूछिए तो, ये-सब क्या खानों में कोई खाने हैं। इनसे जिस्म पर चाहे जितनी चर्बी चढ़ा लीजिए, लेकिन ताक़त, ख़ुदा का नाम लीजिए!-कहकर जैसे अचानक कुछ याद आ जाने से वे हँस पड़े और बोले-कस्बे के हमारे हकीम साहब हैं न, उनके यहाँ एक दफ़ा एक कलकत्ते का मारवाड़ी इलाज कराने आया। देखने में ऐसा, मानो हाथी का बच्चा हो। बैठा तो तख़्त चरमरा उठा। हफर-हफर हाँफ रहा था। हकीम साहब ने पूछा, क्या बात है? उसने कहा, आपका नाम सुनकर कलकत्ते से आये हैं। हम सब लोग उसकी ओर हैरत से देखने लगे। हकीम साहब बोले, वहाँ तो एक-से-एक बढक़र डाक्टर हैं, आप हमारे यहाँ क्यों तशरीफ़ लाये? वह बोला, हकीम साहब, यों देखने में मुझे कुछ नहीं हुआ है। लेकिन आपको क्या बताएँ, रात में सौ-सौ दफ़ा मुझे पेशाब करने उठना पड़ता है। जिस्म में कोई ताक़त महसूस नहीं होती और...हकीम साहब ने उसे रोककर पूछा, आप रात में सोते वक़्त कितना दूध पीते हैं? वह बोला, एक सेर। हकीम साहब बोले, ख़ूब मलाईदार न? जी हाँ, चार सेर दूध औंटकर एक सेर बनाया जाता है, वह बोला। इस पर हकीम साहब ने पूछा, और दिन-भर में रसगुल्ला आप कितना खा लेते हैं? वह अचकचाया, तो हकीम साहब ने अपनी बात साफ़ की, मेरा मतलब मीठे से है, हलुवा, खीर, बखीर लड्डू...इस पर हँसकर वह बोला, अजी, यह तो सब हम लोगों की खाज ही है। यह सुनना था कि जाने हकीम साहब को क्या हुआ कि ग़ुस्से से उनका चेहरा लाल हो उठा। बोले, आपके मेदे में दवा के लिए जगह नहीं है! आप यहाँ से तशरीफ़ ले जाइए! वह हैरान होकर उनकी ओर देखते हुए बोला, जी, इतनी दूर से हम आये हैं। ...तो हम क्या करें? हकीम साहब उस पर बिगड़ उठे, आपका एक ही इलाज है, वह यह कि आपको जेल में बन्द कर दिया जाय और सात साल तक एक दाना भी खाने को न दिया जाय, है मंजूर? वह हक्का-बक्का होकर उनकी ओर देखने लगा, तो वे बोले, नहीं न! फिर जाइए और खूब राबड़ी-मलाई उड़ाइए।-और मुंशीजी इतने जोर से हँस पड़े कि उन्हें खाँसी आ गयी।

बिलरा ने गिलास का पानी बढ़ाया, तो बोले-गर्म हलवा खिलाकर पानी पिलाता है, मेरे गले से तुझे दुश्मनी है क्या? चल, हाथ धुला।

मुंशीजी आकर चारपाई पर बैठे, तो बाबू साहब बोले-पान मँगवाएँ न?

-पान क्या होता है? यह तो हमने जाना ही नहीं! अब काम की बात कीजिए। लाइए गाँव का नक्शा...अरे हाँ, मेरी घोड़ी...

बाबू साहब वहीं से चिल्लाए-अरे बिलरा! मुंशीजी की घोड़ी को दाना-भूसा दे!

बाबू साहब ने नक्शा लाकर मुंशीजी के पास रख दिया, तो वे बोले-इस नक्श़े को देखकर मुझे वो पुराने दिन याद आ रहे हैं। ...हुज़ूर, आप आला तालीम हासिल कर रहे हैं। ...आपने हिन्दोस्तान और दुनियाँ की तवारीखें पढ़ी होंगी, क्या आप अपने इस गाँव की तवारीख़ के बारे में भी कुछ जानते हैं?

मन्ने ने सिर हिलाकर कहा-नहीं, मुझे कुछ नहीं मालूम, लेकिन मैं जानना ज़रूर चाहता हूँ?

-ज़रूर जानना चाहिए। जब तक आपको इसकी जानकारी न होगी, तब तक आप अपने गाँव को समझ ही नहीं सकते, अपने पुरुखों को जान ही नहीं सकते हैं। तो इसके पहले कि हम लोग नक्शा लेकर आपके खेतों की पड़ताल के लिए निकलें, मैं आपको इन खेतों की मुख़्तसर कहानी सुनाता हूँ। आप दानिशमन्द आदमी हैं, थोड़े से भी ज़्यादा समझिएगा।

-आपके दादा हुज़ूर के पहले की बात है। इस गाँव पर लिलकर के बाबुओं का क़ब्जा था। यहाँ के किसान तीन कोस चलकर बाबुओं को लगान चुकाने जाते थे। जिस वक़्त का यह जिक्र है, सुगन्धराय की अमलदारी थी। वह बड़ा जाबिर और ज़ालिम ज़मींदार था। लोग उसका नाम सुनकर थर-थर काँपते थे। ...वह एक बार हाथी पर चढक़र अपने पचास लठबन्दों के साथ गाँव में आया और सब असामियों को इकठ्ठा करके ऐलान किया कि आज से लगान की दर ड्योढ़ी की जा रही है। इस गाँव की ज़मीन बहुत ज़रखेज़ है। यहाँ के असामियों ने अभी तक हमें धोखा दिया है। अब हमने अपनी आँख से सब देख लिया है और अपने मुँह से यह ऐलान कर रहे हैं, जिसे इनकार हो हमारे सामने आये।

-ज़ालिम सुगन्धराय के सामने आने की किसकी हिम्मत थी। उसका बाघ की तरह बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला चेहरा और बड़ी-बड़ी, लाल-लाल आँखें ही देखकर डर लगता था। कोई उसके सामने नहीं आया, तो उसने कहा, तो हम यह समझकर यहाँ से जाते हैं कि हमारी बात सबको क़ुबूल है। फिर अगर किसी ने किसी तरह का उज्र किया, तो उसका सिर तोड़ दिया जायगा!

-वह चला गया, तो लोग फिर इकठ्ठे हुए! महाजनों को भी बुलाया गया। चारों ओर यही आवाज़ उठ रही थी कि यह तो सरासर ग़ैरइन्साफ़ी है, जुल्म है! हमें योंही इसे बरदाश्त नहीं कर लेना चाहिए। कुछ-न-कुछ ज़रूर करना चाहिए!

-क्या किया जाय? चारों ओर से आवाज़ें उठीं।

-सुगन्धराय का हुक्म मानने से इनकार कर दिया जाय!

-कौन है? कौन है? यह बात किसने कही है? चारों ओर से शोर हुआ।

-बीच मजमें में एक जवान उठ खड़ा हुआ।

-ग़ुलाम हैदर! ग़ुलाम हैदर! चारों ओर फुसफुसाहटें हुईं।

-बला का ख़ूबसूरत, क़द्दावर,बहादुर नौजवान ग़ुलाम हैदर बोला, आप लोग हैरत से मेरी ओर क्या देखते हैं! आप सब लोग जब यह समझते हैं कि सुगन्धराय सरासर ग़ैरइन्साफ़ी और ज़ुल्म कर रहा है, तो इसका इलाज उसके साथ लड़ने के अलावा और क्या है?

-लड़ाई, सुगन्धराय से लड़ाई?

-हाँ, लड़ाई!-ग़ुलाम हैदर जोश में आकर चिल्लाया-ज़ुल्म और ग़ैरइन्साफी के खिलाफ लड़ने के सिवा कोई चारा नहीं!

-लेकिन, मेरे बच्चे! एक बुजुर्ग बोले, हम सुगन्धराय से किस बूते पर लड़ेंगे? वह हमारा ज़मींदार है, हम उसकी रिआया है; उसके पास ताक़त है, हम कमजोर हैं; उसके पास धन है, हम ग़रीब हैं। हम क्या खाकर उसके साथ लड़ाई मोल लेंगे? यह तो कुछ वही बात हुई, बेटे, कि भेड़ें भेडिय़े से लड़ाई ठानने की बात करें!

-लेकिन हम भेड़ें नहीं, इन्सान हैं! ग़ुलाम हैदर बोला, वह हमारा ज़मींदार है, तो हमसे वाजिब लगान ले। हमने इससे कभी इनकार नहीं किया! लेकिन जब वह इस तरह धाँधली करता है, लगान बेवजह ड्योढ़ा-दूना करता है और अपनी ताक़त के सामने हमें झुकाना चाहता है, तो हमारा भी इन्सान के नाते यह फ़र्ज़ होता है कि हम उसकी मुखालिफ़त करें। जहाँ तक ताक़त का सवाल है, हमें इस बात से इनकार नहीं कि उसके पास बहुत ताक़त है, लेकिन क्या सिर्फ़ इसी वजह से हम अपना सिर उसके ज़ुल्म और ग़ैरइन्साफी के सामने झुका देंगे? अगर यही बात है तो हमारा यहाँ इकठ्ठा होना बेसूद है। लेकिन नहीं, हम यहाँ कुछ सोच-समझकर ही इकठ्ठा हुए हैं। हमारा ख़याल है कि अगर गाँव से और अपने अहीरों के नेहता के टोले से हमें पाँच सौ जाँबाज़ जवान मिल जायँ तो हम सुगन्धराय से लोहा ले सकते हैं और इस ग़ैरइन्साफ़ी और ज़ुल्म को ख़तम कर सकते हैं। तीन कोस से वह हमारे गाँव में आकर कैसे लड़ता है, हम देखेंगे! शर्त गाँव के एके का है। इस पूरे गाँव का मामला समझा जाय और गाँव इसके लिए जो भी क़ुर्बानी दरकार हो, देने के लिए तैयार हो, तो हम समझते हैं कि आख़िरी फ़तह हमारी होगी और यह भी ग़ैरमुमकिन नहीं कि एक दिन हम अपने गाँव के मालिक बन जायँ। ...और जो हमारे बुजुर्ग ने धन की बात उठायी है, तो हम अर्ज़ करना चाहते हैं कि हमारे गाँव में भी कम धन नहीं है। हमारे ये मुअज़ि्ज़ज़ महाजन अगर अपनी एक-एक थैली खोल दें, धन-ही-धन हो जाय! गाँव की इज्ज़त के काम इनका धन न आया, तो फिर किस काम आयगा?

-हम इसके लिए तैयार हैं, गाँव के सबसे बड़े महाजन नरायन भगत ने ऐलान किया, इस मामले में जितने धन की ज़रूरत पड़ेगी, हम देंगे!

-यह वही नरायन भगत हैं,-मन्ने बोला-जिनके नाम पर आज भी गाँव का एक मोहाल क़ायम है?

-जी हुज़ूर, यह वही नरायन भगत हैं। ये गाँव के सबसे बड़े महाजन थे। गाँव में इन अकेले के पाँच देशी चीनी के कारख़ाने चलते थे। कुल मिलाकर महाजनों के यहाँ तीस कारख़ाने थे। इस छोटे-से गाँव में कभी तीस-तीस कारख़ाने चलते थे, आज कोई सोच भी नहीं सकता। कारखानों की बड़ी-बड़ी भठ्ठियों से धुआँ उठकर यहाँ के आसमान में छाता, तो लंकाशायर का मंज़र पेश होता! सैकड़ों मज़दूर कारखानों में काम करते, गुड़ की बड़ी मण्डी इमली-तले लगती। दूर-दूर से ब्यौपारी चीनी और छोआ ख़रीदने आते। बैलगाडिय़ों की भीड़ लगी रहती। गाँव में हमेशा चहल-पहल रहती। देखकर लगता कि कोई बड़ी कारोबारी जगह है। यहाँ की चीनी दूर-दूर तक मशहूर थी। कानपुर और आगरा की मण्डियों में यहाँ की चीनी की बड़ी इज़्ज़त थी। और वहाँ से होकर यहाँ की चीनी गुजरात और राजस्थान तक पहुँचती थी। सुना जाता था कि मारवाडिय़ों और गुजरातियों को यहाँ की चीनी के सिवा कोई दूसरी चीनी रुचती ही नहीं थी। ख़ैर।

मुंशीजी असली कहानी पर आये-तो ग़ुलाम हैदर की रहनुमाई में गाँव सुगन्धराय से मोरचा लेने की तैयारी में लग गया। यह तै हुआ कि बढ़ी हुई दर पर कोई भी लगान अदा न करे। ...आख़िर वसूली-तहसीली का वक़्त आया और चला गया और इस गाँव से एक आदमी का भी लगान न पहुँचा, तो सुगन्धराय ने अपना एक प्यादा गाँव में भेजा। लोगों ने इकठ्ठा होकर उस प्यादे से कह दिया कि पुरानी दर पर जब चाहें हम लगान देने को तैयार हैं। सुगन्धराय जब चाहें, पुरानी दर पर गाँव का पूरा-पूरा लगान एक मुश्त जमा कर दिया जायगा। लेकिन बढ़ी हुई दर पर हम लगान देने के लिए तैयार नहीं। प्यादे ने कहा, कुछ लोग चलकर मालिक से बात कर लें। इस पर ग़ुलाम हैदर ने कहा कि हम लोग तैयार हैं, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि सुगन्धराय इस बात की ज़िम्मेदारी लें कि हममें से जो भी उनसे मिलने जाएँगे, उनमें से किसी का बाल बाँका न होगा।

-प्यादे ने जाकर ये बातें सुगन्धराय को सुनाईं, तो वह बौखला उठा। उसने उसी वक़्त गाँव पर धावा बोलने और ग़ुलाम हैदर को गिरफ्तार करने का हुक्म अपने जवानों को दिया और ख़ुद तलवार बाँधकर, हाथी पर चढक़र लठ्ठबन्द जवानों के आगे-आगे चल पड़ा।

-गाँववालों ने प्यादे के पीछे-पीछे ही अपना एक जवान ख़बर लेने के लिए लिलकर भेज दिया था। उसने दौड़ते हुए आकर ग़ुलाम हैदर को जब यह ख़बर दी, तो उसने गाँव-भर में ताशा पिटवा दिया और तुरन्त एक आदमी को नेहता के टोले पर भिजवाया कि जवान लाठी लेकर इसी दम गाँव के पूर्वी सीवाने पर पहुँच जायँ, सुगन्धराय गाँव पर धावा बोलने आ रहा है।

-या अली और जय महावीरजी के नारों से सारा गाँव गूँज उठा। जिस जवान को भी देखो, लाठी लिये भागा-भागा आ रहा है और दल में शामिल हो रहा है। ...या अली और जय महीवारीजी के नारे देते हुए ग़ुलाम हैदर की रहनुमाई में गाँव के जवानों का दल सीवाने की तरफ़ चला, तो बूढ़ों और औरतों की आँखों में भय और आशंका नाच रही थी और होंठों से दुआएँ झर रही थीं, भगवान इन्हें इसी तरह वापस लाएँ! ... ख़ुदा इन्हें फ़तहयाब करे!

-कौतुक से बच्चे लपक-लपककर अपने बाप या भाई के साथ जाने को मचलते, तो माएँ या आजियाँ या बाबा उन्हें पकडक़र गोंद में उठा लेते और कहते, अभी तू छोटा है, मेरे लाल! बड़ा होना तो तू भी जाना!

-सीवाने पर ख़ूब जमकर लाठियाँ चलीं। सुगन्धराय ने यह न सोचा था कि इस तरह गाँववाले सीवाने पर ही उसके आदमियों से भिड़ जाएँगे, वर्ना वह और आदमियों को लेकर चलता। इस समय तो बराबर का जोड़ था और यह कहना मुश्किल था कि कौन किसको मार भगाएगा। पटापट बिजली की तेजी से अन्धाधुन्ध दोनों ओर से लाठियाँ चल रही थीं। खोपडिय़ाँ खुल रही थीं और हड्डियाँ टूट रही थीं। जवान गिर रहे थे! ...इसी बीच जाने ग़ुलाम हैदर को क्या सूझी कि वह अपने दल को छोडक़र, दुश्मनों के बीच से रास्ता बनाकर आगे बढ़ा और हाथी पर खड़े, नंगी तलवार हाथ में खीचें सुगन्धराय पर उछलकर लाठी चला दी। उसकी लाठी निशाना चूककर हाथी के मस्तक पर पड़ी और हाथी बिगडक़र चिल्हका और ग़ुलाम हैदर की ओर लपका। और ग़ुलाम हैदर ने हुमककर उस पर फिर लाठी चलायी, तो हाथी ने लाठी अपनी सूँड़ में पकड़ ली। अब ग़ुलाम हैदर लाठी छुड़ाने के लिए हुमक-हुमककर जोर मार रहा है और हाथी उसे अपनी ओर घसीट रहा है, जैसे दोनों में रस्साकशी हो रही हो। यहीं ग़ुलाम हैदर से खता हो गयी, वह लाठी छोडक़र अपने दल में भाग आता, तो बाजी उसी के हाथ में थी, लेकिन वह ऐसा न करके हाथी से ही जूझता रहा। नतीजा यह हुआ कि सुगन्धराय के चार आदमियों ने घेरकर ग़ुलाम हैदर को पकड़ लिया। निहत्था ग़ुलाम हैदर क्या करता और उसका पकड़ा जाना था कि उसके साथियों का साहस छूट गया और वे गाँव की ओर भाग खड़े हुए।

-ग़ुलाम हैदर को गिरफ्तार कर और अपने मरे और ज़ख्मी जवानों को लेकर सुगन्धराय वापस लौट गया। ...इस लड़ाई में गाँव के सात लोग मारे गये थे। सीवाने पर जो सात मज़ार हैं, वे उन्हीं के हैं।

-तभी लोग उन्हें शहीद मर्द कहते हैं क्या?-मन्ने बोला।

-जी हाँ,उनमें चार हिन्दू और तीन मुसलमान थे, लेकिन सभी वहाँ एक साथ दफ़नाये गये। हिन्दू लोग वहाँ पूजा करते थे और मुसलमान लोग फ़तिहा पढ़ते थे। वहाँ चार पीपल के पेड़ और तीन खजूर के पेड़ लगाये गये,वे आज भी हैं।....अब आगे सुनिए।

-गाँव का बिटोर हुआ। जो जवान मारे गये थे, उनका तो दुख था ही, लेकिन सबसे बड़ा दुख ग़ुलाम हैदर को लेकर था, जिसे पकडक़र सुगन्धराय ले गया था। उसे छुड़ाने का सवाल गाँव के सामने था महाजनों ने राय दी कि सुगन्धराय पर फौजदारी चलायी जाय। अभी आदमी आजमगढ़ भेजे जायँ। सबसे अच्छा वकील किया जाय। जरूरत समझी जाय ,तो आगरे से बैरिस्टर बुलाया जाय। जो भी खर्चा लगेगा वे देंगे।

-तो क्या उस वक़्त आजमगढ़ ज़िला था? मन्ने ने पूछा।

-हाँ,ज़िला आज़मगढ़ था और हाईकोर्ट आगरा। उस वक़्त रेल या मोटर का नाम न था। लोग अस्सी मील पैदल चलकर आज़मगढ़ मुक़द्दमा लड़ने जाते थे हाईकोर्ट तक जाने की किसी में हिम्मत न थी।

महाजनों ने मारे गये जवानों के घरवालों की परवरिश की ज़िम्मेदारी ले ली,ऊपर के मुक़द्दमे का ख़र्चा भी सँभाल लिया। लोगों ने उनकी फ़राख़दिली की बहुत तारीफ़ की और उनकी राय मान ली। लेकिन एक आदमी ने कहा, फौजदारी जरूर चलायी जाय, लेकिन आप यह जानते हैं कि मुक़द्दमों के फैसले में कितने दिन लग जाते हैं। तब तक सुगन्धराय ग़ुलाम हैदर की क्या हालत कर देगा,कौन जाने! हो सकता है वह उसे मार डाले। इसलिए इस वक़्त सबसे जरूरी काम यह है कि ग़ुलाम हैदर को छुड़ाने का कोई उपाय किया जाय।

-उसे छुड़ाने का क्या उपाय हो सकता था! सब खामोश होकर सोचने लगे,लेकिन किसी नतीजे पर न पहुँच पाये। सुगन्धराय के पास किसी का जाना शेर की ग़ुफा में जाने के बराबर था।

-तभी जाने कहाँ से मनबसिया आकर मजमे के किनारे खड़ी हो गयी और बोली, हम हैदर को छुड़ाने की तरकीब कर सकते हैं।

-सब लोग चिहाकर उसकी ओर देखने लगे। एक देवी की तरह मनबसिया सिर उठाये खड़ी थी। नेमा के टीले की इस ग्वाले की जवान लडक़ी के बारे में गाँव में एक अफ़वाह फैली थी कि इसके किसी क़िस्म के ताल्लुक ग़ुलाम हैदर के साथ हैं और वह बदनाम भी हुई थी, लेकिन इस वक़्त वह ख़ूबसूरत लडक़ी जैसे और भी ख़ूबसूरत लग रही थी, उसके चेहरे का जलाल देखते ही बनता था।

-एक आदमी ने कहा, लडक़ी की जात, यह मुश्किल काम तू कैसे करेगी?

ज़रा हम भी तो सुनें।

-यह-सब आप लोगों के सुनने की बात नहीं हैं, मनबसिया ने कहा, आप लोग हमें बस इजाजत दे दें, बाकी हम देख लेंगे।

-लोगों में बातचीत हुई और यह तय हुआ कि मनबसिया के बाप से राय ले ली जाय। एक आदमी बोला, तू इस वक़्त अपने घर जा, हम तेरे बाप से पूछकर कुछ तय करेंगे।

-उनसे इजाजत लेकर ही हम आये हैं, मनबसिया बोली, अब आप लोगों की इजाजत की ही ज़रूरत है।

-तू अकेली जायगी? एक आदमी ने पूछा।

-हाँ।

-यह कैसे हो सकता है?

-आप लोग किसी दुविधा में न पड़ें। हमें बस इजाजत दे दें। भगवान की किरिपा होगी, तो हम जरूर छुड़ा लाएँगे।

-फिर भी लोगों ने तय किया मनबसिया के पीछे-पीछे एक जवान छुपकर जाय। ...मनबसिया दूसरे दिन रवाना हो गयी। उसके साथ गये नौजवान ने शाम को लौटकर इत्तला दी कि मनबसिया ने क़स्बे में जाकर ढेर-सारी चूडिय़ाँ खरीदीं और उन्हें एक दौरी में सजाकर, चुडि़हारन के भेस में छिपकर गाँव में दाखिल होने के पहले एक बाग़ में रुककर उससे कहा कि तुम इसी बाग़ में शाम तक हमारा इन्तज़ार करो, हम सुगन्धराय की ज़नानी कोठी में जा रहे हैं। शाम तक हम वापस न आएँ, तो तुम गाँव लौट जाना, हमारा इन्तज़ार मत करना।

-दूसरे दिन सुगन्धराय का पियादा फिर गाँव में आ धमका और उसने अपने मालिक का ऐलान सुनाया कि अगर बढ़ी हुई दर पर पूरे गाँव का लगान पहुँचा दिया जाय, तो ग़ुलाम हैदर रिहा कर दिया जायगा। पहले तो पियादे को देखकर लोग जोश में आ गये कि ग़ुलाम हैदर के बदले इसे पकडक़र गाँव में रख लिया जाय, लेकिन बुजुर्गों ने जब समझाया कि ऐसा करना ग़ुलाम हैदर के लिए और भी ख़तरनाक साबित हो सकता है और मनबसिया को भी अपना काम पूरा करने में रुकावट पड़ सकती है, तो लोगों ने यह ख़याल तर्क कर दिया। महाजनों को जब यह बात मालूम हुई, तो वे नरायन भगत के यहाँ जमा हुए और यह राय-बात हुई कि अगर ऐसी ही बात है, तो क्यों न इस बार लगान अदा करके ग़ुलाम हैदर को छुड़ा लिया जाय? उसकी जान रुपये की वजह से क्यों ख़तरे में पड़ी रहे? वह बचकर आ जाय, तो फिर आगे की सोची जाय।

-नरायन भगत के यहाँ फिर टाट पड़ी और सब लोग जमा हुए। बहुत देर की बात-चीत के बाद प्यादे को बुलाकर यह कह दिया गया कि गाँव का पूरा लगान एकमुश्त अदा कर दिया जायगा, लेकिन सुगन्धराय बताएँ कि ग़ुलाम हैदर को छोड़ने की क्या गारण्टी है? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि सुगन्धराय लगान भी ले लें और ग़ुलाम हैदर को भी न छोंड़े? इसके लिए किसी दूसरे गाँव या क़स्बे के किसी मातबर आदमी को ज़ामिन मानने के लिए क्या सुगन्धराय तैयार हैं?

-प्यादा चला गया। लेकिन गाँव अब पहले से भी ज़्यादा परेशान था। गुलाम हैदर के साथ अब मनबसिया की भी चिन्ता लोगों को लगी थी। मनबसिया के माँ-बाप घण्टे-घण्टे में गाँव में मनबसिया की खोज-खबर लेने आते थे और अपनी परेशानी ज़ाहिर करते कि जाने का हुआ। मनबसिया उनकी अकेली लडक़ी थी, उसकी ज़िद पर माँ-बाप ने उसे भेज दिया था, लेकिन अब पछता रहे थे कि कहीं उसकी यह ज़िद उसकी जान ही लेकर न रहे।

-लेकिन उसी रात आधी रात के बाद गाँव में शोर हुआ कि ग़ुलाम हैदर और मनबसिया गाँव में आ गये! रात में ही जैसे दिन की चहल-पहल हो गयी! ग़ुलाम हैदर और मनबसिया को देखने के लिए सारा गाँव ख़ुशी से पागल होकर टूट पड़ा। जैसे सातों शहीद अचानक ही ज़िन्दा हो गये हों!

-लोग उनसे हर बात जानने के लिए उतावले हो रहे थे। लेकिन ग़ुलाम हैदर की हालत ठीक नहीं थी, उसका अंग-अंग सूजा हुआ था, उसके लिए बैठना भी मुश्किल हो रहा था, उससे बोला भी नहीं जाता था। लोग उसे छू-छूकर देखते थे और जो मन में आता था, पूछते थे, लेकिन वह कुछ जवाब न देता था, बस ख़ुशी में मुस्करा देता था और मनबसिया की ओर इशारा कर देता था।

-आख़िर मनबसिया ने ही पूरी दास्तान सुनाई, जो इस तरह थी-

-दासा भैया को बाग़ में छोडक़र हम गाँव में घुसे और सीधे सुगन्धराय की ज़नानी कोठी में जा पहुँचे और आवाज़ दी कि चुडि़हारिन आयी है, चूड़ी पहन लें और दालान में माथे से दौरी उतारकर बैठ गये। आनन-फानन में कई औरतें और लड़कियाँ वहाँ पहुँच गयीं और चूडिय़ाँ देखने लगीं। अपनी-अपनी पसन्द की चूडिय़ाँ चुनकर उन लोगों ने अलग कीं। हमने सबको भर-भर बाँह चूडिय़ाँ पहना दीं। चूडिय़ाँ पहनाते वक़्त हम यह जानने की कोशिश करते रहे कि कौन मालकिन है। पूछने की हिम्मत न थी। लेकिन यह जानना मुश्किल न हुआ कि उनमें से कोई भी मालकिन नहीं थीं, क्योंकि वे सभी चूडिय़ाँ पहन-पहनकर खिसक गयीं, किसी ने दाम की बात न की। हम पैर फैलाकर वहीं बैठ गये और आगे की सोचते रहे कि कैसे काम बने। बड़ी देर के बाद एक लौण्डी आयी और हमसे कहा, चलो, रानीजी बुला रहीं हैं, अपना पैसा ले लो।

-रानीजी के कमरे के दरवाज़े पर हमें छोडक़र वह चली गयी। हम अन्दर जाकर खड़े हो गये और हाथ उठाकर रानीजी को सलाम किया। रानीजी एक बड़े पलंग पर रेशमी तकियों के सहारे अधलेटी बैठी थीं। उन्होंने हमें देखकर कहा, तू तो नयी मालूम होती है, कभी पहले यहाँ नहीं आयी।

-हमने सिर झुकाकर कहा, हाँ, रानीजी, हमने नया-नया यह काम शुरू किया है। अब हमेशा आएँगे।

-कितनों को तूने चूडिय़ाँ पहनायीं, कितने पैसे हुए तेरे?

-दरवाज़े की ओर देखकर हमने कहा, रानीजी पैसे की बात हम बाद में करेंगे, पहले जान बख़्शें तो एक बात कहें?

-कह, तुझे क्या कहना है?

-पहले जान आप बख़्शें, फिर हम बात कहेंगे।

-तुझे क्या कहना है, जो तू जान बख्शवा रही है?

-रानीजी, हम आपसे कुछ माँगेंगे नहीं, एक काम है, जिसमें हमें आपकी मदद चाहिए। आप जान बख़्शें तो हम आगे कहें।

-चल, कह, हमारे रहते यहाँ इस कोठी में तेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता!

