सपने की सचाई (कहानी) : कोडवटिगंटि कुटुंबराव

Sapne Ki Sachai (Telugu Story in Hindi) : Kodavatiganti Kutumbarao

किसी के द्वारा जगाने का अनुभव कर जोगाराव बिस्तर पर से उठ बैठा। सारा वातावरण सुनसान है। सावधानी से देखने पर केवल लीला के साँस लेने की ध्वनि सुनाई दे रही है। निचले हॉल की घड़ी ने तीन की घंटी बजाई।

जोगाराव अपने सपने का स्मरण करते हुए पुनः बिस्तर पर लुढ़क गया। फिर से निद्रा आने की संभावना उसे प्रतीत नहीं हुई।

उसके सपने में कोई विशेषता नहीं है। न मालूम क्यों दस वर्ष के पूर्व की घटनाएँ पुनः स्वप्न में दिखाई दी हैं। कठिनाइयों से भरे वे दिन, वह झोंपडी, चारपाई और कागज की हरीकेन लालटेन! उस समय वह लीला से अपरिचित था। लीला का नाम भी उस समय नहीं जानता था तो आज स्वप्न में वह दिखाई दी। जोगाराव ने स्वप्न में उस झोंपड़ी, टूटी-फूटी चारपाई, हरीकेन लालटेन और लीला को बड़े प्रेम से देखा था। स्वप्न को देखते समय उसका मन कैसा निर्मल था!

अपनी गरीबी में जोगाराव पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कहानियाँ भेजा करता था। उसके आलोचनात्मक लेखों की प्रशंसा करनेवाले पाठक भी थे। लेखक और समीक्षक के रूप में जोगाराव ने थोड़ी सी ख्याति प्राप्त की थी। उन दिनों अपनी किसी कहानी के लिए पारिश्रमिक के रूप में पाँच रुपए 'पत्रं-पुष्पम्' प्राप्त होते तो उसे कैसा आनंद प्राप्त होता! वे पैसे जोगाराव के हाथों में जादू का खेल दिखाते। प्रतिदिन चार आने पैसों से अपना पेट कैसे भरें? कई महीनों तक यही क्रम चलता रहा। वह स्वयं ही भोजन बनाता, इसमें प्याज, मिर्च, नमक और तेल मिलाकर कुछ खाता, फिर मढे में नमक और नीबू मिला गले से नीचे उतारता—अत्यंत आनंद होता। कम पैसों में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के अन्वेषण में ही वास्तविक आनंद है। जोगाराव इस आनंद से परिचित था। परंतु कोई उसे पहचान नहीं पाया।

जोगाराव और लीला के शहर में आने के उपरांत उन्हें कई दिनों तक अच्छा भोजन उपलब्ध नहीं हुआ। चार इडली, सांबर, आधा कप कॉफी भी मिल जाती तो उसके लिए काफी था, किंतु इतना भी प्रतिदिन नसीब होना कठिन था। रात को कॅरियर में पाँच आने का भोजन मँगाकर दोनों अपना पेट भरते।

लीला सिनेतारिका बनने का स्वप्न यथार्थ होने पर भी, अपनी दूसरी कामना की पूर्ति की कल्पना जोगाराव ने कब की थी। दोनों स्वप्न साकार हुए। सत्य निकले। लेकिन जोगाराव को इस रात्रि के समय आनंद की प्राप्ति क्यों नहीं है? इस बात की वह आत्मपरीक्षा करने लगा।

जोगाराव को इस समय जो दुःखी बनानेवाली स्थिति है, उसका 'व्यथा' जैसा बड़ा भाव भी निकाला नहीं जा सकता है और न लिवर की गड़बड़ी जैसा छोटा अर्थ ही इस असंतुष्टि का कारण यदि लीला को माना जाए तो इस असंतोष को दूर करने में जोगाराव के सामने कई रास्ते हैं। लेकिन उन रास्तों का अन्वेषण करने जोगाराव आत्मवंचना नहीं कर सकता है। लीला और उसके बीच का जो संबंध है, वह पिछले तीन-चार सालों में बहुत कुछ बदल गया है। यह सत्य होते हुए भी लीला को दोष देना निरर्थक है। क्योंकि गत आठ वर्षों से वह लीला का कई प्रकार से ऋणी बना हुआ है।

