साक्षी (मलयालम कहानी) : टी. पद्मनाभन

Sakshi (Malayalam Story in Hindi) : T. Padmanabhan

सरोवर और सरोवर के उस पार की पहाड़ियों की ओर देखकर काफी देर तक बैठा रहा तो लगा कि अरूप और अनदेखा सा कोई व्यक्ति उन्हें अपनी ओर आमंत्रित कर रहा है। वह आँखें मूंद उस ओर कान देकर निश्चल खड़े रहे। छुट्टी का दिन होने पर भी मजदूरों के पत्थर तोड़ने की आवाज, मिट्टी हटानेवाले यंत्रों की गूंज, लॉरी से लोहे की पटरियाँ उतारते समय निकलनेवाला घोष तथा सीमेंट और गिट्टियाँ बड़े कटाहों में...। किंतु इन सबके ऊपर ऐसी एक निराली आवाज, जिसे मात्र वे सुन सके, जैसे कोई पंछी जल को छुआअनछुआ सा सरोवर के ऊपर से अनायास उड़कर अपनी ओर आ रहा है।

दोपहर होने लगी थी।

रसोईघर से नौकरों के आपस में फुसफुसाने की आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ती है। वातावरण में मसाले में पकनेवाले मांस की गंध छाई हुई है। थोड़ी देर तक कुछ सोचते रहने के बाद वे बाहर निकलकर सरोवर को लक्ष्य करके चले।

उनकी पत्नी कमरे में चैन से सो रही थी।

धूप में गरमी के होने पर भी अभी-अभी थम गई बारिश की बूंदों को छिड़कते हुए पीली चिड़ियाँ उड़ती गई। वे सड़क को छोड़कर पगडंडी से होकर चलने लगे। तमिलनाडु और आंध्र से आए गँवार मजदूर बड़ी -बड़ी गठरियाँ लादे शोरगुल मचाते उनके सामने से गुजर रहे थे तथा बाड़ों के उस तरफ से काली गाएँ सिर उठाकर उनकी ओर देख रही थीं, किंतु वे कुछ भी देख नहीं रहे थे। उनके सामने बस सरोवर था। बरसात में लबालब भरा रहनेवाला और काले रंग का सरोवर। सरोवर के जल में पहाड़ियाँ प्रतिबिंबित थीं। बादलों का गाढ़ा आलिंगन करनेवाली पहाड़ियों की तराई के श्याम और घने जंगलों में...।

उन्हें याद आया। जंगलों में चंपे के फूल खिले होंगे।

चंपकाशोक पुन्नाग सौगंधिक लसलकचा
कुरुविन्दमणिश्रेणी कनत् कोटीरमण्डिता...

बंद दरवाजे को ढकेलते हुए कमरे के अंदर जिस प्रकार ठंडी हवा घुस जाती है, उसी प्रकार मन में पुरानी यादें उथल-पुथल मचाने लगीं। बरसात की धुंधली संध्या। बाहर विशेष ताल–क्रम में चढ़ती-उतरती वर्षा का संगीत सुनने के लिए रात में बिना सोए लेटनेवाला एक बालक...

पगडंडी से वह सरोवर के किनारे की तरफ जानेवाले रास्ते की ओर उतरे। उस कच्चे रास्ते से चलते वक्त वे सोच रहे थे।...भला, मुझे यहाँ आए कितने साल हो गए, चार...? नहीं, चार साल पूरा होने जा रहे हैं।

पहले दूर की कंपनी के मैनेजर लोग आए। उनके साथ गोरे और देशी इंजीनियर भी आए। स्वयं वह भी उनके साथ आए थे। उस समय वहाँ सरोवर नहीं था। पहाड़ियों के बीच फैली हुई केवल यह तलहटी थी।

तलहटी में लोग पीढ़ियों से खेती करते आ रहे थे।

किंतु वे ज्यादा दिन खेती न कर पाए।

नए बनाए रास्ते से बड़े-बड़े यंत्र कराहते हुए आए। चट्टानों को तोड़नेवाले यंत्र, मिट्टी हटानेवाले यंत्र, कंक्रीट कूटनेवाले यंत्र। देखते-देखते तलहटी के आर-पार काले पत्थरों का एक बाँध बन गया। इंजीनियर ने दूर की नदी से नाला बनाकर जल तलहटी तक पहुँचा दिया, साथ-साथ क्रुद्ध-रुद्ध और दहाड़ मारकर आनेवाली पगली की भाँति भीषण वर्षा भी आई। फिर तो क्या, वहाँ तलहटी नहीं रही।

