सहस्रफण (उपन्यास) : विश्वनाथ सत्यनारायण

Sahasraphan (Telugu Novel in Hindi) : Viswanatha Satyanarayana

1

...

“फण हज़ार पसार, नृप को
स्वप्न में फणि ने लिया डस।"

यह गीत गाती और उछल-कूद मचाती हुई एक युवती सुब्बन्नापेठ के बाजारों में इधर-उधर घूम रही थी। उसके माथे पर लगा बड़ा-सा कुंकुम टीका स्वेद-बिन्दुओं में मिलकर नीचे को खिसक रहा था। हाथ में एक नीम की डाली थी जिसे वह इधर-उधर हिला रही थी। बाल बिखरे थे। आँचल के हट जाने का भी उसे भान न था। कभी वह धीरे चलती और कभी सहसा दौड़ने लगती। कई किशोर, जिनकी उम्र दस-बारह के आस-पास थी, उसका पीछा कर रहे थे। बाजार के उस छोर पर पीपल के नीचे कुछ प्रतिष्ठित लोग बैठे इधर-उधर की बातों में मशगूल थे। उनकी बातचीत में उस युवती की भी चर्चा चल पड़ी।

एक ने कहा, "फिर से गणाचारी' निकल पड़ी है !"

दूसरा बोला, “गणाचारी नहीं, गिनाचारी नहीं। यह तो एक खेल है। जवान लड़की लाज-संकोच छोड़ गाँव भर भटकती रहे और उसके माँ-बाप चुप्पी साधे रहें, यही अचरज की बात है।"

तीसरे का कहना था, “बूढ़े ज़मींदार साहब की मृत्यु के बारे में इसने छह महीने पहले ही भविष्यवाणी की थी। यदि वह गणाचारी न होती तो कैसे बता पाती ?"

और फिर चौथा बोला, "भैया, यह तो अन्धे के हाथ का कंकड़ है। लग गया तो लग गया; नहीं तो नहीं।"

उस समय दस घड़ी दिन चढ़ चुका था। गरमियों की तेज़-तीखी हवा चल रही थी। स्कूल से छूटे हुए बच्चे बग़ल में किताबें और तख्तियाँ दबाये, माथे के पसीने को कुरतों के आस्तीनों से पोंछते हुए घरों की ओर घोड़ों की तरह सरपट दौड़ रहे थे। पेट भर खाना ख़ाकर भगेलों के लड़के पीपल के पत्तों से बने चिरुट का कश लगाते हुए मवेशियों को चरागाहों में ले जा रहे थे। बूढ़ी ग्वालिने उन मवेशियों के छोड़े हुए गोबर के लिए आपस में झगड़ा कर रही थीं। ब्राह्मण स्त्रियाँ घर का काम-काज निबटा कर कन्धों पर कपड़े रख, तलैया की ओर जा रही थीं। हरिजन स्त्रियाँ खेत में काम करने वाले अपने पतियों के लिए टोकरों में ख़ाना और पानी ले जा रही थीं। धूप की गरमी से सवेरा दोपहरी में आप से आप बदल रहा था। डेढ़ पहर की उस धूप में धीरे-धीरे उष्णता बढ़ रही थी। हवा के झोंके भी गरम थे। तपती हुई वह हवा गणाचारी को सहन न हुई और थोड़ी देर बाद पीपल के नीचे आकर वह उन प्रतिष्ठित सज्जनों के पास बैठ गयी। वहाँ उसका पहुँचना था कि उनकी बातचीत जहाँ की तहाँ रुक गयी।

(1. गणाचारी : वह स्त्री जो ग्रामीण प्रथा के अनुसार अविवाहित रहती है और जिसे लोग दैवी संकेत का माध्यम मानते हैं : इस कारण वह ग्रामीण समाज में सम्मान्य समझी जाती है। 2. भगेला : खेती में नियुक्त नौकर।)

आज जहाँ सुब्बन्नापेठ बसा है वह सारा प्रान्त तीन सौ साल पहले एक घना जंगल था। उस जंगल में एक छोटा-सा गाँव था। गाँव में एक गरीब किसान रहता था, जो जंगल में लकड़ी काटता और उसे दूर के शहर में बेचकर अपना जीवन-निर्वाह करता। एक कपिला गाय भी उसके पास थी। सुन्दरता उसकी देखते ही बनती थी। उसकी सारी देह चमचम, ठिंगना क़द और सींग द्वितीया की चन्द्रकोर सरीखे थे। उसके गले में 'दृष्टि-दोष' को हटाने वाली रस्सी बँधी थी। जब वह चरने जाती, और चरकर घर लौटती, तब लोगों की दृष्टि उसी पर गड़ी रहती थी। उस किसान के लिए वह कपिला गाय मानो आँगन में बँधी हुई 'नन्दिनी' थी। उसके प्यारे बच्चों के लिए तो वरदान ही थी वह। किसान हजार आँखों से उसकी रखवाली करता। रोज़ सवेरे वह कपिला घड़ा भर दूध देकर जंगल में चरने जाती और रात को लौटकर फिर से घड़ा भर देती। कपिला ही किसान के परिवार के जीवन-निर्वाह का सहारा थी। अलग से खेती-बाड़ी की उसे ज़रूरत ही नहीं होती थी। महालक्ष्मी की तरह जब गाय आती-जाती, उसे देखकर किसान की आँखें मानो चाँदनी में जुड़ा जातीं।

