सारांश (मराठी कहानी) : शुभांगी भड़भड़े
Saransh (Marathi Story) : Shubhangi Bhadbhade
शाम ढल गई थी। आस-पास के बँगलों
से टी-वी की आवाजें आने लगीं। रात के अँधेरे में कदम तेजी से
बढ़ रहे थे, पर अभी तक विनायक राव लौटे नहीं थे। मालती बाई कभी
अंदर, कभी बाहर चक्कर लगा-लगाकर थक गई थीं। घड़ी की सुई की
भाँति नियमित समय पर लौटने वाले विनायक राव अभी तक क्यों नहीं
लौटे भला?"
चिंता से मालती बाई का दिल बैठने लगा। नाना प्रकार के
विचार-कुविचार मन को मथने लगे। "आँखों में मोतियाबिंद है। कहीं
ठोकर..."
विचारों का बवंडर खड़ा हो गया। मालती बाई फोन के पास जाकर खड़ी
हो गई। चार बँगले छोड़कर ही तो सुनीता का घर था। अब तो सुनीता
के घर भी फोन लग गया था। क्यों न उसे फोन करूँ, मालती बाई ने
हाथ बढ़ाया पर रिसीवर उठाया नहीं।
"नहीं, सुनीता को क्यों हमेशा तंग करूँ, अपनी समस्या अपने आप
ही हल करनी चाहिए। इतना भी क्या दूसरों पर निर्भर होना, आ
जाएँगे विनायक राव। अभी कौन आधी रात हुई है।" उन्होंने खुद को
समझाया।
कुछ देर पहले प्रकाश आकर पूछताछ कर गया था, "मौसी, अकेली हो
क्या, आए नहीं काका?"
"अरे कहाँ आए, इन पेंशनरों की गप्पें खत्म हों तब ना," मालती
बाई सहज होने का प्रयास कर रही थीं।
तभी प्रकाश ने बात का रुख बदला, "मौसी कल किराना ले आऊँगा, ठीक
है न, और दवाइयाँ भी लानी होंगी। वह भी लिस्ट दे दो। कल सुबह
एक काम से जल्दी जाना है। कल आना न होगा इधर।"
मालती बाई ने लिस्ट और पैसे पकड़ा दिए। प्रकाश उनकी हर जरूरत का
ध्यान रखता है और अविनाश रोज ही वर्कशॉप से फोन करता है,
"मौसी, क्या बनाया है आज, वाह, करेले की सब्जी, गुड़ और इमली
वाली, मौसी मेरे लिए रखना, थोड़ी नहीं, कटोरा भरकर, बस, मैं
तृप्त हो जाऊँ तो समझो स्वर्ग में स्थान बन गया तुम्हारा।"
शरारती कहीं का, मालती बाई उत्तर में फोन पर ही झाड़ देतीं,
"पेटू कहीं का, वर्कशाप में ध्यान है या खाने में?"
पर फोन रखकर प्रसन्न मुद्रा में काम में लग जातीं। कभी-कभी
आँखें भर आतीं और विनायक राव भी चोरी से आँखों के कोने पोंछते
हुए कमरे से निकल जाते।
"दो बच्चों का बाप है तू, पर है अभी छोटा ही, "मालती बाई प्यार
से फटकारती।
रात को सोने से पहले फिर एक बारगी फोन बजता और अविनाश का गंभीर
स्वर फिर मन को मथ देता, "मौसी, सारी बत्तियाँ बुझा दीं न,
पिछले दरवाजे की कुंडी भी लगा ली न, और हाँ, दवाइयाँ खा लीं?
काका के पलंग के पास ही पानी का लोटा रख देना। और नींद न आए तो
कंपोज खा लेना। और अगर कुछ जरूरत पड़े तो फोन कर देना।" इतनी
सारी प्यार भरी ताकीदें करीब रोज रात को मिलतीं।
मालती बाई ने एक बार फिर घड़ी देखी और विचारों का ताँता टूट
गया। नौ बज गए थे। विनायक राव अभी तक आए नहीं थे। घबराहट में
मालती बाई उठीं और फोन की ओर लपकीं तो पैर का अँगूठा मुड़ गया।
दर्द की कसक उठी और तेजी से दिमाग को झनझना गई। नीचे बैठकर
अँगूठा कसकर पकड़ा। तिलमिला उठीं। गुस्सा भी आया विनायक राव पर,
"आखिर इतनी तो समझ होनी चाहिए इन्हें। मैं अकेली यहाँ चिंता कर
रही हूँगी। न जाने क्या बतियाते रहते हैं ये पुरुष।"
पल में गुस्से का स्थान चिंता ने ले लिया, "न जाने क्या हुआ
है, सिरदर्द भी था सुबह। कहीं कुछ..." विचारों ने झकझोर दिया।
"कहीं चले तो नहीं गए होंगे घर छोड़ के, कुछ दिनों से मन
अस्वस्थ था। कह रहे थे, चला जाऊँगा, कहीं भी...कभी भी..." और
मालती बाई सिहर उठीं, "कहीं चले गए होंगे तो, कहाँ ढूँढ़ेंगे
इतनी रात गए?"
