सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव (रूसी कहानी) : इवान बूनिन

San-Francisco Ka Mahanubhav (Russian Story) : Ivan Bunin

सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव - न तो नेपल्ज़ और न काप्री में ही किसी को उसका नाम याद है। वह दो साल तक सिर्फ़ मनबहलाव के लिए अपनी पत्नी और बेटी के साथ पुरानी दुनिया यानी यूरोप की ओर यात्रा कर रहा था।

उसे पक्का विश्वास था कि वह आराम करने, मौज मारने और सभी दृष्टियों से बहुत बढ़िया यात्रा करने का पूरा अधिकार रखता है। ऐसे विश्वास के लिए उसके अपने कारण थे - पहला तो कि वह धनी था और दूसरे यह कि अपनी अठावन वर्ष की आयु के बावजूद उसने अभी जीना शुरू किया था। इस समय तक तो वह अपना अस्तित्व ही बनाये रहा था, यद्यपि कुछ बुरा नहीं, किन्तु सही अर्थ में जिया नहीं था और भविष्य के साथ ही उसने अपनी सारी आशाएँ जोड़ रखी थीं। वह दम लिये बिना काम करता रहा था - जिन चीनियों को वह अपने यहाँ काम करने के लिए हज़ारों की संख्या में अमेरिका बुलवाता था, वे अच्छी तरह से जानते थे कि इसका क्या अर्थ था! आखि़र उसने यह देखा कि वह बहुत कुछ प्राप्त कर चुका है और लगभग उन लोगों के बराबर हो गया है जिन्हें कभी अपने लिए आदर्श मानता था और उसने आराम करने का फ़ैसला किया। वह जिस वर्ग के लोगों से सम्बन्ध रखता था, उनमें यूरोप, भारत और मिड्ड की यात्राएँ करके जीवन का आनन्द लूटने की प्रथा-सी बन गयी थी। वह भी ऐसा ही करना चाहता था। ज़ाहिर है कि मुख्य रूप से तो वह कड़ी मेहनत के सालों के लिए अपने को पुरस्कृत करना चाहता था, पर ख़ुश था कि बीवी और बेटी भी उसके साथ मज़े कर सकेंगी। उसकी बीवी ख़ास अनुभूतिशील नहीं थी, लेकिन अधेड़ उम्र की सभी अमेरिकी औरतें पर्यटन और यात्राओं की दीवानी होती हैं। रही बेटी, तो वह अपनी जवानी की सीमा लाँघ चुकी थी, कुछ-कुछ बीमार रहती थी और इसलिए उसका यात्रा करना एकदम ज़रूरी था। इसका तो ज़िक्र ही क्या किया जाये कि इससे उसकी सेहत बेहतर हो जायेगी और फिर यात्राओं के दौरान क्या बड़ी सुखद मुलाक़ातें नहीं हो जातीं? यात्राओं के समय कभी-कभी तो हम अपने को किसी करोड़पति के साथ एक ही मेज़ पर भोजन करते या भित्तिचित्रों को निहारते हुए पाते हैं।

सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव ने बहुत बड़ा यात्रा-कार्यक्रम बनाया था। उसे आशा थी कि दिसम्बर और जनवरी में वह दक्षिणी इटली की धूप सेंकेगा, प्राचीन स्मारकों को देखकर आनन्दित होगा, इटली का लोक-नृत्य - तारानतेल्ला और जगह-जगह घूमने वाले गायकों के प्रेमगीतों के रंग-रस में डूबेगा और वह ख़ुशी हासिल कर सकेगा जिसे उसकी उम्र के लोग विशेषतः सूक्ष्म रूप से अनुभव करते हैं अर्थात नेपल्ज़ की युवतियों का प्यार पा सकेगा जो बेशक पूरी तरह से स्वार्थहीन नहीं होता। उसका विचार था कि नीस और मोण्टे कार्लो में, जहाँ इस वक़्त चुनी हुई सोसाइटी के लोग जमा होते हैं, वह कार्निवल में भाग लेगा। इन लोगों में से कुछ तो मोटरगाड़ियों या पाल वाली नावों की दौड़ों में बडे़ जोश से हिस्सा लेते हैं, कुछ रूलेट जुए में, कुछ तथाकथित हल्की-फुल्की चोचलेबाज़ी और कुछ कबूतरों की निशानेबाज़ी में। ये कबूतर नीले सागर की पृष्ठभूमि में अपने पिंज़रों से हरे-भरे मैदानों के ऊपर बड़े सुन्दर ढंग से चक्कर काटते हुए ऊपर उड़ते हैं और अगले ही क्षण सफ़ेद गोले-से बनकर ज़मीन पर गिर जाते हैं। मार्च के प्रारम्भिक दिन वह फ़्लोरेंस में बिताना चाहता था, ‘दुःख-भोग सप्ताह’ के अवसर पर रोम पहुँचने का इच्छुक था ताकि वहाँ रोमन कैथोलिकों की miserere प्रार्थना सुन सके। उसकी यात्रा-योजना में वेनिस, पेरिस, सेविले में साँड़ों की लड़ाई, बर्तानवी द्वीपों में समुद्र-स्नान, एथेन, कुस्तुन्तुनिया, फ़िलीस्तीन, मिड्ड और जापान भी शामिल थे - ज़ाहिर है कि लौटते समय... और शुरू में सब कुछ बहुत बढ़िया रहा।

नवम्बर के आखि़री दिन थे। जिबराल्टर तक या तो बर्फ़ीले कुहासे या गीली बर्फ़ सहित तूफ़ान-बवण्डर में यात्रा करनी पड़ी, लेकिन जहाज़ सही-सलामत आगे बढ़ता चला गया। यात्री बहुत थे और विख्यात ‘एटलाण्टिस’ जलयान सभी सुविधाओं वाले एक विराट होटल जैसा था। इसमें नाइट बार थी, तुर्की हमाम थे, जहाज़ का अपना अख़बार भी था और ज़िन्दगी नपे-तुले ढंग से गुज़रती थी। जहाज़ के गलियारों में बजने वाले बिगुलों की आवाज़ से यात्री उस समय ही जाग जाते जब कुहासे में लहराते सागर के धुँधले-हरे विस्तार पर धीरे-धीरे और उदास-सा उजाला होने लगता था। वे फ़्लानेल के अपने कुर्ते-पाजामे पहनते, कॉफ़ी, चाकलेट या कोको पीते; इसके बाद नहाते, भूख बढ़ाने और अपने को स्वस्थ अनुभव करने के लिए व्यायाम करते, कपड़े पहनते और नाश्ता करने जाते। ग्यारह बजे तक उन्हें डेकों पर घूमते हुए महासागर की ठण्डी ताज़गी में हवाख़ोरी करनी होती थी या फिर से भूख तेज़ करने के लिए shuffleboarol और दूसरे खेल खेलने होते थे। ग्यारह बजे वे सैण्डविच और अख़नी से पहले जिस्म में ताक़त लाते, ऐसे मज़बूत होकर मज़े से अख़बार पढ़ते तथा चैन से दोपहर के खाने का इन्तज़ार करते जो और भी अधिक पौष्टिक तथा विविधतापूर्ण होता था। अगले दो घण्टे आराम किया जाता था। उस समय सभी डेकों पर बेंत की लम्बी आरामकुर्सियाँ रख दी जाती थीं, यात्री उन पर कम्बल ओढ़कर लेट जाते और बादलों वाले आकाश अथवा डेक के परे झलक देने वाले लहरों के फ़ेनिल टीलों को ताकते रहते या प्यारी-सी झपकी ले लेते। दिन के चार बचे के बाद ताज़ादम और प्रफुल्ल हुए यात्रियों के सामने तेज़, सुगन्धित चाय और बिस्कुट पेश किये जाते। सात बजे बिगुलों की आवाज़ उस क्षण के आगमन का संकेत देती जो उनके इस अस्तित्व का मुख्य ध्येय, उसका चरम-बिन्दु होता था... सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव झटपट अपने बढ़िया केबिन में कपड़े बदलने चला जाता।

