समरेखा-विषमरेखा : विष्णु प्रभाकर

Samrekha-Vishamrekha : Vishnu Prabhakar

पात्र परिचय

रेवा : बैरिस्‍टर की पत्‍नी

केशव : रेवा का पति

रंजन : रेवा का पूर्व मित्र

जमना : बूढ़ी परिचारिका

हरि : सेवक

डाकिया

पहला दृश्‍य

(एक बैरिस्‍टर का ड्राइंग रूम, बहुत आधुनिक ढंग से सजा हुआ है। बाईं ओर का दरवाजा बाहर जाता है, दाईं ओर का भीतर। पीछे की ओर भी दो दरवाजे हैं, जिनमें से एक शयनकक्ष में जाता है, दूसरा श्रृंगार-कक्ष में। सजावट में विलासिता इतनी नहीं है, जितनी कलाप्रियता। परदा उठने पर रेवा सोफे पर बैठी दिखाई देती है। सुन्‍दर युवती है, जूड़ा बाँधे, साड़ी कंधे पर, आँखों में शरारत, ओठों पर मुस्‍कान, गौर वर्ण, पर सब मिला कर प्रभाव में गम्‍भीरता का अभाव नहीं है। इस समय उसके सामने तिपाई पर कुछ सुन्‍दर केस रखे हैं। उनमें नाना प्रकार के कीमती आभूषण हैं। रेवा एक हार लिए उसे परखने की चेष्‍टा कर रही है। परखती-परखती मुस्‍करा कर बोल उठती है।)

रेवा : (मुस्‍करा कर) बैरिस्‍टर साहब वैसे हैं होशियार। मेरे खो जाने का उन्‍हें कितना डर है! कभी गहने, कभी साड़ी, कभी यह, कभी वह, कुछ न कुछ लाते ही रहते हैं! किसी चीज का किसी सिलसिले में जरा जिक्र हुआ नहीं कि वह उसी दिन हाजिर हो जाती है...

(बूढ़ी परिचारिका जमना का प्रवेश)

जमना : बहूरानी! तुम तो अभी तक यहीं बैठी हो! उधर रसोई में... ।

रेवा : (एकदम) ओह, काकी! मैं सचमुच भूल गई। अभी चलती हूँ, पर यह तो बताओ कि तुम्‍हारे साहब को गहनों का इतना शौक क्‍यों है?

जमना : आय हाय! वह तो सब तुम्‍हारे लिए है। घर में रोशनी हुई है, तो...

रेवा : तो पतंगे आएँगे ही। (हँसती है) तुम तो काकी, पिछले जन्‍म में कवयित्री रही होगी?

जमना : (हँस कर) क्‍या कहा, बहूरानी? कबूतरी?... ह...ह...ह कबूतरी? बहूरानी! कह ले, कहने की तेरी उमर है! पर कबूतरी असल में तू है। हाँ, कभी दिन थे तो...

डाकिया : (आवाज आती है) डाक ले जाना, काकी!

जमना : आय हाय! क्‍या डाक भी आ गई? एक बज गया! (पुकार कर) आती हूँ। (जाती है)

रेवा : (फिर हार उठाकर हँसती हुई) कबूतरी... कबूतरी... (हँसती है।) काकी भी जवानी में... वैसे यह हार बुरा नहीं है। पहन कर देखूँ! (पहन कर श्रृंगार कक्ष की ओर मुड़ती है, तभी काकी आ जाती है)

जमना : बहूरानी! तुम्‍हारी चिट्ठी...

रेवा : मेरी चिट्ठी? लाओ! देखूँ (जमना रेवा को चिट्ठी देकर जाती है।)

जमना : (जाती हुई) चिट्टी पढ़ कर जल्‍दी आना!

रेवा : (चिट्ठी देखकर चौंकती है) यह किसकी चिट्ठी है... रंजन महाशय की! उसने मुझे चिट्ठी लिखी है! (शीघ्रता से लिफाफा फाड़ती है।) रेबू! सुना है कि तुम बहुत खुश हो, बहुत पैसा है! इधर मैं बहुत अभाव में हूँ। सोचता हूँ कि क्‍यों न कुछ दिन तुम्‍हारा आतिथ्‍य स्‍वीकार करूँ। अच्‍छा स्‍थान हुआ तो कुछ दिन चित्र बनाना चाहता हूँ। यहाँ तो राजनीति में दम घुटने लगा है। आऊँ न? पर कहीं तुम्‍हारे ‘वे’ मेरी उग्रता से डर तो न जाएँगे? डरना तो नहीं चाहिए! बैरिस्‍टर हैं। फिर सुना है, रूप के उपासक है और तुम रूपसी हो!

तो रेबू! आ रहा हूँ। कैसा स्‍थान चाहिए, कैसे रहता हूँ, यह सब तुम जानती हो। रहना एक माह या उससे भी अधिक हो सकता है। अच्‍छा, मिलने तक! अपने उनको मेरा भी प्रणाम कहना।... रंजी। (पढ़ने पर मुख के भाव पलटते हैं। फिर पढ़ती है। फुसफुसाती है) रंजी यहाँ आना चाहता है! कैसी बेतकल्‍लुफी से लिखा है - रेबू! सुना है कि तुम बहुत खुश हो! बहुत पैसा है... सुना है, रूप के उपासक हैं और तुम रूपसी हो... कैसा स्‍थान चाहता हूँ, कैसे रहता हूँ, तुम जानती हो... रंजी। रेबू-रंजी, रेबू-रंजी...

जमना : (आकर) किसकी चिट्ठी है? कोई ऐसी-वैसी बात है? तुम्‍हारा चेहरा...

