संघर्ष के बाद (कहानी) : विष्णु प्रभाकर

Sangharsh Ke Baad : Vishnu Prabhakar

अतुल भोजन करके उठा तो माँ बोली, ‘तू निर्वाण के पास गया था, बेटा?’

अतुल ने कहा, ‘नहीं।’

माँ नहीं बोली, कुछ सोचने लगी।

अतुल ने ही फिर कहा, ‘वहाँ जाने से क्या होगा, माँ? भइया बात मेरी नहीं सुनेंगे।’

न जाने क्यों माँ की आँखें डबडबा आईं। आँचल से आँसू पोंछकर वह इतना ही बोलीं, ‘तो क्या मुझे ही उनके पास जाना होगा?’

अतुल झिझका नहीं। बोला, ‘अगर भाभी को घर न ला सकीं तो जाने से क्या होगा, माँ?’

माँ का साहस टूट गया। वे चुपचाप चली गईं। मणि भी माँ-बेटे की बातें सुन रही थी। माँ की यह असहायावस्था उससे न देखी गई। उसने कहा, ‘कुछ तो करना ही होगा, नहीं तो माँ का जीवन संकट में जान पड़ता है।’

अतुल ने मणि को देखा, मानो कहते हों, क्या तुम इन बातों को नहीं समझती? बोले, ‘माँ जब भाभी को घर नहीं रखना चाहती, तब भइया कैसे आएँ?’

‘लेकिन आप अपने भइया को समझाते क्यों नहीं? बहू के लिए भी कोई माँ को छोड़ता है?’

‘भइया में एक दोष है, मणि! वह जो कह देते हैं, उसे करना जानते हैं। मैं ऐसा नहीं हूँ। अगर मैं भी ऐसा ही होता, तो तुम्हें राजरानी के पद पर न ला बिठाता?’

मणि ने सोचा, वह हँसी कर रहे हैं, उसी से खिन्न होकर बोली, ‘आप वहाँ जाते ही कब हैं? माँ का दिल दुखाने के लिए आप दोनों भाइयों ने एका कर लिया है।’

अतुल ने इस बार लंबी साँस छोड़कर कहा, ‘यही तो अच्छा है, मैं भइया से एका नहीं कर सका, मणि! परंतु इन बातों से क्या? मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा।’

और वह चले गए। मणि उनकी ओर देखती खड़ी रह गई, जैसे वह स्वयं अचरज की साकार प्रतिमा बन गई हो। वह देखने में अधिक गोरी-चिट्टी नहीं है, परंतु परमात्मा ने जो स्वरूप उसे दिया है, वह बिरले को ही मिलता है। वह बड़े घर की लाड़ली बेटी और बड़े घर की मुँहचढ़ी बहू भी है। जब माँ अपने बड़े बेटे निर्वाण को विवाह के लिए विवश न कर सकी, तो अतुल को लेकर ही वह मणि को अपने घर ले आई थीं। इसी बीच में निर्वाण कायस्थ-कुल की एक बंगाली बालिका को परिणय-बंधन में बाँध लाए। पैत्रिक संपत्ति का सारा भाग छोटे भाई के नाम करके वे म्युनिसिपल ऑफिस में काम करने लगे। हृदय पर पत्थर रखकर माँ ने इस अनहोने परिवर्तन को देखा और पंखहीन पक्षी की भाँति तड़पकर रह गई। उसके हृदय के अंतरतम प्रदेश में बेटे की ममता फलती-फूलती आ रही थी, वही अब कसक बनकर टीसने लगी।

***

अपनी बात की इस प्रकार अवहेलना होती देखकर लाड़ली बहू मणि खीज उठी। मन-ही-मन पति को खरी-खोटी सुनाकर उसने एक महा भयंकर प्रतिज्ञा कर डाली, ‘मैं आज जीजी के पास जाकर इस बात का निर्णय करूँगी और देखूँगी कि बड़े भइया किस प्रकार माँ की ममता को ठुकराते हैं।’

फिर शीघ्र ही घर का काम सँभालकर उसने जाने के लिए चादर ओढ़ ली। माँ उस समय सो रही थी। नौकर से कह गई, ‘कह देना, आनंद बाबू के घर गई है।’

नौकर ने कहा, ‘टमटम ले आऊँ?’