रातों को ‘एटलाण्टिस’ अपनी असंख्य आँखों से अँधेरे को ताकता प्रतीत होता और अनेक नौकर रसोईघरों, बर्तन धोने और शराब वाले तहख़ानों में काम करते रहते। जहाज़ की दीवारों के पास महासागर बड़ा भयानक लगता, किन्तु यात्रियों को इस बात का विश्वास था कि लाल बालों वाले भीमकाय और भारी-भरकम कप्तान का उस पर पूरा अधिकार है और इसलिए कभी इसकी चिन्ता नहीं करते थे। हमेशा उनींदा-सा, चौड़ी, सुनहरी पट्टियों वाली वर्दी पहने कप्तान एक विराट बुत-सा लगता था और कभी-कभार ही अपने रहस्यपूर्ण कक्षों से लोगों के बीच आता था। जहाज़ के अग्रभाग से भोंपू मानो नारकीय उदासी में डूबा विलाप-सा करता या बहुत ग़ुस्से से चीख़ता रहता, किन्तु समारोही ढंग से रोशनियों से जगमगाते, खुले गले के सन्ध्याकालीन फ़्राक पहने महिलाओं, फ़्राक-कोट या डिनर-सूट डाले पुरुषों, सुघड़-सुडौल बैरों, आदरपूर्ण बड़े बैरों (जिनमें एक ऐसा भी था जो केवल शराब का आॅर्डर लेता था और लार्डमेयर की तरह गले में जं़जीर डाले रहता था) से भरे डाइनिंग-हॉल में भोजन करने वाले यात्रियों में से कुछ ही भोंपू की आवाज़ सुनते थे, क्योंकि तार-वाद्ययन्त्रों का बहुत बढ़िया बड़े ज़ोर से तथा लगातार बजने वाला आर्केस्ट्रा भोंपू की आवाज़ को दबा देता था। डिनर-सूट और सफ़ेद क़मीज़ सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव को बहुत जवान बना देते थे। दुबला-पतला, नाटा, भद्दी, किन्तु मज़बूत काठी वाला यह महाशय सुनहरी-मोतिया रोशनी में शराब की बोतल, बढ़िया, पतले शीशे के छोटे-बड़े गिलासों-जामों और घुँघराले सम्बुल फूलों सहित फूलदान से सजी मेज़ पर बैठा रहता। कटी-छँटी सफ़ेद मूँछों वाले उसके पीले चेहरे में कुछ मंगोली झलक थी, सोने से भरे हुए उसके बड़े-बड़े दाँत चमकते थे और उसका गंजा, मज़बूत सिर पुराने हाथी-दाँत जैसा लगता था। उसकी तगड़ी, लम्बी-चौड़ी, शान्त और इतमीनान से हर काम करने वाली बीवी बहुत बढ़िया, किन्तु अपनी उम्र के अनुरूप पोशाक पहने होती थी। सुन्दर बालों को अच्छे ढंग से सँवारे, ख़ुशबूदार गोली चूसकर अपनी साँस को सुगन्धित बनाये, होंठों के निकट और स्कन्धास्थियों के बीच छोटी-छोटी गुलाबी फुँसियों पर पाउडर छिड़के उसकी लम्बी और छरहरी तथा निश्छल, मासूम बेटी अनूठी, किन्तु हल्की और पारदर्शी पोशाक में होती थी। रात का भोजन एक घण्टे से अधिक समय तक चलता और उसके बाद बॉल-नृत्य के हॉल में नाच-पार्टी शुरू हो जाती जिसके दौरान पुरुष - जिनमें सान-फ़्रांसिस्को का हमारा महानुभाव भी होता - अपनी टाँगें कुर्सियों के हत्थों पर फैलाकर बैठ जाते, मुँह लाल हो जाने की हद तक हवाना के सिगार और बार में जाकर लिकर पीते, जहाँ लाल कोट पहने नीग्रो काम करते थे और जिनकी आँखों की सफ़ेदी पूरी तरह उबले और छिले अण्डों जैसी थी। इसी समय दीवार के दूसरी ओर महासागर काले पर्वत की तरह गरजता रहता था, भीगकर भारी हो गये जहाज़ के साज़-सामान में बवण्डर ज़ोरों से सीटियाँ बजाता था, तूफ़ान और पहाड़ों जैसी लहरों से मोर्चा लेता हुआ पोत नीचे से ऊपर तक काँपता था, वह डोलती लहरों को हल की तरह चीरता था जो रह-रहकर ढेरों झाग उगलती थीं और अपनी फ़ेनिल पूँछों को ऊपर उछालती थीं। कुहासे के कारण घुटन-सी महसूस करता हुआ भोंपू भयानक और पीड़ायुक्त ढंग से कराहता था, निगरानी वाली मीनार में ड्यूटी बजाते लोग ठण्ड से अकड़ जाते थे और नज़रों पर बेहद तनाव के कारण उनके सिर चकराते थे। पानी में डूबा हुआ जहाज़ का तल बहुत ही उदासी और उमस भरा था, जहन्नुम के अन्तिम, नौवें चक्र जैसा था जिसमें बड़ी-बड़ी भट्ठियाँ अपने दहकते जबड़े दिखाती हुई उस समय ठहाके लगाती-सी प्रतीत होती थीं, जब दुर्गन्ध उड़ाते पसीने से तर, गन्दे अधनंगे और अँगारों की चमक में लाल-लाल दिखने वाले लोग खड़खड़ की आवाज़ करता हुआ टनोंटन पत्थर का कोयला उनके मुँह में डालते थे। इसी समय ऊपर बार में लोग आरामकुर्सियों के हत्थों पर टाँगें फैलाकर मज़े-मज़े ब्राण्डी और लिकर की चुस्कियाँ लेते, हवा में सुगन्धित धुएँ के लहरिये बनाते, नाच के हॉल में सब कुछ जगमग और चमचम करता होता, प्यारी-सुखद गरर्मी और ख़ुशी की तरंग होती, बाल्ज नाचते हुए जोड़े चक्कर काटते या ताँगो नाच में धीरे-धीरे झूमते और मधुर-निर्लज्ज उदासी में डूबा-सा संगीत लगातार एक ही तरह की रट लगाये रहता। इस शानदार भीड़ में कोई बहुत बड़ा धन्नासेठ भी था, लम्बा-तडं़गा, सफ़ाचट दाढ़ी-मूँछ, पुराने ढंग का फ़्राक-कोट पहने; प्रसिद्ध स्पेनी लेखक भी था; दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी भी थी और प्यार में खोया हुआ एक सजीला जोड़ा भी था जिसे सभी जिज्ञासा की दृष्टि से देखते थे और जो अपनी ख़ुशी को छिपाने की ज़रा भी कोशिश नहीं करता था। यह प्रेमी केवल अपनी प्रेमिका के साथ ही नाचता। इनका नाच बड़ा कलात्मक तथा मोहक होता और जहाज़ के कप्तान के अलावा कोई भी यह नहीं जानता था कि ‘लोयड्ज़’ ने ख़ासी अच्छी रक़म देकर यही प्रेम-लीला दिखाने के लिए इन दोनों को जहाज़ पर नौकर रखा हुआ है और वे अर्से से कभी एक, तो कभी दूसरे जहाज़ पर यात्रा करते रहते हैं।

जिबराल्टर में सूरज दिखायी दिया और सभी यात्रियों के मन खिल उठे। वसन्त के आरम्भ जैसा मौसम था। ‘एटलाण्टिस’ जहाज़ पर एक नया यात्री आ गया जिसने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। वह एशिया के किसी राज्य का युवराज था जो गुप्त रूप से यात्रा कर रहा था। बहुत छोटा क़द, सर्वथा अभिव्यक्तिहीन चौड़ा चेहरा, छोटी-छोटी आँखों पर सोने की कमानी का चश्मा, देखने में कुछ हद तक इसलिए अप्रिय कि उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें मृतक की भाँति विरली और रेशेदार थीं। वैसे कुल मिलाकर वह प्यारा, सीधा-सादा और विनम्र व्यक्ति था। भूमध्यसागर में बहुत बड़ी और मोर की पूँछ की तरह रंगीन लहरें उठ रही थीं जिन्हें चमकते और एकदम निर्मल आकाश की स्थिति में जहाज़ की ओर आने वाली ख़ुशी से हुमकती तथा पागलों की तरह झपटती ठण्डी पहाड़ी हवा बहाये ला रही थी... अगले दिन आकाश का रंग पीला होने लगा, क्षितिज कुहासे से ढँक गया - पृथ्वी निकट आ रही थी, इसचिया और काप्री नज़र आने लगे थे और दूरबीन में से भूरे-नीलगूँ पर्वत के दामन में सफ़ेद चीनी के टुकड़ों की तरह नेपल्ज़ की भी झलक मिलने लगी थी... अधिकतर महिलाओं और महानुभावों ने फ़र के हल्के-हल्के कोट भी पहन लिये थे। आज्ञाकारी, हमेशा फुसफुसाकर बात करने वाले चीनी नौकर लड़के, एड़ियों तक काले बालों की चोटियों तथा युवतियों जैसी घनी बरौनियों वाले किशोर सीढ़ियों की ओर धीरे-धीरे कम्बल, छड़ियाँ, सूटकेस और शृंगारदान ले जा रहे थे... सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव की बेटी युवराज के निकट, जिसके साथ पिछली शाम को उसका संयोग से परिचय हो गया था, डेक पर खड़ी थी और ऐसे ज़ाहिर कर रही थी कि टकटकी बाँधकर दूरी पर उधर ही देख रही है, जिधर वह इशारा करते, कुछ समझाते, जल्दी-जल्दी और धीमी आवाज़ में कुछ बताते हुए उसे कोई चीज़ दिखा रहा था। क़द की दृष्टि से वह अन्य लोगों के बीच छोकरा-सा लगता था, तनिक भी आकर्षक नहीं था और अपने चश्मे, टोप, अंग्रेज़ी ओवरकोट, विरली मूँछों के घोड़े जैसे बालों, चपटे चेहरे पर पतली, साँवली त्वचा के कारण, जो मानो खिंची हुई थी, और जिस पर जैसे हल्का-सा वार्निश कर दिया गया था, अजीब-सा प्रतीत होता था। किन्तु महानुभाव की बेटी बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रही थी और उत्तेजना के कारण वह सब समझ नहीं पा रही थी जो युवराज उससे कहता था। अनबूझ उल्लास से उसका हृदय धड़क रहा था, उसे युवराज की हर चीज़ दूसरों से भिन्न लग रही थी - उसके पतले-पतले हाथ, उसकी साफ़ त्वचा, जिसके नीचे राजवंश का प्राचीन रक्त बह रहा था, यहाँ तक कि उसकी यूरोपीय, बिल्कुल साधारण, किन्तु मानो विशेष रूप से साफ़-सुथरी पोशाक भी ऐसा आकर्षण रखती थी जिसे बयान करना सम्भव नहीं था। और इसी वक़्त सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव बढ़िया जूते और भूरी ज़ुराबें पहने लम्बी, बहुत ही सुडौल, पेरिस के नवीनतम फ़ैशन के मुताबिक़ अपनी आँखों को रँगे, सुनहरे बालोंवाली विख्यात सुन्दरी को निहारे जा रहा था जो झुकी पीठ और झड़े बालोंवाले छोटे-से कुत्ते को चाँदी की जं़जीर से थामे और लगातार उससे बातें करते हुए उसके क़रीब खड़ी थी। बेटी अस्पष्ट-सा अटपटापन अनुभव करते हुए बाप को नज़रन्दाज़ करने का प्रयास कर रही थी।

सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव यात्रा के दौरान काफ़ी मेहरबान था और इसलिए अपने बारे में उन सबकी चिन्ता पर पूरा भरोसा करता था जो उसे खिलाते-पिलाते थे, उसकी छोटी से छोटी इच्छा का पूर्वानुमान लगाते हुए सुबह से शाम तक उसकी सेवा करते थे, उसकी स्वच्छता और चैन को सुरक्षित रखते थे, उसकी चीज़ें लादकर ले जाते थे, उसके लिए कुली बुलाते थे और उसके सन्दूक़ों को होटलों में पहुँचाते थे। सभी जगह ऐसा हुआ था, जहाज़ पर यात्रा करते समय भी ऐसा ही हुआ था और नेपल्ज़ में भी ऐसा ही होना चाहिए था। नेपल्ज़ निकट आता और बड़ा होता जाता था। बाजे बजाने वाले फूँक-बाजों के ताँबे-काँसे की चमक दिखाते हुए डेक पर जमा हो गये थे और अचानक उन्होंने समारोही कूच की धुन बजाते हुए सभी आवाज़ों को उसमें दबा दिया। समारोही पोशाक पहने हुए जहाज़ का भीमकाय कप्तान अपने ऊँचे मंच पर प्रकट हुआ और बुतपरस्तों के कृपालु देवता की तरह यात्रियों का अभिवादन करते हुए उसने हाथ हिलाया। और आखि़र ‘एटलाण्टिस’ जब बन्दरगाह में दाखि़ल हुआ और कई मंज़िलों वाले इस विराट जहाज़ ने, जिसके रेलिंगों पर लोगों की भीड़ जमा थी, लंगर डाल दिया तथा यात्रियों के उतरने के लिए बिछाये जाने वाले तख़्ते की जं़जीरें खनखना उठीं, तो कितनी बड़ी संख्या में सुनहरे गोटे से सजी टोपियाँ पहने होटल कर्मचारी और उनके सहायक, तरह-तरह के कितने ही दलाल, सीटियाँ बजाते छोकरे और हट्टे-कट्टे फटेहाल लोग, जो अपने हाथों में रंगीन कार्डों की गड्डियाँ लिये थे, अपनी सेवाएँ पेश करते हुए उसकी ओर लपके। और वह इन फटेहाल लोगों पर मुस्कुराता हुआ उस होटल की कार की तरफ़ बढ़ चला, जहाँ युवराज के भी ठहरने की सम्भवना हो सकती थी तथा दाँत भींचे हुए बड़ी शान्ति से सभी अंग्रेज़ी और कभी इतालवी में कहता जाता था - "Go away ! Via" (भाग जाओ! (इतालवी))

नेपल्ज़ में फ़ौरन ही बहुत नपे-तुले ढंग से जीवन-क्रम चल पड़ा। तड़के ही, अध-अँधेरे भोजनालय में नाश्ता, बादलों से ढँका, सुहाने दिन की बहुत कम आशा बँधाने वाला आकाश और होटल के प्रवेश-कक्ष के दरवाज़े के क़रीब गाइडों की भीड़। इसके बाद कुछ-कुछ गरम, गुलाबी सूरज की पहली मुस्कानों, ऊँचे छज्जे से सुबह की चमकती भाप से दामन तक ढँके वेसूवीअस पर्वत, खाड़ी में रूपहली-मोतिया छोटी-छोटी तरंगों तथा क्षितिज पर काप्री की हल्की रेखाओं, नीचे तट के साथ-साथ गाड़ियों में जुते भागे जाते छोटे-छोटे गधों और प्रफुल्ल तथा ललकारते संगीत के साथ किसी ओर क़दम बढ़ाते खिलौनों जैसे सैनिकों का दृश्य-दर्शन। इसके पश्चात बाहर निकलकर मोटर की सवारी, ऊँचे-ऊँचे तथा अनेक खिड़कियों वाले मकानों के बीच से तंग और लोगों की भीड़ वाली गलियों के नम गालियारों में धीरे-धीरे सैर, मातमी सफ़ाई वाले, अच्छे और सुखद ढंग से रोशन, किन्तु बेहद ऊब भरे संग्रहालयों या ठण्डे और मोम की गन्ध वाले गिरजाघरों के चक्कर, जहाँ बार-बार एक जैसा दृश्य सामने आता - भव्य प्रवेश-द्वार और उस पर लटकता हुआ चमड़े का भारी पर्दा, भीतर सुनसान और सन्नाटा, हॉल के कोने में लेस से सजी वेदी पर लाल रोशनी देती और फड़फड़ाती सात मोमबत्तियों का शमादान, लकड़ी के काले डेस्कों के बीच कोई बुढ़िया, पैरों के नीचे फिसलते क़ब्र-पत्थर और दीवार पर अनिवार्य रूप से ‘सलीब से अवतारण’ नामक कोई विख्यात चित्र। दिन के एक बजे सान मार्टीनो पहाड़ी पर दोपहर का भोजन किया जाता था, जहाँ बहुत-से अमीर लोग मध्याह्न को पहुँच जाते थे। वहीं सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव की बेटी एक बार लगभग बेहोश हो गयी थी, क्योंकि उसे ऐसा लगा था कि उसने राजकुमार को कमरे में बैठे देखा है, जबकि समाचारपत्रों के अनुसार वह रोम में था। शाम के पाँच बजे मोटे कालीनों और दहकती अँगीठियों से गरम होटल के सजे-बजे ड्राइंग-रूप में चाय पेश की जाती। और उसके बाद फिर से रात के भोजन की तैयारी शुरू हो जाती - फिर से सभी मंज़िलों पर ज़ोरदार तथा प्रभावपूर्ण घण्टे की आवाज़ गूँज उठती, फिर से खुले गले की रेशमी पोशाकों को सरसराती और सीढ़ियों से नीचे उतरती महिलाओं की पाँतें दर्पणों में प्रतिबिम्बित होतीं, फिर से शानदार भोजनालय के दरवाज़े आतिथ्यपूर्ण ढंग से चौपट खोल दिये जाते, लाल कोट पहने साज़िन्दे अपने मंच पर आ जाते और काले सूटों में वेटरों की भीड़ बडे़ बैरे के गिर्द जमा हो जाती जो बड़ी दक्षता से प्लेटों में गाढ़ा, गुलाबी शोरबा डालता होता। रात के भोजन में उन्हें इतनी अधिक चीज़ें खिलायी जातीं, खनिज जल और शराबें पिलायी जातीं, मिठाइयों और फलों से इनकी इतनी अधिक ख़ातिरदारी की जाती कि ग्यारह बजते न बजते परिचारिकाओं को पेट सेंकने के लिए सभी कमरों में गरम पानी से भरी रबड़ की बोतलें पहुँचानी पड़तीं।

उस साल दिसम्बर का महीना कुछ अच्छा नहीं था। दरबानों से जब मौसम की बात की जाती, तो वे अपराधियों की तरह अपने कन्धे झटक देते और बड़बड़ाते कि ऐसा बुरा मौसम तो उन्हें याद ही नहीं है, यद्यपि यह पहला साल नहीं था जब उन्हें इस तरह बड़बड़ाना और यही कहना पड़ा था कि सभी जगह कुछ भयानक बात हो रही है - रिवेरा में मूसलाधार बारिश है, तूफ़ान आ रहा है, एथेन में बर्फ़ गिर रही है, एटना भी बर्फ़ से ढँका हुआ है और रात को चमकता है तथा पालेरमो में तो यात्री ठण्ड से बचने के लिए कहीं दूर भागे जा रहे हैं... सुबह को निकलने वाला सूरज हर दिन धोखा देता - दोपहर को अवश्य ही आकाश धूमिल-धूसर हो जाता और बारिश होने लगती, जो अधिकाधिक तेज़ और ठण्डी होती जाती। तब होटल के दरवाज़े के क़रीब ताड़ के पेड़ टीन की तरह चमकने लगते, शहर ख़ास तौर पर गन्दा और तंग-सा प्रतीत होता, संग्रहालय अत्यधिक नीरस और एक जैसे लगते, हवा में पंखों की तरह फड़फड़ाने वाले रबड़ के लबादे पहने मोटे कोचवानों द्वारा फेंके गये सिगारों के टोटे असह्य रूप से दुर्गन्धपूर्ण और पतली गर्दनों वाली घोड़ियों पर उनके चाबुकों की ज़ोरदार सटकार स्पष्टतः बनावटी प्रतीत होती, ट्रामों की लाइनों को साफ़ करते पुरुषों के जूते भयानक और कीचड़ को छपछपाती नंगे सिर तथा काले बालों वाली औरतों की टाँगें अत्यधिक छोटी लगतीं। घाट के निकट फेन उगलते सागर से आने वाली नमी और सड़ी मछलियों की दुर्गन्ध की तो चर्चा ही क्या की जाये। सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव और उसकी पत्नी सुबहों को अब आपस में झगड़ते, उनकी बेटी का चेहरा कभी तो पीला होता और वह सिरदर्द की शिकायत करती या फिर उसमें सजीवता आ जाती और वह हर चीज़ पर मुग्ध होती रहती। तब वह प्यारी और सुन्दर लगती - सुन्दर थी वे कोमल और जटिल भावनाएँ भी जो उस असुन्दर व्यक्ति से भेंटों के फलस्वरूप, जिसकी रगों में असाधारण रक्त बहता था, उसकी आत्मा में जागृत होतीं, क्योंकि कौन-सी चीज़ - पैसा, ख्याति या ऊँचा कुल - किसी लड़की की आत्मा को जागृत करती है, कोई महत्त्व नहीं रखती... सब लोग उन्हें यह विश्वास दिलाते थे कि सोरेण्टो और काप्री में बिल्कुल दूसरी ही बात है - वहाँ मौसम अधिक गरम-सुहाना है, धूप ज़्यादा है, नीबुओं के पेड़ों पर फूल आये हुए हैं, लोग अधिक अच्छे हैं और शराब बेहतर है। इसलिए सान-फ़्रांसिस्को के परिवार ने इस विचार से काप्री जाने का इरादा बनाया कि उसे पूरी तरह देखने, जहाँ कभी तिबेरियस के महल खड़े थे, उन पत्थरों पर घूमने, दन्त-कथाओं जैसी अज़ूरे ग्रोटो गुफाओं में जाने और अबरूज़िया के मश्कबीन बजाने वालों को सुनने के बाद, जो क्रिसमस के एक महीना पहले कुमारी मरियम की प्रशस्ति गाते हुए द्वीप पर घूमते रहते हैं, सोरेण्टो में जा टिकेंगे।

