संदेह से मुक्ति (लघुकथा) : सविता मिश्रा 'अक्षजा'
Sandeh Se Mukti (Laghukatha) : Savita Mishra Akshaja
पति थका-हारा घर आता तो वह अपनी नाक उसके शरीर से चिपका देती। अपना दिमाग भी उसके दिमाग में भरवाँ टमाटर जैसे घुसेड़ने का प्रयास करती। यह सब करते हुए वह ख्याल रखती कि टमाटर फटे नहीं। अरे! अभिप्राय यह है कि सौरभ को संदेह न होने पाए। पड़ोसियों से भी प्रतिदिन टोह लेती रहती कि सौरभ के व्यवहार में कोई अटपटा-पन तो नहीं है। कामवाली आती तो उसकी आँखें सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सजग हो जातीं।
इन प्रयासों से उसे जो कुछ पता चलता, उन्हें वह सी-बुनकर सौरभ को कटघरे में खड़ा करके मन-ही-मन जिरह कर डालती। शादी के तीन साल पाँच महीने के बाद ही उसका विवाह टूटने के कगार पर आ गया था। उसे लगने लगा था कि अभी सौरभ को आईना दिखा कर विवाह-विच्छेद कर ले।
अपनी माँ से उसने साफ किया कि मैं नहीं रहूँगी ऐसे पति के साथ जो पर स्त्रियों को ताड़ता रहता है। वह तो ऑफिस की कलिग से उसका अफेयर होने का शक भी जाहिर कर चुकी थी। माँ के यह कैसे कह सकती हो पूछने पर, उत्तर में अक्सर कैंटीन में दोनों के लंच करने की बात कह डालती।
सौरभ जब कभी कहता कि तुम बहुत शक्की हो और ठठाकर हँस पड़ता, तो वह और भी सजग हो जाती। उसके हँसने पर कभी-कभी उसे अपना शक करना व्यर्थ लगता। अपने मन को समझाने के सारे प्रयास असफल हो रहे थे। संदेह ने मन में पक्की सिलाई का जाल बुन लिया था और वह खुद उसमें फंसी छटपटा रही थी। जब पानी सर से ऊपर हो गया तो वह एक दिन अपनी सहेली के साथ ऑफिस जा पहुँची थी कि पता चला सौरभ कैंटीन में है।
“देख लिया, चल, उन्हें आज रंगे हाथ पकड़ूंगी।” वंदना कैंटीन में जा पहुँची थी कि अपनी चचेरी बहन से टकरा गई। “तू यहाँ?”
“हाँ, यही तो काम करती हूँ। जीजाजी ने ही तो मेरी मदद की। अभी उन्हीं के साथ थी। कहाँ गए...! शायद वाशरूम गये होंगे। आप बैठिए। आपको यहाँ देख कर खुश हो जाएंगे। उन पर कौन-सा जादू किया है आपने, आपका बखान करते नहीं थकते हैं जीजा जी।
सौरभ के आने पर वह उनसे नजर नहीं मिला पा रही थी। मन का चोर उछल कर बाहर आने को तड़प रहा था और वह उसकी हत्या करने पर उतारू थी। अपने दुपट्टे को अँगुलियों में लपेटते-खोलते संदेह की सारी सिलाई उसने वहीं बैठे-बैठे उधेड़ डाली।