उनके देखते-देखते वह पुराना जनपद मिटता गया।

चौबीसों घंटे मधुशाला में रहने के बावजूद भलमानुस और परोपकारी शंकर, कृष्णन नायर, जिसने दारू पीने के लिए अपना सबकुछ बरबाद किया, पिल्लै साहब, जो जिंदगी भर 'कल के नागरिकों' को ढालने के कठिन प्रयत्न में लगे रहे तथा अंत में 'लैंड एक्विसिशन' के कर्मचारियों के छल में फँस गया। मत्ताई, जिसने सबसे पहले रबड़ के पेड़ लगाए; मैथ्यू, जिसने सरकारी भूमि हड़प लेना एक कला तथा कारोबार के तौर पर अपनाया, पथभ्रष्ट होने को विवश हुई कुट्टियम्मा, 'आखिरी क्रांति' की संकल्पना बुनने में व्यस्त रहे लोकसेवक परमेश्वरन नायर, अय्यप्पन कुट्टी, जो अपने से बहुत ही कम उम्रवाले लड़के के साथ अपनी माता के भाग जाने के अपमान—भार में दहकता रहा...ऐसे न जाने कितने-कितने चेहरे! सबके सब चले गए।

पुराने श्मशानों के ऊपर एक नया कारखाना और एक नया जनपद फिर से बसे। कण्णूर और कल्लडा से आए लोग, आंध्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश तथा बिहार से आए लोग, युवक, अधेड़...

वे सबके साक्षी रहे। उस महानाटक के छोटे-छोटे वृत्तांत लिखकर उन्होंने चुपके से आत्मा की अथाह गहराइयों में छिपाकर रखा। कभी-कभार पुराने दोस्तों से कहीं मुलाकात होती, वैसे उनके दोस्त बहुत ही विरले ठहरे, तो वे पूछ बैठते-"तुम एक उपन्यास क्यों नहीं लिखते?"

वह कुछ नहीं कहते, दोस्त फिर कहते-

कुछ लिखे कितने साल हो गए? देखो, लोग अब तुम्हें याद नहीं करते। लिखो; कुछ तो लिखो।"

वे सिर्फ मुसकरा देते, किंतु वह मुसकराहट सिर्फ बाहर से थी। अंदर भूसी की आग जल रही थी। किसी से कुछ नहीं कहा। कहने पर किसी की समझ में कुछ आएगा भी नहीं। आग हमेशा अंदर जलती रही।

उन्हें बहुत खेद था, लेकिन फिर भी उन्होंने नहीं लिखा। रात की एकांत निस्तब्धता में यों ही झटपटा उठने पर पसलियों के बीच से एक नुकीली तूली के समान वह याद...।

बच्चे को पास बिठाकर एक माँ धूप में पत्थर तोड़ रही थी। पहले उनकी दृष्टि पसीने से तर उसकी पीठ और एक ही तालक्रम में उठते-गिरते उसके दुबले हाथ पर ही पड़ी थी। फिर उनकी दृष्टि उस बच्चे पर भी पड़ी। खोलकर रखी एक फटी छतरी की छाया में बैठकर एक पुरानी थाली से बच्चा चावल खा रहा था। बच्चे का कुरता कीचड़ से भरा और फटा हुआ था। उसे नहाए बहुत दिन हो गए होंगे। तेल के न लगने से भूरे पड़े उसके बाल कंधे पर बिखरे पड़े थे।

बच्चा थाली के चावल में बिल्कुल मग्न बैठा था। झुककर बार-बार चावल के कण चुन-चुनकर खानेवाले उस बच्चे के सामने वे निस्तब्ध खड़े रहे।

एकाएक बच्चे ने सिर उठाकर देखा। किसी अजनबी को अपनी ओर देखते हुए पाकर वह एकदम घबरा उठा। जब उन्होंने मुसकराते हुए उसकी ओर हाथ बढ़ाया तो बच्चे ने धीरे से थाली पीछे की ओर छिपाकर रखी। बच्चे की संदेह भरी बड़ी आँखें उस आदमी के चेहरे से नहीं हटीं।

दुःख के गहरे गर्त में वे धीरे-धीरे डूब गए।

उन्हें याद आया...चाँदनी रातों में गोबर से लीपे आँगन में मिट्टी के तेल के सामने बैठकर माँ उसे चावल परोस देती थी। (अब घर नहीं, गोबर से लीपा साफ-सुथरा आँगन भी नहीं, बड़े प्यार के साथ चावल परोसने के लिए भी कोई नहीं, माँ अब भी जिंदा है, किंतु वह माँ से बहुत दूर है। दूरी से ही नहीं, उम्र से ही नहीं...)