-रानीजी, आप हैदर को छुड़ाने में हमारी मदद करें। आप दयालु हैं!

-कौन हैदर? उसे किसने पकड़ा है? रानीजी उठकर बैठती हुई बोलीं, हमें कुछ नहीं मालूम कि तू किसके बारे में कह रही है?

-हमने उन्हें सब बताया, तो वे बोलीं, यह तो बड़ा मुश्किल काम है। हमें तो यह भी मालूम नहीं कि उसे कहाँ बन्द किया गया है।

-रानीजी, आप चाहें तो अभी मालूम हो जायगा। आपके लिए क्या मुश्किल है!

-रानीजी ठुड्डी हाथ पर रखे हुए बड़ी देर तक सोचती रहीं। उनकी बड़ी-बड़ी, काली-काली आँखों में कई रंग आते-जाते रहे, उनके सुन्दर मुखड़े पर तरह-तरह के भाव बनते-मिटते रहे। अन्त में उन्होंने कहा, अच्छा, तू अपना सामान लेकर तो आ।

-हम सामान लेकर आये, तो रानीजी दरवाज़े पर खड़ी थीं। उन्होंने बग़ल के कमरे की ओर इशारा करके कहा, तू चलकर उस कमरे में बैठ। हम बाहर से ताला लगा देंगे। तू घबराना नहीं। हम पता लगाकर, कोई उपाय बन पड़ा तो तुझे बताएँगे।

-हमने भय खाकर रानीजी के मुखड़े की ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई धोखे का भाव नहीं था। हम कमरे में घुस गये और रानीजी ने बाहर से ताला लगा दिया।

-अँधेरे कमरे में हम साँस रोके चुपचाप पड़े रहे और सोचते रहे कि आगे जाने क्या हो!

-दोपहर के वक़्त ताला खुला और रानीजी ने एक थाली में खाना और लोटे में पानी देकर कहा,अभी कुछ पता नहीं लगा, तू खाना खा ले। फिर हम आएँगे। और वह ताला बन्द करके चली गयीं।

-हमसे खाना खाया न जा रहा था। जाने क्यों रुलाई फूट रही थी। जाने हैदर किस हालत में हो, उसे खाना भी मिल रहा हो, या नहीं। ...रानीजी कितनी अच्छी हैं!

-शाम को फिर दरवाज़ा खुला। रानीजी ने बताया कि उसका पता लग गया है। उसे इसी कोठी के पीछे के बाग़ में पेड़ से बाँधकर रखा गया है। इस कोठी से बाग़ में जाने का कोई रास्ता नहीं है। ऊपर खिडक़ी से हम उसे देख आये हैं। बिलकुल खिडक़ी के नीचे ही है। बड़ा सजीला जवान है, देखकर हमें तो बड़ा मोह लगता है! हमने खिडक़ी से उसके लिए रोटी फेंकी, तो उसने बँधे हाथों से लोककर खायी। शायद उसे खाना भी नहीं दिया जा रहा है। अब उसे कैसे छुड़ाया जाय? बड़ी मुश्किल है! बाग़ के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें हैं, और अन्दर जाने के लिए एक ही फाटक है, जो बाहर से बन्द रहता है। पता नहीं, उसकी रखवाली पर कोई तैनात भी है या नहीं। ...हम पता लगाकर बताएँगे। आज रात अब तू यहीं रह, कल देखा जायगा। ...फिर थाली की ओर देखकर वे बोलीं, अरी, तूने खाना नहीं खाया?

-खाया नहीं जाता, रानीजी।

-नहीं, तू किसी बात की फ़िक्र न कर, वह छूट जायगा। कल कोई तदबीर निकाली जायगी। तुझे न जाने क्या-क्या करना पड़े। अच्छी तरह खा-पीकर तू सो जा। कोई ज़रूरत हो तो उधर किनारे जगह है। वहाँ पानी वग़ैरह रखा है। रात में दरवाज़ा खुला रहेगा। रात में नीचे कोई नहीं रहता, सब ऊपर चले जाते हैं फिर भी ज़रा होशियारी से रहना और घबराना नहीं।

-सुबह रानीजी ने फिर ताला लगा दिया। दोपहर का खाना देने आयीं, तो बोलीं, वहाँ उसके पास कोई नहीं रहता। वह अकेले है, आज रात को कुछ किया जायगा। बाग की चाभी उड़ाने की हम कोशिश करेंगे।

-शाम को रानीजी हमारे हाथ में चाभी थमाती हुई बोलीं, यह चाभी है, अब तू समझ! रात को हम तुझे कोठी के बाहर पहुँचा देंगे। तू ताला खोलकर बाग़ में दाख़िल हो जाना और...

-आधी रात के बाद रानीजी ने हमें एक चाकू दिया और कोठी से बाहर लाकर कहा, कामयाब हो जाना, तो खिडक़ी पर एक कंकड़ फेंक देना, हम समझ जाएँगे।

-और हमने बाग़ में जाकर हैदर के बन्द काटे और भागे-भागे गाँव पहुँचे। ..

-वाह!-मन्ने बोला-बड़ी बहादुर लडक़ी थी!

-हाँ,-मुंशीजी बोले-इस गाँव की तवारीख़ में वह हमेशा ज़िन्दा रहेगी! ग़ुलाम हैदर को बचाकर उसने गाँव को बचा लिया! ग़ुलाम हैदर के इस तरह वापस आ जाने से गाँव ने अपनी हार को फ़तह में तबदील कर लिया। ग़ुलाम हैदर पर बड़ी मार पड़ी थी, उससे गाँववालों के नाम एक ख़त लिखाने की कोशिश की गयी थी कि गाँववाले बढ़ी हुई दर से लगान अदा कर दें, लेकिन ग़ुलाम हैदर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था और सुगन्धराय ने जो भी जुल्म उस पर तोड़ा उसने सह लिया था। उसे भीतर-ही-भीतर शदीद चोट पहुँचायी गयी थी। दूसरा कोई होता, तो शायद ही फिर उठता। लेकिन ग़ुलाम हैदर ने दूसरे दिन से ही अपना मोर्चा सम्हाल लिया। डर था कि सुगन्धराय फिर गाँव पर हमला करेगा, इसलिए ग़ुलाम हैदर जवानों का दल बनाने में जुट गया। इधर सुगन्धराय पर फौजदारी भी ठोंक दी गयी।

-लेकिन पहली तारीख़ पड़ने के बाद ही मालूम हुआ कि सुगन्धराय ने यह गाँव अपनी लडक़ी को दहेज में दे दिया है। गाँव पर कब्ज़ा करने में नाकामयाब होने की वजह से ही सुगन्धराय ने ऐसा किया था। गाँववालों को यह मालूम हुआ, तो उनका मनसूबा और बढ़ गया। ग़ुलाम हैदर ने ऐलान किया कि अब हमारी लड़ाई खड़सरा (सुगन्धराय की लडक़ी की शादी इसी गाँव में हुई थी) के बाबुओं के साथ चलेगी। उन्हें लगान देने का कोई सवाल ही नहीं उठता, हम गाँव पर हर्गिज़-हर्गिज़ उनका क़ब्ज़ा न होने देंगे! देखना है, चार कोस से आकर खड़सरा के बाबू कैसे गाँव पर क़ब्ज़ा करते हैं! सुगन्धराय ने अपनी जो बला खड़सरा के बाबुओं पर टाली है, यह उनके लिए भी बला ही साबित होगी!

-खड़सरा के एक बाबू अपने पांच प्यादों के साथ पहली बार गाँव में आये, तो उनकी ख़ूब खातिर की गयी, लेकिन ग़ुलाम हैदर ने उनसे साफ़-साफ़ कह दिया कि सुगन्धराय ने गाँव के सात जवानों को मारा है, उनसे हमारी फौजदारी चल रही है, जब तक हम उनसे निपट नहीं लेते, हम किसी को लगान नहीं देंगे और न किसी को ज़मींदार मानेंगे! और अगर आप लोगों ने भी सुगन्धराय की ही तरह जोर-ज़बरदस्ती की, तो हम मुक़ाबला करेंगे और सुगन्धराय की ही तरह आप लोगों को भी धूल चाटनी पड़ेगी!

-खड़सरा के बबुआन बनिया टाइप के लोग थे। वे लोग तिजारत ज़्यादा करते थे और ज़मींदारी कम। एक महीने के अन्दर ही सुना गया कि उन्होंने गाँव को मासूमपुर के क़ाज़ियों के हाथ बेंच दिया। यह ख़बर मिली, तो गाँव के लोग इकठ्ठा हुए। क़ाज़ियों का जवार में बड़ा दबदबा था। इधर सबसे बड़े ज़मींदार वही लोग थे। उनके ख़ानदान में कई लोग बड़े-बड़े अफ़सर भी थे। बड़े रोब, दबंगई और ताक़त से वे लोग ज़मींदारी चलाते थे। सोचने की बात यह थी कि उनका गाँव एक कोस पर ही था और गाँव और मासूमपुर के बीच में बस नेहता का टोला था, जो गाँव का ही एक हिस्सा था, इतने क़रीब के ताक़तवर दुश्मन से कैसे लोहा लिया जायगा?

-बुज़ुर्गों ने कहा कि क़ाज़ी लोग पुरानी दर पर लगान लेने के लिए तैयार हों, तो हमें उनकी हुकूमत मान लेनी चाहिए, ख़ामख़ाह के लिए शेर के मुँह में हाथ डालने से क्या फ़ायदा? आख़िर सुगन्धराय से हमारी लगान की दर की ही तो लड़ाई थी।

-ग़ुलाम हैदर ने कहा कि यह ठीक है कि हमारी लड़ाई की बुनियाद यही थी। लेकिन अब हमारी लड़ाई की नवइय्यत बदल गयी है। अब सवाल लगान की दर का नहीं, सवाल यह है कि यह गाँव हमारा है या किसी ज़मींदार का? अगर मेरा यह सवाल ग़लत है, तो मैं यह समझूँगा कि हमारी लड़ाई ही बेमानी थी, हमारे सात नौजवानों की शहादत बेकार थी, ख़ुद मैंने जो ज़ुल्म सहे, वे बिला मक़सद थे।

-जवानों में शोर उठा, नहीं-नहीं! हम गाँव पर अब किसी का क़ब्ज़ा नहीं होने देंगे, भले ही इसके लिए हमें अपनी जान देनी पड़े!

-बुजुर्गों ने कहा, अगर ऐसी बात है, तो हम क्या कह सकते हैं? लडऩा तुम लोगों को है, भोगना तुम लोगों को है! हमारी दुआएँ तुम्हारे साथ हैं! तुम लोग जैसा चाहो करो। लेकिन नेहता के अहीरों की राय ज़रूर ले लो, पहला मोरचा उन्हीं को सम्हालना होगा।

-उन्हीं को क्यों सम्हालना होगा, सारा गाँव सम्हालेगा!

-फिर भी उनसे राय ले लो कि वे तैयार तो हैं?

-नेहता के अहीर योंही लगान देना न चाहते थे। सुगन्धराय भी उन्हें तरह दे जाता था, ताकि वे उसके ख़िलाफ़ न जायँ। असल में गाँव के सबसे मज़बूत लोग ये ही अहीर थे। सुगन्धराय से मोरचा लेने के बाद उनकी हिम्मत और भी बढ़ गयी थी, लगान देना अब उनके लिए जुर्माने की तरह था। सो, वे तो तैयार ही थे। ग़ुलाम हैदर के साथ गाँव से नौजवान उनसे सलाह लेने गये, तो उन्होंने उनकी पीठ ठोंकी और कहा कि वे हमेशा हर बात में आगे-आगे रहेंगे!

-एक हफ्ते के बाद क़ाज़ी ख़ादिमुलहक़ मरवटिया के एक मिसिर जवान के साथ गाँव में आ धमके। क़ाज़ी की पालकी गाँव के बाहर पश्चिम की मसजिद के पास रुकी। क़ाज़ी पालकी से उतरकर मसजिद के चबूतरे पर रूमाल बिछाकर बैठ गये और मिसिर लोगों को इकठ्ठा करने के लिए गाँव में घुसा।

-मिसिर सारा गाँव घूमकर क़ाज़ी के पास लौटा, तो वहाँ एक आदमी भी नहीं पहुँचा था।

-वे लोग पहुँचे थे ग़ुलाम हैदर के दरवाजे पर। महाजनों को भी बुला लिया गया था और नेहता आदमी भेज दिया गया था।

-बातचीत करके यह तय हुआ कि ग़ुलाम हैदर, नरायन भगत और नेहता के चौधरी क़ाज़ी से मिलें और बात करें।

-नेहता के चौधरी आ गये, तो तीनों मसजिद पर क़ाज़ी से मिलने चले।

-लोगों के न आने से क़ाज़ी का सफ़ेद चेहरा तमतमाया हुआ था और ग़ुस्से से आँखें लाल हो रही थीं। वह बार-बार चिकन की सफेद अचकन में लगे बड़े-बड़े सोने के बटनों को नोच रहा था।

-सलाम-दुआ की गुंजायश नहीं थी। जैसे ही तीनों वहाँ पहुँचे, क़ाज़ी फट पड़े, और लोग कहाँ हैं?

-ग़ुलाम हैदर बोला, गाँव की ओर से हमीं आये हैं।

-लेकिन हमने सबको बुलाया था? हमारा प्यादा घर-घर घूम चुका है?

-जो बात आपको करनी हो, हमीं से कीजिए, ग़ुलाम हैदर बोला।

-तुम कौन हो?

-मुझे लोग ग़ुलाम हैदर कहते हैं।

-अच्छा, तो तुम्हीं ग़ुलाम हैदर हो?

-जी।

-हुँ! कहकर क़ाज़ी ने घूरकर ग़ुलाम हैदर को देखा और कहा, तो तुम्हीं गाँव के सरगना हो?

-जी नहीं, ग़ुलाम हैदर बोला, मैं तो गाँव का एक अदना ख़ादिम हूँ, हमारे रहनुमा तो ये बुजुर्ग हैं!

-यह कौन है? क़ाज़ी ने उँगली उठाकर नरायन भगत की ओर इशारा किया।

-ग़ुलाम हैदर के तो जैसे आग लग गयी। तीख़ा होकर बोला, मासूमपुर के क़ाज़ी लोग अपनी ज़बान के लिए जवार में मशहूर हैं लेकिन आज देखता हूँ कि...

-क्या मतलब?

-मतलब यह है कि आप जिनकी ओर उँगली उठाकर यह ज़बान बोले हैं, वे आपके चचा की उम्र के हैं! सिर्फ़ एक मामूली धोती पहने, नंगी देह लिये ये खड़े हैं, तो क्या इसी से आपने इन्हें कोई ऐरा-ग़ैरा समझ लिया है?

-ओह! तो तुम हमें बोलना सिखाने आये हो!

-इनके लिए हम इस तरह की ज़बान सुनने के आदी नहीं!

-तुम्हें मालूम है, हमने यह गाँव ख़रीद लिया है और यहाँ का हर बशर हमारी रिआया है?

-जी नहीं!

-क्या मतलब?

-क्या मासूमपुर के क़ाज़ी को हमें इन लफ्ज़ों का मतलब बताना होगा?

-तो तुम हमसे ज़बान लड़ाने आये हो? गिरोरकर देखते हुए क़ाज़ी ने कहा, क़ाज़ी लोग सिर्फ़ ज़बान के ही मालिक नहीं हैं, वे ताक़त के भी मालिक हैं और यह जानते हैं कि तुम्हारे-जैसे लोगों को कैसे ठीक किया जाता है!

-ग़ुलाम हैदर के मुँह पर हाथ रखते हुए नरायन भगत बोले, क़ाज़ीजी, आपने हमारा गाँव कितने में ख़रीदा है, ज़रा मालूम तो हो?

-दस हज़ार में! क़ाज़ी ने माथा उठाकर कहा, तो उनकी लखनउआ टोपी पीछे गिर पड़ी और मिसिर ने उसे झट-से उठाकर उनके सिर पर रख दिया।

-तो आपको दस हज़ार ही चाहिए न? नरायन भगत ने ऐसे कहा, जैसे यह रक़म दस कौड़ी के बराबर हो!

-क़ाज़ी जैसे एक झटका खा गये। फिर सम्हलकर, हकलाते हुए बोले, हम गाँव...बेचने के लिए...नहीं आये हैं! ...फिर लहजा मज़बूत करके बोले, हम यह बताने आये हैं कि हमने गाँव ख़रीद लिया है! अब यह गाँव हमारा है और हमें पिछले दो सालों का लगान चाहिए! पिछले दो सालों से इस गाँव ने किसी को लगान नहीं दिया है!

-यह गाँव हमारा है! बिफरकर ग़ुलाम हैदर बोला, इसे बेचने या ख़रीदने का हक़ किसी को नहीं! हम एक कौड़ी लगान किसी को नहीं देंगे!

-क़ाज़ी को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो, वे उछलकर उठ खड़े हुए और चिल्लाकर बोले, चलो, मिसिर, चलो! ये क़ाज़ी लोगों को अभी नहीं जानते! और लपककर वे पालकी में जा बैठे।

-पालकी चली गयी और गाँव में फिर वही नक्शा तैयार होने लगा, जो सुगन्धराय से मोरचा लेने के वक़्त बना था।

-दूसरे दिन सुबह ही मालूम हुआ कि गाँव के बाहर दक्खिन ओर नेहता और गाँव के बीच के बाग़ में क़ाजी के आदमी नींव खोद रहे हैं, क़ाज़ियों की यहाँ छावनी बनेगी। गाँव में शोर हो गया, यह छावनी के लिए नींव नहीं खुद रही, गाँव पर क़ाज़ियों की हुकूमत की नींव पड़ रही है! इसे हर्गिज़-हर्गिज़ नहीं होने देना चाहिए!

-कई जवान उधर जाकर, घूम-फिरकर देख आये। क़रीब पचास आदमी काम पर जुटे थे। बड़ी तेज़ी से काम हो रहा था। जितनी जल्दी हो सके, वे छावनी खड़ी कर देना चाहते थे। मरवटिया का मिसिर हाथ में लाठी लिये निगरानी कर रहा था।

-मरवटिया के मिसिरों की लाठी मशहूर थी। मरवटिया क़ाज़ियों का ही गाँव था। क़ाज़ियों के यहाँ मरवटिया के मिसिर ही कारिन्दे थे, उनकी लाठी ही क़ाज़ियों की ताक़त थी, जिनका मुक़ाबिला जवार में कोई भी नहीं कर सकता था।

-गुलाम हैदर गाँव के नौजवानों को तैयार करके नेहता पहुँचा और वहाँ यह स्कीम बनायी गयी कि गाँव की ओर से पहले जवान आकर क़ाज़ी के आदमियों से उलझेंगे, फिर नेहता के जवान अपनी ओर से पहुँचेंगे और क़ाज़ी के आदमियों को दोनों ओर से घेरकर पीस दिया जायगा।

-गाँव के जवान लाठियाँ लेकर बाग़ में पहुँचे, तो क़ाज़ी के पचासों आदमी लाठी लेकर खड़े हो गये। वे साधारण राज या मज़दूर नहीं थे; सभी मरवटिया के मिसिर थे, राज और मज़दूर बनकर लड़ाई के लिए तैयार होकर आये थे।

-लाठियाँ बज उठीं। गाँव के पाँच सौ जवानों ने उन्हें लखेद लिया। वे भागते-भागते दक्खिन की परती पर पहुँचे, तो सामने नेहता के अहीरों को लाठियाँ लिये तैयार खड़ा पाया। अब किधर भागें? दोनों ओर से तड़ातड़ लाठियाँ उन पर बरसने लगीं। लेकिन यह उनकी चाल थी। गाँव से दूर परती को उन्होंने लड़ाई की जगह चुनी थी। थोड़ी ही देर में देखा गया कि टिड्डी के दल की तरह पच्छिम से क़ाज़ियों के गाँव से लाठियाँ लिये हज़ारों जवान भागे आ रहे हैं। ग़ुलाम हैदर ने देखा, तो उसका होश फ़ाख़्ता हो गया। अब अपनी ग़लती उसकी समझ में आयी। गाँव से इतनी दूर आकर उन्होंने अच्छा नहीं किया, अब तो परती के मैदान में वे घेरकर सबको मार डालेंगे। लेकिन यह सोचने का वक़्त नहीं था। उसने अपने दल को अहीरों के साथ मिल जाने का हुक्म दिया और उसके दोनों दलों ने लाठियाँ चलाते-चलाते ही पूरब का पल्ला सम्हाल लिया।

-आनेवाले क़ाज़ी के जवानों ने धरती पर खून की धाराएँ और मिसिरों की तड़पती हुई लोथें देखीं, तो उनका ग़ुस्सा दुगुना हो गया। वे पागल होकर ग़ुलाम हैदर के दल पर टूट पड़े।

-हवा में कौंदे लपकने लगे। तड़-तड़ लाठियाँ चल रही थीं। फट-फट खोपडिय़ाँ फूट रही थीं। चट-चट हड्डियाँ टूट रही थीं।

-तायदाद में ग़ुलाम हैदर के और उनके दल में एक और पाँच का फ़र्क था। नतीजा सामने था। ग़ुलाम हैदर और उसके जवानों के सामने मरने और मारने के सिवा और चारा नहीं था। भागने का कोई रास्ता नहीं था। भागने पर मौत तै थी।

-जान हथेली पर लेकर लड़ने वालों का मुक़ाबिला आसान नहीं होता। क़ाज़ी के जवानों के छक्के छूट रहे थे। ग़ुलाम हैदर की लाठी बिजली की तरह चारों ओर कौंध रही थी। वह बढ़-बढक़र लाठी चला रहा था। उसकी फुर्ती आज देखते बनती थी। कितनी लाठियों को उसकी अकेली लाठी काट रही थी, गिनना मुश्किल था!

-धरती पर पानी की तरह लोहू बह रहा था, लेकिन कोई दल पीछे हटने का नाम नहीं ले रहा था।

-दुनियाँ की तवारीख़ बताती है कि ग़ुलाम हैदर-जैसे बहादुरों को, जो हार के मुँह में भी आख़िरी दम तक लड़ते हैं, जस मिला है, लेकिन जीत नहीं। क़ाज़ी के जवान जब समझ गये कि ग़ुलाम हैदर ही उस दल की रूह है, तो वे उसी पर जूझ पड़े। उस वक़्त गुलाम हैदर वैसे ही लड़ रहा था, जैसे महारथियों के बीच में घिरा हुआ अभिमन्यु और आख़िर उसकी भी वही गति हुई।

-ग़ुलाम हैदर का गिरना था कि उसके दल की हिम्मत छूट गयी और वे भाग खड़े हुए। लेकिन क़ाज़ी के आदमियों ने उनका पीछा नहीं किया। वे भी अब लस्त हो गये थे। ग़ुलाम हैदर को मारकर ही जैसे उन्होंने जग जीत लिया था।

-इस लड़ाई में गाँव के सत्ताइस जवान खेत गये थे। गाँव का रहनुमा ग़ुलाम हैदर मारा गया था। गाँव पर मातम छा गया था। सबके मुँह पर हार ने स्याही पोत दी थी।

-रात को नरायण भगत के दरवाजे पर टाट पड़ी। लेकिन किसी के मुँह से कोई बात निकल नहीं रही थी। सबका मुँह लटका हुआ था और सबकी आँखों में आँसू भरे थे। तभी लोगों ने अचरज से देखा, ग़ुलाम हैदर की बूढ़ी, बेवा माँ ग़ुलाम हैदर के पाँच साल के लडक़े का हाथ थामे मजमे के किनारे आ खड़ी हुई और दुपट्टा आँखों पर रखती हुई रुँधी हुई आवाज़ में बोलीं, आप लोग इस तरह ख़ामोश क्यों हैं? कोई बात कीजिए, कोई तरकीब निकालिए? मेरे बेटे ने गाँव को आज़ाद करने का जो काम शुरू किया था, उसके न रहने से उसका काम रुक गया, तो उसकी रूह को चैन नसीब नहीं होगा! उसकी जगह लेनेवाला अगर गाँव में कोई नहीं रह गया है, तो यह उसका लडक़ा लुत्फ़ेहक़ है, इसे मैं आप लोगों के गाँव के नाम पर सुपुर्द करती हूँ!

-ग़ुलाम हैदर की बूढ़ी माँ की यह बात सुनकर लोगों में सुगबुगाहट हुई। एक आदमी ने उन्हें बाइज़्ज़त टाट पर बैठाया। एक बुजुर्ग लुत्फेहक़ को अपनी गोद में लेकर बोले, लुत्फ़ेहक़ ग़ुलाम हैदर की निशानी ही नहीं, गाँव की अमानत है, इसे गाँव पालेगा, पोसेगा और बड़ा करेगा और एक दिन यह ज़रूर ग़ुलाम हैदर की जगह लेगा और गाँव की रहनुमाई करेगा। ...लेकिन फ़िलहाल दानाई इसी में है कि सब्र से काम लें और कुछ दिन ख़ामोश रहकर अपनी ताक़त बढ़ाएँ। दुश्मन जाबिर है, इस तरह उससे भिड़ जाने का नतीजा बरबादी के सिवा कुछ नहीं हो सकता। ...ग़ुलाम हैदर और गाँव के शहीदों के दाग़ हमेशा गाँव के दिल पर बने रहेंगे। ग़ुलाम हैदर और गाँव के जवानों ने अपना ख़ून और जान देकर जिस पौधे को लगाया और सींचा है, वह कभी मुर्झाएगा नहीं! एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा, जब यह पौधा सरसब्ज़ होकर बड़ा होगा और इसके साये में गाँव आज़ादी और आराम की साँस लेगा! फ़िलहाल हमें परती पर जाकर अपने शहीदों की लाश लानी चाहिए और उनका क़फ़न-दफ़न करना चाहिए।

-परती पर एक साथ ही सब शहीदों की लाशों को चिता के सुपुर्द कर दिया गया। ...अब भी हर साल उस जगह पर कातिक सुदी सप्तमी को एक चिता बनाकर जलायी जाती है। लेकिन, अफ़सोस! गाँव हर साल यह चिता तो जलाता है, लेकिन अब इसका महातम लोग भूल गये हैं...ग़ुलाम हैदर और अपने शहीदों को लोग भूल गये हैं, उनकी क़ुर्बानियों को भूल गये हैं...और आज यहाँ के हिन्दू-मुसलमान कुत्तों की तरह आपस में ही लड़ रहे हैं। मैं यह देखता हूँ और, खून के आँसू रोता हूँ! काश, यहाँ के हिन्दू-मुसलमान अपने पुरखों को याद करते और उनकी निकाली राह पर चलते! ...अब आगे जो भी मैं कहूँगा, वह-सब मेरा आँखों देखा है, उसमें इस नाचीज़ का भी एक हिस्सा रहा है।

मुंशीजी ज़रा देर चुप रहकर बोले-क़ाज़ियों की छावनी गाँव में बन गयी और गाँव पर उनकी अमलदारी क़ायम हो गयी। मरवटिया का वही मिसिर गाँव का कारिन्दा मुक़र्रर किया गया था।

-बीस साल बीत गये। क़ाज़ियों को लगान वक़्त पर पहुँचता रहा और कोई वारदात नहीं हुई। क़ाज़ियों ने भी कुछ समझकर गाँव के साथ अपना व्यवहार और ज़मींदारों से अच्छा ही रखा।

-लेकिन बड़े क़ाज़ी ख़ादिमुलहक़ जब मरे और उनकी जगह उनके बड़े लडक़े क़यामुलहक़ ने ज़मींदारी सम्हाली, तो एक बार फिर सब नक्शा बदल गया। नया ख़ून था, तजुर्बे कम थे, उन्होंने इस गाँव पर भी नये तौर-तरीके लागू करना शुरू किया।

-उस साल ईद कातिक के महीनें में पड़ी थी। क़ाज़ी का हुक्म आया कि ईद की सुबह गाँव का सारा दूध और हर चीनी के कारख़ाने के पीछे बीस-बीस सेर रास चीनी और दस-दस रुपये पहुँचाये जायँ!

-मरवटिया के मिसिर ने गाँव में घूम-घूमकर क़ाज़ी का यह हुक्म सुनाया और कहा कि सारा सामान सीधे मासूमपुर पहुँचाना होगा।

-कारख़ानों की साल तमामी का यह वक़्त था। किसी के पास पाँच-दस सेर घर-ख़र्चे की चीनी से ज़्यादा न थी। यह चीनी साल-तमाम होते-होते ख़राब हो जाती थी, इसलिए कोई भी इसे रोकता नहीं था। अब क्या किया जाय? लोगों में राय-बात हुई और तय पाया गया कि जो चीनी हो भेज दी जाय, आगे जो होगा देखा जायगा।

-एक बैलगाड़ी पर लदवाकर चीनी, दूध और तीन सौ रुपये एक आदमी के मारफ़त ईद की सुबह भेज दिये गये।

-तीन घण्टे के बाद मरवटिया के मिसिर ने आकर बताया कि चीनी कम भेजी गयी है, इसलिए क़ाज़ी ने आदमी को बाँध रखा है। उसे छुड़ाना हो तो बाक़ी चीनी भेजी जाय!

