साहसिक कार्य (विज्ञान कथा) : जयन्त विष्णु नार्लीकर

Sahsik Karya (Story in Hindi) : Jayant Vishnu Narlikar

पुणे-मुंबई मार्ग पर जीजा माता एक्सप्रेस सरपट दौड़ी जा रही थी। उसकी रफ्तार डेक्कन क्वीन से भी तेज थी। पुणे के बाहरी इलाकों में कोई औद्योगिक क्षेत्र नहीं था। चालीस मिनट के भीतर ही पहला स्टॉप लोनावाला आ गया। उसके बाद पड़नेवाला घाट भी उसके लिए जाना-पहचाना था। करजत में अल्प विराम के बाद ट्रेन और भी तेजी से दौड़ने लगी। और कल्याण स्टेशन भी दहाड़ते हुए पार कर गई।

रेलगाड़ी में सफर कर रहे प्रो. गाइतोंडे का दिमाग रेलगाड़ी से भी तेज चल रहा था। मुंबई में एक कार्ययोजना को अंजाम देने का खाका उनके मन में बन चुका था। एक इतिहासकार के नाते वे महसूस करते थे कि इस पर उन्हें पहले ही सोचना चाहिए था। योजना के अनुसार उन्हें किसी बड़े पुस्तकालय में जाकर इतिहास की किताबों को खंगालना था। वही सबसे पक्का तरीका था, यह पता लगाने का कि किन रास्तों से गुजरकर समाज आज के हालात में पहुँचा है। अंत में उनकी योजना थी पुणे लौटकर राजेंद्र देशपांडे के साथ विस्तार से बातचीत करने की, जो निश्चित तौर पर घटनाओं को समझने में उनकी मदद कर सकता था। यानी वे यह मानकर चल रहे थे कि इस दुनिया में राजेंद्र देशपांडे नाम का कोई व्यक्ति है ! एक लंबी सुरंग के पार रेलगाड़ी रुक गई। यह 'सरहद' नाम का कोई स्टेशन था। एक वरदीधारी एंग्लो-इंडियन रेलगाड़ी में यात्रियों के परमिट जाँच रहा था।

"यहाँ से ब्रिटिश राज शुरू होता है। मुझे लगता है कि आप पहली बार जा रहे हैं ?" साथ बैठे खान साहब ने पूछा।

"हाँ।" उनका जवाब सचमुच में ठीक था। गंगाधर पंत इससे पहले कभी मुंबई नहीं आए थे। उन्होंने भी खान साहब से सवाल किया, "और खान साहब, आप पेशावर कैसे जाएँगे?"

"यह रेलगाड़ी विक्टोरिया टर्मिनस तक जाती है। मैं आज रात ही सेंट्रल (मुंबई) से फ्रंटियर मेल पकड़ेंगा।"

"यह कहाँ तक जाती है और किस रास्ते से जाती है?"

"मुंबई से दिल्ली, फिर लाहौर और अंत में पेशावर। बहुत लंबा सफर है। पेशावर तक मैं परसों पहुँचूँगा।"

उसके बाद खान साहब देर तक अपने कारोबार के बारे में बताते रहे। गंगाधर पंत को भी उनकी बातें सुनने में आनंद आ रहा था। इस तरह से उन्हें भारत के जीवन के बारे में जानकारी मिल रही थी, जो बिलकुल अलग था। अब रेलगाड़ी उपनगरीय रेल यातायात के बीच से गुजर रही थी। रेलगाड़ी के नीले डिब्बों के पीछे ये शब्द लिखे थे—'जी बी एम आर'।

"ग्रेटर बॉम्बे मेट्रोपोलिटन रेलवे।" खान साहब ने बताया, "देखिए, प्रत्येक डिब्बे पर छोटा सा यूनियन जैक बना हुआ है। यह हमें याद दिलाता है कि हम ब्रिटिश राज में हैं।"

दादर के बाद रेलगाड़ी की गति धीमी पड़ने लगी। आखिरी स्टेशन वीटी पर जाकर रेलगाड़ी रुक गई। स्टेशन असाधारण रूप से साफ-सुथरा दिख रहा था। स्टेशन पर काम करनेवाले कर्मचारियों में ज्यादातर एंग्लो-इंडियन और पारसी लोग थे। कुछ एक ब्रिटिश अफसर भी थे।

