सह-अस्तित्व (ओड़िया कहानी) : भुवनेश्वर बेहेरा

Sah-Astitva (Oriya Story) : Bhubaneswar Behera

: 1 :

छुट्टी का दिन है। मैं अति प्रसन्न मुद्रा में बरामदे पर पड़ी कुरसी पर बैठा सड़क पर तेज रफ्तार से आ—जा रही मोटरगाड़ियों की ओर देखता हुआ सोच रहा हूँ कि एक कप चाय के लिए हुक्म दूँ या नहीं। इतने में धारा अपने नन्हे से बच्चे को लेकर आ पहुँची। उसने कहा, ‘‘पिताजी, इसके लिए एक अच्छा सा नाम चुन दीजिए।’’

सड़क से मैंने अपनी निगाह लौटाई। कहा, ‘‘नाम? नाम में भला क्या रखा है? रख दे कुछ भी। मेढक को ही देखो, तुम उसे किसी भी नाम से पुकारो—मेढक राजा कहो, मेढकी रानी कहो, फ्रॉग कहो; मंडूक कहो या कुछ और, क्या इससे उसमें कुछ परिवतन हो जाएगा, उसी तरह इधर—उधर फुदकता रहेगा। हाँ तो, कोई अच्छा—सा नाम ही चाहती हो न, चित्रसेन क्यों नहीं रख देती।’’

धारा ने भौंहें सिकोड़ते हुए प्रश्न किया—‘‘चित्रसेन?’’

मैंने कहा, ‘‘हाँ! देखने में चित्रसेन जैसा सुंदर भी है। चित्रसेन ही ठीक रहेगा।’’

शायद धारा कुछ कहना चाहती थी, किंतु उसके कुछ कहने से पहले ही मैं बोल पड़ा, ‘‘सुन, जानती है न, कौन था चित्रसेन? चित्रसेन गंधर्व—इंद्र का पुत्र, देखने में जितना सुंदर, धनुष विद्या में भी उतना ही निपुण। जानती है, वह एक बार किस तरह अकेले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण सहित सारी कौरव सेना को परास्त कर दुर्योधन को रथ में बाँधकर ले गया था। और अर्जुन...’’

धारा ने पुनः कुछ कहना चाहा—‘‘यह तो ठीक है पिताजी—पर चित्रसेन...’’

मुझे गुस्सा आ गया। यह भी भला कोई तरीका है। पूरी बात सुने बिना ही बीच में टाँग अड़ाने की आदत सी बन गई है इन लोगों की। खुद उसी ने कोई नाम तलाशने को कहा—मैं तो आगे—आगे नहीं हो रहा था, सोचा उसे कुछ अच्छी तरह सुनाऊँ। मैंने कहा—किसी भी चीज की परवाह न करने की आजकल एक आदत सी बन गई है तुम लोगों की। माँ—बाप...किसी की भी नहीं सुनोगे, जैसे कि सबकुछ जानते हों। जो खुद सोचते हैं बस वही ठीक है, बाकी सब गलत—पर पिताजी।

फिर टाँग अड़ाने की कोशिश कर रही थी धारा। मैंने और भी उत्तेजित होकर चिल्लाया, ‘‘अपनी संस्कृति के प्रति सम्मान नहीं, अतीत का गर्व नहीं, सिर्फ पश्चिमी चाल—चलन का अनुकरण। सिर्फ थोथी और दिखावटी मनोवृत्ति। इंग्लैंड का पाँचवाँ सम्राट् कौन है—उसके पिता का नाम क्या था—उसकी ससुराल कहाँ थी, सब बता सकती हो, पर अपने नाना और परनाना का नाम तक नहीं मालूम।

मेरे गले का चढ़ा हुआ स्वर सुनकर ‘वे’ दौड़ आईं। पूछने लगीं, क्या हुआ? मैंने कहा, होना क्या है, ये लोग भला हमारी बात सुनेंगे? कहते हैं जेनरेशन गेप है, मानो सैकड़ों युगों का अंतराल हो। भला बताओ तो सही, चित्रसेन नाम में क्या खराबी है? पर इसे बू आ रही है उस नाम से?

धारा की माँ ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा। उन्होंने पूछा, ‘‘चित्रसेन? किसके लिए?’’

