समिधा (कहानी) : हिमांशु जोशी
Samidha (Hindi Story) : Himanshu Joshi
“हाँ,भूला भी। भटका भी। जानबूझकर। दूसरों को राह दिखलाने से पहले स्वयं भी तो पथहीन होना पड़ा।” एक गहरी निःश्वास निकली। देर तक उन दूर रखे सुरा के कुछ रीते, कुछ छलकते प्यालों पर दृष्टि गड़ी रही। अन्यमनस्क भाव से फिर कहा, “देखती हो गणिके, मदिरा के सागर और यौवन की आँधी में सब कुछ विलीन हो जाता है न! विलीन ही नहीं, बदल भी तो जाता है मनुष्य पशु में, मानवता दानवता में।”
तभी सहसा जैसे याद आया। उत्सुकता से पूछा, “कुमारदास को जानती हो देवी?”
“हाँ, जानती ही नहीं, भलीभाँति पहचानती भी हूँ?”
“महान् सम्राट् जीवनदास की यशस्वी परंपरा का निर्वाह तो हो रहा है न! प्रजा में सुख, समृद्धि, शांति!” कुछ रुककर पूछा।
इस बार अधरों में व्यंग्य मुसकान लाती हुई वह बोली, “सुख-शांति कितनी है, देखते नहीं! जन-हित के नाम पर निरीह सिंहलीय जनता पर जो अमानुषिक अत्याचार किए जा रहे हैं, वे क्या कभी भूले जा सकते हैं? सारे राज्य में हाहाकार मचा हुआ है। दुर्भिक्ष है। महामारी का प्रकोप है। लेकिन, शासकों को सुरा-सुंदरी से ही समय नहीं मिल पाता। मुझ-सी गणिकाओं के इंगित मात्र पर दीन-हीन जनता के भाग्यविधाता कठपुतलियों की भाँति नाच रहे हैं आज। धिक्कार है कुमारदास को, जिसने यशस्वी जीवनदास के कुल को कलंकित किया।”
सामने बैठे व्यक्ति की ओर देर तक घूरकर देखती रही। फिर तनिक उपेक्षा से मुँह बनाकर बोली, “अपने को ही क्यों नहीं देखते? दार्शनिक, पंडित-से लगते हो। लेकिन यौवन के हाट से रसिक बनकर आए हो। क्या कभी अपने स्फटिक केशों की भी प्रतिच्छाया देखी दर्पण में?”
“लेकिन, लेकिन, मेरा तात्पर्य...!”
“हूँ!” गणिका ने घृणा से देखा।
बैठे व्यक्ति ने जैसे कुछ देखा-सुना ही नहीं। गणिका के वे ही शब्द कानों पर बार-बार गूँजते रहे—“धिक्कार है कुमारदास को, जिसने यशस्वी जीवनदास का कुल कलंकित किया...।” सोचा, जिसकी आशंका थी आह, वही होकर रहा! स्वप्न में भी जिसे न सोचा, न विचारा, कल्पना भी जिसकी न की, वही हुआ आज! अवंतिका के बणिकों से जब पहली बार सुना तो विश्वास ही न हुआ होता। होता भी कैसे? इतना सुचरित्र, सुशील कुमार एक दिन वैभव की बाढ़ में इस भाँति बह जाएगा, मद के प्याले और गणिका के चरणों में लुंठित हो सबकुछ बिसरा बैठेगा, इसका क्या पता था! आँखें मीचे वह बैठा रहा। वे क्षण पलकों पर घूमने लगे, जब उज्जयिनी से पग आगे बढ़ाए थे। दिन ढले, महीने बीते और अब वर्ष से भी अधिक हो चला, जब सिंहल की राह ली। तूफान-आँधी, वर्षा-घाम कुछ भी न देखा। विंध्य, नीलगिरी की-सी कितनी अनगिनत पहाड़ियाँ, दुर्गम उपत्यकाएँ पार कीं, क्या यही भ्रम सत्य देखने के लिए? हलकी सी निःश्वास निकली।
निकट ही कक्ष में झनझनाते नूपुरों की ध्वनि से स्वप्न-सा भंग हुआ। भारी पलकें ऊपर उठाई तो देखा कि गणिका वैसी ही ठगी-सी निहार रही है।
धीरे से उठते हुए फिर कहा, “क्षमा करना देवी, जिन प्रयोजनों से सिंहल के इन वेश्यालयों में, मधुशालाओं में भटक रहा था, तुम्हारी बातों ने आज उसे पूर्ण कर दिया।” फिर द्वार की ओर उसने मुँह फेरा।
यह भी क्या विचित्र जीव है गणिका सोचती रही—खोया-खोया-सा न जाने क्या खोज रहा है? धरती पर भी है, आकाश पर भी। बातें यहाँ की, सोचता कहीं और की है। विक्षुब्ध, तनिक दयनीय-सा प्रतीत होता है। बावला तो नहीं। आकार-प्रकार, चाल-ढाल से सुशिष्ट-सा लगता है। कौतूहलवश तनिक कृत्रिम सहानुभूति से पूछा, “क्या प्रयोजन पूर्ण हुआ भद्र?”