सान-फ़्रांसिस्को के परिवार के रवाना होने के दिन - जो उसके लिए बहुत स्मरणीय दिन था - सुबह के वक़्त भी सूरज नहीं निकला। घनी धँुध ने वेसूवीअस को पूरी तरह ढँक रखा था और वह मानो सागर की डोलती, सुरमई सतह पर नीचे, धूसर बादल की तरह लटका हुआ था। काप्री तो बिल्कुल नज़र नहीं आ रहा था - जैसे कि वह धरती पर कभी था ही नहीं। इस द्वीप की ओर जाने वाला छोटा-सा जहाज़ इतने ज़ोर से दायें-बायें झटके देता था, हिचकोले खाता था कि सान-फ़्रांसिस्को के परिवार को इसके घटिया-से केबिन में कम्बलों से पैरों को लपेटकर और मतली से बचने के लिए आँखें मूँदकर हिले-डुले बिना सोफ़ों पर लेटे रहना पड़ा। श्रीमती यह सोचती थी कि वह सबसे अधिक यातना सहन कर रही है - कई बार मतली ने उसे धर दबाया, उसे लगा कि वह मर जायेगी, लेकिन वह नौकरानी जो चिलमची लेकर उसके पास भागी आती थी और बरसों से गरमी-सर्दी में हर दिन इसी जहाज़ पर रहती थी और फिर भी थकी नहीं थी, केवल हँस देती थी। बेटी के चेहरे का रंग बिल्कुल ज़र्द था और वह नीबू की फाँक दाँतों तले दबाये थी। स्वयं महानुभाव चौड़ा ओवरकोट पहने और बड़ी-सी टोपी ओढ़े चित लेटा था और उसने रास्ते-भर अपना जबड़ा खोलने की हिम्मत नहीं की। उसका चेहरा काला-सा हो गया था, मूँछें सफ़ेद हो गयी थीं और उसके सिर में बहुत ज़ोर का दर्द था - बुरे मौसम के कारण वह रातों को शराब में बहुत अधिक गड़गच्च होता तथा घटिया स्थानों पर "जीवित चित्रों" को बहुत अधिक निहारता रहा था। बारिश छनछनाते शीशों पर अपने कोड़े मार रही थी, सोफ़ों पर शीशों से पानी रिसता था, हवा चीख़ती हुई मस्तूलों को झकझोरती, ज़ोरदार लहर के प्रहार से जहाज़ को कभी-कभी बिल्कुल एक पहलू की ओर झुका देती और उस समय नीचे किसी चीज़ के ज़ोर से लुढ़कने की आवाज़ सुनायी पड़ती। कास्टेलामारे और सोरेण्टो के स्टॉपों पर कुछ चैन रहा, मगर यहाँ भी इतने ज़ोर से लहर आती कि जहाज़ की खिड़की के बाहर अपनी खड़ी चट्टानों, बाग़-बग़ीचों, देवदार के पेड़ों, गुलाबी और सफ़ेद होटलों और धुँधले, घुँघराले-हरे पर्वतों सहित तट झूले की तरह ऊपर-नीचे झूलता प्रतीत होता। नाकें जहाज़ के पहलुओं से टकराती रहतीं, नम हवा दरवाज़े में से भीतर आती और ष्त्वलंसष् होटल के झण्डे वाली लहरों पर डोलती बड़ी नाव से यात्रियों को आकर्षित करने के लिए एक छोकरा तुतली आवाज़ में लगातार होटल का नाम चिल्लाता जाता था। और सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव अपने को बिल्कुल बूढ़ा महसूस करते हुए - जैसा कि उसे महसूस करना चाहिए था - इन सभी लालची, लहसुन की दुर्गन्ध वाले इन लोगों के बारे में, जिन्हें इतालवी कहते हैं, बड़ी ऊब और खीझ से सोचने लगा। एक स्टॉप पर उसने आँखें खोलीं, सोफ़े से उठा और पानी, नावों, चिथड़ों, टीन के पीपों तथा कत्थई रंग के जालों के बिल्कुल निकट एक चट्टान के दामन में फफूँद से ढँके और एक-दूसरे के साथ गड्डमड्ड हुए पत्थर के छोटे-छोटे भद्दे घर देखे और यह ध्यान आने पर कि यही असली इटली है जहाँ वह मौज मनाने आया है, उसका मन हताश हो उठा... आखि़र शाम का झुटपुटा हो जाने पर पहाड़ के दामन में लाल बत्तियों से आर-पार बिंधे द्वीप का काला आकार निकट आने लगा, हवा मन्द, गरम और सुगन्धित हो गयी और काले तेल की भाँति चमकती, शान्त लहरों पर घाट की लालटेनों से सुनहरे अजगर-से बहने लगे... कुछ देर बाद लंगर खनखनाया और छपछपाता हुआ पानी में जा गिरा, एक-दूसरे से अधिक ऊँचे चिल्लाते हुए माँझियों की तेज़ आवाज़ें सभी ओर से सुनायी देने लगीं... और बस, मन को फ़ौरन राहत मिल गयी, जहाज़ का केबिन अधिक रोशन हो गया, खाने, पीने, सिगरेट के कश खींचने और चलने-फिरने को मन होने लगा। दस मिनट बाद सान-फ़्रांसिस्को का यह परिवार एक बड़ी नाव पर सवार हो गया, पन्द्रह मिनट में घाट पर जा उतरा और फिर ये लोग रज्जु-मार्ग के एक छोटे-से चमकते केबिन में जा बैठे जो घर्र-घर्र की आवाज़ करता, अंगूर के बग़ीचों में लगे बाँसों, पत्थर की टूटी मेंड़ों, सन्तरों के गीले और गठीले पेड़ों के पास से गुज़रता हुआ उन्हें ढाल के ऊपर ले चला। सन्तरों के ये पेड़ जहाँ-तहाँ चटाइयों से ढँके थे, इनके नारंगी रंग के फल और मोटे, चमकते पत्ते रज्जु-मार्ग के केबिन के खुले शीशों से नीचे को फिसलते जाते प्रतीत होते थे। इटली में बारिश के बाद ज़मीन की गन्ध बड़ी प्यारी होती है और हर द्वीप अपनी अलग गन्ध रखता है।

इस शाम को काप्री द्वीप नम और अँधेरे में लिपटा हुआ था। किन्तु अब थोड़ी देर को वह सजीव हो उठा और कहीं-कहीं रोशनी हो गयी। पहाड़ की चोटी पर बने रज्जु-मार्ग के प्लेटफ़ार्म पर फिर से ऐसे लोगों की भीड़ जमा थी जिन्हें सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव का उचित ढंग से स्वागत-सत्कार करने के लिए भेजा गया था। दूसरे लोग भी आये थे, मगर वे इस तरह के आदर-सत्कार के योग्य नहीं थे। ये लोग थे - काप्री में ही बस जाने वाले, चश्माधारी, दढ़ियल, भद्दे ढंग से कपड़े पहने और खोये-खोये कुछ रूसी, जिनके पुराने-धुराने ओवरकोटों के कॉलर ऊपर उठे हुए थे, टिरोलिअन के सूट पहने और कन्धों पर किरमिच के थैले लटकाये, लम्बी टाँगों और गोल सिरों वाले जर्मन नौजवानों का एक दल जिन्हें किसी की भी सेवा की आवश्यकता नहीं थी और जो पैसे ख़र्च करने के मामले में भी बहुत उदार नहीं थे। रूसियों और जर्मन, दोनों से ही बड़ी शान्ति से कन्नी काटने वाला सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव बड़ी आसानी से पहचान लिया गया। उसे और उसकी बीवी तथा बेटी को सहारा देकर नीचे उतारा गया, उसे रास्ता दिखाते हुए लोग उसके आगे-आगे भागने लगे, उसे फिर से छोकरों और काप्री की उन हट्टी-कट्टी औरतों ने घेर लिया जो ढंग से धनी यात्रियों के सन्दूक़ और सूटकेस अपने सिरों पर लादकर ले जाती थीं। आॅपेरा के मंच जैसे उस छोटे-से मैदान में, जिसके ऊपर नम हवा में बिजली का गोल लैम्प हिल-डुल रहा था, इन औरतों के खड़ाऊ बज रहे थे और लड़कों की भीड़ पक्षियों की तरह सीटियाँ बजाती हुई कलाबाज़ियाँ खा रही थी। और सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव सिरों के ऊपर आपस में मिल जाने वाले घरों द्वारा बनायी गयी मध्ययुगीन मेहराब के नीेचे उनके बीच मानो रंगमंच पर चल रहा था। उस मेहराब के पीछे कोलाहलपूर्ण छोटी-सी गली थी जो होटल के जगमगाते प्रवेश-द्वार की तरफ़ जाती थी जहाँ बायीं ओर चपटी छतों के ऊपर ताड़ वृक्ष के पत्तों का गुच्छा-सा था और उसके ऊपर तथा उससे आगे नीले सितारों से जड़ा हुआ काला आकाश था। ऐसे लगता था कि भूमध्यसागर के चट्टानी द्वीप पर बसा यह छोटा-सा, नमी भरा पथरीला नगर सान-फ़्रांसिस्को से आये मेहमानों के सम्मान में सजीव हो उठा है, कि उन्हीं ने होटल के मालिक को इतना अधिक प्रसन्न कर दिया है और आतिथ्यपूर्ण बना दिया है, कि बड़ा चीनी घण्टा इन्हीं के प्रवेश-कक्ष में आने की राह देख रहा है और उनके आते ही सारी इमारत में उसकी आवाज़ गूँज उठेगी और इस तरह हर किसी को रात के भोजन के लिए आमन्त्रिात किया जायेगा।

बड़े आदर और बहुत ही शिष्टता से इनका स्वागत करने वाले होटल के नौजवान और बहुत ही बने-ठने मालिक ने सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव को क्षण-भर के लिए आश्चर्यचकित कर दिया। अचानक उसे याद हो आया कि पिछली रात को नींद के अटपटे सपनों में उसने इसी व्यक्ति को देखा था, हू-ब-हू ऐसे ही आदमी को, जैसा यह था, इसी तरह का छोटा कोट पहने, शीशे की तरह चमकते बालों को ढंग से सँवारे। कमाल ही हो गया, वह तो ठिठककर रुकते-रुकते रह गया। लेकिन चूँकि उसकी आत्मा में बहुत पहले से ही तथाकथित रहस्यवादी भावनाएँ रत्ती-भर भी नहीं रह गयी थीं, इसलिए उसकी हैरानी फ़ौरन ग़ायब हो गयी। उसने होटल के गलियारे में से जाते हुए अपनी बीवी और बेटी से मज़ाक़ में सपने और यथार्थ की इस समानता की चर्चा की। किन्तु बेटी ने इस क्षण परेशानी से उसकी तरफ़ देखा, उदासी और इस अजनबी तथा अँधेरे द्वीप पर भयानक एकाकीपन की भावना ने अचानक उसके मन को दबोच लिया...