मैंने कहा, ‘‘सातों कांड समाप्त हो जाने पर अंत में पूछती हो सीता औरत थी या मर्द? और भला किसके लिए—धारा के बच्चे के लिए।’’

उन्होंने आँखें फाड़कर मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे, वह तो तुम्हारी नातिन है न। भला लड़की का नाम चित्रसेन कैसे होगा जी।’’

अपना सिर खुजलाते हुए मैंने कहा, ‘‘अरे, बात तो सही है?’’ मैंने धारा से गुस्से में कहा, ‘‘तुमने शुरू में ही क्यों नहीं बतलाया?’’

उसने उत्तर दिया—पिताजी, आपने मेरी बात सुनी ही कहाँ? मैंने कई बार कोशिश की, पर आप कहने देते तब न?’’ मौका देखकर धारा की माँ ने भी जोड़ दिया—‘‘तुम भला कभी किसी की सुनते भी हो?’’

गलती तो हुई है। मैंने आत्मरक्षात्मक मुस्कराहट बिखेरते हुए कहा, ‘‘ठीक है, तो अहल्या क्यों नहीं रख देती। नहीं तो शकुंतला, वैजयंती माला, कुंदेंदु मेखला, तुषार हार—धवला।

—इतना लंबा नाम!

—तो छोटा सा रख दो—रीता, नीता, मीता, गीता, फीता, कविता, वनिता...

—ये सब नाम तो पुराने पड़ चुके हैं, पिताजी!

—तो कुछ आधुनिक नाम कहे देता हूँ—

—जो पहले कभी किसी ने नहीं रखा होगा—चलते बादल, डूबती तारिकाएँ, डूबता चाँद और यदि क्रांतिकारी नाम चाहती है तो लक्ष्मीबाई, दुर्गावती। अगर साम्यवादी नाम चाहती हो तो सोमवारी, भातखाई, गोबर गोटाई आदि। धारा कुछ मुस्कराते हुए बोली, ‘‘चलिए रहने दीजिए, अन्नप्रासन के वक्त या जब साल भर की हो जाएगी, तब भी नामकरण किया जा सकता है।’’ मैं भला क्या कहता—कहा, ‘‘देखो, जैसी तुम्हारी मरजी।’’ साथ ही इतना और जोड़ दिया, ‘‘जाकर रघू से कह दो, एक कप चाय दे जाए।’’

नातिन के नामकरण की समस्या के बाद से ही मैंने यह तय कर लिया था कि अब इस तरह के झमेलों में नहीं पड़ूँगा। पर कुछ ही दिनों वाद इसी तरह की एक समस्या दूसरे रूप में सामने आई—अत्यावश्यक रूप में।

प्रकाशक ने एक वजनदार बात कही थी—और सच भी—पुस्तक का नाम रखे बिना पुस्तक छापेंगे कैसे? वह तो किसी की औलाद है नहीं कि जन्म होने के तुरंत बाद नाम न रखकर बाद में छठियारी, अन्नप्रासन या साल भर बाद जन्मदिन की तिथि पर सत्यनारायन पूजा के वक्त नामकरण करने पर भी चल जाएगा। पुस्तक की बात सर्वथा भिन्न है। नाम लेकर ही वह अस्तित्व में आती है। बिना नाम के उसका प्रकाशन संभव नहीं।

अजीब मुसीबत है।

काश कोई कविता की पुस्तक होती। किसी एक फूल या कुसुम और उसके बाद रेणु या पराग, मंजरी या कलिका, गुच्छा या गुलदस्ता या हार वगैरह कुछ जोड़ देने पर एक नाम बन जाता है। और फिर फूल तो हजारों तरह के हैं, विभिन्न तरह के गुलाब ही कई हजार हैं।

देसी—विदेशी या कोई काल्पनिक फूल होने पर भी काम बन जाता।

पर गद्य की बात बिल्कुल अलग है। कहानी को किसी फल के साथ या निबंध को किसी साग—सब्जी के साथ तुलना करने की बात सुनने में नहीं आई है। आम की टोकरी, केला का घौंद या आलू की बोरी आदि नाम क्या पुस्तक के लिए किसी ने सुना है? आखिरकार मैंने यह निश्चित किया कि धारा की माँ से ही पूछूँगा। उन्हें बुलाया भी, वे तुरंत ही आ पहुँचीं। मैंने कहा—मेरी पुस्तक के लिए एक अच्छा सा नाम सुझाओ?