परंतु उसने किराए का ताँगा ही ठीक समझा। बोली, ‘कल्याण टोले में निर्वाण बाबू का घर है। वहीं चलो।’

कुछ देर बाद शहर की चिरपरिचित सड़कों पर चक्कर काटकर बाजारी ताँगा, खड़-खड़ ध्वनि से उस सुनसान दुपहरी को जगाता हुआ, कल्याण टोल के सामने आ खड़ा हुआ। ‘हटो’, ‘बचकर मेरे खिलाड़ी’, ऐसा बोलने के लिए वहाँ कौन था?

कुत्ते भी सड़क से हटकर साये में पड़े थे। इसी से जाते समय वह बोला, ‘फिर आना होगा, बहूजी?’

‘नहीं।’ और वह निर्वाण बाबू की बैठक में जा खड़ी हुई।

हेमांगिनी उर्फ हेमा ने ताँगे को अपने द्वार पर रुकते देखा, तो अचरज से सोचने लगी, इस वक्त कौन आया?

और जब मणि ठीक उसके सामने आ पहुँची, तो वे दोनों ही चौंक पड़ीं।

मणि ने हेमा जैसा सुंदर रूप कभी नहीं देखा था। जो उसे एक बार देख लेता था, फिर भूलता नहीं था, अपितु बार-बार देखने की चाह मन को व्याकुल करती रहती थी। बड़ी-बड़ी काली आँखें और उनमें शैशव का भोलापन। चेहरे पर पत्नीत्व के कारण, अनजान में पैदा हो गई लज्जा की लाली और उसके साथ अल्हड़पन की हर वक्त रहनेवाली हँसी। बँगाली रीति से गुँथे हुए बाल और चिट्टा रंग। ऐसी स्त्री कितनी सुंदर होगी, वही जाने जिसने देखी हो। इसी से मणि चौंकी थी।

हेमा भी चौंकी थी। क्योंकि बिना किसी झिझक के मणि उसके सामने ऐसे आ खड़ी हुई, मानो बहुत दिनों का जाना-पहचाना माँ-बाप का घर हो।

आगंतुक का स्वागत कैसे करे, इस बात को भूलकर हेमा ने आँचल गले में डालकर मणि को प्रणाम करने की चेष्टा की। तब मणि हँस पड़ी, ‘प्रणाम तो मुझे करना चाहिए था, जीजी! मैं तो नाते और उमर सबही में आपसे छोटी हूँ।’

हेमा के मन में एक अस्पष्ट सा ‘कुछ’ उठा, पर वह बोली नहीं।

मणि ही ने पूछा, ‘आपने मुझे पहचाना नहीं, जीजी?’

हेमा अचरज से व्याकुल ही होती रही।

मणि खिलखिला पड़ी, ‘मैं आपकी देवरानी हूँ, जीजी!’

हेमा मानो ठगी गई। बोली, ‘अरे, तुम हो मणि! आज देखा है। आओ, आओ, छोटी दीदी, आज किधर भूल पड़ी?’

और वे कमरे में आकर बैठ गईं। मणि ने एक ही दृष्टि में उस कमरे की तुलना अपने कमरे से कर डाली। मणि का कमरा सुंदर था, परंतु हेमा का कमरा सादगी और स्वच्छता में उसके कमरे से कहीं अच्छा था, यह निर्णय करके मणि को सुख और दुःख दोनों ही हुए।

कुछ देर तक वे यों बातें करती बैठी रहीं। मणि किसी प्रकार भी निर्णय नहीं कर सकी कि अपनी प्रतिज्ञा कैसे पूरी करे।

हेमा बार-बार कोई-न-कोई घरेलू प्रश्न कर बैठती थी, ‘माँ कैसी हैं? अतुल बाबू कैसे हैं? क्या करते हैं?’

और मणि संक्षेप में कहती, ‘अच्छी हैं, अच्छे हैं, जमींदारी का काम देखते हैं।’

फिर सोचने लगती, क्या करूँ? वह सच कहते हैं। मैं कुछ भी नहीं कर सकूँगा। भला ऐसी भोली-भाली जीजी से इतनी कड़वी बात कोई कैसे कहे? फिर ध्यान आता, कुछ भी हो, यह तो करना ही होगा। माँ की बात है।

इसी उधेड़-बुन में वह खीझ सी आई, पर हेमा खीझने देती तब न। बहुत दिनों के बाद एक आत्मीय मिल था।

तभी सहसा मणि बोली, ‘एक बात कहती हूँ, जीजी!’

