संग्राम (नाटक) : मुंशी प्रेमचंद
Sangram (Play) : Munshi Premchand
संग्राम (नाटक) अंक-2
पहला दृश्य
स्थान : चेतनदास की कुटी, गंगातट।
समय : संध्या।
सबल : महाराज, मनोवृत्तियों के दमन करने का सबसे सरल उपाय क्या है ?
चेतनदास : उपाय बहुत हैं, किंतु मैं मनोवृत्तियों के दमन करने का उपदेश नहीं करता। उनको दमन करने से आत्मा संकुचित हो जाती है। आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियों का दमन कर दिया जाए तो मनुष्य की चेतना-शक्ति लुप्त हो जाएगी। योगियों ने इच्छाओं को रोकने के लिए कितने यत्न लिखे हैं। हमारे योगग्रंथ उन उपदेशों से परिपूर्ण हैं। मैं इन्द्रियों का दमन करना अस्वाभाविक, हानिकर और आपत्तिजनक समझता हूँ।
सबल : (मन में) आदमी तो विचारशील जान पड़ता है। मैं इसे रंगा हुआ समझता था।(प्रकट) यूरोप के तभवज्ञानियों ने कहीं-कहीं इस विचार का पुष्टीकरण किया है, पर अब तक मैं उन विचारों को भ्रांतिकारक समझता था।आज आपके श्रीमुख से उनका समर्थन सुनकर मेरे कितने ही निश्चित सिद्वांतों को आघात पहुंच रहा है।
चेतनदास : इंद्रियों द्वारा ही हमको जगत् का ज्ञान प्राप्त होता है। वृत्तियों का दमन कर देने से ज्ञान का एकमात्र द्वार ही बंद हो जाता है। अनुभवहीन आत्मा कदापि उच्च पद नहीं प्राप्त कर सकती। अनुभव का द्वार बंद करना विकास का मार्ग बंद करना है, प्रकृति के सब नियमों के कार्य मंन बाधा डालना है। आत्मा मोक्षपद प्राप्त कर सकती है। जिसने अपने ज्ञान द्वारा इंद्रियों को मुक्त रखा हो, त्याग का महत्व आडान में नहीं है। जिसने मधुर संगीत सुना ही न हो उसे संगीत की रूचि न हो तो कोई आश्चर्य नहीं आश्चर्य तो तब है जब वह संगीतकला का भली-भांति आस्वादन करने, उसमें लिप्त होने के बाद वृत्तियों को उधर से हटा ले। वृत्तियों का दमन करना वैसा ही है जैसे बालको को खड़े होने या दौड़ने से रोकना। ऐसे बालक को चोट चाहे न लगे पर वह अवश्य ही अपंग हो जाएगी।
सबल : (मन में) कितने स्वाधीन और मौलिक विचार हैं। (प्रकट) तब तो आपके विचार में हमें अपनी इच्छाओं को अबाध्य कर देना चाहिए ।
चेतनदास : मैं तो यहां तक कहता हूँ कि आत्मा के विकास में पापों का भी मूल्य है। उज्ज्वल प्रकाश सात रंगों के सम्मिश्रण से बनता है। उसमें लाल रंग का महत्व उतना ही है जितना नीले या पीले रंग का। उत्तम भोजन वही है जिसमें षट्रसों का सम्मिश्रण हो, इच्छाओं को दमन करो, मनोवृत्तियों को रोको, यह मिथ्या तभववादियों के ढकोसले हैं। यह सब अबोध बालकों को डराने के जू-जू हैं। नदी के तट पर न जाओ, नहीं तो डूब जाओगे, यह मूर्ख माता-पिता की शिक्षा है। विचारशील प्राणी अपने बालको को नदी के तट पर केवल ले ही नहीं जाते वरन् उसे नदी में प्रविष्ट कराते हैं, उसे तैरना सिखाते हैं।
सबल : (मन में) कितनी मधुर वाणी है। वास्तव में प्रेम चाहे कलुषित ही क्यों न हो, चरित्र-निर्माण में अवश्य अपना स्थान रखता है। (प्रकट) तो पाप कोई घृणित वस्तु नहीं ?
चेतनदास : कदापि नहीं संसार में कोई वस्तु घृणित नहीं है, कोई वस्तु त्याज्य नहीं है। मनुष्य अहंकार के वश होकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। वास्तव में धर्म और अधर्म, सुविचार और कुविचार, पाप और पुण्य, यह सब मानव जीवन की मध्यवर्ती अवस्थाएं मात्र हैं।
सबल : (मन में) कितना उदार ह्रदय है ! (प्रकट) महाराज, आपके उपदेश से मेरे संतप्त मन को बड़ी शांति प्राप्त हुई (प्रस्थान)।
चेतनदास : (आप-ही-आप) इस जिज्ञासा का आशय खूब समझता हूँ। तुम्हारी अशांति का रहस्य खूब जानता हूँ। तुम फिसल रहे थे, मैंने एक धक्का और दे दिया । अब तुम नहीं संभल सकते।
दूसरा दृश्य
समय : संध्या।
स्थान : सबलसिंह की बैठक।
सबल : (आप-ही-आप) मैं चेतनदास को धूर्त समझता था।, पर यह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना तेज और शौर्य है ! ज्ञानी उनके दर्शनों को लालायित है। क्या हर्ज है ! ऐसे आत्म-ज्ञानी पुरूषों के दर्शन से कुछ उपदेश ही मिलेगी।
कंचनसिंह का प्रवेश।
कंचन : (तार दिखाकर) दोनों जगह हार हुई पूना में घोड़ा कट गया। लखनऊ में जाकी घोड़े से फिर पड़ा।
सबल : यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। कोई पांच हजार का नुकसान हो गया।
कंचन : गल्ले का बाजार चढ़ गया। अगर अपना गेहूँ दस दिन और न बेचता तो दो हजार साफ निकल आते।
सबल : पर आगम कौन जानता था।
कंचन : असामियों से एक कौड़ी वसूल होने की आशा नहीं सुना है कई असामी घर छोड़कर भागने की तैयारी कर रहे हैं। बैल-बधिया बेचकर जाएंगी। कब तक लौटेंगे, कौन जानता है। मरें, जिएं, न जाने क्या हो ! यत्न न किया गया तो ये सब रूपये भी मारे जाएंगी। पांच हजार के माथे जाएगी। मेरी राय है कि उन पर डिगरी कराके जायदादें नीलाम करा ली जाएं। असामी सब-के-सब मातबर हैं¼ लेकिन ओलों ने तबाह कर दिया ।
सबल : उनके नाम याद हैं ?
कंचन : सबके नाम तो नहीं, लेकिन दस-पांच नाम छांट लिए हैं। जगरांव का लल्लू, तुलसी, भूगोर, मधुबन का सीता, नब्बी, हलधर, चिरौंजी।
सबल : (चौंककर) हलधर के जिम्मे कितने रूपये हैं ?
कंचन : सूद मिलाकर कोई दो सौ पचास होंगी।
सबल : (मन में) बडी विकट समस्या है` मेरे ही हाथों उसे यह कष्ट पहुंचे ! इसके पहले मैं इन हाथों को ही काट डालूंगा। उसकी एक दया-दृष्टि पर ऐसे-ऐसे कई ढाई सौ न्यौछावर हैं। वह मेरी है, उसे ईश्वर ने मेरे लिए बनाया है, नहीं तो मेरे मन में उसकी लगन क्यों होती। समाज के अनर्गल नियमों ने उसके और मेरे बीच यह लोहे की दीवार खड़ी कर दी है। मैं इस दीवार को खोद डालूंगा। इस कांटे को निकालकर फूलको गले में डाल लूंगा। सांप को हटाकर मणि को अपने ह्रदय में रख लूंगा। (प्रकट) और असामियों की जायदाद नीलाम करा सकते हो, हलधर की जायदाद नीलाम कराने के बदले मैं उसे कुछ दिनों हिरासत की हवा खिलाना चाहता हूँ। वह बदमाश आदमी है, गांव वालों को भडकाता है कुछ दिन जेल में रहेगा तो उसका मिजाज ठंडा हो जाएगा।
कंचन : हलधर देखने में तो बडा सीधा और भोला आदमी मालूम होता है
सबल : बना हुआ है तुम अभी उसके हथकंडों को नहीं जानते। मुनीम से कह देना, वह सब कार्रवाई कर देगी। तुम्हें अदालत में जाने की जरूरत नहीं।
कंचनसिंह का प्रस्थान।
सबल : (आप-ही-आप) ज्ञानियों ने सत्य ही कहा - ' है कि काम के वश में पड़कर मनुष्य की विद्या, विवेक सब नष्ट हो जाते हैं। यदि वह नीच प्रकृति है तो मनमाना अत्याचार करके अपनी तृष्णा को पूरी करता है¼ यदि विचारशील है तो कपट-नीति से अपना मनोरथ सिद्व करता है। इसे प्रेम नहीं कहते, यह है काम-लिप्सा। प्रेम पवित्र, उज्ज्वल, स्वार्थ-रहित, सेवामय, वासना-रहित वस्तु है। प्रेम वास्तव में ज्ञान है। प्रेम से संसार सृष्टि हुई, प्रेम से ही उसका पालन होता है। यह ईश्वरीय प्रेम है। मानव-प्रेम वह है जो जीव-मात्र को एक समझे, जो आत्मा की व्यापकता को चरितार्थ करे, जो प्रत्येक अणु में परमात्मा का स्वरूप देखे, जिसे अनुभूत हो कि प्राणी-मात्र एक ही प्रकाश की ज्योति है। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेम के शेष जितने रूप हैं, सब स्वार्थमय, पापमय हैं। ऐसे कोढ़ी को देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गए हों अगर हम विडल हो जाएं और उसे तुरंत गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुंदर, मनोहर स्वरूप को देखकर सभी का चित्त आकर्षित होता है, किसी का कम, किसी का ज्यादा। जो साधनहीन हैं, द्रियाहीन हैं, या पौरूषहीन हैं वे कलेजे पर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो-एक दिन में भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैं, चतुर हैं, साहसी हैं, उद्योगशील हैं, वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेम-वृत्ति अपने सामर्थ्य के बाहर बहुत कम जाती है। बाजार की लड़की कितनी ही सर्वगुणपूर्ण हो पर मेरी वृत्ति उधर जाने का नाम न लेगी। वह जानती है कि वहां मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरी के विषय में मुझे संशय न था।वहां भय, प्रलोभन, नृशंसता, किसी युक्ति का प्रयोग किया जा सकता था।अंत में, यदि ये सब युक्तियां विफल होतीं तो।
अचलसिंह का प्रवेश।
अचल : दादाजी, देखिए नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है। अभी मैं फुटबाल देखकर आया हूँ, कहता हूँ, जूता उतार दे, लेकिन वह लालटेन साफ कर रहा है, सुनता ही नहीं आप मुझे कोई अलग एक नौकर दे दीजिए, जो मेरे काम के सिवा और किसी का काम न करे।
सबल : (मुस्कराकर) मैं भी एक गिलास पानी मागूं तो न दे ?