एक दिन शाम को गाय जंगल से घर लौटी तो किसान की बहू ने उसे बाँध दिया। बछड़े को भी बाँधा और दूध दुहने के लिए गाय की ओर उसने ज्यों ही देखा-दस एकड़ में उगी हुई फसल के ढेर-सा उभरा रहने वाला उसका थन आज ढीला-ढाला और ख़ाली-खाली दीख रहा था। इसी उधेड़बुन में बहू भीतर से पानी ले आयी और बछड़े को खोल दिया। लेकिन गाय ने बछड़े को पास तक नहीं फटकने दिया। इस पर बहू ने उसके पैरों में बन्धन डालना चाहा पर गाय ने यह भी नहीं करने दिया।

किसान-बहू ने जब ज़बरदस्ती दूध दुहना चाहा तो गाय ने लात लगायी। मालकिन मन-ही-मन चिन्तित हो उठी। सोचने लगी, 'मेरी गाय इतनी सीधी, सगी माई जैसी,-फिर भला आज इसने लात क्यों लगायी ?' इतने में किसान भी आ पहुँचा। बहू ने उसे गाय का सारा हाल कह सुनाया। फिर गाय पर से दीठ उतारी गयी-जूठे पत्तलों को गाय पर से उतारकर जला दिया गया। गाय ने फिर भी दूध नहीं दिया। तब किसान ने सोचा, 'ज़रूर किसी दुश्मन ने जंगल में ही इसे दुह लिया। शत्रुओं की यहाँ कौन कमी है ? कई लोगों से मेरी अनबन है ही।' यह सोचकर किसान चुप हो गया। लेकिन दूसरे दिन भी वही हाल हुआ। गाय घर लौटी। किसान ने दुहना चाहा और गाय ने फिर लात लगायी। तब किसान आग-बबूला हो उठा। उसने चरवाहे को बुलाकर खूब पीटा। बेचारा चरवाहा कहने लगा-"मालिक, मैं दिन भर उसे लगातार देखता रहा। एक बार ही कपिला मेरी नज़र बचाकर आधे घण्टे तक गायब रही। बस मैं और कुछ नहीं जानता।" किसान की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस दिन और दूसरे दिन उसके बच्चों ने दही के लिए खूब रार भी मचायी।

गाय ने चार-पाँच दिन लगातार दूध नहीं दिया। किसान ने उसे एक दिन घर में बाँध रखा। परन्तु दिन भर गाय बेहद छटपटाती रही। फिर उसका करुण आक्रन्दन सुनकर किसान ने उसे छोड़ दिया। शाम को वह घर लौटी मगर दूध नहीं दिया। परिवार की आजीविका का साधन इस प्रकार निरुपयोगी हुआ देख किसान पागल-सा हो गया। गहन चिन्ताओं के बीच उसे एक उपाय सूझा। दूसरे दिन वह अपना सारा काम छोड़कर गाय के साथ-साथ खुद जंगल में चला गया। दिन भर अपनी दृष्टि गाय पर गड़ाये रखी और उसी का पीछा करता रहा।

साँझ होने को आयी। मवेशियों को घर लौटाकर ले जाने का समय आया। बछड़े को ले आने के लिए किसान कुछ ही दूर गया था कि इतने में गाय गायब हो गयी। हैरान होकर किसान ने उसे खोजना शुरू किया-वृक्षों की ओट में, लता-कुंजों के पीछे, हर तरफ़, पर गाय का कहीं पता न चला। किसान तब निराश हो उठा। कोई आध घण्टे बाद गाय दूर पेड़ों के झुरमुट से आती दीख पड़ी। किसान ने देखा, उसके थनों में दूध बिलकुल न था। थन नीरस लग रहे थे-रस चूसकर फेंकी हुई आम की गुठली की तरह। किसान ने झुरमुट में जाकर ढूँढ़ा, आस-पास छान मारा, पर उसे कुछ भी दिखायी न दिया। बेचारा क्या करता ? गाय और बछड़े को लेकर उलटे पाँव घर पहुंचा।