स्टेशन से बाहर निकलने पर गंगाधर पंत ने स्वयं को एक शानदार इमारत के सामने पाया। इमारत पर लिखे अक्षर उन लोगों को उस इमारत के बारे में बताते थे जो मुंबई की इस पहचान से अपरिचित थे-

ईस्ट इंडियन हाउस
हेडक्वार्टर्स ऑफ दि
ईस्ट इंडिया कंपनी।

इस तरह के सदमों के अभ्यस्त हो चुके प्रो. गाइतोंडे को इसकी जरा भी उम्मीद नहीं था कि सन् 1857 की घटनाओं के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी तो अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर जा चुकी थी-कम-से-कम इतिहास की पुस्तकों में तो यही लिखा है। लेकिन फिर भी कंपनी यही थी। न केवल थी बल्कि फल-फूल भी रही थी। यानी इतिहास ने दूसरा ही रास्ता अपना लिया था, वह भी शायद 1857 से पहले ऐसा कब और कैसे हुआ? यही तो उन्हें पता लगाना था। जिस सड़क पर वे चल रहे थे उसे हॉर्न बी रोड नाम से पुकारा जाता था। उस सड़क पर बनी दुकानें और कार्यालयों की इमारतें भी बिलकुल अलग दिख रही थीं। ओ.सी.एस. बिल्डिंग की मीनार विक्टोरियाई इमारतों से ऊँची उठी थी। हैंडलूम हाउस की इमारत भी नहीं थी। उसके बजाय वुट्स और वुलवर्थ डिपार्टमेंट स्टोर थे, लॉएड्स बर्लेज और अन्य ब्रिटिश बैंकों के शानदार कार्यालय थे, ठीक वैसे ही जैसे इंग्लैंड में किसी शहर के रईसाना इलाके में होते हैं।

होम स्ट्रीट के साथ वे दाईं ओर घूम गए तथा फोर्ब्स बिल्डिंग में प्रवेश कर गए।

वहाँ बैठे अंग्रेज रिसेप्शनिस्ट से उन्होंने कहा, "मैं विनय गाइलना से मिलना चाहता हूँ।"

रिसेप्शनिस्ट ने टेलीफोन की सूची में ढूँढा, स्टाफ लिस्ट खंगाली और फर्म की तमाम शाखाओं में काम करनेवाले कर्मचारियों की डायरेक्टरी भी छान मारी। अंत में सिर हिलाते हुए उसने कहा, "मुझे खेद है कि यह नाम यहाँ या हमारी किसी शाखा में नहीं मिला। क्या आपको पूरा विश्वास है कि ये हमारे यहाँ ही काम करते हैं?"

यह भी एक आघात था, हालाँकि पूरी तरह अप्रत्याशित नहीं था। अगर वे इस दुनिया में स्वयं मृत होते तो इस बात की क्या गारंटी थी कि उनका पुत्र जीवित ही होगा। सचमुच, हो सकता है कि वह पैदा ही न हुआ हो!

रिसेप्शनिस्ट को सभ्यता के साथ धन्यवाद देते हुए वे बाहर आ गए। यह उनकी चारित्रिक विशेषता थी। उन्हें रुकने या ठहरने की चिंता नहीं होती थी। इस समय उनकी मुख्य चिंता थी कि किसी तरह एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय का रास्ता पकड़ा जाए और इतिहास की इस पहेली को सुलझाया जाए। रेस्टोरेंट में जल्दी-जल्दी दोपहर का भोजन कर उन्होंने टाउन हॉल का रुख किया। उन्हें यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि टाउन हॉल अपनी जगह मौजूद था और उसके भीतर पुस्तकालय भी। वाचनालय में जाकर उन्होंने कर्मचारी को इतिहास की पुस्तकों की सूची थमा दी, जिसमें उनकी लिखी पुस्तकें भी शामिल थीं।