-क़ाज़ी ने ऐसा करके गाँव में वही नक्शा तैयार कर दिया, जो एक बार सुगन्धराय के ज़माने में हुआ था। लुत्फ़ेहक़ अब जवान हो गया था। उसने लोगों को बडक़े दरवाजे पर इकठ्ठा किया। यह जगह ग़ुलाम हैदर की माँ ने अपने घर के सामने बनवायी थी। एक बड़े चबूतरे पर वे ग़ुलाम हैदर के नाम पर ताज़िया रखती थीं। उनके मरने के बाद भी लुत्फ़ेहक़ की माँ ने यह रस्म जारी रखी। उस जगह को लोग बडक़ा दरवाज़ा कहने लगे थे, शायद इसलिए कि लोग ग़ुलाम हैदर को बड़ा आदमी समझते थे।

-लुत्फ़ेहक़ ने कहा, क़ाज़ी के ज़ुल्म की चक्की अब चल पड़ी है। परसों पारस का बकरा मिसिर उठा ले गया, कल हमारे खेत के पर से बबूल का पेड़ काट लिया गया और आज हमारे आदमी को बाँध लिया गया है! ...हम लोग कब तक ख़ामोश बने रहेंगे? अगर हम लोग इसी तरह सहते गये, तो एक दिन...

-नरायन भगत के बेटे देबी भगत ने कहा, नहीं-नहीं, अब हम ये ज़ुल्म बरदाश्त नहीं करेंगे! ...लेकिन पहला काम अपने आदमी को छुड़ाना है। हम क़स्बे से चीनी ख़रीदकर भेज देते हैं। हमारा आदमी छूटकर आ जाय, तो...

-तो हमें आप लोग इजाज़त दीजिए! जवानों की ओर से लुत्फ़ेहक़ बोला, हमारे अन्दर भी गाँव के शहीदों का ख़ून है! हम अपने शहीदों को फिर ज़िन्दा करेंगे, क़ाज़ी से लड़ेंगे और गाँव को आज़ाद करके शहीदों का अधूरा काम पूरा करेंगे!

-ज़रूर! ज़रूर! चारों ओर से आवाज़ें उठीं।

-लेकिन यह काम अबकी इस तरह करना है, एक बुज़ुर्ग बोले, कि हमें हार न खानी पड़े। सिर्फ़ ताक़त नहीं, अक़ल से भी काम लेना होगा। पहले की लड़ाइयों से सबक़ लेना होगा और दूसरे गाँवों को भी अपनी लड़ाई में शामिल करना होगा। जल्दी में आकर आग में कूदना कोई दानाई नहीं!

-ठीक-ठीक! नक्शे आप लोग बनाइए, लड़ेंगे हम! लेकिन लड़ाई के सिवा अब कोई चारा नहीं!

-लेकिन जवान अपने को क़ाबू में न रख सके। रात हुई, तो गाँव में हंगामा मच गया। मालूम हुआ कि जवानों ने क़ाज़ी के पाँच प्यादों को छावनी में बन्द करके फूँक दिया है!

-बात यह हुई कि गाँव के झुकने से आज प्यादों का मन बढ़ गया था। शाम को रामचीज भर की लडक़ी परती पर से कडऱा बीनकर लौट रही थी। छावनी के पास से वह गुज़री, तो एक प्यादे ने उसे छेड़ा। लडक़ी कडऱे की खाँची वहीं फेंककर भाग खड़ी हुई और आकर अपने बाप से सब कहा। रामचीज भागा-भागा लुत्फ़ेहक़ के पास गया। लुत्फ़ेहक़ तो भरा हुआ बैठा ही था। यह बात मालूम हुई तो उसके आग लग गयी। वह उसी दम उठ खड़ा हुआ और अपने बीस साथियों को लेकर छावनी पर पहुँचा और प्यादों को छावनी के अन्दर बन्द करके उसमें आग लगा दी।

-जवानों ने लड़ाई का बिगुल फूँक दिया था। अब उन्हें डाँटने-फटकारने से क्या होता? उसी रात आनेवाली सुबह के मोरचे की पूरी तैयारी कर लेनी थी। आस-पास के गाँवों को सहायता के लिए आदमी दौड़ाये गये। ...लुत्फ़ेहक़ आधी रात को मेरे पास पहुँचा। उस वक़्त मैं इस परगने का पटवारी था। मेरे दिमाग़ का लोग लोहा मानते थे। बड़े-बड़े ज़मींदार मेरा पाँव पूजते थे। कितने ही बड़े-बड़े मोरचे मैंने अपने दिमाग़ की ताक़त से सर किये थे। लुत्फ़ेहक़ ने अपनी टोपी उतारकर मेरे पाँव पर रख दी और गिड़गिड़ाकर कहा कि, मुंशीजी, आप हमारी इस इन्साफ़ की लड़ाई का क़ानूनी मोरचा सम्हाल लें! हमसे जो भी हो सकेगा, आपको नज़र करेंगे!

मैं उसी रात उसके साथ गाँव के लिए रवाना हो गया।

-गाँव के सभी बुजुर्ग और महाजन मेरा इन्तज़ार कर रहे थे। देबी भगत के बैठके में हमारी बात शुरू हुई। जवानों को अपनी लड़ाई की तैयारी के लिए छोड़ दिया गया।

-बुजुर्गों ने कहा, अबकी हम हर बात में पहल करना चाहते हैं। क़ाज़ी को किसी भी मामले में आगे नहीं जाने देंगे, उसे हमेशा बचाव की ही हालत में रखेंगे। हरदिया, नेमा का टोला, बड़ी किशोर, धूरी का टोला, चेतन किशोर...वग़ैरा गाँव हमारी मदद के लिए अपने जवान भेजने को तैयार हो गये हैं। मरवटिया के बड़े मिसिर हरदत्त भी इस बात पर राज़ी हो गये हैं कि अबकी क़ाज़ी की ओर से लड़ने के लिए उनके गाँव का एक बशर भी नहीं जायगा। कल सुबह से ही गाँव के दक्खिन ओर जवान अपना मोरचा सम्हाल लेंगे। वे वहाँ पूरे एक हफ्ते तक बने रहेंगे। उनके खाने-पीने के इन्तज़ाम के लिए गाँव के पाँचों हलवाई तैनात कर दिये गये हैं, पाँच कड़ाहे एक साथ चढ़ेंगे और बराबर पूड़ी उतरती रहेगी। ...अब क़ानूनी मोरचा सम्हालना आपका काम है। इसके एवज़ में आप जो भी चाहे, हम देने को तैयार हैं!

-देबी भगत ने कहा, रुपये की कोई कमी हम न होने देंगे, इसका ज़िम्मा हमारा है! मुंशीजी, बस आप हमारी क़ानूनी मदद करें और आजमगढ़ हमारे साथ चलकर क़ाजी पर मुक़द्दमा दायर कर दें।

दूसरे दिन थोड़ी रात रहते ही हम बैलगाडिय़ों पर चल पड़े। गाड़ी पर पर्दा लगा दिया गया और गाड़ीवान से कह दिया गया कि मासूमपुर के पास से गाड़ी गुज़रे और कोई पूछे कि कौन जा रहा है, तो वह कह दे कि ज़नानी सवारियाँ हैं। उस वक़्त रास्ता बस एक ही था, और वह मासूमपुर से ही होकर था।

-हमें जो डर था, आगे आया। मासूमपुर के पास जैसे ही गाड़ी पहुँची, रोक दी गयी। किसी ने पूछा, कौन जा रहा है? गाड़ीवान ने कहा, जनानी सवारियाँ हैं। उसने पूछा, किसके घर की सवारियाँ हैं? गाड़ीवान ने कहा, क़स्बे के नुरुद्दीन बाबू के घर की सवारियाँ हैं। मैंने जेब में पड़ी हुई कुछ रेज़कारियों को खनकाया, ताकि सुननेवालों को मालूम हो कि चूडिय़ाँ बज रही हैं। फिर उसने गाड़ीवान को आगे जाने का हुक्म देते हुए पूछा, सवारियाँ जाएँगी कहाँ? गाड़ीवान ने कहा, कादीपुरे।

हम बच गये। आज़मगढ़ जाकर हमने वहाँ के सबसे बड़े बैरिस्टर को किया और उसके सामने सारा मामला रखकर मैंने वह मशहूर लटका सुनाया, जिसे रास्ते में ही मैंने गढ़ा था और जिसे मैं फौज़दारी की बुनियाद बनाना चाहता था :-

घूरन की बेटी बबूरन

बबूरन की बेटी बीबी सेमा

मारिन हैं, काटिन हैं

गली-गली घसीटिन हैं

फिर जाने कहाँ ले जाके

फेंक दिहिन हैं

-बैरिस्टर मेरा मुँह ताकने लगा, तो मैंने उसे समझाया, घूरे की बेटी बबूल, समझते हैं न?

-बैरिस्टर ने सिर हिलाया।

-और बबूल की बेटी बीबी सेमा?

-हाँ, बैरिस्टर ने कहा।

-उसे क़ाज़ियों ने मारा है, काटा है और घसीटा है और ले जाकर जाने कहाँ फेंक दिया है।

-वाह-वाह! बैरिस्टर दंग होकर जोर-जोर से हँसने लगा और बोला, क्या दिमाग़ पाया है आपने मुंशीजी! हम आपके सामने अपना सिर झुकाते हैं! लटके में आपने एक बात भी झूठ नहीं कही है, फिर भी क्या संगीन मतलब निकाला है आपने! बड़ी शान से क़तल का मुक़द्दमा चलेगा और आप लोग ज़रूर जीत जाएँगे!

-मुक़द्दमा दायर कर, उसी दम कारकुनों को दे दिलाकर, सम्मन जारी कराके हम लोग वापस लौटे। गाँव आकर मालूम हुआ कि क़ाज़ी की ओर से एक चिरई का पूत भी छावनी या प्यादों की ख़बर लेने नहीं आया था। गाँव की ख़ुशी का ठिकाना न था! जवानों का जोश देखते बनता था!

-बाद में मालूम हुआ कि क़ाज़ी ने भी गाँव के पच्चीस आदमियों पर आगज़नी और क़तल का मुक़द्दमा दायर कर दिया है। यह जानकर ख़ुशी ही हुई, क्योंकि उसका मतलब था कि क़ाज़ी ताक़त आज़माने की बात छोडक़र क़ानून के पास जाने को मजबूर हुआ था। क़ानूनी लड़ाई वह हमसे जीत नहीं सकता था। ...इसी बीच खड़सरा के बाबुओं से मिलकर हमने एक और बात भी ढूँढ़ निकाली। सुगन्धराय ने गाँव लडक़ी को दहेज में दे तो दिया था, लेकिन उसके चिठ्ठे पर गाँव का कहीं नाम ही नहीं था। अब हमने क़ाज़ियों पर एक और मुक़द्दमा चलाया कि उनका गाँव ख़रीदना गैरक़ानूनी है। खड़सरा के बाबुओं को गाँव बेचने का कोई हक़ नहीं था, क्योंकि गाँव उनका था ही नहीं।

-अब जमकर कानूनी लड़ाई शुरू हुई। तीन साल तक मुकद्दमा चलता रहा आखिर हम जीत गये। क़ाज़ी क़यामुलहक़ को फाँसी की सज़ा हुई और गाँव पर उनकी अमलदारी मंसूख कर दी गयी। क़ाज़ी को जब इसका पता चला तो वह जाने कहाँ ग़ायब हो गया, पकड़ा ही नहीं गया।

-इस तरह गाँव आज़ाद हुआ। उस वक़्त गाँव में जो ख़ुशी का आलम था, वह बयान के बाहर है। एक ही दिन जैसे ईद और होली का त्योहार आन पड़ा हो और सब हिन्दू-मुसलमान मिलकर एक साथ मना रहे हों, ऐसा नज़्ज़ारा था। शहीदों के मज़ारों पर फूल चढ़ाये गये। हिन्दुओं ने सत्यनारायण की कथा कहलायी और मुसलमानों ने मिलाद। महाजनों ने गाँव-भर को भोज दिया।

-अब गाँव के इन्तज़ाम का सवाल उठा। सारा गाँव जमा हुआ और एक राय से लुत्फ़ेहक़ को गाँव का नम्बरदार बना दिया गया। उसे ही गाँव का ज़मींदार मान लिया गया। तीन आने की ज़मींदारी नरायन भगत के नाम पर एक मोहाल क़ायम करके देबी भगत को दी गयी और एक आना हमारे नाम कर दी गयी। लेकिन साथ ही यह भी हुआ कि कोई किसान सरकारी लगान बीस आने बीघे से ज़्यादा किसी को नहीं देगा, सब किसान अपने-अपने खेत के मालिक हैं। सिर्फ़ मेरे लिए यह तय हुआ कि गाँव के सोलहवें हिस्से का मैं मालिक हूँगा और मैं जैसा चाहूँ, उसका इन्तज़ाम करूँ, लेकिन गाँव के बाहर किसी के हाथ न बेचूँ। मेरा हिस्सा बड़ी ख़ुशी से थोड़ा-थोड़ा करके किसानों ने देकर पूरा कर दिया। लेकिन मैंने उन्हें ही फिर लौटा दिया और कह दिया कि वहीं उन्हें जोते-बोयें और साल के अन्त में जो भी मुनासिब समझें, मेरा हिस्सा दे दें। महाजनों ने अलग से ऐलान किया कि मुंशीजी को उनकी तरफ़ से हर साल एक बोरा चीनी और दो टीन ठोपारी पहुँचायी जायगी। क़ाज़ी की छावनी की मरम्मत कराके उसे मठिया बना देने की बात भी तै हुई। यही मठिया अब गोपालदास की मठिया के नाम से मशहूर है।

दम लेकर मुंशीजी-हुज़ूर, आज उस दिन को याद करता हूँ, तो लगता है कि कोई हसीन ख़वाब देख रहा हूँ। कैसे थे वे लोग, कैसे थे वे हिन्दू-मुसलमान, जिन्होंने ऐसे गाँव की नींव डाली! एक ऐसा नमूना उन्होंने पेश किया था कि लोग सुनते तो अचरज करते और देखते, तो रश्क करते! सारा गाँव जैसे एक कुनबा हो!

-जब तक लुत्फ़ेहक़ रहा, गाँव अमन-चैन की बंशी बजाता रहा। लेकिन वह बहुत थोड़ी ज़िन्दगी लेकर इस दुनियाँ में आया। वह अपने दो लडक़ों अब्दुलहक़ और ऐनुलहक़, को छोडक़र चल बसा। ये लडक़े बड़े हुए तो अब्दुलहक़ ने आपने बाप का काम सम्भाला और ऐनुलहक़ इस परगने में क़स्बे के अन्दर नया थाना खुलने पर उसमें मुंशी हो गया। ...अँग्रेज़ी हुकूमत का शिकंजा अब कसने लगा था। ...थाने के मुंशी भाई ने अब्दुलहक़ को शह दिया और लोगों ने देखा कि अब्दुलहक़ एक ज़मींदार से भी बदतर सलूक गाँववालों के साथ करने लगा। ...बीघे पर बीस आने सरकारी लगान के बदले वह बीस-बीस रुपये सख़्ती से वसूल करने लगा, गाँववालों ने उज्र किया, तो उसके भाई ने थाने से सिपाही भेजकर कइयों को पकड़वा मँगाया और उन्हें थाने में अपने सामने ही पिटवाया।

-आप सोच सकते हैं कि यह सब देख-सुनकर गाँववालों की क्या हालत हुई होगी! गाँववाले अब क्या करें, उनकी समझ में न आ रहा था। गाँववालों को क्या मालूम था कि अब्दुलहक़ और एनुलहक़ अपने बाप-दादा को भूल जाएँगे और अपने गाँव की तवारीख़ को नज़रन्दाज करके ऐसे कमीने बन जाएँगे? ऊपर से उन्होंने एक और भी काम किया, जिससे गाँव का एका टूट गया, हिन्दू-मुसलमान अलग-अलग हो गये और फ़िरकेवाराना ख़ानाजंगियाँ शुरू हो गयीं। उन्होंने मुसलमानों के साथ अपनों-सा और हिन्दुओं के साथ दुश्मनों-सा व्यवहार करना शुरू कर दिया। ...

-उस वक़्त गाँव में एक और ख़ानदान तरक्की करके ऊपर आ गया था। उस खानदान में दो भाई थे, असग़र अली और सिराजुद्दीन!

-ये तो हमारे दादा...-मन्ने बोला।

-हाँ असग़र अली ही आपके दादा हुज़ूर थे और सिराजुद्दीन जुब्ली मियाँ के दादा थे। सिराजुद्दीन बड़े ही ख़ूबसूरत, आन-बान और दिमाग़वाले आदमी थे। न जाने किस तरह वे पिण्डारा के नवाब के यहाँ पहुँच गये और वहाँ दीवान बन गये। उनका दीवान बनना था कि इस ख़ानदान का सितारा चमक उठा। वह बड़ी शान से पिस्तौल बाँधकर, अरबी घोड़े पर चढक़र और कई अर्दलियों और सिपाहियों के साथ गाँव में आते थे। उनकी आमद की ख़बर मिलती, तो गाँव सहम उठता था। उनके सामने रास्ते में कोई गाँववाला पड़ जाता, तो उसे सिपाही कोड़े से पीटते थे। उनके रास्ते में, किसी गली-कूचे में कोई गन्दगी मिलती, तो उसके पास के घरों के लोगों को पीटा जाता था। इसीलिए वे जब भी आते थे, गाँव के गली-कूचे साफ़ हो जाते थे, जैसे आज किसी गवर्नर के आने पर शहर की सडक़ें साफ़ हो जाती हैं। उन्होंने अपना अजब दबदबा क़ायम कर रखा था।

-अब उनकी और अब्दुलहक़ की छनने लगी और इन दो कमबख़्तों ने मिलकर फ़िरक़ापरस्ती का बीज गाँव में बो दिया। मुसलमानों को उन्होंने अलग कर लिया और उन्हें यह नुस्ख़ा पिलाया कि मुसलमानों की क़ौम हुक्मराँ क़ौम है, गाँव पर उनकी अमलदारी है, हिन्दू उनकी रिआया हैं और उनके साथ उन्हें रिआया का ही बर्ताव करना चाहिए! ...और फिर वह भी वक़्त आया, जब चारपाई पर बैठने या सलाम न करने या रास्ते से न हटने पर अब्दुलहक़ ने कितने ही हिन्दुओं को पिटवाया। पुलिस की ताक़त उसकी पीठ पर थी, गाँव के मुसलमान उसके साथ थे। अब कोई उसका क्या बिगाड़ सकता था। ...लेकिन ऐसा करते-करते वह ख़ुद बिगड़ गया। एक नम्बर का बदमाश, ज़ालिम और फ़िरक़ापरस्त बन गया। गाँव की बहू-बेटियों की इज्ज़त ख़तरे में पड़ गयी। किसी का भी पानी उतारने से वह न हिचकता। हिन्दू उससे नफ़रत करने लगे। महाजन उसके दुश्मन बन गये। लेकिन इस वक़्त भी गाँव में एक फ़रिश्ता था, जो गाँव को बरबादी से बचाये हुए था, वे थे आपके दादा हुज़ूर असग़र अली। हिन्दुओं और महाजनों के साथ उनके ताल्लुक़ात बहुत अच्छे थे, वे उनकी ओर से हमेशा अब्दुलहक़ और सिराजुद्दीन से लड़ते रहते थे। वे कोई भी ज़ुल्म-ज़्यादती करते थे, तो सरेआम वे उनकी मुख़ालिफ़त करते थे। एक तरह से वे दोनों क़ौमों को टकराने से बचाये हुए थे। उनमें ख़ुदपरस्ती नाम को भी न थी, इसलिए दोनों क़ौमें उनकी इज़्ज़त करती थीं और उनकी बात मानती थीं। अब्दुलहक़ और सिराजुद्दीन उन्हे कोसते रहते थे, लेकिन खुलकर उनकी मुख़ालिफ़त करने की हिम्मत उनमें न थी। आपके दादा हुज़ूर ही अपना पूरा घर सम्हालते थे, उन्हीं के हाथ में ख़ानदान की बागडोर थी और सिराजुद्दीन बड़े भाई से दबते थे। सिराजुद्दीन साल में एक-दो बार ही गाँव में आते थे, एक-दो हफ्ते रहते थे और हुड़दंग मचाकर चले जाते थे। अकेले अब्दुलहक़ पर आपके दादा हुज़ूर बहुत भारी पड़ते थे, क्योंकि अब्दुलहक़ भले ही नम्बरदार बन गया था और मुसलमान लोग उसे नवाब कहके पुकारते थे, लेकिन उसके पास दौलत अभी नहीं थी। दौलत आपके दादा हुज़ूर के पास थी, वे मुसलमानों में महाजन थे। महाजनों की तरह वे देशी चीनी के पाँच-पाँच कारखाने चलाते थे। सिराजुद्दीन पिण्डारा से रुपया भेजते थे और आपके दादा हुज़ूर उसे अपने रोज़गार में लगाते थे। हमरोज़गार होने की वजह से उनका और महाजनों का बराबर का साथ था। अब्दुलहक़ इसीलिए उनकी मुख़ालिफ़त से डरता था। वह जानता था कि उनसे मुखालिफ़त की नहीं कि सारे महाजन उनके साथ मिल जाएँगे और अपनी दौलत की ताक़त से उसे पीस डालेंगे। सो, वह छोटी क़ौमों के किसानों और मज़दूरों को ही सताकर सब्र कर लेता था।

-जैसा मैंने आपको बताया, सिराजुद्दीन बड़े दिमाग़वाले आदमी थे, उनकी नज़र बहुत दूर तक देखती थी। सात साल बाद जब वे पिण्डारा नवाब के यहाँ से रुख़सत होकर कई गाडिय़ों पर माल-असबाब और थैलियों मोहरें और एक तवायफ़ लेकर गाँव वापस आये, तो उनकी नज़र सीधे गाँव की ज़मींदारी पर पड़ी। अब्दुलहक़ एक नम्बर का ऐयाश और शराबी हो गया था, उसे हमेशा रुपयों की कमी पड़ी रहती थी। ग़रीब आदमियों से जो वह ऐंठ पाता था, उसकी ऐयाशी और शराब के लिए कैसे पूरी पड़ती! सो, वह सिराजुद्दीन से क़र्ज़ लेने को मजबूर हुआ। सिराजुद्दीन खुले हाथों सरख़त पर उसे कर्ज़ देने लगे। और जब यह रक़म हज़ारों तक पहुँच गयी, तो एक दिन उन्होंने अब्दुलहक़ को मजबूर किया कि तहसील पर चलकर गाँव उनके नाम रजिस्टरी करा दे, वर्ना वे क़ानून की मदद लेंगे और ख़ामख़ाह के लिए उसकी छीछालेदर होगी, गाँव में डुगडुगी पिट जायगी। अब्दुलहक़ ने यह क़र्ज़ा सबसे छुपाकर लिया था, यहाँ तक कि अपने भाई तक कोई हवा न लगने दी थी। अब क्या करता, भाई से भी कैसे कहता और कहकर भी क्या करता, इतना बड़ा क़र्जा चुकाना उसके भाई के बस की बात न थी। चुनांचे उसने सिराजुद्दीन के पैर पकड़ लिये और गिड़गिड़ाकर कहा कि गाँव का अपना हिस्सा मैं आपके नाम रजिस्टरी करा देता हूँ, लेकिन कुछ खेत आप हमारे बच्चों के लिए बख़्श कर दें! आप जानते हैं, यह ख़बर जब भाई को लगेगी, तो वह हमसे अपना रिश्ता क़ता कर लेगा और हम भूखों मर जाएँगे। सिराजुद्दीन ने यह बात मान ली।

-अब क्या था, सिराजुद्दीन का नंगा नाच गाँव में शुरू हो गया। पहले ही गाँव में उनका रोब-दाब कम न था, अब तो वे गाँव के मालिक ही थे, उनको रोकनेवाला कौन था। आपके दादा हुज़ूर ने मुख़ालिफ़त की, तो उन्होंने साफ़ कह दिया कि आप अपना रोज़गार सम्हालिए, ज़मींदारी से आपका कोई मतलब नहीं, इसमें किसी तरह की आपकी मुख़ालिफ़त मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। और अगर आप नहीं मानेंगे, तो मजबूर होकर मुझे आपसे रिश्ता क़ता करना पड़ेगा।

-बेचारे आपके दादा हुज़ूर क्या करते। वे सिराजुद्दीन के जुल्म देखते रहे और ख़ून के आँसू पीते रहे और सिराजुद्दीन से गिड़गिड़ाकर कहते रहे कि ऐसा न करो, ऐसा न करो! यह मत भूलो कि इन हिन्दुओं और महाजनों ने गाँव के लिए बड़ी-से-बड़ी क़ुर्बानियाँ दी हैं! ये महाजन न होते, तो आज यह गाँव भी क़ाज़ियों के हाथ में होता और तुम भी उनकी रिआया होते! लेकिन सिराजुद्दीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अब्दुलहक़ का लगाया लगान ही न बहाल रखा, बल्कि हर हिन्दू घर के पीछे आठ आने और हर कारख़ाने के पीछे दस रुपये साल परजई भी लगा दी, गुड़ की मण्डी से आये गुड़ पर फ़ी बोरा एक आना और गाँव के बाहर जानेवाली चीनी पर फ़ी बोरा एक रुपया टैक्स भी लगा दिया और बेगार लेना भी शुरू कर दिया। ये सब बातें उन्होंने ऐसी सख़्ती से लागू की कि गाँव त्राहि-त्राहि कर उठा।

-हिन्दू और महाजन आपके दादा हुज़ूर का मुँह ताकते थे और आपके दादा हुज़ूर मुँह छुपाते फिरते थे। आख़िर जब उनसे न सहा गया, तो एक दिन वह भी आया, जब उन्होंने सिराजुद्दीन से अलग होने का ऐलान कर दिया। महाजनों के इसरार का यह नतीजा था। उनका यह ख़याल था कि इस तरह सिराजुद्दीन की ज़मींदारी बँट जायगी, तो उसकी ताक़त आधी हो जायगी और कुछ तो राहत मिलेगी।

-लेकिन सिराजुद्दीन ने कह दिया कि, ख़ुशी से आप अलग हो जायँ। जो आपके पास है, आप रखें और जो मेरे पास है, मेरे पास रहेगा।

-इस पर आपके दादा हुज़ूर ने कहा कि, नहीं, ख़ानदान की सब मिल्कियत मुश्तर्का है, आधा-आधा हम बाँटेंगे!

-लेकिन सिराजुद्दीन इससे इनकार कर गये। उन्होंने कहा कि आज जो कुछ है, सब उनका ख़ुद का पैदाकर्दा है, यह तो उनकी इनायत है कि वे भाई साहब को घर से नहीं निकाल देते!

-अब क्या था, आपके दादा हुज़ूर के आग लग गयी। गोकि उनका सुझाव बिलकुल महाजनों की तरह मीठा और नरम था, फिर भी वे इसे बरदाश्त न कर सके और उन्होंने सिराजुद्दीन को ज़िन्दगी में पहली बार फटकारकर कहा कि, मैं भी उन्हीं बाप का बेटा हूँ, जिनके तुम हो, अगर अपना हिस्सा मैंने तुमसे न लिया, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा!

-और देबी भगत ने फिर मुझे बुला भेजा। मैं आपको यह बात बताना भूल गया कि अब्दुलहक़ ने गाँव के मेरे और नरायन भगत के नाम के हिस्सों को भी हड़प लिया था। लेकिन मैंने कोई कच्ची कौड़ी न खेली थी, पटवारी था, इसी दस्त की सय्याही में सारी उम्र कटी थी, गाँव के काग़जों में मैं बराबर अपना और नरायन भगत का नाम लिखता आया था। अब एक साथ ही तीन इस्तग़ासे दाखिल हुए। एक मेरा, एक देबी भगत का और एक आपके दादा हुज़ूर का। मुक़द्दमा शुरू हुआ और सात साल तक चलता रहा।

ज़िले से हम तीनों क़िते मुक़द्दमे जीत गये, तो सिराजुद्दीन हाईकोर्ट पहुँचे, लेकिन वहाँ भी उन्हें मुँह की खानी पड़ी।

-अब गाँव में पाँच मोहाल हो गये, छै आने ऐनुलहक़, तीन-तीन आने ग़ौसअली और सिराजुद्दीन, तीन आने नरायन भगत और एक आना रामजियावन लाल। एक तरह से देखा जाय, तो सिराजुद्दीन की कमर तोड़ दी गयी, ख़ुद उनके भाई मुख़ालिफ़ और बराबर के हिस्सेदार हो गये, महाजन भी ज़मींदार हो गये। लेकिन इससे भी सिराजुद्दीन का नशा हिरन नहीं हुआ। वे बौखला-बौखलाकर बकते रहे, ये बनिया-बक्काल (अपने भाई को भी वह बनिया ही कहने लगे) क्या खाकर ज़मींदारी चलाएँगे, काग़ज़ पर उनका नाम भले रहे, अमलदारी तो हमारी रहेगी, हुक्म तो हमारा चलेगा, डंका तो हमारा बजेगा!