लीला किसी व्यक्ति की पत्नी नहीं। वह वेश्या परिवार की है। उसके माता-पिता जीवित हैं। लेकिन उसके पिता ने लीला के साथ पिता जैसा व्यवहार नहीं किया। 12 वर्ष पूरा होने के पहले ही उसने लीला को बाजार में रखा। उसमें मानसिक वांछनाओं (भौतिक कामनाओं) के उत्पन्न होने के पूर्व ही घृणित इंद्रियानुभूति उद्भव होने के कारण वह पुरुषों के प्रति द्वेष करना मात्र जानती है। पुरुषों की मित्रता से वह अनभिज्ञ है। इस अभाव की पूर्ति जोगाराव ने की। उसके द्वारा लीला में स्त्रीत्व परिपूर्णत्व को प्राप्त हुआ। लीला ने जोगाराव के प्रभाव को पूर्ण रूप से स्वीकार ही नहीं किया, अपितु उसे इस बात का गर्व भी हुआ कि मानो विश्व का एक श्रेष्ठ पुरुष उसका अपना हो गया है। उसके ऊपर विश्वास रखकर उसके साथ नरक तक भी जाने जोगाराव ने निश्चय किया। इतना होते हुए भी लीला कभी जोगाराव के हाथ का खिलौना नहीं बनी। वह उसका प्रतिबिंब तो है ही नहीं और न लीला को अपना प्रतिबिंब बनाने का प्रयत्न ही जोगाराव ने कभी किया।

लीला को सिनेमा में अभिनय करने का अवसर प्राप्त हुआ तो वह केवल जोगाराव के प्रयत्न के कारण ही। उसने लीला के प्रति पूर्ण विश्वास का परिचय दिया। किसी-न-किसी तरह लीला को अभिनेत्री बनाने की वेदना जोगाराव के मन में न होती तो वह सफल न हुआ होता; लेकिन उसके मन में जो अटल विश्वास था कि लीला आज नहीं तो कल अवश्य एक प्रसिद्ध सिनेतारिका बन जाएगी। जोगाराव लीला को साथ में लिये हुए सिने–निर्माताओं के पीछे कभी दौड़ा नहीं, और न वह निर्माताओं के पास जाकर अनुनय-विनय के साथ गिड़गिड़ाया ही। निर्माताओं ने लीला के प्रति विश्वास प्रकट न किया तो जोगाराव ने कभी उनकी निंदा नहीं की। उसके मन में यह धारणा थी कि उसे निर्माताओं के पास ले जाने पर निर्माताओं का ही नुकसान होगा। वही अभिप्राय एक-दो निर्माताओं में भी पैदा हुआ। अस्तु, पहले लीला को एक-दो छोटे रोल मिले।

जोगाराव ने लीला को सब प्रकार की स्वतंत्रता दे रखी थी। मानवों पर लगनेवाले बंधनों में से किसी प्रकार का कोई बंधन लीला पर लागू नहीं था। स्वभाव से ही लीला विहग जैसी रही। जोगाराव ने उसे स्वतंत्रता-प्राप्त विहग बनाया।

निर्माताओं की प्रवृत्ति शिकारी जैसी होती है। वे जल्दबाजी में बंदूक दागकर चिड़िया को हाथ से जाने नहीं देते। उनकी धारणा थी कि यदि अपनी ओर से अधिक उत्सुकता न दिखाएँगे तो लीला सस्ते में मिलेगी। यदि वे अधिक उत्सुकता दिखाएँगे तो उसकी दर भी बढ़ सकती है। इसलिए सहस्रों आँखें खोले जाल लिये लीला को फँसाने के ताक में बैठे रहे। इसी में से एक निर्माता लीला को बुक करने आया। शायद उसकी 'तारिका' से अधिकाधिक रुपए ऐंठने के विचार से टाल-मटोल करना शुरू कर दिया था। कॉण्ट्रेक्ट फॉर्म पर हस्ताक्षर करते समय पूर्व निर्णय को ठुकराकर उस तारिका ने बड़ी मोटी रकम की माँग की होगी। इससे पहले उस तारिका से तीन कॉन्ट्रैक्ट फॉर्म पर हस्ताक्षर के प्रसंग आए थे। उससे तंग आकर निर्माता मोटरकार पर दौड़ेदौड़े लीला के पास गए और उससे कहा, "यह परसों मेरे द्वारा प्रारंभ किए जानेवाले पिक्चर में हीरोइन पात्र का कॉण्टैक्ट है। जिस पर केवल संख्या मात्र नहीं दी गई है। कहो, तुम कितना चाहती हो? यदि मुझे तुम्हारा काम पसंद आया तो मैं तुम जितना कहोगी, देने को तैयार हूँ, अन्यथा पिक्चर बनाना ही बंद कर दूंगा।"

