Safdar (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan
सफ़दर (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन
19. सफ़दर
काल : सन् १९२२ ई०
1.
एक छोटा, किन्तु सुन्दर बँगला है, जिसके बड़े हाते में एक और गुलाबों की क्यारी में बड़े-बड़े लाल-लाल और गुलाबी गुलाब फूले हुए हैं। एक ओर बेडमिण्टन खेलने का छोटा-सा क्षेत्र है, जिसकी हरी घासों पर घूमना भी स्वयं आनन्द की चीज है। तीसरी ओर एक लता-मंडप है। चौथी ओर बँगले के पीछे एक खुला चतूबरा है, जिस पर शाम के वक्त अकसर बैरिस्टर सफ़दर जंग बैठा करते थे।
बँगले की बाहरी दीवारों पर हरी लता चिपकी है। सफ़दर साहब ने ऑक्सफोर्ड में ऐसी लता-चढ़े मकान देखे थे, और उन्होंने खास तौर पर इसको लगवाया था। बँगले के हाते में दो मोटरों के लिए 'गैरेज' था। सफ़दर जंग का रहन-सहन, उनके बँगले की आबोहवा-सभी में अँगरेजियत कूट-कूटकर भरी हुई थी। उनके आधे दर्जन नौकर बिलकुल उसी अदब- कायदे से रहते, जैसे कि किसी अँग्रेज अफसर के। उनकी कमर में लाल पटका, उनकी पक्की बँधी हुई पगड़ी में अपने साहब का नाम-चित्र (मोनोग्राम) रहता था। सफ़दर साहब को विलायती खाना सबसे ज्यादा पसन्द था और इसके लिए खानसामें रखे हुए थे।
सफ़दर तो साहब थे ही, वैसे ही सकीना को सभी नौकर मेम साहब कहकर पुकारते थे। सकीना की कमानीदार भौंहों के अतिरिक्त रोमों को निकाल कर उन्हें पतला और रंग से रंगकर अधिक काला बनाया गया था। हर पन्द्रह मिनट पर ओठों पर अधर-राग लगाने की उसे आदत थी। किन्तु सकीना ने विलायती स्त्रियों की पोशाक पहननी कभी पसन्द न की।
पिछले साल (सन् १९२० ई० में) जब सफ़दर साहब अपनी बीबी को लेकर पहले-पहल विलायत गये, तो उन्होंने चाहा कि सकीना 'स्कर्ट', 'पेटी-कोट' पहने, किन्तु वह इसके लिए राजी न हुई और विलायत में उनके मिलने वाले अँग्रेज नर-नारियों ने सकीना के सौन्दर्य के साथ उसकी साड़ी की जैसी तारीफ की, उससे सफ़दर को सकीना के इनकार पर अफ़सोस नहीं हुआ। वैसे दोनों दम्पत्ति का रंग इतना साफ था कि उन्हें योरप में सभी इटालियन कहते ।
सन् १९२१ के जाड़ों का मौसम था। उत्तरी भारत के और शहरों की भाँति लखनऊ के लिए भी जाड़ा सबसे सुन्दर मौसम है। सफ़दर साहब कचहरी से आते ही आज बँगले के पीछे के चबूतरे पर बेंत की कुरसी पर बैठे थे। उनका चेहरा ज्यादा गंभीर था। उनके सामने एक छोटी-सी मेज थी, जिस पर नोटबुक और दो-तीन किताबें थीं । पास में तीन और खाली कुर्सियाँ पड़ी थीं। उनके शरीर पर कलफ किया प्रथम श्रेणी का अँग्रेजी सूट था। उनके मूँछ-दाढ़ी-शून्य चेहरे की उस वक्त की अवस्था को देखने ही से पता लग सकता था। आज साहब किसी भारी चिन्ता में हैं। ऐसे वक्त साहब के नौकर-चाकर मालिक के पास बहुत कम जाया करते। यद्यपि सफ़दर को गुस्सा शायद ही कभी आता हो, किन्तु नौकरों को उन्होंने समझा रक्खा था कि ऐसे समय वह अकेला रहना ज्यादा पसन्द करते हैं।