-उनका यह कहना एक हद तक सही भी था। ख़ुद आपके दादा हुज़ूर और देबी भगत हमारे पास आये। आपके दादा हुज़ूर ने कहा, मुंशीजी, आपने हमें ज़मींदार तो बना दिया, लेकिन हमसे ज़मींदारी चलेगी कैसे? हम तो इसका अलिफ़-बे भी नहीं जानते। सिराजुद्दीन घायल बाघ हो रहा है। उसने मुझे हिन्दुओं का तरफ़दार और काफ़िर कहकर मुसलमानों को अपनी ओर कर लिया है और फ़िरक़ापरस्ती का ज़हर बो रहा है। वह हमारे सम्हाले नहीं सम्हलने का। आप इस पटवारीगीरी से इस्तीफ़ा दे दीजिए और हमारे गाँव में चलकर हमारी ज़मींदारी सम्हालिए और सिराजुद्दीन का मुक़ाबिला कीजिए। हमें ज़मींदारी से कुछ नहीं लेना, हमारा रोज़गार ही बहुत है।

-मैंने उन्हें दिलासा देकर रुख़सत किया कि मैं उनकी बातों पर गौर करूँगा और हो सका जो ज़रूर उनकी ख़िदमत करूँगा। मैंने ज़मींदारी के कुछ गुर भी उन्हें बताये, लेकिन उन्होंने हँसकर टाल दिये।

-और एक महीने के अन्दर ही एक बड़ी संगीन वारदात हो गयी।

-वह क्या?-मन्ने चौंककर बोल उठा। मुंशीजी की शिक्षाप्रद, रोचक कहानी वह अब तक एक बच्चे की ही तरह जल्दी-से-जल्दी सुन लेना चाहता था। इसीलिए बहुत बार कुछ कहने का मन हुआ तो भी वह ख़ामोश ही बना रहा। लेकिन इस बार वह चौंके बिना न रह सका। इसका कारण यह था कि अपने दादा के बारे में एक वारदात की कहानी उसने बचपन में एक बार अम्मा से सुनी थी और रोने लगा था। उसे सन्देह हुआ कि कहीं यह वही वारदात न हो।

-आप चौंके क्यों, हुज़ूर? क्या आपने उस वारदात के बारे में कुछ सुना है? ...यह वही वारदात है, जिसने यहाँ के हिन्दू-मुसलमानों को हमेशा के लिए एक-दूसरे का जानलेवा दुश्मन बना दिया! यह वही वारदात है, जिसने गाँव में वह ज़हर का बीज बोया था, जो आज पेड़ बन गया है और जिसके ज़हरीले साये में इस गाँव के हिन्दू-मुसलमान बच्चे पलकर बड़े हुए हैं और एक-दूसरे का गला टीपने के लिए हमेशा तैयार बैठे रहते हैं! यह वही वारदात है, जिसने गाँव को तबाह कर दिया, जिसने आगे चलकर गाँव के एक हिस्से पर दूसरे गाँवों के ज़मींदारों को लाकर बैठाया! और सबके ऊपर यही वारदात है, जिसने इस गाँव के एक फ़रिश्ते को निगल लिया!-कहते-कहते मुंशीजी का गला भर आया। वे बोलते गये-इस गाँव की कहानी का यही सबसे दर्दनाक हिस्सा है! लेकिन कमबख़्त इस गाँव के हिन्दू और मुसलमानों के दिलों में कहानी का यह दर्दनाक अन्त दर्द नहीं, सिर्फ़ ग़ुस्सा, नफ़रत, दुश्मनी और बदले का जज़्बा पैदा करता है, उनके खून में ज़हर घोलता है! ...लेकिन कोई मेरे दिल से पूछे! कोई मेरी ज़बान से सुने! ...सुनिए, सुनिए, हुज़ूर! आपने इसे ज़रूर सुना होगा, इस गाँव का कोई हिन्दू-मुसलमान बच्चा नहीं, जिसकी घुट्टी में यह कहानी न पिलायी जाती हो! फिर भी एक बार आप मेरे मुँह से सुनिए! यहाँ के हिन्दू इसे और तरह से सुनाते हैं, मुसलमान इसे और तरह से सुनाते हैं। लेकिन मैं इसे आपको ऐसे सुनाऊँगा, जैसे एक इन्सान को सुनाना चाहिए, एक-एक हरफ़ सही सही, इसलिए कि मुझे इस गाँव से मुहब्बत है, जिसके पुरखे बहादुर थे, आज़ादी-पसन्द थे और अपनी आज़ादी के लिए अपना सब-कुछ क़ुर्बान कर देनेवाले थे, जो मेल-मुहब्बत और एके की क़ीमत जानते थे, जो न हिन्दू थे, न मुसलमान थे, सिर्फ़ इन्सान थे और जो हिन्दू होकर अपने शहीदों को दफ़नाना जानते थे और मुसलमान होकर अपने शहीदों को चिता को सौंपना जानते थे; जो हिन्दू होकर मुसलमानों की ईद मनाते थे और मुसलमान होकर हिन्दुओं की होली मनाते थे, जो हिन्दू होकर मुसलमानों के मज़ार बनवाते थे और मुसलमान होकर हिन्दुओं की मठिया बनवाते थे...आज भी इस गाँव में उन कारनामों के कुछ निशान बाक़ी हैं। आज भी शहीदों के मज़ार हैं, लेकिन उन पर फ़ातिहा पढऩे अब सिर्फ़ मुसलमान जाते हैं, उनका कहना है कि यहाँ सभी-के-सभी मुसलमान शहीद दफ़नाये गये थे। आज भी साल में एक बार परती पर चिता जलायी जाती है, लेकिन अब वहाँ सिर्फ़ हिन्दू जाते हैं, उनका कहना है कि यहाँ सिर्फ हिन्दू शहीद जलाये गये थे। आज मठिया पर कोई मुसलमान सीधा या अँचला नहीं भेजता, आज मज़ार पर किसी फ़क़ीर को कोई हिन्दू खाना नहीं देता। आज होली पर भूल से कोई हिन्दू किसी मुसलमान पर रंग डाल दे, तो बला हो जाय; ईद पर आज भले कोई मुसलमान हिन्दू के गले मिले, तो कौन जाने वह छुरा कलेजे में घुसेड़ दे। ...हाय-हाय! यह गाँव क्या था और क्या हो गया! रोना आता है, हुज़ूर सिर्फ़ रोना आता है! आज सिर्फ वाहिद मैं इस गाँव की तवारीख़ का गवाह हूँ। जी में आता है, कहीं मेरा कोई हम उम्र मिलता, तो उससे गले मिलकर इस गाँव का नाम ले-लेकर मैं वैसे ही रोता, जैसे दो बेटे माँ के मरने पर रोते हैं!-मुंशीजी ने कुर्ते के दामन से अपनी आँखें ढाँप लीं और ख़ामोश हो गये।

मन्ने का रोम-रोम गद्गद् हो रहा था...अगले ज़माने के हैं ये लोग...क्या दिल पाया था उन लोगों ने!

मुंशीजी ने एक गिलास पानी माँगा। खोया-खोया मन्ने उठा और आँगन से गिलास में ढालकर पानी लाया और मुंशीजी उसके हाथ से लेकर गट-गट पी गये। मन कुछ शान्त हुआ तो उन्होंने एक बार गिलास की ओर देखा और एक बार मन्ने की ओर!

मन्ने को जैसे होश आया, यह उसने क्या किया? उसने घबराकर मुंशीजी की ओर देखा, लेकिन मुंशीजी हो-हो कर हँस पड़े और बेअख़्ितयार बोल उठे-बरख़ुरदार!

इश्क़ में हर शै उलटी नज़र आती है

लैला नज़र आता है मजनूँ नज़र आती है

कोई बात नहीं, बरख़ुरदार, कोई बात नहीं! बच्चों और बूढ़ों का कोई मज़हब नहीं होता! इन्सान का कोई मज़हब नहीं होता! और सच पूछो तो बच्चे और बूढ़े ही बेहतरीन इन्सान होते हैं! हो-हो! हो-हो! जो कभी तुम्हारे दादा ने नहीं किया, जो कभी तुम्हारे अब्बा ने नहीं किया, वह तुमने कर दिखाया! हो-हो! हो-हो! तुम कितने प्यारे बच्चे हो! तुम बिलकुल अपने दादा मरहूम पर पड़े हो! वह भी ऐसे ही भोले थे, ऐसे ही प्यार थे! उन्हें मैं कभी भी नहीं भूल सकता! ...ग़ुलाम हैदर, नरायन भगत, मनबसिया, लुत्फ़ेहक़, देबी भगत वग़ैरा से कहीं बड़ी जगह उन्होंने मेरे दिल में घेर रखा है! ...सुनो! मैं कहानी पूरी कर दूँ। कहानी का यह अन्त मेरे लिए वैसे ही है, जैसे पुरोहित के लिए सतनरायन की कथा के बाद आरती...

ज़रा ख़ामोश, रहकर, जैसे याद करके वे बोले-आपके दादा हुज़ूर को गाँव में हिस्सा तो मिल गया, लेकिन ख़ानदान की और किसी चीज़ में उन्हें कोई हिस्सा नहीं मिला। सिराजुद्दीन सब हड़प गये और आपके दादा हुज़ूर ने सब्र कर लिया। हमने हक़ के लिए उनसे लड़ने को कहा, तो वे बोले, जाने दीजिए, क्या करना है सब लेकर? एक ही तो मेरा लडक़ा है, उसके गुज़ारे के लिए मेरे पास बुहत है। क़ायदे से रहेगा, तो उसे कोई तकलीफ़ नहीं होगी। ...बैठका छिन गया था, इसलिए उन्होंने यह मामूली सा खण्ड बनवाया। यहीं बैठकर उनके काग़ज़ात मैंने मुरत्तब करवाये थे। वे बार-बार यही कहते थे, मुंशीजी, यह-सब हमसे नहीं होने का!

-उधर सिराजुद्दीन ने मुसलमान जवानों का एक दल बनाया और अब्दुलहक़ को उसका सरदार बना दिया। हर ओर से अपना मोरचा मज़बूत करके उन्होंने अपना खेल शुरू किया। ...अब्दुलहक़ अपने पाँच जवानों को लेकर गुड़ की मण्डी में टैक्स वसूलने गया। ब्यौपारियों ने इनकार किया, तो उसने एक ब्यौपारी को थप्पड़ लगा दिया। फिर क्या था, हो-हल्ला शुरू हो गया। सारा गाँव इकठ्ठा हो गया। उधर से सिराजुद्दीन पहुँचे, इधर से आपके दादा हुज़ूर के साथ मैं पहुँचा। सभी महाजन भी वहाँ आ गये थे। सिराजुद्दीन की बौखलाहट उस वक़्त देखते बनती थी। वे चिल्ला रहे थे, यह मण्डी हमारी जगह में है! हम बिना टैक्स वसूल किये नहीं रहेंगे!

-मैंने उनके सामने जाकर कहा, यह तो काग़ज़ देखने से मालूम होगा कि मण्डी किसकी ज़मीन में है। मेरा ख़याल है कि यह मुश्तर्का ज़मीन है और इस पर हम पाँचों का हक़ है। आप हमारे साथ चलिए, हम आपको समझाते हैं। ...

-लेकिन वे कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे। वे चिल्ला रहे थे, हमें टैक्स न मिला, तो हम मण्डी लुटवा देंगे!

-अब तक ख़ामोश खड़े आपके दादा हुज़ूर मारे गुस्से से काँपने लगे। बोले, सिराजुद्दीन! यह न भूलना कि जिस माँ का दूध तुमने पिया है, उस का मैंने भी! पागल होकर जो ज़बान पर आये, तू मत बक! जिस दिन यह मण्डी लूट जायगी, उस दिन इस गाँव में या तो तू रहेगा या मैं!

-देबी भगत ने उनका बाज़ू थामकर कहा, भाई साहब, ख़ामख़ाह के लिए आप अपना दिमाग़ ख़राब मत कीजिए। सिराजुद्दीन मियाँ से निबटने की ताक़त हममें है। वे ज़रा आज़माकर तो देंखे! इन्हें अपने अस्सी घर मुसलमानों की ताक़त का जोम है तो हमारे छै सौ घर हैं! हम नहीं चाहते कि इस तरह की फ़िराक़वराना खानाजंगी इस गाँव में शुरू हो, लेकिन सिराजुद्दीन मियाँ अगर इसी के लिए उधार खाये बैठे हैं, तो हमें भी मजबूर होकर...

-नहीं-नहीं, देबी! तुम भी इसी तरह पागल मत बनो! जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, गाँव में यह नहीं होने दूँगा! और कहीं अगर तुम लोग पागल हो ही गये, तो तुम दोनों के बीच मेरी लाश होगी! ...सिराजुद्दीन! कुछ तो इस गाँव के माज़ी का ख़याल कर! कुछ तो अपने पुरखों के नाम पर शर्म कर! क्यों तू गाँव को बरबाद करने पर तुला हुआ है? ख़ुदा ने तुझे क्या नहीं दिया है, जिसके लिए तू इन्हें परेशान कर रहा है? हुकूमत का नशा बहुत बुरा होता है, सिराज! इससे महकूम ही बरबाद नहीं होते, एक दिन हुक्मराँ भी बरबाद होकर रहता है। जा, तू घर जा!

-लाल-लाल आँखें दिखाते, जाते हुए सिराजुद्दीन ने कहा, आज हम चले जाते हैं, लेकिन यह कहे जाते हैं कि टैक्स लिये बिना हम नहीं रहेंगे।

और एक दिन सिराजुद्दीन अपनी कर ही गुज़रे! ...सुबह हो रही थी, किरन अभी नहीं फूटी थी। बीस ब्यौपारियों का कारवाँ अपने बैलों पर गुड़ के बोरे लादे पच्छिम ओर से पोखरे के पास से गाँव में दाख़िल हो रहा था कि अचानक पोखरे के भींटे के पीछे से मुसलमान जवानों का गिरोह नमूदार हुआ और ब्यौपारियों पर टूटकर ताबड़-तोड़ लाठियाँ बरसाने लगा। ...गाँव में जब हल्ला हुआ और लोग वहाँ पहुँचे, तो सभी ब्यौपारी गिर हुए थे। किसी की खोपड़ी खुल गयी थी, किसी के हाथ टूट गये थे, किसी की टाँगे टूट गयी थीं... ख़ून की धाराएँ बह रही थीं...गुड़ के बोरे गायब थे। इधर-उधर खड़े बैल चिहा-चिहाकर, आँखे फाडक़र देख रहे थे।

-लोगों के ग़ुस्से का ठिकाना न रहा।

-मुसलमान के नाम पर सिर्फ़ आपके दादा हुज़ूर वहाँ एक ओर गर्दन झुकाये हुए खड़े थे। देबी भगत ने उन्हें देखा, तो उनके पास जाकर बोले, देख रहे हैं, भाई साहब, देख रहे हैं?

-आपके दादा हुज़ूर ने झुकी हुई गर्दन हिलाकर, बुझे हुए गले से कहा, नहीं, देबी, मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, मौत की तारीकी के सिवा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता। मैं कुछ न कर सका, कुछ न कर सका। मैं तुम लोगों को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहा। ...और झर-झर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और आँसू चुलाते ही वे गाँव की ओर चल पड़े। देबी भगत उनकी ओर देखते रहे, वे उनसे यह भी न पूछ सके कि अब वे लोग क्या करें?

-मेरे यहाँ ख़बर आयी, तो मेरा दिल दहल गया। भागा इस खण्ड में पहुँचा, तो आपके दादा हुज़ूर यहाँ नहीं थे, देबी भगत के साथ कई महाजन बैठे हुए थे। उन्होंने बताया कि वे भाई साहब का इन्तज़ार बड़ी देर से कर रहे है। उनके ज़नाने में उन्होंने कई बार ख़बर भिजवायी है, लेकिन वे अभी तक नहीं आये, न कोई ख़बर ही उन्होंने भेजवायी है। ...अब आप बुलाइए उन्हें, मुंशीजी!

-मैंने भी अपने नाम से रुक्क़ा भेजवाया, लेकिन कोई नतीजा नहीं हुआ। न आये, न कोई ख़बर ही भेजवायी।

-उनके सदमें की बात हम समझते थे, लेकिन हमारे बुलाने पर वे न आएँ, यह बात हमारी समझ में नहीं आती थी। देबीभगत बार-बार उनकी बात दुहराते थे कि वे गाँव को मुँह दिखाने-लायक़ नहीं रहे...और हम लोगों का माथा बार-बार ठनकता था कि कहीं सच ही तो उन्होंने मुँह छुपाने की नहीं ठान ली है? ...लेकिन ऐसा वे कैसे कर सकते हैं? क्या वे जानते नहीं कि उनकी हमें इस वक़्त सख्त ज़रूरत है, बिना उनसे मशविरा लिये कैसे कुछ किया जा सकता है और बिना कुछ किये रहा भी कैसे जा सकता है?

-आखिर बहुत सोच-विचार के बाद हमने तय किया कि उनके ज़नाने ही चलकर उनसे मिला जाय। हम बीस-पच्चीस आदमी चल पड़े। गलियों में जो भी हिन्दू मिले, हम लोगों के साथ हो लिये और इस तरह उनके दरवाजे पर पहुँचते-पहुँचते एक ख़ासी भीड़ जमा हो गयी।

-अपने बैठके से निकलकर सिराजुद्दीन ने भीड़ देखी, तो बौखलाकर बोला, आप लोग यहाँ क्या करने आये हैं?

-मैंने कहा, हम लोग भाई साहब से मिलने आये हैं। ज़रा उन्हें आप ख़बर करा दें।

-मैं आप लोगों का कोई नौकर नहीं, जो ख़बर करवाता फिरूँ! सिराजुद्दीन बिगडक़र बोले, यह उनके मिलने की जगह नहीं, हमारा मुश्तर्का ज़नाना है, आप लोगों को नहीं मालूम?

-मालूम है, मैंने कहा, लेकिन हमें उनसे मिलना है!

-मिलना है तो उनके खण्ड में जाइए, यहाँ आप लोग क्यों आये?

-खण्ड में वे नहीं मिले, इसीलिये यहाँ आये हैं!

-यहाँ भी वे नहीं मिलेंगे। आप लोगों को मालूम नहीं कि उन्होंने घर से बाहर न निकलने का क़स्द किया है?

-नहीं, हम लोगों को कुछ नहीं मालूम।

-तो मुझसे सुन लीजिए कि अब वे घर से बाहर नहीं निकलेंगे। अब आप लोग फौरन यहाँ से चले जाइए!

-नहीं, हम उनसे मिले बिना नहीं जाएँगे! वे अगर बाहर आकर हमसे नहीं मिल सकते, तो हम ख़ुद अन्दर जाकर उनसे मिलेंगे!

-सिराजुद्दीन गरजकर बोले, आप लोग ऐसा नहीं कर सकते! किसी ने दरवाजे पर पाँव बढ़ाया, तो मैं उसे बन्दूक़ से उड़ा दूँगा!

मुझे भी ताव आ गया। बोला, बन्दूक़ से उड़ानेवालों को अभी हमें देखना है, सिराजुद्दीन मियाँ! आपने ब्यौपारियों को नहीं पिटवा दिया, गुड़ के बोरों को नहीं लुटवा लिया, आप समझते हैं कि जो भी चाहे आप कर सकते हैं? आप लाइए बन्दूक़, मैं अन्दर जाता हूँ!

-देबी भगत ने कहा, मैं भी चलूँगा!

-लेकिन मैंने उन्हें रोक दिया। तभी घर का दरवाज़ा खुला और परेशानहाल छोटे मियाँ, आपके अब्बा हुज़ूर बाहर आये और मेरा हाथ पकडक़र कहा, चलिए, मुंशीजी, अब्बाजान को आप समझाइए!

-सिराजुद्दीन अपने बैठके के दरवाज़े पर खड़े-खड़े होंठ चबा रहे थे और मैं छोटे मियाँ के साथ अन्दर घुस गया। ...

-क्या देखता हूँ कि आपके दादा हुज़ूर एक कमरे में पलंग पर औंधा मँुह तकिये में गड़ाये पड़े हैं और सिसक रहे हैं। मैंने सलाम किया, तो उन्होंने उसी तरह मुँह किये कहा, मुंशीजी, आपको मुँह दिखाने-लायक़ मैं नहीं रहा! सिराजुद्दीन ने मेरे मुँह पर वह कालिख पोती है कि मैं किसी को मुँह दिखाने-लायक नहीं रहा! अब मेरी लाश ही इस घर से बाहर निकलेगी और मेरी तो ख़ुदा से यही इल्तिजा है कि वह कुछ ऐसा करे कि कोई मेरी लाश भी न देखने पाये!

-भाई साहब! ...

-नहीं, मुंशीजी, वे गिड़गिड़ाकर बोले, आप मुझसे कुछ भी न कहें! जो मैंने आपसे कहा है, वह मेरी रूह की आवाज़ है, वह मेरी आख़िरी बात है! ...

-लेकिन बाहर देबी भगत खड़े हैं, मैंने भाई साहब को ज़बरन रोककर कहा, सभी महाजन खड़े हैं, सैकड़ों हिन्दू खड़े हैं। सब आपसे मिलना चाहते हैं, आपसे मशविरा करना चाहते हैं कि इस मामले में क्या किया जाय?

-मैं कुछ नहीं कह सकता, मुंशीजी, तड़पकर वे बोले, मैं किसी को भी कोई मशविरा देने लायक़ नहीं रहा! आप उनसे कह दीजिए कि वे समझ लें कि ग़ौसअली मर गया। मर गया, मुंशीजी, ग़ौसअली मर गया! वर्ना वह ज़िन्दा रहता, तो यह होता, जो आज हुआ है? और वे बिलख-बिलखकर रोने लगे।

मैंने उन्हें ढाढ़स बँधाने के लिए कुछ कहा, तो वे रोते हुए ही बोले, मुंशीजी, आपने बड़ी मेहरबानियाँ की हैं मेरे साथ, आज आपकी बात मानने से मैं इनकार कर रहा हूँ, इसे माफ़ कर दीजिएगा! मेरा एक लडक़ा है, उसे मैं आपके सुपुर्द करता हूँ, अगर यह एक इन्सान बना, तो मेरी रूह को ख़ुशी होगी! ...अब आप जाइए, मुंशीजी, आपके सामने मेरी रूह और भी बेचैन हो रही है! देबी भगत को, सबको मेरा सलाम कह दीजिएगा! सलाम!

-मैं कमरे से बाहर निकला, तो पर्दे के पीछे से आपकी दादी हुज़ूर की रोनी आवाज़ आयी, मुंशीजी, आप उन्हें समझाइए! हम तो बरबाद हो जाएँगे!

-मैं क्या कहता? फिर भी उन्हें तसल्ली देना तो ज़रूरी था। कहा, आप सब्र से काम लीजिए। अभी तो उन्हें समझाना नामुमकिन है, लेकिन घाव खोठियाने पर शायद वे आप ही सम्हल जायँ। ...

-वापस लौटकर देबी भगत को जब मैंने सब बतलाया, तो वे आँखों में आँसू भरकर बोले, मुंशीजी, सिराजुद्दीन मियाँ ने यह हमें दूसरी चोट दी है! पहली चोट तो हम सह लेते, लेकिन यह चोट...

-हिन्दू बिगड़े हुए थे। देबी भगत के दरवाजे पर सब जमा थे। नेहता के अहीर और हरदिया के छत्री भी पहुँचे हुए थे। हम वहाँ पहुँचे, तो मालूम हुआ कि बस वे देबी भगत के हुक्म का इन्तज़ार कर रहे हैं, सिराजुद्दीन मियाँ को खड़े-खड़े लूट लेने को तैयार बैठे हैं।

-लेकिन देबी भगत ने बड़ी संजीदगी से उन्हें समझाकर कहा कि नहीं, ऐसा करके हम भाई साहब के मुँह पर एक परत और कालिख नहीं पोतेंगे। सिराजुद्दीन मियाँ और उनके साथियों को हम क़ानून के सुपुर्द करेंगे!

-और एक बार फिर हम इस्तग़ासा दाखिल करने ज़िले पर पहुँचे। सिराजुद्दीन और अब्दुलहक़ के साथ पचास और मुसलमान नौजवानों पर डाका डालने का मुक़द्दमा चलाया गया! ...

-सिराजुद्दीन और अब्दुलहक़ के बाइस लोगों को सज़ा हुई, सात महीने से लेकर छै साल तक क़ैद की। फैसला सुनकर देबी भगत के साथ मैं गाँव वापस आया तो मालूम हुआ कि दो दिन पहले ही आपके दादा हुज़ूर की वफ़ात हो गयी थी। ...आप समझ सकते हैं कि हमें कितना रंज हुआ! हम उनकी मिट्टी में भी शामिल न हो सके। देबी भगत को ऐसा धक्का लगा कि वे रास्ते में ही बैठ गये और मेरी ओर पागल की तरह आँखे फाडक़र देखने लगे। मैंने उन्हें हाथ से पकडक़र उठाया, तो लडख़ड़ाती आवाज़ में बस वे इतना बोल सके, मुंशीजी, भाई साहब, अपना क़ौल पूरा कर गये। अपना आख़िरी दीदार भी हमें नसीब नहीं होने दिया! ...और वे एक बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़े।

कहकर मुंशीजी लेट गये। उनके चेहरे पर उस वक़्त झुर्रियाँ-ही-झुर्रियाँ दिखाई पड़ रही थीं। ...कमरे की हवा इतनी भारी हो गयी थी कि मन्ने का दम घुट रहा था। उसे लग रहा था कि जैसे किसी ने बहुत भारी बोझ उसके सिर पर रख दिया हो।

थोड़ी देर बाद मुंशीजी आँखे मूँदे ही, साँस की आवाज़ में बोले-यह था आपका गाँव और ये थे आपके दादा हुज़ूर! अब यह गाँव है और आप हैं!-फिर काँखते हुए से उठे और हाथ में नक्शा लेते हुए बोले-चलिए, अब बिस्मिल्लाह किया जाय।

तीसरा भाग

बारह बरस के बाद घूरे का भी भाग्य पलटता है। यही कहावत सती मैया के चौरे के विषय में चरितार्थ हुई।

गाँव के पश्छिम ओर, आबादी से करीब दस बीघे खेत पारकर और उत्तर ओर आबादी से एक दस कठ्ठे का खेत छोडक़र यह चौरा है। इसके पच्छिम ओर एक छोटे-से मैदान में गाँव का छोटा-सा बाज़ार हफ्ते में दो दिन, मंगलवार और शुक्रवार को लगता है। इसके उत्तर ओर एक गड़हा है, जो बरसात में भरकर अपना पानी बाज़ार के मैदान में और गाँव से आनेवाले उत्तर के रास्ते पर फैला देता है। तब लोग घुटने-भर पानी हेलकर गाँव से इधर आते हैं और बाज़ार पच्छिम ओर हटकर पास ही के प्राइमरी स्कूल की बग़ल में लगने लगता है। कातिक-अगहन में इस गड़हे के पानी से आस-पास के कुछ खेतों की सिंचाई होती है और जाड़े में ही यह गड़हा सूख जाता है। गाँव से एक ओर पगडण्डी उत्तर के रास्ते के ठीक समानान्तर चौरे के दक्खिन से आकर बाज़ार के मैदान में मिल जाती है। बाज़ार के दक्खिन और पूरब के कोने पर एक बड़ी-सी मसजिद है, जिसे सिराजुद्दीन मियाँ ने बनवाया था। इस मस्जिद और चौरे के बीच एक बरगद का झंगार पेड़ है, जिसके साये में जाड़ों में ईख पेरने का कोल्हू और ईख का रस पकाकर गुड़ बनाने के लिए बड़ा-सा चूल्हा गड़ता है और गर्मियों में एक छोटा-सा खलिहान बसता है और बारहों महीने आस-पास के किसानों के ढोर बँधते हैं।

दो साल पहले तक इस स्थान का यही नक्शा था। मसजिद में शायद ही कभी कोई नमाज़ पढ़ता दिखाई देता। गाँव में ही जब दो मसजिदें थीं तो यहाँ गाँव से बाहर कोई नमाज़ पढऩे क्यों आये? रात में ईद-बक़रीद के सिवा कभी चिराग़ भी नहीं जलता। इसकी हालत भी अच्छी नहीं थी। दीवारें चारों ओर नीचे से खदर गयी थीं, लाहौरी ईटों से लाल-लाल चूरा इस तरह झरता रहता था, जैसे मसजिद ख़ून के आँसू रोती हो और अपने बनानेवाले को याद करती हो, जिसने उसे इसलिए बनाया था कि बाहर से कोई आनेवाला गाँव में दाख़िल हो, तो उसकी नज़र इस पर पड़े और वह समझे कि यह गाँव मुसलमानों की ही अमलदारी है, और ज़रा आगे बढक़र जब उसकी नज़र सती मैया के नाचीज़ से चौरे पर पड़े तो वह समझे कि इस गाँव में हिन्दू भी हैं, लेकिन उनकी हालत वहीं है, जो शानदार मसजिद के सामने इस अदना चौरे की है।

यह चौरा अदना ही तो था। सात फ़ुट लम्बा, सात फ़ुट चौड़ा और पाँच फ़ुट ऊँचा एक चबूतरा और उस पर आठ फ़ुट ऊँची, तीन ओर से ढँकी हुई एक मेहराब। पूरब ओर द्वार की तरह खुला है, जिससे चबूतरे के बीच में सती मैया के प्रतीक-स्वरूप एक काला पिण्ड दिखाई देता है! बस! किस ज़माने में गाँव के किस कुल की वधू यहाँ सती हुई थी और किसने यहाँ यह चौरा बनाया था, आज गाँव के किसी भी आदमी को नहीं मालूम। जाने कितनी वर्षा, धूप और ठण्ड खाकर यह चौरा काला हो गया था। बरसात में इस पर काई जम जाती और छोटी-छोटी घासें उग आतीं और इस पर से काला-काला पानी बहा करता। गर्मी में इस पर से काले-काले पपड़े उभरकर झरते और इसके पास से गुजरने पर एक ऐसी गन्ध आती, जैसे लकड़ी की राख सड़-गलकर धूप पड़ने पर बफारा छोड़ती हो।

पगडण्डी से ग़ुजरने वाले लोगों की दृष्टि भी इस परित्यक्त चौरे पर कभी नहीं पड़ती। लेकिन बलिहारी है औरतों की कि जिनके कारण लगन के दिनों में कभी-कभी यहाँ भी रौनक़ हो जाती। सच कहा जाय, तो पुराने कर्म-काण्ड, रीति-रिवाज, संस्कार-परम्परा औरतों के दम से ही क़ायम हैं। इनका अपना अलग स्कूल है, जहाँ बचपन में ही माँएँ और दादियाँ इनकी घुट्टी में यह सब डाल देती हैं और इन्हें इस तरह दीक्षित कर देती हैं कि जीवन-भर ये उन्हीं लीकों पर चलती रहती हैं, ज़रा भी टस-से-मस नहीं होतीं, जैसे ज़रा भी इधर-उधर हुईं नहीं कि प्रलय आ जायगा, जैसे इन्हीं के धर्माचरण पर तो यह पृथ्वी टिकी है और उसमें कहीं भी व्यवधान हुआ तो सर्वनाश! मर्द इन मामलों में दख़ल नहीं देते, दख़ल वे बर्दाश्त ही नहीं कर सकतीं। और औरतें अपने दम पर उस-सबको ज़िन्दा रखे हुए हैं, बाबा आदम के ज़माने से अब तक, भले ही उनके उन कर्म-काण्डों का जीवन में कोई उपयोग न हो, उनसे कुछ बनता-बिगड़ता न हो। वह-सब वैसे ही चलता रहता है, जैसे सुबह होने पर सूरज उगता है, जैसे उसमें कोई परिवर्तन होने ही वाला नहीं।

मन्ने को याद है। बचपन में तड़-तड़ा-तड़, तड़-तड़ा-तड़ ताशे की आवाज़ सुनकर वह सती मैया के चौरे की ओर भागता था। आगे-आगे ताशा बजाता चमार और उसके पीछे सिर पर साफ़ा बाँधे, आँखों में मोटा काजल लगाये, गले में सोने का मोटा गोप और कई लडिय़ों की सिकड़ी, कानों में कुण्डल, शरीर पर जामा और पीली धोती पहने एक हाथ में कजरौटा और दूसरे में काला छाता लिये, कलाइयों में कंगन और अँगुलियों में कई-कई अँगूठियाँ चमकाते और महावर लगे पाँवों में सलीमशाही या लुधियाने के लाल-लाल जूते डाँटे हुए दूल्हा और उसके पीछे पीली साड़ी और हरी गोटवाली साटन की लाल चादर ओढ़े हुए हुलस-हुलसकर दौड़ती हुई-सी उसकी माँ और उससे ज़रा दूरी पर औरतों का गिरोह, धराऊँ, रंग-बिरंगे कपड़ों में लदर-फदर चलता हुआ और गाता हुआ :

धीरे चलऽऽहम हाऽरी ए रघुबर...

