संस्कृत में 'कारक' शब्द का प्रयोग (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Sanskrit Mein 'Karak' Shabd Ka Prayog (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi
पाणिनीय व्याकरण में 'कारक' को महती संज्ञा, अर्थात् 'अन्वर्थ संज्ञा' बताया जाता है। ( महाभाष्य – 1-423) इसका मतलब यह हुआ कि कारक अन्वर्थ संज्ञा है। उसका अर्थ है कि करने वाला ही कारक है—करोतीति कारकम् — यह पारिभाषिक अन्वर्थ संज्ञा पाणिनि के पहले भी इसी अर्थ में गृहीत होती थी। परवर्ती वैयाकरणों ने इस बात को स्पष्ट करने के लिए क्रिया-निष्पादक को कारक बताया है। ऊपर बताया गया है कि क्रिया भावप्रधान होती है अर्थात् उसमें एक प्रकार का पूर्वाग्रही भाव होता है। एक के बाद एक कई व्यापार घटते रहते हैं। वह साध्य-रूपा होती है और एक व्यापार-परम्परा में गुथी होती है। इसी क्रिया के निष्पादक कारक होते हैं। जो क्रिया का निष्पादक नहीं है, वह कारक भी नहीं है। वैयाकरणों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सभी कारक किसी न किसी प्रकार से कर्ता ही होते हैं क्योंकि क्रिया के पूर्वापर घटित होने वाले अनेक व्यापारों में से किसी न किसी के वे स्वतन्त्र कर्तृत्व हुआ ही करते हैं। अन्यान्य कारकों के नाम मुख्य व्यापार की अपेक्षा में दिये जाते हैं। जैसे देवदत्त आग से स्थाली में चावल पका रहा है। इसमें पकाना मुख्य व्यापार है। इसका कर्ता देवदत्त है, करण आग से है, अधिकरण स्थाली है और चावल कर्म है परन्तु ये सब वक्ता की इच्छा-विवक्षा के अनुसार कर्ता में प्रयुक्त हो सकते हैं। कहने वाला आग पर जोर देना चाहे तो कह सकता है कि आग चावल पकाती है, 'स्थाली' पर जोर देना चाहे तो कह सकता है 'स्थाली' चावल पका रही है, चावल पर जोर देना चाहे तो कह सकता है चावल पक रहा है।
पुरानी हिन्दी में, और कुछ हद तक आधुनिक हिन्दी में, जहाँ उक्त कर्ता से भिन्न कारकों में निर्विभक्तिक पद मिलते हैं वहाँ कुछ कष्ट कल्पना कर के 'जो-है-सो-शैली में—' अर्थ कर लिया जा सकता है और किया भी जाता है। ऐसे स्थलों पर टीकाकारों के मन में यह सिद्धान्त काम करता रहता है। उदाहरणार्थ- "सुनि सीता दुःख प्रभु सुख अयना, भरि आये जल राजिव नयना ।" इसमें 'सुनि' और 'भरि आये' क्रियापद हैं। बाकी नाम या संज्ञा विशेषण पद सभी निर्विभक्तिक पद हैं। इसमें कई कारक हैं। सीता के दुख को (कर्म कारक) सुनकर सुख अयन (विशेषण) प्रभु के राजीव नयन (कर्ता) जल से (करण) भर आये। पर चूर्णिका पद्धति से यह अर्थ सर्वत्र कर्ता मानकर किया जा सकता है -- प्रभु (कर्ता) प्रभु जो सुख अयन हैं, उनके राजीव नयन (कमल के समान) जो नेत्र हैं (कर्ता) सीता का जो दुख है (कर्ता) (उसे) सुनकर जल जो है अश्रु (कर्ता) दुःख से भर आये। इत्यादि । पुरानी टीकाओं