प्रत्युत्तर में मौन मिला।
तब अधिक आत्मीयता का अभिनय करती हुई बोली, “अतिथि से लगते हो, किसी सुदूर देश के। दो घूँट, शीतल जल ग्रहण कर लो। फिर प्रस्थान करना।”
गणिका जल लेने चली गई। वह निकट रखी चौकी पर सहज भाव से बैठ गया।
चतुर गणिका की तीक्ष्ण दृष्टि से उसका पांडित्य छिपा न रह सका। जल-पात्र आगे बढ़ाती हुई बोली, “सिंहल के तो नहीं, सुदूर उत्तर के प्रतीत होते हो?”
“हाँ, प्रतिवेशी देश का परिव्राजक हूँ।”
“देवभाषी से लगते हो?” कुछ बढ़कर बोली।
उसने केवल सिर हिला दिया। बोला कुछ भी नहीं। वैसा ही मौन बैठा रहा।
गणिका और निकट आ बैठी। स्निग्ध स्वर में बोली, “एक समस्या का समाधान न कर सकोगे परिव्राजक! देवभाषी हो न?”
“क्या?”
“ले...कि...न...।”
“लेकिन नहीं, स्पष्ट कहो। क्या समस्या-पूर्ति है? समय मुझे अधिक नहीं।”
गणिका भागती हुई निकट कक्ष से एक आम्रपटिका उठा लाई। उसे आगे बढ़ा दिया। मयूरपंख को लेखनी से फिर अंकित किया—“कमले कमलोत्पत्तिः श्रुयते, न द्रश्यते।” (कमल से कमल की उत्पत्ति होती है, यह सुना ही जाता है; देखा नहीं।)
कुम्हलाए होंठों पर इस बार मुसकान की हलकी रेख-सी खिंच गई। उसी मयूरपंख से उसने भी वह अपूर्ण समस्या हल कर दी—“बाले, तव मुखाम्भोजे कत इन्दीवरं द्वै?” (हे बाले, तब तुम्हारे मुख-कमल में ये दो नेत्र-रूपी नील-कमल कहाँ से आए?)
गणिका मुसकरा उठी। सहसा खिल पड़ी। करतल पीटती प्रसन्नता से बावली सी हो नाचने लगी। समस्या पूर्ण हुई। ओह, पूर्ण हो गई!
परिव्राजक समझ कुछ न पाया। तत्परता से दो घूँट जल ग्रहण कर भारी-भारी डग भरता हुआ बाहर की ओर बढ़ा।
तभी गणिका को जैसे कुछ याद आया। अचकचाती हुई आश्चर्य से चीख पड़ी—“ओह, परिव्राजक किधर?”
द्रुतगति से भागती वातायन की ओर बड़ी। झाँका इधर-उधर। देखा कि वह सिंहद्वार से पार हो रहा है। शीघ्रता से रक्षकों की ओर संकेत करती हुई बोली, “साम, दाम, दंड, भेद जैसे भी हो, उसे उपस्थित करो।”
बाहुपाशों में बाँधकर रक्षकों ने उसे रंगशाला के अंतःकक्ष में ला खड़ा किया। परिव्राजक समझ न पाया कुछ भी। विस्मय से गणिका की ओर देखता हुआ बोला, “यही शिष्टता है इस देश की? अपरिचित अकारण बंदी!”
“हूँ! अकारण भी क्या कोई कार्य होता है? तुम्हारा पांडित्य ही, अभागे परिव्राजक, आज तुम्हारे लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है। अब तुम बंदी हो, राजगणिका के बंदी! जिससे जीवन भर भी उन्मुक्त न हो सकोगे!” भृकुटि चढ़ाती हुई गणिका बोली।
“अतिथि सेवा की यही परंपरा है यहाँ?”