कोई ख़ास बड़ा आदमी कुछ ही देर पहले काप्री द्वीप के इस होटल से गया था। सान-फ़्रांसिस्को से आने वालों को कमरों का वही बढ़िया सेट दे दिया गया जिसमें वह रहा था। सबसे सुन्दर और काम में सबसे अधिक दक्ष, पतली और चौड़ी पेटी से कसी कमर वाली बेल्जियन नौकरानी को, जो छोटे-से दाँतेदार ताज़ जैसी कलफ़दार टोपी पहने थी, उनकी सेवा में लगाया गया। काले बालों और दहकती आँखों वाले सबसे प्रभावपूर्ण बैरे और उनके दरवाज़े के पास हर समय ड्यूटी बजाने के लिए नाटे, मोटे तथा सबसे फ़ुर्तीले लुइजी को, जो अनेक बार अपनी नौकरी की ऐसी जगहें बदल चुका था, तैनात किया गया। कुछ क्षण बाद सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव / 293 294 / श्रेष्ठ रूसी कहानियाँ बड़े बैरे ने जो फ़्रांसीसी था, सान-फ़्रांसिस्को के मेहमान के दरवाज़े पर धीरे-से दस्तक दी। वह यह जानने को आया था कि आगन्तुक महानुभाव शाम का भोजन करेंगे या नहीं और अगर उनका जवाब "हाँ" में होगा, जिसके बारे में उसे कोई सन्देह नहीं था, तो वह बतायेगा कि आज की भोजन-सूची में लोबस्टर, भुना मांस, एस्पैरागस और तीतर आदि हैं। इटली के उस बेहद घटिया जहाज़ ने सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव को ऐसे झटके-हिचकोले दिये थे कि अभी तक उसका सिर घूमता था, लेकिन फिर भी धीरे-धीरे क़दम रखते खिड़की के ग़रीब जाकर जो बड़े बैरे के भीतर आने पर खुल गयी थी और जिसमें से दूर के रसोईघर तथा बाग़ के गीले फूलों की गन्ध आ रही थी, उसने उसे बन्द कर दिया, यद्यपि आदत न होने के कारण वह बेढंगेपन से ही ऐसा कर पाया। महानुभाव ने धीरे-धीरे और स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया कि वे भोजन करेंगे, कि उनके लिए दरवाज़े से दूर और हॉल के सिरे पर मेज़ लगायी जाये, कि वे केवल स्थानीय शराब पियेंगे और बड़ा बैरा उसके हर शब्द का यही भाव प्रकट करने वाली ऊँची-नीची आवाज़ों में ऐसे समर्थन कर रहा था कि सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव की हर इच्छा बिल्कुल उचित है और उसे उसी रूप में पूरा किया जायेगा। अन्त में उसने सिर झुकाया और बड़ी नम्रता से पूछा -

"बस, हुज़ूर?"

और जवाब में विचारों में डूबा-सा "ल्मे" शब्द सुनने के बाद उसने इतना और कह दिया कि आज उनकी लॉबी में करमेल्ला और जूज़ेप्पे, जो सारे इटली तथा "पूरे पर्यटक जगत" में विख्यात हैं, तारान्तेल्ला नाच पेश करेंगे।

"मैंने पोस्टकार्डों पर उसका चित्र देखा है," सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव ने कुछ भी व्यक्त न करने वाली आवाज़ में कहा। "यह जूज़ेप्पे - उसका पति है क्या?"

"उसका चचेरा भाई, हुज़ूर," बड़े बैरे ने जवाब दिया।

और कुछ क्षण चुप रहने, कुछ सोचने के बाद, किन्तु कुछ भी कहे बिना सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव ने तनिक सिर झुकाकर बड़े बैरे को जाने का संकेत किया।

इसके पश्चात वह दूल्हे की तरह तैयार होने लगा। उसने सभी ओर बिजली की बत्तियाँ जला दीं, सभी दर्पण रोशनी और चमक, फ़र्नीचर तथा खुले सन्दूक़ों के प्रतिबिम्बों से मानो भर गये। वह दाढ़ी बनाने, नहाने और रह-रहकर घण्टी बजाने लगा। उसकी बीवी तथा बेटी के कमरों की घण्टियों की अधीर आवाज़ें भी उसी वक़्त होटल के गलियारे में उसकी घण्टी की आवाज़ को काटती हुई गूँजतीं। लाल पेशबन्द बाँधे हुए लूईजी ऐसी फूर्ती से, जो अनेक मोटों का विशेष लक्षण है और चेहरे पर भय का ऐसा भाव लाकर जिसे देख पानी की चमकती बालटियाँ लिये निकट से गुज़रने वाली नौकरानियाँ इतना अधिक हँसतीं कि उनकी आँखों में आँसू तक आ जाते, घण्टी की आवाज़ पर फिरकी की तरह लुढ़कता जाता, उँगलियों की गाँठों से दरवाज़े को खटखटाता, बनावटी भीरुता और मूर्खता की सीमा तक पहुँची नम्रता दिखाते हुए पूछता -

"Ha sonato signore ?" ("आपने बुलाया, हुज़ुर?" (इतालवी)) और दरवाज़े के पीछे से उसे धीमी-धीमी, खरखरी और दिल को कचोटती-सी शिष्टतापूर्ण आवाज़ में सुनायी देता -

"Yes come in..."

सान-फ़्रांसिस्को का यह महानुभाव अपने लिए इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण इस शाम को क्या अनुभव कर रहा था, क्या सोच रहा था? जहाज़ पर मतली महसूस करने वाले हर आदमी की तरह वह भी यही चाहता था कि भोजन करे, बहुत मज़ा लेते हुए सूप के पहले चम्मच, शराब के पहले घूँट की कल्पना कर रहा था और कपड़े आदि पहनकर तैयार होने का आम काम भी कुछ ऐसी उत्तेजना से कर रहा था कि उसके पास भावना में बहने या सोचने-विचारने के लिए वक़्त नहीं था।

दाढ़ी बनाने, मुँह-हाथ धोने और अपने कुछ नक़ली दाँतों को उनकी जगह पर फिर से लगाने के बाद उसने दर्पण के सामने खड़े होकर बाल भिगोये, चाँदी के फ़्रेम वाले ब्रशों से अपने बचे-बचाये सफ़ेद बाल गहरे पीले रंग की खोपड़ी के गिर्द जमाये, बहुत ज़्यादा पौष्टिक भोजन के कारण कमर के गिर्द थलथल हो गये अपने बूढ़े, मज़बूत शरीर पर मोतिया रंग के रेशमी अण्डरवीयर को खींचकर चढ़ाया, पतले-पतले, चपटे पैरों में काली रेशमी ज़ुराबें और बढ़िया जूते पहने, घुटने झुकाकर अपने काले पतलून के रेशमी गेलिस और कलफ़ लगी तथा सामने की ओर उभरी हुई बर्फ़ जैसी सफ़ेद क़मीज़ को ठीक किया, कफ़ों में चमकते स्टड लगाये और इस सबके बाद अकड़े हुए कॉलर में कॉलर-स्टड लगाने का संघर्ष शुरू हुआ। फ़र्श अभी भी उनके पैरों के नीचे डोल रहा था, उँगलियों के सिरों में दर्द होता था, स्टड टेंटुए के नीचे की पिलपिली त्वचा पर चुभता था, लेकिन उसने सब्र से काम लिया और आखि़र कामयाब हो गया। तनाव से उसकी आँखें चमक रही थीं, बहुत ही कसे हुए तथा गला घोंटने वाले कॉलर के कारण उसका चेहरा सुरमई रंग का हो गया था और वह थककर सिंगार-मेज़ के सामने धम-से स्टूल पर बैठ गया। बड़े दर्पण में उसका पूरा प्रतिबिम्ब दिखायी दे रहा था और वह दूसरे दर्पणों में भी प्रतिबिम्बित हो रहा था।

"ओह, यह तो बड़ी भयानक बात है।" अपने गंजे, मज़बूत सिर को झुकाते हुए और यह समझने तथा विचार करने की कोशिश किये बिना कि क्या भयानक बात है, वह बड़बड़ाया। इसके बाद उसने आदत के मुताबिक़ गाऊट की बीमारी के कारण सख़्त हुए जोड़ों वाली छोटी-छोटी उँगलियों, बादाम की शक्ल और बादामी रंग वाले बड़े-बड़े नाख़ूनों को ग़ौर से देखा और दृढ़ता से दोहराया, "यह बड़ी भयानक बात है..."

किन्तु इसी समय भोजन के लिए जाने की सूचना देने वाला घण्टा बुतपरस्तों के मन्दिर के घण्टे की तरह बहुत ज़ोर से दूसरी बार बजा। सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव झटपट उठा, टाई लगाकर और वास्कट पहनकर उसने अपने पेट को और कस लिया, कोट पहना, कफ़ों को ठीक किया और एक बार फिर अपने को दर्पण में निहारा। "यह साँवली, चंचल नयना, नारंगी रंग की फूलदार पोशाक पहनने वाली संकर-नीग्रो जैसी करमेल्ला अवश्य ही अद्भुत ढंग से नाचती होगी," वह सोच रहा था। फ़ुर्ती से क़दम बढ़ाता वह अपने कमरे से बाहर निकला, कालीन पर चलता हुआ बीवी के बग़लवाले कमरे के पास गया और ऊँची आवाज़ में पूछा कि क्या वे जल्द ही तैयार हो जायेंगी।

"पाँच मिनट में!" बेटी ने गूँजती और अब चहकती-सी आवाज़ में जवाब दिया।

"बहुत अच्छी बात है," सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव ने कहा।