तभी गैस पर रखी खिचड़ी जलने की बास आई और मालती बाई रसोई में
गईं। दो मुठ्ठी दाल-चावल की खिचड़ी जलकर काली हो गई थी। वह
झुँझला गईं। न तो अब कुछ पकाने की इच्छा है? न हिम्मत।
आवश्यकता भी नहीं। दो बूढ़ी जानें...खाएँगी भी कितना, जब बच्चे
थे तब कितना रसोई का काम होता था। खत्म ही नहीं होता था।
इतने में विनायक राव आ गए। मालती बाई उनके पास सोफे पर बैठ गई,
"आज कितनी देर कर दी, कहाँ थे?"
"सोनाली बीमार थी। वहीं गया था।"
"सोनाली, कौन सोनाली?"
"वही देशपांडे की सोनाली, "विनायक राव बोल तो गए पर याद आया कि
उन्होंने पत्नी से कभी सोनाली का जिक्र नहीं किया था।
"आपका, उसका भला क्या संबंध है?"
"मानो तो बहुत गहरा संबंध है और कहो तो कुछ नहीं।"
"मतलब?"
"मालती, सोनाली में मुझे अपनी स्वीटी दिखती है, बस, एक दिन
आनंद पार्क में बैठा था। बच्चे छुपन-छुपाई खेल रहे थे। तभी
छह-सात वर्ष की एक बच्ची दौड़ती हुई आई और बोली, "दादाजी, मैं
आपके पीछे छुप रही हूँ, बताना नहीं।" अपना कोट मेरे ऊपर डाल
दो।" बस, यही लगा, हमारी स्वीटी मुझे मिल गईं। मैं बच्ची में
रम गया। सुबह अपनी सैर का समय मैंने उसके स्कूल के समय पर कर
लिया। शाम को पार्क में दो-तीन घंटे कैसे बीतते हैं, पता तक
नहीं लगता।"
"आपने मुझे नहीं बताया" मालती बाई ने शिकायत के स्वर में कहा।
विनायक राव ने बात बदली, "बड़ी भूख लगी है। खिचड़ी तैयार है?"
"पहले बताओ, आप आज वहाँ क्यों गए?"
"सोनाली को बुखार था। पता लगा तो चला गया। वह भी जिद कर रही थी
कि 'दादाजी को बुलाओ। मुझसे रहा नहीं गया।"
"सो तो ठीक है पर मुझे भनक तक नहीं पड़ने दी आपने। ऐसा क्यों?"
मालती बाई का स्वर रुआँसा था। विनायक राव ने जवाब नहीं दिया, न
ही मालती बाई ने दोबारा जवाब माँगा।
रात को हमेशा की तरह अविनाश का फोन आया तो मालती बाई उदास स्वर
में बोलीं, "अरे अविनाश, सब कुछ पास रख लिया है, टार्च, पानी,
दवाइयाँ सब, पर जब नजदीक के लोग ही दूर हो जाएँ तब मन टूट जाता
है। जीवन का सारांश निकल जाए तो हाथ में शून्य ही आता है। है
न, तब लगता है, सारा गणित गलत हो गया है। गलती किसकी थी, पता
नहीं, गरुड़-उड़ान सिखाने वाले की या स्वप्नों का जादू बिखेरने
वाले की।"
"मौसी, "अविनाश का गंभीर स्वर फोन पर गूँजा, "मौसी, तुम्हारी
आँखों में आँसू हैं न, पहले आँखें पोंछो, पोंछो पहले आँखें,
देखो मौसी, न गरुड़-उड़ान बुरी है, न स्वप्न बुरे हैं। तुम्हें
आजकल सब कुछ विह्वल करता है क्योंकि तुम्हारी अपनी तबीयत ठीक
नहीं रहती।"
"बेटा, जीवन में जमा-घटा तो चलता ही है, जानती हूँ, पर मन इसी
में उलझ जाता है और यादें मन से चिपक जाती हैं, बस।"
"चलो, अब माला उठाओ और जप करो।" अविनाश ने आदेश भरे स्वर में
कहा।
"माला पकड़ने से यादें चली जाएँगी क्या, बेटा, इधर उँगलियाँ तो
एक-एक मनका सरकाती हैं, मुख भी श्रीराम का नाम लेता है पर मन
भटकता रहता है। हम आम लोग शरीर से मन को अलग नहीं कर पाते।"
"आज क्या हो गया है तुम्हें, मौसी, कहो तो मैं आऊँ।" अब अविनाश
के स्वर में चिंता थी।
"नहीं रे, बच्चे, शांति से सो जा। हुआ कुछ नहीं, बस तुम्हारे
काका शाम को देर गए लौटे तो मूड ही खराब हो गया मेरा। अच्छा,
आज उर्मिला दिखी नहीं," मालती बाई ने बात का रुख बदल दिया।
"मायके गई है। मौसी, तुम एक बार समझा तो दो उसे, कहो कि
'अविनाश का ध्यान रखा करे वह।" अविनाश ने शिकायत के स्वर में
कहा।
"अच्छा, बाबा, कह दूँगी। तुम्हारी माँ डाँटती नहीं उसे?"