शाम होने को आई, सफ़दर उसी आसन से बैठे हुए हैं। नौकर ने तार जोड़कर टेबल-लैम्प लाकर रख दिया। सफ़दर ने बँगले की ओर से आती किसी की आवाज को सुन लिया था। उनके पूछने पर नौकर ने बतलाया, मास्टर शंकर सिंह लौटे जा रहे हैं। सफ़दर ने तुरन्त नौकर को दौड़ाकर मास्टर जी को बुलवाया।
मास्टर शंकर सिंह की उम्र तीस-बत्तीस ही साल की होगी, किन्तु अभी से उनके चेहरे पर बुढ़ापा झलकता है। बन्द गले का काला कोट, वैसा ही पायजामा, सिर पर गोल फेल्ट टोपी, ओठों पर नीचे की और लटकी हुई घनी काली पूँछं, वहाँ तरुणाई के वसन्त का कहीं पता न था; यद्यपि उनकी आँखों को देखने पर उनसे फूट निकलती किरणें बतलाती थीं कि उनके भीतर प्रतिभा है। मास्टर जी के पहुँचते ही सफ़दर ने उठकर हाथ मिलाया और उन्हें कुर्सी पर बैठते देख कहा-"शंकर ! आज तुम मुझसे बिना मिले ही लौट जा रहे थे?"
"भाई साहब ! क्षमा करें, मैंने सोचा कि आप अकेले किसी काम में मशगूल हैं।"
"मुकदमें की फाइलों में लगे रहते हुए भी मेरे पास तुम्हारे लिए दो मिनट रहते ही हैं। और आज तो मेरे सामने फाइलें भी नहीं हैं।"
शंकर सिंह पर सफ़दर का सबसे ज्यादा स्नेह था। वह उनसे बढ़कर अपना दोस्त किसी को नहीं समझते थे। सौदपुर के स्कूल में चौथी श्रेणी से भर्ती होने से लखनऊ में बी० ए० पास होने तक दोनों एक साथ पढ़े । दोनों मेधावी छात्र थे। परीक्षा में कभी कोई दो-चार नम्बर ज्यादा पा जाता, कभी कोई कम। किन्तु योग्यता की इस समकक्षता के कारण उनमें कभी झगड़ा या मनमुटाव नहीं हुआ। दोनों की दोस्ती में एक ख्याल ने और मदद की थी। दोनों ही गौतम राजपूत थे। यद्यपि आज एक का घर हिन्दू था, दूसरे का मुसलमान; किन्तु दस पीढ़ी के पहले दोनों ही हिन्दू ही नहीं, बल्कि दोनों के वंश एक पूर्वज में जाकर मिल जाते थे। खास-खास मौकों पर बिरादरी की सभाओं में अब भी उनके घर वाले मिला करते थे।
सफ़दर अपने बाप के अकेले पुत्र थे। किसी भाई के अभाव का वह अनुभव करते थे, जिसे पूरा करने में शंकर ने मदद की थी। शंकर सफ़दर से छै महीने छोटे थे। ये तो बाहरी बातें थीं, किन्तु उनके अतिरिक्त शंकर में कई ऐसे गुण थे, जिनके कारण पक्के साहब सफ़दर सीधे-सादे शंकर पर इतना स्नेह और सम्मान-भाव रखते थे। शंकर नम्र थे, किन्तु खुशामद करना वह जानते ही नहीं थे। इसी का फल है कि प्रथम श्रेणी में एम०ए० पास करने पर भी आज वह एक सरकारी स्कूल के सहायक शिक्षक ही बने हुए हैं। उन्होंने यदि जरा-सा संकेत भी किया होता, तो दूसरे उनकी सिफारिश कर देते और आज वह किसी हाई स्कूल के हेड मास्टर होते। किन्तु जान पड़ता है, वह जिन्दगी भर सहायक शिक्षक ही बने रहना चाहते हैं। हाँ, उन्होंने एक बार दोस्तों की मदद ली थी जब लखनऊ से बाहर उनका तबादला हो रहा था। नम्रता के साथ आत्म-सम्मान की भाव भी शंकर सिंह में बहुत था, जिसके कि सफ़दर जबरदस्त कद्रदाँ थे। बारह साल की उम्र से स्थापित मैत्री आज बीस साल बाद भी वैसी ही बनी हुई थी।
अभी दो-चार ऊपरी बातें हुई थीं कि धानी रंग की साड़ी और लाल ब्लाउज पहने सकीना आ पहुँचीं। शंकर ने खड़े होकर कहा-"भाभी सलाम !"