रेवा : (एकदम) नहीं, नहीं, काकी! कुछ नहीं ऐसे ही... घर से चिट्ठी आई है।

जमना : घर से चिट्टी आई है? सब राजी-खुशी हैं न।

रेवा : सब ठीक है। बस अम्‍मा...

जमना : हाय-आय। अम्‍मा बीमार है?

रेवा : नहीं-नहीं काकी! बीमार नहीं, जरा यूँ ही तबीयत खराब है। और तबीयत भी क्‍या काकी! बस मेरी याद आती है...

जमना : याद तो आएगी ही, बहूरानी! माँ का दिल है। इतने दिन पालती-पोसती है और फिर एक दिन छाती पर पत्‍थर रख कर दूसरे के घर भेज देती है। भगवान ने क्‍या रिश्‍ता बनाया है! बहूरानी! जल्दी जवाब दे दिया कर! और हाँ, उधर भी तो आना! हरि ने क्‍या कर डाला। (जाती है)

(क्षणिक मौन रेवा मौन समाधिस्‍थ-सी स्थिर रहती है। फिर जमना जब चली जाती है, तो वह निश्‍वास खींचती है।)

रेवा : (निश्‍वास) रंजी आ रहा है, लेकिन क्‍या उसका आना ठीक है? क्‍या उसे यहाँ आना चाहिए? क्‍या उसे ऐसा पत्र लिखना चाहिए? नहीं! मैं अब विवाहिता हूँ, पत्‍नी हूँ, मेरे पति हैं और वह जानता है कि पति-पत्‍नी होने का क्‍या मतलब होता है। तब उसे क्‍या अधिकार है मुझे इस प्रकार पत्र लिखने का? क्‍या अधिकार है उसे यहाँ आने का? (फोन की घंटी बजती है) नहीं, वह यहाँ नहीं आ सकता। उसे यहाँ नहीं आना चाहिए। (घंटी बजती रहती है, रेवा उसे उठाती है) हलो (एकदम स्‍वर पलट जाता है) ओह, डार्लिंग आप? क्‍या? क्‍या हार? हाँ-हाँ! कंगन? हाँ! टॉप्‍स? हाँ-हाँ, वे भी बहुत सुन्‍दर हैं! क्‍या... क्‍या सब खरीद लिए। डार्लिंग, आप तो... नो, नो, कंगन और टॉप्‍स मेरे पास हैं... हैं डार्लिंग, बस आप तो, क्‍या कहूँ... नहीं नहीं मैं बिल्‍कुल ठीक हूँ... नहीं जी, मैं क्‍यों रोती? (खिलखिला कर हँसती है) क्‍या... ओह डार्लिंग, आप तो फोन पर भी ऐसी बातें करते हैं! हाँ, सुनो आज पिक्‍चर देखेंगे, तीन बजे वाला शो! मैं तैयार रहूँगी! बस डेढ़ बजा है, दो पर आपको यहाँ आ जाना है! नहीं तो जानते हो... क्‍या (हँसती है) ओह! यू नटखट... (एकदम बन्‍द कर देती है, फिर क्षणिक मौन। फिर निश्‍वास) लेकिन इस रंजी का क्‍या करूँ? मना करूँगी, तो क्‍या मानेगा? बड़ा अल्‍हड़ औलिया है। एक दिन पूछने लगा - रेबू! तुम्‍हारा मुझ पर इतना स्‍नेह क्‍यों है? तुम एक पूँजीपति की बेटी ओर मैं पूँजीपतियों का शत्रु! भला मैं इसका क्‍या जवाब देती? हर बात का क्‍या जवाब होता है? (सहसा जमना की पुकार)

जमना : बहूरानी! ओ बहूरानी! यहाँ आना! देखना चाशनी बिगड़ तो नहीं गई...

रेवा : (जोर से) अभी आई, काकी! (पुकार) हरि, ओ हरि!

हरि : (आता हुआ) आया जी! (पास आकर) जी!

रेवा : देखो हरि! तुम्‍हारे साहब आनेवाले हैं। तीनवाले शो में जाएँगे। उनके कपड़े तैयार करो और फिर जा कर दो सीटें रिजर्व करा आओ! (दूर जाते स्‍वर, चली जाती है।)

हरि : जी! जी बहुत अच्‍छा! (जाने के बाद मुस्‍करा कर) यह जवानी और फिर यह मोहब्‍बत! (हँसता है) सब कुछ, सब कहीं हरा ही हरा! साहब कितने तकदीरवाले हैं! पैसा और प्‍यार दोनों हैं। दो साल हो गए, पर जैसे आज की बात हो! बड़े घरों में... (दूर कार का हार्न बजता है) अरे, साहब तो आ भी गए! मैं कहता न था... बस भागूँ! इधर से भागूँ... (तेजी से जाता है।)

(दो क्षण बाद गुनगुनाते हुए नवयुवक बैरिस्‍टर केशव बाबू रंगमंच पर प्रवेश करते हैं। यौवन, मस्‍ती, रूप, सब है। काला कोट, सफेद पैंट पहने हैं। आ कर हाथ के कागज मेज पर रखते हैं और टाई को ठीक करते हुए पुकारते हैं।)

केशव : रेवा! रेवा...

रेवा : (दूर से) आती हूँ!

केशव : (फिर मेज पर से पत्र उठाते हैं ) अरे यह किसका पत्र है? रंजन... (रेवा का मुस्‍कराते हुए प्रवेश)

रेवा : आ गए?

केशव : सरकार का हुक्‍म था, कैसे न आता? पर हुजूर! यह पत्र किसका है?