अचल : आप हंसकर टाल देते हैं, मुझे तकलीफ होती है। मैं जाता हूँ, इसे खूब पीटता हूँ।
सबल : बेटा, वह काम भी तो तुम्हारा ही है। कमरे में रोशनी न होती तो उसके सिर होते कि अब तक लालटेन क्यों नहीं जलाई। क्या हर्ज है, आज अपने ही हाथ से जूते उतार लो।तुमने देखा होगा, जरूरत पड़ने पर लेडियां तक अपने बक्स उठा लेती हैं। जब बम्बे मेल आती है तो जरा स्टेशन पर देखो।
अचल : आज अपने जूते उतार लूं, कल को जूतों में रोगन भी आप ही लगा लूं, वह भी तो मेरा ही काम है, फिर खुद ही कमरे की सगाई भी करने लगूं¼ अपने हाथों टब भी भरने लगूं, धोती भी छांटने लगूं।
सबल : नहीं, यह सब करने को मैं नहीं कहता, लेकिन अगर किसी दिन नौकर न मौजूद हो तो जूता उतार लेने में कोई हानि नहीं है।
अचल : जी हां, मुझे यह मालूम है, मैं तो यहां तक मानता हूँ कि एक मनुष्य को अपने दूसरे भाई से सेवा-टहल कराने का कोई अधिकार ही नहीं है। यहां तक कि साबरमती आश्रम में लोग अपने हाथों अपना चौका लगाते हैं, अपने बर्तन मांजते हैं और अपने कपड़े तक धो लेते हैं। मुझे इसमें कोई उज्र या इंकार नहीं है, मगर तब आप ही कहने लगेंगे: बदनामी होती है, शर्म की बात है, और अम्मांजी की तो नाक ही कटने लगेगी। मैं जानता हूँ नौकरों के अधीन होना अच्छी आदत नहीं है। अभी कल ही हम लोग कण्व स्थान गए थे।हमारे मास्टर थे और पंद्रह लड़के ग्यारह बजे दिन को धूप में चले। छतरी किसी के पास नहीं रहने दी गई। हां, लोटा-डोर साथ था।कोई एक बजे वहां पहुंचे। कुछ देर पेड़ के नीचे दम लिया। तब ताला। में स्नान किया। भोजन बनाने की ठहरी। घर से कोई भोजन करके नहीं गया था।फिर क्या था, कोई गांव से जिंस लाने दौड़ा, कोई उपले बटोरने लगा, दो-तीन लड़के पेड़ों पर चढ़कर लकड़ी तोड़ लाए, कुम्हार के घर से हांडियां और घड़े आए। पत्तों के पत्तल हमने खुद बनाए। आलू का भर्ता और बाटियां बनाई गई।खाते-पकाते चार बज गए। घर लौटने की ठहरी। छ: बजते-बजते यहां आ पहुंचे। मैंने खुद पानी खींचा, खुद उपले बटोरे। एक प्रकार का आनंद और उत्साह मालूम हो रहा था।यह ट्रिप (क्षमा कीजिएगा अंग्रेजी शब्द निकल गया। ) चक्कर इसीलिए तो लगाया गया था। जिसमें हम जरूरत पड़ने पर सब काम अपने हाथों से कर सकें, नौकरों के मोहताज न रहैं।
सबल : इस चक्कर का हाल सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई अब ऐसे गस्त की ठहरे तो मुझसे भी कहना, मैं भी चलूंगा। तुम्हारे अध्यापक महाशय को मेरे चलने में कोई आपत्ति तो न होगी ?
अचल : (हंसकर) वहां आप क्या कीजिएगा, पानी खींचिएगा ?
सबल : क्यों, कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं है।
अचल : इन नौकरों में दो-चार अलग कर दिए जाएं तो अच्छा हो, इन्हें देखकर खामखाह कुछ-न-कुछ काम लेने का जी चाहता है। कोई आदमी सामने न हो तो आल्मारी से खुद किता। निकाल लाता हूँ, लेकिन कोई रहता है तो खुद नहीं उठता, उसी को उठाता हूँ। आदमी कम हो जाएंगे तो यह आदत छूट जाएगी।
सबल : हां, तुम्हारा यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है। इस पर विचार करूंगा। देखो, नौकर खाली हो गया, जाओ जूते खुलवा लो।
अचल : जी नहीं, अब मैं कभी नौकर से जूता उतरवाऊँगा ही नहीं, और न पहनूंगी। खुद ही पहन लूंगा, उतार लूंगा। आपने इशारा कर दिया वह काफी है।
चला जाता है।
सबल : (मन में) ईश्वर तुम्हें चिरायु करें, तुम होनहार देख पड़ते हो, लेकिन कौन जानता है, आगे चलकर क्या रंग पकड़ोगी। मैं आज के तीन महीने पहले अपनी सच्चरित्रता पर घमंड करता था।वह घमंड एक क्षण में चूर?चूर हो गया। खैर होगा अगर और अब देनदारों पर दावा न हो, केवल हलधर ही पर किया जाए तो घोर अन्याय होगी। मैं चाहता हूँ दावे सभी पर किए जाएं, लेकिन जायदाद किसी की नीलाम न कराई जाए। असामियों को जब मालूम हो जाएगा कि हमने घर छोड़ा और जायदाद गई तो वह कभी न जाएंगी। उनके भागने का एक कारण यह भी होगा कि लगान कहां से देंगे।मैं लगान मुआग कर दूं तो कैसा हो, मेरा ऐसा ज्यादा नुकसान न होगी। इलाके में सब जगह तो ओले गिरे नहीं हैं। सिर्ग दो-तीन गांवों में गिरे हैं, पांच हजार रूपये का मुआमला है। मुमकिन है इस मुआफी की खबर गवर्नमेंट को भी हो जाए और मुआफी का हुक्म दे दे, तो मुझे मुर्ति में यश मिल जाएगा और अगर सरकार न भी मुआग करे तो इतने आदमियों का भला हो जाना ही कौन छोटी बात है ! रहा हलधर, उसे कुछ दिनों के लिए अलग कर देने से मेरी मुश्किल आसान हो जाएगी। यह काम ऐसे गुप्त रीति से होना चाहिए कि किसी को कानोंकान खबर न हो, लोग यही समझें कि कहीं परदेश निकल गया होगा। तब मैं एक बार फिर राजेश्वरी से मिलूं और तकदीर का गैसला कर लूं। तब उसे मेरे यहां आकर रहने में कोई आपत्ति न होगी। गांव में निरावलंब रहने से तो उसका चित्त स्वयं घबरा जाएगी। मुझे तो विश्वास है कि वह यहां सहर्ष चली आएगी। यही मेरा अभीष्ट है। मैं केवल उसके समीप रहना, उसकी मृदु मुस्कान, उसकी मनोहर वाणी।
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : स्वामीजी से आपकी भेंट हुई ?
सबल : हां।
ज्ञानी : मैं उनके दर्शन करने जाऊँ ?
सबल : नहीं।
ज्ञानी : पाखंडी हैं न ? यह तो मैं पहले ही समझ गई थी
सबल : नहीं, पाखंडी नहीं हैं, विद्वान् हैं, लेकिन मुझे किसी कारण से उनमें श्रद्वा नहीं हुई पवित्रात्मा का यही लक्षण है कि वह दूसरों के ह्रदय में श्रद्वा उत्पन्न कर दे। अभी थोड़ी देर पहले मैं उनका भक्त था पर इतनी देर में उनके उपदेशों पर विचार करने से ज्ञात हुआ कि उनसे तुम्हें ज्ञानोपदेश नहीं मिल सकता और न वह आशीर्वाद ही मिल सकता है, जिससे तुम्हारी मनोकामना पूरी हो!
तीसरा दृश्य दृश्य
स्थान : मधुबन गांव।
समय : बैशाख, प्रात: काल।
फत्तू : पांचों आदमियों पर डिगरी हो गई। अब ठाकुर साहब जब चाहें उनके बैल-बधिये नीलाम करा लें।
एक किसान : ऐसे निर्दयी तो नहीं हैं। इसका मतलब कुछ और ही है।
फत्तू : इसका मतलब मैं समझता हूँ। दिखाना चाहते हैं कि हम जब चाहें असामियों को बिगाड़ सकते हैं। असामियों को घमंड न हो, फिर गांव में हम जो चाहें करें, कोई मुंह न खोले।
सबलसिंह के चपरासी का प्रवेश।
चपरासी : सरकार ने हुक्म दिया है कि असामी लोग जरा भी चिंता न करें। हम उनकी हर तरह मदद करने को तैयार हैं। जिनके लोगों ने अभी तक लगान नहीं दिया है उनकी माफी हो गई। अब सरकार किसी से लगान न हुई। अगले साल के लगान के साथ यह बकाया न वसूल की जायेगी। यह छूट सरकार की ओर से नहीं हुई है। ठाकुर साहब ने तुम लोगों की परवरिश के खयाल से यह रिआयत की है। लेकिन जो असामी परदेश चला जाएगा उसके साथ यह रिआयत न होगी। छोटे ठाकुर साहब ने देनदारों पर डिगरी कराई है। मगर उनका हुक्म भी यही है कि डिगरी जारी न की जाएगी। हां, जो लोग भागेंगे उनकी जायदाद नीलाम करा ली जाएगी। तुम लोग दोनों ठाकुरों को आशीर्वाद दो।
एक किसान : भगवान दोनों भाइयों की जुगुल जोड़ी सलामत रखें।
दूसरा : नारायन उनका कल्यान करें। हमको जिला लिया, नहीं तो इस विपत्ति में कुछ न सूझता था।
तीसरा : धन्य है उनकी उदारता को। राजा हो तो ऐसा दीनपालक हो, परमात्मा उनकी बढ़ती करे।
चौथा : ऐसा दानी देश में और कौन है। नाम के लिए सरकार को लाखों रूपये चंदा दे आते हैं, हमको कौन पूछता है। बल्कि वह चंदा भी हमीं से ड़डे मार-मारकर वसूल कर लिया जाता है।
पहला : चलो, कल सब जने डेवढ़ी की जय मना आएं।
दूसरा : हां, कल त्तेरे चलो।
तीसरा : चलो देवी के चौरे पर चलकर जय-जयकार मनाएं।
चौथा : कहां है हलधर, कहो ढोल-मजीरा लेता चले।
फत्तू हलधर के घर जाकर खाली हाथ लौट आता है।
पहला किसान : क्या हुआ ? खाली हाथ क्यों आए ?
