समोसे की कहानी : गोपाल भाँड़
Samose Ki Kahani (Bangla Story in Hindi) : Gopal Bhand
"इन दिनों महाराज कृष्णचंद्र को बात-बेबात गुस्सा क्यों आता है ?" राजदरबार में लाख टके का प्रश्न था । प्रजा भी डरी हुई थी कि कहीं उन्हें महाराज का कोप-भाजन न बनना पड़े। महाराज के गुस्से आगे सबकी बोलती बंद हो गई थी।
उन दिनों किसी कारण सुबह - सुबह दरबार लग रहा था। महाराज और दरबारी सुबह का नाश्ता दरबार में ही कर रहे थे। एक सुबह महाराज ने राज- हलवाई को कहलवा भेजा कि उन्हें गरमा-गरम फुलको-लूची (मैदे की पतली पूड़ी) और आलू-दम चाहिए। हलवाई ने बड़े ही यतन से पूड़ी और आलू- दम बनाकर दरबार में भेजा। लेकिन महाराज ने यह कहकर लौटा दिया कि पूड़ी ठंडी पड़ गई है। अब तो हलवाई इतना डरा कि काटो तो खून नहीं! दोबारा, तिबारा, भेजा लेकिन वही शिकायत !
अब हलवाई ने महाराज को प्रसन्न करने की योजना निकाली। उसे स्मरण हो आया कि महाराज तो मिष्ठान्न पसंद करते हैं, क्यों न उन्हें मिष्ठान्न बनाकर भेजी जाए, क्योंकि मिष्ठान्न तो गरम खाने का नियम ही नहीं है। उसने दरबार में अनुमति पाने के लिए संदेश भेजा। लेकिन महाराज को पसंद होने पर भी वे मिष्ठान्न नहीं खा सकते थे। उन दिनों वे मधुमेह की बीमारी से ग्रस्त थे। राज चिकित्सक ने मीठा खाने से मना कर दिया था।
"क्या मजाक बना रखा है हलवाई ने ! वह राजाज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। वह अपना नियम हम पर लादना चाहता है। "
महाराज ने तुरंत उसे सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। अब तो राज-हलवाई के जान के ही लाले पड़ गए।
उसने राजा से विनती की कि उसे क्षमा कर दिया जाए। बहुत गिड़गिड़ाने पर राजा ने उसकी मृत्यु की सजा को बदलकर देश-निकाले की सजा दे दी। उसे तीन रात का समय दिया गया। तीन रात के अंदर ही परिवार सहित उसे राज्य छोड़कर जाना होगा। फिर ऐसा हुआ कि हलवाई की पत्नी ने राजा के पास प्रार्थना भेजी कि देश त्यागने से पहले उसे महाराज से मिलने का एक अवसर दिया जाए। दो रातें बीत गईं। तीसरे दिन हलवाई की पत्नी ने जाकर महाराज के चरण छुए।
"किस कारण मुझसे मिलने आई हो ?" राजा ने क्रोध में पूछा ।
"महाराज! आज्ञा हो तो एक बात कहूँ?" हलवाईन (हलवाई की पत्नी) ने गिड़ - गिड़ाते हुए विनती की। उन्होंने आज्ञा दे दी।
"महाराज! मैं इस प्रकार पूड़ी और आलू-दम बना सकती हूँ कि आधा घंटा बाद खाने पर भी वह गरम ही रहेगा। साथ ही यह सावधानी बरतरने की बात है कि उसे जरा संभल कर खाया जाए, क्योंकि अधिक गरम मुँह में डालने पर जीभ जलने का डर है।" हलवाईन ने आत्मविश्वास से भर कर कहा ।
महाराज कृष्णचंद्र को कुछ आश्चर्य हुआ, उन्होंने दरबार के विशेष सदस्य गोपाल की ओर मुड़कर देखा । गोपाल ने कुछ न कहकर केवल सिर हिला दिया। इसका अर्थ यह था कि हलवाईन को एक अवसर देकर देखना चाहिए कि वह कौन-सा गुल खिलाती है ? महाराज ने आज्ञा दे दी। शर्त यह लगा दी कि जैसे ही दरबार से सूचना जाए वैसे ही तुरंत उनके लिए नाश्ता बनाकर भेजा जाए।
"जो आज्ञा महाराज, आशा है कि मैं आपको अवश्य संतुष्ट कर पाऊँगी।"
यह कहकर वह फिर एकबार महाराज के चरण छूकर सीधे रसोई की ओर चली गई। गोपाल ने केवल मुस्कुराकर मंत्री की ओर देखा ।
"सबसे पहले मैं चखकर देखूँगा कि वह खाद्य सामग्री महाराज के खाने योग्य है भी या नहीं।" मंत्रीजी ने गोपाल की चुप्पी को आड़े हाथों लेते हुए कहा।
इस बार भी गोपाल चुप ही रहे। गोपाल की चुप्पी को मंत्री अपनी हेठी समझने लगा। वह मिर्च- मसाले -सा जलकर दाँत किटकिटाता रहा और गोपाल मुस्कुराता रहा।
हलवाईन ने राजा के रसोइये को बुला भेजा और मैदा सान कर उससे पतली और छोटी पुड़ियाँ बेलने को कहा। हलवाई तो इतना डरा हुआ था कि उसके हाथ-पैर सुन्न पड़ने की परिस्थिति आ गई। अब हलवाईन ने आलू-दम कुछ सूखा हुआ-सा बनाया, फिर उसने उन्हीं बेली गई कच्ची पुड़ियों में आलू दम के पूर भर-भरकर बड़े-बड़े पान के बीड़े जैसी बड़ियाँ बनाने लगी। वे बड़ियाँ सम- बाहु त्रिभुज - सी तिकोनी मोटी-मोटी दिख रही थीं। रसोइया भी कम डरा हुआ न था ! वह भी काँपने लगा था यह सोचकर कि न जाने आगे क्या हो ! हलवाई को तो हलवाईन का साहस देखकर चक्कर आने लगे थे। अब रसोइया और हलवाई जितना डरे हलवाईन उतना ही उनका मजाक बनाए। उसे पूरा विश्वास था कि वह अवश्य सफल होगी।