जीजी नहीं बोली, पर हृदय में जो गाँठ सी बँधती आ रही थी, वह और भी जटिल हो गई। मणि कहती रही, ‘पिछले जन्म में आप-हम लोगों की दुश्मनी थीं, जीजी!’

जीजी गुम। अंदर का अस्पष्ट ‘कुछ’ जैसे स्पष्ट हो चला। गाँठ भी ढीली पड़ने लगी। मणि और भी निर्द्वंद्व हुई, ‘यदि दुश्मन न होती, तो माँ-बेटे में, भाई-भाई में इस प्रकार द्रोह न पैदा करतीं। एक हरी-भरी गिरस्ती को बरबाद न करती।’

जीजी अब भी चुप थी। उसके लिए सब स्पष्ट हो उठा था। कल्पना प्रत्यक्ष होकर सामने आकर खड़ी हो गई थी।

मणि भी अब चुप हो गई। मानो उत्तर की बाट देखती हो। कुछ क्षण बाद जीजी उसके पास आकर बोली, ‘लेकिन मेरा तो इसमें कुछ भी दोष नहीं, मणि?’

मणि यह सुनकर उठ खड़ी हुई और बोली, ‘है क्यों नहीं जीजी? आप न होतीं, तो बड़े भइया हम लोगों को इस तरह न छोड़ देते।’

ना समझी की इस बात पर हेमा हँस पड़ी, ‘अच्छा, लेकिन तुम जा क्यों रही हो?’

मणि नहीं रुकी।

तब हेमा ने सुनाकर कहा, ‘अच्छा होता, ये सब बातें उनसे कही जातीं।’

मणि ने सुना और मुड़कर बोली, ‘आप कह दोगी न, जीजी?’ और मणि चली गई।

***

सबकुछ भूलकर हेमा सोचने लगी, मुझसे ही क्यों कहते हैं? उनसे कोई नहीं बोलता। वही तो मुझे लाए थे। उस दिन उनके घर की ब्राह्मणी न जाने क्या-क्या कह रही थी। जो आती है, कुछ-न-कुछ सुना जाती है।

उसे दुःख हुआ, आँखों में आँसू भर आए।

उस समय संध्या भागी आ रही थी। सूरज की तेजी घटने लगी। प्रकाश भी मंद हो चला। घड़ी की सुइयों ने एक करवट ली। छह बज गए और निर्वाण दफ्तर से लौट आए।

हेमा ने अचरज से देखा, वे अकेले नहीं है, अतुल भी है। उसकी छाती के भीतर धुकर-धुकर होने लगी। मन-ही-मन उसने कहा, ‘आज क्या होनेवाला है, प्रभो?’

कुछ देर बैठकर अतुल लौटने लगा, तो हेमा सामने आ खड़ी हुई। रोते-रोते उसकी आँखें लाल हो रही थीं। हँसमुख चेहरा मुरझा गया था, जैसे अनंत शोक सागर में गहरी डुबकी लगाई हो।

अतुल चौंक पड़ा, ‘अरे, तुम हो, भाभी! पर तुम रो क्यों रही हो?’

सँभलकर हेमा बोली, ‘तुम लोग मुझसे क्या चाहते हो, अतुल बाबू?’

अतुल को और भी अचरज हुआ, ‘मैं तो कुछ भी नहीं चाहता, तुम कह क्या रही हो?’

‘यही कि तुम यहाँ क्यों आए थे?’

‘चुंगी के बारे में कुछ पूछना था।’

साड़ी का छोर हाथ में थामे-थामे हेमा न जाने क्या सोचकर बोल उठी, ‘अच्छा, तो खाना खाकर जाना।’

अतुल हँस पड़ा, ‘बस, यही बात है। मैं बैठा हूँ, लाओ, क्या खिलाती हो? नेकी के लिए पूछना नहीं पड़ता, भाभी!’

तब हेमा निर्वाण के पास पहुँची। बोली, ‘सुनते हो, मैंने अतुल को खाना खाने के लिए कहा है।’

निर्वाण कुछ घबराकर बोले, ‘क्या अतुल हमारे घर खाने के लिए तैयार है?’

‘हाँ,’ कहकर हेमा रसोईघर में चली गई। तब दोनों भाइयों ने एक साथ भोजन किया। कई बार दोनों की आँखें भीगीं और सूख गईं। कई बार दोनों की छाती के भीतर अनेक भावनाएँ पैदा हुईं और मिट गईं, मानो नदी की तरंगें एक-दूसरे को नष्ट करती हुई अनंत की ओर बह चली हों। अंत में अतुल बोला, ‘बहुत दिनों के बाद इकट्ठे बैठकर खाना खाया है, भइया।’

निर्वाण ने कहा, ‘हाँ, बहुत ही दिन बीत गए, पर अतुल, तुम माँ से तो नहीं कहोगे न?’