कॉण्ट्रैक्ट फॉर्म लेकर जोगाराव ने लीला के हाथ में दिया और हस्ताक्षर करने की जगह की ओर संकेत करते हुए हस्ताक्षर करने को कहा।

निर्माता ने पूछा, "रकम कितनी लिखी जाए?"

लीला ने उत्तर दिया-

"आप अपने निर्णय के अनुसार दीजिए। नुकसान होने पर हमें रुपए देने की जरूरत नहीं। आप हमारे यहाँ आए हैं। हम आपके यहाँ नहीं गए हैं। कोई भी अतिथि से मोल-भाव नहीं करता।"

व्यापारी के भीतर की मानवता ने जोर मारा। मन में छह हजार से आठ हजार तक का निर्णय करनेवाले निर्माता ने अब दस हजार की रकम भरते हुए कहा, "मैं जो रकम देना चाहता था, उससे मैंने दो हजार अधिक लिखे हैं। यदि लीला मन लगाकर काम करेगी तो मेरे ये दो हजार रुपए अधिक दिए हुए वसूल होने में कोई संदेह नहीं है।"

इतने वार्तालाप के पश्चात् निर्माता ने छुट्टी ली। ताक में बैठे दो अन्य निर्माताओं ने उस निर्माता को गालियाँ दी और उन लोगों ने भी दस-दस हजार के कॉण्ट्रैक्ट लिखाए। इसके बाद वे कई दिनों तक अपनी मूर्खता पर पश्चात्ताप करते रहे।

इसके बाद लीला की उन्नति से जोगाराव का संबंध न रहा। इस वर्ष उसने छह कॉण्ट्रैक्टों पर दस्तखत किए हैं। इनमें से प्रत्येक तीस हजार रुपए का है। पिछले साल ही एक लाख रुपए लगाकर यह भवन खड़ा करवाया है। इसमें जोगाराव का कोई हाथ नहीं है। इन दो-तीन वर्षों में सवाक् चित्रपट पर लीला के सौंदर्य का खूब विकास हुआ। लीला का अभिनय दिन दूना रात चौगुना सफल होता रहा। किंतु उसकी इस उन्नति का मैकपमैन, फोटोग्राफर, दर्शक, प्ले-बैक-गायक, सिनेरियो, लेखक इत्यादि के सहयोग में है। इसमें जोगाराव का हाथ बिल्कुल नहीं है।

सिनेमा-संसार में अपने पैर मजबूती के साथ जमाने के बाद लीला कई विषयों में पहले की अपेक्षा पीछे रह गई। उसने भगवान वेंकटेश्वरस्वामी की (बालाजी) मनौतियाँ पूरी की। अभिषेक कराया। पिछले दो-तीन सालों से दो-तीन ज्योतिषियों का पोषण कर रही है। इन सबके अलावा अपनी उन्नति में योग देनेवालों की कृतज्ञता और अपनी उन्नति में बाधा उपस्थित करनेवालों पर विजय भी वह अपने ही परिश्रम से प्राप्त कर रही है।

लीला को देखकर जलनेवाले और उसके पतन की कामना करनेवाले भी उसके बारे में दूषित प्रचार कर रहे हैं। उसे डरा-धमकाकर भी जो लोग उससे रुपए ऐंठ नहीं पा रहे, वे पत्र-पत्रिकाओं में उसकी निंदा करने लगे हैं। लीला इन सब परिस्थितियों से घबरा गई। लेकिन जोगाराव उसे बराबर धीरज बँधाता रहा।