"माँ? अरे, दोनों बहुएँ माँ की जान हैं। हम दोनों भाइयों को
डाँटती रहती है, पर बहुओं को, न बाबा न। अब मौसी तुम्हारे बिना
हम दो बेचारे भाइयों को तारने वाला कौन है भला?"
अविनाश ने तो हँसी-मजाक के स्वर में वातावरण को हल्का करने का
प्रयत्न किया पर मालती बाई का मन भारी हो गया। सुनीता की बहुओं
को डाँटने का अधिकार अविनाश और प्रकाश सहज ही दे जाते हैं। पर
अपना मिलिंद, अपनी मनीषा?"
मालती बाई को याद आया जब सुनीता की शादी तय हुई थी तब युवा
मालती ने लपककर कहा था, "इतनी जल्दी शादी, सुनीता, पढ़ाई तो
पूरी कर ले। फिर शादी भी स्कूल मास्टर से, मना कर दे सुनीता।"
"मालती, जो पिताजी ने तय किया है वह स्वीकार करना पड़ेगा। मैं
मना नहीं कर सकती। हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं फिर भी,
मालती, तेरे सुख-स्वप्न, तेरी ऊँची उड़ान कभी मैं अपना न सकी,"
सुनीता ने कहा था।
सुनीता घर-गृहस्थी में फँस गई। मालती ने एम.एससी. की और
लेक्चरर लग गई। वह हमेशा कहती , खाना बनाना, परोसना,
बर्तन-भाँडे माँजना यही तो औरत का जीवन नहीं है, "मुझे स्वप्न
साकार करने हैं।" मालती कहती। स्वप्न होंगे तभी साकार होंगे न,
पर स्वप्नों की कीमत चुकानी पड़ती है, यह नहीं जाना मालती ने।
मालती कैरियर के पीछे भागी, सुनीता उस दौड़ में पिछड़ गई।
घर-गृहस्थी के चक्कर भी अजीब होते हैं। सुनीता ने भी एम.एससी.
का फार्म भरा था, पर उतने में सासू जी बीमार पड़ गईं। दूसरे साल
देवर की शादी और त्यौहारों ने चैन न लेने दिया। तीसरे वर्ष
स्वयं गर्भवती हो गई और तब सुनीता ने पढ़ाई का ख्याल ही छोड़
दिया।
मालती की अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं। वह कहती, "सुनीता, जीवन
में अपना मार्ग खुद तय करना पड़ता है। नियति को बदलने की
सामर्थ्य हमारे हाथ में होती है। प्रबल इच्छा और दृढ़
इच्छाशक्ति हो तो सब संभव है।"
सुनीता अपनी गृहस्थी में मग्न थी। तीन बच्चे थे, सादा जीवन था।
तंगी भी थी। मालती देखती तो उसे तरस आता सुनीता पर। स्वयं
मालती को इंजीनियर पति मिला और वह विवाह-सूत्र में बँध गई।
सुनीता कहती, "तू भाग्यवान है, मालती, जो चाहा मिला। तेरा अपने
आप पर विश्वास देख मेरा सिर अभिमान से ऊँचा उठता है।"
"मेरे माता-पिता ने मेरी सुनी और मैं यहाँ पहुँची। अब पति
सुनेंगे तो मैं और आगे बढूँगी।" मालती ने कहा।
"पुरुष सब कुछ नहीं सुनते, मालती, वह भी पत्नी की, भूल जाओ।
गृहस्थी में पति का हिस्सा बहुत बड़ा होता है। सुनना और मानना
तो स्त्री को पड़ता है, पुरुष को नहीं।" सुनीता पते की बात कहती
तो मालती मुँह बिचकाकर चली जाती।
जीवन अपने ढाँचे में बँधता चला गया। मिलिंद आया, फिर मनीषा। पर
मालती की महत्वाकांक्षाएँ आसमान को छूना चाहती थीं।
आज मुड़कर देखा तो मालती बाई का मन भर आया, "मेरी असीम
महत्वाकांक्षाओं ने आज यह दिन दिखाया है। जन्मघूँटी के साथ ही
मैंने मिलिंद-मनीषा को गरुड़-उड़ान के स्वप्न दिए। जमीन पर पाँव
ही रखने नहीं दिया। आज वह उड़ गए तो भूल-चूक किसकी है?"