जल्द ही उनकी लिखी पुस्तकों के पाँच खंड उनकी मेज पर आ गए। उन्होंने पुस्तकें पढ़नी शुरू की। पहले खंड में सम्राट अशोक के काल तक का इतिहास था, दूसरे खंड में समुद्रगुप्त तक, तीसरे में मुहम्मद गोरी तक तथा चौथे खंड में औरंगजेब की मौत का इतिहास था। इस काल तक का इतिहास तो वही था जिसे वह जानते थे। हाँ, पाँचवें खंड में दर्ज इतिहास कुछ अलग ही था। पाँचवें खंड को दोनों छोरों से पढ़ते हुए गंगाधर पंत जब बीच में पहुँचे तो उन्हें वह दौर मिल ही गया जहाँ से इतिहास ने बिलकुल अलग मोड़ ले लिया था। पुस्तक के उस पृष्ठ पर पानीपत की लड़ाई का जिक्र था और यह लिखा गया था कि उस लड़ाई को मराठों ने बड़े आराम से जीत लिया था। अब्दाली को रौंद डाला गया था। वह जान बचाकर भागा तो विजयी मराठा सेना ने सदाशिव भाऊ और उनके नौजवान भतीजे विश्वासराव के नेतृत्व में काबुल तक उसका पीछा किया।

पुस्तक में लड़ाई के जमीनी दाँवपेंच के स्तर तक का वर्णन नहीं था। बल्कि इस लड़ाई के परिणाम का भारत में सत्ता-संघर्ष पर असर की विस्तार से चर्चा की गई थी। गंगाधर पंत बड़ी उत्सुकता से पढ़ रहे थे। लेखन शैली निस्संदेह उन्हीं की थी। पर वे उक्त वर्णन को पहली बार पढ़ रहे थे। उस लड़ाई में मिली जीत से मराठों के केवल हौसले ही बुलंद नहीं हुए, बल्कि उत्तर भारत में उनकी सत्ता भी स्थापित हो गई। बाहर खड़ी सारे घटनाक्रम को देख रही ईस्ट इंडिया कंपनी को भी लड़ाई के नतीजे समझ में आ गए और उसने अपनी विस्तार योजनाओं को अस्थायी तौर पर ताक पर रख दिया।

लड़ाई के बाद पेशवाओं के बीच भाऊ साहब और विश्वासराव का रुतबा काफी बढ़ गया। सन् 1780 में विश्वासराव ने पिता की सत्ता विरासत में हासिल की। गड़बड़ी फैलानेवाले दादा साहब को नेपथ्य में फेंक दिया गया, जहाँ से उन्होंने आखिरकार सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए निराशाजनक बात यह थी कि मराठा शासक विश्वासराव के आगे उनकी एक नहीं चलती थी। विश्वासराव एवं उनके भाई माधवराव ने वीरता और राजनीतिक सूझ-बूझ को मिलाकर सुनियोजित तरीके से समूचे भारत पर अपना सिक्का जमा लिया। कंपनी का प्रभाव अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों-पुर्तगालियों व फ्रांसीसियों की तरह मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के निकटवर्ती इलाकों तक ही सिमटकर रह गया।

राजनीतिक कारणों से पेशवाओं ने दिल्ली में मुगलों के कठपुतली शासन को जारी रखा। उन्नीसवीं सदी में पुणे में बैठे असली शासकों को यूरोप में तकनीकी युग के उदय होने के महत्त्व का भान हो गया था। उन्होंने भी विज्ञान व तकनीकी विकास के लिए अपने केंद्र स्थापित किए। यहाँ पर ईस्ट इंडिया कंपनी को अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर नजर आया। उन्होंने भी सहायता और विशेषज्ञता उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा। उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया; लेकिन केवल इनके केंद्रों को आत्मनिर्भर बनाने तक।

बीसवीं सदी में पश्चिम से प्रेरित और भी ज्यादा परिवर्तन आए। भारत ने भी लोकतंत्र को अपना लिया था। तब तक पेशवा भी अपना सामर्थ्य खो बैठे थे और उनकी जगह लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए निकायों ने ले ली थी। दिल्ली की सल्तनत इस संक्रमण के दौर में बच गई थी। इसका बड़ा कारण यह था कि सल्तनत का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। दिल्ली के शहंशाह की हैसियत रबड़ की मुहर से ज्यादा नहीं रह गई थी, जो केंद्रीय संसद् द्वारा भेजी गई अनुशंसाओं पर लगाई जाती थी।