रेवा : खोल कर पढ़ लो! तुम्‍हारे लिए रखा है। रंजन को तो तुमने देखा है! निरा कलाकार है। एक दिन, न दो दिन, हजरत पूरा महीना हमारे घर रहना चाहते हैं।

(केशव पत्र पढ़ता रहता है, फिर साँस खींच कर गुनगुना उठता है।)

केशव : हाँ! रेबू और रंजी! हुजूर, इसके लिए मुझसे क्‍या पूछना? पर ये महाशय बड़े बेतकल्‍लुफ हैं! बड़े अधिकार से लिखा है... अपने को गरीब कहते हैं, लेकिन भाषा बताती है कि अच्‍छे-खासे अभिजात वर्ग के प्राणी हैं। ये वे ही महाशय हैं न, जिन्‍होंने तुम्‍हारी आँखों में आँसू देख कर कहा था, ‘आँसू दु :ख के प्रतीक हैं और प्रेम में दु :ख कैसा?’

रेवा : जी हाँ! वे ही औघड़ हैं!

केशव : सुना है, हुजूर के चाहनेवालों में से रहे हैं!

रेवा : जी हाँ, पिताजी ने विवाह के लिए पहले इन्‍हीं से कहा था, पर औलिया साहब ने जवाब दिया, ‘रेबू से मैं खूब परिचित हूँ, पर विवाह एकदम अपरिचित से करना चाहिए। अपरिचित से परिचय करने में जो रस आता है, उसी में सच्‍चा रोमान्‍स होता है।’

केशव : (खूब हँसता है) खूब! खूब जवाब दिया, यानी आपको नामंजूर कर दिया, लेकिन रेबू, वैसे उसकी बात में सचाई है।

रेवा : खाक सचाई है!

केशव : आप चिढ़ती हैं! आपको उसने नापसन्‍द कर दिया इसलिए! सच है, अगर नारी की मनचाही न हो तो...

रेवा : देखो जी, बात न बढ़ाओ, नहीं तो...।

केशव : नहीं तो क्‍या होगा हुजूर?

रेवा : लड़ पड़ूँगी।

केशव : लड़ो भी रेवा! किसी दिन लड़ कर तो देखो, कितना रस है इस लड़ाई में! पर तुम हो कि पूजा करोगी या अनमनी रहोगी। मुझे ऐसा लगता है कि तुम अब भी उसे चाहती हो और उसी की याद को भुलाने के लिए... ।

रेवा : अब चुप नहीं करोगे? सीधी तरह से नहीं बताओगे कि उसे क्‍या लिखूँ।

केशव : मैं बताऊँ? पूछा तो तुमसे है!

रेवा : पर मैं तो तुमसे पूछ रही हूँ! मैं तो तुमसे हूँ!

केशव : और मैं तुमसे! क्‍या खूब है, तुम मुझसे! तुम मुझसे! मैं तुमसे। मैं तुम, तुम मैं...।

रेवा : (हँसती है) कभी-कभी तो तुम भी कवि बन जाते हो, पर बताओ न क्‍या लिखूँ उस अवधूत को? उसे छुटपन से जानती हूँ, थोड़ा-सा पागल है। कुछ भरोसा नहीं! पाँचवें दिन आ धमकेगा!

केशव : तो क्‍या हर्ज है, उसे भी पैसे का सुख देख लेने दो और देख लेने दो मेरी रूप की उपासना (कह कर तेजी से हँसता है, रेवा भी हँसती है।)

रेवा : तुम रूप की उपासना करते तो हो, इसमें झूठ क्‍या है?

केशव : मैं कब कहता हूँ कि यह झूठ है? मैं तो उसे यह दिखाना चाहता हूँ कि जिस रूप को उसने एक दिन ठुकरा दिया था, आखिर उसी ने उसको खींच लिया!

रेवा : हटो, हटो, क्‍या बकते हो! (रेखा की हँसी फीकी पड़ती है पर केशव अब भी तेजी से हँसता जाता है।)

केशव : आखिर तुमने उसे खींच ही लिया! तुमने उसे पराजित कर ही दिया!

रेवा : (एकदम) केशव! मैं उसे मना लिख रही हूँ। वह यहाँ नहीं आ सकता।

(रेवा का मुख रोष से तमतमा उठता है। केशव की हँसी सहसा रुक जाती है।)

केशव : सरकार नाराज हो गईं। नहीं-नहीं उठो, उठो! (स्‍वयं उठ कर उठाता है) देर हो जाएगी। पिक्‍चर से लौट कर तुम्‍हारे उग्रपंथी कलाकार के लिए सुन्‍दर-सा कमरा देखेंगे और फिर उसे खूब सजाएँगे!

रेवा : नहीं, नहीं...

केशव : हुजूर! हुजूर! ! (इस अदा से बोलता है कि रेवा हँस पड़ती है।)

रेवा : बड़े खराब हो जी तुम! जरा-सी बात पर लज्जित करना जानते हो। मैं तो डर गई थी!

केशव : सरकार डरना भी जानती है और वह भी उपासक से! (फिर हँसी)।

(दोनों हँसते हैं और अन्‍दर की ओर जाते हैं। परदा गिरता है।)

दूसरा दृश्‍य

(वही पहले दृश्यवाला स्थान। लगभग वही अवस्था। परदा उठने पर जमना और हरि काम और बातें दोनों साथ-साथ करते दिखाई देते हैं।)

जमना : हरि! ये नए साहब तो बहुत अच्छे हैं।

हरि : सच काकी! बहुत ही अच्छे हैं। कहते थे कि हममें तुममें कोई फरक नहीं है। तुम भी मंत्री बन कर हकूमत कर सकते हो!