‘‘बस इतनी सी बात के लिए बुलाया है?’’ भौंहें सिकोड़कर, नथुने फुलाकर उन्होंने जवाब दिया, ‘‘क्या मेरे पास और कोई काम नहीं है कि तुम्हारे पास बैठूँ, और फिर तुमने ऐसा क्या कुछ लिख मारा है कि उसके लिए मैं नाम ढूँढू। उधर तरकारी चढ़ाकर आई हूँ। अगर थोड़ी सी भी जल जाए या नमक वगैरह कुछ कम—बेशी हो जाए तो सारा घर सिर पर उठा लोगे और दिन भर उसी की रट लगाए रहोगे। आजकल तो हर कोई पुस्तक में संगृहीत किसी एक कहानी को ही पुस्तक का नाम दे देता है—तुम भी ऐसा ही क्यों नहीं करते।’’

इस तरह अपने अनजाने में ही एक अच्छा सा संकेत फेंककर वह रसोई में चली गईं। मैं उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सका। महिला हुई तो क्या, वास्तव में ये लोग बहुत तेज होती हैं। वरना इंदिरा गांधी, बंदरनायक, गोलडा मेयर, मार्गरेट थेचर आदि क्या यों ही प्रधानमंत्री बनकर पुरुषों के छक्के छुड़ा देतीं। पर जब मैंने ‘दंतली की हँसी और अन्य कहानियाँ’ नाम देना तय किया, तब एकाएक मुझे यह खयाल आया कि मेरी पुस्तक में सिर्फ कहानियाँ ही नहीं, बल्कि निबंध, अनुभूति की कहानियाँ और कई आलोचनात्मक लेख भी शामिल हैं।

पुनः एक समस्या आ टपकी।

इस बार जब दुबारा धारा की माँ को आवाज लगाई, रसोई से जवाब मिला—क्या? मैंने कहा, ‘‘पाँच मिनट प्लीज।’’

करछुल की जोर—जोर से चलने की आवाज के साथ ही उत्तर मिला, ‘‘इस वक्त मेरे पास समय नहीं है।’’

नामकरण में पूरा असहयोग—साफ जवाब। पर मैंने भी मन—ही—मन ठान लिया कि इसका उचित बदला लेकर ही रहूँगा।

: 2 :

उस दिन अध्यापक वर्मा और श्रीमती वर्मा हमारे घर घूमने आए थे। साथ में आई थी उनकी बातूनी लड़की नेली—धारा की सहेली, अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.। हमारा बहुत पुराना मित्र है यह बिहारी परिवार। चाय और जलपान के बीच बातचीत भी खूब जमकर हो रही थी।

एकाएक मैंने अपनी पुस्तक के लिए एक नाम सुझाने को मिसेज वर्मा से अनुरोध किया। मैंने देखा, मेरी पत्नी तिरछी नजरों से मेरी ओर देख रही है, पर मैं उसकी ओर न देखने का अभिनय करते हुए मिसेज वर्मा की ओर देखता रहा।

इससे पहले कि मिसेज वर्मा कुछ कहतीं, नेली बीच में आ टपकी। उसने पूछा, ‘‘अंकल, कविता है या उपन्यास?’’ मैंने उसकी ओर देखकर जवाब दिया—‘‘न कविता है और न ही उपन्यास; कहानियों और निबंधों का एक संकलन है।’’

अब उसने किसी भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लेनेवाले वक्ता की तरह बोलना शुरू कर दिया—‘‘बेकन के मुताबिक कुछ रचनाओं को सिर्फ चखा जाता है, कुछ को एक बार में निगल लिया जाता है, और कुछ को चबा—चबाकर निगलना पड़ता है।’’ उसने पूछा, ‘‘आपकी रचनाओं को निगलना पड़ेगा या चबाना पड़ेगा?’’

मैंने कहा, ‘‘तुम तो अंग्रेजी खाना की भाषा में अंग्रेजी साहित्य की बात कर रही हो। हमारा ओड़िया खाना इससे बिल्कुल भिन्न है। अंग्रेजी ढाँचे की तरह चुप्पी साधे हुए चुपचाप भोजन करना नहीं है। हमारे खाने में तेज खटाई को पलथी मारकर बैठकर सुड़कना पड़ता है, ताकि वह खटाई जीभ से छलाँग लगाकर सीधे तालू के भीतरी भाग में गुदगुदी पैदा कर दे। दही में डूबे भात को सपोटना पड़ता है, चटनी या अचार खाते वक्त जीभ चटखाना पड़ता है और जब कभी अच्छी मछली या मांस की तरी कुछ ज्यादा कड़वी हो जाती है, आँखों से आँसू और नाक से निरंतर पानी चूते रहने पर भी बैठे हुए आसन पर पैरों की स्थिति बदलते हुए और थोड़ी सी तरी लाने की आवाज देनी पड़ती है। हमारा ओड़िया साहित्य भी इसी तरह खुला और बंधन—मुक्त है।

‘‘दसकाठिया, पाला, स्वाँग देखा है तुमने?’’