पीड़ा के साथ उसने सोचा, मेरे बच्चे भी नहीं।

सूरज के प्रकाश में चमकते पंखोंवाली एक पतंग उनके चारों ओर उड़ने लगी, मानो आसमान से टूटकर आई हो। जब भी उन्होंने हाथ बढ़ाया, वह दूर-दूर हटती गई। बच्चा वह देखकर हँसने लगा, तब वे भी हँस पड़े। चमकते पंखोंवाली पतंग, बच्चा और वह...

चोटी में चील बस जाएँ।
गुफा में क्रूर सिंह बस जाएँ।
मनोरम सुनहली पहाड़ी, तेरी इस खिली
विशाल वनमय तराइयों में बसूँ मैं।...

घर लौटते वक्त वे सोच रहे थे-

इस सुनहली पहाड़ी की विशाल वनमय तलहटी में कुछ समय के बाद फूल नहीं होंगे। कारखाने से निकलते धुएँ के लगने से पल्लव और फूल सूख जाएँगे। यहाँ चिड़ियाँ नहीं होंगी। पतंग नहीं होंगी। यह जंगल भी केवल याद बनकर रह जाएगा।

जब वे घर पहुंचे, तब शाम हो चुकी थी। पत्नी कमरे में बैठकर साज-शृंगारकर रही थी।

पत्नी बोली, “आज मिसेज मुखर्जी की पार्टी है। यू मस्ट गेट रेडी सून!"

आईने के सामने बैठकर दिन में सोने के कारण सूज गई पलकों और गालों में रंग लगानेवाली उस औरत को देख वे आश्चर्यचकित हो उठे। यह कौन है, क्या यह मेरी पत्नी है?

उन्हें बड़ी ऊब होने लगी। वह न तो किसी मुखर्जी की पार्टी में जाना चाहते और न किसी से मिलना चाहते थे, किंतु...नहीं...नहीं...।

संध्या के पहले ही पत्नी को साथ लेकर अठारह मील की दूरी पर स्थित बंदरगाही शहर के बड़े होटल की ओर उन्होंने कार चलाई।

होटल की रात।

सिगरेट और ह्विस्की की तीक्ष्ण गंध। छन-छनकर आनेवाला महीन संगीत, संगीत को दबाती खोखली हँसी, फुसफुसाहट, डींगें, स्कैंडल।

ध्यानमग्न योगी के समान वे खिड़की के पास बैठे। सामने ज्यादातर खाली हुआ गिलास, जलता सिगार, चारों ओर डाक्रोन, टेरीलिन, लिपस्टिक, इत्र, हेयरस्प्रे...

मिसेज मुखर्जी!

"लेट मी हेव ए लिटिल मोर..."

"डार्लिंग, यू मस्ट नॉट ..."

मिस्टर शर्मा!

"डोंट बी सिल्ली! लेट हेर हेव आफटराल..."

"नो, लेडीज एंड जेंटिलमैन..."

मिसेज पिल्लै!

"ओह! क्या हो रहा है? बच्चों के बाप और मुझे तो महीने में एक दिन गुरुवायूर न गए तो..."

मिस शर्मा!

"आइ से, वाट् ईस राँग विथ युवर हसबेंड? ही हेस बिकम सो मूडी एंड एलूफ।"

मिस मुखर्जी!

"आई अंडरस्टैंड ही ईज ए पोइट। वॉट डस ही राइट..."

उनकी पत्नी-

"आई डोंट नो!"

दूर खड़े जहाजों की बत्तियों को उन्हें देखकर आँखें झपकीं। उन्होंने पीड़ा के मारे लंबी साँस ली।

नीरव निशीथ में
शांत शीत समीर में
डोलायमान निशि—दीपों की
ज्वाला पद्म दलों में...!

ग्रीष्म के स्वच्छ जल से भरी सरिता। सरिता के किनारे आमूलचूल फूलों से लदे कुटज वृक्षवृंद। बाँस के जंगल। स्नान कर मंदिर की ओर जानेवाली सुबह की सुमन जैसी एक बालिका।

उनकी पत्नी ने उन्हें हिला-डुलाकर कुछ पूछा।

वे धीमे स्वर में बोले, "कुछ नहीं, कुछ नहीं।"

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