अतुल बोला, ‘नहीं कहूँगा।’ और भइया कुछ और न कहें, ऐसा सोचकर भाभी को प्रणाम करके बोला, ‘अब चलता हूँ, भाभी! परंतु जब तुम खाना खिलाने के लिए बुलाओगे तो मना नहीं करूँगा।’

हेमा हँस पड़ी। उस दिन उसने पहचाना कि प्रकृति में भिन्न होकर भी दोनों भाई कितने पास हैं। वे लोग इस बात को नहीं पहचान पाए हैं। मैंने जाना है, तब क्यों भय खाऊँ।

और उसकी आँखों में हर्ष के आँसू भर आए।

***

आज ब्राह्मणी ने आते ही मणि को सूचित कर दिया है, ‘निर्वाण को हैजा हुआ है।’

अतुल बोले, ‘मैं तो जानता था, दिन-दुपहरी में काम करना पड़ता है, बीच में जलपान करने तक को नहीं मिलता। न जाने इतने दिन तक भाभी उन्हें कैसे जीवित रख सकीं।’

माँ ने भी सुना। उसका दिल रो पड़ा। उसी समय जाने को तैयार हुईं, परंतु अतुल की अंतिम बात सुनकर ठिठक गईं। उसी अभागिन ने मेरे बेटे को छीना है। उसे ही उसको बचाना पड़ेगा।

वह नहीं गई, परंतु दिल नहीं माना, ब्राह्मणी को बुलाकर बोलीं, ‘तुम अभी जाकर देखो, उसका क्या हाल है?’

और वह रो पड़ीं। बार-बार यही ध्यान आया, ‘क्या वह बिना हेमा के निर्वाण को अपने घर ला सकेंगी?’

उधर मणि ने अतुल से कहा, ‘तुम वहाँ नहीं जाओगे क्या?’

‘नहीं।’ अतुल का संक्षिप्त उत्तर था।

‘भाई को मरते देखकर भी तुम्हारा दिल नहीं पसीजता?’

‘भइया को तुम जानती होती तो ऐसा न कहतीं। मेरे डॉक्टर को वे पास भी नहीं आने देंगे।’

‘परंतु अपने आदमी को पास देखकर ढाढ़स तो होगा ही।’

‘भाभी से बढ़कर उनका अपना कौन है? उनके होते हमें कुछ भी करने का अधिकार नहीं है।’

मणि ने आँचल से आँसू पोंछकर कहा, ‘उस दिन नादानी से मैं जीजी को न जाने क्या-क्या कह आई थी। क्या मैं अब वहाँ जा सकूँगी?’

‘तो फिर उनका भगवान् मालिक है। अपना काम करो।’

अतुल अपना काम करने लगा। मणि भारी मन लेकर उठ गई।

***

निर्वाण रोग-मुक्त हुए।

चार रात रोगी स्वामी के पलंग की पट्टी से लगकर हेमा ने उनकी रक्षा की। संसारवालों ने नहीं जाना, उनपर क्या बीती। उनके पास आता भी कौन था। हिंदू-धर्म के अछूतों से बढ़कर उन लोगों की दशा थी। आँचल को गले में डालकर वह बार-बार ऊपर की ओर देखकर कह उठती, ‘मेरी लाज तुम्हारे ही हाथों में है, मेरे प्रभु!’

उनकी लाज तो बच गई, परंतु वह न बच सकी। अनवरत परिश्रम और रोगी की परिचर्या के कारण एक दिन उसे भी खाट की शरण लेनी पड़ी।

निर्वाण स्वयं निर्बल थे। पास में पैसा नहीं था। आड़े वक्त का कोई साथी भी नहीं था। किसी के आगे गिड़गिड़ाने का, सबको अपनी अवस्था सुनाकर आँसू बहाने का उनका स्वभाव नहीं था। इन बातों का वही परिणाम हुआ, जो होना चाहिए था। हेमा धीरे-धीरे घुलने लगी।

और तभी एक दिन हेमा ने निर्वाण से कहा, ‘अब मैं नहीं बचूँगी।’