जैसे-जैसे गंगाधर पंत पढ़ते गए वैसे-वैसे वे उस भारत की सराहना करने लगे जिसे उन्होंने देखा था। यह एक ऐसा देश था जो कभी भी श्वेत लोगों का गुलाम नहीं रहा, बल्कि उसने अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा और जानता था कि स्वाभिमान क्या चीज है। अपनी मजबूत स्थिति और विशुद्ध व्यावसायिक कारणों से भारत ने अंग्रेजों को मुंबई में इस उपमहाद्वीप के लिए इकलौती चौकी (आउटपोस्ट) बनाने की अनुमति दे रखी थी। सन् 1908 में की गई एक संधि के अनुसार यह पट्टा सन् 2001 तक चलना था।

गंगाधर पंत का माथा ठनक गया। कौन सा देश असली था—जिसे वह जानता था वह या वह, जिसे वह चारों ओर देख रहे थे।

पर साथ ही उन्हें लगा कि उनकी तमाम जाँच-पड़ताल अधूरी थी। मराठों ने लड़ाई कैसे जीती? जवाब जानने के लिए जरूरी था कि वे लड़ाई के विवरण को ही देखें।

उन्होंने फिर अपने सामने पड़ी किताबों और पत्रिकाओं को खंगालना शुरू किया। अंत में पुस्तकों के बीच उन्हें एक ऐसी पुस्तक मिली, जिसने उन्हें कुछ सुराग दिया। यह किताब थी-भाउसाहेबबांची बखर (बखार)।

हालाँकि ऐतिहासिक सबूतों के लिए वे कभी-कभार ही बखारों पर भरोसा करते थे, पर उन्हें पढ़ने में उन्हें आनंद आता था। कभी-कभार चित्रों-चार्टी, लेकिन मनमाने तरीके से लिखे गए विवरणों तले दबे सच के अंकुर भी मिल जाते। ऐसा ही सच का एक अंकुर उन्हें मात्र तीन पंक्तियों के विवरण में मिला कि विश्वासराव मौत के कितने करीब पहुंच गए थे-

और फिर विश्वासराव को भीड़ के करीब ले गए। वहाँ पर अभिजात वर्ग के सैनिक लड़ रहे थे। विश्वासराव ने उन पर धावा बोल दिया। उस दिन भगवान् उन पर दयालु था। एक गोली सनसनाती हुई कान को छूकर निकल गई, तिल बराबर भी गोली इधर-उधर होती तो उनकी जान जा सकती थी।"

कब शाम के आठ बज गए, पता ही नहीं चला। लाइब्रेरियन ने बड़ी शराफत से प्रोफेसर को याद दिलाया कि लाइब्रेरी बंद की जा रही है। तभी जाकर उनका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई। बड़े से वाचनालय में केवल वही रह गए थे।

ओह! माफी चाहता हूँ श्रीमान, पर आपसे प्रार्थना है कि इन पुस्तकों को यहीं रखी रहने दें, ताकि कल सुबह मैं दोबारा इन्हें पढ़ सकूँ। सुबह लाइब्रेरी कितने बजे खुलती है ?"

"सुबह आठ बजे श्रीमान !" लाइब्रेरियन ने मुसकराकर बताया। धुन का पक्का अन्वेषक उसके सामने खड़ा था।

मेज छोड़ने से पहले प्रोफेसर ने कुछ नोट अपनी दाईं जेब में डाल लिये अनजाने में ही उन्होंने बखर को अपनी बाईं जेब में ठूस लिया।

एक गेस्टहाउस में उन्हें रहने का ठिकाना मिल गया और उन्होंने थोड़ा सा भोजन किया। खाना खाकर वे आजाद मैदान की ओर टहलने चले गए। मैदान में उन्होंने देखा कि लोगों की भीड़ एक पंडाल की ओर चली जा रही है। आदत से मजबूर प्रो. गाइतोंडे के कदम भी पंडाल की ओर बढ़ चले। गरम भाषण चल रहा था, हालाँकि लोगों का आना-जाना जारी था; लेकिन प्रो. गाइतोंडे का ध्यान श्रोताओं की भीड़ की तरफ नहीं था। वे तो मंत्रमुग्ध से मंच की ओर ही ताके जा रहे थे। मंच पर एक मेज और एक कुरसी थी, जो खाली पड़ी थीं। 'यह क्या? अध्यक्षीय पद खाली पड़ा है।' इस दृश्य ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। फिर जैसे लोहे का टुकड़ा चुंबक की ओर खिंचा चला जाता है वैसे ही वे भी कुरसी की ओर तेजी से खिंचे चले गए। वक्ता भाषण देते-देते बीच में ही रुक गया, जैसे उसे साँप सूंघ गया हो। लेकिन श्रोतागण चीखने-चिल्लाने लगे-

"कुरसी खाली करो!"
"इस भाषण का कोई चेयरमैन नहीं।"
"मंच से उतरिए, जनाब!"
'यह कुरसी केवल नाग की है, क्या तुम जानते नहीं?"

