Satami Ke Bachche (Hindi Story) : Rahul Sankrityayan

सतमी के बच्चे (ग़रीबी की भेंट ) : राहुल सांकृत्यायन

सतमी अहीरिन पन्दहा में सबसे ग़रीब स्त्री थी । पन्दहा दो सौ बीघे का एक छोटा गाँव था, और उसमें ब्राह्मण ३०, और अहीर १०, कहार २, बढ़ई १, कुम्हार १, चमार ५ – कुल ४६ घर थे । इतनी घनी बस्ती और बलुआ जमीन के कारण वहाँ के सभी लोग ग़रीब थे । और सतमी की अवस्था तो सबसे दयनीय थी। उसका पति चौथी सन् ४ ( १३०४ फ़सली, १८६७ ई० ) में बंगाला चला गया था। वहाँ वह क्या करता था, यह किसी को मालूम नहीं । सतमी के नाम उसका मनीआर्डर या चिट्ठी भी आते किसी ने नहीं देखा। घर पर सतमी के पास न एक अगुल खेत था, न एक पूछ गाय या बकरी की । उसकी सम्पत्ति थे दो पुराने छोटे-छोटे खपड़ैंल के घर और कुछ मिट्टी- काठ के बर्त्तन । घरों में किवाड़ या चाँचर न था, और न उसकी आवश्यकता ही थी । वहाँ चुराने को रखा ही क्या था ?

सतमी की विपत् का यहीं अन्त न था । उसके पाँच बच्चे थे । सबसे बड़ी सुखिया ( नाम से बिल्कुल उलटी ) थी, फिर चार लड़के- बुद्धू, सुद्धू, मद्धू, और सन्तु । इन छः प्राणियों का पालन सतमी कैसे करती थी, यह समझना मुश्किल है । गाँव के मालिक --- ब्राह्मण लोग बहुत गरीब थे, इसलिये सतमी को बराबर पीसने कूटने का काम मिलना आसान न था, तो भी वही उसके लिए जीविका का साधन था । दूध छोड़ने के बाद सतमी के बच्चों को शायद ही कभी पेट भर खाना मिला हो । फागुन- चैत में सतमी और कुछ बड़ी होने पर सुखिया भी खेत काटने जाती थी । छोटे बच्चे डलिया ले पिछुआ बीनने ( खेत में छूटी बालों को चुनने ) जाते थे । उस समय उन्हें मजदूरी में कुछ अधिक अनाज मिल जाता था, लेकिन भविष्य का ख्याल करके सतमी उसे बहुत सकुचित हाथ से खर्च करती थी । बैसाख जेठ में भी कुछ महुआ और मज़दूरी से काम चल जाता था । वर्षा होते ही चकवँड़ जम जाता था, फिर माँगे नमक के साथ चकवँड़ का साग औरआम की गुठलियों को पीसकर बनी रोटी महीने-भर चलती थी । भादों में जब फूट फूटते थे तो सतमी के लड़के जिसके खेत पर जाते, वह दो फूट दे देता था । जब तब खेत की कटवाई में भी कुछ साँवा, मँड़ुआ, कोदो, साठी मिल जाती थी ।

दसहरे का मेला देखने के लिए जब पन्दहा के गरीब से गरीब लड़के भी दो-चार गोरखपुरी (पैसे) पा जाते, और वे नये या धुले कुर्ता धोती पहन मेला जाते, उस समय भी सतमी के बच्चों को न एक कौड़ी का ठिकाना था, और न उसकी फटी लँगोटी ही बदलती थी। पैर अपना था, इसलिये वे मेले में चले जाते थे । जब दूसरे लोग अपने बच्चों को खिलौना, बाजा, गट्टा या मूली खरीदते, तो वे उन्हें चाह-भरी आँखों से चुपचाप देखते रहते । किसी का दिल पसीजता, या नजर लगने का डर लगता, तो वह एक मूली या एक गट्टा उन्हें भी थमा देता । घर आने पर जब लड़के थैले या अँगोछे में लाई- गट्टा ले बाहर खेलने निकलते, तो उस समय सतमी के बच्चों की बन आती; क्योंकि बच्चे सयानों से अधिक उदार होते हैं, उन्हें साथियों में बाँटकर खाने में आनन्द आता है ।

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पन्दहा में धान के खेत न थे । वहाँ ऊख बोने का बहुत रिवाज था । गाँव में पत्थर के सात कोल्हू थे, जो अगहन से ही चलने लगते थे । पत्थर के कोल्हू को धोने, घानी चलाने और बैल हाँकने के काम में कई मजबूत हाथों की आवश्यकता होती थी, इसीलिए पाँच सात घर मिलकर एक-एक कोल्हू चलाते थे। अपने गन्ने के अनुसार बारी-बारी से हफ्ते में एक या दो दिन हर एक की ऊख पेरी जाती थी। काम करने और बैल देने में भी लोग अपने-अपने हिस्से या चारे का ख्याल करते थे ।