नेली ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘क्या आपके लेख ओड़िया में हैं?’’

मैंने कहा, ‘‘हाँ तुमने क्या समझा था?’’

उसे और भी आश्चर्य हुआ। भोलेपन से पूछा, ‘‘अंकल, क्या ओड़िया में भी कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी और निबंध आदि हैं।’’

प्रश्न सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे क्या जवाब दूँ। यदि कोई और पूछता तो शायद यह समझकर उस पर बरस पड़ता कि जान—बूझकर मजाक कर रहा है—पर यह नेली। भला यह मुझसे जानबूझकर दिल्लगी क्यों करेगी? मैंने कहा, ‘‘तुम ओड़िया साहित्य से कितना अपरिचित हो? अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य के बारे में भी ज्यादा कुछ नहीं जानती होगी। इसीलिए कई भारतीय नेता सोचते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा के कारण ही तुम सब आम जनता की जिंदगी से बहुत दूर जा पहुँचे हो और भारतीय संस्कृति की धारा से अलग रह रहे हो; यही कारण है कि वे लोग ‘अंग्रेजी हटाओ’ का नारा बुलंद करने में जुटे हुए हैं।’’

नेली का चेहरा सुर्ख पड़ गया। उसने कहा अंकल, ‘‘अगर हमारे व्यवहार और अज्ञानता के कारण अंग्रेजी हमारे देश से हटा दी जाएगी तो मुझे बहुत दुःख होगा, किंतु इसके लिए हम जैसों को गुनहगार ठहराना भी इकतरफा निर्णय होगा। एम.ए. में हमारे पास सोलह पेपर थे, बी.ए. ऑनर्स में छह। पर उनमें से एक भी पेपर संस्कृति या भारतीय साहित्य पर नहीं था। जब मैंने बी.ए. ऑनर्स में दाखिला लिया, उस वक्त अतिरिक्त विषय के रूप में भारतीय साहित्य या दर्शन अनिवार्य नहीं था। अब आप ही बतलाइए कि भारतीय साहित्य के बारे में हमने कहाँ से पढ़ा कि जानें और अगर हम इस बारे में अज्ञान हैं तो इसमें भला हमारा क्या कसूर?’

धारा की माँ नेली का समर्थन करते हुए बोल उठीं—‘‘सच ही तो है। प्रत्येक विषय में विशेष ज्ञान देने के चक्कर में इन लोगों के दृष्टिकोण को शायद सीमित कर दिया गया है। इन लोगों में विशेष ज्ञान की गहराई संभव है, पर विस्तार या फैलाव नहीं। शायद ज्ञान के इसी फैलाव की कमी के कारण ही ये लोग हमारे समाज से अपना तालमेल बैठा पाने में असमर्थ हैं। इसके लिए ये लोग स्वयं जितने जिम्मेवार हैं, उससे कहीं ज्यादा जिम्मेवार वे लोग हैं, जिन्हें उच्च शिक्षा का दायित्व सौंपा गया है।’’

अध्यापक वर्मा अपना सिर हिलाए जा रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘सही है, इसे स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। शायद हम अपने आत्माभिमान के चलते युवा पीढ़ी से दूर होते जा रहे हैं—उनके विचारों और दृष्टिकोणों को समझने की कोशिश नहीं कर रहे, उनके निर्णयों पर पर्याप्त मात्रा में गौर नहीं कर रहे। शायद अपने इस दलगत अभिमान के बल पर हमने अपने इकतरफा निर्णय को अति निर्दयता के साथ इन पर जबर्दस्ती थोप दिया। शताब्दी के स्वाधीन विचारों को लेकर अब इन्होंने हमारी तानाशाही मनोवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया—सीधे तरीके से कुछ न कर पाने के कारण हम लोगों से दूर हो गए हैं। दीख रहा है यह जेनरेशन गैप।’’