क्या बेवकूफी है? क्या किसी ने कभी ऐसा आम भाषण सुना है जिसमें कोई अध्यक्ष न हो? प्रो. गाइतोंडे ने माइक सँभाला और अपने विचार प्रकट करने लगे, "देवियों और सज्जनो, चेयरमैन के बगैर भाषण वैसे ही है जैसे डेनमार्क के राजकुमार के बगैर शेक्सपीयर का 'हेमलेट'। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि"" लेकिन दर्शक सुनने के मूड में बिलकुल नहीं थे।

"हमें कुछ मत बताओ। अध्यक्ष की टीका-टिप्पणी, धन्यवाद ज्ञापन और लंबे-लंबे परिचय सुनते-सुनते हम तंग आ चुके हैं !" वे चिल्लाए।
"हम केवल वक्ता को सुनना चाहते हैं।"
'हम पुरानी परंपरा को बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं।"
"मंच खाली रखिए, प्लीज!"

लेकिन गंगाधर पंत को 999 सभाओं में बोलने का अनुभव था और वे पुणे के गरममिजाज श्रोताओं को भी सफलतापूर्वक झेल चुके थे। उन्होंने बोलना जारी रखा।

जल्द ही उन पर टमाटर, अंडे और अन्य सड़ी-गली चीजें बरसने लगीं; पर वे बड़ी बहादुरी के साथ इस गड़बड़ी को ठीक करने में लगे रहे। अंत में श्रोताओं की भीड़ मंच पर चढ़ आई और उन्हें जबरन मंच से नीचे उतार दिया। और फिर भीड़ के बीच में गंगाधर पंत कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे। मुझे केवल यही सब राजेंद्र को बताना है। मैं केवल यही जानता हूँ कि मैं सुबह के वक्त आजाद मैदान में पाया गया था। लेकिन तब मैं वापस उस दुनिया में था, जिससे मैं परिचित था। तब फिर मैंने वे दो दिन कहाँ बिताए, जब मैं वहाँ से लापता था?"

इस कहानी से राजेंद्र भी भौचक्का रह गया। उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा।
'प्रोफेसर, ट्रक से टकराने से ठीक पहले आप क्या कर रहे थे?" राजेंद्र ने पूछा।
"मैं महाविपत्ति के सिद्धांत पर विचार कर रहा था और सोच रहा था कि इतिहास पर इसका क्या असर होगा।"
'ठीक मैंने भी ऐसा ही सोचा था।" राजेंद्र ने मुसकराकर कहा।

"इस तरह संतुष्ट भाव से मत मुसकराओ। अगर तुम सोच रहे हो कि केवल मेरा दिमाग चल गया था और मेरी कल्पना बेकाबू होकर दौड़ लगा रही थी तो देखो।"

इतना कहकर प्रो. गाइतोंडे ने सबूत पेश किया-पुस्तक से फाड़ा गया पन्ना।

उस छपे हुए पृष्ठ को राजेंद्र ने पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। चेहरे से मुसकराहट गायब हो गई। उसकी जगह संजीदगी छा गई।

अब गंगाधर पंत की बात वजनदार हो गई थी। "लाइब्रेरी से निकलते वक्त मैंने बखर अपनी जेब में ही दूंस लिया था। खाने का बिल चुकाते वक्त मुझे इस गलती का अहसास हुआ। मेरा इसे अगली सुबह लौटा देने का इरादा था; पर ऐसा लगता है कि आजाद मैदान में संभ्रांत जनों की भीड़ में धक्का-मुक्की के दौरान पुस्तक गायब हो गई, केवल यही फटा पृष्ठ बच गया। खुशकिस्मती से इसी पन्ने पर सबसे मुख्य सुराग है।"