सती मैया के चौरे पर पहुँचकर चमार एक ओर खड़ा हो और भी जोर-जोर से ताशा पीटने लगता। दूल्हा, उसकी माँ और सिर पर पूजा का सामान और मौर दौरी में लिये नाउन चौरे के द्वार पर खड़े हो जाते। औरतों का गिरोह पास ही पाँवों पर बैठ जाता। चारों ओर लडक़े-लड़कियों की भीड़ जमा हो जाती और पगडण्डी पर या बरगद के पेड़ के नीचे बड़े लोग ठिठककर तमाशा देखने लगते।

नाउन दौरी सिर से उतारकर चबूतरे पर रख देती। माँ उसमें से पानी-भरा लोटा निकालकर सती मैया को स्नान कराती। फिर पूजा की थाली निकालकर, उसमें से बारी-बारी दूध, हल्दी और अक्षत लेकर सती मैया पर चढ़ाती। फिर सिन्होरा निकालकर सात बार सती मैया पर सिन्दूर का अँगुली के बराबर-बराबर टीका करती। और तब अपने दूल्हे बेटे का सिर दोनों हाथों से पकडक़र चबूतरे पर टिका देती और स्वयं दोनों हाथों में अपना आँचल ले, सात बार चौरे को छूकर माथे से लगाती और कहती-हे सती मैया, मेरे बेटे की जोड़ी सलामत रखना!

और फिर वह औरतों का गिरोह गाते-बजाते पोखरे की ओर कक्कन छुड़ाने और मौर सिराने चला जाता।

बस, यही एक रौनक़ थी, जो गाँव के हिन्दू दूल्हे या दुल्हन को लेकर सती मैया के चौरे के पास लगन के दिनों में हो जाती। ...फिर यह भी देखा गया कि बिना दूल्हे के भी औरतों का गिरोह सती मैया की पूजा करने चला जा रहा है। पूछने पर मालूम होता कि दूल्हा शर्म के मारे नहीं आया, माँ उसके बदले उसका साफ़ा ही लिये पूजा करने जा रही है। जो हो, औरतें पूजा करने से बाज़ नहीं आतीं, लडक़े पढ़-लिखकर भले ही उनके साथ पूजा करने जाने में शरमाने लगें, लेकिन औरतों की पूजा कैसे रुक सकती है? दूल्हा नहीं, तो दूल्हे का साफ़ा तो है! उनकी पूजा किसी-न-किसी तरह, किसी-न-किसी रूप में चलती ही रहेगी।

सती मैया के चौरे के साथ गाँव का कल तक यही सम्बन्ध था। और आज, जाने कितने ज़माने के बाद, इसका भाग्य जागा है!

रहमान जुलाहा हाथ जोड़े मन्ने के सामने खड़ा था और कह रहा था-बाबू! मेरा तो पाँच सौ रुपया पानी में बह गया। ...मुझे यह मालूम होता, तो काहे को मैं यह ज़मीन जुब्ली मियाँ से ख़रीदता और चहारदीवारी खड़ी करता? ...रातो-रात हिन्दुओं ने मेरी दीवार तोड़ दी और सती मैया के पास मेरी दीवार की ईंटों से ही चबूतरा बनाकर मेरी ज़मीन घेर ली है। ...मैं तो मर जाऊँगा, बाबू!

मन्ने ने लापरवाही से कहा-तो हमारे यहाँ तुम क्या करने आये हो? जुब्ली मियाँ से तुमने ज़मीन ख़रीदी है, उन्हीं के पास जाकर कहो! मैं क्या कर सकता हूँ?

-फ़ारम पर उनसे मिलकर ही आया हूँ, बाबू। वो कहते हैं कि इस मामिले में वो कुछ नहीं कर सकते। गाँव पर हिन्दुओं का राज है, वे जो चाहे, कर सकते हैं, उनके मुक़ाबिले में खड़े होने की ताक़त हममें नहीं है। मैंने कहा, तो मेरा रुपया ही आप वापस कर दीजिए। मुझे हिन्दू-मुसलमानों से क्या लेना है? ...मैं दीनवाला आदमी हूँ, बाबू, ख़ुदा की इबादत और अपना छोटा-मोटा कपड़े का रोजगार, बस, यही दो काम हैं मेरे। न किसी के लेने में, न किसी के देने में। पाँचों वक़्त का नमाज़ पढ़ता हूँ और पीठ और सिर पर कपड़ों का बोझ लादकर बाज़ार-बाज़ार घूमकर बेचता हूँ। बड़ी मशक्कत की कमाई है, बाबू! आप मेरा रुपया ही वापस करवा दीजिए। नहीं बनेगा मेरा आँगन, दो कोठरियों में अब तक जैसे जाड़ा-गर्मी-बरसात काटते रहे हैं, हमारे बच्चे वैसे ही आगे भी काट लेंगे। इस पर वो बोले, चील के घोंसले में माँस ढूँढऩे आये हो? अब तक क्या तुम्हारा रुपया रखा हुआ है? मैंने कहा, तो मैं क्या करूँ, बाबू? आपकी और हिन्दुओं की ग़ैरइन्साफ़ी चुपचाप सह लूँ? वो बोले, मेरी ग़ैरइन्साफ़ी का कोई सवाल ही नहीं उठता, मैंने वो ज़मीन तुम्हारे नाम रजिस्टरी कर दी है। तुममें दम हो तो ज़मीन पर क़ब्ज़ा करो, हिन्दुओं से मुक़द्दमा लड़ो। गाँव पर भले ही हिन्दुओं की हुकूमत हो, कानून पर अभी उनकी हुकूमत नहीं, कानून तुम्हारे साथ ज़रूर इन्साफ़ करेगा। ...अब, बाबू, आप ही बताइए, मुझमें इतना दम कहाँ कि मैं मुक़द्दमा लड़ूँ, सारा गाँव एक ओर और मैं अकेला?

-यह तो उनकी सरासर ज़्यादती है। लेकिन रजिस्टरी कराने से पहले तुमने देख लिया था कि वह ज़मीन उन्हीं की है?-मन्ने ने पूछा।

-जी बाबू, पटवारी का इन्दराज मेरे पास है। वो तो दो साल पहले ही, जब मैंने मसजिद की बग़ल की ज़मीन उनसे ली थी, जुब्ली मियाँ यह ज़मीन भी लेने को मुझसे कह रहे थे, लेकिन उस वक़्त रुपया मेरे पास नहीं था। दो साल में पेट काटकर रुपया जमा किया, तो अबकी इस ज़मीन की रजिस्टरी करायी है। पटवारी भी साथ तहसील गया था। पचास रुपया उसने भी लिया। क्या करता, बाबू, आँगन के बिना बच्चों को बड़ी तकलीफ़ थी, गर्मी में उसिना जाते थे। सोचा था, चहारदीवारी खड़ी करके आड़ कर लेंगे, तो बच्चे गर्मी में वहीं सोएँगे। ईंट ख़रीदकर मेहनत-मजूरी ख़र्च करके चहारदीवारी खड़ी करायी,तो यह हश्र हुआ अब मैं क्या करूँ,बाबू?आप ही मेरा इन्साफ़ कीजिए,बाबू! और मैं किसके पास जाऊँ?

-तुमने काम शुरू कराया था, तो किसी ने रोका था?-मन्ने ने पूछा।

-जी हाँ, कैलास बाबू, किसन बाबू, जयराम, रामसागर, समरनाथ और हमारे पड़ोस के महाजन के लडक़े हरखदेव रोकने आये थे।

-उन्होंने क्या कहा था?-मन्ने ने अब कुछ दिलचस्पी से पूछा।

रहमान का मन बढ़ा। झोंझ की तरह लटकी बड़ी दाढ़ी में हाथ फेरते औैर कनखी से मन्ने की ओर देखते हुए उसने कहा-उन्होंने कहा कि यहाँ तुम दीवार खड़ी नहीं कर सकते। यह बाज़ार का रास्ता है। ...मैं मधुर आदमी हूँ, बाबू, लड़ाई-झगड़े से दूर ही रहता हूँ। मैंने हाथ जोडक़र कहा कि रास्ता तो यहाँ से सती मैया के चौरे तक पड़ा हुआ है। मैंने पटवारी से इन्दराज लिया है, जुब्ली मियाँ से यह ज़मीन रजिस्टरी करायी है। आप लोग ग़रीब पर रहम कीजिए। आप लोगों के सहारे ही तो आप लोगों के गाँव में बसा हूँ। ...इस पर हरखदेव ने नींव के पास पाँव का अँगूठा रखते हुए कहा, यहाँ तक तो सतीवाड़े की ही ज़मीन है, इसके बाद रास्ता शुरू होता है। जुब्ली मियाँ का इस ज़मीन पर कोई अधिकार नहीं, वो रजिस्टरी कैसे करा सकते हैं? उनसे जाकर तुम समझो और यह चहारदीवारी बनाना बन्द करो। मैं तो यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया, बाबू! कुछ सोचकर मैंने कहा, ऐसा है तो ज़रा आप लोग ठहरिए, मैं जुब्ली मियाँ को यहीं बुला लाता हूँ, उन्हीं से आप लोग बात करिएगा। मैं नया आदमी हूँ, मुझे क्या मालूम है? इस पर कैलास बाबू बोले, उनसे हमें बात करने की कोई ज़रूरत नहीं। तुम जानो और तुम्हारा काम! और वे लोग चले गये। मैं दौड़ा-दौड़ा जुब्ली मियाँ के पास पहुँचा। उनसे सब कहा तो वो बोले, तुम उन लोगों की बनरघुडक़ी में मत आओ, चुपचाप अपना काम करवाओ। और हमने काम लगा दिया। पाँच दिन तक कोई वहाँ पूछने तक नहीं आया और आज रात...

-तुमने रात को ही जुब्ली मियाँ को क्यों नहीं पकड़ा?

-रात की बात पूछते हैं, बाबू?-डबडबाकर रहमान बोला-सहन में पहली ही बार हम सोये थे। पहली नींद भी अभी पूरी न हुई थी कि हल्ला सुनकर हमारे घर में भड़भड़ाकर जाग उठी। मुझको जगाया, तो गैस की रोशनी में मेरी आँखें चौंधिया गयीं। चार-चार पेट्रोमाक्स जल रहे थे, बाबू! सौ के क़रीब आदमी थे। टप-टप मेरी चहारदीवारी से हाथों-हाथ ईंटें तोड़ रहे थे। होश हुआ, तो कुछ शक्लें पहचान में आयीं और फिर सब-कुछ समझ में आ गया। मैंने जल्दी बच्चों को घर में किया कि किसन की आवाज़ आयी, रहमान! तुमने एक लफ्ज़ भी ज़बान से निकाली, तो समझ लेना! चुपचाप अपने घर में घुस जाओ। और कल अपने मालिकों से कह देना कि पाकिस्तान का रास्ता नापें। अगर वे यों नहीं जाते, तो एक-एक को बेइज़्ज़त करके हम पार्सल कर देंगे! ...बाबू, उसके कन्धे पर लाठी थी और उसके पीछे और कई लोग लाठियाँ लिये हुए खड़े थे। एक ओर रामसागर के कन्धे पर बन्दूक की नली गैस की बत्ती में चमक रही थी। डर के मारे मेरी तो पुलपुली काँप उठी। मेरा पैर उठ ही नहीं रहा था। वह तो मेरी घरवाली ने मेरा हाथ पकडक़र मुझे घर के अन्दर घसीट लिया और अन्दर से दरवाज़ा बन्द कर दिया।

-हुँ!-सिर हिलाते हुए मन्ने बोला-तो यह सब बातें तुमने जुब्ली मियाँ से कहीं?

-जी, बाबू! सुनकर वो मुझे समझाने लगे कि यह सब बातें मैं किसी से भी न कहूँ।

-क्यों?

-कह रहे थे, यह-सब सुनकर मुसलमान घबरा जाएँगे।

-हूँ, घबरा जाएँगे! मज़ा मारे ग़ाज़ी मियाँ, मार खाय डफ़ाली!-नफ़रत से मुँह बनाकर मन्ने ने कहा-अच्छा, तुम जाओ।

-मैं क्या करूँ, बाबू?

-मुझे कुछ सोचने-समझने का मौक़ा दो। ...हाँ, तो सतिवाड़े का चबूतरा बन गया है?- जैसे चौंककर मन्ने बोला।

-जी, बाबू वह तो रातो-रात तैयार हो गया था। सुबह मैंने अपना दरवाज़ा खोला, तो...

-अच्छा, तुम जाओ। ज़रा ठीक-ठीक सब पता लगा लूँ। फिर सोचा जायगा कि क्या करना मुनासिब है?

-फिर मैं क्या करूँ, बाबू?

-तुम...तुम अभी जाओ। ...लेकिन...हाँ, तुम ग्राम-सभापति के पास जाकर सब बताओ। वो कहें, तो एक दरख़ास्त भी दे दो।

-बहुत अच्छा, बाबू! लेकिन आप ज़रा ख़याल रखिएगा, बाबू! आप ही का आसरा है! जुब्ली मियाँ को तो मैं देख चुका। मेरे साथ ग़ैरइन्साफ़ी हुई है, बाबू! आप...

-तुम जाओ, रहमान!-बात काटकर मन्ने बोला-यह एक बड़ा ही नाज़ुक मामला है, बहुत सोच-समझकर इसमें हाथ डालना होगा। तुम सभापतिजी से जाकर मिलो।

-बहुत अच्छा, बाबू! मैं अभी सभापतिजी से जाकर मिलता हूँ। बन्दगी!

-बन्दगी!

रहमान चला गया, तो मन्ने के मुँह से आप ही निकल गया, यह होने ही वाला था, यह होने ही वाला था! लेकिन उन्होंने जो यह मोरचा खोला है, बहुत सोच-समझकर खोला है। ...सती मैया का चौरा...हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को भडक़ाया जायगा...मुसलमानों के ख़िलाफ़ उन्हें उभाड़ा जायगा...अपढ़, गँवार लोग भेड़ों की तरह भडक़ानेवालों के पीछे आँख मूँदकर चलेंगे और फिर जाने क्या हो। मज़हब का मसला बड़ा नाजुक होता है, एक भी ग़लत क़दम उठ गया, तो...

तभी बद्दे घर से नाश्तेदान में नाश्ता लेकर निकला, तो उस पर नज़र पड़ते ही जाने मन्ने को क्या हुआ कि वह जोर से चीख़ पड़ा-कहाँ जा रहे हो? भाई साहब को नाश्ता पहुँचाने? चलो, चलो! बोरिया-बिस्तर बाँधो, पाकिस्तान चलने की तैयारी करो!

बद्दे हक्का-बक्का होकर मन्ने का मुँह ताकने लगा। उसकी समझ में न आ रहा था कि मन्ने भाई यह क्या कह रहे हैं? गाँव का कोई भी मुसलमान पाकिस्तान जाने की बात कर सकता है, लेकिन मन्ने भाई? यह घाट का पत्थर अपनी जगह से आज कैसे हट गया? उसने पास जाकर, आँखों में आशंका लिये हुए पूछा-क्या बात है, मन्ने भाई?

-बात पूछते हो? जाकर सतिवाड़े पर देखो! कुछ सुना नहीं क्या तुमने?

-नहीं, मैं तो अभी घर से निकल रहा हूँ। मुझे कुछ भी नहीं मालूम! क्या हुआ है वहाँ?

-क़ब्र खुदी है हमारे-तुम्हारे लिए!-तैश में आकर मन्ने बोला-जाकर अपने भाई साहब से बोलो कि ज़रा भी ग़ैरत उनमें बाक़ी है, तो मुँह न चुराएँ! यह न समझें यह-सब उस ग़रीब जुलाहे पर ही बीतकर रह जायगा! यह आग फैलेगी और उन्हें भी जलाकर राख कर देगी!

-क्या हुआ है, मन्ने भाई!-परेशान होकर बद्दे बोला-आप साफ़-साफ़ हमें बताइए!

-जाकर अपने भाई साहब से पूछो! बड़े मजे किये हैं उन्होंने इस गाँव में! अब एक साथ सब निकलने का वक़्त आ गया है! जाओ, जाकर उनसे मेरी ये सब बातें कह दो और उन्हें तुरन्त यहाँ भेजो। बहुत लूटा है उन्होंने गाँव को, अब गाँव उन्हें लूटने की तैयारी कर रहा है! वही नहीं, गाँव के सभी मुसलमानों को ख़त्म करने का नक्शा बन गया है! जाओ, जाकर उनसे कह दो कि इस मामले को वो कोई मामूली न समझें, यह हमारी जड़ खोदकर रख देगा। मैं अपनी आँखों के आगे सब देख रहा हूँ! जाओ, जाकर उनसे कह दो। यह आराम से नाश्ता करने का वक़्त नहीं है! हमारी हस्ती खतरे में है!

नाश्तेदान वहीं रखकर बद्दे भाग खड़ा हुआ। उस तरह भागते हुए देखकर मन्ने को उस स्थिति में भी हँसी आये बिना नहीं रही। वह चारपाई से उठकर टहलने लगा और सोचने लगा, यह होने ही वाला था, होने ही वाला था! कैलास अपनी हार से बौखलाया हुआ है। हुँ:! पाकिस्तान भेजेंगे! कमबख़्त ने सारी पढ़ाई-लिखाई को भाड़ में झोंक दिया है! सती मैया के चौरे के बहाने गँवारों को भडक़ाकर हमारे ख़िलाफ़ करना चाहता है! जनता की अन्धी धार्मिक भावनाओं को छेडक़र अपना उल्लू सीधा करना चाहता है! अरे, लडऩा था, तो सामने आकर लड़ता! लड़ा तो था ग्राम-सभापति का चुनाव, क्यों नहीं जीत लिया? जनता ने उसे उठाकर फेंक दिया, तो उसका बुख़ार इस तरह निकालने जा रहा है! पहले कितना कहा, समझौता कर लो, सब लोग मिल-जुलकर, एक मत से ग्राम-सभापति को चुन लें, मतदान की ज़रूरत ही न पड़े। लेकिन क्यों वह मानने लगा? कितने जोम से उसने कहा था, १९८ मुसलमान वोटरों से १४५६ हिन्दू वोटर समझौता करें? क्या बात करते हैं, मोली साहब? ...स्साला मोली साहब कहता है! जैसे मुसलमानों का प्रतिनिधि बनकर उससे बात करने गया था मैं! फिर कहाँ गये उसके हिन्दू वोटर? क्यों हार गया वह? वह कोइरी का लडक़ा क्यों जीत गया? इंजीनियर होकर भी यह-सब समझने की वह कोशिश नहीं करेगा। कोशिश करेगा अब साम्प्रदायिक दंगा कराने की। थू:! कमबख़्त की मोटी अक़ल में यह बात भी नहीं आती कि उस कोइरी के नाचीज़ लौंडे को १५२२ वोट कैसे मिल गये? हुँ:! समझता था, सब हिन्दू उसे ही वोट देंगे, क्योंकि वह महाजन का लडक़ा है, पढ़ा-लिखा है, इंजीनियरी पास है। यह नहीं समझता कि क़ानून ने ज़मींदारों को ख़त्म कर दिया, तो ज़माना महाजनी की भी कमर तोड़ रहा है। किसानों, मज़दूरों और ग़रीबों में वर्ग चेतना की किरण फूट रही है, वे कोइरी के लौंडे के मुक़ाबिले में उसे वोट नहीं दे सकते, वे अपनी ही तरह के एक ग़रीब-गँवार आदमी में उससे कहीं अधिक विश्वास करते और बराबर कहते हैं कि...ग़रीब का दु:ख ग़रीब ही समझ सकता है, बाबू लोग क्या समझेंगे? इन लोगों की हुकूमत में किस रय्यत को सुख मिला है? वोट लेने के वक़्त दाँत निपोरते हैं और चुन लिये जाने पर हुकूमत करते हैं! रहे हैं न राधे बाबू पाँच बरस तक ग्राम सभापति! क्या-क्या रंग न दिखाये उन्होंने! क्या थे और क्या हो गये! ...सत्याग्रह...जेल...पाँच-पाँच बरस तक जेल में रहे। बयालीस में दस साल की सज़ा हुई, घर लूटकर नीलाम पर चढ़ा दिया गया था, ख़ानदान बरबाद हो गया, बैल गया, साथ में पाँच हाथ का पगहा भी ले गया! ...देश आज़ाद हुआ, तो ग्राम ने उन्हें नेता मान लिया। ग्राम-पंचायत का संगठन हुआ, तो गाँव ने एक मत से उन्हें ग्राम-सभापति चुन लिया। कौन था गाँव में, जिसने उनके बराबर देश के लिए त्याग किया हो, यातनाएँ झेली हों! लेकिन जैसे ही ग्राम-सभापति बने, क्या चोला बदला उन्होंने! और तो और, कितनी लड़कियों को उन्होंने नासा, है कोई गिनती! वह तो कहो कि जेल और देश के काम ने उन्हें दुनियादारी से बिलकुल बेगाना बना दिया था, वर्ना देखते उनके करिश्मे! दूसरे गाँवों के सभापतियों की तरह वे भी मालोमाल हो जाते, मालोमाल! अच्छा हुआ कि बाप-दादा का जो-कुछ भी बचा हुआ था, खा-पकाकर नैनीताल चले गये। सुना है, वहाँ उन्हें सरकार से पच्चीस एकड़ ज़मीन मिली है,अब जोत-बोकर खा-पका रहे है! अच्छा ही हुआ, गाँव का तो पिण्ड छोड़ा उन्होंने! ...और अब फिर ग्राम पंचायत के चुनाव का समय आया है, तो कैलास बाबू खड़े हुए हैं, ग्राम-सभापति के लिए! एजनीयर साहेब! बर-ब्यौपार का दीवाला निकल गया, जिमीदारी आप चली गयी। एजनीयरी पास करके भी गाँव के इस्कूल में अस्सी रुपल्ली पर मास्टरी करते हैं और पेट सेते हैं, वो भी इस्कूल कमिटी की मेहरबानी पर, नहीं इसपेट्टर ने कितनी बार लिखा है कि बिना टरेनिंगवाले मास्टरों को निकालो। अब वही एजनियर साहब ग्राम सभापति बनना चाहते हैं! ...क्यों, भाइयों, वह ग्राम-सभापति क्यों बनना चाहते हैं? कौन-सा लड्डू रखा है इसमें एजीनियर साहब के लिए? ...बाप रे बाप! ज़रा-सा समझा-बुझा देने पर मुनेसरा कैसा लेक्चर देता था चुनाव की मीटिंगों में! कैलास ने क्या सच ही उसकी कोई बात कहीं नहीं सुनी? यह कैसे हो सकता है कि उसने न सुनी हो? फिर कभी कुछ नहीं सोचता, कुछ नहीं समझता। साम्प्रदायिक भावनाओं को उभाडक़र अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। थू:! मुँह की खाएगा, बे, मुँह की! अब न तेरी चलेगी, न मेरी; चलेगी उनकी! अब तो वे अपना भला-बुरा समझने लगे हैं। तू उन्हें बेवकूफ़ नहीं बना सकता, कम-से-कम मेरे रहते नहीं बना सकता। ...हम तो डूबेंगे सनम, तुमकों भी ले डूबेंगे! ...