मालती बाई को याद आया, बँगले के आँगन में घास उगी थी। माली आया
नहीं तो विनायक राव खुरपी लेकर आए और बच्चों को पुकारकर बोले,
"चलो, मिलिंद-मनीषा, आज घास साफ करके फूल बोते हैं। माली नहीं
आया तो क्या, हम स्वयं अपना आँगन फूलों से भर देंगे, बिल्कुल
सुनीता मौसी जैसा।"
सुना तो मालती बिगड़ पड़ी, "जिंदगी में अपना अस्तित्व भूलकर जीने
वाले ध्येय शून्य व्यक्तियों में से एक आप हैं। सुनीता के
बगीचे का उदाहरण मुझे मत दो। किसकी प्रशंसा करनी चाहिए, यह भी
पता होना चाहिए। मिट्टी में चार पौधे उगाने के लिए अक्ल की
जरूरत नहीं। मेरे बच्चे मिट्टी में ऐसा काम नहीं करेंगे। कभी
नहीं।"
"मालती, जिस मिट्टी पर हम खड़े रहते हैं उसी मिट्टी को तुम नकार
रही हो। इसी मिट्टी के लिए लोग जिए हैं और इसी की खातिर मरे
हैं। इस मिट्टी पर साम्राज्य खड़े हुए और गिरे। मिट्टी मतलब..."
"मिट्टी मतलब मिट्टी ही। आकाश नहीं।" मालती ने विनायक राव की
बात काटी।
"अरे, मिट्टी से ही सुगंध आती है, मालती, आकाश से नहीं।"
मालती सर को झटका देकर चली गई। विनायक राव की फजूल की फिलासफी
में उसे रुचि नहीं थी। ऐसी खटपट लगभग रोज होती और जीत मालती की
ही होती। मिलिंद को स्कूल में दाखिला करवाना था। विनायक राव
अपनी संस्कृति से जुड़े किसी स्कूल में डालना चाहते थे तो मालती
अंग्रेजी स्कूल में।
"मुझे तो भाई अच्छा लगता है कि बच्चे संस्कृत श्लोक बोलें,
मराठी कविता-पाठ करें। आखिर अपनी संस्कृति को हमें ही सजाना
है।" विनायक राव बोले।
मालती ने व्यंग्य कसा "आप भी तो जाने किस युग में जी रहे हैं,
आखिर जेट-एज है मिस्टर।"
"मैं तो सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि नर्सरी की बजाय बाल-मंदिर
में डालते हैं मिलिंद को। अब मैं नहीं बना इंजीनियर, मैं
कौन-सा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा हूँ?"
"इंजीनियर ही न, ऐसा क्या कर लिया आपने?"
विनायक राव चुप रहे। जानते थे, मालती की जिद के आगे जिरह करना
व्यर्थ है। मालती को विनायक राव काई लगे, जंग लगे, पुराने से
लगते थे। कहीं कोई तालमेल नहीं था। सुर-बेसुर थे।
इधर मालती की पदवियाँ बढ़ती गईं। स्कूल की जूनियर लेक्चरर से
कालेज लेक्चरर बनी, फिर प्राचार्या। गुण थे, वक्तृत्व था और
व्यक्तित्व भी। गुणों के साथ-साथ तड़प थी ऊँची उड़ान की।
आकांक्षा के गुब्बारे आसमान छू रहे थे।
उधर मिलिंद नर्सरी से कॉन्वेंट में गया। होस्टल में रहकर पढ़ा।
डॉक्टर बना और विदेश जाने की तैयारी में लग गया। मालती का सिर
अभिमान से ऊँचा हो उठता था। मनीषा ने चित्रकारी में महारत
हासिल की। जे-जे-स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़ी। उम्दा पेंटर बनी।
अभी पढ़ ही रही थी कि जे-जे-स्कूल में पढ़ने वाले स्विट्जरलैंड
के अपने साथी के प्रेम में पड़ गई। विनायक राव बिफर पड़े, "प्रेम
विवाह के लिए मेरा विरोध नहीं है। पर वह किस मिट्टी में बोया
जाए, इसकी पहचान, मनीषा, तुम्हें होनी चाहिए थी।"
"पर बाबा, प्रेम कुछ देखकर थोड़े ही होता है।"
"ठीक है बेटी, पर डर है, इस उम्र का प्रेम कहीं तुम्हें फँसा न
दे। दो अलग संस्कृतियाँ, क्या सँभाल पाओगी उन्हें, तुम
स्विट्जरलैंड चली जाओगी तो?"