“इतने ज्ञानी होकर भी कितने अज्ञान बन रहे हो भोले पंडित! इतना भी नहीं समझते कि भला-बुरा भी संसार में क्या कुछ होता है? जब जैसी स्थिति होती है, वैसा कार्य किया जाता है—इसे ही कहते हैं नीति! अतिथि तब भी थे, अब भी हो, लेकिन केवल दो घड़ी के।”
“यह क्या?” आँखें फाड़े उसने देखा।
“हाँ, हाँ! समस्या की वास्तविक पूर्ति के लिए तुम्हारे प्राण...!”
“लेकिन, गणिके, सुनो...सुनो।”
गणिका ने कुछ न सुना। वह फट-फट अंदर चली गई।
परिव्राजक की आँखों के आगे घना अंधकार-सा छा गया। कुछ भी सूझ न पा रहा था उसे। अभी यह दया, सहानुभूति और अभी काल-भैरवी का-सा विकराल स्वरूप। यह सब क्या? दैव, तेरी विडंबना...।” एक कंपित आह हृदय को चीरती निकल पड़ी।
तभी सहसा दृष्टि पड़ी। देखा, तीन खड्गधारी, स्थूलकाय दैत्य यमदूतों से खड़े हैं। चारों ओर से द्वारों में अर्गला और आवरण चढ़ गए हैं। प्रकाश भी धूमिल- धूमिल सा प्रतीत हो रहा है। गणिका पिशाचिन-सी विकराल इधर-उधर भटक रही है। हृदय में उमड़े भीषण झंझावात को दबाने में विवश है।
तभी एक गर्जना-सी हुई।
“ओह!” एक भयंकर चीख रंगशाला के हृदय को बेधती शून्य में विलीन हो गई। और छा गया श्मशान का-सा सन्नाटा!
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“अबूझ गणिका और समस्या की पूर्ति। यह क्या सत्य है?” विस्मय से मुसकराते हुए सिंहलाधीश बोले, “गणिके, पुरस्कार प्राप्त करने से पूर्व इसका प्रमाण भी तो देना होगा!”
“देव, सत्य के लिए क्या प्रमाण की आवश्यकता होती है?”
“सत्य! तुम सत्य कह रही हो? सिंहल के प्रकांड पंडितों के लिए भी जो आज तक एक पहेली है, एक अज्ञान, अबूझ गणिका से वह कैसे संभव हो सकती है? अधिक बनने का प्रयत्न न करो गणिके! स्पष्ट कहो, यह पूर्ति किसने की? अब वह कहाँ है?”
गणिका के पाँवों की धरती खिसकने लगी। शब्द गोला बनकर गले में अटक रहा था। बोल कुछ भी न पाई। केवल नतमस्तक खड़ी रही।
“बोलती क्यों नहीं, वह कौन था?” महामात्य ने सिंह-गर्जना के साथ कहा।
“वह, वह, परिव्राजक...!” भय से वह काँप उठी थर-थर।
प्रसन्नता से सिंहल नरेश की आकृति खिल उठी। “सुना, महामात्य! सुना तुमने? उसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। हमारा उद्देश्य अवश्य सार्थक सिद्ध होगा!...अच्छा गणिके, बतलाओ, वह कहाँ गया फिर? और तुम्हारे द्वार पर क्यों आया?”
“महाराज, गणिका के द्वार पर कोई क्यों आता है और फिर कहाँ से आकर कहाँ जाता है, यह भी कोई प्रश्न है?” हकलाते हुए उसने कहा।
“असंभव है! वह गणिका की रंगशाला में आए और कुमारदास के राजप्रासाद में नहीं, यह कभी हो सकता है? जानती नहीं हो, गणिके, वह कौन है? अधिक चातुर्य प्रदर्शन का प्रयत्न न करो। सत्य-सत्य बोलो। तुम्हें मुक्त ही नहीं, पुरस्कृत भी किया जाएगा। लेकिन, यदि असत्य भाषण का प्रयत्न किया तो समझ लो, जीवित ही भूखे सिंहों के कठघरे में फेंक दी जाओगी। जानती हो, सिंहल का दंड-विधान?”