में ऐसे अर्थ मिल जाते हैं परन्तु आजकल के भाषाशास्त्री इतना द्राविड़ प्राणायाम नहीं करते और इन पदों को निर्विभक्तिक या लुप्तविभक्तिक मानकर प्रसंग प्राप्त अर्थ के अनुसार विभिन्न कारकों की कल्पना कर लेते हैं। हमने भी इसी विधि का अनुसरण किया है क्योंकि यह अधिक तर्कसंगत है। अब मुख्य व्यापार के निवर्तक कारकों का स्वरूप संस्कृत व्याकरणों के अनुसार समझ लिया जाए।
कर्ता : पाणिनि ने स्वतन्त्र कर्ता (अ० 114154) कहकर क्रिया सिद्धि में स्वतन्त्र कारक को कर्ता कहा है। भाष्यकार इसे प्रधान मानकर बताते हैं कि 'धात्वर्थ व्यापाराश्रय' अर्थात् धातु द्वारा कहे गये व्यापार का आश्रय बताया है जैसे 'देवदत्त जाता है' इस वाक्य में 'जा' धातु द्वारा वाचा व्यापार 'गमन' है और वह देवदत्त को आश्रय करके ही सम्पन्न होता है।
संस्कृत वैयाकरण के अनुसार कर्ता तीन प्रकार का होता है-1. उक्त या अभिहित, 2. अनुक्त या अनभिहित और 3. कर्म कर्ता ।
'राम रोटी खाता है' में राम उक्त कर्ता है, वही प्रधान रूप से अभिहित होता है। हिन्दी में क्रिया का लिंगवचन उक्त के अनुसार होता है। परन्तु यदि कहा जाए कि 'राम ने रोटी खायी' तो रोटी प्रधान रूप से अभिहित होती है। जो वस्तुतः कर्म है। जब कर्म उक्त या अभिहित होता है और कर्ता अनभिहित या अनुक्त होकर अनुप्रधान हो जाता है तो क्रिया का लिंगवचन उसी समान होता है। परन्तु यदि हम कहें 'रोटी पक रही है' तो यहाँ रोटी यद्यपि कर्म है और स्वयं पकने में असमर्थ है फिर भी वह उक्त कर्ता के समान व्यवहृत होती है। इसे ही कर्म कर्ता कहते हैं।
जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है, अनुक्त या अनभिहित कर्ता भी दो प्रकार का होता है। एक भूतकालिक सकर्मक क्रिया में 'ने' के प्रयोग के साथ व्यवहृत होता है। इसमें धातुरूप शुद्ध रूप में कर्म के लिंग वचन के अनुसार बनता है, दूसरे में वह 'से' या 'के द्वारा' आदि परसर्गों के योग से बनता है और धातु को 'जा' सहायक धातु के साथ प्रकाशित किया जाता है। पहले का उदाहरण है 'राम ने रोटी खायी' और दूसरे का उदाहरण है 'राम से रोटी खायी गयी / खायी जाती है / खायी जाएगी। पहले को अनुक्त और दूसरे को तिर्यक् अनुक्त कहा जा सकता है। ऋजु अनुक्त इसलिए कहा जा सकता है कि कई सर्वनामों के एक वचन में 'ने' का प्रयोग ऋजु रूप के साथ हो सकता है। मैंने, तूने पर तिर्यक् अनुक्त को यह रियायत प्राप्त नहीं है। वहाँ रूप तिर्यक् अनुक्त के साथ इस प्रकार होगा — मुझसे, तुझसे, मेरे द्वारा, तेरे द्वारा। इस विषय में 'ने' परसर्ग के प्रसंग में भी विचार किया गया है। हर भाषा की कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं।
इस प्रकार प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी में चार प्रकार के कर्ता हैं— 1. उक्तरूप, 2. ऋजु अनुक्त रूप 3. तिर्यक् अनुक्त रूप, 4. कर्म कर्ता ।