मालती सुन रही थी बाप-बेटी का संवाद। कड़वाहट से बोली, "मनीषा,
तुम्हारे बाबा प्रेम के विरुद्ध नहीं हैं, पर आदमी भारतीय होना
चाहिए। जो भारतीय है वही मनुष्य है तो और क्या जानवर हैं,
सुनो, आपकी बेटी मनुष्य से प्यार करती है। स्विट्जरलैंड गई तो
क्या बिगड़ेगा, हवाई जहाज का किराया खर्च करेगा तुम्हारा दामाद।
और मनीषा में भी हिम्मत है। अपने कृतित्व से आकाश के रंग
बदलेगी वह।"
"आकाश के रंग बदलने वाली वह चित्रकार है, मैं जानता हूँ मालती,
पर आकाश तो केवल सत्य का आभास है, सत्य नहीं है।"
उस दिन बात यहीं समाप्त हुई पर हुआ वही जो मालती और मनीषा ने
चाहा।
जिस दिन मनीषा पति के साथ स्विट्जरलैंड के लिए रवाना हुई, उस
दिन मालती को लगा जैसे उसने आसमान छू लिया हो। विनायक राव मगर
रो पड़े थे।
कभी-कभी विनायक राव को खुद पर रंज होता। दफ्तर में तेज-तर्रार,
कड़े अनुशासक, घर में हथियार डाल देते थे। कई बार सोचते, "क्यों
झुका मैं मालती की जिद के आगे, क्यों भरने दी बच्चों को गगन-
उड़ान," वैसे उड़ान भरना तो बुरा नहीं है पर यह भूलना भी तो
सरासर गलत है कि उड़ान भरने पर पाँव तले की धरती छूट जाती है।
जब मिलिंद को पंचगणी होस्टेल में भेजना था, तब भी उन्होंने
विरोध किया था।
"इतने छोटे बच्चे को माँ-बाप से दूर भेजना ठीक नहीं, "
उन्होंने कहा था।
मालती ने तब भी कटाक्ष किया था, "आप अपनी नौकरी की चक्की में
ऐसे बँधे हैं कि विस्तृत दुनिया के कर्तृत्व के पंख लगाकर उड़ने
वाले पक्षियों की उमंग आपकी पकड़ से बाहर हो गई है।"
और मिलिंद को पंचगणी भेजा गया।
विनायक राव कई बार सुनीता के घर की रौनक देखकर अपने घर की
चुप्पी से घबरा जाते। वहाँ बच्चों का झगड़ना, माँ के गले आकर
लिपटना, इकठ्ठे बैठकर खाना खाना, गणेश पूजा, नवरात्र आदि की
धूमधाम रहती। विनायक राव के मन को सब बड़ा लुभाने वाला था।
परंतु मालती को यह सब 'ढकोसला' बुरा लगता। अपनी बचपन की सखी
मूर्ख लगती, उसके पति व बच्चे गँवार लगते। चार मकान छोड़कर ही
था सुनीता का घर उनके घर से, पर मालती को भला वहाँ जाना कहाँ
भाता था?"