फत्तू : हलधर तो आज दो दिन से घर ही नहीं आया।
दूसरा किसान : उसकी घरवाली से पूछा, कहीं नातेदारी में तो नहीं गया।
फत्तू : वह तो कहती है कि कल सबेरे खांचा लेकर आम तोड़ने गए थे।तब से लौटकर नहीं आए।
सब-के-सब हलधर के द्वार पर आकर जमा हो जाते हैं। सलोनी और फत्तू घर में जाते हैं।
सलोनी : बेटा, तूने उसे कुछ कहा-सुना तो नहीं। उसे बात बहुत लगती है, लड़कपन से जानती हूँ। गुड़ के लिए रोए, लेकिन मां झमककर गुड़ का पिंड़ा सामने फेंक दे तो कभी न उठाए। जब वह गोद में प्यार से बैठाकर गुड़ तोड़-तोड़ खिलाए तभी चुप हो,
फत्तू : यह बेचारी गऊ है, कुछ नहीं कहती-सुनती।
सलोनी : जरूर कोई-न-कोई बात हुई होगी, नहीं तो घर क्यों न आता ? इसने गहनों के लिए ताना दिया होगा, चाहे महीन साड़ी मांगी हो, भले घर की बेटी है न, इसे महीन साड़ी अच्छी लगती है।
राजेश्वरी : काकी, क्या मैं इतनी निकम्मी हूँ कि देश में जिस बात की मनाही है वही करूंगी।
फत्तू बाहर आता है।
मंगई : मेरे जान में तो उसे थाने वाले पकड़ ले गए।
फत्तू : ऐसा कुमारगी तो नहीं है कि था ने वालों की आंख पर चढ़ जाए।
हरदास : थाने वालों की भली कहते हो, राह चलते लोगों को पकड़ाकरते हैं। आम लिए देखा होगा¼ कहा - ' होगा, चल थाने पहुंचा आ।
फत्तू : ऐसा दबैल तो नहीं है, लेकिन थाने ही पर जाता तो अब तक लौट आना चाहिए था।
मंगई : किसी के रूपये-पैसे तो नहीं आते थे।
फत्तू : और किसी के नहीं, ठाकुर कंचनसिंह के दो सौ रूपये आते हैं।
मंगई : कहीं उन्होंने गिरफ्तारी करा लिया हो,
फत्तू : सम्मन तक तो आया नहीं, नालिस कब हुई, डिगरी कब हुई औरों पर नालिस हुई तो सम्मन आया, पेशी हुई, तजबीज सुनाई गई।
हरदास : बड़े आदमियों के हाथ में सब कुछ है, जो चाहें करा देंब राज उन्हीं का है, नहीं तो भला कोई बात है कि सौ-पचास रूपये के लिए आदमी गिरफ्तारी कर लिया जाए, बाल-बच्चों से अलगकर दिया जाए, उसका सब खेती-बारी का काम रोक दिया जाए।
मंगई : आदमी चोरी या और कोई कुन्याव करता है तब उसे कैद की सजा मिलती है। यहां महाजन बेकसूर हमें थोड़े-से रूपयों के लिए जेहल भेज सकता है। यह कोई न्याव थोड़े ही है।
हरदास : सरकार न जाने ऐसे कानून क्यों बनाती है। महाजन के रूपये आते हैं, जयदाद से ले, गिरफ्तारी क्यों करे।
मंगई : कहीं डमरा टापू वाले न बहका ले गए हों।
फत्तू : ऐसा भोला नहीं है कि उनकी बातों में आ जाए।
मंगई : कोई जान-बूझकर उनकी बातों में थोड़े ही आता है। सब ऐसी-ऐसी पक्री पढ़ाते हैं कि अच्छे-अच्छे धोखे में आ जाते हैं। कहते हैं, इतना तलब मिलेगा, रहने को बंगला मिलेगा, खाने को वह मिलेगा जो यहां रईसों को भी नसीब नहीं, पहनने को रेशमी कपड़े मिलेंगे, और काम कुछ नहीं, बस खेत में जाकर ठंढे-ठंढे देख-भाल आए।
फत्तू : हां, यह तो सच है। ऐसी-ऐसी बातें सुनकर वह आदमी क्यों न धोखे में आ जाए जिसे कभी पेट-भर भोजन न मिलता हो, घास-भूसे से पेट भर लेना कोई खाना है। किसान पहर रात से पहर रात तक छाती गाड़ता है तब भी रोटी-कपड़े को नहीं होता, उस पर कहीं महाजन का डर, कहीं जमींदार की धौंस, कहीं पुलिस की डांट-डपट, कहीं अमलों की नजर-भेंट, कहीं हाकिमों की रसद-बेगारब सुना है जो लोग टापू में भरती हो जाते हैं उनकी बड़ी दुर्गत होती है। झोंपड़ी रहने को मिलती है और रात-दिन काम करना पड़ता है। जरा भी देर हुई तो अफसर कोड़ों से मारता है। पांच साल तक आने का हुकुम नहीं है, उस पर तरह-तरह की सखती होती रहती है। औरतों की बड़ी बेइज्जती होती है, किसी की आबई बचने नहीं पाती। अफसर सब गोरे हैं, वह औरतों को पकड़ ले जाते हैं। अल्लाह न करे कि कोई उन दलालों के गंदे में गंसे ! पांच-छ: साल में कुछ रूपये जरूर हो जाते हैं¼ पर उस लतखोरी से तो अपने देश की ईखी ही अच्छी। मुझे तो बिस्सास ही नहीं आता कि हलधर उनके गांसे में आ जाए।
हरदास : साधु लोग भी आदमियों को बहका ले जाते हैं।
फत्तू : हां, सुना तो है, मगर हलधर साधुओं की संगत में नहीं बैठाब गांजे-चरस की भी चाट नहीं कि इसी लालच से जा बैठता हो,
मंगई : साधु आदमियों को बहकाकर क्या करते हैं ?
फत्तू : भीख मंगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैं, बर्तन मंजवाते हैं, गांजा भरवाते हैं। भोले आदमी समझते हैं, बाबाजी सिद्व हैं, प्रसन्न हो जाएंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जाएगा, मुकुत बन जाएगी वह घाते मेंब कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थो के लालच में साधुओं के साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनों में यही टहलुवे संत बन बैठते हैं और अपने टहल के लिए किसी दूसरे को मूंड़ते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही है, न कामचोर ही है।
हरदास : कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगा? तुम्हारा उसके साथ आठों पहर का उठना-बैठना है।
फत्तू : मेरी समझ में तो वह परदेश चला गया। दो सौ रूपये कंचनसिंह के आते थे।ब्याज समेत ढाई सौ रूपये होंगे।लगान की धौंस अलग। अभी दुधमुंहा बालक है, संसार का रंग-ढ़ंग नहीं देखा, थोड़े में ही फूल उठता है और थोडे। में ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगा, कहीं परदेश चलूं और मेहनत-मजूरी करके सौ-दो सौ ले आऊँ। दो-चार दिन में चिट्ठी-पत्तर आएगी।
मंगई : और तो कोई चिंता नहीं, मर्द है, जहां रहेगा, वहीं कमा खाएगा, चिंता तो उसकी घरवाली की है। अकेले कैसे रहेगी ?
हरदास : मैके भेज दिया जाए।
मंगई : पूछो, जाएगी ?
फत्तू : पूछना क्या है, कभी न जाएगी। हलधर होता तो जाती। उसके पीछे कभी नहीं जा सकती।
राजेश्वरी : (द्वार पर खड़ी होकर) हां काका, ठीक कहते हो, अभी मैके चली जाऊँ तो घर और गांव वाले यही न कहेंगे कि उनके पीछे गांव में दस-पांच दिन भी कोई देख-भाल करने वाला नहीं रहा तभी तो चली आई। तुम लोग मेरी कुछ चिंता न करो। सलोनी काकी को घर में सुला लिया करूंगी। और डर ही क्या है ? तुम लोग तो हो ही।
चौथा दृश्य
स्थान : हलधर का घर, राजेश्वरी और सलोनी आंगन में लेटी हुई हैं।
समय : आधी रात।
राजेश्वरी : (मन में) आज उन्हें गए दस दिन हो गए। मंगल-मंगल आठ, बुध नौ, वृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिली, न कोई चिट्ठी न पत्तर। मेरा मन बारम्बार यही कहता है कि यह सब सबलसिंह की करतूत है। ऐसे दानी-धर्मात्मा पुरूष कम होंगे, लेकिन मुझ नसीबों जली के कारन उनका दान-धर्म सब मिट्टी में मिला जाता है। न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरा जनम हुआ ! मुझमें ऐसा कौन-सा गुन है ? न मैं ऐसी सुंदरी हूँ, न इतने बनाव-सिंगार से रहती हूँ, माना इस गांव में मुझसे सुंदर और कोई स्त्री नहीं है। लेकिन शहर में तो एक-से-एक पड़ी हुई हैं। यह सब मेरे अभाग का फल है। मैं अभागिनी हूँ। हिरन कस्तूरी के लिए मारा जाता है। मैना अपनी बोली के लिए पकड़ी जाती है। फूलअपनी सुगंध के लिए तोड़ा जाता है। मैं भी अपने रूप-रंग के हाथों मारी जा रही हूँ।
सलोनी : क्या नींद नहीं आती बेटी ?
राजेश्वरी : नहीं काकी, मन बड़ी चिंता में पड़ा हुआ है। भला क्यों काकी, अब कोई मेरे सिर पर तो रहा नहीं, अगर कोई पुरूष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूं ?
सलोनी : बेटी, गांव के लोग उसे पीसकर पी जाएंगी।
राजेश्वरी : गांव वालों पर बात खुल गई तब तो मेरे माथे पर कलंक लग ही जाएगी।
सलोनी : उसे दंड देना होगी। उससे कपट-प्रेम करके उसे विष पिला देना होगी। विष भी ऐसा कि फिर वह आंखें न खोले। भगवान को, चंद्रमा को, इन्द्र को जिस अपराध का दंड मिला था। क्या, हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुंह से मीठी-मीठी बातें करो पर मन में कटार छिपाए रखो।
राजेश्वरी : (मन में) हां, अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपट से ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सही, दानी सही, विद्वान सही, यह भी जानती हूँ कि उन्हें मुझसे प्रेम है, सच्चा प्रेम है। वह मुझे पाकर मुग्ध हो जाएंगे, मेरे इशारों पर नाचेंगे, मुझ पर अपने प्राण न्यौछावर करेंगी। क्या मैं इस प्रेम के बदले कपट कर सयंगी ? जो मुझ पर जान देगा, मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी ? यह बात मरदों में ही है कि जब वह किसी दूसरी स्त्री पर मोहित हो जाते हैं तो पहली स्त्री के प्राण लेने से भी नहीं हिचकते। भगवान्, यह मुझसे कैसे होगा? (प्रकट) क्यों काकी, तुम अपनी जवानी में तो बड़ी सुंदर रही होगी ?
सलोनी : यह तो नहीं जानती बेटी, पर इतना जानती हूँ कि तुम्हारे काका की आंखों में मेरे सिवा और कोई स्त्री जंचती ही न थी। जब तक चार-पांच लड़कों की मां न हो गई, पनघट पर न जाने दिया ।
राजेश्वरी : बुरा न मानना काकी, यों ही पूछती हूँ, उन दिनों कोई दूसरा आदमी तुम पर मोहित हो जाता और काका को जेहल भिजवा देता तो तुम क्या करतीं ?
सलोनी : करती क्या, एक कटारी अंचल के नीचे छिपा लेती। जब वह मेरे उसपर प्रेम के फूलों की वर्षा करने लगता, मेरे सुख-विलास के लिए संसार के अच्छे-अच्छे पदार्थ जमा कर देता, मेरे एक कटाक्ष पर, एक मुस्कान पर, एक भाव पर फूला न समाता, तो मैं उससे प्रेम की बातें करने लगती। जब उस पर नशा छा जाता, वह मतवाला हो जाता तो कटार निकालकर उसकी छाती में भोंक देती।
राजेश्वरी : तुम्हें उस पर तनिक भी दया न आती ?
सलोनी : बेटी, दया दीनों पर की जाती है कि अत्याचारियों पर? धर्म प्रेम के उसपर है, उसी भांति जैसे सूरज चंद्रमा के उसपर है। चंद्रमा की ज्योति देखने में अच्छी लगती है, लेकिन सूरज की ज्योति से संसार का पालन होता है।
राजेश्वरी : (मन में) भगवान्, मुझसे यह कपट-व्यवहार कैसे निभेगा ! अगर कोई दुष्ट, दुराचारी आदमी होता तो मेरा काम सहज था।उसकी दुष्टता मेरे क्रोध को भड़का देती है। भय तो इस पुरूष की सज्जनता से है। इससे बड़ा भय उसके निष्कपट प्रेम से है। कहीं प्रेम की तरंगों में बह तो न जाऊँगी, कहीं विलास में तो मतवाली न हो जाऊँगी। कहीं ऐसा तो न होगा कि महलों को देखकर मन में इस झोंपड़े का निरादर होने लगे, तकियों पर सोकर यह टूटी खाट गड़ने लगे, अच्छे-अच्छे भोजन के सामने इस रूखे-सूखे भोजन से मन फिर जाए,लौंडियों के हाथों पान की तरह गेरे जाने से यह मेहनत?मजूरी अखरने लगे। सोचने लगूं ऐसा सुख पाकर क्यों उस पर लात मारूं ? चार दिन की जिंदगानी है उसे छल-कपट, मरने-मारने में क्यों गंवाऊँ? भगवान की जो इच्छा थी वह हुआ और हो रहा है। (प्रकट) काकी, कटार भोंकते हुए तुम्हें डर न लगता ?
