संग्राम (नाटक) : मुंशी प्रेमचंद
Sangram (Play) : Munshi Premchand
संग्राम (नाटक) अंक-3
पहला दृश्य
स्थान : कंचनसिंह का कमरा।
समय : दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा चल रहा है।
कंचन : (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था।, भाई साहब आड़ में छिप गए थे।अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते, कहां जा रहे हो, मेरा माथा उसी वक्त ठनका था। जब मैंने उन्हें नित्यप्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हांकते सैर करने जाते देखा । उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलते?जुलते हैं। पत्रों से भी रूचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक-न -एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी, यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूकी वायु चलती है तो बहुत प्रचण्ड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरूष जब विचलित होता है, यह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है। न किसी की सुनता है, न किसी के रोके रूकता है, न परिणाम सोचता है। उसके विवेक और बुद्वि पर पर्दा-सा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहां देख लिया। इसीलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनों के लिए हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे।मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वान, गंभीर पुरूष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता।
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : बाबूजी, आज सोए नहीं ?
कंचन : नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था।भाई साहब ने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता। असामियों से कुछ रूपये वसूल होते, लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया ।
ज्ञानी : वह तो मुझसे कहते थे दो-चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊँगा। डारुक्टर ने कहा है, यहां रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगी। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबूजी एक बात पूछूं, बताओगे। तुम्हें भी इनके स्वभाव में कुछ अंतर दिखायी देता है ? मुझे तो बहुत अंतर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे।अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो, मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूं। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक-पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता है, उसी प्रकार आजकल पके हुए गोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना ह्दयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।
कंचन : (मन में) वही बात है। किसी बच्चे से हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयों से फुसला देते हैं। भाई साहब ने भाभी से अपना प्रेम-रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणय से इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेम-मूर्ति का अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रकट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया । स्त्रियां सूक्ष्मदर्शी होती हैं
खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है।
कंचन : क्या काम है ?
खिदमतगार : यह सरकारी लिगागा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।
कंचन : (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छा, गांव वालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं मेरे रूपये वसूल हो गए। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रूपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ उनकी गांठ नहीं खुलती। औरों पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बात-की-बात में सब रूपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूं, उसके रंग-ढ़ंग देखूं, कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है ? अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहां से हटा दूं। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूं। (फिर खिदमतगार आता है।) क्या बार-बार आते हो ? क्या काम है? मेरे पास पेशगी देने के लिए रूपये नहीं हैं।
खिदमतगार : हुजूर, रूपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है।
कंचन : (मन में) मेरा तो दिल धक-धक कर रहा है, न जाने क्यों बुलाते हैं ! कहीं पूछ न बैठें, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो,
उठकर ठाकुर सबलसिंह के कमरे में जाते हैं।
सबल : तुमको एक विशेष कारण से तकलीफ दी है। इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहती, रात को नींद कम आती है और भोजन से भी अरूचि हो गई है।
कंचन : आपका भोजन आधा भी नहीं रहा।
सबल : हां, वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिए मेरा विचार हो रहा है कि तीन-चार महीनों के लिए मंसूरी चला जाऊँ।
कंचन : जलवायु के बदलने से कुछ लाभ तो अवश्य होगा।
सबल : तुम्हें रूपयों का प्रबंध करने में ज्यादा असुविधा तो न होगी ?
कंचन : उसपर तो केवल पांच हजार रूपये होंगे।चार हजार दो सौ पचास रूपये मूलचंद ने दिये हैं, पांच सौ रूपये श्रीराम ने, और ढाई सौ रूपये हलधर ने।
सबल : (चौंककर) क्या हलधर ने भी रूपये दे दिए ?
कंचन : हां, गांव वालों ने मदद की होगी।
सबल : तब तो वह छूटकर अपने घर पहुंच गया होगा?
कंचन : जी हां।
सबल : (कुछ देर तक सोचकर) मेरे सफर की तैयारी में कै दिन लगेंगे?
कंचन : क्या जाना बहुत जरूरी है ? क्यों न यहीं कुछ दिनों के लिए देहात चले जाइए। लिखने-पढ़ने का काम भी बंद कर दीजिए।
सबल : डारुक्टरों की सलाह पहाड़ों पर जाने की है। मैं कल किसी वक्त यहां से मंसूरी चला जाना चाहता हूँ।
कंचन : जैसी इच्छा।
सबल : मेरे साथ किसी नौकर-चाकर के जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलने के लिए आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलने से खर्च बहुत बढ़ जाएगी। नौकर, महरी, मिसराइन, सभी को जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं ।
कंचन : अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी।
सबल : (खीझकर) क्या संसार में अकेले कोई यात्रा नहीं करता ? अमरीका के करोड़पति तक एक हैंडबैग लेकर भारत की यात्रा पर चल खड़े होते हैं, मेरी कौन गिनती है। मैं उन रईसों में नहीं हूँ जिनके घर में चाहे भोजन का ठिकाना न हो, जायदाद बिकी जाती हो, पर जूता नौकर ही पहनाएगा, शौच के लिए लोटा लेकर नौकर ही जाएगा। यह रियासत नहीं हिमाकत है।
कंचनसिंह चले जाते हैं।
सबल : (मन में) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरी से चलने को कहूँ और कल प्रात: काल यहां से चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे संदेह हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी। ज्ञानी आसानी से न मानेगी । उसे देखकर दया आती है। किंतु आज ह्रदय को कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा।
अंचल का प्रवेश।
अचल : दादाजी, आप पहाड़ों पर जा रहे हैं, मैं भी साथ चलूंगा।
सबल : बेटा, मैं अकेले जा रहा हूँ, तुम्हें तकलीफ होगी।
अचल : इसीलिए तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि खूब तकलीफ हो, सब काम अपने हाथों करना पड़े, मोटा खाना मिले और कभी मिले, कभी न मिले। तकलीफ उठाने से आदमी की हिम्मत मजबूत हो जाती है, वह निर्भय हो जाता है। जरा-जरा-सी बातों से घबराता नहीं, मुझे जरूर ले चलिए।
सबल : मैं वहां एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहां, कभी वहां।
अचल : यह तो और भी अच्छा है। तरह-तरह की चीजें, नये-नये दृश्य देखने में आएंगी। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किए अनुभव नहीं होता, और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है । नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है ! मैं इस मौके को न जाने दूंगा।
सबल : बेटा, तुम कभी-कभी व्यर्थ में जिद करने लगते हो, मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँ, यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगी। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगी। रूपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगा, प्रात: काल हम दोनों यहां से चले जाएं। प्रेम-पाश में फंसकर देखा, नीति का, आत्मा का, धर्म का कितना बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं ।
दूसरा दृश्य
स्थान : राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा।
समय : दोपहर।
लौंडी : बाईजी, कोई नीचे पुकार रहा है।
राजेश्वरी : (नींद से चौंककर) क्या कहा - ', आग जली है ?
लौंडी : नौज, कोई आदमी नीचे पुकार रहा है।
राजेश्वरी : पूछा नहीं कौन है, क्या कहता है, किस मतलब से आया है ? संदेशा लेकर दौड़ चली, कैसे मजे का सपना देख रही थी।
लौंडी : ठाकुर साहब ने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारे, कोई हो, किवाड़ न खोलना, न कुछ जवाब देना। इसीलिए मैंने कुछ पूछताछ नहीं की।
राजेश्वरी : मैं कहती हूँ जाकर पूछो, कौन है ?
महरी जाती है और एक क्षण में लौट आती है।
लौंडी : अरे बाईजी, बड़ा गजब हो गया। यह तो ठाकुर साहब के छोटे भाई बाबू कंचनसिंह हैं। अब क्या होगा?