भाभी ने मुस्कराकर 'सलाम' कहकर जवाब दिया। एक वक्त था, जब कि एक धनी 'सर' की ग्रेजुएट पुत्री सकीना को, इस गँवार से लगते शिक्षक के साथ सफ़दर की दोस्ती बुरी लगती थी। सकीना बाप के घर से ही पर्दे में नहीं रही, इसलिए शंकर सिंह के सामने होने, न होने का कोई सवाल ही नहीं था। तो भी छै महीने तक उसकी भौंहें तन जाती थीं, जब वह सफ़दर के साथ बेतकल्लुफी से शंकर को काम करते देखती; किन्तु अन्त में उसे सफ़दर के सामने कबूल करना पड़ा, कि शंकर वस्तुतः हमारे स्नेह-सम्मान के पात्र हैं।
और अब तो सकीना ने शंकर के साथ पक्का देवर-भाभी का नाता कायम कर लिया था। अपनी इच्छा से अभी अपने को सकीना ने सन्तान-हीन बना लिया है; किन्तु कभी-कभी वह शंकर के बच्चे को उठा लाती है। इधर छै वर्षों से शंकर समझते हैं कि शंकर की उन पर कृपा है। उनके घर में कोई-न-कोई दो साल से नीचे का बच्चा तैयार रहता है।
सकीना को साहब की पिछले एक हफ्ते की गम्भीरता कुछ चिन्तित कर रही थी। उसे आज शंकर को देखकर बड़ा सन्तोष हुआ, क्योंकि वह जानती थी कि शंकर ही है जो साहब के दिल के बोझ को हलका करने में सहायता दे सकते हैं। सकीना ने शंकर की ओर नजर करके कहा-"देवर, आज तुम्हें जल्दी तो नहीं है। भाभी के हाथ की चाकलेट की पुडिंग कैसी रहेगी ?"
सफ़दर - "नेकी और पूछ- पूछ !"
सकीना - "मैं पहले जान लेना चाहती हूँ, देवर साहब का कहीं ठिकाना नहीं, कब लोप हो जायें।"
शंकर - "मेरे साथ इन्साफ नहीं कर रही हो, भाभी ! एक भी मिसाल तो दो, जबकि मैंने तुम्हारे हुक्म को मानने से इन्कार किया हो ?"
सकीना - "हुक्म-अदूली की बात नहीं कर रही हूँ, देवर ! लेकिन हुक्म सुनने से बच निकलना भी तो कसूर है।"
शंकर – "मैं अपनी जर्नेल भाभी का हुक्म सुनने के लिए तैयार हूँ ।"
सकीना – "अच्छा, तो जा रही हूँ । खाने के साथ ‘पुडिंग’ खानी होगी ।"
सकीना जल्दी से निकल गई । सफ़दर और शंकर के वार्तालाप ने गंभीर रूप धारण किया ।
सफ़दर ने कहा – "शंकर ! हम बिलकुल एक नए क्रान्ति युग में दाखिल हो रहे हैं । मैं समझता हूँ, सन् १८५७ ई० के बाद यह पहला वक्त है जब कि हिंदुस्तान की सर- जमीन जड़ से डगमग होने लगी है।"
"तुम्हारा मतलब राजनितिक आन्दोलन से है, न सफ्फू भाई ?"