सलोनी : डर किस बात का ? क्या मैं पछी से भी गई-बीती हूँ। चिड़िया को सोने के पिंजरे में रखो, मेवे और मिठाई खिलाओ, लेकिन वह पिंजरे का द्वार खुला पाकर तुरंत उड़ जाती है। अब बेटी, सोओ, आधी रात से उसपर हो गई। मैं तुम्हें गीत सुनाती हूँ।
गाती है।
मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।
राजेश्वरी : (मन में) इन्हें गाने की पड़ी है। कंगाल होकर जैसे आदमी को चोर का भय नहीं रहता, न आगम की कोई चिंता, उसी भांति जब कोई आगे-पीछे नहीं रहता तो आदमी निश्ंचित हो जाता है। (प्रकट) काकी, मुझे भी अपनी भांति प्रसन्न-चित्त रहना सिखा दो।
सलोनी : ऐ, नौज बेटी ! चिंता धन और जन से होती है। जिसे चिंता न हो वह भी कोई आदमी है। वह अभागा है, उसका मुंह देखना पाप है। चिंता बड़े भागों से होती है। तुम समझती होगी, बुढ़िया हरदम प्रसन्न रहती है तभी तो गाया करती है। सच्ची बात यह है कि मैं गाती नहीं, रोती हूँ। आदमी को बड़ा आनंद मिलता है तो रोने लगता है। उसी भांति जब दुख अथाह हो जाता है, तो गाने लगता है। इसे हंसी मत समझो, यह पागलपन है। मैं पगली हूँ। पचास आदमियों का परिवार आंखों के सामने से उठ गया। देखें भगवान इस मिट्टी की कौन गत करते हैं।
गाती है।
मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।
ए जी पावन की, घर लावन की।
छोड़ काज अरू लाज जगत की।
निश दिन ध्यान लगावन की।। मुझे
सुरत उजाली खुल गई ताली।
गगन महल में जावन की।। मुझे
झिलमिल कारी जो निहारी।
जैसे बिजली सावन की।
मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।।
बेटी, तुम हलधर का सपना तो नहीं देखती हो ?
राजेश्वरी : बहुत बुरे-बुरे सपने देखती हूँ। इसी डर के मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।
सलोनी : कल से तुलसी माता को दिया चढ़ा दिया करो। एतवार-मंगल को पीपल में पानी दे दिया करो। महावीर सामी को लड्डू की मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रताप से लौट आए। अच्छा, अब महावीर जी का नाम लेकर सो जाव। रात बहुत हो गई है, दो घड़ी में भोर हो जाएगी।
सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।
राजेश्वरी : (आप-ही-आप) बुढ़िया सो रही है, अब मैं चलने की तैयारी करूं। छत्री लोग रन पर जाते थे तो खूब सजकर जाते थे।मैं भी कपड़े-लत्ते से लैस हो जाऊँ। वह पांचों हथियार लगाते थे।मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वही पहन लेती हूँ। वह केसर का तिलक लगाते थे, मैं सिंदूर का टीका लगा लेती हूँ। वह मलिच्छों का संहार करने जाते थे, मुझे देवता का संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय होलेकिन छत्री लोग तो हंसते हुए घर से विदा होते थे।मेरी आंखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता
है ! इसे सातवें दिन लीपती थी, त्योहारों पर पोतनी मिट्टी से पोतती थी। कितनी उमंग से आंगन में फुलवारी लगाती थी। अब कौन इनकी इतनी सेवा करेगी। दो ही चार दिनों में यहां भूतों का डेरा हो जाएगी। हो जाए ! जब घर का प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूं ? आह, पैर बाहर नहीं निकलते, जैसे दीवारें खींच रही हों। इनसे गले मिल लूं। गाय-भैंस कितने साध से ली थीं।अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चों को भी न खेलाने पाई। बेचारी हुड़क-हुड़ककर मर जाएंगी। कौन इन्हें मुंह अंधेरे भूसा-खली देगा, कौन इन्हें तला। में नहलाएगी। दोनों मुझे देखते ही खड़ी हो गई।मेरी ओर मुंह बढ़ा रही है, पूछ रही हैं कि आज कहां की तैयारी है ?
हाय ! कैसे प्रेम से मेरे हाथों को चाट रही हैं ! इनकी आंखों में कितना प्यार है ! आओ, आज चलते-चलतेतुम्हें अपने हाथों से दाना खिला दूं ! हा भगवान् ! दाना नहीं खातीं, मेरी ओर मुंह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस तरह बहला कर हमें छोड़े जाती है। इनके पास से कैसे जाऊँ ? रस्सी तुड़ा रही हैं, हुंकार मार रही हैं। वह देखो, बैल भी उठ बैठे। वह गए, इन बेचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सहलाया करते थे।लोग कहते हैं तुम्हें आने वाली बातें मालूम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओ, वह कहां हैं, कैसे हैं, कब आएंगे ? क्या अब कभी उनकी सूरत देखनी न नसीब होगी ? ऐसा जान पड़ता है, इनकी आंखों में आंसू भरे हैं। जाओ, अब तुम सभी को भगवान के भरोसे छोड़ती हूँ। गांव वालों को दया आएगी तो तुम्हारी सुधि लेंगे, नहीं तो यहीं भूखे रहोगी। फत्तू मियां तुम्हारी सेवा करेंगी। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगी। वह दो आंखें भी न करेंगे कि अपने बैलों को दाना और खली दें, तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल देंब लो, अब विदा होती हूँ। भोर हो रहा है, तारे मद्विम पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने-बिसूरने से काम न चलेगा ! अब तो मैं हूँ और प्रेम-कौशल का रनछेत्र है। भगवती का और उनसे भी अधिक अपनी दृढ़ता का भरोसा है।
पाँचवाँ दृश्य
स्थान : सबलसिंह का दीवानखाना, खस की टक्रियां लगी हुई, पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है।
समय : दोपहर, मध्यान्ह की प्रचंड धूप।
सबल : हम अभी जनसत्तात्मक राज्य के योग्य नहीं हैं, कदापि नहीं हैं। ऐसे राज्य के लिए सर्वसाधारण में शिक्षा की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए । हम अभी उस आदर्श से कोसों दूर हैं। इसके लिए महान स्वार्थ-त्याग की आवश्यकता है। जब तक प्रजा-मात्र स्वार्थ को राष्ट' पर बलिदान करना नहीं सीखती, इसका स्वप्न देखना मन की मिठाई खाना है। अमरीका, प्रांस, दक्षिणी अमरीका आदि देशों ने बड़े समारोह से इसकी व्यवस्था की, पर उनमें से किसी को भी सफलता नहीं हुई वहां अब भी धन और सम्पत्ति वालों के ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानी से क्यों न चुने, पर अंत में सत्ता गिने-गिनाए आदमियों के ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनता का अधिकांश मुट्ठी भर आदमियों के वंशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निर्बल, इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरूषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महाजन बनकर जनता पर रोब न जमा सके यह ऊँच-नीच का घृणित भेद उठ जाए। इस सबल?निबल संग्राम में जनता की दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयंकर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान-विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनों का प्रतिकार करने, अन्याय का सिर कुचलने की सामर्थ्य नहीं रही। छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए बहुधा भयवश कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मन में) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरण का तीर न चला सकूं। मैं कानून के बल से, भय के बल से, प्रलोभन के बल से अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्ति का ज्ञान हमारे दुस्साहस को, कुभावों को और भी उत्तेजित कर देता है। खैर ! हलधर को जेल गए हुए आज दसवां दिन है, मैं गांव की तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊँ ? अगर कहीं गांव वालों को यह चाल मालूम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सयंगी। राजेश्वरी को अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधर से प्रेम है। हलधर का द्रोही बनकर मैं उसके प्रेम-रस को नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँ, इस उधेड़-बुन में कब तक पड़ा रहूँगी। अगर गांव वालों पर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं है, आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधर को मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी दांव पर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है, पढ़ता हूँ डेमोक्रेसी औरअपने को धोखा देना व्यर्थ है।
यह प्रेम नहीं है, केवल काम-लिप्सा है। प्रेम दुर्लभ वस्तु है, यह उस अधिकार का जो मुझे असामियों पर है, दुरूपयोग मात्र है।
दरबान आता है।
सबल : क्या है ? मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो। क्या मुखतार आए हैं ? उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता ?
दरबान : जी नहीं, मुखतार नहीं आए हैं। एक औरत है।
सबल : औरत है ? कोई भिखारिन है क्या ? घर में से कुछ लाकर देदो। तुम्हें जरा भी तमीज नहीं है, जरा-सी बात के लिए मुझे दिक किया।
दरबान : हुजूर, भिखारिन नहीं है। अभी फाटक पर एक्के पर से उतरी है। खूब गहने पहने हुई है। कहती है, मुझे राजा साहब से कुछ कहना है।
सबल : (चौंककर) कोई देहातिन होगी। कहां है ?
दरबान : वहीं मौलसरी के नीचे बैठी है।
सबल : समझ गया, ब्राह्मणी है, अपने पति के लिए दवा मांगने आई है। (मन में) वही होगी। दिल कैसा धड़कने लगा। दोपहर का समय है। नौकर-चाकर सब सो रहे होंगे।दरबान को बरफ लाने के लिए बाजार भेज दूं। उसे बगीचे वाले बंगले में ठहराऊँ। (प्रकट) उसे भेज दो और तुम जाकर बाजार से बरफ लेते आओ।
दरबान चला जाता है। राजेश्वरी आती हैं। सबलसिंह तुरंत उठकर उसे बगीचे वाले बंगले में ले जाते हैं।
राजेश्वरी : आप तो टट्टी लगाए आराम कर रहे हैं और मैं जलती हुई धूप में मारी-मारी फिर रही हूँ। गांव की ओर जाना ही छोड़ दिया । सारा शहर भटक चुकी तो मकान का पता मिला।
सबल : क्या कहूँ, मेरी हिमाकत से तुम्हें इतनी तकलीफ हुई, बहुत लज्जित हूँ। कई दिन से आने का इरादा करता था। पर किसी-न-किसी कारण से रूक जाना पड़ता था। बरफ आती होगी, एक गिलास शर्बत पी लो तो यह गरमी दूर हो जाए।
राजेश्वरी : आपकी कृपा है, मैंने बरफ कभी नहीं पी है। आप जानते हैं, मैं यहां क्या करने आई हूँ ?
सबल : दर्शन देने के लिए।
राजेश्वरी : जी नहीं, मैं ऐसी नि: स्वार्थ नहीं हूँ। आई हूँ आपके घर में रहने¼ आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सी में बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस-ग्यारह दिन से कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस-विदेस भाग गए। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़-छाड़कर आपकी सरन आई हूँ, और सदा के लिए। उस ऊजड़ गांव से जी भर गया।
सबल : तुम्हारा घर है, आनंद से रहो, धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँ, मुझे इसका विश्वास ही न था।मेरी तो यह हालत हो रही है:
हमारे घर में वह आएं, खुदा की कुदरत है।
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।
ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझ में ही नहीं आता, तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।
राजेश्वरी : मुझे इसी बंगले में रहना होगा?
सबल : ऐसा होता तो क्या पूछना था।, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहर में एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब इंतजाम वहीं हो जाएगी।
राजेश्वरी : (प्रेम कटाक्ष से देखकर) प्रेम करते हो और बदनामी से डरते हो, यह कच्चा प्रेम है।
सबल : (झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न ?