और यह जुब्ली मियाँ! इस मौक़े पर वह क्यों भींगी बिल्ली बनने का स्वाँग रच रहा है, ख़ूब अच्छी तरह मालूम है। बेटा मेरे ख़िलाफ़ दाँव लगा रहे हैं! ...कहेंगे, ग्राम-सभापति के चुनाव में जो मैंने किया, यह उसी का नतीजा है! और मुसलमानों को मेरे ख़िलाफ़ भडक़ाएँगे कि महाजनों से बैर बेसहकर मैं उनकी जड़ खोदने पर उतारू हूँ! और ख़ुद जाकर कैलास की चापलूसी करेंगे और कहेंगे कि मन्ने ही नहीं मानता, वर्ना मुसलमान तो महाजनों की रिआया बनकर भी रहने को तैयार हैं। याने ख़ुद दोनों तरफ़ से मीठे बने रहेंगे और मुझे चक्की के दो पाटों में पिसने के लिए छोड़ देंगे! ख़ूब समझता हूँ, बेटा! वैसा बुद्धू अब मैं नहीं रह गया हूँ! तुम्हारी यह रँगे सियार की चाल मैं नहीं चलने दूँगा! ...कैसे आज़ादी के पहले लीग का झण्डा कन्धे पर लहराते फिरते थे! मीटिंगों में कैसे उछल-उछलकर कांग्रेस और हिन्दुओं को गाली देते थे, पाकिस्तान ज़िन्दाबाद के नारे लगाते थे, मसजिद में पानी पीते थे! ...कैसे ‘कोमे नेजात’ मनाया था, मुसलमानों के घर-घर जाकर काले झण्डे बाँधे थे! ...बड़े दरवाज़े के नीम के पेड़ पर कैसी फुर्ती से चढक़र पुलुँगी पर हरा झण्डा बाँधा था कि देखकर लोग समझें कि लीग की कितनी ताक़त है इस गाँव में! ...और जिस दिन आज़ादी मिली, पाकिस्तान बना...गाँव में जशन मनाया गया, राधे बाबू के गले में हार पहनानेवालों में पहले आदमी भी यही थे! कैसे दाँत निपोरकर उनसे बात करते थे, जैसे अचानक ही वे बिलकुल बदल गये हों, जैसे अचानक ही आज पहचाना हो कि राधे बाबू ही उनके बाप दादा हैं, जिन्हें १९४२ में उन्होंने फ़रारी की हालत में पकड़वाया था, नूर के साथ कई मुसलमान नौजवानों को लेकर उनका घर लूटा था, खटिया, मचिया, किवाड़-चौखट, बिस्तर-चटाई तक न छोड़ी थी उनके भाई मुन्नी पर वारण्ट कटवाया था, उनके बूढ़े बाप को सता-सताकर उनसे रुपये वसूले थे और सभी महाजनों पर प्युनिटिव टैक्स लगवाये थे और क़स्बे के मुसलमानों को उनके घर पर नीलामी बोली बोलने के लिए बुलवाया था! वह तो जब मैं सख़्ती से पेश आया और धमकी दी कि कोई भी मुसलमान बोली बोला, तो ठीक नहीं होगा, तो क़स्बे के मुसलमान लौट गये और एक दूसरे महाजन के नाम की बोली बोलकर घर छुड़ा लिया। ...कैसे घूर-घूरकर नूर और यह जुब्ली मेरी ओर उस दौरान में देखते थे, जैसे धमका रहे हों, कि जब चाहें, तुम्हें भी पकड़वा सकते हैं, हो किस ख़याल में तुम? ...और फिर एक दिन चुपके से इसी जुब्ली ने गाँव के कई मुसलमानों के साथ अपने बड़े बेटे को पाकिस्तान रवाना कर दिया। वहाँ उसका पाँव जम जाय, इसका इन्तज़ार है...फिर ख़ुद भी एक-दो-तीन! तब तक जैसे हो, जूता खाकर या चाटकर यहाँ रह लो, जो बिक सके; बेंचकर नक़दी इकठ्ठा कर लो। ...गाँव का एक मुसलमान पूरबी बार्डर पर माल इधर-उधर करने का ब्यौपार करता है, उससे साट-गाँठ लगा रखी है...सब समझता हूँ, बच्चू! लेकिन तुम्हारी एक न चलने दूँगा! जाना हो तो जाओ! तुम्हें रोकता कौन है? लेकिन हमारी ज़िन्दगी दोज़ख़ करके तुम यहाँ से दफ्फ़ान होओ, यह मैं नहीं होने दूँगा! तुम्हारी एक-एक बखिया उधेडक़र रख दूँगा, मुसलमानों के सामने भी और हिन्दुओं के सामने भी! नातक़ा बन्द कर दूँगा, मियाँ! तुम हो किस फेर में? मैं अब वह मन्ने नहीं हूँ, जिसकी ज़मींदारी मूस-मूसकर तुम खाया करते थे और मैं तरह दे जाता था, यह सोचकर कि ऐसी ज़लालत तुम्हीं को मुबारक! ...नहीं, मियाँ, इस गाँव में रहकर अब मन्ने भी मोहरे लड़ाना सीख गया है और तुमसे बेहतर! कोई कोदों देकर उसने एम.ए. तक नहीं पढ़ा है! ...

एम.ए.! ...मन्ने को जैसे सहसा एक धक्का लगा! ...मन्ने! तुम एम.ए. तक पढ़े हो, तुम्हारी क्या-क्या महत्वाकांक्षाएँ थीं! कैसे-कैसे स्वप्न थे! ...अदीब...नेता...अफ़सर...पार्लियामेण्टेरियन...वकील...एक साफ़ ज़िन्दगी...एक सफल जीवन...और आज तुम्हारे जेहन में ये कैसी-कैसी बातें आ रही हैं! तुम किस पैराये में सोच रहे हो, तुम किस नज़रिए से मसलों को देख रहे हो, तुम्हारे ये कैसे मन्सूबे हैं, तुम्हारी यह कैसी नीति है, तुम्हारे ये कैसे काम हैं? तुम्हारी सारी पढ़ाई, तुम्हारी सारी क़ाबलियत आज किस काम में आ रही है? तुम आज कैलास को कोस रहे हो, जुब्ली को गाली दे रहे हो, उन्हें चित करने के मन्सूबे गाँठ रहे हो। ...तुम आज असफल इंजीनियर और पढ़-लिखकर भी बुद्धू कैलास की खिल्ली उड़ा रहे हो...तुम आज ख़ुदपरस्त, दुनियादार, धूर्त जुब्ली पर कीचड़ उछाल रहे हो। लेकिन आज ख़ुद तुम क्या हो; यह भी कभी सोचते हो? तुम कैलास से किस अर्थ में अच्छे हो? तुम जुब्ली से किस माने में बेहतर हो? तुम नूर, जयराम, हरखदेव, किसन, समरनाथ, राधे और उन-जैसे इस गाँव के सैकड़ों लोगों से किस प्रकार अलग हो? ...मन्ने! तुम क्या थे, और क्या हो गये? तुम्हारे मुँह से आज तुम्हारा कोई स्कूल, कालेज या युनिवर्सिटी का साथी ये बातें सुने, तुम्हें इस रूप में देखे, तो क्या वह कह सकेगा कि यह वही मन्ने है, जो...जो...

मन्ने हाथों से मुँह ढँककर चारपाई पर बैठ गया दिल में एक दर्द चिल्हक उठा और उसकी मुँदी आँखों के सामने जैसे अतीत नदी की तरह बहने लगा। ...ऐसे कितने ही अवसर उसके जीवन में आये हैं और सदा ऐसा ही होता है, जैसे सब-कुछ खोकर भी, सब-कुछ भूलकर भी एक दर्द कहीं रह गया है, जो नहीं जाता, नहीं जाता! ...जैसे हड्डी की दबी हुई चोट पुरवा चलने पर उभर जाती है, वह दर्द ऐसे अवसरों पर टीसने लगता है और मन्ने आह-आह कर उठता है। ...

मन्ने को इस गाँव ने पीस डाला, उसके व्यक्तित्व को दबोच दिया और उसे ऐसे जाल में फँसा दिया कि उसने जितना ही उससे छूटने के लिए हाथ-पाँव मारा, उतना ही उलझता गया, उतना ही धँसता गया और आख़िर वह दिन भी आया, जब वह ख़ुद भी उस जाल का एक हिस्सा बन गया, गाँव का एक अंश बन गया, वहाँ की मिट्टी ने उसे वैसे ही अपने में जज़्ब करना शुरू किया, जैसे वह किसी लाश को सड़ा-गलाकर अपने तत्वों में ही बदल देती है।

मन्ने क्या सचमुच लाश बनता जा रहा था? उसमें जीवन नहीं था, प्राण नहीं था, शक्ति नहीं थी, जिससे वह गाँव की धरती से रस खींचता और उससे अपने जीवन को अंकुरित करता, विकसित करता, पल्लवित और पुष्पित करता और अपने फूलों और फलों से उस धरती को पाट देता? मन्ने सोचता, तो उसके सामने ग़ुलाम हैदर, लुत्फ़ेहक़, मनबसिया, मुंशी रामजियावन लाल, नरायन भगत, उसके दादा, उसके अब्बा और कैलसिया आ खड़े होते, जो इसी धरती से जन्मे थे; इसी गाँव में पल-पुसकर बड़े हुए थे; जिन्होंने किसी स्कूल का मुँह न देखा था; साहित्य, राजनीति, पालिसी और डिप्लोमेसी का नाम न सुना था; जो गँवार थे, सीधे थे, अज्ञानी थे, गाँव के बाहर की दुनियाँ से अपरिचित थे; फिर भी अमर हो गये, गाँव में मिटने के बजाय गाँव को बना गये, इस मिट्टी में सड़ने-गलने के बजाय इस मिट्टी का सिंगार बन गये, गाँवदारी के जाल में फँसने के बजाय गाँव के जाल काट गये, गाँव को आज़ाद करा गये, गाँव का शानदार इतिहास लिख गये, अपने व्यक्तित्व का निशान छोड़ गये! क्यों? क्यों? क्यों? इसलिए कि उनमें जीवन था, प्राण था, शक्ति थी। धारा उन्हें बहा नहीं सकती थी, बल्कि वे बीच धारा में खड़े होकर उसके रुख़ को बदल देते थे। मिट्टी उन्हें सड़ा न सकती थी, बल्कि मिट्टी का जीवन-रस वे खींचते थे। गाँवदारी का जाल उन्हें फँसा न सकता था, क्योंकि सच्चे नेतृत्व की योग्यता उनमें थी, वे गाँव के पीछे नहीं, गाँव के आगे-आगे चलते थे। धरती उन्हें ग़ुलाम न बना सकती थी, बल्कि धरती पर वे राज करते थे!

और मन्ने? मन्ने में क्या कुछ भी नहीं था? क्या वह धारा में तिनके की तरह बह गया? क्या उसने अपने को एक लाश की तरह ही मिट्टी के हवाले कर दिया? नहीं-नहीं, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? मन्ने में कुछ था ज़रूर, मन्ने योंही नहीं बह गया, मन्ने योंही नहीं सड़ गया, बिना लड़े उसने एक इंच भी ज़मीन नहीं छोड़ी है, वह पूरी ताक़त से लड़ा है, अकेले लड़ा है और आज भी लड़ रहा है...लेकिन एक कीड़ा आज भी उसके शरीर में है, जो बराबर उसकी रगों में रेंगा करता है, जो बार-बार उसे कोंच-कोंचकर कहता रहता है, तू क्यों अपने को इस जाल में फँसाकर अपने हाथ-पाँव तोड़वा रहा है, तू क्यों यहाँ अपनी ज़िन्दगी सड़ा रहा है, अपना वक़्त ख़राब कर रहा है, अपनी योग्यता का दुरुपयोग कर रहा है, अपना भविष्य बिगाड़ रहा? यह कीड़ा ही है, जो गाँव को पूर्ण रूप से उसका जीवन-क्षेत्र नहीं बनने देता। और मन्ने है कि वह गाँव छोड़ नहीं पाता। यह द्वन्द्व ही कदाचित् उसे धीरे-धीरे खाये जा रहा है, कमजोर किये जा रहा है। ...ग़ुलाम हैदर या नरायन भगत या उसके दादा में यह द्वन्द्व कहाँ था! ...मन्ने का संघर्ष उनसे कहीं गहरा है। मन्ने की परिस्थितियाँ उनसे कहीं विकट हैं। आज गाँव में बारह ग्रेजुएट हैं, पच्चीसों इण्टरमीडिएट और हाईस्कूल पास हैं। आज राजनीति, पालिसी, डिप्लोमेसी, वर्ग-संघर्ष जैसे शब्द गाँव के अनाड़ी भी बोलते ही नहीं, जीवन में उनका उपयोग करते हैं। आज गाँव आज़ादी के बाद का हिन्दुस्तान बना हुआ है, जहाँ गाँधी और दादा को बड़ा माना जा सकता है, उनकी पूजा की जा सकती है, उनके महान् ऐतिहासिक कार्यों की प्रशंसा की जा सकती है, उनसे प्रेरणा ली जा सकती है, लेकिन उनकी तरह काम नहीं किया जा सकता, उनकी तरह सफलता और अमरता प्राप्त करना कठिन है। अब लोग वे न रहे, परिस्थितियाँ वे नहीं रहीं। मन्ने यह समझता है। मन्ने अपने जीवन और कार्यों की आत्मपरक व्याख्या करने की सामथ्र्य रखता है। वह आज भी शर्मिन्दा नहीं है, वह आज भी हारा नहीं है, टूटा नहीं है, वह अब भी लड़ रहा है और जीवन के अन्तिम क्षण तक लड़ने की तमन्ना रखता है। वह आज भी उसी गर्व के साथ कभी होंठों में, कभी धीरे-धीरे, कभी जोर-जोर से और कभी चिल्लाकर यह शेर पढ़ता है :

यह सर जो सलामत है दीवार को देखूँगा

या मैं रहूँ ज़िन्दाँ में या वो रहे ज़िन्दाँ में

और मन्ने की पस्ती ख़त्म हो जाती है, कुण्ठा टूट जाती है, निराशा समाप्त हो जाती है और वह उसी जोश से फिर मैदान में आ जाता है। उसे कोई अफ़सोस नहीं रहता कि उसका कोई पुराना साथी अब उसे नहीं पहचानेगा, क्योंकि उसकी बातें बदल गयी हैं, उसका रवय्या बदल गया है, मसलों को देखने के उसके नज़रिए बदल गये हैं, वह नैतिकता और आदर्श से गिर गया है, उसके कोई सिद्धान्त नहीं रहे। वह क्या करे, लकड़बग्घे किसी पर हमला करें, तो क्या वह नैतिकता, आदर्श और सिद्धान्तों को शहद लगाकर चाटे? फिर भी यह कौन कह सकता है कि जीवन-संघर्ष से कभी कतराया है, वह न्याय और सत्य के लिए लड़ा नहीं है? कौन कहता है कि उसमें और जुब्ली कैलास जैसे लोगों में कोई अन्तर नहीं? उसका उन लकड़बग्घों से क्या मुक़ाबिला है? वह उनकी तरह कमीना, ख़ुदपरस्त, धूर्त, फ़िर्कापरस्त, तंगदिल, वक़्तपरस्त और ग़द्दार नहीं है। उसका जीवन इसका गवाह है...लेकिन, काश, उसकी रगों में वह कीड़ा न रेंगता, वह सम्पूर्ण रूप से इस गाँव का हो जाता, या काश, वह यह गाँव ही छोड़ देता! ...लेकिन वह इन दोनों में से एक भी काम कर नहीं पाता, और न, इतने दिन रहने के बाद भी; एक तरह से इस जीवन का अभ्यस्त हो जाने पर भी, यह स्वीकार करने के लिए वह तैयार है कि वह मजबूरी से गाँव में नहीं रह रहा।

उसका सब सोचा हुआ एक ओर धरा रखा है और वह एक दूसरी ही तरह का जीवन जीने को विवश है। इस विवशता का आरम्भ कहाँ हुआ था, पहली बार उसने कब अपनी ज़मीन छोड़ी थी? बहुत सोचने पर भी वह उस स्थान, उस समय का पता नहीं लगा पाता। एक ही साथ कितनी घटनाएँ घट गयीं, उनमें से कौन पहली थी और कौन अन्तिम, किसका प्रभाव उसके जीवन पर कितना पड़ा, क्या कहा जा सकता है? कदाचित् सभी घटनाओं ने मिलकर ही उसके जीवन के साथ षड्यन्त्र किया और उसे फाँस लिया और वह विवश हो गया। ...

बाबू साहब और उसके बीच में जो दीवार खिंची थी, उसे जमुनवा ने साधू होकर पक्का कर दिया। बाबू साहब ने जब सुना, तो उन्हें पहली बार यह अनुभव हुआ कि उनसे एक बहुत बड़ी ग़लती हो गयी। सब धान बाईस पसेरी ही नहीं बिकता। जमुनवा पानीदार आदमी था, उसके लिए एक बात ही काफ़ी थी। उन्होंने उसका पानी उतारकर जो अपने माथे पर कलंक का टीका लगाया, वह कभी मिटनेवाला नहीं। ऊपर से इस काण्ड का प्रभाव जो मन्ने पर पड़ा, उससे भी वे अनभिज्ञ न थे। माया मिली न राम वाली स्थिति में पडक़र जैसे उन्हें इस सबसे विराग-सा हो गया। उनके मन में यह बात उठी कि आख़िर किसलिए यह-सब पाप वे अपने सिर पर लें? गुनाह बेलज़्ज़त से फ़ायदा?

मुंशीजी एक हफ्ते में खेतों की पड़ताल कराके चले गये, तो एक दिन बाबू साहब ने मन्ने से कहा-बाबू, गर्मी की छुट्टियों में आप यहाँ रहते ही हैं, यही समय वसूली-तहसीली का होता है, आप कर लिया कीजिए। आपसे जो बचा-खुचा रहेगा, हम बाद में वसूल कर लेंगे। घर का जो थोड़ा-बहुत काम रहता है, उसे तो मैं देखता ही हूँ।

मन्ने का माथा ठनक गया। उसने शंकित होकर उनकी ओर देखा, तो वे बोले-बात यह है, बाबू, कि अब मेरे खाने-पीने पर घरवालों की नज़र पड़ने लगी है। शायद वे यह समझने लगे हैं कि मैं बिलल्ला हो गया, काम किसी का करता हूँ और खाता उनकी कमाई हूँ। सो, अब वे मुझे घर के खूँटें से बाँधना चाहते हैं। सुना है, मेरी शादी...-और बाबू साहब शर्मिन्दा-से होकर चुप लगा गये।

शंकित मन्ने ने अब चकित होकर उनकी ओर देखा। बाबू साहब चालीस पार कर गये हैं, ये बड़ी-बड़ी मूँछे हैं! इस उम्र में शादी करेंगे? फिर भी उसने प्रसन्नता का भाव चेहरे पर लाकर कहा-यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है, बाबू साहब! आप ज़रूर शादी कीजिए! देर आयद दुरुस्त आयद! घर तो आपको बसाना ही चाहिए!

बाबू साहब आँखे झुकाये हुए, मन्द-मन्द मुस्कराते हुए बोले-यह उमर है घर बसाने की, बाबू? ...लेकिन उन लोगों को क्या कहूँ, बाबू, आपको ग़ैर समझते हैं। उन्हें क्या मालूम कि आपसे मुझे कितनी मुहब्बत है! आपको एक बेटे की तरह हमने जाना-माना है, एक बेटे को लेकर जितनी साधें एक बाप को होती हैं, आपको लेकर मुझे रही हैं, उन्हें क्या मालूम, बाबू? लेकिन अब देखता हूँ कि एक भी पूरी न होगी। लोगों से देखा नहीं जाता। तरह-तरह की बातें उड़ाते हैं। ...जाने दीजिए, दुनियाँ में किसकी साधें पूरी हुई हैं, जो मेरी होंगी। भगवान आपको सुखी रखें, अब तो यही एक साध रह गयी है!

-ऐसी बातें मुँह से न निकालिए, बाबू साहब!-मन्ने भी जैसे आद्र्र होकर बोला-मैंने भी आपको अब्बा की ही तरह जाना-माना है, आपको लेकर मैंने भी अपने मन में कुछ साधें पाल रखी हैं! अभी मैं क्या बताऊँ, कहा जाता है कि सोचा हुआ कभी होता नहीं। लेकिन मैं निराश नहीं हुआ हूँ, मैं कभी निराश नहीं होता, बाबू साहब! आप दो-चार साल तक मेरी मदद और कीजिए। मेरी पढ़ाई पूरी हो जाय, फिर तो मैं सब देख लूँगा।

-उसकी आप फ़िक्र मत कीजिए, बाबू! लोगों के कहने से कहीं किसी का मन बदलता है। आपकी पढ़ाई नहीं रुकने दूँगा, बाबू! ...

पहले की तरह दिलचस्पी न रहते हुए भी बाबू साहब ने अपनी बात पूरी की। सच बात तो यह है कि बाबू साहब खेती-गृहस्थी का काम करने लायक़ रह ही नहीं गये थे, उनका शरीर और स्वभाव बदल गया था, शरीर से कोई मोटा और मेहनत का काम न हो सकता था, स्वभाव महीन हो गया था। मियाँ की दोस्ती और मन्ने के काम ने उनके दिमाग़ में हुकूमत की बू भर दी थी। घरवालों ने सोचा था कि वे भी उन्हीं की तरह हल चलाएँगे, खेत काटेंगे, ढेकुल खीचेंगे, लेकिन बाबू साहब से यह-सब पार लगने वाला नहीं था। महीन धोती और कुर्ता पहनने से मन भी महीन हो जाता है। शादी होने के बाद, ज़िम्मेदारी लदने के बाद भी जब उनके घरवालों ने देख लिया कि बाबू साहब धोबी के कुत्ते की तरह न घर के रहे न घाट के, तो वे और भी चिढ़ गये। कभी खेत पर वे बीया डलवाने भी जाते और उनकी धोती पर कहीं मिट्टी लग जाती, तो उन्हें अँगुली से मिट्टी झाड़ते देखकर उनकी आँखों में ख़ून उतर आता, जैसे कि बाबू साहब ने उस तरह मिट्टी न झाड़ी हो, उनके मुँह पर थूक दिया हो! यह कमबख़्त जब मिट्टी से ही इतनी नफ़रत करता है, तो धरती की सेवा क्या करेगा? और उन लोगों ने जैसे बाबू साहब की ओर से सब्र कर लिया। लेकिन बाबू साहब जानते थे कि इस सब्र का आख़िरी नजीता क्या होगा, इसलिए उन्होंने अब पैसा पैदा करने की कोई सबील बैठानी ज़रूरी समझी। ...और जुब्ली ने जब एक दिन उनसे कहा कि, बाबू साहब, आप मन्ने का काम सम्हालते ही हैं, मेरा भी सम्हाल लें, तो मैं इधर से आज़ाद होकर खेती-बारी में और ध्यान लगाऊँ, बिना इसके अब ग़ुज़ारा नहीं होगा, बड़े भैया तो गोरखपुर के ही होकर रह गये, कोई ख़बर ही नहीं लेते, छोटे भाई को अब कहीं नौकरी पर भेजना चाहता हूँ, तो बाबू साहब तुरन्त तैयार हो गये। तै यह हुआ कि जो भी वे वसूल कर लेंगे, उसका दस फ़ीसदी मेहनताने के तौर पर उन्हें मिलेगा। जुब्ली मियाँ की वसूली दो हज़ार से ज़्यादा की न थी, फिर भी आमदनी का एक ज़रीया तो निकला और उसके बाद तो देखा-देखी और कुछ छोटे-मोटे मुसलमान ज़मींदारों ने भी, जो जुब्ली मियाँ के भाई या ऐनुलहक़ के लडक़ों से खेत या ज़मींदारी ख़रीदकर ज़मींदार बन गये थे और अब पुलिस में या और कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर रहे थे, बाबू साहब को अपनी वसूली का काम सौंप दिया। इस तरह बाबू साहब का कारोबार चल गया, घरवालों का मुँह पोंछने के लिए कुछ आमदनी भी वह करने लगे, इससे उनके घरवालों को कुछ दिलासा हुआ, चलो, कुछ तो कर रहे हैं।

इसी बीच एक बात और भी हुई, जिससे बाबू साहब का पाया मजबूत हो गया। उनके गाँव का एक बरई भागकर पूरब चला गया था। वह आसाम में जाने कैसे ग़ल्ले का कारोबार जमाकर, बहुत रुपया कमाकर गाँव घूमने आया, तो गाँव में एक शोर मच गया। बहुत-से लोग उसकी ओर लपके, लेकिन गाँव में उसे एक ही आदमी ऐसा दिखाई दिया, जो उसके मिलने-जुलने लायक़ हो, वह थे बाबू साहब। रात-दिन वह बाबू साहब के साथ लगा रहता, उनके घर पर उठता-बैठता, उनके ‘इलाक़े’ पर उनके साथ जाता। उसकी एक जेब में कैप्स्टन सिगरेट का टिन पड़ा रहता और दूसरी में चाँदी के डिब्बे में पान की गिलौरियाँ। जिससे भी भेंट होती, वह चट सिगरेट-पान निकालकर पेश करता। बाबू साहब कहते-पी लो, पी लो, भाई, यह केप्टन सिगरेट है, यहाँ किसी को मयस्सर नहीं!-और पीनेवाला ख़ुशामद और ख़ुशी की नज़र से कभी बरई और कभी बाबू साहब की ओर देखकर सिगरेट की ऐसी टान लगाता, जैसे गाँजा का दम लगा रहा। और कोई स्वाद न मिलने पर भी कह उठता-बाह, बाबू सिरीनरायन, बाह! चलो तुम्हारे करते यह भी पी लिया, गीध का जनम छूट गया!

और सिरीनरायन बरई ‘सिरीनरायन बाबू’ होकर ‘केप्टनवाला बाबू’ बन गया। कहीं भी किसी की नज़र उस पर पड़ जाती, तो दूर से ही पुकारता-ओ केप्टन वाले बाबू! एक सफ़ेदवाली बीड़ी हमें भी चिखाना!

और सिरीनरायन सचमुच सिगरेट निकालकर उसे ऐसे देता, जैसे बीड़ी ही दे रहा हो।

अँगुलियों के गाँसे में सिगरेट, मुठ्ठी बन्द कर, चिलम की तरह मुठ्ठी का मुँह अपने मुँह से लगाकर वह कहता-अब, बाबू, जरा इसे माचिस भी दिखा दो।

सिरीनरायन माचिस जलाकर सिगरेट पर दिखाता और वह पहला ही दम इस तरह लगाता कि आधी सिगरेट भुक से ख़त्म।

-बाह-बाह!-धुएँ की लम्बी सुरसुरी छोड़ता हुआ वह बोलता-का खसबूदार धुआँ है, बाबू! आप यही बीड़ी हमेसे पीते हो, बाबू?

-हाँ,-जैसे बोलकर अहसान कर रहा हो, इस तरह सिरीनरायन बोलता।

-दिन-रात मिलाकर भला कितना पी जाते होंगे?

-यह टीन खरच हो जाता है।

-इसमें कितना होता है, बाबू?

-पचास।

-पचास? पचास पी जाते हो?

-पीते नहीं, पिला देते हैं। हम तो पान खाते हैं।

-पिला देते हैं? बाह! भला यह टीन मिलता है कितने में, बाबू?

-मिलता है तिनेक रुपये में।

-तो तीन रुपये का धुआँ तुम पिला देते हो, बाबू?-पपनियाँ टाँगकर वह बोलता-बाह, बाबू, बाह! आदमी हो, तो तुम्हारे जैसा!

और सिरीनरायन हँसता हुआ आगे बढ़ जाता है। ...

बाबू साहब कहते-सिरी बाबू, काहे को बन्दरों को अदरख चखा रहे हो? ये खैनी खानेवाले और तमाकू पीनेवाले क्या जानें सिगरेट की इज़्ज़त? उस पर भी केप्टन! इस तरह पैसा बरबाद न करो, भाई! तुम तो पीते नहीं।

हँसकर सिरी कहता-कुछ बरबाद नहीं होता, बाबू साहब! पैसे की कोई कमी है? आप देखते नहीं कि इसी सिगरेट की बदौलत सिरिया बरई को लोग सिरीनरायन बाबू कहते हैं! वर्ना कौन पूछता हमको! दस-पाँच दिन के लिए गाँव आये हैं, पचीस-पचास फूँकर चले जाएँगे, लोग किसी बहाने याद तो करेंगे! जिनगी में और का है, बाबू साहब!

-सो तो तुम ठीक ही कहते हो, सिरी बाबू, लेकिन जानते हो, पीठ पीछे ये लोग क्या कहते हैं?

-क्या कहते हैं?

-जाने दो, सुनने-लायक़ नहीं। यहाँ के लोग एक ही हरामखोर हैं।

-फिर भी?

-कहते हैं, बरई के लौंडे के पास दो पैसा हो गया है, तो फुटानी छाँटता फिरता है। केप्टन टानता है, केप्टन!

-कहने दीजिए, बाबू साहब। पीठ-पीछे तो लोग राजा को भी गाली देते हैं। मेरे सामने तो यहाँ के बड़े-बड़े लोग भी पूँछ हिलाते हैं, और सिगरेट की भीख माँगते हैं। बड़ा सन्तोख होता है, बाबू साहब, वह देखकर। रात को बड़ी अच्छी नींद आती है। एक दुख है, तो इसी बात का कि आपकी हम कुछ सेवा नहीं कर पाते। न आप हमारी सिगरेट ही पीते हैं और न...

-नहीं-नहीं, सिरी बाबू, तुम इसका दुख मत मनाओ। सच कहते हैं, तुम्हारी सिगरेट हमें बिलकुल नहीं जमती। ज़िन्दगी-भर बीड़ी पीते आये, आदत पड़ गयी है। मुन्नी बाबू या मन्ने बाबू बहुत इसरार करके कभी-कभी सिगरेट पिलाते हैं, लेकिन हमें कुछ मज़ा ही नहीं मिलता। हमें तो बस बीड़ी में ही मज़ा आता है। न हो, तुम हमारे लिए बीड़ी रखा करो, लेकिन दुख मत मनाओ। तुम बहुत अच्छे हो, सिरी बाबू, बहुत सीधे और बहुत भोले! तुम्हारी बात को टालना आसान नहीं। लेकिन गाँववालों से बचना, ये तरी देखकर वैसे ही झुकते हैं, जैसे गुड़ के ढेले पर मक्खी। और मतलब निकल जाने के बाद वैसे ही खिसक जाते हैं, जैसे पुरइन के पात से पानी की बूँदें!