राजा जी की आज्ञा आते ही हलवाईन ने पहले समबाहु त्रिभुज की आकृति वाले पान के बीड़े नुमा आलू- दम भरे हुए पुड़ियों को खौलते घी में डाल दिया।
"छनन-छन ! छनन-छन !!" पूड़ी की बड़ी-बड़ी तिकोनी बड़ियाँ अपनी नाच दिखाने लगीं। वे जितनी बड़ी बनी थीं उससे भी बड़ी मोटी-मोटी बन गईं। यह देख हलवाई और रसोइया दोनों के चेहरों पर प्रसन्नता की रेखाएँ खींच गईं। हलवाईन ने वैसी ही दस बीड़े-नुमा पुड़ियाँ बना डाली। अब महाराज के सामने उन्हें परोसना था। हलवाई और रसोइये ने पहले ही इंकार कर दिया कि वे इस कार्य में सहयोग नहीं कर सकते। एक बड़ी-सी थाली में उन्हें सजाकर हलवाईन स्वयं ही दरबार में ले गई।
महाराज ने जब उन्हें देखा तो उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। "इनका नाम क्या है? खाने से पहले इनके नाम भी तो जान लूँ।" महाराज ने मुस्कुराकर पूछा।
"इनके नाम 'समभुजा' हैं, इसे धीरे-धीरे मजे से चबा-चबाकर पूरा स्वाद लेते हुए खाएँ । कदापि एक ही बार में मुँह में न डालें, नहीं तो जीभ जल जाएगी।" हलवाईन ने पूरे आत्मविश्वास से भरकर कहा। नियमानुसार पहले मंत्रीजी को चखना था। उन्होंने हलवाईन की बातों को नहीं माना और पूरा- का पूरा समभुजा एक बारगी मुँह में ठूंस लिया। अरे यह क्या! मंत्रीजी का मुँह तो खुला का खुला रह गया! गरम इतना कि मुँह के सामने हाथ ले जाकर पंखा करने लगे। महाराज तो मंत्री की हालत देखकर ठठाकर हँस पड़े। फिर उन्होंने बड़ी सावधानी से एक समभुजा को तोड़कर उसका छोटा-सा टुकड़ा मुँह में डाला। अब तो दृश्य यह था कि महाराज इधर-उधर बिना देखे एक के बाद एक का स्वाद लेने लगे। मंत्री ने किसी तरह पूरा बीड़ा निगलकर ठंडा पानी मंगवा लिया। ऐसे समय पर हलवाईन उन्हें कुछ कहती कि गोपाल ने इशारे से मना कर दिया। उसने अब कुछ पूछने का साहस नहीं किया। दरबारियों की आँखें एकबार महाराज की ओर घूम जातीं तो दूसरी बार साहसी हलवाईन की ओर।
महाराज ने खा-खाकर कुछ भी न कहा । उन्होंने केवल यह किया कि अपने गले से मोतियों की तीन-तीन लड़ियाँ निकालीं और हलवाईन के गले में डाल दीं। तब तक राज रसोई तक सूचना पहुँच गई कि महाराज बहुत प्रसन्न हैं। हलवाईन और पचास समभुजा छानकर ले आई। समभुजा खाने का जो दौर चला तो गोपाल जीभ लपेट-लपेटकर मुँह बना- बनाकर समभुजा खाने लगा। उधर मंत्रीजी का लाल-पीला चेहरा देखने लायक था। वे केवल सबको आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे।
इस पर इधर मंत्रीजी की जग हँसाई खूब होने लगी तो उधर हलवाईन की बड़ाई के पुल बाँधे जाने लगे। महाराज ने उसे राज- रसोई में मुख्य रसोइये की नौकरी दे दी, साथ ही दण्ड भी वापस ले लिया।
महाराज कोई छह माह तक लगातार इस समभुजा का आनंद लेते रहे। इन दिनों शाम होते ही महाराज के होंठों पर हँसी खेलने लगती थी। दरबार में शांति विराजने लगी। जनता ने चैन की सांस ली।
यह बात लगभग ढाई सौ वर्ष पुरानी है। उन्हीं दिनों कलिंग प्रदेश, वर्तमान ओड़ीसा राज्य में गिरिधारी बेहरा नामक एक हलवाई अपनी धर्म-पत्नी धरित्री देवी के साथ बंगाल के कृष्णानगर राज्य के राज दरबार में आए थे। उन्हें महाराज ने राज-हलवाई के रूप में अपनी सेवा में रख लिया था।
गोपाल ने भी धरित्री देवी का लोहा मान लिया। उसने भी धरित्री देवी के सम्मान में बड़ाई के पुल बाँध दिए ।
हलवाईन की सम-भुजा ही बाद में चलकर समोसा या सिंघाड़ा नाम से प्रसिद्ध हो गया। लेकिन यह दुःख की बात है कि धरित्री देवी का नाम काल के गाल में समा गया जब कि हमारे गाल में अगर सिंघाड़ा या समोसा हो तो क्या कहने!
अब आपसे यह पूछा जाए कि समोसे की माँ या आविष्कारक कौन है तो आपका उत्तर क्या होगा ?