राजेश्वरी : होगा क्या, जाकर बुला ला।
लौंडी : ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल भी न छोड़ेंगे।
राजेश्वरी : तो ठाकुर साहब को सुनाने कौन जाएगा ! अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वार पर आएं और मैं उनकी बात तक न पूछूं। वह अपने मन में क्या कहेंगे ! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूँ।
लौंडी : किसी ने पूछा तो मैं कह दूंगी, अपने बाल न नुचवाऊँगी।
राजेश्वरी : तेरा सिर देखने से तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिर से एक बार और नुचवा लेना । यह लो, इससे बालों के बढ़ाने की दवा ले लेना।
लौंडी चली जाती है।
राजेश्वरी : (मन में) इनके आने का क्या प्रयोजन है ? कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा-सुना तो नहीं ? आप ही मालूम हो जाएगी। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक हैं । मैं किसी भांति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गए। (आईने में सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनाव की जरूरत नहीं, यह अलसाई मतवाली आंखें सोलहों सिंगार के बराबर हैं। क्या जानें किस स्वभाव का आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया है, पूजा-पाठ, पोथी-पत्रे में रात-दिन लिप्त रहता है। इस पर मंत्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है, पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँ, कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगी। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवान् ने यह रूप दिया था। तो ऐसे पुरूष का संग क्यों दिया जो बिल्कुल दूसरों की मुट्ठी में था। ! यह उसी का फल है कि जिनके सज्जनों की मुझे पूजा करनी चाहिए थी, आज मैं उनके खून की प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खून की प्यासी होऊँ ? देवता ही क्यों न हो, जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं ! यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया । दीन-दुनिया कहीं का न रखा। मेरे पीछे एक बेचारे भोले-भाले, सीधे-सादे आदमी के प्राणों के घातक हो गए। कितने सुख से जीवन कटता था।अपने घर में रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी, पर गांव-भर में मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंह में कालिख लगाए चोरों की तरह पड़ी हूँ जैसे कोई कैदी कालकोठरी में बंद हो, आ गए कंचनसिंह, चलूं। (दीवानखाने में आकर) देवरजी को प्रणाम करती हूँ।
कंचन : (चकित होकर मन में) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुंदरी रमणी है। रम्भा के चित्र से कितनी मिलती-जुलती है ! तभी तो भाई साहब लोट-पोट हो गए। वाणी कितनी मधुर है। (प्रकट) मैं बिना आज्ञा ही चला आया, इसके लिए क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहब का कड़ा हुक्म है कि यहां कोई न आने पाए।
राजेश्वरी : आपका घर है, आपके लिए क्या रोक-टोक ! मेरे लिए तो जैसे आपके भाई साहब, वैसे आपब मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरूष के दर्शन हुए ।
कंचन : (असमंजस में पड़कर मन में) मैंने काम जितना सहज समझा था। उससे कहीं कठिन निकला। सौंदर्य कदाचित् बुद्वि-शक्तियों को हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था। वह सब भूल गई, जैसे कोई नया पत्ता अखाड़े में उतरते ही अपने सारे दांव-पेंच भूल जाए। कैसै बात छेड़ू ? (प्रकट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं ?
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) जी हां, यह निश्चय हो चुका है।
कंचन : अब किसी तरह नहीं रूक सकता ?
राजेश्वरी : हम दोनों में से कोई एक बीमार हो जाए तो रूक सके
कंचन : ईश्वर न करें, ईश्वर न करें, पर मेरा आशय यह था। कि आप भाई साहब को रोकें तो अच्छा हो, वह एक बार घर से जाकर फिर मुश्किल से लौटेंगी। भाभी जी को जब से यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहब के साथ चलने पर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गए तो भाभी के प्राणों ही पर बन जाएगी।
राजेश्वरी : इसका तो मुझे भी भय है, क्योंकि मैंने सुना है, ज्ञानी देवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकती। पर मैं भी तो आपके भैया ही के हुक्म की चेरी हूँ, जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देश, कुल, घर-बार छोड़कर केवल उनके प्रेम के सहारे यहां आई हूँ। मेरा यहां कौन है ? उस प्रेम का सुख उठाने से मैं अपने को कैसे रोकूं ? यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करे, घर छाकर धूप में जलता रहै। मैं ज्ञानीदेवी से डाह नहीं करती, इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूं । लेकिन मैंने जो यह लोक-लाज, कुल-मरजाद तजा है वह किसलिए !
कंचन : इसका मेरे पास क्या जवाब है ?
राजेश्वरी : जवाब क्यों नहीं है, पर आप देना नहीं चाहते।
कंचन : दोनों एक ही बात है, भय केवल आपके नाराज होने का है।
राजेश्वरी : इससे आप निश्चिंत रहिए। जो प्रेम की आंच सह सकता है, उसके लिए और सभी बातें सहज हो जाती हैं।
कंचन : मैं इसके सिवा और कुछ न कहूँगा कि आप यहां से न जाएं।
राजेश्वरी : (कंचन की ओर तिरछी चितवनों से ताकते हुए) यह आपकी इच्छा है ?
कंचन : हां, यह मेरी प्रार्थना है। (मन में) दिल नहीं मानता, कहीं मुंह से कोई बात निकल न पड़े।
राजेश्वरी : चाहे वह रूठ ही जाएं ?
कंचन : नहीं-नहीं, अपने कौशल से उन्हें राजी कर लो।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) मुझमें यह गुण नहीं है।
कंचन : रमणियों में यह गुण बिल्ली के नखों की भांति छिपा रहता है। जब चाहें उसे काम में ला सकती हैं।
राजेश्वरी : उनसे आपके आने की चरचा तो करनी ही होगी।
कंचन : नहीं, हरगिज नहीं मैं तुम्हें ईश्वर की कसम दिलाता हूँ। भूलकर भी उनसे यह जिक्र न करना, नहीं तो मैं जहर खा लूंगा, फिर तुम्हें मुंह न दिखाऊँगा।
राजेश्वरी : (हंसकर) ऐसी धमकियों का तो प्रेम-बर्ताव में कुछ अर्थ नहीं होता, लेकिन मैं आपको उन आदमियों में नहीं समझती। मैं आपसे कहना नहीं चाहती थी, पर बात पड़ने पर कहना ही पड़ा कि मैं आपके सरल स्वभाव और आपकी निष्कपट बातों पर मोहित हो गई हूँ। आपके लिए मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ। पर आपसे यही बिनती है कि मुझ पर कृपादृष्टि बनाए रखिएगा और कभी-कभी दर्शन देते रहिएगी।
राजेश्वरी गाती है।
क्या सो रहा मुसाफिर बीती है रैन सारी।
अब जाग के चलन की कर ले सभी तैयारी।
तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना,
आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी। (टेक)
पूंजी सभी गमाई, कुछ ना करी कमाई,
क्या लेके घर को जाई करजा किया है भारी।
क्या सो रहा।
कंचन चला जाता है।
तीसरा दृश्य दृश्य
स्थान : सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं।
समय : ग्यारह बजे रात।
सबल : (आप-ही-आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई-सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचार से देखा । मैं घंटे भर तक बैठा चलने के लिए जोर देता रहा, पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुमसुम-सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगी। यात्रा की सब तैयारियां कर चुका हूँ, लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना चाव था, और इतनी जल्द ठण्डा हो गया? लेकिन मेरी सारी अनुनय-विनय एक तरफ और उसकी नहीं एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसी ने बहका तो नहीं दिया । हां, एक बात याद आई। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जाएं, टोहियों से बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आ गए ? इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भांति इधर-उधर, उपर-नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था।इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है । तो क्या कंचन वहां गया था। ? राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं बचपन ही से औरतों को देखकर झेंपता है। वहां कैसे गया ? जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाए। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गई।यहां तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाई, पेट में रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दण्ड मिल रहा है ? अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़ें, परिणाम बुरा होगी। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा । पर उसकी इतनी जुर्रत ! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है, उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी है, जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था।इन बाहों में अभी दम है, यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नहीं हूँ कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाए, मेरी रक्षा की जाए। मैं अपना मुखतार हूँ जो चाहूँ करूं। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हित?कामना का ढोंग रचने की जरूरत नहीं अगर बात यहीं तक है तो गनीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर इस कुल की खैरियत नहीं इसका सर्वनाश हो जाएगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए ।
ज्ञानी आती है।
ज्ञानी : क्या अभी तक सोए नहीं ? बारह तो बज गए होंगे।
सबल : नींद को बुला रहा हूं, पर उसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप-ही-आप आती है, पर बुलाने से मान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई ?