राजेंद्र ने पन्ना दोबारा पढ़ा। पन्ने पर लिखा था कि किस तरह विश्वासराव गोली से बाल-बाल बच गए और किस तरह मराठा सेना ने इस घटना का अच्छा शकुन मानते हुए लहर का रुख अपने पक्ष में मोड़ दिया।

"और अब इसे देखो।" गंगाधर पंत ने भाऊ साहब बखर की अपनी प्रति निकाली, जिसमें काम का पृष्ठ पहले से ही खुला हुआ था; उस पर कुछ इस तरह लिखा था-

".."और फिर विश्वासराव अपने घोड़े को भीड़-भाड़वाली जगह पर लाए, जहाँ आभिजात्य वर्ग के सैनिक लड़ रहे थे, और उन्होंने सैनिकों पर धावा बोल दिया, लेकिन उनके काम से ईश्वर नाराज हो गया, एक गोली आकर उन्हें लगी।"

"प्रो. गाइतोंडे, आपने मुझे विचारों की अच्छी-खासी खुराक दे दी है। इस सबूत को देखने से पहले मैं आपके अनुभव को कपोल-कल्पना ही समझ रहा था।

लेकिन अब मुझे लगने लगा कि तथ्य कल्पना से भी ज्यादा विचित्र हो सकते हैं।" "तथ्य! तथ्य क्या है ? मैं जानने के लिए मरा जा रहा हूँ।" प्रो. गाइतोंडे ने कहा।

राजेंद्र ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और कमरे में चहलकदमी शुरू कर दी। वह अत्यंत मानसिक तनाव में लग रहे थे। आखिरकार वे मुड़े और बोले, "प्रो. गाइतोंडे, मैं आज ज्ञात दो वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर आपके अनुभव का सिर-पैर तलाशने की कोशिश करूँगा। अब यह सच्चाइयों के विषय में आपको संतुष्ट कर पाया या नहीं, आप ही फैसला कर सकते हैं; क्योंकि आप सचमुच में एक अद्भुत अनुभव से गुजरे हैं या यों कहें कि आपने महाविपत्ति का अनुभव किया है तो ज्यादा ठीक होगा।"

"बताओ-बताओ, राजेंद्र, मैं सुन रहा हूँ।" प्रो. गाइतोंडे ने कहा।
राजेंद्र ने चहलकदमी करते हुए बोलना जारी रखा-

आपने उस सेमिनार में महाविपत्तिकारी सिद्धांत के बारे में बहुत कुछ सुना है। आइए, इसे पानीपत की लड़ाई पर लागू करके देखें। खुले मैदानों में सैनिकों . द्वारा एक-दूसरे से लड़ी गई आमने-सामने की लड़ाइयाँ इस सिद्धांत के शानदार उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। पानीपत में मराठा सेना अब्दाली के सैनिकों का सामना कर रही थी। मराठा सेना और अफगान सेना के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं था। उनके अस्त्र-शस्त्र भी बराबरी के थे। इसलिए हार-जीत बहुत कुछ सेना-प्रमुखों की रणनीतियों और सैनिकों के हौसले पर निर्भर थी। जब विश्वासराव, जो पेशवा का बेटा और उत्तराधिकारी भी था, मारा गया तब लड़ाई का पासा ही पलट गया। इतिहास में दर्ज है कि उसका चाचा भाऊ साहब भी भीड़ की ओर दौड़ गया था। उसके बाद वह कहीं नहीं दिखा। उस महत्त्वपूर्ण समय में सेनानायकों के खात्मे से सैनिकों को गहरा धक्का लगा। उनके हौसले पस्त हो गए और उनमें लड़ने की हिम्मत नहीं रही।"

"बिलकुल ठीक, प्रोफेसर! और फटे हुए पृष्ठ पर मुझे आपने जो दिखाया है, वह बताता है कि जब विश्वासराव गोली खाने से बच गए तो लड़ाई का पासा ही पलट गया। इस घटना से पूरा इतिहास ही बदल गया और सैनिकों पर इसका असर भी एकदम उलटा था। उनके हौसले बुलंद हो गए और उनमें लड़ाई लड़ने का नया जोश भर गया, जिससे बहुत बड़ा अंतर आ गया।" राजेंद्र ने कहा। "हो सकता है। वाटरलू की लड़ाई के बारे में भी ऐसी ही बातें कही जाती हैं, जिसे नेपोलियन जीत सकता था; लेकिन हम एक अनोखी दुनिया में रहते हैं, जिसका इतिहास भी अनोखा है। ऐसा हो सकता था' का विचार अटकलबाजी के लिए तो ठीक है, लेकिन वास्तविकता से इसका क्या लेना-देना!" गंगाधर ने कहा।