कर्म : पाणिनि ने कर्ता के ईप्सिततम को कर्म कहा है, कर्तुरीप्सिततमं कर्म (1.4.49) कहा है। संस्कृत में इस परिभाषा पर बहुत विचार किया गया है। सीधा सादा अर्थ है कर्ता द्वारा निष्पद्यमान क्रिया का इप्सिततम में प्राप्य कर्म है। फिर ईप्सिततम का अर्थ इष्टतम न बताकर “क्रिया प्राप्य' कहा गया है। भाषा में कर्म रूप में प्रयुक्त होने वाले बहुत से पद कर्ता के ईप्सिततम तो होते ही नहीं, बहुत बार उल्टे भी होते हैं। इसीलिए इस शब्द की चीरफाड़ बड़ी सावधानी से की गयी है। सारे शास्त्रार्थ में जाने की आवश्यकता नहीं है। मुख्य रूप से कर्म तीन प्रकार के होते हैं— 1. निर्वर्त्य अर्थात् जहाँ कोई विद्यमान वस्तु से नयी वस्तु बनाना (निर्वर्तन) हो रहा है। कुम्हार घड़ा बनाता है। घड़ा अभी है नहीं, बनने वाला है, निर्वर्त्य है। 2. 'विकार्य' अर्थात् जहाँ किसी वस्तु में विकार लाकर नयी वस्तु तैयार हो रही हो, यह प्रकृति के उद्योग से भी हो सकता है— 'काठ को जलाकर भस्म कर रहा है' और गुणान्तर संचार से भी हो सकता है, जैसे 'सोने से कुण्डल बना रहा है।' प्राप्य कर्म में क्रिया का सम्बन्ध मात्र रहता है, न तो वह (निर्वर्त्य ) होता है न 'विकार्य', वह केवल क्रिया सम्बन्ध से प्राप्त होने के कारण प्राप्य है। परन्तु इनके अतिरिक्त कुछ और भेद भी बताये गये हैं। 1. उदासीन (तिनका छू रहा है), अभीक्षित —जहर खाओ। संज्ञान्तर से अनाख्यात और अन्य पूर्व कर्म (अनियि) दोनों संस्कृत व्याकरण की विशेषता हैं परन्तु ये भेद-उपभेद अर्थ-दृष्टि से हैं। हिन्दी में व्याकरण की दृष्टि से कर्म के दो मुख्य भेद हैं और प्रत्येक के दो-दो अवान्तर भेद हैं—
उक्त कर्म—जब कर्ता अनुक्त होता है— राम से रोटी खायी गयी या राम ने रोटी खायी।
अनुक्त कर्म- जब कर्ता उक्त होता है-राम फल खाता है।
हिन्दी में दोनों ही प्राणिवाचक और अप्राणिवाचक रूप में कुछ विशेष प्रकार से प्रयुक्त होते हैं। साधारणतः अप्राणिवाचक कर्म पद परसर्ग रहित होते हैं और प्राणिवाचक सपरिसर्ग। पहले का उदाहरण-राम जंगल काट रहा है। दूसरे का उदाहरण-राम लड़के को मार रहा है। ऊपर हमने साधारणतः कहा है। भाषा में इसका मतिभ्रम भी मिलता है।
करण : पाणिनि कहते हैं— साधकतमं करणम् (1.4.42) अर्थात् क्रिया सिद्धि में कर्ता का अतिशय साधक करण कहा जाता है। परवर्ती वैयाकरणों ने बताया है कि जिसकी सहायता से क्रिया की सिद्धि तत्क्षण हो जाती है, वही करण है। 