गणिका को ही दिन में तारे झिलमिलाते दीख रहे थे। सूझ कुछ भी न पड़ता था। लग रहा था—धरती-आकाश सब घूम रहे हैं। चारों ओर की वस्तुएँ चक्कर काट रही हैं, परिधि के चारों ओर। तभी पाँव लड़खड़ाए। अचेत हो धड़ाम से वह गिर पड़ी।
पलकें जब खुलीं, चेतना आई तो चारों ओर देखा—ऊँची-ऊँची दीवारों के घेरे। सुदृढ़ लौह-सीखचों के द्वार। और शृंखलाओं से जकड़ी देह।
नैराश्य भाव से सिंहल नरेश बोले—“महामात्य, अब क्या होगा? कैसे सुलझेगी यह ग्रंथि? क्या कुछ भी वह बोलती नहीं?”
“बोलती तो है देव, लेकिन निरर्थक। अब संदेह नहीं कि वह पूर्णतया बावली हो चुकी है।”
“बावली हो गई तो होने दो। गुप्तचर भी तो हैं न! महामात्य, इस संबंध में मैं अधिक सुनना नहीं चाहता। शीघ्र पता लगना ही चाहिए।” झल्लाए नरेश बोले। महामात्य के माथे पर गहन विषाद की गहरी रेखाएँ उभर आईं। वृद्धावस्था से झुकी देह और झुक आई। अब इस जीवन संध्या में न जाने क्या-क्या देखना पड़े? क्या होगा, क्या नहीं? समाधान का किनारा जैसे कहीं पर खो चला।
समस्त राज्य के दक्ष गुप्तचर इस कार्य में जुट गए। तभी कुछ दिनों बाद एक रहस्य का उद्घाटन हुआ। महाराजाधिराज को सूचित किया गया कि गणिका की रंगशाला के गर्भ में धरती में गड़ा एक क्षत-विक्षत शव मिला है। अस्थि-मांस के छोटे-छोटे लोथड़े घड़ों में भरे पड़े हैं, जिनसे इतनी दुर्गंध आती है कि वहाँ पर ठहरना तो दूर रहा, पल भर खड़ा होना भी संभव नहीं।
“हैं! यह क्या?” सिंहल नरेश का माथा ठनका—“किसके अवशेष? किसका शव? कुछ चिह्न नहीं महामात्य, जिससे वास्तविकता का पता चले?” अधीर हो उन्होंने कहा।
“देव, शव तो क्षत-विक्षत है?”
फिर सहसा जैसे कुछ याद आया। कहा, “अच्छा, देखो। रंगशाला के समस्त व्यक्तियों को बंदी बना लो।”
“रंगशाला ही क्या, वेश्या का सारा घर सूना पड़ा है। उसके कारावास के पश्चात् सभी अज्ञात स्थलों को पलायन कर गए हैं।”
“तो क्या कोई प्रमाण या चिह्न नहीं मिल पाएगा, सभासदो?” कातर भाव से नरेश बोले, “महामात्य, फिर क्या होगा?”
“एक उत्तरीय और कुछ भोजपत्र पड़े हैं। मिट्टी में दबे रहने से गल गए हैं। उससे क्या ज्ञात हो सकेगा? लेकिन हाँ, एक आम्रपटिका मिली है, जिसमें वही समस्या और वही पूर्ति दो विभिन्न अक्षरों में लिखी हुई है। संभव है, उससे कुछ ज्ञात हो जाए!”
कुछ घटिकाओं के पश्चात् समस्त सामग्री उपस्थित की गई। सड़े-गले भोजपत्रादि से क्या पता चलता? लेकिन, आम्रपटिका के निम्न भाग में उस पूर्ति को देखकर कुमारदास चीख पड़े—“कालिदास, का लि दा स...अ...भा...गे... कालिदास...तु...म!” मूर्च्छित हो सिंहासन से गिर पड़े।
दो-तीन दिन तक दशा यही रही। तीसरी शाम मानसिक स्थिति में तनिक सुधार हुआ। जानना चाहा, शव का क्या हुआ?