और वह वाचनालय की खोज में बरामदों को लाँघने तथा लाल कालीन बिछी सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। सामने से आने वाले नौकर उसे देखकर दीवार से सट जाते, किन्तु वह ऐसे चलता जाता मानो उनकी तरफ़ उसका ध्यान ही न गया हो। झुकी पीठ और सफ़ेद बालों वाली एक बुढ़िया को, जो बुढ़ापे के बावजूद उघाड़े गले की काट वाला हल्के सलेटी रंग का रेशमी फ़्राक पहने थी और भोजन के लिए हॉल में पहुँचने में देर हो जाने के कारण अपना पूरा ज़ोर लगाकर जल्दी-जल्दी, किन्तु मुर्ग़ी जैसी हास्यास्पद चाल से उसके आगे-आगे जा रही थी, वह बड़ी आसानी से पीछे छोड़कर आगे निकल गया। भोजनालय में सभी लोग मेज़ों पर बैठे थे और खाना आरम्भ कर चुके थे। वह उसके शीशे के दरवाज़े के पास एक मेज़ के सामने रुका जिस पर सिगारों और मिड्डी सिगरेटों के पैकेटों का ढेर लगा हुआ था। उसने बड़ा मानीला सिगार चुना और तीन लीर का सिक्का मेज़ पर फेंक दिया। बन्द बग़ीचे को लाँघते हुए उसने खुली खिड़की से यों ही बाहर झाँक लिया - अँधेरे में से प्यारी-सी हवा का हल्का झोंका आया, उसे लगा कि उसे बूढ़े ताड़ वृक्ष की विराटकाय प्रतीत होने वाली फुनगी तथा सितारों पर फैली हुई उसकी शाखाएँ दिखायी दे रही हैं, सम लय में दूर से सागर का शोर सुनायी दे रहा है... आरामदेह, शान्त और केवल मेज़ों के ऊपर प्रकाश वाले वाचनालय में ईब्सन जैसा दिखने वाला कोई जर्मन, जिसके बाल सफ़ेद थे, जो गोल कमानी वाला चाँदी का चश्मा चढ़ाये था और जिसकी पागलों जैसी तथा बहकी-बहकी-सी आँखें थीं, खड़ा हुआ अख़बारों को उलट-पलट रहा था, उन्हें सरसरा रहा था। सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव ने उसे उदासीनता से देखा, हरे शेड वाले लैम्प के ग़रीब कोने में रखी चमड़े की गहरी आरामकुर्सी पर बैठ गया, एक आँख का चश्मा चढ़ाया, गले को दबाने वाले कॉलर से कुछ राहत पाने के लिए सिर को झटका और पूरी तरह अख़बार की ओट में ग़ायब हो गया। उसने कुछ लेखों के शीर्षकों पर जल्दी-जल्दी नज़र डाली, अन्तहीन बाल्कान युद्ध के बारे में कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं, अपने अभ्यस्त अन्दाज़ में अख़बार का पृष्ठ उलटा - अचानक इसी समय शीशे जैसी चमक के साथ पंक्तियाँ उसके सामने चमचमा उठीं, उसकी गर्दन आगे की ओर तन गयी, आँखें बाहर को निकल आयीं और एक आँख का चश्मा नाक से नीचे गिर गया... वह झटके के साथ आगे की ओर बढ़ा, उसने साँस लेनी चाही - और उसके गले से बहुत ज़ोर से घरघर की आवाज़ निकलने लगी, उसका नीचे वाला जबड़ा खुल गया, सोने से भरे हुए उसके दाँत अपनी चमक दिखाने लगे, सिर कन्धे पर लुढ़क गया और बेजान-सा डोलने लगा, क़मीज़ का सामने वाला भाग ऊपर को उभर आया और कालीन पर एड़ियाँ रगड़ता, छटपटाता तथा किसी के साथ बुरी तरह संघर्ष करता हुआ उसका पूरा शरीर फ़र्श की ओर लुढ़कने-खिसकने लगा।

वाचनालय में अगर जर्मन न होता, तो इस भयानक घटना पर तुरत-फुरत तथा बड़ी होशियारी से पर्दा डाल दिया गया होता, सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव को फ़ौरन सिर और टाँगों से पकड़कर पिछले दरवाज़े से कहीं दूर ले जाया गया होता और होटल में किसी को कानोकान यह ख़बर न होती कि इसने क्या मुसीबत पैदा कर डाली है। लेकिन जर्मन तो चीख़ता हुआ वाचनालय से बाहर भागा और उसने पूरे होटल और पूरे भोजनालय को अपने शोर से सिर पर उठा लिया। बहुत-से लोग भोजन छोड़कर भाग पड़े, बहुतों के चेहरों का रंग उड़ गया और वे वाचनालय की तरफ़ दौड़ चले, अनेक भाषाओं में यही सुनायी देने लगा - "क्या हो गया?" - और कोई भी ढंग से जवाब नहीं दे पाया, किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, क्योंकि लोग अभी तक मौत से सबसे अधिक हैरान होते हैं और उस पर यक़ीन नहीं करना चाहते। होटल का मालिक एक के बाद दूसरे मेहमान की ओर लपक रहा था, भागे जाने वालों को रोकने और जल्दी-जल्दी यह तसल्ली देकर उन्हें शान्त करने की कोशिश कर रहा था कि कोई ख़ास बात नहीं हुई, कि सान-फ़्रांसिस्को के एक महानुभाव को ज़रा-सा ग़श आ गया है... लेकिन इसके शब्दों पर कोई भी कान नहीं दे रहा था, क्योंकि बहुतों ने अपनी आँखों से बैरों तथा नौकरों को इस महानुभाव की टाई, वास्केट, मिचुड़ा डिनर-कोट और न जाने क्यों, रेशमी काली ज़ुराब पहने चपटे पैरों पर से बढ़िया जूते भी उतारते देखा था। वह अभी भी छटपटा रहा था। वह डटकर मौत से मोर्चा ले रहा था, किसी हालत में भी उसके सामने, जो ऐसे अप्रत्याशित और भद्दे ढंग से उस पर झपटी थी, घुटने नहीं टेकना चाहता था। वह अपने सिर को इधर-उधर झटक रहा था, ऐसे घरघर की आवाज़ निकाल रहा था मानो उसका गला काट दिया गया हो, शराबी की तरह अपनी आँखों को दायें-बायें घुमा रहा था... जब उसे नीचे वाले गलियारे के सिरे पर सबसे छोटे, सबसे घटिया, सबसे नम और ठण्डे, तैंतालीस नम्बर के कमरे के पलंग पर जल्दी से लाकर लिटा दिया गया, तो उसकी बेटी भागी हुई आयी। उसके बाल खुले थे और चोली से ऊपर उठे हुए उरोज दिखायी दे रहे थे। उसके पीछे-पीछे महानुभाव की लम्बी-मोटी बीवी आयी, जो डिनर के लिए बन-ठनकर बिल्कुल तैयार थी। भय से उसका मुँह गोल था... लेकिन महानुभाव ने इस समय तक सिर को हिलाना-डुलाना भी बन्द कर दिया था।

पन्द्रह मिनट बाद होटल में सब कुछ जैसे-तैसे सामान्य हो गया। किन्तु शाम का समारोही रंग ऐसे बिगड़ गया था कि उसे ठीक करना सम्भव नहीं था। कुछ लोग भोजनालय में लौट आये थे और चुपचाप तथा ग़मगीन-सी सूरत बनाये हुए भोजन समाप्त कर रहे थे, जबकि होटल का मालिक एक के बाद दूसरी मेज़ पर जाता, किसी अपराध के बिना अपने को अपराधी अनुभव करता हुआ विवशता तथा शिष्टतापूर्ण खिन्नता से कन्धे झटकता, सबको विश्वास दिलाता कि वह बहुत अच्छी तरह से यह समझता है कि "यह कितनी अप्रिय बात है" और वचन देता है कि इस अप्रियता को दूर करने के लिए "अपने बस-भर सब कुछ करेगा"। तारान्तेल्ला का कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा, फ़ालतू बत्तियों को बुझा दिया गया, होटल में रहने वाले अधिकतर लोग शहर के बियरख़ाने में चले गये और ऐसी ख़ामोशी छा गयी कि लॉबी में घड़ी की टिक-टिक साफ़ सुनायी दे रही थी जहाँ केवल एक तोता अपने पिंजरे में बेमानी-सा कुछ बड़बड़ा रहा था और जिसने सोने की कोशिश में हास्यास्पद ढंग से ऊपर की छड़ पर किसी तरह अपना पंजा टिका लिया था... सान-फ़्रांसिस्को का महानुभाव खुरदरे, ऊनी कम्बलों के नीचे, जिनके ऊपर सिर्फ़ एक धीमा-सा बल्ब जल रहा था, लोहे के घटिया-से पलंग पर पड़ा था। बर्फ़ से भरी रबड़ की बोतल उसके गीले और ठण्डे मस्तक पर खिसक आयी थी। उसका निर्जीव हो चुका नीलगूँ चेहरा धीरे-धीरे ठण्डा होता जा रहा था और सोने की लौ देने वाले खुले मुँह से निकलने वाली खरखरी आवाज़ धीमी पड़ती जा रही थी। यह खरखरी आवाज़ सान-फ़्रांसिस्को के महानुभाव की नहीं थी - वह तो ख़त्म हो चुका था - किसी दूसरे की ही थी। उसकी बीवी, बेटी, डॉक्टर और नौकर-चाकर खड़े हुए उसे देख रहे थे। ये लोग जिस चीज़ के इन्तज़ार में थे और जिसके होने से डरते थे - अचानक वह हो गयी यानी साँस की खरखराहट बन्द हो गयी। धीरे-धीरे इन सबके देखते-देखते ही मृत का चेहरा पीला हो गया और उसका नाक-नक़्शा तीखा तथा उजला होने लगा...