"मैं इसी बात पर आ रहा हूँ। दरअसल, यही चीज मुझे दूसरे बिंदु पर लाती है, जो आपको कुछ आश्चर्यजनक लग सकता है; पर मेहरबानी कर मुझे सुनिए तो!" राजेंद्र ने कहा।

गंगाधर पंत उत्सुकता के साथ दोबारा सुनने लगे।

"वास्तविकता से आप क्या अर्थ लगाते हैं ? हम इसे अपनी संवेदनाओं द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं या उपकरणों के जरिए अप्रत्यक्ष रूप से। लेकिन क्या यह हमारी दृष्टि तक ही सीमित है ? क्या यह अन्य रूपों में प्रकट नहीं हो सकती है?" बहुत ही छोटी प्रणालियों-अणुओं और उनके संघटकों पर परीक्षणों से पता चला है कि वास्तविकता अनोखी नहीं हो सकती है। इन प्रणालियों के साथ काम करते हुए भौतिकशास्त्रियों ने कुछ चौंकानेवाली खोज कर डाली। इन प्रणालियों के व्यवहार की कभी भी निश्चित तौर पर भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है, भले ही इन प्रणालियों को चलानेवाले तमाम भौतिक नियम ज्ञात हों।"

"एक उदाहरण लें-मैं किसी स्रोत से एक इलेक्ट्रॉन दागता हूँ। यह कहाँ जाएगा? अगर बंदूक से गोली चलाऊँ किसी भी दिशा में, किसी खास गति के साथ, तो मैं जानता हूँ कि कितने समय बाद गोली कहाँ पर होगी? लेकिन इलेक्ट्रॉन के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है। यह यहाँ भी हो सकता है, वहाँ भी और कहीं भी। मैं ज्यादा-से-ज्यादा इसके लिए उदाहरण ही दे सकता हूँ कि किसी खास समय पर यह किसी खास स्थिति में मिलेगा।"

"क्वांटम सिद्धांत में इस निश्चितता का अभाव है। मेरे जैसे अज्ञानी इतिहासकार ने भी इसके बारे में सुना है।" प्रो. गाइतोंडे ने कहा।

"तो दुनिया की अनेक तसवीरों की कल्पना करें-एक दुनिया में इलेक्ट्रॉन यहाँ मिलता है तो दूसरी में वहाँ। किसी और दुनिया में यह कहीं और मिलता है एक बार शिक्षक पता लगा ले कि यह कहाँ है ! हम जान जाते हैं कि किस दुनिया के बारे में बात हो रही है। लेकिन वे सभी वैकल्पिक दुनिया एक साथ भी मौजूद हो सकती हैं।" इतना कहकर राजेंद्र चुप हो गया, जैसे अपने विचारों की कवायद कर रहा हो।

"लेकिन क्या इन अनेक दुनियाओं के बीच में भी कोई संबंध है?" प्रो. गाइतोंडे ने पूछा।
"हाँ भी और नहीं भी! दो दुनियाओं की कल्पना कीजिए। दोनों में एक इलेक्ट्रॉन अणु के नाभिकं की परिक्रमा कर रहा है।"
"जैसे कि ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।" गाइतोंडे ने टोका।

"वैसे नहीं। हमें ग्रह के परिक्रमा-पथ का पता होता है, लेकिन इलेक्ट्रॉन अपनी अनगिनत अवस्थाओं में से किसी एक में परिक्रमा कर सकता है। इन अवस्थाओं का दुनिया को पहचानने में इस्तेमाल किया जा सकता है। एक नंबर की अवस्था में इलेक्ट्रॉन ऊँची ऊर्जा के क्षेत्र में हो सकता है। दूसरे नंबर की अवस्था में यह निम्न ऊर्जा अवस्था में होता है। यह कूदकर ऊँची ऊर्जावाली अवस्था से निम्न ऊर्जा में आता है और विकिरण छोड़ता है या विकिरण इलेक्ट्रॉन को कम ऊर्जावाली अवस्था से ऊँची ऊर्जावाली अवस्था में पहुँचा सकती हैं। ऐसे संक्रमण सूक्ष्मदर्शी प्रणालियों में आम हैं, लेकिन अगर स्थूल स्तर पर ऐसा होने लगा तो क्या हो?" राजेंद्र ने कहा।