'कुठार से पेड़ काटता है।' इस बात में कुठार के संयोग से काटना क्रिया तत्क्षण सिद्ध होती है इसलिए कुठार करण है। इसके साथ व्यापार का नित्य सम्बन्ध होता है। जिसके साथ व्यापार का नित्य सम्बन्ध नहीं होता है वह 'हेतु' हो सकता है, करण नहीं । हेतु में भी तृतीया होती है। पर वह करण नहीं कहा जाएगा। करण 'अतिशय साधक' होता है। और सदा कर्ता के अधीन होता है। कभी-कभी अधिकरण भी व्यापार की अतिशय विवक्षा में करण बन जाता है। जैसे— 'स्थाली में पकाना है', इस व्यापार में स्थाली को यदि अधिक साक्षात् सहायक कहने की इच्छा हो तो कहा जा सकता है कि 'स्थाली से पका रहा है' अतिशयत्व अन्यान्य कारकों की अपेक्षा से होता है। एक ही काम में यदि कई शब्द क्रिया की सिद्धि में अतिशय साघक हों तो उनमें कौन-सा अधिक अतिशय साधक है, यह प्रश्न नहीं उठता, वे सभी करण ही होंगे क्योंकि सभी अन्य कारकों की अपेक्षा अतिशय साधक होंगे।
अधिकरण : पाणिनि के अनुसार आधार अधिकरण होता है ( आधारो... 1.4.34 ) । पाणिनि के परवर्ती वैयाकरणों में इस बात को लेकर कुछ मतभेद भी दिखता है। मतभेद के मूल में प्रश्न है कि आधार किसका ? भर्तृहरि का कहना है कि अधिकरण कर्म और कर्म की क्रिया को धारण करता है और इस प्रकार का धारण करना ही क्रिया की सिद्धि का सहायक होता है अर्थात् 'आधार' शब्द का मतलब कर्ता व कर्म के व्यापार को धारण करने वाला है। प्राचीन वैयाकरण मानते हैं कि अधिकरण कारक सीधे नहीं बल्कि परम्पराक्रम से क्रियासिद्धि में सहायक होता है। पर नव्य वैयाकरणों को यह मान्य नहीं है। वे मानते हैं कि अधिकरण कारक परम्पराक्रम से सीधे क्रिया का सहायक होता है। अधिकरण शब्द कदाचित् यह बताता है कि यह करण की तुलना में कुछ कम साक्षात् रूप से क्रिया की सिद्धि में सहायक होता है। यह 'साधकतम' नहीं है उससे कुछ दूर (अधि) है परन्तु क्रियासिद्धि में वह सहायक है अवश्य। संस्कृत वैयाकरणों ने इसके कई भेदों की कल्पना की है। 1. व्यापक (तिल में तेल), 2. औपश्रेयिक या एकदेश से ही सम्बन्धित (दरी पर बैठा) और 3. वैषयिक अर्थात् किसी विषय सम्बन्धी (मोक्ष में आस्था)। परन्तु बाद में और भी भेद किये गये हैं जो वस्तुतः यही सूचित करते हैं कि भाषा के प्रयोग को तर्क संगत परिभाषाओं से नही बाँधा जा सकता है।
ऊपर बताये गये चारों कारक कर्ता, कर्म, करण व अधिकरण संस्कृत के कृ= करना धातु से बने हुए है। जब इन नामों की कल्पना की क्रिया से साक्षात् सम्बन्धित वे चार ही कारक समझे गये होंगे। गयी होगी, उस समय पर दो और कारक भी पाणिनि ने स्वीकार किये हैं जो 'कृ' से निष्पन्न न होकर 'दा' से निष्पन्न होते हैं। पण्डितों का विचार है कि ये भी पाणिनि पूर्व ही हैं। 'दा' धातु से बने हुए इन दोनों कारकों के नाम हैं— 'सम्प्रदान' और 'अपादान' कई वैयाकरण इन्हें क्रियासिद्धि में प्रत्यक्ष साधन नहीं मानते।