मेरी श्रीमती हँस रही थीं। शायद उस हँसी के माध्यम से वे नातिन के नामकरण वाली घटना की ओर परोक्ष रूप से संकेत कर रही थीं। पर मैंने अध्यापक वर्मा की बातों से सहमति प्रकट करते हुए कहा, ‘‘आप ठीक कह रहे हैं। हम सब आपस में इतने करीब होते हुए भी एक—दूसरे को नजदीक से समझने की कोशिश न कर दूर से ही आपस की गतिविधियों की समीक्षा करने में जुट जाते हैं। इन सारी चीजों में कहीं आपस में एक—दूसरे को समझने या विचारों के आदान—प्रदान की मनोवृत्ति नहीं है, जिसे कि सह—अस्तित्व कहा जा सके। एक अजीब सी आदत ‘या तो इकट्ठे अपना लो या पूरा—का—पूरा फेंक दो’ बन चुकी है। यह ‘अंग्रेजी हटाओ’ की मनोवृत्ति उसी का एक परोक्ष प्रतिफलन है।’’

शायद नेली इस तरह की आलोचना से काफी प्रभावित हो रही थी। उसने कहा, ‘‘अंकल, हम बँगला साहित्य के बारे में तो बहुत कुछ जानते हैं, हालाँकि बंगालियों से सुनकर या अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर, पर...।’’

‘‘ओड़िया साहित्य के बारे में उसी तरह ओड़िया लोगों से ज्यादा कुछ नहीं जान सकी हो, यही कहना चाहती हो न!’’ मैंने उसके मुँह की बात छीनते हुए कहा और खुद ही जवाब भी देखने लगा—‘‘भला बताओ कैसे सुनोगी? बंगाल के सभी लोग बंगाली हैं। यह तो तुम जानती ही हो कि पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली लोग बंगाली भाषा की ममता में पड़कर मुसलमान होते हुए भी किस तरह पाकिस्तान से अलग हो गए। पश्चिम बंगाल में नजरूल इसलाम जिस तरह बंगाली हैं, बँगलादेश में रवींद्रनाथ उसी तरह बंगाली हैं। अपनी मातृभाषा के प्रचार और प्रसार में वे सब एक हैं। पर हमारे ओड़िशा में ऐसा मनोभाव कहाँ है? हम कटकिआ, बालेश्वरिया गंजामिया और संबलपुरिया हैं; और उस पर भी ब्राह्मण अथवा कायस्थ। ऐसी स्थिति में वे ओड़िया कहाँ से आएँगे, जो ओड़िया साहित्य के बारे में बतलाते फिरेंगे।’’

मैंने पूछा, ‘‘ओडिशी नृत्य देखा है तुमने?’’

नेली ने खुश होते हुए जबाव दिया, ‘‘बहुत अच्छा होता है, अंकल।...’’

‘‘और छउ नृत्य!’’

नेली प्रसन्न होते हुए कहती है, ‘‘हाँ, सडाईकला का छऊ देखा है, और बारिपदा का भी। खूब अच्छा होता है।’’

‘‘उन नृत्यों के साथ—साथ जो गाने गाए जाते हैं?’’

‘‘वे सब भी कुछ नए—नए से लगते हैं।’’

‘‘कोणार्क मंदिर?’’

प्रश्न के इस तरह अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण एक बार तो वह झिझकी। फिर उसने कहा, ‘‘हाँ, कोणार्क देखा है—भुवनेश्वर के सभी मंदिरों को देखा है। राजा—रानी मंदिर भी देखा है। कितना सुंदर शिल्प है। मानो उसमें जान हो। कहा जाता है कि इस तरह की कला खजुराहो को छोड़कर और कहीं नहीं है।’’ अब तो समझ गईं कि मैंने तुमसे यह सवाल क्यों पूछा था? ओड़िशा का एक दूसरा नाम उत्कल भी है, जहाँ कला ने उत्कर्ष प्राप्त किया था, जहाँ कला से उत्कर्ष उद्गत हुई थी...जन्मी थी। उसी कला की जन्मस्थली में तुम पूछती हो साहित्य के बारे में? ओड़िया साहित्य अति उच्चकोटि का है। पर हम लोगों ने साहित्य के सम्मान की अपेक्षा अपने निजी स्वार्थ और दलगत भावनाओं को अधिक महत्त्व दिया है—उच्चतर स्थान दिया है। फलस्वरूप उस प्रौढ़ पति का जो हाल हुआ था, हमारे साहित्य का भी वही हुआ। जानती हो न उस प्रौढ़ पति की कहानी? किस तरह उसकी दो पत्नियाँ थीं—एक जवान और दूसरी प्रौढ़। जब पति गहरी नींद में सो रहा होता था, तब उसकी जवान पत्नी उसे जवान बनाए रखने के फेरे में उसके सिर के सफेद बालों को निकालने लगती थी और प्रौढ़ा पत्नी अपने स्वामी को प्रौढ़ बनाए रखने की आशा में काले बालों को निकाल डालती थी। हमारे ओड़िया साहित्य का खेमेगत विवाद भी बहुत दिनों से इसी तरह का रुख अपनाए हुए है। एक खेमे के लोग दूसरे खेमे के लोगों की रचनाओं को साहित्य नहीं है कहकर जब कूड़ेदानी में फेंक देने की बात करते हैं, तब दूसरे खेमे के लोग भी पहले की रचनाओं को उसी तरह घटिया साबित करने को पिल पड़ते हैं। परिणामस्वरूप बाहर से हमारा साहित्य—भंडार शून्य जान पड़ता है।