जमना : मुझसे तो ऐसे बात करता है, जैसे! उसकी सगी माँ हूँ। जब देखो, बस अड़ कर बैठ जाएगा। बहूरानी को ऐसे तंग करता है, जैसे छोटा भाई हो और वे भी हमेशा उसे खुश रखने की कोशिश करती हैं।

हरि : बहूरानी किसे खुश नहीं रखतीं? मालिक का कितना ध्यान रखती हैं।

जमना : पागल! मालिक उसके मालिक हैं।

हरि : पर काकी, बड़े घरों की औरतें...

जमना : चुप, चुप! दीवार के कान होते हैं! (जोर से) बहूरानी देवी हैं, देवी...

हरि : जानूँ हूँ, पर काकी! इन दिनों मालिक कुछ अनमने रहने लगे हैं...

जमना : (धीमा स्वर) कुछ क्या, बहुत अनमने रहते हैं! अन्दर ही अन्दर सुलगते हैं...

हरि : शी...शी...मालिक!

(एकदम केशव का प्रवेश। बहुत कुछ पलट गए हैं। पहलेवाला मुक्त हास्य जैसे विषाक्त हो उठा है। उन्हें देखते ही दोनों काँपते हैं और अन्दर चले जाते हैं। वे हाथ के कागज मेज पर रख कर सोफे पर बैठ जाते हैं, बैठते-बैठते पुकारते हैं)

केशव : रेवा... रेवा... (गूँज, कोई उत्तर नहीं। फिर पुकारते हैं।) रेवा (हरि का प्रवेश)

हरि : मालिक! वे घर पर नहीं हैं!

केशव : नहीं हैं? कहाँ गईं?

हरि : हुजूर! सबेरे गई थीं?...

केशव : सबेरे? क्या सबेरे से अभी तक नहीं आई... (जमना चाय ले कर आती है।)

जमना : आई थीं, मालिक! रंजन भइया कोई तसबीर बना रहे हैं, वह पूरी नहीं हुई, इसी से लौट गईं। आपको फोन किया था, पर आप मिले नहीं! आपके कपड़े, आपकी किताबें रख गई हैं। चाय की तैयारी भी कर गईं। (हँसती है) मैंने कहा, ‘बहूरानी...’।

केशव : (एकदम) चाय तैयार कर गई है? हूँ। (व्यंग्य से होठ काटता है। काँपता है, फिर शान्त हो जाता है।) हरि!

हरि : जी!

केशव : (कहने को कुछ न पाकर तेज हो जाता है) काकी! खड़ी क्यों हो, चाय रख कर चली जाओ, मैं पी लूँगा! और तुम क्या देख रहे हो, तुम भी जाओ! (चीख कर) जाओ दोनों (दोनों घबरा कर अन्दर की ओर मुड़ते हैं। केशव ट्रे को तेजी से सरकाता है। प्याले झनझना उठते हैं, उनके जाने के बाद केशव एक क्षण मौन रहता है, फिर स्वत : बोल उठता है) सबेरे से नदी के किनारे हैं... चित्र नहीं बना! चित्र! जहाँ देखो चित्र! मजदूर की बस्ती में, मिल के सामने, बियाबान जंगल में, भरे बाजार में, गरीब की झोंपड़ी के पास, कोई अन्त है इस चित्रकला का? यह कला की उपासना है या... रेवा के रूप की... (एकदम काँप उठता है) यह कला की नहीं, रेवा की उपासना है! रेवा के रूप की उपासना है और वह इस बात को जानती है, तभी मेरी ओर विशेष ध्यान देती है, पर...पर...ओह...ओह (एकदम बैठ जाता है) हाँ, ऐसा ही है, ऐसा ही है! तभी रंजन इतना बेतकल्लुफ है! तभी वह ऐसा व्यवहार करता है, जैसे रेवा मुझसे अधिक उसके पास है... (द्वार पर खड़खड़) कौन...ओह, रेवा, रंजन...

(सहसा रेवा और रंजन का प्रवेश ! रेवा कुछ श्रांत, पर रंजन मुक्त हास्य से खिलता हुआ। बाल बिखरे, स्वस्थ रूप, आँखों में रहस्य, ओठों पर कलाकार की सरलता। रेवा केशव को देख तेजी से पास जाती है।)

रेवा :

आप आ गए? कब आए? क्या देर हो गई?

रंजन : ओह, केशव! तुम हमारे साथ चलते! मैं आज मूड में था! यह देखो, नदी के किनारे उगते सूर्य के प्रकाश में रेवा का कितना शानदार चित्र बना है! देखो! (चित्र दिखाता है) तुम होते, तो... अरे तुम तो देखते ही नहीं! क्या कोई पेचीदा केस था आज? चेहरे के भाव बताते हैं कि कोई हत्या का मामला होगा! इस बुर्जुआ सोसाइटी में और हो ही क्या सकता है! किसी निराश प्रेमी ने प्रेमिका की हत्या कर दी होगी... ओ हो! आप तो... आप तो (हँस पड़ता है) न बोलो। मैं तो थक गया हूँ और चाय यहाँ रखी है! सच केशव तुमसे सीखे कोई आतिथ्य करना! कितना बड़ा दिल है तुम्हारा... काश तुम चित्रकार होते! सच कहता हूँ केशव! तुम यदि चित्रकार होते, तो संसार की सर्वश्रेष्ठ कला का सृजन करते, पर...।

(रेवा तब तक केशव के कपड़े लाती है, जूते लाती है)

रेवा : केशव! क्या बात है? मैंने कई बार फोन किया, पर तुम मिले नहीं! सच आज तुम होते...