ज्ञानी : चिंता का नींद से बिगाड़ है।
सबल : किस बात की चिंता है ?
ज्ञानी : एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने को कहते हो, परदेश वाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था। कि यहीं इलाज करवाते।
सबल : (मन-ही-मन) क्यों न इसे खुश कर दूं जब जरा-सी बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा-सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत ?
ज्ञानी : तुम्हारे लिए जरा-सी हो, पर मुझे तो असूझ मालूम होता है।
सबल : अच्छा तो लो, न जाऊँगी।
ज्ञानी : मेरी कसम ?
सबल : सत्य कहता हूँ। जब इससे तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊँगी।
ज्ञानी : मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया, नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ।
सबल : मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।
ज्ञानी : पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।
सबल : (कौतूहल से) क्या बात है, सुनूं ?
ज्ञानी : मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गई थी।
सबल : अकेले ?
ज्ञानी : गुलाबी साथ थी।
सबल : (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया । बैठे-बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्व की वस्तु है। जब नौकर-चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता, तो इस पर क्यों गर्म पड़ू।ब मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूँ, ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा-सी बात के लिए सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जायब अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।
ज्ञानी : स्वामी, आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अंतर हो गया है? आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहले की भांति शासन क्यों नहीं करते ? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहले की भांति रूठते क्यों नहीं, डांटते क्यों नहीं ? आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भांति-भांति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम-बंधन का ढीलापन न हो,
सबल : नहीं प्रिये, यह बात नहीं है। देश-देशांतर के पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहां की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहां का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियां कौन्सिलों में जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहां तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया-बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।
ज्ञानी : मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम-बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।
सबल : (मन में) भगवन्, इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है ? इस सरल ह्रदया के साथ मैंने कितनी अनीति की है? आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं ? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था।(प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओर से लेश-मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है । वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।
ज्ञानी सरोद लाकर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है।
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई,
संतन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। अब तो..
चौथा दृश्य
स्थान : गंगा तट। बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन-चार आदमी लाठियां और तलवारें लिए बैठे हैं।
समय : दस बजे रात।
एक डाकू : दस बजे और अभी तक लौटी नहीं
दूसरा : तुम उतावले क्यों हो जाते हो, जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है।
तीसरा : इसके बदन पर कोई पांच हजार के गहने तो होंगे ?
चौथा : सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन-ठनकर निकलेगी तो दस हजार से कम का माल नहीं
पहला : यह शिकार आज हाथ आ जाए तो कुछ दिनों चैन से बैठना नसीब हो, रोज-रोज रात-रात भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही।
दूसरा : भाग्य में आराम वदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी-मसनद लगाए बैठे होते । हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाए पर आराम नहीं मिल सकता।
तीसरा : कुकरम क्या हमीं करते हैं, यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते हैं, अमले घूस के नाम से डाका मारते हैं, वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े हैं, हवागाड़ियों पर सैर करते गिरते हैं, पेचवान लगाए मखमली गद्दियों पर पड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियां देती है। हमीं लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है?
चौथा डाकू : काम करने का ढ़ग है। वह लोग पढ़े-लिखे हैं इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है।
पहला : चुप, कोई आ रहा है।
हलधर का प्रवेश। (गाता है)
सात सखी पनघट पर आई कर सोलह सिंगार,
अपना दु: ख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार।
पहली सखी बोली, सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी है,
कंगन की कौड़ी पास न रखता, दिल का बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता, घर की अजब खराबी है।
लोटा-थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात-बात पर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथ में दोना कुल्हड़, दूजे बोतल गुलाबी है।
पहला डाकू : कौन है ? खड़ा रह।
हलधर : तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। कहो क्या कहते हो ?
दूसरा डाकू : (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला और जीवट का है। (हलधर से) किधर चले ? घर कहां है ?
हलधर : यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे ? अपना मतलब कहो।
तीसरा डाकू : हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलाशी लिए किसी को जाने नहीं देते।
हलधर : (चौकन्ना होकर) यहां क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते हो, धन के नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस-पांच सिर गोड़े दे नहीं सकता।
चौथा डाकू : तुम समझ गए हम लोग कौन हैं, या नहीं ?
हलधर : ऐसा क्या निरा बुद्वू ही समझ लिया है ?
चौथा डाकू : तो गांठ में जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो ?
हलधर : तुम भी निरे गंवार हो, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हो,
पहला डाकू : यारो, संभलकर, पालकी आ रही है।
चौथा डाकू : बस टूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों।
ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिए कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ों में छिप जाती है।
एक डाकू : ठकुराइन, जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा और हम तुम्हारे उसपर हाथ नहीं उठाना चाहते।
दूसरा डाकू : सोचती क्या हो, यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बंदूक लिए आते हों। चटपट उतारो।
तीसरा : (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगी, ठकुराइन है न, हाथ पकड़कर बांध दो, उतार लो सब गहने।
हलधर लपककर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं।
हलधर : वह मारा, एक और गिरा।
पहला डाकू : भाई, तुम जीते हम हारे, शिकार क्यों भगाए देते हो ? माल में आधा तुम्हारा ।
हलधर : तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते हो, मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा।
डाकू : यार, दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को सौ-दो सौ रूपये देकर टरका देंगे।बाकी सारा अपना है।
हलधर : (लाठी तानकर) जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूं ?
दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।
ज्ञानी : भैया, आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी विनती है कि मेरे घर तक चलो।तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूंगी।
हलधर : रानी जी, यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूँ न दैत्य। मैं भी घातक हूँ। पर मैं अबला औरतों का घातक नहीं, हत्यारों ही का घातक हूँ। जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घर को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओ, अब से गरीबों पर दया रखना। नालिस, कुड़की, जेहल, यह सब मत होने देना।
नदी की ओर चला जाता है। गाता है।
दूजी सखी बोली सुनो सखियो, मेरा पिया जुआरी है।
रात-रात भर गड़ पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है।
घर और बार दांव पर हारा, अब चोरी की बारी है।
गहने-कपड़े को क्या रोऊँ, पेट की रोटी भारी है।
कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना, कौड़ी सौत हमारी है।
ज्ञानी : (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी।
गुलाबी : यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता ?
पाँचवाँ दृश्य
स्थान : मधुबन।
समय : नौ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तू, मंगई, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं।
चेतनदास : संसार कपटमय है। किसी प्राणी का विश्वास नहीं जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी, धर्मात्मा प्राणी हैं: उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगी। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ कि ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचरण मनुष्य संसार में न होगी।
मंगई : बाबा, आप महात्मा हैं, आपकी जबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।
हरदास : जेठी की लगान माफकर दी थी। अब असामियों को भूसे-चारे के लिए बिना ब्याज के रूपये दे रहे हैं।
फत्तू : उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरस की निगाह रखते हैं।
चेतनदास : यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्व कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रूपये से, मीठे वचन से, नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है।
मंगई : महाराज, आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदा से देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी कि किसी से एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरह की बेगार नहीं ली, और निगाह का तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं
हरदास : कभी किसी पर निगाह नहीं डाली।
चेतनदास : भली प्रकार सोचो, अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गई है ?