वह कहता-“तुम्हारे पेशे में तुम्हारी बदनामी कोई बाधा उपस्थित नहीं कर सकेगी। तुम्हारे पति के स्थान पर जब तक मैं हूँ, तब तक कोई भी तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। जो पत्थर फेंकेगा, वही घायल होगा।"

जोगाराव के इस प्रकार धीरज बँधाने पर लीला का उत्साह द्विगुणित हो उठा और अब तक की अर्जित सफलता पर उसकी छाती गर्व से फूल उठी।

उसे पर्दे पर देखने मात्र से लाखों प्रेक्षकों को परवशता प्राप्त होती, लेकिन उसका आलिंगन भी जोगाराव को विचलित नहीं कर सका। एक समय लीला को जो लावण्य और सुंदरता प्राप्त थी, वह अब नहीं रह गई है। समय पर भोजन लीला को नहीं मिलता था। उसकी तबीयत खराब होने लगी। उसका सहज सौंदर्य क्रमशः घटता जा रहा था। पर उसके स्थान पर अब कृत्रिम सौंदर्य दिन-प्रति दिन बढ़ता जा रहा था।

दो मास पूर्व से लीला का सिनेमा क्षेत्र में नया अध्याय प्रारंभ हो गया था। उसके साथ कुछ लोगों ने मिलकर एक पिक्चर बनाने का निश्चय किया है। जोगाराव को यह कतई पसंद नहीं था। लेकिन इससे लीला को निरुत्साहित होते को देखकर जोगाराव ने इस योजना का कोई विरोध नहीं किया। इस चित्र के निर्माण के पूर्व ही लीला के बीस हजार रुपए खर्च हो गए और लीला को पता तक नहीं चला। जोगाराव ने इस मामले में दखल देना उचित न समझा। वह स्वयं कहानीकार था। उसकी अंतिम कहानी को प्रकाशित हुए पाँच वर्ष पूरे हो गए थे। स्वयं एक अच्छा कहानीकार होते हुए भी जोगाराव ने लीला के अभिनयवाले चित्रों की कहानियों की ओर ध्यान नहीं दिया।

जोगाराव लीला के व्यवहारों में किसी दृष्टि से भी हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करता था। उसने लीला के मित्रों उसके सैर-सपाटों की कभी आलोचना नहीं की। उसने लीला से कभी यह भी नहीं पूछा कि कहाँ गई थी? कहाँ से आ रही हो? इस विषय में लीला के प्रति जलन भी उसके मन में नहीं थी, क्योंकि लीला ने अपना हृदय किसी दूसरे को कभी सौंपा नहीं था।

जोगाराव पर लीला का स्नेह-भाव है। पर लीला से जोगाराव केवल उसकी कमाई की कामना रखता है। जोगाराव को आवश्यक स्नेह देने के लिए भी अब लीला के पास समय नहीं है। वह सपने की सचाई है।

इस समय वह कला की उपासना भी नहीं कर रही है। अभिनय करना लीला के लिए कला नहीं, पेशा नहीं, बल्कि एक व्यापार-मात्र रह गया था। वह इस समय चित्रनिर्माण में वितरण करने वालों के द्वारा कांट्रैक्ट लेना और अन्य नर-नारियों द्वारा काम कराकर अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने में लगी हुई थी।

जोगाराव लीला के धन का गुलाम नहीं बना है। यदि वह ऐसा बन जाता तो कोई झंझट नहीं रहता। लेकिन आनंद की प्राप्ति के लिए जीवन से लड़ना है तो लीला के लिए कोई समस्या पैदा करनी होगी। जोगाराव निर्णय नहीं कर सका कि उसने स्वयं लीला को सिनेतारिका बनाया था। अब यह लीला उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति कर रही है। वह जिस प्रकार का फल प्राप्त कर रही थी, वह जोगाराव जैसे के लिए वांछनीय नहीं था। यद्यपि लीला का उसमें कोई दोष नहीं है, फिर भी वातावरण ही ऐसा कुछ बना हुआ है। वह लीला को छोड़कर अपने पैरों पर खड़ा हो? जीवन में प्रवेश करना है तो उसका ठीक समय लीला के पतन के बाद ही है। लेकिन उस हालत में लीला को त्यागना कहाँ तक न्यायसंगत है।