केशव : (यथाशक्ति सँभलता है, पर कड़वाहट रहती है) रेवा! मुझे तुमसे कुछ बातें करनी है! (शयनकक्ष की ओर जाता है) आओ ... क्षमा करना रंजन (रेवा पीछे-पीछे जाती है, रंजन चाय बनाता-बनाता देखता है फिर स्वयं बोलता है।)

रंजन : (स्वगत) क्या बात है, केशव बाबू कुछ अधिक गम्भीर होते जा रहे हैं! ऊपर से बेतकल्लुफ और उदार जान पड़ते हैं, पर अन्दर ही अन्दर जैसे कुछ छिपा रखते हों। रेवा भी कभी कुछ नहीं बताती। शायद उच्च वर्ग का यही फैशन है कि ऊपर कुछ, भीतर कुछ! (हँसी) पूँजी सहेजने का उनका स्वभाव हो जाता है। बटोर-बटोर कर सब मन की तिजोरी में भरते रहते हैं। (चाय पीता है) लेकिन कहीं रेवा के प्रति मेरा बर्ताव तो उन्हें नहीं चुभता! कहीं... (एकदम) पर ऐसा होता, तो रेवा मुझसे कह देती! वह मुझसे कुछ छिपा नहीं सकती!... पर वह स्त्री है, विवाहिता है और विवाहिता स्त्री पति की बात नहीं कहा करती! आज मैं ही पूछ लूँगा (फिर घूँट भर कर) पर क्या पूछने की जरूरत है? क्या मुझे पूछना चाहिए... नहीं नहीं, मुझे उनके बीच में पड़ने की क्या जरूरत है? मुझे क्या? पति-पत्नी की बात पति-पत्नी जानें...।

(हरि का प्रवेश)

हरि : जी बहूरानी पूछती है, कुछ और चाहिए?

रंजन : बहूरानी कहाँ हैं?

हरि : अन्दर चाय पी रही हैं।

रंजन : अकेली?

हरि : जी नहीं, साहब भी हैं।

रंजन : ठीक है, ठीक है, मुझे कुछ नहीं चाहिए! (उठता है) बहुत सामान था। मेरा चित्र कहाँ है? ओह, यह रहा (उठता है) देखो, हरि! मैं उधर छत पर जा रहा हूँ। रेवा आए, तो कह देना और केशव से कहना कुछ देर के लिए वे भी उधर आ जाएँ।

(गमन)

हरि : जी, कह दूँगा। (वह बर्तन उठा कर जाता है। एक क्षण बाद तेज शब्द पास आते हैं। फिर केशव तेजी से प्रवेश करते हैं। वे बेहद क्रुद्ध हैं। सौम्य मुख पर क्रूरता रूप से उभर उठी है। पीछे-पीछे रेवा है जो त्रस्त होकर भी बिखरी नहीं है।)

केशव : (आते हुए) मैं यह सब नहीं जानता। मैं यह सब नहीं सह सकता! मेरे घर में यह सब नहीं चल सकता।

रेवा : (शान्त रहने की चेष्टा) केशव! मैं कैसे समझाऊँ? मैं क्या करूँ? तुम सुनो तो, मैं उसे जाने को कह दूँगी।

केशव : उसे नहीं, तुम्हें भी जाना होगा!

रेवा : केशव!

केशव : मैं ठीक कहता हूँ, तुम्हें जाना होगा!

रेवा : केशव, केशव! तुम्हें क्या हुआ है? तुम तो ऐसे नहीं थे।

केशव : मैं ऐसा नहीं था, तभी तो तुम्हारी हिम्मत हुई कि...।

रेवा : कैसी हिम्मत? किस बात की हिम्मत?

केशव : पति के घर में पति का अपमान करने की हिम्मत।

रेवा : बस करो, केशव! बस करो, बात न बढ़ाओ।

केशव : बात मैं नहीं, तुम बढ़ा रही हो! तुम्हें जाना होगा!

रेवा : (विन्रमता से) केशव! मेरे अच्छे केशव! तुम्हें यह कैसी गलतफहमी हो गई? मैं उसे जाने को कह दूँगी! आज ही, अभी वह इसी गाड़ी से चला जाएगा।

केशव : बेशक, उसे जाना होगा! आज, अभी, लेकिन अकेले नहीं, तुम्हारे साथ! यह मेरा आदेश है, मेरा अन्तिम आदेश!

(तेजी से जाता है, दूसरी ओर से रंजन का प्रवेश)

रंजन :

रेबू! मैं कब से तुम लोगों की राह देख रहा हूँ! चित्र पूरा करना है! तुम आईं क्यों नहीं? अरे! तुम बोलती क्यों नहीं? अभी तो तुम लोग जोर-जोर से बोल रहे थे। केशव कहाँ है?

रेवा : (एकदम) केशव कहाँ है, यह तुम्हें जानने की जरूरत नहीं! तुम्हें आज यहाँ से जाना होगा!

रंजन : (हठात्) क्या कहती हो?

रेवा : यह कि तुम्हें आज यहाँ से जाना होगा!

रंजन : आज?

रेवा : जी हाँ, अभी...।

रंजन : पर...पर रेबू...।

रेवा : रेबू नहीं, मेरा नाम रेवा है! मैं किसी की पत्नी हूँ। (पुकार कर) हरि...।

हरि : (आकर) जी? मुझे बुलाया...।

रेवा : (शान्त) हरि, देखो ड़ाइवर से कार तैयार करने को कहो! ये साहब अभी स्टेशन जाएँगे! जाओ!

हरि : जी...जी अभी जाता हूँ। (गमन)

रंजन : रेबू! यह क्या हुआ? केशव ने...।

रेवा : केशव के बारे में कुछ भी कहने का तुम्हारा अधिकार नहीं है।

रंजन : (एकदम) रेबू! यह मेरा अपमान है!

रेवा : (तेज) तुम्हें भी अपमान का ध्यान है? दूसरे के घर आकर, दूसरे की पत्नी से ऐसा व्यवहार करना, किसी को समझने की चेष्टा तक न करना...