फत्तू : (उत्सुक होकर) हां महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए।
चेतनदास : उसके पति का भी पता नहीं है?
फत्तू : हां महाराज, वह भी गायब है।
चेतनदास : स्त्री परम सुंदरी है ?
फत्तू : हां महाराज, रानी मालूम होती है।
चेतनदास : उसे सबलसिंह ने घर डाल लिया है।
फत्तू : घर डाल लिया है ?
मंगई : झूठ है।
हरदास : विश्वास नहीं आता।
फत्तू : और हलधर कहां है ?
चेतनदास : इधर-उधर मारा-मारा फिरता है। डकैती करने लगा है। मैंने उसे बहुत खोजा पर भेंट नहीं हुई
सलोनी गाती हुई आती है।
मुझे जोगिनी बना के कहां गए रे जोगिया।
फत्तू : सलोनी काकी, इधर आओ ! राजेश्वरी तो सबलसिंह के घर बैठ गई।
सलोनी : चल झूठे, बेचारी को बदनाम करता है।
मंगई : ठाकुर साहब में यह लत है ही नहीं ।
सलोनी : मर्दों की मैं नहीं चलाती, न इनके सुभाव का कुछ पता मिलता है, पर कोई भरी गंगा में राजेश्वरी को कलंक लगाए तो भी मुझे विश्वास न आएगी। वह ऐसी औरत नहीं ।
फत्तू : विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर यह बाबा जी कह रहे हैं।
सलोनी : आपने आंखों देखा है ?
चेतनदास : नित्य ही देखता हूँ। हां, कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराए पर एक मकान लिया गया है, तीन लौंडिया सेवा टहल के लिए हैं, ठाकुर प्रात: काल जाता है और घड़ीभर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ-दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंह को समझाया, पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों का, ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था। कि देहातों में आत्माभिमान का अभी अंत नहीं हुआ है, वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने उसपर इतना घोर, पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया का आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डालें। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती है, इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमान का अंत हो जाता है। वह नीच, कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ, तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहीं?
एक किसान : महाराज, अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं ? ऐसे दयावान पुरूष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे ?
मंगई : बस, तुमने मेरे मन की बात कही।
हरदास : वह सदा से हमारी परवरिस करते आए हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जाएं ?
दूसरा किसान : बागी हो भी जाएं तो रहें कहां ? हम तो उनकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डालें। पुस्तैनी अदावत हो जाएगी।
मंगई : अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरों की लाज कोई क्या ढांकेगा ?
हरदास : स्वामीजी, आप सन्नासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।
मंगई : हां और क्या, आप तो अपने तपोबल से ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप भी दे दें तो कुकर्मी खड़े-खड़े भस्म हो जाएं ब
सलोनी : जा, चुल्लू-भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा? मुंह में कालिख नहीं लगा लेता, उसपर से बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घर में बैठना चाहिए था।मर्द वह होते हैं जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो मुंह खोला तो लूका लगा दूंगी।
मंगई : सुनते हो फत्तू काका, इनकी बातें, जमींदार से बैर बढ़ाना इनकी समझ में दिल्लगी है। हम पुलिस वालों से चाहे न डरें, अमलों से चाहे न डरें, महाजन से चाहे बिगाड़ कर लें, पटवारी से चाहे कहा -सुनी हो जाए, पर जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैं, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदार से तो हमारा जनम-मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटियां हैं। उससे ऐंठकर कहां जाएंगे ? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो, पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते।
चेतनदास : (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब-के-सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है, पर है पोढ़ी, नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहीं, पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों से कुछ धन मिल जाए तो सबइंस्पेक्टर को मिलाकर, कुछ मायाजाल से, कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जायेब कुछ न होगा भांडा तो फूलट जाएगी। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं, यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा ! अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए ।
सलोनी : महाराज, मैं दीन-दुखिया हूँ, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आए तो दे सकती हूँ।
फत्तू : स्वामीजी, मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूँ। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहा, पर और सब तरह हाजिर हूँ।
चेतनदास : मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप के बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूँ, पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूँ। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो ?
सलोनी : (फत्तू की ओर सशंक दृष्टि से ताकते हुए) महाराज, थोड़े-से रूपये धाम करने को रख छोड़े थे।वह आपके भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है।
फत्तू : काकी, तेरे पास कुछ रूपये उसपर हों तो मुझे उधर दे दे।
सलोनी : चल, बातें बनाता है। मेरे पास रूपये कहां से आएंगे ? कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गए बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया।
फत्तू : अच्छा, नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा।
चेतनदास : अच्छा, तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन-भर में तुम लोग प्रबंध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को मैं अपने आश्रम पर चला जाऊँगा।
छठा दृश्य
स्थान : शहर वाला किराये का मकान।
समय : आधी रात। कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं।
राजेश्वरी : देवरजी, मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया । पर जिस प्रेम की आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिए सर्वस्व चाहती भी हूँ। मैंने समझा था।, एक के बदले आधी पर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूँ तो जान पड़ता है कि मुझसे भूल हो गयी। दूसरी बड़ी भूल यह हुई कि मैंने ज्ञानी देवी की ओर ध्यान नहीं दिया था।उन्हें कितना दु: ख, कितना शोक, कितनी जलन होगी, इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूं, नाराज तो न होंगे?
कंचन : तुम्हारी बात से मैं नाराज हूँगा !
राजेश्वरी : आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया ?
कंचन : इसके कई कारण हैं। मैंने धर्मग्रंथों में पढ़ा था। कि गृहस्थ जीवन मनुष्य की मोक्ष-प्राप्ति में बाधक होता है। मैंने अपना तन, मन, धन सब धर्म पर अर्पण कर दिया था।दान और व्रत को ही मैंने जीवन का उद्देश्य समझ लिया था।उसका मुख्य कारण यह था। कि मुझे प्रेम का कुछ अनुभव न था।मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था।उसे केवल माया की एक कुटलीला समझा करता था।, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेम में कितना पवित्र आनंद और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुख के सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उसका सुख भी चिंतामय है, इसका दु: ख भी रसमय।
राजेश्वरी : (वक्र नेत्रों से ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ ?
कंचन : यह न बताऊँगा।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) बताइए चाहे न बताइए, मैं समझ गई। जिस वस्तु को पाकर आप इतने मुग्ध हो गए हैं वह असल में प्रेम नहीं है। प्रेम की केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेम-रत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनंद का सच्चा अनुभव होगा।
कंचन : मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।
राजेश्वरी : है और मिलेगा। भाग्य से इतने निराश न हूजिए। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पल इच्छा करेंगे वह रत्न आपको मिल जाएगा। वह आपकी इच्छा की बाट जोह रहा है।
कंचन : (आंखों में आंसू भरकर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्म-संकट में हूँ। न जाने मेरा क्या अंत होगा। मुझे इस प्रेम पर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।
राजेश्वरी : (मन में) भगवान, मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल सरल पुरूष की हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूं क्या, अपने अपमान का बदला तो लेना ही होगी। (प्रकट) प्राणेश्वर, आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी। संसार की आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँ, दूसरों के साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा ह्रदय आपका है। मेरे प्राण आप पर न्योछावर हैं। (आंचल से कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइए। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है।
कंचन : राजेश्वरी, उस प्रेम को भोगना मेरे भाग्य में नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरूष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्न की ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरूष की-सी है जो क्षुधा से व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवता की अर्चना के लिए रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेम-रत्न कहां मिलेगा तो तुम अप्सरा भी होतीं तो आकाश से उतार लाता। दूसरों की आंख पड़ने के पहले तुम मेरी हो जातीं, फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिलीं जब तुम्हारी ओर प्रेम की दृष्टि से देखना भी मेरे लिए अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूँ। मुझे यहां इस एकांत में बैठने का, तुमसे ऐसी बातें करने का अधिकार नहीं है। पर प्रेमाघात ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिन का ब्रडाचर्य और धर्मनिष्ठा का अपहरण हो गया है। इसका परिणाम कितना भयंकर होगा, ईश्वर ही जानेब अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो। (उठ खड़ा होता है।)
राजेश्वरी : (हाथ पकड़कर) न जाने पाइएगा। जब इस धर्म का पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किए जाइए। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथ पुरी में पहुंचकर छुआछूत का विचार नहीं रहता, उसी भांति प्रेम की दीक्षा पाने के बाद धर्म-अधर्म का विचार नहीं रहता। प्रेम आदमी को पागल कर देता है। पागल आदमी के काम और बात का, विचार और व्यवहार का कोई ठिकाना नहीं ।
कंचन : इस विचार से चित्त को संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षा में मत डालो।
राजेश्वरी : अच्छा बतलाते जाइए कब आइएगा?