राजेश्वरी : (सजल नेत्रों से) मैंने अपना सर्वस आपको दे दिया । अब मेरी लाज आपके हाथ है।
सबल : (उसके दोनों हाथ पकड़कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझे भी आज से अपना सेवक, अपना चाकर, जो चाहे समझो।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) आदमी अपने सेवक की सरन नहीं जाता, अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मन के भावों को जानते हैं या नहीं, पर ईश्वर ने आपको इतनी विद्या और बुद्वि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेम के वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने मुझ पर मंत्र-सा फूंक दिया । मुझे उसमें प्रेम की झलक दिखाई दीब तभी से मैं आपकी हो गई। मुझे भोगविलास की इच्छा नहीं, मैं केवल आपको चाहती हूँ। आप मुझे झोंपड़ी में रखिए, मुझे गजी-गाढ़ा पहनाइए, मुझे उनमें भी सरग का आनंद मिलेगी। बस आपकी प्रेम-दिरिष्ट मुझ पर बनी रहै।
सबल : (गर्व के साथ) मैं जिंदगी-भर तुम्हारा रहूँगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्च कुल में जन्म पाया। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। मेरा पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ, जैसा रईसों के लड़कों का होता है। घर में बीसियों युवती महरियां, महराजिनें थीं।उधर नौकर-चाकर भी मेरी कुवृत्तियों को भड़काते रहते थे।मेरे चरित्र-पतन के सभी सामान जमा थे।रईसों के अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर की मुझ पर कुछ ऐसी दया थी कि लकड़पन ही से मेरी प्रवृत्ति विद्याभ्यास की ओर थी और उसने युवावस्था में भी साथ न छोड़ाब मैं समझने लगा था।, प्रेम कोई वस्तु ही नहीं, केवल कवियों की कल्पना है। मैंने एक-से-एक यौवनवती सुंदरियां देखी हैं, पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देखकर पहली बार मेरी ह्रदयवीणा के तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वर की इच्छा के सिवाय और क्या कहूँ। तुमने पहली ही निगाह में मुझे प्रेम का प्याला पिला दिया, तब से आज तक उसी नशे में मस्त था। बहुत उपाय किए, कितनी ही खटाइयां खाई पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मन के इस रहस्य को अब तक नहीं समझ सका। राजेश्वरी, सच कहता हूँ, मैं तुम्हारी ओर से निराश था।समझता था, अब यह जिंदगी रोते ही कटेगी, पर भाग्य को धन्य है कि आज घर बैठे देवी के दर्शन हो गए और जिस वरदान की आशा थी, वह भी मिल गया।
राजेश्वरी : मैं एक बात कहना चाहती हूँ, पर संकोच के मारे नहीं कह सकती।
सबल : कहो-कहो मुझसे क्या संकोच ! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूँ।
राजेश्वरी : न कहूँगी, लाज आती है।
सबल : तुमने मुझे चिंता में डाल दिया, बिना सुने मुझे चैन न आएगी।
राजेश्वरी : कोई ऐसी बात नहीं है, सुनकर क्या कीजिएगा!
सबल : (राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़कर) बिना कहे न जाने दूंगा, कहना पड़ेगा।
राजेश्वरी : (असमंजस में पड़कर) मैं सोचती हूँ, कहीं आप यह समझें कि जब यह अपने पति की होकर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चंचल औरत का क्या ठिकाना?
सबल : बस करो राजेश्वरी, अब और कुछ मत कहो, तुमने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना ह्रदय खोलकर दिखा सकता तो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूँ। वह घर, उस घर के प्राणी, वह समाज, तुम्हारे योग्य न थे। गुलाब की शोभा बाग में है, घूरे पर नहीं। तुम्हारा वहां रहना उतना अस्वाभाविक था। जितना सुअर के माथे पर सेंदुर का टीका होता है या झोंपड़ी में झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा। प्रतिकूल थी। हंस मरूभूमि में नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूं, कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहिता स्त्री का न हुआ तो मेरा क्या होगा, तो ?
राजेश्वरी : (गंभीरता से) मुझमें और आप में बड़ा अंतर है।
सबल : यह बातें फिर होंगी, इस वक्त आराम करो, थक गई होगी। पंखा खोले देता हूँ। सामने वाली कोठरी में पानी-वानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूँ।
छठा दृश्य
सबलसिंह का भवन। गुलाबी और ज्ञानी फर्श पर बैठी हुई हैं। बाबा चेतनदास गालीचे पर मसनद लगाए लेटे हुए हैं। रात के आठ बजे हैं।
गुलाबी : आज महात्माजी ने बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए ।
ज्ञानी : मैंने समझा था। कहीं तीर्थ करने चले गए होंगी।
चेतनदास : माताजी मेरे को अब तीर्थयात्रा से क्या प्रयोजन ? ईश्वर तो मन में है, उसे पर्वतों के शिखर और नदियों के तट पर क्यों खोजूं ? वह घट-घटव्यापी है, वही तुममें है, वही मुझमें है, उसी की अखिल ज्योति है। यह विभिन्नता केवल बहिर्जगत में है, अंतर्जगत में कोई भेद नहीं है। मैं अपनी कुटी में बैठा हुआ ध्यानावस्था में अपने भक्तों से साक्षात् करता रहा हूँ। यह मेरा नित्य का नियम है।
गुलाबी : (ज्ञानी से) महात्माजी अंतरजामी हैं। महाराज, मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहू ने उस पर न जाने कौन-सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह लाकर बहू के हाथ में देता है, वह चाहे कान पकड़कर उठाए या बैठाए, बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिए कि वह मेरे कहने में हो जाए, बहू की ओर से उसका चित्त फिर जाए। बस यही मेरी लालसा है।
चेतनदास : (मुस्कराकर) बेटे को बहू के लिए ही तो पाला पोसा था।अब वह बहू का हो रहा तो तेरे को क्यों ईर्ष्या होती है ?
ज्ञानी : महाराज, वह स्त्री के पीछे इस बेचारी से लड़ने पर तैयार हो जाता है।
चेतनदास : वह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूँ फेर सकता हूँ, केवल इसको मुझ पर श्रद्वा रखनी चाहिए । श्रद्वा, श्रद्वा, श्रद्वा¼ यही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मूलमंत्र है। श्रद्वा से ब्रã मिल जाता है। पर श्रद्वा उत्पन्न कैसे हो ? केवल बातों ही से श्रद्वा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलो, क्या दिखाऊँ ? तुम दोनों मन में कोई बात ले लो।मैं अपने योगबल से अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवी, पहले तुम मन में कोई बात लो।
ज्ञानी : ले लिया, महाराज!
चेतनदास : (ध्यान करके) बड़ी दूर चली गई। मोतियों का हार है न ?
ज्ञानी : हां महाराज, यही बात थी।
चेतनदास : गुलाबी, अब तुम कोई बात लो।
गुलाबी : ले ली, महाराज!
चेतनदास : (ध्यान करके, मुस्कराकर) बहू से इतना द्वेष? वह मर जाए?
गुलाबी : हां, महाराज, यही बात थी। आप सचमुच अंतरजामी हैं।
चेतनदास : कुछ और देखना चाहती हो ? बोलो, क्या वस्तु यहां मंगवाऊँ ? मेवा, मिठाई, हीरे, मोती इन सब वस्तुओं के ढेर लगा सकता हूँ। अमरूद के दिन नहीं हैं, जितना अमरूद चाहो मंगवा दूं। भेजो प्रभूजी, भेजो, तुरत भेजो:
मोतियों का ढेर लगता है।
गुलाबी : आप सिद्व हैं।
ज्ञानी : आपकी चमत्कार-शक्ति को धन्य है!
चेतनदास : और क्या देखना चाहती हो ? कहो, यहां से बैठे-बैठे अंतरध्यान हो जाऊँ और फिर यहीं बैठा हुआ मिलूं। कहो, वहां उस वृक्ष के नीचे तुम्हें नेपथ्य में गाना सुनाऊँ। हां, यही अच्छा है। देवगण तुम्हें गाना सुनाएंगे, पर तुम्हें उनके दर्शन न होंगे।उस वृक्ष के नीचे चली जाओ।
दोनों जाकर पेड़ के नीचे खड़ी हो जाती हैं। गाने की ध्वनि आने लगती है।
बाहिर ढूंढ़न जा मत सजनी,
पिया घर बीच बिराज रहे री।-
गगन महल में सेज बिछी है
अनहद बाजे बाज रहे री।-
अमृत बरसे, बिजली चमके
घुमर-घुमर घन गाज रहे री।-
ज्ञानी : ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ होते हैं।
गुलाबी : पूर्वजन्म में बहुत अच्छे कर्म किए थे।यह उसी का फल है।
ज्ञानी : देवताओं को भी बस में कर लिया है।
गुलाबी : जोगबल की बड़ी महिमा है। मगर देवता बहुत अच्छा नहीं गाते। गला दबाकर गाते हैं क्या ?
ज्ञानी : पगला गई है क्या ! महात्माजी अपनी सिद्वि दिखा रहे हैं कि तुम्हारे लिए देवताओं की संगीत-मंडली खड़ी की है।
गुलाबी : ऐसे महात्मा को राजा साहब धूर्त कहते हैं।
ज्ञानी : बहुत विद्या पढ़ने से आदमी नास्तिक हो जाता है। मेरे मन में तो इनके प्रति भक्ति और श्रद्वा की एक तरंग-सी उठ रही है। कितना देवतुल्य स्वरूप है।
गुलाबी : कुछ भेंट-भांट तो लेंगे नहीं ?
ज्ञानी : अरे राम-राम ! महात्माओं को रूपये-पैसे का क्या मोह?
देखती तो हो कि मोतियों के ढेर सामने लगे हुए हैं, किस चीज की कमी है ?
दोनों कमरे में आती हैं। गाना बंद होता है।
ज्ञानी : अरे ! महात्माजी कहां चले गए?यहां से उठते तो नहीं देखा ।
गुलाबी : उनकी माया कौन जाने ! अंतरध्यान हो गए होंगी।
ज्ञानी : कितनी अलौकिक लीला है!
गुलाबी : अब मरते दम तक इनका दामन न छोडूंगी। इन्हीं के साथ रहूँगी और सेवा-टहल करती रहूँगी।
ज्ञानी : मुझे तो पूरा विश्वास है कि मेरा मनोरथ इन्हीं से पूरा होगी।
सहसा चेतनदास मसनद लगाए बैठे दिखाई देते हैं।
गुलाबी : (चरणों पर गिरकर) धन्य हो महाराज, आपकी लीला अपरम्पार है।
ज्ञानी : (चरणों पर गिरकर) भगवान्, मेरा उद्वार करो।
चेतनदास : कुछ और देखना चाहती है ?
ज्ञानी : महाराज, बहुत देख चुकी। मुझे विश्वास हो गया कि आप मेरा मनोरथ पूरा कर देंगी।
चेतनदास : जो कुछ मैं कहूँ वह करना होगी।
ज्ञानी : सिर के बल करूंगी।
चेतनदास : कोई शंका की तो परिणाम बुरा होगी।
ज्ञानी : (कांपती हुई) अब मुझे कोई शंका नहीं हो सकती। जब आपकी शरण आ गई तो कैसी शंका ?
चेतनदास : (मुस्कराकर) अगर आज्ञा दूं, कुएं में कूद पड़!
ज्ञानी : तुरंत कूद पडूंगी। मुझे विश्वास है कि उससे भी मेरा कल्याण होगी।
चेतनदास : अगर कहूँ, अपने सब आभूषण उतारकर मुझे दे दे तो मन में यह तो न कहेगी, इसीलिए यह जाल फैलाया था।, धूर्त है।
ज्ञानी : (चरणों में गिरकर) महाराज, आप प्राण भी मांगें तो आपकी भेंट करूंगी।
चेतनदास : अच्छा अब जाता हूँ। परीक्षा के लिए तैयार रहना।
सातवाँ दृश्य
समय : प्रात: काल, ज्येष्ठ।
स्थान : गंगा का तट। राजेश्वरी एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाए बैठी है। दो-तीन लौंडियां इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं। सबलसिंह का प्रवेश।
सबल : अगर मुझे उषा का चित्र खींचना हो तो तुम्हीं को नमूना बनाऊँ। तुम्हारे मुख पर मंद समीरण से लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानो...
राजेश्वरी : दो नागिनें लहराती चली जाती हों, किसी प्रेमी को डसने के लिए।
सबल : तुमने हंसी में उड़ा दिया, मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।
राजेश्वरी : खैर, यह बताइए तीन दिन तक दर्शन क्यों नहीं दिया ।
सबल : (असमंजस में पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आने से किसी को संदेह हो जाए।
राजेश्वरी : मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको यहां नित्य आना होगी। आपको क्या मालूम है कि यहां किस तरह तड़प?तड़पकर दिन काटती हूँ।
सबल : राजेश्वरी, मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊँ। बस, यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली के तड़पती हो, न सैर करने को जी चाहता है, न घर से निकलने का, न किसी से मिलने-जुलने को यहां तक कि सिनेमा देखने को भी जी नहीं चाहता। जब यहां आने लगता हूँ तो ऐसी प्रबल उत्कंठा होती है कि उड़कर आ पहुंचूं। जब यहां से चलता हूँ तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूँ। राजेश्वरी, पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आंखों से देखता रहूँ, तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूँ। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था।, पर जैसे ज्वर में जल से तृप्ति नहीं होती, जैसे नई सभ्यता में विलास की वस्तुओं से तृप्ति नहीं होती, वैसे ही प्रेम का भी हाल है¼ वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करने पर भी घर के लोग मुझे चिंतित नेत्रों से देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभाव में कोई ऐसी बात नजर आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा!