सुनीता और उसका परिवार मालती के प्रशंसक थे। सीधे-सादे वे लोग
मालती की ऊँची उड़ान देखकर विभोर हो जाते। मालती भी कभी-कभार
उनके घर चली जाती, खासकर जब बच्चों को कोई पुरस्कार मिलता या
उसे कोई सम्मान मिलता।
मालती की महत्वाकांक्षाएँ देखकर विनायक राव कहते, "सच, मैं तो
एक साधारण आदमी हूँ। छोटी-छोटी कामनाएँ हैं मेरी। तुम्हारा,
तुम्हारे बच्चों का राजमार्ग ही सही, पर छोटी-सी पगडंडी पर
पुरानी यादें लिए चलना ही जीवन है।"
मिलिंद अमेरिका जाने लगा तब भी विनायक राव ने विरोध किया।
"पाँच वर्ष का था मिलिंद, तब से उसे बाहर भेजा है। अब उसे घर
आने दो। मालती, घर को घर लगने दो। देखो, मालती, एम-एस, यहाँ
रहकर भी हो सकती है। अपने बँगले की बाईं ओर बड़ा क्लिनिक खोल
देंगे। बहू आएगी। नाती-पोती होंगे। हमारे इस बड़े बँगले में
रौनक हो जाएगी।"
पर मालती ने सुनी-अनसुनी कर दी।
उसी दिन संध्या समय अविनाश और प्रकाश आए। उनका छोटा भाई
इंजीनियर बन गया था। मिठाई लेकर आए थे।
"क्या करने की सोची है सतीश ने?" विनायक राव ने पूछा।
"बाबा कहते हैं कि तीनों भाई मिलकर वर्कशाप खोलो। पहले ग्रिल
वेल्डिंग की मशीन लेंगे फिर लेथ और कटिंग आदि मशीनें लेकर धंधा
बढ़ाएँगे।"
मालती खिलखिलाकर हँस पड़ी। दीवान पर गाव-तकिये से टिककर बैठी
मालती किसी सम्राज्ञी की भाँति तेजपुंज लग रही थी। चेहरे पर
बुद्धि और कर्तृत्व की चमक थी।
"अरे, तुम इंजीनियर हो। टर्नर, फिटर, वेल्डर ग्रिल का काम करते
हैं। तुम लोग अपनी डिग्रियाँ व्यर्थ गँवाओगे।"
"क्यों, मौसी?"
"क्योंकि बिजनेस करना इतना आसान नहीं है। मार्केट कैप्चर कैसे
करोगे इतनी जल्दी?"
"हम तीन हैं, मौसी, मिलकर कर लेंगे।" अविनाश बोला।
"पर परिवार का पेट भरे, इतना पैसा तो मिलना चाहिए।"
"फैक्ट्री डालने के लिए पैसे चाहिए, मौसी, मैं पहले किसी बड़ी
कंपनी का एनसीलरी यूनिट माँगूँगा।"
"तो लोन ले लो। फैक्ट्री डालो।"
"लोन के लिए भी अपने पास निजी पूँजी होनी चाहिए न।"
"तुम्हारे पास उतना भी नहीं है तो तुम्हारा बिजनेस क्या
चलेगा?" मालती व्यंग्य करती बोली।
"मौसी, मन में श्रद्धा हो, बड़ों का आशीर्वाद हो और परिश्रम
करने की ठानी हो तो सब सरल हो जाता है।"
"ठीक है, बेटा," विनायक राव बोले। नौकरी करो या बिजनेस, पर
माँ-बाप को छोड़कर मत जाना।"
मालती को यह बात अच्छी नहीं लगी। कई बार विनायक राव और मालती
सुनीता के घर जाते। पुरुषों की इधर-उधर की बातें चलतीं, तो
मालती और सुनीता बच्चों को लेकर बतियाती। बहुधा मालती ही बतिया
रही होती थी क्योंकि मिलिंद और मनीषा के उत्कर्ष की हर खबर
सुनीता को देकर अपना गर्व-मिश्रित आनंद व्यक्त करना मालती का
स्वभाव बन चुका था। सुनीता भी उसकी खुशी में सहर्ष शामिल होती
थी।
उस दिन भी दोनों सुनीता के घर बैठे थे कि अविनाश जल्दी-जल्दी
आया। उसने इन दोनों को शायद देखा ही नहीं। आते ही बोला,
"माँ-बाबा, जल्दी तैयार हो जाओ। नाटक की चार टिकटें बड़ी
मुश्किल से मिली हैं। बस पाँच मिनट में चलो।"
सुनीता तैयार होने को उठी पर मालती की मनीषा-मिलिंद की कहानी
खत्म होने को न थी। इधर अविनाश अधीर हो गया था।
लौटते समय मालती चुप थी। विनायक राव बोले, "अविनाश की
चुलबुलाहट देखकर मिलिंद का ध्यान आ गया। वह होता...तो। पिछले
दो सालों से मिलिंद से मुलाकात फोटो में ही होती है। पंचगणी से
मुंबई गया, फिर अमेरिका। गिन कर दस-पाँच मुलाकातें।"
अब की बार मालती ने पति की बात काटी नहीं।
रात को मिलिंद का फोन आया, "माँ, मैं सेटल हो गया हूँ, आपकी
इच्छा के मुताबिक हर महीने तीन हजार भेजूँगा। और हाँ, आप दोनों
तबियत का ध्यान रखना। बिल्कुल लापरवाही नहीं करना। और हाँ, एक
बात और। हर महीने की तीन तारीख को मैं आप दोनों को फोन किया
करूँगा।"
"सो तो ठीक है, बेटा। पर सुनो, इतने पैसों का हम क्या करेंगे?"