-यह हम जानते हैं, बाबू साहब,-सिरी कहता-लोगों ने हमारा घर खोन खाया है। किसी को बीये के लिए रुपया चाहिए, तो किसी को बैल के लिए; किसी को लडक़ी की शादी के लिए रुपया चाहिए, तो किसी को घर की मरम्मत के लिए; किसी को दवा के लिए रुपया चाहिए, तो किसी को खाने के खरचे के लिए! ...किसकी-किसकी बतायें आपको! सब अपना दुखड़ा रोते हैं और हमारा पाँव तक पकड़ लेते हैं। छतरी-बाम्हन होकर बरई का पाँव पकड़ते हैं, बाबू साहब! मन खराब हो जाता है। बाबू साहब, आप काटने के लिए तैयार हों, तो, जी में आता है, यहाँ हज़ार-पाँच सौ बो दें। हमें तो रहना नहीं!

बाबू साहब सुनकर हँसते। फिर सहसा ही उदास होकर कहते-नहीं, सिरी बाबू, रुपये की फ़सल मैं नहीं काट सकता! रुपये की क़दर जिस दिन करने लगूँगा, आदमी की क़दर मेरी नज़र में नहीं रह जायगी। इसी रुपये की बदौलत एक बार मैं पागल हो गया था, उसकी निसानी जमुना दास है। फिर सियार तरकुल के नीचे नहीं जायगा। मियाँ ने भी एक बार तुम्हारी ही तरह कहा था, बाबू साहब, हम आपके लिए कुछ करना चाहते हैं। जानते हो, मैंने उनको क्या जवाब दिया था? मैंने कहा था, मियाँ आपकी दोस्ती से बढक़र कोई क़ीमती चीज़ मेरे लिए नहीं! आप और कुछ करके इसकी क़ीमत न घटाइए!

सुनकर सिरी चुप हो जाता, उदास भी।

बाबू साहब कहते-सिरी बाबू, तुम उदास क्यों हो गये?

-अब का बताएँ, बाबू साहब?-सिर झुकाकर सिरी कहता-हम भी आपके लिए कुछ करना चाहते थे, बाबू साहब। हम देख रहे हैं कि आपको यहाँ बड़ी तकलीफ है। आपको निजी खरचे के लिए अपने भाइयों का मुँह देखना पड़ता है। हमारे पास बहुत रुपया है, बाबू साहब। अगर आपके लिए कुछ न किया, तो मलाल ही रह जायगा! आप-जैसे आदमी को हमारे रहते तकलीफ नहीं होनी चाहिए। न हो, आप हमारे साथ आसाम चलिए, वहाँ आराम से रहिए!

-तुम्हारी बड़ी मेहरबानी है, सिरी। लेकिन मुझे कोई तकलीफ़ नहीं। और अब तो कुछ रुपया भी पैदा कर लेता हूँ। तुम कोई मलाल मत करो। दोस्ती के बीच में रुपये-पैसे को मत डालो।

-जो भी हो, आप इतना समझ लें कि हमारे सामने भी रुपये की कोई कदर नहीं है। जो भी हमारे पास है, उसे अपना ही समझिए और जब भी कोई जरूरत पड़े, हमें याद कीजिए। मौके पर भी आपने हमें याद न किया, तब तो सचमुच हमें बहुत तकलीफ होगी।

बाबू साहब हँसकर चुप लगा जाते।

और फिर जाने सिरी ने लोगों से क्या कहना शुरू किया कि अब लोग बाबू साहब का घर खोन खाने लगे...बाबू साहब, सिरी बाबू से जरा सिफारिश कर दें! ...आपका एहसान न भूलेंगे! ...रुपये का बन्दोबस्त न हुआ, तो बीया कहाँ से खरीदेंगे, खेत परती रह जायगा, बाबू साहब! ...बाबू साहब, गुड़ बेंचकर हम रुपया लाकर आपके ही हाथ में रख देंगे! ...बाबू साहब, ज़रा सिरी बाबू से कह देते, हमारे लडक़े को अपने साथ लेते जाते। यहाँ बिलल्ला हुआ जा रहा है! ...

नाकों दम कर दिया लोगों ने। बाबू साहब लाख कहते कि, भाई, हमारे हाथ में कुछ नहीं। सिरी मुझसे पूछकर या मेरी बात मानकर कोई काम करनेवाला नहीं। लेकिन कोई काहे को मानने लगा। लोग उनके पीछे ही पड़ गये, जैसे किसी वरदान देनेवाले मशहूर साधू-सन्यासी के पीछे पड़ जाते हैं।

आख़िर एक दिन परेशान होकर बाबू साहब ने कहा-सिरी बाबू, यह रोग तुमने मेरे पीछे क्यों लगा दिया है! क्यों मुझे सबसे रुसवा कराना चाहते हो?

सिरी बोला-हम क्या करें? हमने तो लोगों से यही कहा है कि बाबू साहब का ही सब कुछ है, वही जो चाहें करें।

-यह तुमने क्या किया, सिरी बाबू? बाबू साहब एक उलझन में पडक़र बोले-तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ, सिरी! यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता! ...

सिरी सचमुच ही दूसरे दिन चला गया। बाबू साहब उसे क़स्बे में मोटर के अड्डे तक पहुँचा आये। लेकिन उसके जाने से क्या होना था। लोगों को यह पक्का विश्वास था कि सिरी उनके पास काफ़ी धन रख गया है और गाँव में और घर के लोगों में उनकी प्रतिष्ठा अनायास ही बढ़ गयी।

जो भी मिलता, कहता-ख़ूब जादू की छड़ी फेरी, बाबू साहब, आपने सिरी पर! लेकिन अकेले-अकेले हजम नहीं होगा, बाबू साहब! बाँट-चूटकर खाइए, बाँट चूटकर।

बाबू साहब क्या कहते, मुस्कराकर रह जाते।

घर में उनका आदर बढ़ गया। उनके खाने-पीने की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। लेकिन कोई कहता नहीं। सब सोचते, घर में रुपया है, तो जायगा कहाँ, बख़त पर निकलेगा ही।

मन्ने का अब थोड़ा ही काम बाबू साहब के ज़िम्मे रह गया था। गर्मी की छुट्टियों में मन्ने ख़ुद वसूली-तहसीली करता और बर-बन्दोबस्त कर साल-भर के ख़र्चे के लिए रुपया लेकर युनिवर्सिटी चला जाता। वहाँ रुपया वह डाकखाने में जमा कर देता और महीने-महीने ज़रूरत-भर का निकाल लेता। उसने अब अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह समझ ली थी और उसे ख़ुशी से ओढ़ भी लिया था। अब वह हास्टल में नहीं रहता, दो-चार, लडक़ों के साथ डेरा लेकर रहता और मामूली होटल में खाना खाता रहता। बराबर दो-दो तीन-तीन ट्यूशनें करता और दौड़-धूपकर अपनी फ़ीस भी माफ़ करा लेता। बहुत सोच-समझकर, हाथ दबाकर ख़र्च करता, सिनेमा वग़ैरा से परहेज़ करता और एक पैसा भी बेकार ख़र्च न करता। उसके साथी उसे ‘सूफी’ कहकर चिढ़ाते, तो वह मुस्कराकर रह जाता। उसे अपनी छोटी बहन की शादी की फ़िक्र थी, जो एक-दो साल से ज़्यादा न टाली जा सकती थी।

युनिवर्सिटी में उसे एक दूसरी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था। कालेज में हिन्दी-उर्दू में झगड़ा था और यहाँ उर्दू-उर्दू में ही उसे झगड़ा दिखाई दिया। उर्दू-विभाग के अध्यक्ष और अधिकतर प्रोफ़ेसर शिया थे और यह बात मशहूर थी कि हर हालत में शिया लडक़ों को ही अधिक नम्बर मिलता है, शिया-उर्दू के आगे सुन्नी-उर्दू हर्गिज़-हर्गिज़ आगे नहीं बढ़ सकती। एक तो करैला, दूसरे नीम चढ़ा, उस साल उर्दू-विभाग के अध्यक्ष का साला अहमद हुसेन भी क्लास में था। उर्दू में सुन्नी मन्ने की क़िस्मत पहले ही से बुक हो चुकी थी। मन्ने को यह-सब मालूम हुआ, तो उसे बहुत दुख हुआ। पहले से मालूम होता, तो शायद वह इस युनिवर्सिटी में दाख़िल ही न होता या उर्दू ही न लेता। अंग्रेजी उसकी बहुत अच्छी न थी, एक इतिहास में अच्छा नम्बर पाकर वह क्या कर लेता? उर्दू से ही तो उसका डिवीज़न बननेवाला था, लेकिन अब हो ही क्या सकता था।

युनिवर्सिटी और ट्यूशनों के बाद उसके पास बहुत कम समय बच रहता। शाम को एक घण्टा लायबे्ररी में बैठकर पत्रिकाओं और अख़बारों को पढऩा तो उसकी आदत ही बन गयी थी, उसे वह छोड़ न सकता था। शेष समय का उपयोग वह पाठ्य पुस्तकों के अध्ययन में करता। इस तरह युनिवर्सिटी के दूसरे कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए उसके पास समय ही न रह गया था। युनिवर्सिटी के अपने घण्टे समाप्त होते ही वह बकटुट डेरे की ओर भागता।

फिर भी कुछ ऐसी बात थी कि दर्जे का कोई भी साथी, जो उससे बात करता, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। साहित्य और राजनीति की उसकी समझ इतनी गहरी थी कि सबको उसका लोहा मानना पड़ा। प्रोफ़ेसर भी उसकी इज़्ज़त करते। फिर भी वह युनिवर्सिटी के किसी भी अदारे की किसी भी जगह के लिए, साथियों के बहुत इसरार के बावजूद, चुनाव लड़ने के लिए तैयार न हुआ। इसके लिए न तो उसके पास पैसा था और न समय। अपनी ज़िन्दगी में वह किसी भी तरह की ढील न आने देना चाहता था। पूरी सख़्ती से अपने दिल-दिमाग़ पर काबू रख़ वह पढ़ाई पूरी कर लेना चाहता था। अपनी स्थिति की उसे पूरी जानकारी थी और उसके मन में सही तौर पर ही यह सन्देह आ बैठा था कि शायद वह अपनी पढ़ाई पूरी न कर सके। इसलिए अपनी ओर से वह एक भी चूक न करना चाहता था और सदा सावधान रहता था।

लेकिन उसके जीवन में परिस्थितियों का विधान जैसे पहले ही से हो चुका था। उसके लाख सावधान रहने के बावजूद भाग्य-लेख की तरह ऐसी परिस्थितियाँ आती रहतीं, जिन्हें बदलना या अपने अनुकूल करना उसके बस की बात नहीं थी। वह चाहे जितना हाथ-पाँव पटकता, इन परिस्थितियों से निस्तार नहीं पाता, वह कुछ इस तरह घिर जाता कि लाचार उसे फँसना ही पड़ता, और जब फँसना ही पड़ता, तो वह दिल कड़ा करके एक ज़िद्दी की तरह आँख मूँदकर अपने को उस परिस्थिति में झोंक देता, ताकि यह बला टले, और वह आगे की राह बनाये। उसे तब क्या मालूम था कि आगे की राह पीछे का जीवन ही बनाता है; जीवन की राह वह राह नहीं, जिसे जब चाहो, जिस मोड़ से बदल लो और नयी राह पर उसे डाल दो।

मन्ने आज सब समझता है, फिर भी उसे यह नहीं लगता कि परिस्थितियों का वह दास रहा है। आज भी उसके मन में कहीं यह बात बैठी हुई है कि अन्तिम लड़ाई में वह ज़रूर जीतेगा, एक-एक ईंट चुनकर जो दीवार उसके सामने खड़ी हुई है, उसे वह एक दिन अवश्य तोड़ गिरायेगा और दुनिया को दिखा देगा कि एक-एक क़दम जो वह पीछे हटा था, वह उसकी दुर्बलता या पराजय का द्योतक नहीं था, बल्कि ऐसा करके वह शक्ति संंचय कर रहा था, ताकि अन्तिम लड़ाई में वह विजयी हो सके।

उसने सोचा था कि पढ़ाई पूरी होने तक बाबू साहब उसकी ज़मीन-जायदाद का काम सम्हाल देंगे और निश्चिन्त होकर वह अपनी पढ़ाई पूरी कर लेगा। लेकिन जब जमुना का काण्ड हो गया और बाबू साहब ने उसके काम से हाथ खींचने का संकेत किया, तो चाहे वह परेशान जितना हुआ हो, उसने एक बार भी बाबू साहब से यह नहीं कहा कि उसे वे इस तरह मँझधार में क्यों छोड़ रहे हैं। उसने जब समझ लिया कि अब कोई चारा नहीं, तो सारा काम स्वयं अपने हाथ में ले लिया और पूरे मनोयोग से उसे सम्हालने भी लगा। ...और लोगों ने चकित होकर देखा कि भले इस काम के लिए वह नया हो, वह काम करना जानता है। असामी उससे मिलते ही यह समझ गये कि वह कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेले है, आख़िर ज़मींदार का बेटा है। उसने झूठी शान को ताक पर रखकर हर असामी को अपने पास बुलाया और उसके साथ सम्मान-पूर्वक बातचीत की और स्पष्ट शब्दों में उससे कहा कि वह अभी लडक़ा है, उसे इस काम की कोई समझ नहीं, इसलिए कोई उसे लगान-वसूली के मामले में तंग न करे; जब करे, पक्का वादा करे, पाँच दिन में इन्तज़ाम होनेवाला हो, तो उससे दस दिन का वादा करे, लेकिन झूठा वादा न करे, वादे से टले नहीं और बार-बार तक़ाज़ा का मौक़ा न दे। ...सब लोग यही समझें कि वे लगान नहीं दे रहे हैं, बल्कि उसकी पढ़ाई में मदद कर रहे हैं। ...उन्हें जो भी तकलीफ़ हो, उससे साफ़-साफ़ कहें, वह दूर करने की हर कोशिश करेगा, उनकी हर तरह मदद करेगा, और उनके दुख-सुख में बराबर शामिल रहेगा।

जो भी असामी उसके पास से जाता, ख़ुश होकर जाता और चार आदमियों से उसकी तारीफें करता।

लाला से जो उसकी पुश्तैनी दुश्मनी चली आ रही थी, उसे भी उसने दूर करने की कोशिश की। वह एक दिन सीधे उनकी कोठी में जा पहुँचा। लाला ने देखा, तो उन्हें पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा हो सकता है। लेकिन मन्ने ने जब उन्हें बड़े अदब के साथ सलाम किया, तो आप ही उनके मुँह से सलाम निकल गया और बड़े सम्मानपूर्वक उन्होंने उसे चारपाई पर बैठाया और कहा-आप कुछ जलपान करेंगे?

-नहीं, इस वक़्त माफ़ कीजिए!-मन्ने ने नम्रतापूर्वक कहा-नाश्ता करके ही चला हूँ। आप भी बैठ जाइए। मैं एक ज़रूरी काम से आया हूँ।

-ठीक है, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि आप हमारे यहाँ आयें और सूखे मुँह चले जायँ। कम-से-कम पान से तो आपको कोई गुरेज न होगा?

-यह आप क्या कहते हैं? मैं तो आपके यहाँ खाना भी खा सकता हूँ?-मन्ने ने हँसकर कहा।

-तो ज़रूर खाइए!-लाला ने हाथों को उलझाते हुए कहा-इससे बढक़र इज़्ज़त की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?

-बहुत अच्छा, एक दिन आपके यहाँ ज़रूर खाऊँगा। फ़िलहाल आप पान ही मँगवा दें। लेकिन आप बैठ तो जायँ।

लाला खड़े-ही-खड़े एक लडक़े को तुरन्त पान लाने के लिए आवाज़ देकर पैताने बैठने लगे, तो खड़े होकर, उनका हाथ पकड़ते हुए मन्ने ने कहा-यह आप क्या कर रहे हैं? मुझे आप दोज़ख़ में न डालिए!-और ज़बरदस्ती उन्हें सिरहाने बैठाकर वह ख़ुद पैताने बैठ गया और बोला-मैं आपका वक़्त जाया न करके सीधे ही बात शुरू करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आप मेरी बात का बुरा न मानेंगे! और अगर मुझसे कोई ग़लती हो जाय, तो मुझे भी कैलास ही समझकर माफ़ कर देंगे!

-यह आप क्या कहते हैं? आप-जैसे दानिशमन्द आदमी से कोई गलती होगी, इसकी उम्मीद मुझे नहीं। आप बेखौफ़ अपनी बात कहिए।

-मैं कहना यह चाहता था कि अब्बा गये, उनके साथ उनकी बातें गयीं। अब मैं चाहता हूँ कि हमारा-आपका जो लेना-देना हो, हम ले-दे लें। ख़ामख़ाह के लिए लकीर क्यों पीटें? आख़िर बकाया लगान के मुक़द्दमे में आपका भी ख़र्च होता है और हमारा भी।

-आप बिलकुल बजा फ़रमाते हैं, मुझे इसमें क्या उज्र हो सकता है? वह तो आपके वालिद मरहूम थे, जो न हाथ से लेना जानते थे, न देना। कचहरी ही में लेना-देना अच्छा लगता था।

-उनकी बात आप छोडि़ए। अब मैं तैयार हूँ।

-तो मैं भी तैयार हूँ। आपको इस मामले में मुझसे किसी शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा।

-बस, यही कहने मैं आया था,-उठते हुए मन्ने ने कहा-अब मुझे इजाज़त दीजिए।

-अरे, पान तो खा लीजिए!-व्यस्त होते हुए लाला बोले और उन्होंने लडक़े को पुकारा, लेकिन कोई आवाज़ नहीं आयी।

-फिर कभी खा लेंगे। आप कोई ख़याल न करें। मुझे ज़रा जल्दी है। आज माफ़ कर दें!

-यह कैसे हो सकता है?-उठते हुए लाला ने कहा- मैं ख़ुद देखता हूँ।-और वे ज़नाने की ओर बढ़े, तो मन्ने ने उनका हाथ पकडक़र कहा-आप मेहरबानी करके तकलीफ़ न कीजिए! मैं वादा करता हूँ कि फिर कभी आकर ख़ुद पान खाऊँगा। इस वक़्त ज़रा जल्दी में हूँ। सलाम!

-बड़ा अफ़सोस है, ख़ैर, आप आना न भूलें!-लाला ने जैसे लाचार होकर कहा।

-नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है?-और मन्ने चला आया।

गाँव में शोर मच गया कि मन्ने लाला के यहाँ गया था। इस अनहोनी पर जैसे किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। जिसके अब्बा ने अपनी सारी ज़िन्दगी जिन लाला की सूरत देखना हराम समझा, वही लाला के घर गया था! यह कैसे मुमकिन हुआ? घर में जैसे कुहराम मच गया था, जुब्ली चीख़-चीख़कर आसमान सिर पर उठाये हुए था कि मन्ने ने ख़ानदान की नाक कटवा दी, अपने अब्बा की क़ब्र पर लात मार दी! इसने हमें मुँह दिखाने के क़ाबिल न रखा! ...

बाबू साहब को मालूम हुआ तो दौड़े-दौड़े आये और पूछा-क्या यह सच है? क्या आप सच ही लाला के दरवाजे पर गये थे?

मन्ने ने बिना किसी हिचक के कहा-हाँ, गया था। इसमें कोई बुराई नहीं देखता।

-लोग क्या कह रहे हैं, आपको मालूम है?-सिर झुकाकर बाबू साहब ने कहा।

-मालूम है!-मन्ने ने दृढ़ स्वर में कहा-लोगों का कहना-सुनना तो लगा ही रहता है। हमें भी तो अपना फ़ायदा-नुक़सान देखना है!

-तो मियाँ ने क्या ख़ामख़ाह के लिए...

-यह मैं कैसे कह सकता हूँ?-मन्ने बात काटकर बोला-मियाँ के बराबर न मुझमें हिम्मत है, न ताक़त। उनकी शान उनके साथ गयी। मैं उनकी बैसाखी लगाकर कब तक खड़ा रह सकता हूँ? ...हर तीसरे साल लाला हम पर बक़ाया लगान का मुक़द्दमा दायर करें और हर तीसरे साल हम उन पर। बीसियों बार कचहरी दौड़ें, सौ-दो सौ रुपये ख़र्च हों और ऊपर से तीन साल का लगान एक साथ अदा करना पड़े ही। इस झंझट से क्या फ़ायदा? मैंने आज निपटारा कर दिया। हर साल हमारा-उनका हिसाब-किताब हो जाया करेगा।

-हुँ!-बाबू साहब ने जैसे मुँह चिढ़ाया-और बाप-दादा की बात की कोई क़ीमत ही नहीं? अच्छे वारिस हैं आप!

-बाबू साहब!-मन्ने समझाता हुआ बोला-इन बातों में क्या रखा है? वह ज़माना और था, वे लोग और थे, हम उनकी राह पर नहीं चल सकते, बाबू साहब! आपसे तो कुछ छुपा नहीं है। आप ही बताइए, हम इस क़ाबिल हैं कि एक पैसा भी बेकार ख़र्च कर सकें? दूसरी बातें छोडि़ए।

-आपसे बहस में मैं नहीं जीत सकता,-बाबू साहब जैसे रूठकर कमरे से बाहर जाते हुए बोले-आपके जैसा पढ़ा-लिखा आदमी नहीं! आप जैसा चाहें, करें!

बाबू साहब चले गये, तो ज़रा देर के लिए वह चिन्ता में पड़ गया। क्या सचमुच उसने ऐसा काम किया है कि और तो और बाबू साहब भी बुरा मान जायँ? उसने बहुत सोचा, लेकिन इसी नतीजे पर पहुँचा कि उसने कोई अनुचित काम नहीं किया है। दरअसल ये लोग भी पुराने ज़माने के ही हैं। लीक को छोडना इनके बस की बात नहीं। जैसा चलता आया है, उसमें ज़रा भी रद्दोबदल इन्हें पसन्द नहीं। इसके लिए कोई क्या करे?

और मन्ने निश्चिन्त हो गया। जिस बात को वह उचित समझता, उसका कोई कितना भी विरोध करे, वह माननेवाला न था। उस पर अड़ जाना उसका स्वभाव था, चाहे उसके लिए उसे जो भी झेलना पड़े। उसे अटूट विश्वास था कि उसके विरोधी उसकी बात के औचित्य को एक-न-एक दिन अवश्य स्वीकार कर लेंगे। और अक्सर ऐसा ही होता भी। इससे उसका आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया था और आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी बात दबंगई के साथ भी सामने रखने से नहीं हिचकता था।

कालेज का लोकप्रिय विद्यार्थी मन्ने, जो कालेज के हर सामूहिक कार्यक्रमों में सबसे आगे बढक़र हिस्सा लेता था, युनिवर्सिटी में दाख़िल होते ही अचानक इस तरह बदल गया, तो इसके पीछे भी उसकी वही भावना काम कर रही थी। एक विद्यार्थी के लिए अपने को इस तरह बदल लेना कोई साधारण काम नहीं। उसके कालेज से आये साथी उसे इस रूप में देखते, तो आश्चर्य करते। कोई-कोई तो उस पर फब्तियाँ कसने से भी बाज़ न आते, कंजूस कहते, बेशऊर कहते, लेकिन मन्ने पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। वह हँसकर टाल देता, कभी उनकी बात का जवाब न देता। मन्ने ने कितनी कोशिश से अपने मन को मारा, यह वही जानता है। सभी कार्यक्रमों से अपने को अलग कर, अच्छे रहन-सहन का लोभ संवरण कर, ट्यूशन से कुछ पैदा कर, अपने लिए जो उसने रास्ता बनाया, वह कम तकलीफ़देह न था। लेकिन उसने बड़ी मज़बूती से अपने को कब्जे में रखा और तनिक भी झुकने न दिया। इसका कारण यही था कि इस समय वह इस तरह की ज़िन्दगी को ही अपने लिए उचित समझता था, अब पहले की तरह वह रह ही नहीं सकता था।

बड़े दिन की छुट्टियाँ पास आयीं, तो गोरखपुर से जुब्ली के बड़े भाई ज़िल्ले मियाँ का ख़त आया कि मन्ने वहाँ से होकर ही गाँव जाय। एक बहुत ही ज़रूरी काम के सिलसिले में उससे बातें करनी हैं।

मन्ने को यह पत्र पाकर आश्चर्य के साथ शंका भी हुई। ज़िल्ले मियाँ के विषय में वह बहुत नहीं जानता था, लेकिन जो भी जानता था, उससे उन्हें वह अच्छा आदमी नहीं समझता था। उसे पक्का सन्देह था कि वे उससे जलते हैं। उसकी किसी भी तरह की भलाई वे सहन नहीं कर सकते। अब्बा के मरने के बाद ख़ानदान के वही सबसे बड़े आदमी थे, लेकिन उन्होंने उसकी कोई ख़बर तक नहीं ली और न उसकी बहनों की शादी में ही कोई मदद की। वे उसे कभी ख़त भी नहीं लिखते थे। अचानक उन्हें उसकी क्या ज़रूरत पड़ गयी, यह सोचने की बात थी।

उसे आज भी उनको लेकर बचपन की कई बातें याद हैं। ज़िल्ले मियाँ एक शहज़ादे की तरह बड़ी शान से रहते थे। वे बड़े शानदार कपड़े पहनते और बड़ी शान से बातें करते थे। उनका रोब देखने की ही चीज़ थी! वे शाहाना खाना खाते थे। उन्हें कुत्तों और मुर्गों का बड़ा शौक़ था। जाड़ों में वे अपने कुत्तों को दुशाले ओढ़ाते थे, ऐसे दुशाले, जो गाँव में किसी को देखने को भी मयस्सर न हों। वे कोई काम न करते। दिन-भर कुछ ख़ुशामदियों के साथ गप्पे लड़ाते,शतरंज या ताश खेलते। बहुत हुआ तो बन्दूक उठाते और तालाब की चिडिय़ों या हारिलों या हिरनों के शिकार पर निकल जाते और अक्सर ऐसा होता कि जितना शिकार वे न लाते, उससे अधिक की कारतूसें फूँक आते।

वे किसानों से गाली के नीचे बात न करते और उनकी बदमाशियों के कितने ही किस्से लडक़ों में भी प्रचलित थे। उनमें से एक-दो को तो लडक़े कभी भूल ही नहीं सकते।

एक बार की बात है कि पोखरे के सामने के मैदान में दोपहर की छुट्टी होते समय एक नट और नटी ने आकर अपना सामान उतारा और यह शोर मच गया कि ये कठपुतली का नाच दिखानेवाले हैं, आज रात को गाँव में ये नाच दिखाएँगे। छुट्टी की ख़ुशी भूलकर लडक़ों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। देखते-देखते वहाँ लोगों की भीड़ लग गयी। नट-नटी बिलकुल काले थे और उनके शरीर पर बहुत कम कपड़ा था। शरीर इतना सुन्दर और सुडौल था कि देखने से आँखें तृप्त न होतीं, मन होता कि बराबर देखे ही जाओ, जैसे आबनूस की दो आदमक़द मूर्तियाँ हों, दोनों एक-दूसरे से बढक़र!

नटी ने पड़ाव का सब सामान ठीक करके एक आदमी से पूछा-यहाँ सबसे बड़ा आदमी कौन है?

उस आदमी ने कहा-बड़े तो यहाँ कई हैं, लेकिन इस-सबका शौक़ ज़िल्ले मियाँ को है। उनके यहाँ नाच हो, तो तुम लोगों को अच्छी-ख़ासी आमदनी हो सकती है। बड़े शाहख़र्च आदमी हैं।

फिर वे खाना बनाने में जुट गये, तो लडक़ों को भी अचानक अपनी भूख की याद आ गयी और धीरे-धीरे सब खिसक गये।

गर्मियों के दिन थे। दोपहर को दो घण्टे की छुट्टी होती थी। लेकिन उस दिन खाना खाकर भागे-भागे सब आ पहुँचे। देखा तो नटी नहीं थी, और नट नीम के पेड़ के नीचे बेख़बर सो रहा था। फिर भी लडक़े उसे ही घेरे खड़े रहे और झाँक-झाँकर बोरे में भरी कठपुतलियों को देखते रहे।

तभी लू के एक झोंके की तरह नटी हाथ में एक कठपुतली लिये हुए मसजिद की ओर से भागती हुई आती दिखाई दी। हाँफती-काँपती, ग़ुस्से से लाल-लाल आँखें लिये वह नीम-तले आकर ताबड़-तोड़ नट को जगाकर बोली-उठ, चल, जल्दी यह गाँव छोड़!-और सामान सिर पर उठाने लगी।

बौखलाया हुआ नट अनबूझ की तरह बोला-का बात है? का हुआ? तू ऐसा काहे कह रही है?

-यह बदमास गाँव है!-नटी नथुने फडक़ाती हुई बोली-उठा सामान, देर मत कर! एक घड़ी भी हम यहाँ नहीं रुकेंगे!

-कुछ बता भी तो!-नट छाती के बाल खुजलाता हुआ बोला-का हुआ?

-उसने हमें पकड़ लिया था! बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाकर भागे हैं! चल, जल्दी कर!