“अभी तक भी क्या वह यों ही पड़ा है!” दुःखित हो कुमारदास बोले, “तुम्हारा विवेक भी क्या कुंठित हो चला महामात्य? समझ क्यों नहीं लेते, दुराचारी कुमारदास अब न रहा। एक कर्तव्यच्युत, पथभ्रष्ट शासक की आज्ञा की भी क्या कभी प्रतीक्षा की जाती है? देख क्या रहे हो, सभासदो! जो उचित समझो, करो। लेकिन, मेरी तो केवल यही प्रार्थना है कि उस उज्जयिनी के महापंडित की जो दुर्गति इस ढंग से हुई, इस कलंक के प्रक्षालनस्वरूप बन पड़े तो मृतक देह का वैसा ही सम्मान कर देना।”
निकट ही सरिता के सुरम्य तट पर एक पर्वताकार चंदन की चिता लगाई गई। केसर-कर्पूर से आच्छादित इंद्र-धनुषीय रेशमी दुकूलों से उसे सँवारा गया। और रंग-बिरंगी पुष्प मालिकाओं से सुसज्जित कर एक अनोखा रूप दे दिया उसे। वेदना से एक ओर रक्तिम सांध्य गगन जल रहा था। दूसरी ओर धधक उठी वह सुमनों की समिधा। नागिन की जिह्वा-सी लपलपाती लपटें आकाश को छू रही थीं। धुएँ के काले-काले अभ्रयान घुमड़ रहे थे। सुदूर नीलाकाश में सावन-भादों के विरही कजरारे बादलों के दल घिर-घिरकर बढ़ते जा रहे थे। उमड़-घुमड़कर जैसे खोज रहे हों। आँखों में आर्द्रता लिये कह रहे हों—कहाँ हो कालिदास! क्या अपना संदेश अब न भेजोगे...यक्ष की अलका नगरी! तुम्हारी...उज्जयिनी...कालिदास...!
चारों ओर शोक-संतप्त उमड़ा जन-सागर श्रद्धा से नतमस्तक खड़ा था। समीप ही विक्षुब्ध कुमारदास चिता की ओर अपलक निहारते हुए किसी दूसरे ही लोक में विचरण कर रहे थे।
“कुमार, मृत्यु से पूर्व सिंहल एक बार अवश्य आऊँगा।” यही तो कहते थे कालिदास, “तब तुम शासक होगे इस सुसंबद्ध स्वर्ण देश के! बोलो, क्या स्वागत करोगे पंडित का?”
“सम्मान सदा ही समझो! लेकिन यदि मैं दुराचारी निकला और देश की अधोगति हुई, तब?”
“नहीं, तब तो अवश्य ही आएगा कालिदास! भले ही विश्व के किसी भाग में हो, जीवित रहा तो निश्चय ही पहुँचेगा कुमार!”
“काल्पनिक जगत् में विचरण करनेवाले...।”
“नहीं-नहीं, यह न भूलो कुमार, कालिदास प्रत्यक्ष प्रमाण पर ही आस्था रखनेवाला है। कल्पित बातों पर नहीं!”
व्यंग्य से मुसकराते हुए यही कहा था न, “दुराचारी द्वारा स्वागत भी तो दुराचार का ही होगा...”
—तब तुमने क्या उत्तर दिया? क्या कहा था—कालिदास...। बिना बुलाए अतिथि तुम आज मेरे द्वार तक आए! और तब तुम्हारा यह स्वागत? यह सम्मान!!
कुमारदास की आँखें टप-टप चू पड़ीं। बड़ी-बड़ी बूँदें रेती की प्यास बुझाती रहीं। तब उत्तेजित, दुःखित भावावेश में अपने को रोक न पाए। सहसा धधकती ज्वाला में स्वयं भी कूद पड़े।
जनसमुदाय में हाहाकार मच गया। चिता घेरकर सब खड़े हो गए। कुछ ही क्षणों में शोकातुर हो पाँचों रानियाँ भी उन्हीं लपटों में विलीन हो गईं।
आग बुझी। अंगारे शीतल हुए। राख बनी और तट की चंचल लहरों ने अपने आँचल में समेट भी ली। समय के निर्मम हाथों सब सजा और समाप्त भी हुआ। लेकिन, उसी अभागे दिन की स्मृति में, प्रतिवर्ष आज भी सावन-भादों में विशाल मेले का आयोजन होता है। सिंहल द्वीप के अनेक भागों से नाना भाँति के श्रद्धालु एकत्रित हो दिवंगत आत्माओं के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
‘निवला-गंगनील’ की धवल बालुका भरी तट पर ‘हतबोध-वृक्ष’ की सघन, शीतल छाया में सोई वह समाधि आज भी, यह करुण कहानी सुनाती है—संस्कृत साहित्य के अमर, अमिट सौभाग्य सिंदूर तुम मिटे भी तो कैसे!
(दैनिक हिंदुस्तान, 9 अगस्त, 1957 से)