रात में उसे नींद नहीं आ रही थी। सोचने लगा, 'यह कैसा माया-जाल है ? देखते-देखते गाय ग़ायब कैसे हुई ? कहाँ चली गयी ? पेड़ों के उस झुरमुट से क्यों निकली ? वहाँ तो कोई भी नहीं था। अजब है यह। ज़रूर कोई गड़बड़ है।' इसी ऊहापोह में सारी रात बीत गयी।

दूसरे दिन किसान फिर गाय के साथ जंगल गया। उस दिन भी वही हुआ। फिर तीसरे दिन उसने सोचा कि आज तनिक भी असावधानी से काम नहीं चलेगा। उसने पल भर के लिए भी गाय को अपनी दृष्टि से ओझल न होने दिया। उस रोज़ कपिला उसकी नज़र से न बच सकी। विवश होकर शाम को अपने मालिक के पीछे घर लौट चली। जाते-जाते यकायक वह वृक्षों की ओट में साँप के एक बिल के पास आ खड़ी हुई। किसान यह सब देख रहा था। वह पास के एक लता-कुंज में छिप गया। वहाँ से उसे गाय साफ़ दिखाई दे रही थी।

उस बिल से एक दिव्य सर्प बाहर आया और मुँह खोल कपिला के थनों के पास अपना फण पसार कर खड़ा हो गया। यह देखते ही किसान की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। लेकिन थोड़ी देर बाद उसने धीरज धर कर अपने सिर की पगड़ी उतारी और ज़मीन पर रख कर सर्पराज को प्रणाम किया। फिर उसने देखा, कपिला के थनों से दूध की धार बह निकली। अवश्य ही सर्पराज दूध पी रहे होंगे। किसान ने सोचा, इस दृश्य का वर्णन वह अपनी पत्नी से अवश्य करेगा। उसने फिर देखा-सर्पराज के एक नहीं, दो सिर थे। किसान ने सोचा इस अद्भुत दृश्य का वर्णन मैं सारे गाँव में करूँगा। उसने फिर देखा तो उसे सर्पराज के चार सिर दिखाई पड़े।

तब तो किसान का सिर चकराने लगा। वह वहीं बेसुध पड़ गया। थोड़ी देर बाद जब आँखें खुली तो गाय उसके पास खड़ी थी। फिर वह धीरे से उठा और घर लौटा। गाय भी उसके पीछे चल रही थी। किसान को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो गाय का एक-एक पग उसके अपने ही प्राणों पर पड़ रहा हो। घर पहुँचा, उसके तो चेहरे को देखते ही उसकी पत्नी ताड़ गयी कि ज़रूर कुछ विशेष घटा है। किसान ने आप ही सारा हाल कह सुनाया। देखते ही देखते सारी बात चारों ओर फैल गयी और गाँव के लोग भी किसान के घर जमा होने लगे। उन लोगों ने गाय को खूब देखा-परखा, पर किसी को कोई उपाय न सूझा।

उसी रात, किसान ने सपने में हज़ार सिर वाले सुब्रह्मण्येश्वर स्वामी को देखा। सपने में स्वामी ने अपने लिए एक मन्दिर बनवाने का किसान को आदेश दिया-ठीक उसी जगह जहाँ कपिला का दूध स्वामी ने पिया था। दूसरे दिन किसान ने गाँव वालों को अपने स्वप्न का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सुनकर सबके सब भक्ति-भाव से झूम उठे। लेकिन उस गाँव में प्रायः सभी ग़रीब थे। मन्दिर बनवाने की सामर्थ्य किसी में नहीं थी। तथापि किसान ने अपनी सारी जायदाद बेचकर मन्दिर बनवाने का संकल्प किया। लेकिन उसकी जायदाद थी ही कितनी ? एक गाय और एक झोंपड़ी-बस। गाय तो पहले ही भगवान् को समर्पित हो चुकी थी। बची झोंपड़ी-अब उसे ख़रीदने वाला कौन था ? यदि कोई ख़रीदता भी तो शायद तीन रुपये भी न मिलते। भगवान् के लिए मन्दिर तो क्या, एक नयी झोंपड़ी भी नहीं बन सकती थी। लेकिन और किया क्या जा सकता था ?

दूसरी ओर स्वामी की महिमा गाँव वालों को पग-पग पर प्रकट होने लगी। गाँव के मुखिया का बेटा बीमार पड़ा। उसके सारे शरीर पर फोड़े निकल आए। स्वामी की मन्नत माँगने पर तुरत रोग कम हुआ। एक स्त्री दस वर्ष से कान की टीस से पीड़ित थी, स्वामी के नाम दीपदान करने पर उसकी भी पीड़ा कम हो गयी।

स्वामी की महिमा और प्रसिद्धि दिनों-दिन आस-पास फैलती गयी और लोग बड़ी संख्या में वहाँ आने लगे।