हठी निर्वाण इन बातों को सुनने का आदी नहीं था, रो पड़ा।

‘छिह, छिह!’ हेमा बोली, ‘पुरुष भी कहीं रोते हैं। जब आप बीमार थे, मैं तो एक बार भी नहीं रोई थी।’

निर्वाण बोला, ‘लेकिन हेमा, तुम्हारे बिना नहीं जी सकूँगा, यह जानता हूँ।’

हाथ पकड़कर हेमा बोली, ‘माँ के पास चले जाना।’ और उसका गला भर आया।

सहसा निर्वाण को कुछ ध्यान आया। हेमा से बोला, ‘अभी आऊँगा।’ और वह अपने खानदानी डॉक्टर के पास दौड़ा गया। घर रास्ते में पड़ता था। जी में आया, कहता चलूँ, ‘अब वह मर हरी है, माँ! एक बार चलकर देख लो।’ अतुल ने भी देखा, भइया हैं। पर दोनों मौन रहे। निर्वाण नहीं रुका। डॉक्टर के पास जाकर रो पड़ा, ‘डॉक्टर चाचा! आज वह मर रही है। एक बार चलकर देख भर लो। मैं जन्म भर तुम्हारी नौकरी करूँगा।’

गोद में खिलाए हुए अपने मित्र के लड़के को रोता देखकर डॉक्टर चाचा हड़बड़ा उठे, ‘अरे, तुम हो निर्वाण! तुम पहले क्यों नहीं आए? अतुल ने भी तो कुछ नहीं कहा। चलो-चलो, मैं देखता हूँ।’

संध्या को जब अतुल लौटा तो कहने लगा, ‘भाभी ने जान खपाकर भइया को तो बचा लिया, परंतु भइया में इतनी जान कहाँ जो भाभी की रक्षा कर सकें। पैसा पास नहीं। अजीब आदमी हैं, जो कह दिया, वह करके दिखाएँगे।’

मणि सब सुन रही थी। घबराकर बोली, ‘क्या, तुम वहाँ गए थे?’

‘नहीं।’

इतने ही में माँ ने आकर कहा, ‘सच ही निर्वाण की बहू नहीं बचेगी, अतुल?’

उनकी आवाज भारी थी। जी भरा आ रहा था।

‘सुना तो ऐसा ही है।’ अतुल बोला।

माँ रो पड़ीं, ‘तो अतुल, तू एक बार मुझे वहाँ ले चल।’

अतुल ने कहा, ‘अभी चलो, माँ, परंतु तुम्हारे पहुँचने से पहले ही भाभी वहाँ से चल देंगी।’

‘नहीं, अतुल!’ माँ ने अद्भुत दृढ़ता के साथ कहा, ‘मैंने कितने ही पाप क्यों न किए हों, परंतु उनका इतना भयंकर दंड भगवान् मुझे देंगे, ऐसी मुझे आशा नहीं है।’

अतुल माँ और बहू को लेकर जब निर्वाण के घर पहुँचे तो डॉक्टर हेमा की परीक्षा कर रहे थे और निर्वाण संतोषपूर्ण व्यग्रता से उनके सामने खड़े थे। उसने किसी को नहीं देखा।

चुपचाप उसकी पीठ पर हाथ रखकर माँ बोलीं, ‘अब तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं। बाहर जाओ, बैठक में अतुल है।’

निर्वाण ने आश्चर्य से मुड़कर देखा, माँ सामने खड़ी थीं। छाती पर सिर रखकर फफकार उठा, ‘मुझे माफ कर दो, माँ! माँ...!’

किसी तरह छाती दबाकर माँ ने उसे बाहर भेजा और बहू का सिर अपनी गोद में रखकर बोली, ‘मैं तुम्हारी सास हूँ, हेमा! अब तुम्हें मरने की जरूरत नहीं।’

मणि पागल सी उन्हें देखती रही। बोलने के लिए उसे वाणी भी नहीं मिली। फिर डॉक्टर की ओर देखकर माँ बोलीं, ‘देवर, हमारे खानदान के लिए तुमने जो भी किया, उसकी विवेचना करने का समय अब नहीं। हेमा को अगर बचा सके, तो समझना मेरा जो कुछ भी है, तुम्हारा है।’

परंतु इन सब झगड़ों से सदा परे रहनेवाले अतुल की आँखों से आँसू की जो बूँदें टपक पड़ी थीं, उन्हें शायद किसी ने भी नहीं देखा।