राजेश्वरी : इसका जो अंत होगा वह मैं जानती हूँ और उसे जानते हुए मैंने इस मार्ग पर पांव रखा है। पर उन चिंताओं को छोड़िए। जब ओखली में सिर दिया है तो मूसलों का क्या डर ! मैं यही चाहती हूँ कि आप दिन में किसी समय अवश्य आ जाया करें। आपको देखकर मेरे चित्त की ज्वाला शांत हो जाती है, जैसे जलते हुए घाव पर मरहम लग जाए। अकेले मुझे डर भी लगता है कि कहीं वह हलजोत किसान मेरी टोह लगाता हुआ आ न पहुंचे। यह भय सदैव मेरे ह्रदय पर छाया रहता है। उसे क्रोध आता है तो वह उन्मत्त हो जाता है। उसे जरा भी खबर मिल गई तो मेरी जान की खैरियत नहीं है।
सबल : उसकी जरा भी चिंता मत करो। मैंने उसे हिरासत में रखवा दिया है। वहां छह महीने तक रखूंगा। अभी तो एक महीने से कुछ ही उसपर हुआ है। छह महीने के बाद देखा जाएगी। रूपये कहां हैं कि देकर छूटेगा!
राजेश्वरी : क्या जाने उसके गाय-बैल कहां गए ? भूखों मर गए होंगी।
सबल : नहीं, मैंने पता लगाया था।वह बुङ्ढा मुसलमान फत्तू उसके सब जानवरों को अपने घर ले गया है और उनकी अच्छी तरह सेवा करता है।
राजेश्वरी : यह सुनकर चिंता मिट गई। मैं डरती थी कहीं सब जानवर मर गए हों तो हमें हत्या लगे।
सबल : (घड़ी देखकर) यहां आता हूँ तो समय के पर-से लग जाते हैं। मेरा बस चलता तो एक-एक मिनट के एक-एक घंटे बना देता।
राजेश्वरी : और मेरा बस चलता तो एक-एक घंटे के एक-एक मिनट बना देती। जब प्यास-भर पानी न मिले तो पानी में मुंह ही क्यों लगाए। जब कपड़े पर रंग के छींटे ही डालने हैं तो उसका उजला रहना ही अच्छा। अब मन को समेटना सीखूंगी।
सबल : प्रिय
राजेश्वरी : (बात काटकर) इस पवित्र शब्द को अपवित्र न कीजिए।
सबल : (सजल नयन होकर) मेरी इतनी याचना तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। प्रिये, मुझे अनुभव हो रहा है कि यहां रहकर हम आनंदमय प्रेम का स्वर्ग-सुख न भोग सकेंगी। क्यों न हम किसी सुरम्य स्थान पर चलें जहां विघ्न और बाधाओं, चिंताओं और शंकाओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत हो, मैं कह सकता हूँ कि मुझे जलवायु परिवर्तन के लिए किसी स्वास्थ्यकर स्थान की जरूरत है¼ जैसे गढ़वाल, आबू पर्वत या रांची)
राजेश्वरी : लेकिन ज्ञानी देवी को क्या कीजिएगा? क्या वह साथ न चलेंगी?
सबल : बस यही एक रूकावट है। ऐसा कौन-सा यत्न करूं कि वह मेरे साथ चलने पर आग्रह न करे। इसके साथ ही कोई संदेह भी न हो।
राजेश्वरी : ज्ञानी सती हैं, वह किसी तरह यहां न रहेंगी। यूं आप दस-पांच दिन, या एक-दो महीने के लिए कहीं जाएं तो वह साथ न जाएंगी, लेकिन जब उन्हें मालूम होगा कि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तब वह किसी तरह न रूकेंगी। और यह बात भी है कि ऐसी सती स्त्री को मैं दु: खी नहीं करना चाहती। मैं तो केवल आपका प्रेम चाहती हूँ। उतना ही जितना ज्ञानी से बचे। मैं उनका अधिकार नहीं छीनना चाहती। मैं उनके पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। मैं उनके घर में चोर की भांति घुसी हूँ। उनसे मेरी क्या बराबरी। आप उन्हें दु: खी किए बिना मुझ पर जितनी कृपा कर सकते हैं उतनी कीजिए।
सबल : (मन में) कैसे पवित्र विचार हैं ! ऐसा नारी-रत्न पाकर मैं उसके सुख से वंचित हूँ। मैं कमल तोड़ने के लिए क्यों पानी में घुसा जब जानता था कि वहां दलदल है। मदिरा पीकर चाहता हूँ कि उसका नशा न हो।
राजेश्वरी : (मन में) भगवन्, देखूं अपने व्रत का पालन कर सकती हूँ या नहीं कितने पवित्र भाव हैं¼ कितना अगाध प्रेम!
सबल : (उठकर) प्रिये, कल इसी वक्त फिर आऊँगा। प्रेमालिंगन के लिए चित्त उत्कंठित हो रहा है।
राजेश्वरी : यहां प्रेम की शांति नहीं, प्रेम की दाह है। जाइए। देखूं, अब यह पहाड़-सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने कहां भाग गई!
सबल : (छज्जे के जीने से लौटकर) प्रिये, गजब हो गया, वह देखो, कंचनसिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहां से उतरते देख लिया। अब क्या करूं ?
राजेश्वरी : देख लिया तो क्या हरज हुआ ? समझे होंगे आप किसी मित्र से मिलने आए होंगे।जरा मैं भी उन्हें देख लूं।
सबल : जिस बात का मुझे डर था। वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कुछ टोह लग गई है। नहीं तो इधर उनके आने का कोई काम न था।यह तो उनके पूजा?पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हां, गंगास्नान करने जाते हैं, मगर घड़ी रात रहै। इधर से कहां जाएंगी। घरवालों को संदेह हो गया।
राजेश्वरी : आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।
सबल : अगर वह सिर झुकाए अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती¼ पर वह इधर-उधर, नीचे-उपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठों की ओर झांकते हैं। यह उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञ, सच्चरित्र, ईश्वरभक्त पुरूष हैं। सांसारिकता से उन्हें घृणा है। इसीलिए अब तक विवाह नहीं किया।
राजेश्वरी : अगर यह हाल है तो यहां पूछताछ करने जरूर आएंगी।
सबल : मालूम होता है इस घर का पता पहले लगा लिया है। इस समय पूछताछ करने ही आए थे।मुझे देखा तो लौट गए। अब मेरी लज्जा, मेरा लोक-सम्मान, मेरा जीवन तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो।
राजेश्वरी : क्यों न कोई दूसरा मकान ठीक कर लीजिए।
सबल : इससे कुछ न होगी। बस यही उपाय है कि जब वह यहां आएं तो उन्हें चकमा दिया जाए। कहला भेजो, मैं सबलसिंह को नहीं जानती। वह यहां कभी नहीं आते। दूसरा उपाय यह है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए यहां से टाल दूं। कह देता हूँ कि जाकर लायलपुर से गेहूँ खरीद लाओ। तब तक हम लोग यहां से कहीं और चल देंगी।
राजेश्वरी : यही तरकीब अच्छी है।
सबल : अच्छी तो है, पर हुआ बड़ा अनर्थ। अब पर्दा ढका रहना कठिन है।
राजेश्वरी : (मन में) ईश्वर, यही मेरी प्रतिज्ञा के पूरे होने का अवसर है। मुझे बल प्रदान करो। (प्रकट) यह सब मुसीबतें मेरी लाई हुई हैं। मैं क्या जानती थी कि प्रेम-मार्ग में इतने कांटे हैं।
सबल : मेरी बातों का ध्यान रखना। मेरे होश ठिकाने नहीं हैं। चलूं, देखूं, मुआमला अभी कंचनसिंह ही तक है या ज्ञानी को भी खबर हो गई।
राजेश्वरी : आज संध्या समय आइए। मेरा जी उधर ही लगा रहेगा।
सबल : अवश्य आऊँगा। अब तो मन लागि रह्यो होनी हो सो होई। मुझे अपनी कीर्ति बहुत प्यारी है। अब तक मैंने मान-प्रतिष्ठा ही को जीवन का आधार समझ रखा था।, पर अब अवसर आया तो मैं इसे प्रेम की वेदी पर उसी तरह चढ़ा दूंगा जैसे उपासक पुष्पों को चढ़ा देता है, नहीं जैसे कोई ज्ञानी पार्थिव वस्तुओं को लात मार देता है।
जाता है।
आठवाँ दृश्य
समय : संध्या, जेठ का महीना।
स्थान : मधुबन। कई आदमी फत्तू के द्वार पर खड़े हैं।
मंगई : फत्तू, तुमने बहुत चक्कर लगाया, सारा संसार छान डाला।
सलोनी : बेटा, तुम न होते तो हलधर का पता लगना मुसकिल था।
हरदास : पता लगना तो मुसकिल नहीं था।, हां जरा देर में लगता।
मंगई : कहां-कहां गए थे ?
फत्तू : पहले तो कानपुर गया। वहां के सब पुतलीघरों को देखा । कहीं पता न लगी। तब लोगों ने कहा, बंबई चले जाव। वहां चला गया। मुदा उतने बड़े शहर में कहां-कहां ढूंढ़ता। चार-पांच दिन पुतलीघरों में देखने गया, पर हिया। छूट गया। शहर काहे को है पूरा मुलुक है। जान पड़ता है संसार भर के आदमी वहीं आकर जमा हो गए हैं। तभी तो यहां गांव में आदमी नहीं मिलते। सच मानो, कुछ नहीं तो एक हजार मील तो होंगी। रात-दिन उनकी चिमनियों से धुआं निकला करता है। ऐसा जान पड़ता है, राक्षसों की गौज मुंह से आग निकालती आकाश से लड़ने जा रही है। आखिर निराश होकर वहां से चला आया। गाड़ी में एक बाबूजी से बातचीत होने लगी। मैंने सब राम?कहानी उन्हें सुनाई। बड़े दयावान आदमी थे।कहा , किसी अखबार में छपा दो कि जो उनका पता बता देगा उसे पचास रूपये इनाम दिया जाएगी। मेरे मन में भी बात जम गई। बाबूजी ही से मसौदा बनवा लिया और यहां गाड़ी से उतरते ही सीधे अखबार के दफ्तर में गया। छपाई का दाम देकर चला आया। पांचवें दिन वह चपरासी यहां आया जो मुझसे खड़ा बातें कर रहा था।उसने रत्ती-रत्ती सब पता बता दिया । हलधर न कलकत्ता गया है न बंबई, यहीं हिरासत में है। वही कहावत हुई, गोद में लड़का सहर में ढ़िढोरा।
मंगई : हिरासत में क्यों है ?
फत्तू : महाजन की मेहरबानी और क्या?माघ-पूस में कंचनसिंह के यहां से कुछ रूपये लाया था। बस नादिहंदी के मामले में गिरफ्तारी करा दिया ।
हरदास : उनके रूपये तो यहां और कई आदमियों पर आते हैं, किसी को गिरफ्तारी नहीं कराया। हलधर पर ही क्यों इतनी टेढ़ी निगाह की?