घड़ी में पाँच बजते सुनकर जोगाराव बिस्तर पर से उठ बैठा। पता नहीं क्यों? उसे अचानक बचपन की एक घटना स्मरण हो आई। चारपाई के सामने दर्पण में अपनी आकृति को देखते ही अपने भाई का स्मरण हो आया। वह कई साल पूर्व चार महीने तक चारपाई पर पड़ा रहा। तंदुरुस्ती के ठीक होने पर उसे फिर से चलना सीखना पड़ा। वास्तव में वह भी ऐसी दशा में नहीं है? लीला की कमाई पर जीवन बिताना छोड़कर अपने पैरों पर खड़े रहने का प्रयत्न करने पर क्या वह गिर न जाएगा? अवश्य गिर जाएगा।

जोगाराव लीला के पलंग के पास जाकर बैठ गया और उसने लीला के शरीर पर हाथ रखा।

लीला ने करवट बदली। लेकिन वह उठी नहीं।

"लीला! ऐय्!"

"ऊँ जगाओ मत। निद्रा पूरी नहीं हुई है।"

"मैं गाँव जा रहा हूँ।"

"कहाँ, किस गाँव में?" आँखें मूंदे निद्रा में ही लीला ने पूछा।

"कहीं, किसी गाँव में।"

"क्यों?"

लीला ने जबरदस्ती आँखें खोलकर पूछा।

"कुछ विशेष बात नहीं। थोड़े दिन तक घूमने की इच्छा है।" लीला उठ बैठी। लेकिन थोड़ी देर तक चुप रही।

"कब जा रहे हो?"

"आज ही।"

"कहाँ?" फिर से पूछा।

"कुछ पता नहीं। अभी तक निश्चय नहीं किया।"

"कुछ सूझता नहीं क्या? है न? ओह!"

"हाँ।"

"फिर कब आओगे?"

"जब इच्छा होगी।"

लीला का मुँह विवर्ण हो गया। अब उसे होश आया। उसने कल्पित उत्साह का अभिनय करते हुए कहा,

"एक काम करेंगे। जरा फुरसत होते दोनों ही जाएँगे।"

"तुम्हें कभी फुरसत नहीं मिलेगी। तुम्हें हाथ भर काम हैं। मैं ही बेकार आदमी हूँ।"

लीला ने मुँह सिकोड़कर कहा, "क्या अपमान लगता है?"

"मुझे स्वयं मालूम नहीं। लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं बेकार पड़ा हुआ हूँ।"

"वहाँ जाकर करेंगे क्या?"

"अभी तक सोचा नहीं।"

"मेरे बारे में क्या सोचा है?"

"तुम्हें किस बात की कमी है?"

"तो क्या यह अपयश उठाऊँ कि तुमने मुझे त्याग दिया है?"

जोगाराव ने हँस दिया और कहा, "तो तुम्हीं कहो कि तुमने ही मुझे छोड़ दिया है।"

"कौन मुझसे आकर पूछेगा?"

"तो जाने दो, मैं ही कहूँगा।"

थोड़ी देर तक दोनों चुप रहे।

"अचानक मेरे ऊपर तुम्हें इतना क्रोध क्यों हुआ?"

"क्रोध? कभी नहीं हुआ। मैंने कभी तुम्हें कुछ नहीं कहा। तुमने मेरी जो भलाई की, वह दूसरा कौन करेगा?"

"तो फिर जाना ही क्यों?"

"तुमने कुछ किया, इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ।"

"क्यों नहीं करते? कोई-न-कोई काम करने को मैंने कई बार कहा था। तुम्हारा न करना क्या मेरा ही दोष है?"

"लीला! तुम अपने को छोड़कर, दूसरों के बारे में क्यों नहीं सोचती? करने को अच्छा काम भी तो हो... तब न?"

“अब भी वह झंझट रहेगा। फिर अकारण ही वहाँ जाकर तकलीफ क्यों उठाते हो?"