वहाँ से सातेक मील दूर गाँव में एक ब्राह्मण रहता था। उसकी थोड़ी-सी जायदाद थी, पर वह निःसन्तान था। ब्राह्मण ने संकल्प किया कि उसके सन्तान होगी तो वह स्वामी के सान्निध्य में आकर रहेगा और मन्दिर बनवाने का भरसक प्रयत्न करेगा। दूसरे ही वर्ष ब्राह्मण की पत्नी गर्भवती हुई और उनके यहाँ लड़का हुआ। ब्राह्मण ने उस लड़के का नाम रखा नागेश्वर शास्त्री और अपनी सारी जायदाद लेकर स्वामी की सेवा में रहने लगा। मन्दिर बनवाने का भी उसने बीड़ा उठाया।

वह ब्राह्मण पर्याप्त अध्ययन कर चुका था। ज्योतिष तथा वास्तु-शास्त्र का वह ख्याति प्राप्त विद्वान् था। उसकी ख्याति सुनकर एक दिन एक धनी व्यक्ति उसके पास आया। उस व्यक्ति की आयु पचास वर्ष की थी। बड़ी-बड़ी मूंछे, चौड़ी-चौड़ी लाली उगलती हुई विशाल आँखें, लम्बे हाथ, भरी-भरी देह, देखने वालों को सहसा वह एक महान् योगी-सा भासता था। वैसे पचास वर्ष तक वह एक सामान्य गृहस्थ रह चुका था, लेकिन उसके बाद से ही उसके भाग फिरे थे। असल में पाँच-छह जोड़ी बैलों के सहारे गाड़ी को भाड़े पर चलाकर वह जीवन-निर्वाह करता आया था। अंग्रेज़ लोग जब टीपू सुलतान पर आक्रमण करने गये तब इसकी गाड़ी भी भाड़े पर ले गये थे। और जब टीपू पर विजय प्राप्त करके वे श्रीरंगपुर लौटने लगे तब इस गाड़ीवान ने भी लूट-खसोट में अपने हिस्से की माँग की। अंग्रेज़ों ने उसे क़िले का एक कमरा दिखाया और अनजाने में कहा कि उस कमरे में जो कुछ हो, ले लेना। गाड़ीवान के तो भाग खुलने को थे ही, वह कमरा अशर्फियों से भरा निकला। गाड़ीवान ने अशर्फियों को छिपा दिया और बड़े जतन से उन्हें बैलों पर लादकर अपने घर ले आया। गाड़ीवान का नाम था वीरन्ना। उसकी इच्छा थी कि उस धन से एक बड़ा क़िला बाँधकर खुद वहाँ का ज़मींदार बन जाए। तब उसने खोज-बीन शुरू की कि क़िले के निर्माण के लिए सबसे अच्छी जगह कौन-सी है। और यही पूछने के लिए वह उस ब्राह्मण के पास पहुँचा। ब्राह्मण को भी इस संयोग से बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा, अवश्य ही भगवान् ने इस लक्ष्मी-पुत्र को मेरे पास भेजा है।

ब्राह्मण ने वीरन्ना को बताया कि क़िला बनवाने के लिए वही स्थान सबसे अच्छा होगा, जहा सुब्रह्मण्येश्वर स्वामी उस किले के क्षेत्रपाल बन सकते हों। वह स्थान अत्यन्त पवित्र माना जाएगा और हाँ एक बड़ा शहर भी आबाद होगा, जो तीन-चार शताब्दियों तक अत्यन्त उन्नत दशा को प्राप्त होगा। ब्राह्मण की बात वीरन्ना को अँची, और उसने एक ही मुहूर्त पर अपने किले और स्वामी के मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ किया।

इतने में एक और अद्भुत घटना घटी। जिस गाय का दूध स्वामी पी रहे थे, उसके मालिक किसान के एक ही लड़की थी ! वह उम्र की सोलहवीं देहरी पार कर रही थी, पर विवाह उसका नहीं हुआ था। कभी-कभी सुब्रह्मण्येश्वर स्वामी का उस लड़की पर आवाहन होता था। किसान ने कई बार उसके ब्याह की तैयारियाँ करनी चाहीं परन्तु ब्याह की बात चलते ही लड़की पछाड़ खाकर बेसुध हो, गिर पड़ती। यह देखकर माता-पिता अपनी भूल स्वीकार करते और स्वामी से क्षमा माँगते; और तब कहीं लड़की होश में आती। जब कोई ऐसी विचित्र घटना घटती, तो कुछ लोग अविश्वास भी प्रकट करने लगते। ऐसे लोगों पर छोटी-बड़ी मुसीबतें भी आ पड़तीं। यही वजह थी कि गणाचारी के प्रति अधिकतर लोगों की श्रद्धा प्रबल होती गयी।