फत्तू : पहले सबको गिरफ्तारी कराना चाहते थे, पर बाद को सबलसिंह ने मना कर दिया । दावा दायर करने की सलाह थी। पर बड़े ठाकुर तो दयावान जीव हैं, दावा भी मुल्तवी कर दिया, इधर लगान भी मुआग कर दी। मुझसे जब चपरासी ने यह हाल कहा तो जैसे बदन में आग जल गई। सीधे कंचनसिंह के पास गया और मुंह में जो कुछ आया कह सुनाया। सोच लिया था।, दो-चार का सिर तोड़ के रख दूंगा, जो होगा देखा जाएगी। मगर बेचारे ने जबान तक नहीं खोली। जब मैंने कहा , आप बड़े धर्मात्मा की पूंछ बनते हैं, सौ-दो सौ रूपयों के लिए गरीबों को जेहल में डालते हैं, उस आदमी का तो यह हाल हुआ, उसकी घरवाली का कहीं पता नहीं, मालूम नहीं कहीं डूब मरी या क्या हुआ, यह सब पाप किसके सिर पड़ेगा, खुदाताला को क्या मुंह दिखाओगे तो बेचारे रोने लगे। लेकिन जब रूपयों की बात आई तो उस रकम में एक पैसा भी छोड़ने की हामी नहीं भरी।
सलोनी : इतनी दौड़धूप तो कोई अपने बेटे के लिए भी न करता। भगवान इसका फल तुम्हें देंगी।
हरदास : महाजन के कितने रूपये आते हैं ?
फत्तू : कोई ढाई सौ होंगे।थोड़ी?थोड़ी मदद कर दो तो आज ही हलधर को छुड़ा लूं। मैं बहुत जेरबारी में पड़ गया हूँ। नहीं तो तुम लोगों से न मांगता।
मंगई : भैया, यहां रूपये कहां, जो कुछ लेई-पूंजी थी वह बेटी के गौने में खर्च हो गई। उस पर पत्थर ने और भी चौपट कर दिया ।
सलोनी : बने के साथी सब होते हैं, बिगड़े का साथी कोई नहीं होता।
मंगई : जो चाहे समझो, पर मेरे पास कुछ नहीं है।
हरदास : अगर दस-बीस दे भी दें तो कौन जल्दी मिले जाते हैं। बरसों में मिलें तो मिलें। उसमें सबसे पहले अपनी जमा लेंगे, तब कहीं औरों को मिलेगी।
मंगई : भला इस दौड़-धूप में तुम्हारे कितने रूपये लगे होंगे ?
फत्तू : क्या जाने, मेरे पास कोई हिसाब-किताब थोड़े ही है!
मंगई : तब भी अंदाज से ?
फत्तू : कोई एक सौ बीस रूपये लगे होंगी।
मंगई : (हरदास को कनखियों से देखकर) बेचारा हलधर तो बिना मौत मर गया। सौ रूपये इन्होंने चढ़ा दिए, ढाई सौ रूपये महाजन के होते हैं, गरी। कहां तक भरेगा ?
फत्तू : मुसीबत में जो मदद की जाती है वह अल्लाह की राह में की जाती है। उसे कर्ज नहीं समझा जाता।
हरदास : तुम अपने सौ रूपये तो सीधे कर लोगे ?
सलोनी : (मुंह चिढ़ाकर) हां, दलाली के कुछ पैसे तुझे भी मिल जाएंगी। मुंह धो रखना। हां बेटा, उसे छुड़ाने के लिए ढाई सौ रूपये की क्या गिकर करोगे ? कोई महाजन खड़ा किया है ?
फत्तू : नहीं, काकी, महाजनों के जाल में न पडूंगा। कुछ तुम्हारी बहू के गहने-पाते हैं वह गिरो रख दूंगा। रूपये भी उसके पास कुछ-न-कुछ निकल ही आएंगे। बाकी रूपये अपने दोनों नाटे बेचकर खड़े कर लूंगा।
सलोनी : महीने ही भर में तो तुम्हें फिर बैल चाहने होंगी।
फत्तू : देखा जाएगी। हलधर के बैलों से काम चलाऊँगा।
बेटा : बेटा, तुम तो हलधर के पीछे तबाह हो गए।
फत्तू : काकी, इन्हीं दिनों के लिए तो छाती गाड़-गाड़ कमाते हैं।
और लोग थाने-अदालतों में रूपये बर्बाद करते हैं। मैंने तो एक पैसा भी बर्बाद नहीं किया। हलधर कोई गैर तो नहीं है, अपना ही लड़का है। अपना लड़का इस मुसीबत में होता तो उसकोछुड़ाना पड़ता न ! समझ लूंगा कि अपनी बेटी के निकाह में लग गए।
सलोनी : (हरदास की ओर देखकर) देखा, मर्द ऐसे होते हैं। ऐसे सपूतों के जन्म से माता का जीवन सुफल होता है। तुम दोनों हलधर के पट्टीदार हो, एक ही परदादा के परपोते हो, पर तुम्हारा लोहू सफेद हो गया है। तुम तो मन में खुश होगे कि अच्छा हुआ वह गया, अब उसके खेतों पर हम कब्जा कर हुई।
हरदास : काकी, मुंह न खुलवाओ। हमें कौन हलधर से वाह-वाही लूटनी है, न एक के दो वसूल करने हैं। हम क्यों इस झमेले में पडें। यहां न ऊधो का लेना, न माधो का देना, अपने काम-से-काम है। फिर हलधर ने कौन यहां किसी की मदद कर दी ? प्यासों मर भी जाते तो पानी को न पूछता। हां, दूसरों के लिए चाहे घर लुटा देते हों।
मंगई : हलधर की बात ही क्या है, अभी कल का लड़का है। उसके बाप ने भी कभी किसी की मदद की ? चार दिन की आई बहू है, वह भी हमें दुसमन समझती है।
सलोनी : (फत्तू से) बेटा, सांझ हुई, दीयाबत्ती करने जाती हूँ। तुम थोड़ी देर में मेरे पास आना, कुछ सलाह करूंगी।
फत्तू : अच्छा एक गीत तो सुनाती जाओ। महीनों हो गए तुम्हारा गाना नहीं सुना।
सलोनी : इन दोनों को अब कभी अपना गाना न सुनाऊँगी।
हरदास : लो, हम कानों में उंगली रखे लेते हैं।
सलोनी : हां, कान खोलना मत।
गाती है।
ढूंढ़ गिरी सारा संसार, नहीं मिला कोई अपना।
भाई भाई बैरी है गए, बाप हुआ जमदूत।
दया-धरम का उठ गया डेरा, सज्जनता है सपना।
नहीं मिला कोई अपना।
जाती है।
नवाँ दृश्य
स्थान : मधुवन, हलधर का मकान, गांव के लोग जमा हैं।
समय : ज्येष्ठ की संध्या।
हलधर : (बाल बढ़े हुए, दुर्बल, मलिन मुख) फत्तू काका, तुमने मुझे नाहक छुड़ाया, वहीं क्यों न घुलने दिया । अगर मुझे मालूम होता कि घर की यह दशा है तो उधर से ही देश-विदेश की राह लेता, यहां अपना काला मुंह दिखाने न आता। मैं इस औरत को पतिव्रता समझता था।देवी समझकर उसकी पूजा करता था।पर यह नहीं जानता था। कि वह मेरे पीठ फेरते ही यों पुरखों के माथे पर कलंक लगाएगी। हाय!
सलोनी : बेटा, वह सचमुच देवी थी। ऐसी पतिबरता नारी मैंने नहीं देखी। तुम उस पर संदेह करके उस पर बड़ा अन्याय कर रहे हो, मैं रोज रात को उसके पास सोती थी। उसकी आंखें रात-की-रात खुली रहती थीं।करवटें बदला करती। मेरे बहुत कहने-सुनने पर भी कभी-कभी भोजन बनाती थी, पर दो-चार कौर भी न खाया जाता। मुंह जूठा करके उठ आती। रात-दिन तुम्हारी ही चर्चा, तुम्हारी ही बातें किया करती थी। शोक और दु: ख में जीवन से निराश होकर उसने चाहे प्राण दे दिए हों पर वह कुल को कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उस पर यह दोख लगाएं तो मुझे उन पर बिसवास न आएगी।
फत्तू : काकी, तुम तो उसके साथ सोती ही बैठती थीं, तुम जितना जानती हो उतना मैं कहां से जानूंगा, लेकिन इससे गांव में सत्तर बरस की उमिर गुजर गई, सैकड़ों बहुएं आई पर किसी में वह बात नहीं पाई जो इसमें है। न ताकना, न झांकना, सिर झुकाए अपनी राह जाना, अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।
हलधर : काका, किसी तरह मन को समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में फिर गई तो यह सोचकर क्यों न मन को धीरज दूं कि उसका नग कच्चा था।हाय, अब घर में पांव नहीं रखा जाता।ऐसा जान पड़ता है कि घर की जान निकल गई।
सलोनी : जाते-जाते घर को लीप गई है। देखो अनाज मटकों में रखकर इनका मुंह मिट्टी से बंद कर दिया है। यह घी की हांड़ी है। लबालब भरी हुई बेचारी ने संच कर रखा था।क्या कुल्टाएं गिरस्ती की ओर इतना ध्यान देती हैं ? एक तिनका भी तो इधर-उधर पड़ा नहीं दिखाई देता।
हलधर : (रोकर) काकी, मेरे लिए अब संसार सूना हो गया। वह गंगा की गोद में चली गई। अब फिर उसकी मोहिनी मूरत देखने को न मिलेगी। भगवान बड़ा निर्दयी है। इतनी जल्दी छीन लेना था। तो दिया ही क्यों था।
फत्तू : बेटा, अब तो जो कुछ होना था। वह हो चुका, अब सबर करो और अल्लाताला से दुआ करो कि उस देवी को निजात दे। रोने-धोने से क्या होगा ! वह तुम्हारे लिए थी ही नहीं उसे भगवान ने रानी बनने के लिए बनाया था।कोई ऐसी ही बात हो गई थी कि वह कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में आई थी। वह मियाद पूरी करके चली गई। यही समझकर सबर करो।
हलधर : काका, नहीं सबर होता। कलेजे में पीड़ा हो रही है। ऐसा जान पड़ता है, कोई उसे जबरदस्ती मुझसे छीन ले गया हो, हां, सचमुच वह मुझसे छीन ली गयी है, और यह अत्याचार किया है सबलसिंह और उनके भाई ने। न मैं हिरासत में जाता, न घर यों तबाह होता। उसका वध करने वाले, उसकी जान लेने वाले यही दोनों भाई हैं ? नहीं, इन दोनों भाइयों को क्यों बदनाम करूं, सारी विपत्ति इस कानून की लाई हुई है, जो गरीबों को धनी लोगों की मुट्ठी में कर देता है। फिर कानून को क्यों कहूँ। जैसा संसार वैसा व्यवहारब
फत्तू : बस, यही बात है, जैसा संसार वैसा व्यवहार। धनी लोगों
के हाथ में अख्तियार है। गरीबों को सताने के लिए जैसा
कानून चाहते हैं, बनाते हैं। बैठो, नाई बुलवाए देता हूँ, बाल बनवा लो।
हलधर : नहीं काका, अब इस घर में न बैठूंगा। किसके लिए घर-बार
के झमेले में पडूं। अपना पेट है, उसकी क्या चिंता ! इस अन्यायी संसार में रहने का जी नहीं चाहता। ढाई सौ रूपयो के पीछे मेरा सत्यानास हो गया। ऐसा परबस होकर जिया ही तो क्या ! चलता हूँ, कहीं साधु-वैरागी हो जाऊँगा, मांगता-खाता फिरूंगा।
हरदास : तुम तो साधु-बैरागी हो जाओगे, यह रूपये कौन भरेगा ?
फत्तू : रूपये-पैसे की कौन बात है, तुमको इससे क्या मतलब? यह
तो आपस का व्यवहार है, हमारी अटक पर तुम काम आए,
तुम्हारी अटक पर हम काम आएंगी। कोई लेन-देन थोड़ा ही किया है !