मालती बाई आनंदित होकर बोलीं।
"रहने दो न माँ, ना मत करो।" और फोन कट गया।
दूसरे ही दिन मालती ने सुनीता को फोन पर खुशखबरी दी।
"तीन हजार भेजेगा?" वह गर्व से बोली।
अविनाश और प्रकाश की शादियाँ तय हुई। सुनीता का घर मेहमानों से
भर गया। मालती के मन में भी मिलिंद की शादी को लेकर बातें उठने
लगीं। विनायक राव से बोलीं, "देखना, मिलिंद की शादी कैसे
ठाठ-बाट से होगी।"
रात देर गए शादी से लौटे तो फोन की घंटी बज रही थी। मालती बाई
ने लपककर रिसीवर उठाया और मिलिंद को अविनाश व प्रकाश की
शादियाँ होने की खबर दी। फिर बोली, "उनकी शादी तय होने में बड़ी
देर लगेगी। पैसा नहीं है, बिजनेस अभी सँभला नहीं है। लड़कियाँ
भी कौन देगा, पर मिलिंद, तुम्हारे लिए तो अभी से रिश्ते आ रहे
हैं। तुम आ जाओ तो बात पक्की करें। सोचती हूँ, परदेस में साथ
हो जाएगा पत्नी का।"
उधर से मिलिंद के हँसने का स्वर आया और वह बोला, "मेरे पत्र का
इंतजार करो, माँ।"
पत्र आने में आठ दस दिन लग गए। मालती बाई के पाँव जमीन पर टिक
नहीं रहे थे। कैसी साड़ियाँ लूँ, गहने कौन से लें, लड़की कैसी
हो, कितनी पढ़ी-लिखी हो, डाक्टर हो या इंजीनियर, आखिर मिलिंद
सर्जन था, अमेरिका में पढ़ा था, पत्नी तो अति सुंदर होनी चाहिए।
मालती लगभग रोज ही इस विषय पर चर्चा करती और विनायक राव भी
खुशी से चर्चा में भाग लेते थे।
सुनीता की बहुएँ देखने में साधारण थीं, पढ़ी-लिखी भी अधिक नहीं
थीं। पर थीं सुशील। मालती और विनायक राव के चरण छूने आईं तो
दोनों विह्वल हो गए।
उस रात अचानक मनीषा का फोन आया। वह अपने चित्रकार पति को तलाक
देकर मुक्त हो गई हैं। विनायक राव ने कहा, "घर लौट आ, बेटी,"
तो बोली, "बाबा, यहाँ मेरे चित्रों की प्रदर्शनी लगी है और
समाचार पत्रों ने भी खूब प्रशंसा की है मेरी कला की। मेरा नाम
दूर-दूर तक फैला है। मैं अभी लौटना नहीं चाहती। और मुझे अकेले
रहने में भी कोई प्रॉब्लम नहीं है। फिर शादी के झमेले में मैं
अभी पड़ना नहीं चाहती। स्वतंत्र गरुड़-उड़ान की आदत हो गई है न?"
विनायक राव विष का घूँट पीकर रह गए। अब रिटायरमेंट के बाद
अकेलापन और अखरने लगा था।
एक दिन अविनाश आया और चरण छूकर बोला, "काका, एक विनती लेकर आया
हूँ।"
"कहो।"
"मेरी फैक्ट्री में यदि एक घंटा मेरा मार्गदर्शन आप करें तो
मेरी मेहनत सफल हो जाएगी।"
विनायक राव एकदम मान गए।
"पिछले आठ-दस महीनों से खाली घर मुझे काट रहा था। मैं अवश्य
आऊँगा।"
उनका समय फैक्ट्री में कटने लगा और मालती बाई चिठ्ठी की
प्रतीक्षा में। मिलिंद की चिठ्ठी आई और मालती बाई टूट गईं।
उन्होंने अपने को सँभाला तो सही पर विनायक राव ने उनकी टूटन को
महसूस किया। फिर भी मालती बाई रोजी-मिलिंद की फोटो लेकर सुनीता
के पास गईं। उसे फोटो दिखाई। उसने प्रशंसा की तो मालती बाई को
राहत मिली। विनायक राव ने फोटो देखकर कहा, "भई, हमें तो अच्छी
लगी आपकी बहू। आखिर मेरे बेटे ने प्रेम किया है। दूसरे देश की
ही सही, वह भी तो मनुष्य है।"
और मालती बाई सुनती रही। उन्हीं के शब्द थे।
उस रात उन्होंने फोन किया। मिलिंद, रोजी को भारत बुलाया तो
मिलिंद बोला, "संभव नहीं हैं, बाबा, रोजी की डिलीवरी हुई है।"
"तो बताया नहीं तुमने?"