रंजन : रेबू! बस करो! बुद्धू नहीं हूँ। समझता हूँ!

रेवा : तुम्हें यहाँ नहीं आना था, रंजन!

रंजन : मैं बिना पूछे नहीं आया था! तुमने मुझे बुलाया था। तुम्हारा यह छल अब समझा हूँ!

रेवा : तुम भी ऐसे ही सोचते हो, रंजी! तुम भी वही पुरुषोंवाली भाषा बोलते हो।

रंजन : ओह, रेबू, रेबू! मैं जा रहा हूँ! मैं जा रहा हूँ!

रेवा : जाना तो होगा ही, पर...।

रंजन : समझता हूँ, गलती मेरी है! मेरी ही है! (दूर जाता हुआ) अच्छा, रेवा! सामान बटोर लूँ!

रेवा : (क्षणिक मौन) जिस बात का डर था, वही होकर रही! न चाह कर भी मैं गलती कर बैठी! आँखें रख कर भी देख न सकी। अपनी बुद्धि से ही मैं स्वयं छली गई। स्वभाव की शक्ति को पहचान न सकी। लेकिन, लेकिन केशव क्या सचमुच मुझे दुश्चरित्र समझता है? क्या सचमुच? नहीं, नहीं, वह आवेशमात्र है! क्षणिक भावना है, जो ईर्ष्या के कारण प्रबल हो उठी है। (एकदम) पर कुछ भी हो, मुझे क्या! मैं तो केवल यह जानती हूँ कि मैंने विश्वासघात नहीं किया। केशव मेरा जीवन-साथी है! (एक ओर से हरि का तथा दूसरी ओर से सामान उठाए हुए रंजन का प्रवेश)

हरि : बहूजी, कार आ गई!

रंजन : हरि, सामान ले चलो!

हरि : लाइए (बक्स ले कर जाता है)

रंजन : अच्छा रेबू! जाता हूँ! प्रणाम!

रेवा : प्रणाम! (रुँधा स्वर)

(रंजन तेजी से अटेची उठाए हुए जाता है। रेवा उसे जाते देखती है। फिर स्वस्थ हो कर अन्दर जाने को मुड़ती है कि उधर से आती जमना से टकरा जाती है।)

जमना : क्या हुआ, बेटी? रंजन एकदम कैसे चला गया?

रेवा : काकी! कुछ ऐसा ही जरूरी तार आ गया, जाना पड़ा!

जमना : ऐसा क्या तार आ गया... कुछ समझ में नहीं आता! जाते वक्त वह हँस नहीं रहा था...जो हर वक्त हँसता रहता था।

रेवा : काकी! कोई बात होगी, तुम...

जमना : बात ही तो पूछती थी! दस का नोट हाथ में थमा कर ऐसा भागा कि कुछ पूछ भी नहीं सकी! कह गया, तुम्हारे पोते के लिए है!

(केशव का एकदम प्रवेश)

केशव : तुम अभी यहीं हो रेवा!

जमना : (एकदम) आ गये बेटा! तुमने सुना। रंजन का तार आया था, बेचारे को अभी जाना पड़ा।

केशव : काकी तुम जाओ...जाओ! (जमना चकित घबराई-सी जाती है) ...रेवा! तुम नहीं गईं!

रेवा : नहीं।

केशव : पर मैं तुम्हें जाने के लिए कह गया था।

रेवा : मेरे जाने के लिए केवल तुम्हारा कहना काफी नहीं है!

केशव : क्या मतलब?

रेवा : मतलब साफ है कि यह मेरा घर है!

केशव : लेकिन मेरे कारण!

रेवा : बेशक, तुम्हारे कारण, लेकिन अब उस कारण को मिटाना तुम्हारे हाथ में नहीं रहा।

केशव : कैसे नहीं रहा?

रेवा : अग्नि के सामने धर्म को साक्षी करके हम एक बने थे।

केशव : यह सब व्यर्थ की बकवास है!

रेवा : उनकी मंजूरी के बिना तुम उस एक करने वाले बन्धन को कैसे तोड़ सकोगे?

केशव : मुझसे बहस करने की कोशिश मत करो, रेवा! मैं कुछ कर बैठूँगा!

रेवा : अभी करना बाकी है!

केशव : हाँ! मुझे उसका अवसर मत दो! यहाँ से चली जाओ!

रेवा : कैसे चली जाऊँ, केशव! मैं विवाहिता हूँ। और विवाहिता क्या होती है, यह तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है! लेकिन, अगर तुम मुझे दासी बनाना चाहो, तो वह नहीं होगा, वह नहीं हो सकता!

केशव : (व्यंग्य) तो आप तर्क करना भी जानती है!

रेवा : तुमसे सब कुछ करने का मेरा अधिकार है!

केशव : विश्वासघात करने का भी?

रेवा : वही तो मैं कह रही हूँ कि तुम्हें छोड़ कर जाना विश्वासघात है।

केशव : ओह! नारी! छलना यह शब्दों का मायाजाल तुम्हें खूब आता है, पर मैं कहता...।

रेवा : वह मैं कई बार सुन चुकी! तुम्हारा बिस्तर तैयार है! सबेरे जब उठोगे तब बात करूँगी।

केशव : बिस्तर की बच्ची! मुझे वह कुछ करने पर विवश मत करो, जो...जो...

रेवा : (एकदम) तो जो तुम करना चाहते हो, वह कर क्यों नहीं लेते? करो...करो...

केशव : तुम यहाँ से चली जाओ!

रेवा : मैं नहीं जाऊँगी!

केशव : तो फिर मैं चला जाऊँगा! मैं तुम्हारी जैसी पुंश्चली के साथ नहीं रह सकता।

रेवा : (काँपकर) क्या कहा, केशव!