उस गाँव का नाम सुब्बन्नापेठ पड़ा। धीरे-धीरे वह एक बड़ा गाँव बन गया। मन्दिर और किले का निर्माण दस बरस तक चलता रहा। अपने में दोनों ही अद्वितीय थे : पर सुन्दरता में एक-दूसरे को मात करते दीखते थे। दूर-दूर से लोग आ-आकर मन्दिर और किले को देखते।

वीरन्ना नायडू बचपन से विष्णु-भक्त थे। अतएव उन्होंने वेणुगोपाल स्वामी का भी मन्दिर अलग बनवाया। स्वामी के नित्य भोग, कल्याणोत्सव (वह उत्सव जिसमें भगवान् का विवाह रचाया जाता है।) तथा अन्य पूजाओं के लिए ज़मींदार ने यथोचित प्रबन्ध किया। जमींदार के कृपा-पात्र बनकर अनेकानेक लोग इसी गाँव में आ बसे। अनेक प्रसिद्ध विद्वान् आए। देवदासियाँ आयीं। वैष्णवभक्त पधारे। शिव के अनुयायी भी आ बसे; और जमींदार ने सभी के लिए उचित प्रबन्ध किया।

दस बरस पहले जहाँ एक छोटा-सा गाँव था, वहाँ आज देवताओं को आश्रय मिला, भक्तों को सम्बल, धर्म को वास-स्थान और मुक्ति को मार्ग। सुब्रह्मण्येश्वर स्वामी बड़े दयालु थे। आने वाली दुर्घटनाओं का संकेत वे गणाचारी के मुख से कर दिया करते थे, साथ ही उन दुर्घटनाओं के परिहार के मार्ग भी सुझाते और दोषियों को दण्ड देते थे। यही कारण था कि स्वामी का नाम सुनते ही सारे लोग काँप उठते थे। अतः सहज ही भक्ति-धारा को गाँव में भरपूर बढ़ावा मिल रहा था।....

वीरन्ना नायडू का बेटा था नागन्ना नायडू। बाप के मरने पर वही ज़मींदार बना। उधर ब्राह्मण का भी देहान्त हुआ और उसका बेटा नागेश्वर शास्त्री भी मुखिया बन गया। पहली गणाचारी भी चल बसी और उसके स्थान पर उसके भाई की लड़की गणाचारी बन गयी। उस लड़की के माता-पिता भी उसका ब्याह रचाना चाहते थे, लेकिन ब्याह की बात छिड़ते ही वह भी पहली की तरह बेहोश हो जाती। इसलिए उसे भी कुँआरी ही रहना पड़ा। इस तरह उस किसान के परिवार में एक के बाद एक स्त्री-सन्तान का ही जन्म लेना और उसका सुब्रह्मण्येश्वर स्वामी की गणाचारी बनना आनुवंशिक क्रम-सा बन गया था।

वीरन्ना नायडू के वंशज स्वामी के प्रतिनिधि थे और ब्राह्मण के वंशज प्रचारक। किसान के वंश में जन्म लेने वाली लड़कियाँ स्वामी के व्याख्याता का काम करती थीं। यानी धरती और आकाश के बीच, स्वर्ग और नरक के बीच, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष के बीच एक प्रकार का स्थायी सम्बन्ध स्थापित हो गया।

ऊपर भगवान् थे और नीचे राजा और ब्राह्मण। इन दोनों के बीच गणाचारी एक अटूट कड़ी थी।

यह था चौखम्भा धर्म-मण्डल। इसके खम्भे थे-भगवान्, ज़मींदार, ब्राह्मण और गणाचारी। इसी मण्डप में सुब्बन्नापेठ के लोग उत्सव मनाया करते थे। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी कदली-वृक्ष इन चारों खम्भों से बँधे थे। चारों खम्भे हरे-भरे, शुभसूचक और शोभा को लिये हुए थे। यह धर्म-मण्डप तीन शताब्दियों तक निरन्तर-अव्यवहित रूप में शोभावान् रहा। इन तीन सदियों में सहस्रफण वाले नागेश्वर स्वामी सुब्बन्नापेठ पर अपने हजार फणों की छत्रछाया पसारे, उस ठण्डी छाया में गाँव वालों को सुख और शान्ति की थपकियाँ देते रहे। सारे लोग धर्म और मोक्ष के बीच अर्थ और काम के झूले में सुख की नींद सोते रहे।

इसी सुदीर्घ काल में, स्वामी के फण लोगों को ठण्डी छाया देने के लिए ही खुले, उन्हें डसने के लिए नहीं। स्वामी की दो हज़ार आँखें धर्म से अनुप्राणित चारों दिशाओं को समाधान से देखती हुई प्रशान्त ज्योति की वर्षा करती रहीं; एक बार भी उन आँखों से धर्म-च्युति पर कुपित रक्त-कान्ति नहीं बरसी।