सम्प्रदान : पाणिनि कहते हैं कि जिसके लिए कर्म (क्रिया) किया जाता है वह सम्प्रदान होता है। कर्म......सम्प्रदानम् (1/4/32)। ऐसा माना जाता है कि यहाँ पाणिनि ने कर्म शब्द का प्रयोग क्रिया और कर्म दोनों ही अर्थों में किया है। जैसा कि शब्द से सूचित होता है, 'सम्प्रदान' में 'दान' का भाव है। पाणिनि के अनुगामी इसे भी ‘महती' संज्ञा अर्थात् अन्वर्थ संज्ञा मानते हैं, इसलिए इसमें दान का भाव अवश्य होना चाहिए। इसीलिए पूजा या अनुग्रह कामना से मनुष्य जब अपनी वस्तु अधिकार त्यागपूर्वक जिसे देता है, वह सम्प्रदान कारक होता है। परन्तु संस्कृत भाषा में दान का प्रयोग कई मुहावरों में भी होता है। गुरुः शिष्याय त्रयेशं ददाति — गुरु शिष्य को येश देता है अर्थात् झापड़ मारता है। यहाँ ऊपर के बताये हुए अर्थ नहीं जमते । इसलिए पतंजलि जैसे महावैयाकरण इस शब्द के इतने अर्थ को नहीं स्वीकार करते। भर्तृहरि की एक कारिका के आधार पर तीन प्रकार के सम्प्रदान बताये गये हैं। (1.) वह, जो न तो धन के लिए प्रार्थना करता है, न प्रेरित करता है और न अनुमोदन करता है 'अनिराकर्ता' सम्प्रदान होता है; जैसे—'सूर्य को अर्घ्य देता है'। इस वाक्य में सूर्य ( 2 ) वह जो दान के लिए दाता को प्रेरित करता है, 'प्रेरविता' सम्प्रदान कहा जाता है, जैसे 'जजमान पुरोहित को गाय देता है'। इस वाक्य में पुरोहित, और (3.) वह, जो प्रेरणा तो नहीं पर अनुमोदन करता है, अनुमना सम्प्रदान होता है, जैसे--शिष्य उपाध्याय को वस्त्र देता है'। इस वाक्य में 'उपाध्याय' ।
कुछ वैयाकरण सम्प्रदान को कारक मानने में हिचकते हैं। हमने पहले ही देखा है कि वास्तविक कारकों में से सभी विवक्षानुसार, कर्ता रूप में उपस्थित किये जा सकते हैं— कर्म भी, करण भी अधिकरण भी। पर सम्प्रदान कभी इस रूप में नहीं उपस्थित किया जा सकता।
'उपाध्याय को वस्त्र देता है' इस वाक्य में उपाध्याय को देना धातु के साथ कर्ता रूप में नहीं उपस्थित किया जा सकता है। यही बात अपादान के विषय में सही है। इन दोनों कारकों की अपने-अपने कार्य-व्यापार में स्वतन्त्र विवक्षा नहीं हो सकती ‘सम्प्रदानापादानयोः स्वव्यापारे स्वातन्त्र्य-विवक्षा नास्ति ।', स्वातन्त्र्य-विवक्षा ही अन्य कारकों में कर्तृत्वाभिमान की अभिव्यक्ति देती है। सो, सम्प्रदान का क्रिया-सम्बन्ध दुर्बल कोटि का होता है— होता अवश्य है।
अपादान : पाणिनि ने बताया है कि किसी वस्तु.....या विच्छेद होने पर जो ध्रुव वस्तु होता है अर्थात् जिस वस्तु से विच्छेद होता, वह अपादान कही जाती है- ध्रुवमपायेऽपादानम् (1/4/24)। वैयाकरण ने ध्रुव शब्द को लेकर बहुत विचार किया है। परन्तु यहाँ हम विस्तार में नहीं जा रहे हैं पर यह जरूरी नहीं है कि हर वस्तु वास्तविक व इन्द्रियग्राह्य ही हो। बौद्ध या बुद्धिगाह्य वस्तु भी अपादान हो सकती है, जैसे— 'अधर्म से डरता है' इस वाक्य में 'अधर्म' अपादान में कारकत्व भी सन्देहास्पद है। वैयाकरण लोग अवधि रूप में ‘अवस्थान' ही अपादान का मुख्य लक्षण मानते हैं। यह भी सम्प्रदान के समान क्रिया के दुर्बल रूप में ही सम्बद्ध हैं।