कंचन : कुछ नहीं जानता क्या होगी। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।
जीने से उतरता है। द्वार पर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं। कंचन एक अंधेरे बरामदे में छिप जाता है।
सबल : (उसपर जाकर) अरे ! अभी तक तुम सोयी नहीं ?
राजेश्वरी : जिनके आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहाँ?
सबल : यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट-प्रेम में होती है।
राजेश्वरी : (सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।
सबल : (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था ?
राजेश्वरी : आपकी याद।
सबल : मुझे भ्रम था। कि याद संदेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई । मैं तुमसे विनय करता हूँ, बतला दो, अभी कौन यहां से उठकर गया है ?
राजेश्वरी : आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं ?
सबल : शायद मुझे भ्रम हुआ हो।
राजेश्वरी : ठाकुर कंचनसिंह थे।
सबल : तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था। ?
राजेश्वरी : (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गए जब कोई पुरूष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है तो उसका एक ही आशय हो सकता है।
सबल : उसे तुमने आने क्यों दिया ?
राजेश्वरी : उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आई। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा ।
सबल : कहारिन उससे मिली हुई है ?
राजेश्वरी : यह उससे पूछिए।
सबल : जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया ?
राजेश्वरी : प्राणेश्वर, आप मुझसे ऐसे सवाल पूछकर दिल न जलाएं। यह कहां की रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आए तो उसको दुत्कार दिया जाए, वह भी जब आपका भाई हो, मैं इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलने में तो भय जब होता कि जब मेरा अपना चित्त चंचल होता, मुझे अपने उसपर विश्वास न होता। प्रेम के गहरे रंग में सराबोर होकर अब मुझ पर किसी दूसरे रंग के चढ़ने की सम्भावना नहीं है। हां, आप बाबू कंचनसिंह को किसी बहाने से समझा दीजिये कि अब से यहां न आएं। वह ऐसी प्रेम और अनुराग की बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यान से ही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूँ, सुनती हूँ।
सबल : (उन्मत्त होकर) पाखंडी कहीं का, धर्मात्मा बनता है, विरक्त बनता है, और कर्म ऐसे नीच ! तू मेरा भाई सही, पर तेरा वध करने में कोई पाप नहीं है। हां, इस राक्षस की हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह ! कितनी नीच प्रकृति है, मेरा सगा भाई और यह व्यवहार ! असह्य है, अक्षम्य है। ऐसे पापी के लिए नरक ही सबसे उत्तम स्थान है। आज ही इसी रात को तेरी जीवनलीला समाप्त हो जाएगी। तेरा दीपक बुझ जाएगा। हां धूर्त, क्या कामलोलुपता के लिए यही एक ठिकाना था। ! तुझे मेरे ही घर में आग लगानी थी। मैं तुझे पुत्रवत् प्यार करता था।तुझे(क्रोध से होंठ चबाकर) तेरी लाश को इन्हीं आंखों से तड़पते हुए देखूंगी।
नीचे चला जाता है।
राजेश्वरी : (आप-ही-आप) ऐसा जान पड़ता है, भगवान् स्वयं यह सारी लीला कर रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। मैं बैलों को मारा जाना नहीं देख सकती थी, चींटियों को पैरों तले पड़ते देखकर मैं पांव हटा लिया करती थी, पर अभाग्य मुझसे यह हत्याकांड करा रहा है। मेरे ही निर्दय हाथों के इशारे से यह कठपुतलियां नाच रही हैं!
करूण स्वरों में गाती है।
ऊधो, कर्मन की गति न्यारी।
गाते-गाते प्रस्थान।
सातवाँ दृश्य
स्थान : दीवानखाना।
समय : तीन बजे रात। घटा छायी हुई है। सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं।
सबल : (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहीं, आज उसकी आंखों में नींद कहां ! पड़ा-पड़ा प्रेमाग्नि में जल रहा होगा, करवटें बदल रहा होगा। उस पर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूँ वह मुझ पर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवार को सहर्ष अपनी गर्दन पर ले लेगी। हां ! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करे, वह मेरी ललकार पर सामने खड़ा हो जाए। तब यह तलवार वज्र की भांति उसकी गर्दन पर र्गिरे। अरक्षित, निश्शस्त्र पुरूष पर मुझसे आघात न होगा। जब वह करूण दीन नेत्रों से मेरी ओर ताकेगा: तो मेरी हिम्मत छूट जाएगी।
धीरे-धीरे कंचनसिंह के कमरे की ओर बढ़ता है।
हा ! मानव-जीवन कितना रहस्यमय है। हम दोनों ने एक ही मां के उदर से जन्म लिया, एक ही स्तन का दूध पिया, सदा एक साथ खेले, पर आज मैं उसकी हत्या करने को तैयार हूँ। कैसी विडम्बना है ! ईश्वर करे उसे नींद आ गई हो, सोते को मारना धर्म-विरूद्व हो, पर कठिन नहीं है। दीनता दया को जागृत कर देती है(चौंककर) अरे ! यह कौन तलवार लिये बढ़ा चला आता है । कहीं छिपकर देखूं, इसकी क्या नीयत है। लम्बा आदमी है, शरीर कैसा गठा हुआ है। किवाड़ के दरारों से निकलते हुए प्रकाश में आ जाये तो देखूं कौन है ? वह आ गया। यह तो हलधर मालूम होता है, बिल्कुल वही है, लेकिन हलधर के दाढ़ी नहीं थी। सम्भव है दाढ़ी निकल आयी हो, पर है हलधर, हां वही है, इसमें कोई संदेह नहीं है। राजेश्वरी की टोह किसी तरह मिल गयी। अपमान का बदला लेना चाहता है। कितना भयंकर स्वरूप हो गया है। आंखें चमक रही हैं। अवश्य हममें से किसी का खून करना चाहता है। मेरी ही जान का गाहक होगी। कमरे में झांक रहा है। चाहूँ तो अभी पिस्तौल से इसका काम तमाम कर दूं। पर नहीं खूब सूझी। क्यों न इससे वह काम लूं जो मैं नहीं कर सकता। इस वक्त कौशल से काम लेना ही उचित है। (तलवार छिपाकर) कौन है, हलधर ?
हलधर तलवार खींचकर चौकन्ना हो जाता है।
सबल : हलधर, क्या चाहते हो ?
हलधर : (सबल के सामने आकर) संभल जाइएगा, मैं चोट करता हूँ।
सबल : क्यों मेरे खून के प्यासे हो रहे हो ?
हलधर : अपने दिल से पूछिए।
सबल : तुम्हारा अपराधी मैं नहीं हूँ, कोई दूसरा ही है।
हलधर : क्षत्री होकर आप प्राणों के भय से झूठ बोलते नहीं लजाते ?