होटल का मालिक आया। "Jia e morto" ("चल बसा" (इतावली)) डॉक्टर ने फुसफुसाकर उससे कहा। मालिक ने शान्त चेहरे से कन्धे झटक दिये। महानुभाव की पत्नी, जिसके गालों पर धीरे-धीरे आँसू बह रहे थे, होटल के मालिक के क़रीब गयी और उसने सहमी-सी आवाज़ में उससे कहा कि मृत को अब उसके कमरे में ले चलना चाहिए।

"ओह, नहीं, मदाम," होटल के मालिक ने झटपट, आदर से, किन्तु किसी प्रकार की नम्रता के बिना, अंगे्रज़ी में नहीं, बल्कि फ़्रांसीसी में इस बात का विरोध किया। उसे अब उन थोड़े-से पैसों में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी जो सन-फ़्रांसिस्को से आने वाले मेहमान उसकी तिज़ोरी में छोड़ सकते थे। "यह तो बिल्कुल मुमकिन नहीं है, मदाम," उसने कहा और बात को साफ़ करने के लिए यह भी जोड़ दिया कि वह कमरों के इस सेट को बहुत महत्त्वपूर्ण मानता है, कि अगर वह उसकी इच्छा पूरी करेगा तो सारे काप्री को यह मालूम हो जायेगा और पर्यटक इससे कतराने लगेंगे।

सान-फ़्रासिस्को के महानुभाव की बेटी, जो होटल के मालिक को अजीब ढंग से लगातार देखती रही थी, कुर्सी पर बैठ गयी और अपने मुँह पर रूमाल रखकर सिसकने लगी। महानुभाव की पत्नी के आँसू एकदम सूख गये और चेहरा तमतमा उठा। उसने आवाज़ ऊँची की और अपनी भाषा में बोलते हुए अपनी इच्छा की पूर्ति की माँग करने लगी। उसे अभी तक यह विश्वास नहीं था कि उनके प्रति आदर की भावना का पूरी तरह अन्त हो गया है। होटल के मालिक ने आदरपूर्ण गरिमा से उसे टोकते हुए कहा - अगर मदाम को होटल का क़ानून-क़ायदा पसन्द नहीं है तो वह उसे यहीं रोके रखने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता। उसने दृढ़तापूर्वक यह घोषणा की कि आज तड़के ही शव को यहाँ से ले जाया जाना चाहिए, कि पुलिस को इस मामले की ख़बर दी जा चुकी है, कि पुलिस का प्रतिनिधि अभी यहाँ आ जायेगा और ज़रूरी कार्रवाई पूरी कर देगा... मदाम ने पूछा कि क्या काप्री में कोई तैयार ताबूत, बेशक मामूली-सा ही, मिल जायेगा या नहीं? बड़े अफ़सोस की बात थी, मगर यह बिल्कुल नामुमकिन था और किसी के लिए इतने थोड़े वक़्त में उसे बनाना भी सम्भव नहीं था। कोई दूसरा ही रास्ता ढूँढ़ना होगा... मिसाल के तौर पर उसके यहाँ बड़ी और लम्बी पेटियों में अंग्रेज़ी सोडे की बोतलें आती हैं... ऐसी एक पेटी में भीतर लगी हुई तख़्तियों को निकाला जा सकता था...

रात के वक़्त होटल में सभी लोग सो रहे थे। तैंतालीस नम्बर के कमरे की खिड़की खोल दी गयी। यह खिड़की बाग़ के कोने में खुलती थी जहाँ पत्थर की ऊँची दीवार के नीचे, जिसके ऊपर टूटा शीशा धँसा था, केले का मरियल-सा पेड़ उगा हुआ था। बत्तियाँ बुझा दी गयीं, दरवाज़े का ताला बन्द कर दिया गया और सब चले गये। अँधेरे में केवल मृत रह गया, आकाश से नीले सितारे उसे ताक रहे थे और दीवार में से झींगुर ने उदासी भरी मस्ती में अपना झीं-झीं का राग अलापना शुरू कर दिया था... होटल के गलियारे में, जहाँ बहुत ही मद्धिम रोशनी थी, दो नौकरानियाँ खिड़की के दासे पर बैठी हुई कुछ रफ़ू कर रही थीं। स्लीपर पहने और बाँह पर ढेर सारे कपड़े डाले हुए लूइजी ने प्रवेश किया। "Pronto ?" (तैयार हो गया?) दालान के सिरे पर भयानक दरवाज़े की ओर आँखों से इशारा करते हुए उसने चिन्तापूर्ण ऊँची फुसफुसाहट में पूछा। अपना ख़ाली हाथ उस दिशा में धीरे-से हिलाते हुए वह ऊँची आवाज़ में और मानो गाड़ी को विदा करते हुए "Partenza !"("गाड़ी चल दी"! (इतालवी)) फुसफुसाकर चिलाया। इटली में गाड़ी के किसी स्टेशन से चलने पर ऊँची आवाज़ में यही शब्द कहा जाता है। दोनों नौकरानियाँ अपनी मूक हँसी को दबाते हुए एक-दूसरी के कन्धे पर गिर गयीं।

इसके बाद वह धीरे-धीरे उछलते और भागते हुए दरवाज़े के पास पहुँचा, उसने धीरे-से उस पर दस्तक दी, एक ओर को सिर झुकाया और बहुत ही आदरपूर्ण धीमी आवाज़ में पूछा -

"He sonata, signore?"

और अपने गले को दबाकर, नीचे वाले जबड़े को आगे की ओर बढ़ाकर, खरखरी, लटकती-सी और दर्द भरी आवाज़ में मानो दरवाज़े के पीछे से ख़ुद को ही उत्तर दिया -

"Yes come in..."

पौ फटने पर जब तैंतालीस नम्बर के कमरे की खिड़की के सामने कुछ उजाला हो गया, जब नम हवा में केले के जर्जर पत्ते सरसरा उठे, जब आकाश ने पलक खोली तथा काप्री द्वीप के ऊपर अपनी प्रातःकालीन नीलिमा फैला दी और इटली के दूरस्थ नीले पर्वतों के पीछे से ऊपर उठने वाले सूरज की रोशनी में मोटे-सोल्यारो की साफ़ दिखायी देने वाली चोटी सुनहरी हो उठी, जब सड़क की मरम्मत करने वाले पर्यटकों के लिए द्वीप की पगडण्डियों की मरम्मत करने चल दिये, उसी समय तैंतालीस नम्बर के कमरे में सोडावाटर की बोतलों की एक लम्बी, ख़ाली पेटी लायी गयी। जल्दी ही वह बहुत भारी हो गयी और उस छोटे दरबान के घुटनों को ज़ोर से दबाने लगी जो एक घोड़ा-जुती गाड़ी में पत्थरों की दीवारों और अंगूरों के बग़ीचों के बीच से बल खाती, काप्री की ढालों पर नीचे ही नीचे, ठीक सागर तक जाती सफ़ेद सड़क पर बहुत तेज़ी से उसे लिये जा रहा था। पुराना-धुराना कोट, जिसकी आस्तीनें छोटी थीं और टूटे हुए बूट पहने, थलथल शरीर और लाल-लाल आँखों वाले कोचवान का सिर भारी था, क्योंकि वह सारी रात पाँसे खेलता रहा था। वह अपने तगड़े, जवान घोड़े पर लगातार चाबुक बरसाता जाता था जिसकी लगाम का सिर वाला भाग सिसली के अन्दाज़ में ज़ोर से बजने वाली सभी तरह की घण्टियों और ऊन के लाल फुँदनों से सजा हुआ था तथा भागते समय जिसके कटे-छँटे माथे के बालों के ऊपर गज-भर लम्बा पंख हिल-डुल रहा था। कोचवान अपनी बुरी आदतों और ऐबों-बुराइयों तथा इस बात से बेहद दुखी था कि पिछली रात वह आखि़री कौड़ी तक जुए में हार गया था। किन्तु सुबह बड़ी ताज़गी देने वाली थी। प्यारी हवा, सागर की निकटता तथा सुबह के निर्मल आकाश के प्रभाव से सिर का भारीपन फ़ौरन ग़ायब हो जाता है और बेफ़िक्री लौट आती है। इसके अलावा उस अप्रत्याशित आमदनी से भी कोचवान के दिल को तसल्ली मिली थी जो उसे सान-फ़्रांसिस्को के किसी महानुभाव से प्राप्त हुई थी और जिसका बेजान सिर उसके पीछे रखी पेटी में हिल-डुल रहा था... नीचे, नेपल्ज़ की खाड़ी की कोमल और उजली नीलिमा पर, जिसकी वहाँ कुछ कमी नहीं, गुबरैले की भाँति लेटा हुआ छोटा-सा जहाज़ अपने भोंपू को आखि़री बार बजा रहा था और उसकी ये आवाज़ें सारे द्वीप में, जिसका हर मोड़, हर पहाड़ी चोटी, हर पत्थर सभी जगह से इतना साफ़ दिखायी दे रहा था मानो हवा का आवरण हो ही नहीं, बड़े ज़ोर से प्रतिध्वनित हो रही थीं। घाट के क़रीब बड़ा दरबान, जो महानुभाव की बीवी और बेटी को कार में ला रहा था, जिनकी उनींदेपन तथा रोने के कारण आँखें धँसी हुई थीं, छोटे दरबान की घोड़ागाड़ी के बराबर पहुँच गया। दस मिनट बाद छोटा-सा जहाज़ पानी को छपछपाता तथा सान-फ़्रांसिस्को के परिवार को हमेशा के लिए काप्री से ले जाता हुआ सोरेण्टो और कास्टेलामारे की ओर बढ़ चला... और द्वीप पर फिर से शान्ति हो गयी, चैन छा गया।