जोगाराव फिर हँस पड़ा और कहा, “अगर मैं कुछ न कर सकूँगा तो फिर आ नहीं सकूँगा? तुम रोकोगी। यही न?"

यह बात लीला के मन में चुभ गई। उसे क्रोध भी हुआ और उसने कहा, “तुम्हीं ये बातें करते हो। मैं तो तुम्हें यहीं पर रहने को कह रही हूँ न!"

“आज तक हमारे बीच कभी झगड़ा नहीं हुआ। आज भी नहीं हुआ। भविष्य में भी नहीं होना चाहिए। दोस्तों के रूप में रहेंगे?"

थोड़ी देर तक सोचकर लीला ने पूछा, “दूसरी कोई मिल गई क्या?"

“अभी तक नहीं। तुम मेरी हो तो क्या दूसरी कोई मेरी ओर देख नहीं सकती! फिल्मी अभिनेत्रियों के पति कैसे चरित्रवान होते हैं. क्या तम्हें नहीं मालूम?"

लीला ने होंठ चबाते हुए कहा, “यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"

"मैं अपने बारे में सोचूँ तो अपने से ही मुझे घृणा होती है। इन सात-आठ वर्षों में मैं नालायक रह गया हूँ। इसलिए अब मुझे ही सोचना है।

"ओह साढ़े पाँच बज गए हैं! मैं अभी आई।" -कहती हुई लीला चली गई।

जोगाराव को इस बीच आत्म-चिंतन करने का अवसर मिला। उसके मन में यह भावना पैदा हुई कि कभी-न-कभी उसे अवश्य जाना चाहिए। लेकिन उस भावना को एक रूप देने के उद्देश्य से ही जोगाराव ने लीला को बातों में घसीटा था। उसके बाद उसने पूरी तरह से जाने का ही निश्चय किया। वापस लौटकर लीला ने देखा, जोगाराव नहीं हैं। कहीं चले गए हैं। उसका पर्स कोट के जेब में ही है। उसे लिए बिना ही वे चले गए हैं।

अपने दुःख को रोक न सकने के कारण लीला रो पड़ी। किसी ने भी उसका ऐसा अपमान नहीं किया था। उसने अपने मन से प्रश्न किया, “मैंने किया ही क्या है? मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है? मुझे इस प्रकार की सजा क्यों दी गई है?" लेकिन इन प्रश्नों का समाधान कौन करे?

जहाँ भी देखो, जोगाराव का स्मरण दिलानेवाली चीजें पड़ी हुई हैं। इन्हें देखने पर कई तरह की स्मृतियाँ जाग उठती हैं और उसकी पीड़ा अधिकाधिक गहरी होती है। मृतकों को जैसे स्मरण किया जाता है, वैसे ही अपने जीवन में घटित घटनाओं का वह स्मरण करने लगी। गत दो-तीन वर्षों की घटनाएँ ही याद आई हों, ऐसी बात नहीं, बल्कि कई वर्षों की घटनाएँ ताजा होने लगीं।

लीला ने अपने जीवन में केवल जोगाराव से ही सच्चा प्रेम किया था। अपने नाम और प्रतिष्ठा के साथ यह प्रेम क्रमशः लुप्तप्राय हो गया। यह सत्य है कि लुप्त होनेवाले प्रेम का मूल्य अधिक ही होता है। बीते हुए दिनों में जो आनंद प्राप्त हुआ था, वह अब नहीं रहा।

यदि उस दिन रात में उसे अकेले ही घर पर सोना पड़ता तो उसको कितनी व्यथा होती! पर उस रात को शूटिंग थी, गई। दूसरे दिन प्रातः तीन बजे घर लौटी, बिना मेकअप धोए चारपाई पर पड़ी रोती रही।

दूसरे दिन वह घर पर ही रही। टेलीफोन करनेवालों तथा घर पर आए हुए लोगों को उसने कहलवा दिया कि वह घर पर नहीं है। जोगाराव को भूलना ही यदि उसका उद्देश्य है तो उसने बड़ी भूल की।