जिस ब्राह्मण ने सुब्बन्नापेठ का निर्माण कराया था, उसी का निर्णय था कि गाँव तीन सौ वर्ष तक रहेगा। कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि उस प्रकाण्ड पण्डित ने, उस सर्वज्ञ ब्राह्मण ने, सुब्बन्नापेठ को शाश्वत क्यों नहीं बनाया ! इसका उत्तर यही है कि ब्राह्मण सर्वज्ञ अवश्य था, पर सर्वाधिकारी नहीं। वास्तु-शास्त्र का ज्ञाता अवश्य था, पर वास्तु-निर्माता नहीं। शास्त्र का जानकार था, पर स्रष्टा नहीं।

तीन सौ वर्ष बाद सुब्बन्नापेठ के नाश का बीजारोपण होगा-यही उस ब्राह्मण का संकेत था। आज की गणाचारी भी यही सूचित कर रही थी कि नाश के हेतुओं का जन्म हो चुका है। लेकिन गाँव में कई लोग गणाचारी की बातों को महत्त्व नहीं दे रहे थे।

गणाचारी पीपल के वृक्ष तले जा बैठी और थोड़ी देर बाद धीमे स्वर में अपना वही गाना गाने लगी। वहाँ बैठा हुआ एक युवक सहसा उठा और इशारों से अन्य लोगों के मना करने पर भी बड़ी ढिठायी से गणाचारी के सामने जाकर कहने लगा, “क्यों जी गणाचारी, ये पागलपन के गाने क्यों गाती हो ? हज़ार फण कैसे ? राजा को डसना कैसा ? सो भी सपने में ? अब बन्द करो अपना गाना और घर चली चलो। जवान हो चुकी हो। जाति-बिरादरी की नाक कटा रही हो, अब तक ब्याह नहीं हुआ। ब्याह का नाम लेते ही हू-हू करती हुई बेसुध पड़ जाती हो। यह सब तुम्हारा ढोंग जान पड़ता है। यदि तुम सचमुच गणाचारी हो तो तुम्हें भी क्यों पसीना निकल आया ? तुम भी क्यों थक गयीं ? तुम सचमुच भगवान् की गणाचारी हो तो दिखा दो अपनी महत्ता ! मैं जो अब तुम्हें फटकार रहा हूँ, देखू कि तुम क्या कर लोगी।" यह युवक इसी प्रकार बक-झक कर रहा था कि लोग उसे ज़बरदस्ती वहाँ से घसीट ले गये। कुछ लोग कहने भी लगे, “उसने यह अच्छा नहीं किया। कैसा समय आया है ! हाय, लोगों के दम्भ का ठिकाना नहीं रहा ! आजकल के ये सब छोकरे सोलहों आने बिगड़ गये हैं। उन्हें सीख देने वाला भी कोई नहीं रहा।" ....और इसी तरह की बातें चल पड़ीं।

गणाचारी एकदम चुप्पी साधे रही। उसने केवल एक-दो बार सिर उठाकर उस युवक को देखा। एक बार वहाँ के जमघट को भी निरखा-परखा।

लोग धीरे-धीरे वहाँ से खिसकने लगे। अन्त में गणाचारी अकेली रह गयी। दोपहर का समय हो आया। ग्रीष्म की धूप में पीपल के कोमल पत्ते ऐसे चमक रहे थे मानो गेहँआ रंग वाले नागों के फण हों। पत्तों की छोटी-छोटी पूँछे ऐसी लग रही थीं मानो साँपों की पसारी हुई जीभे हों। दूर आकाश में सफ़ेद रंग के हलके-हलके बादल एक-दूसरे से ऐसे मिल-जुल रहे थे कि जैसे सफ़ेद नाग अपने फण फैलाकर एक-दूसरे से खेल रहे हों, कूद रहे हों और किलोलें कर रहे हों। धूप की तेजी भी ऐसी दुर्निरीक्ष्य हो उठी, मानो कोई महा-भुजंगराज क्रोध से फुफकारता हुआ फण खोलकर पूँछ के बल खड़ा हो गया हो।

गणाचारी उठी और घर की ओर चल पड़ी। उसकी लम्बी और अधखुली आँखें काले नाग के अधखुले फण जैसी दीख रही थीं। कनखियों पर पड़ी झुर्रियों की लकीरें काले नाग की जीभों की भाँति भयानक मन्दहास कर रही थीं। गणाचारी के सामने से एक महापुरुष आ रहा था। उसे देखते ही गणाचारी ने विकृत हास किया और उसकी ओर दौड़ पड़ी। फिर वह अपना वही गाना गाने लगी-

“फण हजार पसार, नृप को
स्वप्न में फणि ने लिया डस।"

गाने के शब्दों का गणाचारी ने कुछ ऐसा उच्चारण किया, मानो कोई सर्पराज फुफकार रहा हो।