कारकों का बल्यक्रम : ऊपर हमने कर्ता-कर्म-करण-अधिकरण-सम्प्रदान- अपादान यह क्रम रखा है और उन सूत्रों का हवाला भी दिया है जो अष्टाध्यायी में पाये जाते हैं। पर उन सूत्रों के क्रम पर यदि ध्यान दिया जाए तो मालूम होगा कि पाणिनि का क्रम उल्टा है। वे अपादान (1/4/24), फिर सम्प्रदान (1/4/32), फिर अधिकरण (1/4/34), फिर करण (1/4/42), फिर कर्म (1/4/49) और अन्त में कर्ता (1/4/54) की चर्चा करते हैं। उनके सिद्धान्त के अनुसार परवर्ती विधान बलवान् होता है। इसलिए उनकी दृष्टि में कर्ता सर्वप्रधान कारक है और कर्म आदि क्रमशः कम बलवान् या कम प्रधान कारक हैं। इस सम्बन्ध में वैयाकरणों में एक कारिका प्रचलित है, जिसमें करण को अधिकरण (आधार) से पहले गिनाया है। लेकिन बहुत पुराने काल से ही करण व अधिकरण में एकरूपता होने लगी थी। कारिका इस प्रकार है-
अपादाने-सम्प्रदान-करणाधार-कर्मणाम् ।
कर्तृत्र्योमय.............. परमेव प्रवर्तते ।
इस विवरण से स्पष्ट है कि कारक शब्द अर्थ को दृष्टि में रखकर प्रयुक्त होता है । आधुनिक भाषा-शास्त्री व्याकरणिक रूप विचार को अर्थ- विचार से अलग रखते हैं। .............ने बताया है कि व्याकरणिक तथ्यों को भीतर से देखने का नाम सिण्टैक्स (वाक्य- विचार) और 'बाहर से' देखने का नाम मार्फोलॉजी (रूप-विज्ञान) है। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि सिण्टैक्स (वाक्य- विचार) में व्याकरणिक तथ्यों पर अर्थ वैशिष्ट्य ( मीनिंग व सिग्निफिकैंस) की दृष्टि से देखा जाता है और मार्फोलॉजी (रूप-विज्ञान) में व्याकरणिक रूपों को देखा जाता है-अर्थ व उसके वैशिष्ट्य को नहीं (मॉडर्न इंगलिश ग्रामर, पार्ट 2, पृ. 1.)। ऊपर के विचारों से स्पष्ट है कि संस्कृत वैयाकरण 'कारक' को अर्थ वैशिष्ट्य की दृष्टि से देखते हैं। वे व्याकरण में शब्द और अर्थ सम्पृक्त मानकर ही चलते हैं। आधुनिकों के मापदण्ड से संस्कृत व्याकरण का कारक प्रकरण 'सिण्टैक्स' के अधिक निकट है।
इस विचार को विस्तार से रखने का उद्देश्य यह है कि 'कारक' जैसी महती संज्ञा का महत्त्व हम समझ लें। पाणिनि महान् वैयाकरण थे। उन्होंने बहुत-सी पूर्व प्रचलित संज्ञाओं के स्थान पर नयी संज्ञाएँ कल्पित की थीं पर 'कारक' को उन्होंने नहीं छुआ । उसके सहस्रों वर्ष से प्रचलित अर्थ को भी उन्होंने नहीं बदला। उनके परवर्ती महान् वैयाकरणों ने भी ऐसा नहीं किया। इसे 'अन्वर्थ' संज्ञा कहते रहे और वैसा ही मानते रहे। आज उस अर्थ को बदल देना कुछ जँचता नहीं । परन्तु हिन्दी में अँग्रेजी व्याकरण का प्रभाव बहुत तेज पड़ा है और भाषा का विश्लेषण नये ढंग से होने लगा है। इस नये ढंग में गुण भी हैं। आजकल अंग्रेजी के 'केस' के अर्थ में कारक शब्द का प्रयोग होने लगा है।