सबल : मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ।
हलधर : सरासर झूठ है। मेरा सर्वनाश आपके हाथों हुआ है। आपने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी । मेरे घर में आग लगा दी और अब आप झूठ बोलकर अपने प्राण बचाना चाहते हैं। मुझे सब खबरें मिल चुकी हैं। बाबा चेतनदास ने सारा कच्चा चित्ता मुझसे कह सुनाया है। अब बिना आपका खून पिए इस तलवार की प्यास न बुझेगी।
सबल : हलधर, मैं क्षत्रिय हूँ और प्राणों को नहीं डरता। तुम मेरे साथ कमरे तक आओ। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मैं कोई छल-कपट न करूंगा। वहां मैं तुमसे सब वृत्तांत सच-सच कह दूंगा। तब तुम्हारे मन में जो आए, वह करना।
हलधर चौकन्नी दृष्टि से ताकता हुआ सबल के साथ उसके दीवानखाने में जाता है।
सबल : तख्त पर बैठ जाओ और सुनो। यह सारी आग कंचनसिंह की लगाई हुई है। उसने कुटनी द्वारा राजेश्वरी को घर से निकलवा लिया है। उसके गोरूंदों ने राजेश्वरी का उससे बखान किया होगा वह उस पर मोहित हो गया और तुम्हें जेल पहुंचाकर अपनी इच्छा पूरी की जबसे मुझे यह समाचार मिला है, मैं उसका शत्रु हो गया हूँ। तुम जानते हो, मुझे अत्याचार से कितनी घृणा है। अत्याचारी पुरूष चाहे वह मेरा पुत्र ही क्यों न हो, मेरी दृष्टि में हिंसक जंतु के समान है और उसका वध करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इसीलिए मैं यह तलवार लेकर कंचनसिंह का वध करने जा रहा था।इतने में तुम दिखायी पड़े। मुझे अब मालूम हुआ कि जिसे मैं बड़ा धर्मात्मा, ईश्वरभक्त, सदाचारी, त्यागी समझता था। वह वास्तव में एक परले दर्जे का व्याभिचारी, विषयी मनुष्य है। इसीलिए उसने अब तक विवाह नहीं किया। उसने कर्मचारियों को घूस देकर तुम्हें चुपके-चुपके गिरफ्तारी करा लिया और अब राजेश्वरी के साथ विहार करता है। अभी आधी रात को वहां से लौटकर आया है। मैंने तुमसे सारा वृत्तांत कह सुनाया, अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।
हलधर लपककर कंचनसिंह के कमरे की ओर चलता है।
सबल : ठहरो-ठहरो, यों नहीं सम्भव है तुम्हारी आहट पाकर जाग उठे। नौकर-सिपाही उसका चिल्लाना सुनकर जाग पड़ें। प्रात: काल वह गंगा नहाने जाता है। उस वक्त अंधेरा रहता है। वहीं तुम उसे गंगा की भेंट कर सकते हो, घात लगाए रहो, अवसर आते ही एक हाथ में काम तमाम कर दो और लाश को वहीं बहा दो। तुम्हारा मनोरथ पूरा होने का इससे सुगम उपाय नहीं है।
हलधर : (कुछ सोचकर) मुझे धोखा तो नहीं देना चाहते ? इस बहाने से मुझे टाल दो और फिर सचेत हो जाओ और मुझे पकड़वा देने का इंतजाम करो।
सबल : मैंने ईश्वर की कसम खायी है, अगर अब भी तुम्हें विश्वास न आए तो जो चाहे करो।
हलधर : अच्छी बात है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा। अगर इस समय धोखा देकर बच भी गए तो फिर क्या कभी दाव ही न आएगा ? मेरे हाथों से बचकर अब नहीं जा सकते। मैं चाहूँ तो एक क्षण में तुम्हारे कुल का नाश कर दूं, पर मैं हत्यारा नहीं हूँ। मुझे धन की लालसा नहीं है। मैं तो केवल अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। आपको भी सचेत किए देता हूँ। मैं अभी और टोह लगाऊँगा। अगर पता चला कि आपने मेरा घर उजाड़ा है तो मैं आपको भी जीता न छोडूंगा। मेरा तो जो होना था। हो चुका, पर मैं अपने उजाड़ने वालों को कुकर्म का सुख न भोगने दूंगा।
चला जाता है।
सबल : (मन में) मैं कितना नीच हो गया हूँ। झूठ, दगा गरे। किसी पाप से भी मुझे हिचक नहीं होती। पर जो कुछ भी हो, हलधर बड़े मौके से आ गया अब बिना लाठी टूटे ही सांप मरा जाता है।
प्रस्थान
आठवाँ दृश्य
स्थान : नदी का किनारा।
समय : चार बजे भोर, कंचन पूजा की सामग्री लिए आता है और एक तख्त पर बैठ जाता है, फिटन घाट के उसपर ही रूक जाती है।
कंचन : (मन में) यह जीवन का अंत है ! यह बड़े-बड़े इरादों और मनसूबों का परिणाम है। इसीलिए जन्म लिया था।यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया-बंधनों से मुक्त रहकर आत्मा को उच्चतम पद पर ले जाना चाहता था।यह वही महान पद है। यही मेरी सुकीर्तिरूपी धर्मशाला है, यही मेरा आदर्श कृष्ण मंदिर है ! इतने दिनों के नियम और संयम, सत्संग और भक्ति, दान और व्रत ने अंत में मुझे वहां पहुंचाया जहां कदाचित् भ्रष्टाचार और कुविचार, पाप और कुकर्म ने भी न पहुंचाया होता। मैंने जीवन यात्रा का कठिनतम मार्ग लिया, पर हिंसक जीव-जंतुओं से बचने का, अथाह नदियों को पार करने का, दुर्गम घाटियों से उतरने का कोई साधन अपने साथ न लिया। मैं स्त्रियों से रहता था।, इन्हें जीवन का कांटा समझता था।, इनके बनाव-श्रृंगार को देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज वह स्त्री जो मेरे भाई की प्रेमिका है, जो मेरी माता के तुल्य है, प्रेम में इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था। ! हाय, यह आग अब बुझती नहीं दिखायी देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शांत होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवन का अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीने से यह ताप और ज्वाला दिन-दिन प्रचंड होगी। घुल-घुलकर, कुढ़-कुढ़कर मरने से, घर में बैर का बीज बोने से, जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करने से यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूल ही का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरी को किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यान से नहीं उतार सकता।
चेतनदास का प्रवेश।
कंचन : स्वामी जी को दंडवत् करता हूँ।
चेतनदास : बाबा, सदा सुखी रहो, इधर कई दिनों से तुमको नहीं देखा । मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे ?
कंचन : नहीं महाराज, आपके आशीर्वाद से कुशल से हूँ। पर कुछ ऐसे झंझटों में पड़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका । बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रात: काल आपके दर्शन हो गए। आप तीर्थयात्रा पर कब जाने का विचार कर रहे हैं ?