"ऐसी छोटी-छोटी बातें, वैसे स्वीटी की फोटो भेज दी है।"
"तुम्हारी माँ की इच्छा थी गोद भराई की रस्म करने की।"
"ये रस्में वगैरह क्या करनी हैं, बाबा, यहाँ दिन इतना बिजी
होता है कि आपको फोन करने की भी याद रखनी पड़ती है।" कहा तो सहज
ही मिलिंद ने, पर विनायक राव का चेहरा उतर गया। फोन एकदम से रख
दिया।
उनके चेहरे के भाव पढ़कर मालती बाई ने पूछा, "क्या हुआ?"
"कुछ नहीं, टेंशन हो गया।"
"रोजी प्रेग्नेंट है ना, फिर तो जाना चाहिए।" मालती बाई ने
जान-बूझकर उत्साह दिखाया।
"अरे, रोजी ने फूल-सी स्वीटी को जन्म दिया है।"
मालती बाई अवाक् रह गई। लगा पैरों तले की धरती खिसक गई है,
उड़ते पक्षी के पंख हवा में ही कट गए हैं।
विनायक राव कई बार सोचते हैं कि बता दूँ मालती को, "मालती,
तुमने ही उसे आकाश के स्वप्न दिए, गरुड़-उड़ान सिखाई। पर तुम
उन्हें प्रेम न सिखा पाई। प्रेम, स्नेह केवल खून के रिश्ते से
ही संबंधित हो, ऐसा नहीं है। उसके लिए साथ रहने की आवश्यकता
है। प्रेम लेन-देन है। तुमने मनीषा और मिलिंद को अपने से दूर
रखा, उन्हें निर्बंध, स्वतंत्र आकाश में उड़ना सिखाया पर उन्हें
लगाव नहीं सिखाया। अब कहाँ ढूँढोगी अपने पोते-पोतियों को,
मनीषा निर्बन्ध स्वतंत्रता लेकर अपना जीवन जी रही है। बेटा
अपने में मग्न है। मैं पार्क में जाता हूँ, सोनाली में स्वीटी
को ढूँढता हूँ। क्या पाया हमने मालती?"
पर बीमार, टूटी हुई, हतप्रभ मालती का मन दुखाने का साहस नहीं
हुआ।
पंद्रह दिन पहले मालती को हार्ट अटैक आया था। अस्पताल ले गए तो
सुनीता के घर से सभी भागे हुए आए। डाक्टर ने कहा था, "माइल्ड
है, घबराने वाली बात नहीं है। पर सुनीता, उसके पति, बेटे-बहुएँ
सभी चिंतित थे।
एक रात मिलिंद को फोन किया तो बोला, "माँ, बढ़िया से बढ़िया इलाज
करवाना, पैसे की चिंता मत करना। मैं आ तो जाता पर रोजी
प्रग्नेंट है। स्वीटी को तो 'आया' देखती है, बेबी सिटर, रोजी
के लिए मेरे सिवा कौन है, और हाँ, मनीषा ने दूसरा विवाह कर
लिया है। फोन आया था उसका।
मालती बाई ने फोन पटक दिया। मन में विचारों का बवंडर उठा।
"आकाश में उड़ान भरने का स्वप्न मैंने हिम्मत से बच्चों को
सिखाया, क्या यह गलत था? मनीषा के अस्तित्व को मान्यता दी,
विचारों की स्वतंत्रता दी, क्या यह मेरी भूल थी, बच्चे समय से
आगे दौड़ने लगे तो क्या मैं इसे अपनी गलती मानूँ? मालती बाई न
बच्चों को दोष दे सकती हैं न अपनी भूल स्वीकार करने का उनमें
साहस है। इधर विनायक राव देख रहे हैं एक प्रखर व्यक्तित्व का
ढलना।
मालती बाई आँखें मूँद लेटी हैं। सोच रही हैं, 'क्या है आखिर
जीवन का सारांश, ये गलतियाँ, ये भूलें, यह अकेलापन, यह
आत्मग्लानि, परास्त हैं वह, परकटे पंछी-सी।
(रूपांतरकार : डॉ. उषा बंदे)