नट की भौंहें काँप उठी। उसने लाल-लाल आँखों से गाँव की ओर देखा और ज़मीन पर ढेर-सा थूक थूक दिया।

जल्दी-जल्दी में सब लाद-फाँदकर वे चलते बने। लडक़े उदास हो गये। ज़िल्ले मियाँ को उन्होंने बड़ी गालियाँ दीं, जिनकी वजह से वे कठपुतलियों का नाच नहीं देख पाये। वहाँ इकठ्ठे हुए लोग भी इस बात में लडक़ों से पीछे न रहे।

मन्ने से लडक़ों ने कहा-तुम्हारा भाई बड़ा बदमाश है। उसने नटी को पकडक़र सब गुड़ गोबर कर दिया। वह नटी को क्यों पकड़ रहा था? नट को मिल जाता, तो वह उसे फाडक़र रख देता! साले ने नाच न होने दिया!

मन्ने क्या जवाब देता?

एक बार ज़िल्ले मियाँ शिकार से लौटे, तो एक घोड़पड़ार का बच्चा पकडक़र लाये। बड़ा प्यारा बच्चा था, लडक़ों के लिए तमाशा बन गया। लडक़े उसे चारों ओर से घेरकर खड़े होते, तो वह उन्हें ऐसी आँखों से देखता, जैसे मेले की भीड़ में कोई खोया बच्चा हर आदमी का मुँह देखता है। लोगों ने सुना है कि ज़िल्ले मियाँ ने घोड़पड़ार का बच्चा पाला है, तो अचरज में पड़ गये।

कुत्ते-बिल्ली, तोते-मोर, चूहे-खरगोश और नेवले तक को पालनेवाले मिल जाएँगे, यहाँ तक कि क़स्बे के मन्दिर का फक्कड़ बाबा बन्दर को कन्धे पर लिये घूमता है, लेकिन घोड़पड़ार को कोई पालता हो, ऐसा न तो कहीं देखा गया, न सुना गया।

और ऊपर से सुना यह भी गया कि ज़िल्ले मियाँ उसे पाल-पोसकर बड़ा करेंगे और बैल के साथ हल में जोतेंगे। हिन्दुओं ने जब यह सुना, तो कुलबुलाने लगे। घोड़पड़ार (नील गाय) को वे गाय की तरह मानते हैं। कई बार तो घोड़पड़ार मारने के कारण ही मुसलमान शिकारियों के साथ लाठी चलने की नौबत आ जाती। और यहाँ ज़िल्ले मियाँ घोड़पड़ार को हल में जोतेंगे!

दो साल के अन्दर घोड़पड़ार बड़ा ऊँचा, जवान हो गया, तो सच ही एक सुबह लोगों ने देखा कि खेत में एक बैल के साथ उसे नाँधकर हल में चलाने की कोशिश की जा रही है। जिसने जहाँ सुना, वहीं से भागा-भागा आया। लडक़ों की भीड़ लग गयी। घोड़पड़ार कन्धे पर जुआठ रखने ही न देता, बिदक-बिदककर भाग खड़ा होता और पकड़-पकडक़र हलवाहा उसे पल्ले पर लगाने की कोशिश करता। लडक़े ज़ोर-ज़ोर से ताली बजा रहे थे और ज़िल्ले मियाँ मेंड़ पर खड़े-खड़े हँस-हँसकर तमाशा देख रहे थे और लडक़ों को डाँट रहे थे।

इतने में जाने कहाँ से रास्ता चलते दस-बारह क्षत्री कन्धे पर बड़ी-बड़ी लाठियाँ लिये वहाँ आ प्रगट हुए। घोड़पड़ार की दुर्गति देखकर उनकी आँखों में ख़ून उतर आया। एक ने आगे पढक़र हलवाहे को डाँटा कि क्यों घोड़पड़ार को तंग कर रहा है, छोड़ दे!

हलवाहा उसका मुँह ताकने लगा, तो ज़िल्ले मियाँ आगे आकर बोले-तुमसे क्या मतलब? अपना रास्ता देखो! मेरा घोड़पड़ार है, चाहे मैं उसका जो करूँ।

अब क्या था। उनमें से कई एक साथ बोल पड़े-कहाँ से ख़रीदकर लाये हो कि कहते हो, घोड़पड़ार तुम्हारा है? बनियों का यह गाँव है कि लोग खड़े-खड़े तुम्हारा यह तमाशा देख रहे है। क्षत्रियों के गाँव में अगर तुम इस तरह की कोई हरकत करते, तो घोड़पड़ार के बदले तुम्हें ही हल में नाँध दिया जाता! छोड़ो इसे, वर्ना लाठियाँ बज जाएँगी!-और आगे बढक़र वे घोड़पड़ार को जुए से छुड़ाकर आगे-आगे हाँकते हुए चल पड़े।

लडक़े उछल-उछलकर ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ पीटने लगे।

ज़िल्ले मियाँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। वे ग़ुस्से में चीख़ रहे थे-मेरी बन्दूक लाओ! मैं इन्हें भूनकर रख दूँगा!

लेकिन वहाँ उनकी बात सुननेवाला कोई नहीं था। हलवाहा भीड़ में घुस गया था।

मन्ने ने जब होश सम्हाला, तो ज़िल्ले मियाँ की सारी शान मिट्टी में मिल चुकी थी। कुत्ते और मुर्गे बिक गये थे। उनके हिस्से के सारे खेत रेहन होकर लाला या दूसरे मुसलमानों या दूसरे गाँवों के महाजनों के पास चले गये थे। बेचारे की हालत बड़ी ख़राब थी। भाइयों से रोज़ ही खाने-पीने के मामले तक में झगड़ा होता। आख़िर ज़िल्ले मियाँ जब घर के मुश्तैनी सामान भी औने-पौने में बेचने लगे, तो घरेलू झगड़ा अपनी सीमा पर पहुँच गया और उनके भाइयों ने अलग हो जाने का ऐलान कर दिया।

तब मजबूर होकर उन्हें गाँव छोडऩा पड़ा। वे अपने बाल-बच्चों को लेकर अपनी ससुराल गोरखपुर चले गये। वहाँ कोशिश कर-कराके वे एक क़साईख़ाने के मुंशी हो गये। इस नौकरी में तनख़्वाह बहुत मामूली थी, लेकिन सुना जाता कि ऊपरी आमदनी बहुत काफ़ी होती, फ़ी बकरा चार आने से लेकर रुपये तक दस्तूरी मिलती, गोश्त की तो रेल-पेल रहती ही। बारह बजे जब वे क़साईखाने से लौटते, तो उनकी शेरवानी की जेबें रेज़कारियों से भरी रहतीं। लेकिन बचाने के नाम पर एक पैसे की क़सम थी। खाने-पीने में सब स्वाहा! लडक़े आवारा घूमते या रिश्तेदारों के यहाँ आश्रय लेते और वे बेशर्मी से पुलाव और मुर्गमुसल्लम उड़ाते। वे सिर्फ़ खाने-पीने के लिए ही पैदा हुए थे। उनके पेट की ज्वाला कभी शान्त होनेवाली नहीं थी और ख़ुदा ने शायद यही सोचकर उन्हें क़साईख़ाने का मुंशी बना दिया था।

मन्ने जब गोरखपुर पहुँचा, तो ज़िल्ले मियाँ ने उसका ख़ूब सत्कार किया। उन्होंने एक गुंजान मुहल्ले में एक बहुत ही मामूली खपरैलोंवाला घर किराये पर ले रखा था। घर निहायत गन्दा था, ऐसा मालूम होता था कि झाड़ू तक न लगती हो। फ़र्श पर, दीवारों पर गर्द जमी थी। चारों ओर बीड़ी के जले हुए टुकड़े, दियासलाई की जली हुई तीलियाँ, पीक, पान की सीठियाँ और मुिर्गयों और कबूतरों की बीटें बिखरी पड़ी थीं। सामान के नाम पर तीन-चार खाटें, एक छोटा तख़्त, कुछ मामूली बिस्तरे, दो मिट्टी के घड़े और अल्मोनियम के कुछ बर्तन थे। ज़िल्ले मियाँ, भाभी और उनके लडक़ों के शरीर के कपड़ों पर भी घर की दशा की ही छाप थी।

लेकिन दस्तरख़ान पर जब दोपहर का खाना चुना गया, तो ऐसा मालूम हुआ, जैसे गँदले बादलों के बीच पूरा चाँद चमक गया हो। बिल्लौरी बर्तनों में तरह-तरह के उम्दा, मुरग्ग़न खाने उस घर के, उस माहौल के बिलकुल बरक्स थे। भाभी ने धराऊँ कपड़े निकाल लिये थे, लेकिन ज़िल्ले मियाँ ख़ून के धब्बे लगे, तंग मोहरी के पाजामे और पैसे और बीड़ी के बण्डल से लटक आयी जेबवाली गन्दी क़मीज़ में ही दस्तरख़ान पर लापरवाह-से बैठे थे।

खाना शुरू करने के पहले मन्ने ने जैसे दबकर कहा-भाई साहब, आपने इतनी ज़हमत क्यों की?

ज़िल्ले मियाँ ठठाकर हँस पड़े। मन्ने ने अनुभव किया कि सब-कुछ बदल गया, लेकिन उनकी हँसी नहीं बदली। यह हँसी संसार से एक सोलहों आने निश्चिन्त प्राणी की थी। ज़िल्ले मियाँ की यह हँसी गाँव में मशहूर थी, दूर-दूर तक गूँजती थी, और सुननेवालों के मुँह से आप ही निकल जाता था, यह ज़िल्ले मियाँ की हँसी है! सब-कुछ चला गया, लेकिन ज़िल्ले मियाँ की यह हँसी नहीं गयी। मन्ने उनका मुँह तकने लगा।

बोले-ज़हमत कोई नहीं की गयी है! यह मेरी ज़िन्दगी है!

-लानत है इस ज़िन्दगी पर!-भौंहें सिकोडक़र भाभी बोलीं-घर में तुम क्या खाते हो, यह कौन देखता है! जिस्म पर...

-तुम चुप रहो, मेरा खाना ख़राब मत करो!-ज़िल्ले मियाँ ग़ुर्राये।

-चुप तो हूँ ही! बच्चे भीख माँगेंगे, तब तुम्हारी इज़्ज़त...

-मैं कहता हूँ, ख़ामोश रहो!-ज़िल्ले मियाँ का बड़ा चेहरा जैसे बाघ की तरह खूँखार हो उठा।

मन्ने ने देखा, हँसी ही की तरह उनके जिस्म पर भी कोई आँच नहीं आयी है। पहले ही की तरह तगड़ा, मज़बूत और जमा हुआ।

बोले-तुम बिस्मिल्लाह करो, जी!

मन्ने ने जैसे सहमकर लुक्मा उठाया और ज़िल्ले मियाँ ने जब खाना शुरू किया, तो मन्ने के लिए यह एक देखने लायक़ मंज़र था, जैसे भूखा बाघ मनचाहा शिकार पाकर उस पर टूटा हो। मन्ने अपना खाना ही भूल गया। भाभी उसका ख़याल न करतीं, तो शायद वह भूखा ही रह जाता।

कई गिलौरियाँ पान दबाकर, ओसारे में खाट पर पड़ जब ज़िल्ले मियाँ बीड़ी-पर-बीड़ी धौंकने लगे, तो उनकी बगल में खाट पर बैठकर मन्ने बोला-भैया, किसलिए आपने मुझे याद किया?

-दो-चार रोज़ रुको,-आँख मूँदते हुए वे बोले-क्या जल्दी है, बताएँगे।

मन्ने उनके मिज़ाज से वाक़िफ़ था। वह उठकर अन्दर भाभी के पास चला गया।

भाभी उसे बहुत मानती थीं। उनके मन में मन्ने के लिए बड़ी इज्ज़त और मुहब्बत थी। इस वजह से ही गाँव में वह कई बार अपने घरवालों की झिड़कियाँ सुन चुकी थीं। मन्ने को यहाँ अपने पास पाकर वे बहुत ख़ुश थीं। उन्होंने पानदान से पान बनाकर उसे देते हुए कहा-बाबू, तुम तो मुझे भूल ही गये! उनका ख़त न जाता, तो शायद अपने मन से तुम कभी भी नहीं आते!

-क्या करें, भाभी?-मन्ने ने शर्मिन्दा होकर कहा-तुमसे मेरा क्या छुपा है! ख़ुदा न करे, कोई अपने घर का अकेला हो!

-सच बताना, कभी मेरी याद आती थी?-भावुक होकर, स्नेहसिक्त स्वर में भाभी बोलीं।

-हाँ, बराबर आती है!-मुस्कराकर मन्ने बोला-तुम-जैसी हसीन और ख़ुशएख़लाक़ भाभी को भुलाना क्या मेरे बस की बात है!

-झूठ!-लाल होकर भाभी बोलीं-बनाओ मत!

-नहीं, भाभी,बिलकुल सच कहता हूँ!-मन्ने संजीदा होकर बोला-तुम्हें जब भी देखता हूँ, यही ख्य़ाल आता है कि यह हीरा कहाँ कीचड़ में पड़ गया।

-इसका ज़िक्र न करो, बाबू!-रुआँसी होकर भाभी बोलीं-इस कमबख़्त ने मेरी तो ज़िन्दगी ख़राब की ही, बच्चों की भी इसे कोई फ़िक्र नहीं। इतना कमाते हैं कि रखा जाय तो, रखने को जगह न मिले, लेकिन सब पेट को चढ़ जाता है। खाने के सिवा और किसी बात का शौक़ ही इन्हें नहीं। पेटू की तरह खाना और भैंसे की तरह सोना, यही दो काम इनके रह गये हैं। ...सुन रहे हो न उनकी नाक की आवाज़!

मन्ने हँस पड़ा। फिर बोला-भाभी, तुम्हीं कुछ क्यों नहीं करतीं?

-मैं सब करके हार गयी, मेरी एक नहीं चलने देते!-भाभी हारे हुए स्वर में बोलीं-और सच पूछो, तो मैंने भी अब सब उम्मीदें छोड़ दी हैं। मेरे भी सब शौक़ मर गये हैं। घर की हालत देखते हो न! झाड़ू तक देने को जी नहीं करता। जैसे मेरी ज़िन्दगी भी सड़ गयी हो और मुझे भी हराम जानवर की तरह यह सड़ाँध ही प्यारी हो गयी हो!-कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू टपकने लगे।

-भाभी, यह तो बहुत बुरी बात है!-मन्ने उदास स्वर में बोला-घर की हालत देखकर मुझे सख़्त ताज्जुब हुआ था। मैंने सोचा था, शायद भाभी यहाँ नहीं रहतीं, वर्ना मेरी भाभी...

-वह मर गयी, बाबू!-फफककर भाभी बोलीं-किसी काम में भी मेरा जी नहीं लगता। मैं उनके लिए सिर्फ़ एक बावर्ची रह गयी हूँ। पता नहीं, अब खाना भी...सच बताना, बाबू, खाना अच्छा बना था?

-यह भी क्या पूछने की बात है, भाभी?

-पूछने की क्यों नहीं है?-भाभी जैसे तड़पकर बोलीं-काम में मन न लगता हो, तो ऐसा शक होना लाज़िमी है। बाबू, कभी-कभी तो मुझे यह भी डर लगता है कि कहीं मेरे हाथ का खाना ख़राब होने लगा, तो...

-भाभी!-मन्ने जोर से बोल पड़ा-ऐसी बात मुँह से न निकालो!

भाभी ने दुपट्टे से आँखें पोंछ लीं। एक करुण मुस्कान उनके होंठों पर उभर आयी। जैसे सब भूलकर बोलीं-जाने दो, जो आयगा देखेंगे। ख़ामख़ाह के लिए तुम्हें परेशान कर बैठी। अब अपनी कहो, ख़ैरियत से रहे न, बाबू?

मन्ने के मन में अनायास यह भाव उठा कि वह भाभी की आँखों और होंठों को चूम ले और कहे, भाभी, तुम पहली औरत हो, जिसने मुझे बताया कि औरत क्या होती है! तुम्हारे लिए मुझे ताज़िन्दगी एक अफ़सोस रहेगा, लेकिन साथ ही मुझे यह फ़ख़ भी रहेगा कि तुम-जैसी औरत से मैंने मुहब्बत का पहला सबक़ लिया!

लेकिन मुँह लटकाकर बोला-हाँ, ज़िन्दा हूँ।

-लेकिन ये कपड़े क्या पहन रखे हैं?-भाभी ने उसे ग़ौर से देखते हुए कहा-बाल इतने छोटे क्यों करवा रखे हैं? कांग्रेसी बन गये क्या?-और वे इस तरह हँस पड़ीं, जैसे दो ही क्षणों में उनकी कायापलट हो गयी।

हैरत से उनकी ओर देखते हुए मन्ने ने चुहल की-क्यों? देखकर नफ़रत होती है न?

-नहीं, और ज़्यादा मुहब्बत होती है!-जैसे ललककर भाभी बोलीं-देखकर जी में आता है कि तुम्हारे सिर में तेल लगा-लगाकर तुम्हारे बालों को बढ़ा दूँ और बाज़ार जाकर तुम्हारे लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाऊँ और अपने सामने दर्जी से सिलवाकर तुम्हें अपने हाथों से पहनाऊँ और तुम्हें देखूँ! ...काश!-और उनके मुँह से एक ठण्डी साँस निकल गयी।

मन्ने के चेहरे से होकर जैसे एक सरसराहट गुज़र गयी। उसके दिल में एक गुदगुदी हुई और फिर सहसा ही जैसे वह भर आया। उसके जी में आया, वह कहे, भाभी, तुम मेरी माँ हो!

लेकिन एक क्षण खामोश रहकर, उसने भाभी से आँखें मिलाकर कहा-भाभी, तुम बहुत अच्छी हो!

भाभी फिर वही हँसी हँस पड़ी। और फिर सहसा जाने उन्हें क्या याद आ गया कि हँसी ऐसे रुक गयी, जैसे अचानक उनकी गर्दन टूट गयी हो।

भौंचक होकर मन्ने बोला-क्या बात है, भाभी? तुम अचानक इस तरह...

भाभी के चेहरे पर जैसे जादू फिर गया हो, वह तुरन्त आश्वस्त होकर, झूठी खाँसी खाँसकर, गला साफ़ करके बोलीं-बाबू, उसे बड़े-बड़े बाल पसन्द हैं। वह कपड़ों की बेहद शौकीन है। वह...

-वह कौन, भाभी!-चकित, शंकित और उत्सुक होकर मन्ने जोर से बोल पड़ा।

कनखियों से उसकी ओर देखती हुई, होठों पर मन्द मुस्कान लिये भाभी धीरे से बोलीं-वहीं तुम्हारी होनेवाली, और कौन?

-भाभी!-मन्ने अवसन्न-सा होकर चीख़ पड़ा-यह तुम क्या कह रही हो? कौन मेरी होनेवाली है? मुझे शादी-वादी नहीं करनी है!

-इस तरह घबराओ नहीं, बाबू-स्थिर स्वर में समझाती हुई-सी भाभी बोलीं-ऐसे बच्चों की तरह बौखलाओगे, तो तुम्हारा तो शायद कुछ न बिगड़े, लेकिन तुम्हारी मँझली बहन की ज़िन्दगी बरबाद हो सकती है।

-क्या मतलब?-शंकित दृष्टि से भाभी की ओर देखते हुए, मन-ही-मन सहमकर मन्ने बोला।

-क्या सचमुच तुम कुछ नहीं समझते?-भाभी ने भौंहें सिकोडक़र कहा।

-नहीं, भाभी, तुम्हारी क़सम, मैं कुछ नहीं समझता!-परेशान स्वर में मन्ने बोला।

-तो सुनो!-भाभी ने पान की सीठी उगालदान में गिराकर कहा-वह मेरी भतीजी और तुम्हारे बहनोई, ताहिर की बड़ी भांजी है। जिस दिन ताहिर मियाँ का रिश्ता तुम्हारी बहन से हुआ, उसी दिन तुम्हारा रिश्ता इस लडक़ी से पक्का हो गया था।

-यह ग़लत है!-मन्ने तैश में आकर बोला।

-तुम्हारा बचपना न गया, बाबू!-भाभी झिडक़ती हुई-सी बोलीं-तुम ज़रा धीरे से बात करो। उनकी नींद खुल गयी और उन्होंने हमारी बातें सुन लीं, तो जानते हो न उनका मिज़ाज! ... ख़ैर, यह सही है कि उस वक़्त तुमसे इस रिश्ते के बारे में बात नहीं हुई थी, लेकिन यहाँ लोगों ने यह जोड़ बैठा ली थी। ...अब जाल फैला दिया गया है। पूरा नक्शा तैयार करके तुम्हें यहाँ बुलाया गया है। ताहिर मियाँ भी आये हुए हैं। वे मुझसे कह चुके हैं कि अगर तुमने यह रिश्ता क़बूल न किया, तो तुम्हारी बहन...इसलिए, बाबू, तुम सोच-समझकर बात करना। इसका ताल्लुक़ सिर्फ़ तुम्हारी ज़िन्दगी से नहीं है, तुम्हारी बेकस बहन की ज़िन्दगी का भी सवाल है।

मन्ने अवाक् रह गया। वह एकटक भाभी का मुँह ताकने लगा।

भाभी ने आँखें झुकाकर कहा-यों, लडक़ी अच्छी है, हसीन है, बाएख़लाक़ और मुहज़्ज़ब है। कुछ पढ़ी-लिखी भी है और घर-गिरस्ती के काम-धाम में भी माहिर है। मुझे तो एतराज़ की कोई बात नहीं दिखाई देती। आख़िर कहीं-न-कहीं तो तुम्हें शादी करनी ही है। रिश्ते की जानी-पहचानी लडक़ी घर आये, यह क्या अच्छा नहीं है?

बुझे गले से मन्ने बोला-लेकिन, भाभी, अभी तो मैं अपनी शादी की सोच भी नहीं सकता। मेरी पढ़ाई अभी अधूरी है। मुझे अपनी छोटी बहन की शादी करनी है। तुम जानती हो, मेरी हालत...

तभी बाहर दरवाजे पर से आवाज़ आयी-ज़िल्ले! हो अन्दर?

सुनकर भाभी सकपकाकर बोलीं-यह तो भाई साहब की आवाज़ है! तुम ओसारे में चलकर बैठो। मैं उन्हें अन्दर बुला लूँ।-और वह लपककर दरवाज़े की ओर बढ़ीं।

भाभी के भाई साहब ने दूर से ही मन्ने को देखकर बड़े तपाक से कहा-अस्सलाम अलेकुम!

मन्ने उठकर खड़ा होते हुए बोला-वलेकुमसलाम।

भाभी अपने भाई साहब से बोलीं-ये मन्ने बाबू हैं हमारे!

-जानता हूँ, जानता हूँ!-वे बोले-तुम्हारे बताने की कोई ज़रूरत नहीं।

फिर मन्ने की ओर मुख़ातिब हुए-तुम कब आये, भाई?

-सुबह,-मन्ने ने अनमना होकर संक्षिप्त उत्तर दिया।

भाभी की ओर देखकर उन्होंनें पूछा-यह ज़िल्ले कितना सोता है, भाई? जब आता हूँ, इसे सोया हुआ ही पाता हूँ। उठाओ इसे।

लेकिन ज़िल्ले मियाँ को उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उनकी आँखें आप ही खुल गयीं। जम्हाई लेते हुए उठकर बैठ गये और भाभी के भाई साहब पर नज़र पड़ी, तो बोले-आप देर से आये हैं क्या, मामू?-फिर तुरन्त मन्ने की ओर देखकर एक बुज़ुर्ग की तरह बोले-मन्ने, मामू को सलाम किया?

मामू ही बोले-हाँ, सलाम-दुआ हो चुकी है। तुमसे एक बात कहने आया था।

-फ़रमाइए!-बीड़ी सुलगाते हुए ज़िल्ले मियाँ बोले।

-आज शाम को तुम लोग हमारे यहाँ चाय पिओ।

हँसकर ज़िल्ले मियाँ बोले-चाय ही क्यों? हम रात का खाना भी आपके ही यहाँ खाएँगे!

-ज़रूर, ज़रूर, खाना भी खाओ!-उठते हुए मामू बोले-अच्छा, अब मैं चलूँगा। चार बजे तुम लोग आ जाओ।

-अरे, ज़रा देर तो बैठिए!-फिर भाभी की ओर देखते ज़िल्ले मियाँ बोले-भई, तुम खड़ी-खड़ी मुँह क्या देख रही हो? मामू को पान तो दो!

भाभी अन्दर कमरे में भागीं, लेकिन उनके कान बाहर ही लगे थे, शायद कोई बात छिड़े।

बाहर सब लोग ख़ामोश थे। भाभी ने पान लाकर दिये। मामू ने लापरवाही से मुँह में पान दबाये और सलाम करके चलते बने।

ज़िल्ले मियाँ अब हँसकर बोले-यह-सब तुम्हारी ही तुफैल में है, मन्ने बाबू! वर्ना मुझे तो ये लोग छठे-छमासे भी याद नहीं करते!-और वे अपनी हँसी हँस उठे।

मन्ने के अन्दर का क्षोभ जैसे भभक पड़ा। उसका चेहरा लाल हो गया। उसके जी में आया कि इस हैवानी हँसी हँसते हुए चेहरे को नोंचकर रख दे! भाभी ने उसका चेहरा देखा, तो सहमकर उसके सामने आकर बोलीं-चलो, तुम अन्दर चलकर थोड़ा आराम कर लो। रात को गाड़ी में जगे होगे।

मन्ने ने आँखें उठाकर भाभी का सहमा हुआ चेहरा देखा और उठकर अन्दर कमरे में चला गया।

मन्ने को लग रहा था कि वह अकेला चारों ओर से घिर गया है, बचने की कोई राह नहीं। आँखें मूँदे, खाट पर वह चुपचाप पड़ा था, लेकिन उसके अन्दर जैसे कोहराम मचा हो, उसका दिल जैसे भुभुर में पड़ी मछली की तरह तड़प रहा हो। रह-रहकर बेकस बहन और शैतान ताहिर सामने आ खड़े होते और वह आँखे मूँद लेने की कोशिश करता।

किस सायत में उसने अपनी बहन की शादी इस कमबख़्त से की! बाद में जब उसका चरित्र खुला, तो मन्ने को उसकी सूरत से नफ़रत हो गयी। जाने क्यों उसे बराबर यह डर लगा रहता कि यह कमबख़्त कभी-न-कभी ग़बन ज़रूर करेगा, और जेल जायगा। साठ रुपये का एक पोस्ट मास्टर दो सौ रुपये ख़र्च करेगा तो कहाँ से? जाने किस शान में ऐंठता फिरता है! कपड़े पहनेंगे लाट साहब की तरह और करनी जौ-भर की नहीं! ससुराल में आएँगे, तो यही चाहेंगे कि सब लोग हाथ बाँधे दामाद के सामने खड़े रहें और उनका हुक्म बजाया करें। खाने को चाहिये रोज़ पुलाव और मुर्गमुसल्लम! नहीं तिनककर भाग खड़े होंगे और दुनिया-जहान से शिकायत करते फिरेंगे और बहन पर सितम तोड़ेंगे, तुम्हारा भाई निहायत ही ग़ैरमुहज़्ज़ब और कंजूस है! ...ठेंगा खिलाते हैं हम! अरे मेहमान की तरह आओ और मेहमान की तरह दो-चार रोज़ रहकर चले जाओ, तो ठीक है, हम तकलीफ़ उठाकर भी तुम्हारी ख़ातिर करने को तैयार हैं। लेकिन यहाँ तो जब तक तर मिलता रहेगा, अिर्जयाँ भेज-भेजकर छुट्टियाँ बढ़ाते जाएँगे और महीनों तक सर पर सवार रहेंगे। फिर कौन करे तुम्हारी ख़ातिर? इतना पैसा होता, तो एक बात भी थी, लेकिन यहाँ तो जो है, उसी से सब धरम-करम चलाना पड़ता है। और फिर तुम रिश्तेदार काहे के हो, जो उनकी स्थिति नहीं समझोगे और बारम्बार धौंस जमाकर मेहमानी कराओगे! जाओ जहन्नुम में तुम! ...

-बाबू, ज़रा सिर सीधा करो, तेल लगा दूँ।

आँख खोलकर मन्ने ने देखा, भाभी हाथ में तेल की मलिया लिये उस पर झुकी हुई थीं। उसने फिर आँख मूँदकर कहा-रहने दो, भाभी। तुम भैया से कह दो, मैं शाम की गाड़ी से जा रहा हूँ।

-वो तो कहीं बाहर चले गये,-उसके सिर पर हाथ रखती हुई भाभी बोलीं-तुम शाम को क्यों चले जाओगे?

-मैं अभी इस झंझट में नहीं पड़ सकता, भाभी!

-इससे छुटकारा नहीं, बाबू!-तेल थोपती हुई भाभी बोलीं-लडक़ी तुम्हारे ही भरोसे सयानी हो गयी है वे लोग और इन्तज़ार नहीं कर सकते। और एक बात तुमसे और बता दूँ, वह भी तुम्हें अपना दूल्हा मान चुकी है, तुम्हारी ही माला जपती रहती है।

-यह तुमने ख़ूब कही, भाभी! जान-न पहचान, मियाँ-बीबी सलाम!

-सच कहती हूँ, बाबू! वह तो रात-दिन मेरी जान खाये रहती है, फूफू एक बार उन्हें बुलाओ, मैं देख तो लूँ! ...तुम्हार