तुम्हारी बात मेरी समझ में आ गई। तुम यही कहना चाह रहे हो न कि मैं एक दुनिया से दूसरी दुनिया के बीच डोलता रहा?'' गंगाधर पंत ने पूछा।

"हाँ, भले ही यह कपोल-कल्पित लगे, लेकिन यही एक कारण है जो मैं बता सकता हूँ। मेरा सिद्धांत यह है कि विप्लवकारी परिस्थितियाँ दुनिया को आगे बढ़ाने के लिए बुनियादी तौर पर अलग-अलग विकल्प देती हैं। सभी विकल्प सच्चे होते हैं, लेकिन प्रेक्षक एक समय में केवल एक का ही अनुभव कर सकता है।"

"लेकिन इलेक्ट्रॉन की तरह डोलकर तुम दोनों दुनियाओं का अनुभव कर सकते हो, यानी कि अभी तुम इस दुनिया में हो और दूसरी वह जहाँ तुमने दो दिन बिताए। हालाँकि ये अनुभव भी अलग-अलग वक्त पर होते हैं। इन दो दुनियाओं में से एक का इतिहास तो हम सब जानते हैं। दूसरी का इतिहास अलग हो जाता है। यह अलगाव पानीपत की लड़ाई से शुरू हुआ। आप न तो अतीत में गए और न ही भविष्य में। आप वर्तमान में ही थे, पर एक दूसरी दुनिया का अनुभव कर रहे थे। अवश्य ही काल के विभिन्न पड़ावों पर होनेवाले बदलावों के कारण कई और दुनियाओं का भी जन्म हो रहा होगा।"

राजेंद्र द्वारा विस्तार से समझाए जाने के बाद गंगाधर ने वह सवाल पूछा जो उन्हें सबसे ज्यादा परेशान करने लगा था, "लेकिन मैं इस तरह से डोला ही क्यों?"

"अगर मैं इसका जवाब जानता तो शायद एक समस्या सुलझा चुका होता! दुर्भाग्य से विज्ञान में अनेक अनसुलझे सवाल हैं और यह उन्हीं में से एक है। लेकिन इससे मेरा अनुमान लगाना बंद नहीं होगा।" राजेंद्र ने मुसकराते हुए कहा। "लेकिन इस तरह एक दुनिया से दूसरी में आने-जाने के लिए किसी परस्पर क्रिया का होना जरूरी है। शायद जब आपको टक्कर लगी तब आप विप्लवकारी सिद्धांत और लड़ाइयों में इसकी भूमिका के विषय में सोच रहे होंगे। हो सकता है कि आप पानीपत की लड़ाई के बारे में सोच रहे हों। शायद आपके मस्तिष्क में न्यूरॉनों ने ट्रिगर का काम किया।"

आपका अनुमान बिलकुल सटीक है। मैं सचमुच में यही सोच रहा था कि अगर लड़ाई में मराठों की जीत हुई होती तो इतिहास किस ओर करवट लेता।" प्रो. गाइतोंडे ने कहा, "दरअसल, मेरे हजारवें अध्यक्षीय भाषण का विषय ही यही था।"

"तब तो आपको खुश होना चाहिए कि अब आपके पास मात्र कल्पनाओं से ज्यादा जिंदगी के अनुभव हैं। इनसे आप अपने भाषण में जान डाल सकेंगे।" राजेंद्र ने हँसते हुए कहा। मगर गंगाधर पंत गंभीर बने रहे।

"नहीं राजेंद्र, मैंने अपना हजारवाँ भाषण आजाद मैदान में दिया था; लेकिन भीड़ ने मुझे जबरन मंच से नीचे उतार दिया। प्रो. गाइतोंडे मंच पर अपनी कुरसी बचाते हुए अदृश्य हो गया, वह अब किसी भी सभा में दुबारा कभी भी नजर नहीं आएगा। मैंने पानीपत सेमिनार के आयोजकों को अपनी क्षमा याचना भेज दी है।"

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