सतमी के बच्चों को जाड़ा काटने के लिए वे पत्थर के कोल्हू कल्पवृक्ष थे । वे भोजन और वस्त्र दोनों ही - चाहे जिलाने भर को ही सही -देते थे । वे इन कोल्हाड़ों में ऊख की पत्ती और सीठ की आग चूल्हे में सदा बनी रहती थी; और पेट खाली करने के लिए समय- समय पर पूँछ की ओर से भौर को बाहर निकाल दिया जाता था । सतमी के बच्चे बड़ी रात तक वहाँ बैठकर आग तापते रहते थे । काम करने वालों के हाथ को ठिठुरने से बचाने के लिए एक जगह रात भर और आग जलाई जाती थी; वहाँ वे घुसकर बैठ जाते थे, यद्यपि वहाँ उनको उतनी स्वतन्त्रता न थी । इसके लिये उन्हें कभी-कभी झिड़की खानी पड़ती थी । नींद का ज़ोर होने पर वे चूल्हे झोंकने के लिए रखी पत्तियों में घुसकर सो जाते थे । सबेरे धूप निकलते ही, दीवार की याद में ज़रा घाम ले, वे ऊख के खेत पर चले जाते थे, और ऊख छीलने में मदद करने के लिए उन्हें दो-चार ऊख मिल जाती थी। पहर दिन चढ़े जब बाँटने की घानी चढ़ती थी, तो अपना घड़ा ले उनमें से कोई एक जरूर कोल्हाड़ में हाज़िर रहता था । उस घानी में पानी ज्यादा डाला जाता था, इसीलिये उसे पनिऔवा कहते थे। पहले काम करने वालों को रस बाँटा जाता था, पीछे सतमी के लड़कों जैसों की बारी आती थी । उस वक्त, उन्हें दो-एक सैकी (रस उठाने का हैंडिल लगा मिट्टी का बर्तन ) रस जरूर मिल जाता था । कड़ाह से गुड़ उठाते वक्त प्रसाद में चाटने को वे जरा-सा गुड़ भी पाते थे । माघ- पूस में सतमी खेत से जाकर बथुआ का साग खोट लाती थी, यद्यपि इसके लिये सरसों खोटने का इल्जाम लगा लोग चार बात भी सुनाते थे ।

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सुद्धू और मद्धू को जूड़ी आते दो मास हो गये थे । जड़ैया पहले रोज़ आती थी, अब इधर एक सप्ताह से वह अँतरिया ( एक दिन अँन्तर देकर आनेवाली ) हो गई थी । आज तीसरे पहर को उसकी बारी थी। लोग कहते हैं, खट्टा, मीठा, सोंधा भोजन जूड़ी में काल है, लेकिन सतमी के घर में कोल्हाड़ से मिले रस और मजदूरी में प्राप्त थोड़ी-सी मटर के सिवा रखा ही क्या था? जूड़ी ने आकर ठंडक दे शरीर को कंपाना शुरू किया । सुद्धू और मद्धू माँगकर लाये कोदो के पयाल पर फटी गुदड़ी में दबक, धूप में पड़ रहे । ठंडक ने जोर किया तो "अरे मा " करने लगे । मा कहाँ से कम्बल और रजाई लावे ! उसने आकर अपनी देह से उनके शरीर को छाप दिया, और मुँह से कुछ ढाढ़स दिया । दुःख की घड़ी लम्बी ज़रूर होती है, लेकिन उसे भी काटना ही पड़ता है। जड़ैया का जोर कम होते बुखार बढ़ चला । सती किसी के घर पीसने चली गई ।

सुखिया अब पन्द्रह वर्ष की थी । उसका व्याह हो गया था, किन्तु बेचारी का भाग्य ऐसा फूटा था कि ससुराल की गाली-मार के कारण वह मा के साथ ही रहती थी । किसी के घर पीसने का काम कर मज़दूरी में थोड़ी-सी मटर पा, घर लौटी थी । सुद्धू ने बहन को आते देख खाना माँगा । सुखिया जब तक मटर को डलिया में सामने रख, भूनने के लिये पड़ोस से आग लाने गई, जब तक सुद्धू मद्धू ने मटर खाना शुरू कर दिया । प्यास मे पास रखे घड़े में से कुछ खट्टे शर्बत को भी पी लिया ।