चेतनदास : बाबा, अब तक तो चला गया होता, पर भगतों से पिंड नहीं छूटता। विशेषत: मुझे तुम्हारे कल्याण के लिए तुमसे कुछ कहना था। और बिना कहे मैं न जा सकता था।यहां इसी उद्देश्य से आया हूँ। तुम्हारे उसपर एक घोर संकट आने वाला है । तुम्हारा भाई सबलसिंह तुम्हें वध कराने की चेष्टा कर रहा है। घातक शीघ्र ही तुम्हारे उसपर आघात करेगी। सचेत हो जाओ।
कंचन : महाराज, मुझे अपने भाई से ऐसी आशंका नहीं है।
चेतनदास : यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम र्ईर्ष्या में मनुष्य अस्थिरचित्त, उन्मत्त हो जाता है।
कंचन : यदि ऐसा ही हो तो मैं क्या कर सकता हूँ ? मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पाप के बोझ से दबी हुई है।
चेतनदास : यह क्षत्रियों की बातें नहीं हैं। भूमि, धन और नारी के लिए संग्राम करना क्षत्रियों का धर्म है। उन वस्तुओं पर उसी का वास्तविक अधिकार है जो अपने बाहुबल से उन्हें छीन सके इस संग्राम में दया और धर्म, विवेक और विचार, मान और प्रतिष्ठा, सभी कायरता के पर्याय हैं। यही उपदेश कृष्ण भगवान ने अर्जुन को दिया था।, और वही उपदेश मैं तुम्हें दे रहा हूँ। तुम मेरे भक्त हो इसलिए यह चेतावनी देना मेरा कर्तव्य था।योद्वाओं की भांति क्षेत्र में निकलो और अपने शत्रु के मस्तक को पैरों से कुचल डालो, उसका गेंद बनाकर खेलो अथवा अपनी तलवार की नोक पर उछालो।यही वीरों का धर्म है। जो प्राणी क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर संग्राम से मुह मोड़ता है, वह केवल कापुरूष ही नहीं, पापी है, विधर्मी है, दुरात्मा है। कर्मक्षेत्र में कोई किसी का पुत्र नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं, सब एक दूसरे के शत्रु हैं। यह समस्त संसार कुछ नहीं, केवल एक वृहत्, विराट् शत्रुता है। दर्शनकारों और धर्माचायोऊ ने संसार को प्रेममय कहा है। उनके कथनानुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। यह भ्रांति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने संसार को वेष्ठित कर रखा है। भूल जाओ कि तुम किसी के भाई हो, जो तुम्हारे उसपर आघात करे उसका प्रतिघात करो, जो तुम्हारी ओर वक्र नेत्रों से ताके उसकी आंखें निकाल लो। राजेश्वरी तुम्हारी है, प्रेम के नाते उस पर तुम्हारा ही अधिकार है। अगर तुम अपने कर्तव्य-पथ से हटकर उसे उस पुरूष के हाथों में छोड़ दोगे जिससे उसे पहले चाहे प्रेम रहा हो, पर अब वह उससे घृणा करती है, तो तुम न्याय, नीति और धर्म के घातक सिद्व होगे और जन्म-जन्मान्तरों तक इसका दंड भोगते रहोगे
चेतनदास का प्रस्थान
कंचन : (मन में) मन, अब क्या कहते हो ? क्षत्रिय धर्म का पालन करके भाई से लड़ोगे, उसके प्राणों पर आघात करोगे या क्षत्रिय धर्म को भंग करके आत्महत्या करोगे ? जी तो मरने को नहीं चाहता। अभी तक भक्ति और धर्म के जंजाल में पड़ा रहा, जीवन का कुछ सुख नहीं देखा । अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई हो क्षत्रियधर्म के विरूद्व, पर भाई से मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत् प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंह से सुना हो । वह योग्य हैं, विद्वान् हैं, कुशल हैं। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैया का शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्म सिद्वांत न होते तो जरा-जरा-सी बात पर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथ से जाता ? नहीं, कदापि नहीं, मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्माजी उन पर भी मिथ्या दोषारोपण कर गए। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझ पर इतने निर्दय हो जायेंगी। उनके दया और शील का पारावार नहीं वह मेरी प्राणहत्या का संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं, हजार राजेश्वरियां हों, पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। हाय, अभी एक क्षण में यह घटना सारे नगर में फैल जाएगी । लोग समझेंगे, पांव फिसल गया होगा। राजेश्वरी क्या समझेगी ? उसे मुझसे प्रेम है, अवश्य शोक करेगी, रोयेगी और अब से कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया ? हाय, यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुंह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूं। मैंने धर्म-हत्या की है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तो भी मुझे आह भरने का अधिकार नहीं है। मेरे लिए अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदान से ही अब शांति होगी । पर भैया पर मेरे हाथ न उठेंगी। पानी गहरा है। भगवान्, मैंने पाप किये हैं, तुम्हें मुंह दिखाने योग्य नहीं हूँ। अपनी अपार दया की छांह में मुझे भी शरण देना। राजेश्वरी, अब तुझे कैसे देखूंगा?
पीलपाये पर खड़ा होकर अथाह जल में कूद पड़ता है। हलधर का तलवार और पिस्तौल लिये आना।
हलधर : बड़े मौके से आया। मैंने समझा था। देर हो गयी। पाखंडी कुकर्मी कहीं का। रोज गंगा नहाने आता है, पूजा करता है, तिलक लगाता है, और कर्म इतने नीच। ऐसे मौके से मिले हो कि एक ही बार में काम तमाम कर दूंगा। और परायी स्त्रियों पर निगाह डालो ! (पीलपाये की आड़ में छिपकर सुनता है) पापी भगवान् से दया की याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है कि एक क्षण में नर्क के द्वार पर खड़ा होगा। राजेश्वरी, अब तुम्हें कैसे देखूंगा ? अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौल का निशाना लगाता है।) अरे ! यह तो आप-ही-आप पानी में कूद पड़ा, क्या प्राण देना चाहता है ? (पिस्तौल किनारे की ओर फेंककर पानी में कूद पड़ता है और कंचनसिंह को गोद में लिए एक क्षण में बाहर आता है। मन में) अभी पानी पेट में बहुत कम गया है। इसे कैसे होश में लाऊँ ? है तो यह अपना बैरी, पर जब आप ही मरने पर उतारू है तो मैं इस पर क्या हाथ उठाऊँ। मुझे तो इस पर दया आती है।
कंचनसिंह को लेटाकर उसकी पीठ में घुटने लगाकर उसकी बांहों को हिलाता है। चेतनदास का प्रवेश।
चेतनदास : (आश्चर्य से) यह क्या दुर्घटना हो गयी ? क्या तूने इनको पानी में डूबा दिया ?
हलधर : नहीं महाराज, यह तो आप नदी में कूद पड़े । मैं तो बाहर निकाल लाया हूँ ?
चेतनदास : लेकिन तू इन्हें वध करने का इरादा करके आया था।मूर्ख, मैंने तुझे पहले ही जता दिया था। कि तेरा शत्रु सबलसिंह है, कंचनसिंह नहीं पर तूने मेरी बात का विश्वास न किया। उस धूर्त सबल के बहकाने में आ गया। अब फिर कहता हूँ कि तेरा शत्रु वही है, उसी ने तेरा सर्वनाश किया है, वही राजेश्वरी के साथ विलास करता है।
हलधर : मैंने इन्हें राजेश्वरी का नाम लेते अपने कानों से सुना है।
चेतनदास : हो सकता है कि राजेश्वरी जैसी सुंदरी को देखकर इसका चित्त भी चंचल हो गया हो, सबलसिंह ने संदेहवश इसके प्राण हरण की चेष्टा की हो, बस यही बात है।
हलधर : स्वामी जी क्षमा कीजिएगा, मैं सबलसिंह की बात में आ गया। अब मुझे मालूम हो गया कि वही मेरा बैरी है। र्इश्वर ने चाहा तो वह भी बहुत दिन तक अपने पाप का सुख न भोगने पायेंगा।
चेतनदास : (मन में) अब कहां जाता है ? आज पुलिस वाले भी घर की तलाशी हुई। अगर उनसे बच गया तो यह तो तलवार निकाले बैठा ही है। ईश्वर की इच्छा हुई तो अब शीघ्र ही मनोरथ पूरे होंगे। ज्ञानी मेरी होगी और मैं इस विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। कोई व्यवसाय, कोई विद्या, मुझे इतनी जल्द इतना सम्पत्तिशाली न बना सकती थी।
प्रस्थान।
कंचन : (होश में आकर) नहीं, तुम्हारा शत्रु मैं हूँ। जो कुछ किया है, मैंने किया है । भैया निर्दोष हैं, तुम्हारा अपराधी मैं हूँ। मेरे जीवन का अंत हो, यही मेरे पापों का दंड है। मैं तो स्वयं अपने को इस पाप-जाल से मुक्त करना चाहता था।तुमने क्यों मुझे बचा लिया ? (आश्चर्य से) अरे, यह तो तुम हो, हलधर ?