केशव : (तेजी से) तुम पुंश्चली! तुम वेश्या हो! तुम...तुम... (दूर जाता स्वर)

रेवा : (दौड़ कर जाती हुई) केशव...केशव (द्वार पर रुक कर पुकारती है) केशव!

(केवल गूँज उठती है, रेवा पागल-सी मुड़ती है, फिर गिर पड़ती है। जमना दौड़ कर आती है)

जमना : क्या है बहूरानी! (पास आकर) बहूरानी! अरे...अरे बहूरानी बेहोश हो गयी। (जोर से) बहूरानी! बहूरानी...।

(वह रेवा पर झुकती है और परदा गिर पड़ता है।)

तीसरा दृश्य

(वही स्थान। वही अवस्था। वही ताजगी। वही सजावट। प्रात :काल का समय है। रात तेज वर्षा हुई है। अब भी गरज है। परदा उठने पर जमना और हरि सफाई करते दिखाई देते हैं। बातें भी करते जाते हैं। पर बाहर हवा तेज है, इसलिए बार-बार उन्हें भागना पड़ता है।)

जमना : आज तो इन्द्र देवता ने धरती को डुबा देने की सोच रखी है।

हरि : तीन दिन हो गए। साँस ली, न लेने दी! जल-थल एक कर दिया।

जमना : इस पर साहब न जाने कहाँ जाकर बैठ गए। एक हफ्ता हो गया...

हरि : पर बहूरानी को देखो, कितनी बेफिक्र है। सबसे यही कहती हैं कि घूमने गए हैं, लौट आएँगे। (बिजली की कड़क)

जमना : (काँप कर) हाय राम! मेरा तो दिल काँपता है! कैसी ऋतु है! ऐसे में मालिक कहाँ घूमते होंगे। कुछ समय में नहीं आता! बहूरानी मालिक के लिए रोज अखबार लेती है। रोज उनका हजामत का सामान तिपाई पर लगता है। रोज गुसल में पानी भरा जाता है। रोज मेज पर चाय आती है। रोज ताजा मक्खन खरीदा जाता है।

हरि : हाँ, काकी! समझ में नहीं आता। दोनों वक्त कपड़े रखता हूँ, मानो मालिक अभी आकर बदलेंगे। दोनों वक्त कार दरवाजे पर आकर हार्न देती है। गाड़ी आने के समय बहूरानी बार-बार टेलीफोन के पास बैठती है। न जाने मालिक कब आ जाएँ और स्टेशन पर गाड़ी माँग बैठें।

जमना : और तो और, रात को बिस्तर भी हमेशा ही तरह दो लगते हैं। कहती थी, जाते हुए आने का ठीक समय तो बता नहीं गए, न जाने किस वक्त आ जाएँ।

हरि : सच, काकी! क्या साहब आएँगे?

जमना : क्यों नहीं आएँगे? बहूरानी कहती है, तो जरूर आएँगे। बहूरानी ऊपर से बेफिक्र हैं, पर अन्दर से बस क्या कहूँ...

हरि : (सिर हिलाकर) कुछ पता नहीं, काकी! कुछ पता नहीं! सात दिने हो गए क्या कहूँ.. मर्द जब नाराज हो जाता है तो औरत... (तेज गरज, किवाड़ बजते हैं) कौन है बाहर?

जमना : किवाड़ तो खोल, कोई है! (हरि किवाड़ खोलता है)

हरि : कौन, बहूरानी! (बन्द करता है। रेवा का प्रवेश। पूर्वत : प्रसन्न दिखाई देने का प्रयत्न कर रही है। पर शरीर आलस्य और अवसाद से जकड़ा हुआ है।)

रेवा : कितनी तेज वर्षा है! प्रकृति मानो पागल हो उठी है। हरि, तुमने कार लाने को कह दिया?

हरि : जी, ड्राइवर अभी नहीं आया।

रेवा : (तेज) नहीं आया। क्यों नहीं आया। ये लोग... पर जाने तो। बाहर आँधी-पानी का प्रमाद क्या कम है? इस तूफान में कोई कैसे आ सकेगा? मैं खुद चला लूँगी। हाँ, कल तुम दरजी के पास गए थे...।

हरि : जी हाँ, कमीजें ले आया हूँ। अन्दर रक्खी हैं।

रेवा : अच्छा, तू कार को ठीक कर!

हरि : जी, इस आँधी-पानी में...

रेवा : तू बहस मत कर, आँधी-पानी में आना-जाना तो नहीं रुक जाता। जा!

हरि : जी! (जाता है)

रेवा : और काकी! तुम्हें मालूम है कि आज इतवार है।

जमना : मालूम है, बहूरानी! सब कुछ तैयार है, पर...।

रेवा : पर क्या?

जमना : पर मैं कहती थी, बहूरानी! मालिक का कुछ पता लगा? किसी को भेजा...

रेवा : (हँस कर) काकी, तुम बार-बार कैसी बातें करती हो, क्या वे बच्चे हैं, जो किसी को भेजूँ?

जमना : नहीं नहीं, बहूरानी! मैं यह नहीं कहती, पर...

रेवा : अब चिन्ता छोड़ो, काकी! वे जरूर लौटेंगे। हाँ, देर-सवेर और बात है, पर वे लौटेंगे जरूर...।

जमना : जरूर लौटेंगे?

रेवा : हाँ, काकी! जरूर लौटेंगे। कोई अपने घर से कब तक दूर रह सकता है? वे न भी आना चाहें पर उनका घर उन्हें बुला लेगा।

(हरि का प्रवेश)

हरि : बहूरानी।

रेवा : क्या है... बोलता क्यों नहीं रे! क्या हुआ?