2

उस महापुरुष के शरीर का रंग पकी हुई नारंगी का-सा था। चेहरा न तो लम्बा था और न गोल। आजानु बाँहें, काली आँखें और विशाल फाल-भाग। उसकी आयु बीस बरस की रही होगी। नाम था धर्माराव।

धर्माराव रामेश्वर शास्त्री का बेटा था। रामेश्वर शास्त्री नागेश्वर शास्त्री की पाँचवीं पीढ़ी वाले पोते थे। कृष्णम नायडू जिन दिनों ज़मींदार थे, रामेश्वर शास्त्री उनके दीवान थे। लेकिन ज़मींदार की ख्याति से अधिक दीवान जी की ख्याति ही दसों दिशाओं में फैली। रामेश्वर शास्त्री ने श्रुति-स्मृतियों का अच्छा अध्ययन किया था। कुछ कर्मठ भी थे। उन्होंने यज्ञ-याग आदि नहीं किया था, परन्तु वैश्वदेव अवश्य किया करते और अपने घर में होमाग्नि को बुझने न देते। विचित्र व्यक्ति थे वे। उन्होंने चारों वर्गों की अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कन्याओं से चार विवाह किये और चारों पलियों से सन्तान पायी। इनके अतिरिक्त रत्नागिरि नाम की एक वेश्या उनकी रखैल भी थी। उससे भी रामेश्वर शास्त्री के सन्तान हुई।

लोगों की दृष्टि में रामेश्वर शास्त्री के ये अनेक विवाह और उनकी कामुकता अवश्य भर्त्सना का हेतु बनी। परन्तु उनकी उदारता तथा अन्य सद्गुणों के समुद्र में वह भर्त्सना डूब-सी गयी। रामेश्वर शास्त्री निरन्तर अन्नदान किया करते थे। शिवि, दधीचि, कर्ण, रामेश्वर शास्त्री-यही मानो महान् दाताओं की परम्परा थी। सारे परगने में रामेश्वर शास्त्री से अपरिचित कोई न था। ऐसा भी कोई न था जो उनकी उदारता से लाभान्वित न हुआ हो; और साथ ही उनका गुणगान न करता हो।

नागेश्वर स्वामी के मन्दिर के ध्वज-स्तम्भ पर चढ़ायी गयी पीतली चादर जब ख़राब हो गयी, तब रामेश्वर शास्त्री ने उसके स्थान पर नयी सोने की चादर बनवायी। वेणुगोपाल स्वामी के लिए भी सोने का कवच बनवाया। सत्यभामा देवी के लिए मूल्यवान् नथ बनवायी, जिसमें माणिक जड़ा हुआ था। उसे बनवाने में एक हज़ार रुपये खर्च हुए। नागेश्वर स्वामी के मन्दिर में वीरभद्र की मूर्ति के लिए सोने की मूंछे, आँखें और बीच में माणिक जड़ी हुई बिन्दी भी उन्होंने बनवायी। वेणुगोपाल स्वामी के मन्दिर में शमी-वृक्ष के पास पत्थर का चबूतरा बनवाया। मन्दिर की तलैया में संगमरमर की नयी सीढ़ियाँ भी बनवायीं। यहाँ तक कि दोनों मन्दिरों में कराये गये निर्माण पर ही उनकी आधी जायदाद ख़र्च हो गयी।

रामेश्वर शास्त्री निर्धनों के भगवान् थे। पहले जब बारह बरस का अकाल पड़ा, तब लोग भूखों मर रहे थे। ज़मींदार के धान्यागार में छह सौ खण्डी धान्य था। उसकी कौन रखवाली करता ? लोग झुण्ड के झुण्ड आ-आकर धान्य लूटने लगे। रामेश्वर शास्त्री को धान्यागार की रक्षा का काम सौंपा गया। वे धनुर्विद्या में निष्णात थे। तीर-कमान लेकर धान्यागार के पास जा डटे। आस-पास के पाँच-छह देहातों से झुण्ड के झुण्ड लोग आए। चुपचाप दूर खड़े हुए। पास आने का किसी को साहस न होता था। उन्हें कुछ न सूझा। कोई एक पग भी आगे बढ़ता तो शास्त्री जी के तीर का शिकार होना अवश्यम्भावी था। अन्त में उनमें से कुछ मुखिया लोग रामेश्वर शास्त्री के पास आए और कहने लगे-“महाराज, आज हमारे प्राण आपकी मुट्ठी में हैं। भूखों मरना क्या और आपके तीरों से मरना क्या, हमारे भाग्य में तो मरना ही बदा है। साथ-साथ हमारे बच्चे और स्त्रियाँ भी हैं। आप कृपा करें तो जिएँगे नहीं तो मरेंगे।" उनका दीनालाप सुनकर शास्त्री जी का हृदय पिघल गया। उन्होंने धान्यागार का एक भाग लोगों को दिखाया। लोग उस पर टूट पड़े और एक-एक व्यक्ति दस-बारह दिनों का रातब उठा ले गया। इसके बाद जमींदार ने शास्त्री जी से जवाब तलब किया। शास्त्री जी ने कहा, "लगभग एक हजार लोग आये और अनाज माँगने लगे। मैं न देता तो पता नहीं कितने लोग मर जाते। वह सारा पाप आप पर होता या मुझ पर ? महाराज, यदि आप नाराज़ होते हैं तो उस अनाज के दाम मैं स्वयं अदा करूँगा।" यह जवाब सुनकर जमींदार चुप हो गये।