हलधर : (मन में) कैसा बेछल-कपट का आदमी है। (प्रकट) आप आराम से लेटे रहें, अभी उठिए न।
कंचन : नहीं, अब नहीं लेटा जाता । (मन में) समझ में आ गया, राजेश्वरी इसी की स्त्री है। इसीलिए भैया ने वह सारी माया रची थी। (प्रकट) मुझे उठाकर बैठा दो। वचन दो कि भैया का कोई अहित न करोगे।
हलधर : ठाकुर, मैं यह वचन नहीं दे सकता।
कंचन : किसी निर्दोष की जान लोगे ? तुम्हारा घातक मैं हूँ। मैंने तुम्हें चुपके से जेल भिजवाया और राजेश्वरी को कुटनियों द्वारा यहां बुलाया।
तीन डाकू लाठियां लिये आते हैं।
एक : क्यों गुरू, पड़ा हाथ भरपूर ?
दूसरा : यह तो खासा टैयां सा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊँ।
हलधर : खबरदार, हाथ न उठाना।
दूसरा : क्या कुछ हत्थे चढ़ गया क्या ?
हलधर : हां, असर्फियों की थैली है। मुंह धो रखना ।
तीसरा : यह बहुत कड़ा ब्याज लेता है। सब रूपये इसकी तोंद में से निकाल लो।
हलधर : जबान संभालकर बात करो।
पहला : अच्छा, इसे ले चलो, दो-चार दिन बर्तन मंजवायेंगे। आराम करते-करते मोटा हो गया है।
दूसरा : तुमने इसे क्यों छोड़ दिया ?
हलधर : इसने वचन दिया कि अब सूद न लूंगा।
पहला : क्यों बच्चा, गुरू को सीधा समझकर झांसा दे दिया ।
हलधर : बक-बक मत करो। इन्हें नाव पर बैठाकर डेरे पर लेते चलो।यह बेचारे सूद-ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाई के हुकुम से लेते हैं। आज उसी की खबर लेने का विचार है।
सब कंचन को सहारा देकर नाव पर बैठा देते हैं और गाते हुए नाव चलाते हैं।
नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए !
मानुष तन है दुर्लभ जग में इसका फल पाना चहिए!
दुर्जन संग नरक का मारग उससे दूर जाना चहिए!
सत संगत में सदा बैठ के हरि के गुण गाना चहिए!
धरम कमाई करके अपने हाथों की खाना चहिए!
परनारी को अपनी माता के समान जाना चहिए!
झूठ-कपट की बात सदा कहने में शरमाना चहिए!
कथा। पुरान संत संगत में मन को बहलाना चहिए!
नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए!
नवाँ दृश्य
स्थान : गुलाबी का मकान।
समय : संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है।
गुलाबी : भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी तो हाथ में छ: सौ रूपये की थैली होगी। इतने रूपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु-महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजी ने यह मंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूं, यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगी। यही तो मैं चाहती हूँ । उसका मानमर्दन हो जाये, घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है ? दुबले होते जाते हो?
भृगु : क्या करूं ? सारे दिन बही खोले बैठे-बैठे थक जाता हूँ। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़ा पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूँ, न कोई उत्तम वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मेवा-मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए । रोटी, दाल, चावल तो मजदूरों का भोजन है। सांझ-सबेरे वायु-सेवन करना चाहिए । कभी-कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए । पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं यही होगा कि सूखते-सूखते एक दिन जान से चला जाऊँगी।
गुलाबी : ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुंह से निकालते हो ? मेरे जान में तो कुछ फेर-फार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर-करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियां टोनिहारी होती हैं।
भृगु : कौन जाने यही बात हो, कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो, रात को आने लगता हूँ तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढाढ़स देता हुआ चला आता हूँ। लोग कहते हैं, पहले वहां किसी की कबर थी।
गुलाबी : मैं स्वामीजी के पास से यह जंतर लायी हूँ। इसे गले में बांध लो, शंका मिट जाएगी। और कल से अपने लिए पाव-भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़ा दिया करो, वह तुम्हें दूध दे देगा।
भृगु : जंतर लाओ मैं बांध लूं, पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़ा सकूंगा। लिखने-पढ़ने का काम करते-करते सारे दिन यों ही थक जाता हूँ। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूँगा, मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दुकान खुलवा दो।
गुलाबी : बेटा, दुकान के लिए तो पूंजी चाहिए । इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो।फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखो, देवीजी ने खाना बना लिया ? आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है।
भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है गुलाबी चौके में जाती है।
गुलाबी : पीढ़ा तक नहीं रखा, लोटे का पानी तक नहीं रखा । अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथ से आसन डालूं तब खाना खाऊँ । क्यों इतने घमंड के मारे मरी जाती हो, महारानी ? थोड़ा इतराओ, इतना आकाश पर दिया न जलाओ।
चम्पा थाली लाकर गुलाबी के सामने रख देती है। वह एक कौर उठाती है और क्रोध से थाली चम्पा के सिर पर पटक देती है।
भृगु : क्या है, अम्मां ?
गुलाबी : है क्या, यह डाकून मुझे विष देने पर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है ? मार नमक भर दिया । भगवान् न जाने कब इसकी मिट्टी इस घर से उठाएंगी। मर गए इसके बाप-चचा। अब कोई झांकता तक नहीं जब तक ब्याह न हुआ था।, द्वार की मिट्टी खोदे डालते थे।इतने दिन इस अभागिनी को रसोई बनाते हो गए, कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेट भर भोजन किया हो, यह मेरे पीछे पड़ी हुई है?
भृगु : अम्मां, देखो सिर लोहूलुहान हो गया । जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदन में छाले पड़ गए। ऐसा भी कोई क्रोध करता है।
गुलाबी : (मुंह चिढ़ाकर) हां-हां, देख, मरहम-पट्टी कर। दौड़ डाक्टर को बुला ला, नहीं कहीं मर न जाए। अभी लौंडा है, त्रिया-चरित्र देखा कर । मैंने उधर पीठ फेरी, इधर ठहाके की हंसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़ाने से तो इसका मिजाज इतना बढ़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दाल में क्यों इतना नमक झोंक दिया, उल्टे और घाव पर मरहम रखने चला है। (झमककर चली जाती है।)
चम्पा : मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
भृगु : सारा सिर लोहूलुहान हो गया । इसके पास रूपये हैं, उसी का इसे घमंड है। किसी तरह रूपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।
चम्पा : तब तक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।
भृगु : सबर का फल मीठा होता है।
चम्पा : इस घर में अब मेरा निबाह न होगी। इस बुढ़िया को देखकर आंखों में खून उतर आता है।
भृगु : अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरों रखी थी। वादे के दिन टल गयेब ठाकुर का कहीं पता नहीं । पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या ! मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पांच रूपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं । ठाकुर लौटेगा तो देखा जाएगी। पचास रूपये से कम का माल नहीं है।
चम्पा : सच !
भृगु : हां अभी तौले आता हूँ। पूरे दो तोले है।
चम्पा : तो कब ला दोगे ?
भृगु : कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ ?
चम्पा : सुबह कहने लगीं, खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में उसपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के । वह एक-न -एक खुचड़ निकालती हैं तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूँ।
भृगु : अच्छा, अब मुझे भी भूख लगी है, चलो।
चम्पा : (आप-ही-आप) सिर में जरा-सी चोट लगी तो क्या, कानों की बालियां तो मिल गयीं ? इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन-भर थालियां पटका करे।
प्रस्थान।