पूस का अन्त था । मद्धू की जूड़ी इधर चली गई थी, किन्तु उसका पेट अब भी बढ़ा हुआ था । हाथ से देखने से बाईं पजरी के "नीचे" लम्बी तिल्ली दिखाई पड़ती थी । सुद्धू की अवस्था चिन्ताजनक थी । उसकी जूड़ी लगातार जारी थी । मुँह हल्दी के रङ्ग का हो गया था । आँखे भीतर घुस गई थीं। ठठरी की एक एक पसली गिनी जा सकती थी । सारे शरीर में हड्डी के सिवा यदि कुछ दिखाई देता था, तो वह था कुन्डे की भाँति फूला पेट। हाथ, पैर और मुँह पर सूजन आ गई थी । अब वह चल-फिर न सकता था । दिन में सुखिया पयाल बिछाकर धूप में उसे सुला देती थी; रात में वह पिस्सू-भरे घर के भीतर गुदड़ी के नीचे पड़ा रहता था ।

सतमी का चित्त बहुत आशंकित हो रहा था । उसने अभी पिछले ही साल ब्राह्मण के लड़के धनपत को इन्हीं लक्षणों से मरते देखा था । गाँव में जिस किसी ने जो कुछ अडूस, कराजीरी कड़वी-से-कड़वी दवा पिलाने को कहा, उसे सतमी ने समझा-बुझाकर सुद्धू को पिलाया, लेकिन कुछ लाभ न हुआ । एक आदमी ने कुनैन की तारीफ की। सतमी ने डबडबाई आँखों से गिड़गिड़ाते हुए परोसिन ब्राह्मणी से कहा - "बहिनी, एक आना पैसा कहीं से उधार दो, सुद्धू को कुनैन लाकर दूंगी। जी जायगा, तो तुम्हारा हलवाही करेगा ।" ब्राह्मणी ने चुपके से एक आना पैसा दे दिया । सतमी स्वयं ही रानी की सराय जा डाकखाने से कुनैन खरीद लाई । सुद्धू को कुनैन से फायदा जरूर हुआ, और दो सप्ताह के लिए बुखार छूट गया; लेकिन पीछे बुखार फिर शुरू हो गया । धीरे-धीरे अवस्था बिगड़ती गई । सतमी कुनैन खरीदने के लिए और पैसा कहाँ से लाये ? उसने सब कुछ राम पर छोड़ दिया ।

माघ के समाप्त होते-होते सुद्धू मर गया। लोगों ने ले जाकर उसे नाले में गाड़ दिया । सतमी 'हाय सुद्धू !' 'हाय सुद्धू!' करती महीनों रोती रही । सुद्धू के लिए अच्छा ही हुआ । दुनिया में आकर उसने क्या सुख देखा ?

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पिछले साल जो दशा सुद्धू की हुई, दूसरे साल वही हालत मद्धू की हुई । वह भी तीन मास जड़ैया में घुलकर मर गया ।

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बुद्धू सत्रह वर्ष का था । पिछले साल उसने मालिक का हल पकड़ा था । मा-बहन भी कुछ मजदूरी कर लाती थीं । सन्तू लोगों का गोरु चराता था; इस तरह सतमी को अब अच्छे दिनों की आशा हो चली थी, लेकिन भाग्य को यह मंजूर न था । अब की जड़ैया ने को पकड़ा। और ऐसे ज़ोर से कि कार्तिक में रबी की फ़सल बोने के समय वह मालिकों के खेत पर न जा सका । ब्राह्मण होने से हल छूने में बेचारों का धर्म जाता था । बड़ी मुश्किल से जहाँ-तहाँ से मदद लेकर अगहन के अन्त तक उन्होंने अपना खेत बोया । बुद्धू की हालत खराब होती गई । सतमी ने मालिक से पैसा उधार ले-ले दो-तीन बार कुनैन लाकर बुद्धू को दिया; लेकिन बीमारी ने कुछ न सुना । पूस के अन्त तक बुद्धू भी चल बसा ।

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बुद्धू के मरने के दो साल बाद सन्तू ने भी उसका अनुसरण किया । सतमी सुखिया के साथ जीती रही, लेकिन उसकी हालत अब आधे पागल-सी थी । रात और दिन जिस समय, उसे अपने बच्चे याद आते; वह विलापकर रोने लगती थी - "हाय बुद्धू ! क्या पिसाई करके तुम्हें इसीलिए पाला था । तुम मुझे धोखा देकर चले गये ! हाय, मैं कितनी निर्लज हूँ । अपने चार बेटों को खाकर अब भी बैठी हूँ । हाय, दैव मुझे काहे नहीं उठा लेते ।”

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