(1. परगना : ज़मींदारी इलाके का एक भाग। 2.खण्डी : धान्य के माप का एक गरिष्ठ प्रमाण।)

इसी तरह की असंख्य कथाएँ प्रचलित थीं। उस इलाक़े में शास्त्री जी का बहुत सम्मान होता था। वे बड़े भाग्यशाली थे। जब तक वे जीवित रहे, यह कहना कठिन था कि सचमुच जमींदार कृष्णम नायडू थे या रामेश्वर शास्त्री।

एक बार ज़मींदार और रामेश्वर शास्त्री में किसी बात पर मनमुटाव क्या हो गया, छह बरस तक दोनों ने एक-दूसरे से बात नहीं की। शास्त्री जी ने कोठी की तरफ़ फटककर नहीं देखा। छह बरस बाद वेणुगोपाल स्वामी के सम्प्रोक्षण का अवसर आया। मन्दिर की मरम्मत की गयी। जमींदार साहब ने कोई कसर उठा न रखी। सम्प्रोक्षण का दिन भी आया। बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हुए। साँग अध्ययन करने वाले शास्त्रवेत्ता, गायक, कविगण, वादक, वैश्याएँ और दर्शक-इन सबसे मन्दिर खचाखच भर गया। मुहूर्त क़रीब आ रहा था। पूजा-संकल्प प्रारम्भ करने के लिए पुरोहित ज़मींदार की अनुमति की प्रतीक्षा कर रहा था। ज़मींदार की अनुमति नहीं मिली। मुहूर्त टला जा रहा था। पुरोहित जल्दी कर रहा था, पर ज़मींदार सिर नहीं उठा पाते थे। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। अन्त में पुजारी ने साहस करके ज़मींदार से पूछा, “महाराज, मुहूर्त टला जा रहा है, संकल्प प्रारम्भ कर दें ?" कृष्णम नायडू ने बिना सिर उठाये ही उत्तर दिया, “यहाँ किसे पूछते हो ? जो अनुमति दे सकते हैं, वे रामेश्वर शास्त्री तो अकड़कर घर बैठे हैं। जाकर उन्हें बुला लाओ।" यह सुनते ही सब लोग आश्चर्य चकित हुए। सबको पता था कि छह बरस से दोनों में बातचीत तक बन्द है। लोग रामेश्वर शास्त्री को बुलाने गये, पर वे आए नहीं। बोले, “बुलाने वाले तुम कौन होते हो ? बुलाना जिनका कर्त्तव्य है, वे बुलाएँगे तभी आऊँगा।" ज़मींदार को जब यह उत्तर मिला तो वे स्वयं जाकर शास्त्री जी को बुला लाये। उनके परस्पर प्रेम का ढंग ही निराला था। ज़मींदार ने जाकर शास्त्री जी से कहा, "क्यों जी, अकड़कर बैठे हो ? छह बरस तक अकड़ते रहे, अब और कब तक अकड़ोगे ? चले आओ भी, मुहूर्त टला जा रहा है।" और शास्त्री जी मन्दहास करते हुए उठकर चले आए।

ऐसी थी उनकी मैत्री। राजा जितने उदार थे, शास्त्री जी उतना ही आत्म-सम्मान रखते थे, कभी-कभी ऐसा लगता था कि उनके शरीर मात्र भिन्न हैं।

मुसीबतों ने हरिश्चन्द्र जैसों को भी नहीं छोड़ा। उसी प्रकार रामेश्वर शास्त्री के अन्तिम दिन भी बड़े कष्ट में बीते। सामान्यतया भाग्यवान् असल में वे हैं जो प्रारम्भ में कष्ट सहकर भी जीवन के अन्तिम दिनों में सुख पाते हों। पहले सुख का उपभोग करके अन्त में दुर्दिन को प्राप्त होने वाले सचमुच अभागे ही होते हैं। शास्त्री जी की दान-वृत्ति के फलस्वरूप उनकी सारी जायदाद ग्रीष्म में सूखते तालाब की तरह धीरे-धीरे सूखती गयी।

.............................