तीसरे दिन जब वह शूटिंग पर गई तो उससे जोगाराव के बारे में पूछा गया। उसने कहा कि वह गाँव गया है। उस दिन भी सारी शूटिंग व्यर्थ गई। सारे शहर में यह समाचार बेतार के तार की तरह फैल गया कि जोगाराव लीला को छोड़कर चले गए हैं। लीला सभी से कहती रही कि वे काम से बाहर गए हैं, जल्दी ही लौटने वाले हैं।

जोगाराव को गए 15 दिन हो गए हैं। इधर लीला के मन में दिन-प्रति-दिन जोगाराव के लौटने की आशा एक ओर बढ़ रही थी तो दूसरी ओर उसके वापस न लौटने की निराशा भी बढ़ती जा रही थी। लीला को बहुतकुछ दिमाग लड़ाने पर भी कुछ नहीं सूझा कि वे कहाँ हैं।

लीला ने निश्चय किया कि उसने जोगाराव के प्रति कोई बड़ा अपराध किया है। उसका निश्चयदिन-प्रति-दिन दृढ़ से दृढ़तर होता गया।

जोगाराव से उसे कई बातें कहनी थीं। उनके जाने के पहले लीला ने उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट नहीं की, बल्कि जोगाराव ने ही लीला के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी। उसने केवल अपने बारे में ही सोचा है, जोगाराव के बारे में कभी नहीं सोचा। इस बात का स्मरण जोगाराव ने दो बार दिलाया था। लेकिन लीला ने ध्यान ही नहीं दिया।

एक दिन लीला कोई पत्रिका उलट रही थी। उसमें उसे जोगाराव का नाम दिखाई दिया। प्रत्यक्ष नरक' नाम से जोगाराव ने एक कहानी प्रकाशित कराई थी। उस छपे हुए नाम की ओर लीला ने कई बार देखा। वह विश्वास नहीं कर सकी कि यह नाम उन्हीं का है। उसे मालूम है कि वह कहानी जोगाराव ने ही लिखी है। इस नाम की ओर देखते समय उसे ऐसा लगा जैसे जोगाराव सामने खड़े होकर उसकी निंदा कर रहे हैं। उसने इस कहानी को पढ़ने की कई बार कोशिश की, लेकिन आँखों के सामने अक्षर धुंधले दीखने लगे।

कहानी समाप्त करके बहुत देर तक वह एकटक देखती हुई विचारों में डूबी रही। टेलीफोन की घंटी की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।

टेलीफोन करनेवाले ने पूछा, “जोगाराव?"

लीला ने तुरंत जवाब दिया, "घर पर नहीं हैं जी!" उसे इस बात का ध्यान न रहा कि नौकर आकर टेलीफोन उठा लेगा।

“कौन बोल रहे हैं जी? जोगाराव ने इस बार बहुत ही सुंदर कहानी लिखी है। उन्हें बधाई दे रहा हूँ। उनसे कहिएगा।"

उस आदमी ने अपना नाम तक नहीं बताया और टेलीफोन रख दिया।

टेलीफोन के रखते ही लीला के मन में एक विचार आया, यह कहानी जिसमें छपी थी, उस पत्रिका के कार्यालय का नंबर उसने डाइरेक्टरी में देखा। उसने पूछा, "क्या आप कृपा करके अपनी पत्रिका के कहानीकार जोगाराव का पता बता सकते हैं?"

कार्यालयवालों ने बड़ी खुशी से पता बताते हुए पूछा, "कहानी कैसी है जी?"

"बहुत ही भद्दी है।" कहकर लीला ने टेलीफोन रख दिया।...

झोंपड़ी में टूटी-फूटी चारपाई पर लेटकर सिरहाने की ओर हरीकेन लालटेन की रोशनी में पढ़नेवाला जोगाराव आहट पाकर चौंक उठा और आगंतुक की ओर देखकर कहा-“ओह! तुम हो?"

इस झोंपड़ी में लीला ने प्रथम बार पैर रखा था।

"मेरा स्वप्न!"-उद्धिग्न होकर जोगाराव चिल्ला उठा।

लीला की समझ में नहीं आया कि वे क्या बोल रहे हैं। वह आश्चर्य चकित हो जोगाराव की ओर देखती हुई उसी तरह खड़ी रह गई...