सलोनी : इसकी बिच्छू की भांति डंक मारने की आदत है।
हलधर : नहीं, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। फत्तू काका, मैं तुम्हारी नेकी को कभी नहीं भूल सकता। तुमने जो कुछ किया वह अपना बाप भी न करता। जब तक मेरे दम-में-दम है तुम्हारा और तुम्हारे खानदान का गुलाम बना रहूँगी। मेरा घर-द्वार, खेती-बारी, बैल-बधिये, जो कुछ है सब तुम्हारा है, और मैं तुम्हारा गुलाम हूँ। बस, अब मुझे बिदा करो, जीता रहूँगा तो फिर मिलूंगा, नहीं तो कौन किसका होता है। काकी, जाता हूँ, सब भाइयों को राम-राम !
फत्तू : (रास्ता रोककर गद्गद कंठ से) बेटा, इतना दिल छोटा न करो। कौन जाने, अल्लाताला बड़ा कारसाज है, कहीं बहू का पता लग ही जाये। इतने अधीर होने की कोई बात नहीं है।
हरदास : चार दिन में तो दूसरी सगाई हो जाएगी।
हलधर : भैया, दूसरी सगाई अब उस जनम में होगी। इस जनम में तो अब ठोकर खाना ही लिखा है। अगर भगवान को यह न मंजूर होता तो क्या मेरा बना-बनाया घर उजड़ जाता ?
फत्तू : मेरा तो दिल बार-बार कहता है कि दो-चार दिन में राजेश्वरी का पता जरूर लग जाएगी। कुछ खाना बनाओ, खाओ, सबेरे चलेंगे, फिर इधर-उधर टोह लगाएंगी।
हरदास : पहले जाके ताला। में अच्छी तरह असनान कर लो।चलूं, जानवर हार से आ गए होंगे।(सब चले जाते हैं।)
हलधर : यह घर गाड़े खाता है, इसमें तो बैठा भी नहीं जाता । इस वक्त काम करके आता था। तो उसकी मोहनी सूरत देखकर चित्त कैसा खिल जाता था।कंचन, तूने मेरा सुख हर लिया, तूने मेरे घर में आग जल दी। ओहो, वह कौन उजली साड़ी पहने उस घर में खड़ी है। वही है, छिपी हुई थी। खड़ी है, आती नहीं (उस घर के द्वार पर जाकर) राम ! राम ! कितना भरम हुआ, सन की गांठ रखी हुई है अब उसके दर्शन फिर नसीब न होंगे।जीवन में अब कुछ नहीं रहा। हा, पापी, निर्दयी ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया, मुट्ठी भर रूपयों के पीछे ! इस अन्याय का मजा तुझे चखाऊँगा। तू भी क्या समझेगा कि गरीबों का गला काटना कैसा होता है
लाठी लेकर घर से निकल जाता है।
दसवाँ दृश्य
स्थान : गुलाबी का घर।
समय : प्रात: काल।
गुलाबी : जो काम करन बैठती है उसी की हो रहती है। मैंने घर में झाडू लगाई, पूजा के बासन धोए, तोते को चारा खिलाया, गाय खोली, उसका गोबर उठाया, और यह महारानी अभी पांच सेर गेहूँ लिये जांत पर औंघ रही हैं। किसी काम में इसका जी नहीं लगता। न जाने किस घमंड में भूली रहती है। बाप के पास ऐसा कौन-सा दहेज था। कि किसी धनिक के घर जाती । कुछ नहीं, यह सब तुम्हारे सिर चढ़ाने का फल है। औरत को जहां मुंह लगाया कि उसका सिर गिराब फिर उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते। इस जात को तो कभी मुंह लगाए ही नहीं चाहे कोई बात भी न हो¼ पर उसका मान मरदन नित्य करता रहै।
भृगु : क्या करूं अम्मां, सब कुछ करके तो हार गया। कोई बातसुनती ही नहीं ज्योंही गरम पड़ता हूँ, रोने लगती है। बस दया आ जाती है।
गुलाबी : मैं रोती हूँ तब तो तेरा कलेजा पत्थर का हो जाता है, उसे रोते देखकर क्यों दया आ जाती है।
भृगु : अम्मां, तुम घर की मालकिन हो, तुम रोती हो तो हमारा दु: ख देखकर रोती हो, तुम्हें कौन कुछ कह सकता है ?
गुलाबी : तू ही अपने मन से समझ, मेरी उमिर अब नौकरी करने की
है। यह सब तेरे ही कारण न करना पड़ता है ? तीन महीने
हो गए, तूने घर के खरच के लिए एक पैसा भी न दिया । मैं न जाने किस-किस उपाय से काम चलाती हूँ।तू कमाता है तो क्या करता है ? जवान बेटे के होते मुझे छाती गाड़नी पड़े, तो दिनों को रोऊँ कि न रोऊँ। उस पर घर में कोई बात पूछने वाला नहीं पूछो महरानी से महीने-भर हो गए, कभी सिर में तेल डाला, कभी पैर दबाए। सीधे मुंह बात तो करतीं नहीं, भला सेवा क्या करेंगी। रोऊँ न तो क्या करूं ? मौत भी नहीं आ जाती कि इस जंजाल से छूट जाती। जाने कागद कहां खो गया।
भृगु : अम्मां ऐसी बातें न करो। तुम्हारे बिना यह गिरस्ती कौन
चलाएगा? तुम्हीं ने पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है। जब तक जीती हो इसी तरह पाले जाओ। फिर तो यह चक्की गले पड़ेगी ही।
गुलाबी : अब मेरा किया नहीं होता।
भृगु : तो मुझे परदेस जाने दो। यहां मेरा किया कुछ न होगी।
गुलाबी : आखिर मुनीबी में तुझे कुछ मिलता है कि नहीं वह सब कहां उड़ा देता है ?
भृगु : कसम ले लो जो इधर तीन महीने में कौड़ी से भेंट हुई हो,
जब से ओले पड़े हैं, ठाकुर साहब ने लेन-देन सब बंद कर दिया है।
गुलाबी : तेरी मारगत बाजार से सौदा-सुलफ आता है कि नहीं घर में जिस चीज का काम पड़ता है वह मैं तुझी से मंगवाने को कहती हूँ। पांच-छ: सौ का सौदा तो भीतर ही का आता होगी। तू उसमें कुछ काटपेच नहीं करता ?
भृगु : मुझे तो अम्मां, यह सब कुछ नहीं आता।
गुलाबी : चल, झूठे कहीं के मेरे सौदे में तो तू अपनी चाल चल ही जाता है, वहां न चलेगी। दस्तूरी पाता है, भाव में कसता है। तौल में कसता है। उस पर मुझसे उड़ने चला है। सुनती हूँ दलाली भी करते हो, यह सब कहां उड़ जाता है ?
भृगु : अम्मां, किसी ने तुमसे झूठमूठ कह दिया होगी। तुम्हारा सरल स्वभाव है, जिसने जो कुछ कह दिया वही मान जाती हो, तुम्हारे चरण छूकर कहता हूँ जो कभी दलाली की हो, सौदे-सुलुफ में दो-चार रूपये कभी मिल जाते हैं तो भंग-बूटी, पान-पत्ते का खर्च चलता है।
गुलाबी : जाकर चुड़ैल से कह दे पानी-वानी रखे, नहाऊँ नहीं तो ठाकुर के यहां कैसे जाऊँगी ? सारे दिन चक्की के नाम को रोया करेगी क्या ?
भृगु : अम्मां, तुम्हीं जाकर कहो, मेरा कहना न मानेगी।
गुलाबी : हां, तू क्यों कहेगा ! तुझे तो उसने भेड़ बना लिया है। ऊंगलियों पर नचाया करती है। न जाने कौन-सा जादू डाल दिया है कि तेरी मति ही हर गई। जा, ओढ़नी ओढ़ के बैठब
बहू के पास जाती है।
क्यों रे, सारे दिन चक्की के नाम को रोएगी या और भी कोई काम है ?
चम्पा : क्या चार हाथ-पैर कर लूं ? क्या यहां सोयी हूँ!
गुलाबी : चुप रह, डाकून कहीं की, बोलने को मरी जाती है। सेर-भर गेहूँ लिए बैठी है। कौन लड़के-बाले रो रहे हैं कि उनके तेल- उबटन में लगी रहती है। घड़ी रात रहे क्यों नहीं उठती? बांझिन, तेरा मुंह देखना पाप है।
चम्पा : इसमें भी किसी का बस है ? भगवान नहीं देते तो क्या अपने हाथों से गढ़ लूं ?
गुलाबी : फिर मुंह नहीं बंद करती चुड़ैल। जीभ कतरनी की तरह चला करती है। लजाती नहीं तेरे साथ की आई बहुरियां दो-दो लड़कों की मां हो गई हैं और तू अभी बांठ बनी है। न जाने कब तेरा पैरा इस घर से उठेगी। जा, नहाने को पानी रख दे, नहीं तो भले परांठे चखाऊँगी। एक दिन काम न करूं तो मुंह में मक्खी आने-जाने लगे। सहज में ही यह चरबौतियां नहीं उड़ती।
बहू : जैसी रोटियां तुम खिलाती हो ऐसी जहां छाती गाडूंगी वहीं मिल जाएंगी। यहां गद्दी-मसनद नहीं लगी है।
गुलाबी : (दांत पीसकर) जी चाहता है सट से तालू से जबान खींच लें। कुछ नहीं, मेरी यह सब सांसत भगुवा करा रहा है, नहीं तो तेरी मजाल थी कि मुझसे यों जबान चलाती । कलमुंहे को और घर न मिलता था। जो अपने सिर की बला यहां पटक गया। अब जो पाऊँ तो मुंह झौंस दूं।
चम्पा : अम्मांजी, मुझे जो चाहो कह लो, तुम्हारा दिया खाती हूँ, मारो या काटो, दादा को क्यों कोसती हो ? भाग बखानो कि बेटे के सिर पर मौर चढ़ गया, नहीं तो कोई बात भी न पूछता। ऐसा हुस्न नहीं बरसता था। कि देख के लट्टू हो जाता।
गुलाबी : भगवान को डरती हूँ, नहीं तो कच्चा ही खा जाती। न जाने कब इस अभागिन बांझ से संग छूटेगी।
चली जाती है। भृगु आता है।
चम्पा : तुम मुझे मेरे घर क्यों नहीं पहुंचा देते, नहीं एक दिन कुछ खाकर सो रहूँगी तो पछताओगे। टुकुर-टुकुर देखा करते हो, पर मुंह नहीं खुलता कि अम्मां, वह भी तो आदमी है, पांच सेर गहूँ पीसना क्या दाल-भात का कौर है ?
भृगु : -तुम उसकी बातों का बुरा क्यों मानती हो, मुंह ही से न कहती है कि और कुछ। समझ लो कुतिया भूंक रही है। दुधार गाय की लात भी सही जाती है। आज नौकरी करना छोड़ दें तो सारी गृहस्थी का बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा कि और किसी के सिर ? धीरज धरे कुछ दिन पड़ी रहो, चार थान गहने हो जाएंगे, चार पैसे गांठ में हो जाएंगी। इतनी मोटी बात भी नहीं समझती हो, झूठ-मूठ उलझ जाती हो,
चम्पा : मुझसे तो ताने सुनकर चुप नहीं रहा जाता। शरीर में ज्वाला-सी उठने लगती है।
भृगु : उठने दिया करो, उससे किसी के जलने का डर नहीं है। बस उसकी बातों का जवाब न दिया करो। इस कान सुना और उस कान उड़ा दिया ।
चप्पा : सोनार कंठा कब देगा ?
भृगु : दो-तीन दिन में देने को कहा है। ऐसे सुंदर दाने बनाए हैं कि देखकर खुश हो जाओगी। यह देखो
चम्पा : क्या है ?
भृगु : न दिखाऊँगा, न।
चम्पा : मुट्ठी खोलो।यह गिन्नी कहां पाई ? मैं न दूंगी।
भृगु : पाने की न पूछो, एक असामी रूपये लौटाने आया था।खाते में दो रूपये सैकड़े का दर लिखा है, मैंने ढाई रूपये सैकड़े की दर से वसूल किया।
बाहर चला जाता है।
चम्पा : (मन में) बुढ़िया सीधी होती तो चैन-ही-चैन था।