दो हज़ार साल पहले इस द्वीप पर एक ऐसा आदमी रहता था जो अपनी लालसाओं-वासनाओं की पूर्ति के मामले में बड़ा नीच था, न जाने क्यों, करोड़ों लोगों पर हुक्म चलाता था और उसने उन पर हद से ज़्यादा ज़ुल्म ढाये थे। मानवजाति उसे सदियों तक याद रख रही है और दुनिया के कोने-कोने से लोग पत्थर के उस घर को देखने आते हैं, जहाँ वह द्वीप की एक सबसे खड़ी उठान पर रहता था। इस अनूठी सुबह को इसी उद्देश्य से काप्री आने वाले लोग अभी तक होटलों में सो रहे थे, यद्यपि उनके दरवाज़ों के सामने चूहे जैसे रंग वाले छोटे गधे, जिन पर लाल ज़ीन कसे हुए थे, आकर खड़े हो चुके थे। पर्यटकों - जवान और बूढ़े अमेरिकी तथा जर्मन मर्द-औरतों को जागने और खा-पी लेने के बाद फिर से इन्हीं गधों पर सवार होकर ऊपर जाना था और काप्री की ख़स्ताहाल बुढ़ियों को उभरी नसों वाले हाथों में डण्डा लेकर इन्हें फिर से हाँकते हुए पथरीली पगडण्डियों पर मोटे-तिबेरिओ की चोटी तक उनके पीछे-पीछे भागना था। इस बात से सान्त्वना पाकर कि सान-फ़्रांसिस्को के मृत बूढ़े को, जो उनके साथ ही जाने वाला था और जिसने ऐसा करने के बजाय मौत की याद दिलाकर उन्हें केवल डरा दिया था, नेपल्ज़ भेजा जा चुका है, पर्यटक गहरी नींद सो रहे थे। द्वीप पर अभी तक नीरवता छाई थी, शहर अभी तक ऊँघ रहा था और दुकानें बन्द थीं। छोटे-से चौक में केवल मछलियाँ और सागपात ही बिक रहे थे। वहाँ केवल साधारण लोग ही थे और उन्हीं के बीच, किसी कामकाज के बिना लम्बा-तड़ंगा, मस्त-फक्कड़ आवारा, बहुत ही ख़ूबसूरत बूढ़ा माँझी लोरेन्त्सो भी खड़ा था जो इटली-भर में मशहूर था और कई चित्रकारों के चित्रों का मॉडल भी बन चुका था। पिछली रात उसने जो दो समुद्री झींगे पकड़े थे, उन्हें कौड़ियों के मोल बेच दिया था और अब वे उसी होटल के बावर्ची के पेशबन्द में सरसर की आवाज़ पैदा कर रहे थे जहाँ सान-फ़्रासिस्को के परिवार ने रात बितायी थी। अब वह अपने चिथड़ों, मिट्टी की पाइप और एक कान पर झुकी हुई लाल रंग की ऊनी टोपी की छवि दिखाता, अपने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाता हुआ शाही अन्दाज़ में बेशक शाम तक बड़े इत्मीनान से यहीं खड़ा रह सकता था। अनाकाप्री से दो अबरूज़ी पहाड़ी आदमी चट्टानों को काटकर बनाये गये प्राचीन फ़िनीशिया मार्ग, उसकी पथरीली पैड़ियों से मोण्टे-सोल्यारो की खड़ी चट्टान से नीचे आ रहे थे। एक की चमड़े की बरसाती के नीचे मश्कबीन थी - दो बीनों के साथ बकरे की बड़ी-सी खाल और दूसरे के पास लकड़ी की बाँसुरी जैसी कोई चीज़ थी। वे पहाड़ी से उतरते आ रहे थे और उनके नीचे ख़ुशी-भरा, सुन्दर और धूप नहाया पूरा देश फैला था - उनके क़दमों पर पड़े थे लगभग पूरे द्वीप के चट्टानी शिखर, वह अद्भुत नीलिमा जिसमें द्वीप तैर रहा था, अधिकाधिक ऊपर उठते और गरम हो चुके चकाचौंध करते सूरज के नीचे और पूरब की ओर सागर के ऊपर चमकती भाप, भोर के अनुरूप अभी तक अस्पष्ट इटली का असीम विस्तार, उसके निकट तथा दूरवर्ती पर्वत जिनके सौन्दर्य का वर्णन करना इन्सान के बस की बात नहीं। आधे रास्ते में उन्होंने अपनी चाल धीमी कर ली। रास्ते के ऊपर मोण्टे-सोल्यारो की चट्टानी दीवार के गुफा-द्वार पर माँ मरियम की मूर्ति खड़ी थी, गर्माहट, प्रकाश और धूप में चमकती, प्लस्तर की सफ़ेद पोशाक पहने, बारिशों से गेरुआ-सुनहरा हो चुका महारानी का मुकुट लगाये, विनीत और सौम्य, अपने अति पावन बेटे के शाश्वत तथा आनन्दमय वासस्थान - आकाश - की ओर नज़र उठाये। इन दोनों पहाड़ी लोगों ने अपनी टोपियाँ उतार लीं और सूर्य, भोर, इस द्वेषपूर्ण तथा सुन्दर संसार के सभी दुखी-पीड़ितों की पवित्र संरक्षिका - मरियम - और जूदिया के दूरस्थ देश की बीथलेहेम की गुफा में एक ग़रीब चरवाहे के झोपड़े में उसकी कोख से जन्म लेने वाले उसके बेटे का सीधा-सादा, नम्रतापूर्ण तथा सुखद स्तुतिगान करने लगे...

इसी बीच सान-फ़्रांसिस्को के मृत बूढ़े का शरीर अमेरिका के तटों पर अपनी क़ब्र की ओर लौट रहा था। बहुत-सा तिरस्कार और लोगों की बहुत-सी उपेक्षा सहने, एक बन्दरगाह के गोदाम से दूसरे बन्दरगाह के गोदाम तक सप्ताह-भर यात्रा करने के बाद वह आखि़र उसी मशहूर जहाज़ पर पहुँच गया था जिस पर कुछ ही दिन पहले उसे इतने आदर-सम्मान से यूरोप में लाया गया था। किन्तु अब उसे जीवितों से छिपाया जाता था - तारकोल पुते ताबूत में उसे खाव के अँधेरे में उतार दिया गया था। जहाज़ फिर से अपनी लम्बी समुद्री यात्रा पर रवाना हो गया। रात के वक़्त वह काप्री द्वीप के पास से गुज़रा और उस व्यक्ति को, जो उसकी बत्तियों को तट से अँधेरे सागर में धीरे-धीरे ग़ायब होते देख रहा था, वे कारुणिक प्रतीत हुईं। लेकिन वहाँ, उस जहाज़ के उजले, झाड़-फानूसों से चमकते-जगमगाते हॉलों में इस रात भी सदा की भाँति नाच-रंग का समाँ बँधा हुआ था।

अगली रात और उसके बाद की रात को भी ऐसे ही बॉल-नृत्य हुआ - एक बार फिर से महासागर में ज़ोर का तूफ़ान आया जिससे वह अन्त्येष्टि-प्रार्थना की भाँति मरमर करता और रुपहली झालर वाले ताबूत जैसे काले पर्वतों की तरह ऊपर उठता और फेन उगलता रहा। नयी और पुरानी - दोनों दुनियाओं के बीच पाषाणी फाटक यानी जिबराल्टर की चट्टान से देखते हुए शैतान को बर्फ़ के पर्दे के पीछे से अँधेरे और तूफ़ान में बढ़े जा रहे जहाज़ की असंख्य चमकती हुई आँखें मुश्किल से ही दिखायी दे रही होंगी। शैतान चट्टान की तरह ही विराट था, किन्तु पुराने दिलवाले नये इन्सान द्वारा निर्मित अनेक मंज़िलों और अनेक चिमनियोंवाला जहाज़ और भी विराट था। तूफ़ान उसके साज़-सामान, बर्फ़ से सफ़ेद उसकी चोड़े मुँह की चिमनियों पर ख़ूब ज़ोर से झपटता था, लेकिन वह दृढ़, दिलेर और गरिमापूर्ण था, भय उपजाता था। चक्कर काटती बर्फ़ में सबसे ऊपरवाले डेक पर बड़े आरामदेह और मद्धिम रोशनी वाले कमरों में बुतपरस्तों के देवता जैसा जहाज़ का भारी-भरकम कप्तान जब-तब और कुछ देर को झपकी लेता हुआ पूरे जहाज़ की अध्यक्षता कर रहा था। वह तूफ़ान में घुटी-घुटी आवाज़ वाले भोंपू की भारी और तीखी आवाज़ें सुनता था, किन्तु बग़ल के कमरे में उस चीज़ की निकटता से तसल्ली पाने की कोशिश करता था जिसे वह स्वयं ही बहुत कम समझ सकता था। बग़ल वाला, मानो कवच मढ़ा यह कमरा जब-तब रहस्यपूर्ण शोर और सिर के गिर्द धातु का अर्धचक्र लगाये पीले चेहरे वाले रेडियो आॅपरेटर के गिर्द जल उठने वाली नीली बत्तियों की भभक और सूखी चटक से भर जाता था। सबसे नीचे, ‘एटलाण्टिस’ की जलमग्न गहराइयों में, जहाँ बायलरों और अन्य मशीनों का बीस टन बोझ धुँधला-सा दिख रहा था, सूँ-सूँ करती भाप निकल रही थी और उबलता तेल तथा पानी रिस रहा था, वहाँ उस रसोई में, जहाँ नीचे से जलायी गयी जहन्नुमी ज्वालाओं पर जहाज़ की गति को पकाया जा रहा था, अपने संकेन्द्रण में भयावह ऊर्जा को मथा जा रहा था, उस ऊर्जा को जो जहाज़ के आखि़री हिस्से तक, अन्तहीन लम्बे तहख़ाने, गोलाकार मद्धिम रोशनी वाली सुरंग तक पहुँचती थी। वहीं एक विराटकाय धुरा मानव की आत्मा को कुचलने वाली दृढ़ता से अपने तेल के डबरे में ऐसे धीरे-धीरे घूम रहा था मानो नालमुख जैसी सुरंग में कोई ज़िन्दा राक्षस अपने फैले अंग हिला-डुला रहा हो। किन्तु ‘एटलाण्टिस’ के मध्य भाग, उसके भोजनालयों और नृत्य-हॉलों में जगमगाहट थी, वहाँ ख़ुशी छलक रही थी, सजे-धजे लोगों की भीड़ की बातचीतों की भनभनाहट थी, तार वाले बाजों की संगत में गीत-गाने गाये जा रहे थे और वे ताज़ा फूलों की सुगन्ध से महक रहे थे। फिर से इस भीड़, बत्तियों, रेशमी पोशाकों और हीरों की चमक-दमक तथा नारियों के नंगे कन्धों के बीच यातनापूर्ण ढंग से नृत्य-मुद्रा में झूमते अथवा एक-दूसरे के साथ चिपके हुए किराये के छरहरे और लचीले बदन वाले पे्रमी-जोड़े को देखा जा सकता था - बहुत ही मामूली केश-विन्यास किये, पलकें झुकाये, गुनाह की हद तक विनम्र लड़की और तंग, लम्बे पल्लों का फ़्राक-कोट तथा बढ़िया जूते पहने और मानो गोंद से चिपकाये काले बालों वाले, लम्बे, ख़ूबसूरत नौजवान को, जिसका चेहरा पाउडर के कारण पीला था और जो एक भीमकाय जोंक जैसा लगता था। और कोई भी यह नहीं जानता था कि बेहयाई की हद तक उदासी भरे संगीत के साथ कृत्रिम, मधुर पीड़ा का नाटक करते-करते यह जोड़ा कभी का ऊब चुका है और न ही किसी को यह मालूम था कि बहुत नीचे, महासागर और तूफ़ान में से जैसे-तैसे आगे बढ़ते हुए जहाज़ की अँधेरी, उमस भरी गहराइयों के निकट वाले अन्धकारपूर्ण तल में क्या रखा हुआ है...

1915

अनु. - मदनलाल ‘मधु’