अध्यापक वर्मा लंबी—लंबी साँसें भर रहे थे। उन्होंने कहा, यह खेमेबाजी हमेशा ही हमारी प्रगति में बाधा डालती रही है। साहित्य कहिए अथवा अन्य किसी भी तरह की प्रगति—संबंधी बात कहिए—कोई फर्क नहीं है। हमारे बिहार को ही देखिए।

इसके तुरंत बाद उन्होंने लौट जाने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘आज बहुत देर हो गई है। घर पर ढेर सारी कॉपियाँ जाँचने को पड़ी हैं, फिर मुलाकात होगी।’’

श्रीमती वर्मा चुपचाप इन सारी आलोचनाओं को सुनती रहीं। खड़े होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आज की बातचीत वास्तव में खूब अच्छी लगी। कहाँ तक रोज—रोज उसी जनता पार्टी, कांग्रेस (आई), लोकदल, जनसंघ और आर.एस.एस. को लेकर माथापच्ची किया जाए।’’

नेली ने कहा, ‘‘अंकल का घर औसिस की तरह लगता है—है न माँ?’’ श्रीमती वर्मा मेरी ओर देखते हुए बोल उठीं—‘‘अपनी पुस्तक का नाम ‘मरुद्यान’ क्यों नहीं रख देते?’’

मैंने कहा, ‘‘मरुद्यान! यह तो वाकई बहुत अच्छा नाम है।’’

अध्यापक वर्मा, मिसेज वर्मा और नेली चले गए। मैंने कहा, ‘‘कुछ भी कहो, आखिर में पुस्तक के लिए एक अच्छा—सा नाम मिल ही गया।’’

मेरी श्रीमती ने पूछा, ‘‘कौन सा नाम?’’

मैंने कहा, ‘‘मरुद्यान।’’

उन्होंने मुँह बिराते हुए कहा, ‘‘हँह मरुद्यान? जानते भी हो, इसका मायने क्या होता है?’’ मैंने जबाव दिया—‘‘मरुद्यान—औसिस। रेगिस्तान के रेत भरे तूफान और गरम हवा में ऊँट की पीठ पर बैठकर जब कोई यात्री जा रहा होता है, तब तेज धूप से उसका सिर जलने लगता है, प्यास के मारे उसका गला सूख जाता है, और ऐसे ही वक्त उसे दीखने लगता है मरुद्यान—खजूर के पेड़ की छाया, झरने का पानी एवं पेड़ के नीचे टूटकर गिरे मीठे रस भरे...’’

‘‘...पर इसके साथ तुम्हारी पुस्तक का क्या ताल्लुक?’’

मैंने कहा, ‘‘बहुत बड़ा ताल्लुक है। संसार रूपी रेगिस्तान के यात्री ये पाठक जब मानसिक उत्ताप से परेशान होकर किसी ड्राइंग—रूम के पंखे के नीचे बैठे इस मरुद्यान पुस्तक को हाथ में लेकर...’’

—भला पाठक मानसिक उत्ताप से क्यों परेशान होंगे?...फिजूल की बातें।

—घर और घरवाली के जंजाल से...

‘‘इस तरह का ऊटपटाँग नाम मत रखना, कहे देती हूँ...।’’ तमतमाया हुआ चेहरा लिये वे रसोई में चली गई।

मैंने पीछे से चिल्लाया—‘‘जरूर रखूँगा।’’

मेरी पुस्तक का नाम होगा...

आप लोग तो समझ ही गए होंगे कि मैंने अपनी पुस्तक का नाम ‘मरुद्यान’ क्यों नहीं रखा?

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