हरि : (एकदम) बहूरानी! रंजन बाबू...।

रेवा : रंजन बाबू? क्या हुआ रंजन बाबू को?

हरि : रंजन बाबू आए हैं।

रेवा : रंजन? यहाँ इस समय?

जमना : रंजन बाबू आए हैं? कहाँ हैं?

हरि : ये रहे!

(रंजन का प्रवेश। वही रूप। वर्षा से तर। पानी टपकता हुआ। सबकी दृष्टि उठती और गिरती है।)

रेवा : तुम...।

रंजन : हाँ, मैं हूँ रेवा! तुम हैरान हो रही हो?

रेवा : तुम यहाँ क्यों आए?

रंजन : आए बिना रह नहीं सका, सो चला आया।

रेवा : लेकिन...।

रंजन : उतावली मत बनो! इस एक हफ्ते में मैंने इतना कुछ कर डाला है, जितना जीवन-भर न कर सका।

रेवा : तुमने क्या किया, क्या नहीं किया, इसका हिसाब मुझे नहीं लेना है।

रंजन : हिसाब जो ले सकती है, उसी को लेकर आया हूँ!

रेवा : (काँप कर) क्या?

रंजन : मैंने विवाह कर लिया रेवा! अचानक उस दिन जब तुमने निकाला, तो उसी रात को ट्रेन में एक लड़की से मुलाकात हो गई। बस मैंने मौका नहीं चूका। विवाह का प्रस्ताव कर ही डाला। अब उसी को लेकर तुम्हें प्रणाम करने आया हूँ।

रेवा : (तेज हो कर) इस आँधी-पानी में उसे ले कर तुम यहाँ आए हो? नहीं, नहीं, यह सब बहाना है! यह सरासर बहाना है! केशव की बात उस दिन नहीं समझी थी। पर आज समझी हूँ। तुम छल कर रहे हो।

रंजन : रेवा!

रेवा : मैं कहती हूँ, तुम यहाँ से चले जाओ! जब तुमने एक बार मुझे अस्वीकार कर दिया तो अब बार-बार मेरे जीवन को विषाक्त बनाने क्यों आते हो? देख क्या रहे हो, जाओ! तुम्हें यहाँ आने का कोई अधिकार नहीं था! तुम्हें...।

रंजन : (अधिकार से) रेबू!

रेवा : (साग्रह) जाओ रंजन, जाओ! मैं अकेली हूँ, मैं औरत हूँ। (तेज गर्जन-तर्जन)

रंजन : जाता हूँ, पर...।

जमना : रंजन, रुको! बहूरानी! बाहर तूफान चल रहा है। इन्हें कुछ रुक जाने को कहो!

रेवा : नहीं काकी, नहीं!

जमना : बेटी! इस आँधी-पानी में, इस तूफान में कोई कैसे जा सकता है?

रेवा : जैसे कोई आ सकता है, वैसे जा भी सकता है।

जमना : नहीं, नहीं, बहूरानी! नहीं। यह जुल्म है! इस घर के दरवाजे से अजनबी तक नहीं लौटे। ये तो...।

रेवा : काकी! तुम बार-बार घर की फिक्र करती हो, पर जिनसे घर है, उनका तुम्हें बिल्कुल ध्यान नहीं! जब घरवाला ही घर से बाहर है, तब(तेज कड़क, किवाड़ खुलते हैं) ओह किवाड़ बन्द करो। (देख कर) कौन है? (सहसा केशव का प्रवेश। बुरी तरह भींगा हुआ। सब चौंकते हैं) कौन है?

जमना : मालिक? यह तो मालिक हैं! (हर्ष से चीख कर) मालिक!

हरि : (हर्षातिरेक) मालिक!

केशव : अन्दर आने की इजाजत चाहता हूँ (खुले दरवाजे से तेज तूफान का शोर उठता है)

जमना : मालिक! अन्दर आ जाइए, तूफान आ रहा है।

केशव : बहूरानी! क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?

जमना : मालिक! (इधर दौड़ती है) बहूरानी! (उधर दौड़ती है) बहूरानी! बोलो बोलो! सात दिन से तुम तप कर रही थीं, अब मालिक आ गए हैं। उन्हें अन्दर आने को कहो, कहो! (मुड़ कर) मालिक! दरवाजा बन्द कर लो... कर लो। (आँधी चलती रहती है)

केशव : नहीं, दरवाजा इसी तरह खुला रहेगा। तुम्हारी बहूरानी ही अब इसे बन्द कर सकती है। बहूरानी! मैं तुमसे माफी नहीं माँगता, न्याय माँगता हूँ। बोलो, बोलो! तुम बोलती नहीं? तुम जा रही हो? (रेवा जो अब तक एकटक देख रही थी, तेजी से अन्दर शयनकक्ष में भागती है। केशव पुकारता है) जाती कहाँ हो, रेवा? रेवा! अगर तुम मुझे आने को नहीं कहोगी, तो मैं यहीं इसी दरवाजे पर पड़ा रहूँगा।

जमना : (भागती हुई) बहूरानी...बेटी, बेटी! कहाँ जाती है? (वह भी अन्दर जाती है) सुनो तो! (चीख कर) बहूरानी, बेटी... मालिक, बहूरानी बेहोश हो गई, जल्दी आइए। बहूरानी बेहोश हो गई...।

केशव : (काँप कर) बेहोश हो गई?

रंजन : (एकदम) बेहोश हो गई?... तब हम सबको अन्दर आने की इजाजत मिल गई। केशव बाबू, किवाड़ बन्द कर लीजिए।

(केशव अन्दर आकर किवाड़ बन्द कर लेता है। जमना दौड़ कर आती है। परदा गिरता है।)

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