"राजनीतिक आन्दोलन बहुत साधारण शब्द है, शंकर ! सन १८८५ ईo में कांग्रेस कायम हुई, जब कि वह अंग्रेज आईo सीo एसo पेंशनरों की कृपा – पात्र थी । तब भी उसके क्रिसमस के मन – बहलाव वाले व्याख्यानों और बोतलों को आन्दोलनों का नाम दिया जाता था । यदि तुम उसे ही आन्दोलन का नाम देना चाहते हो, तो मैं समझता हूँ, हम आन्दोलन से अब क्रान्ति के युग में प्रविष्ट हो रहे हैं ।"
"क्योंकि गांधीजी ने तिलक-स्वराज्य-फण्ड के लिए एक करोड़ रुपया जमा कर लिया, और स्वराज्य का हल्ला जोर-शोर से सुनाई देने लगा।"
"क्रान्ति या क्रन्तिकारी आन्दोलन का आधार कोई एक व्यक्ति नहीं होता, शंकर ! क्रान्ति जिस भारी परिवर्तन को लती है, वह किसी एक या आधे दर्जन महान व्यक्तियों के सामर्थ्य से भी बाहर कि चीज है । मैं आज के इस आन्दोलन की बुनियाद पर जब विचार करता हूँ, तो इसी नतीजे पर पहुचता हूँ । तुम्हे मालूम है, सन १८५७ ईo के स्वतंत्रता-युद्ध (जिसका एक केंद्र यह लखनऊ भी था, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि लखनऊ का अंग्रेजों द्वारा हड़पा जाना उस युद्ध के नजदीक के कारणों में से एक था) के नेता पद –भ्रष्ट सामन्त थे, किन्तु वह लड़ा गया था साधारण लोगों के प्राणों के बजी लगाकर । हमारी कई कमजोरियों के कारण हम सफल नहीं हुए । अंग्रेजों ने पराजितों पर खूनी गुस्सा उतारा । खैर, मैं कहना यह चाहता हूँ कि सन १८५७ ईo के बाद यह पहला समय है, जबकि जनता को देश की स्वतंत्रता के युद्ध में शामिल किया जा रहा है । तुम्ही बोलो, भारतीय इतिहास के एक अच्छे विद्यार्थी होने के नाते, क्या तुम बतला सकते हो किसी और ऐसे आन्दोलन को, जबकि जनता ने इस तरह भाग लिया ?"
"सफ्फू भाई, नागपुर काँग्रेस (१९२०) और कलकत्ता काँग्रेस भी बीत गई। गाँव-गाँव की जिस उथल-पुथल का तुम जिक्र करते हो, उसे मैंने भी अपनी आँखों देखा है, और मैं मानता हूँ, वह अनहोनी चीज हुई; लेकिन इतनी बाढ़ के पार हो जाने पर भी, इसी लखनऊ में कितनी बार विदेशी कपड़ों की होली जल जाने पर भी तुम्हारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगी, और आज तुम क्रान्ति के भंवर में पड़े जैसे आदमी की तरह बात करते हो।"
"तुम्हारा कहना ठीक है, शंकर, मेरे छोटे भैया! सचमुच यह भँवर मेरे पैरों को उखाड़ना चाहता है। लेकिन इस भँवर को मैं एक छोटा-सा स्थानीय भँवर नहीं समझता; यह एक बड़े भँवर से सम्बद्ध होकर प्रकट हुआ है। हर युग की सबसे जबरदस्त क्रान्तिकारी शक्ति जनता को लेकर प्रकट होती है।"
"तुम सन् १८५७ से शुरू कर रहे हो, सफ्फू भाई ! बहुत भारी घिरावा मार रहे हो ?"
"तो मैं कहूँ, शंकर क्यों ?"
"मैं सुनना चाहता हूँ। भाभी की पुडिंग बन ही रही है और कल है इतवार। बस, आदमी घर खबर दे आयेगा कि शंकर इसी लखनऊ में जिन्दा है, अपनी भाभी सकीना की पुडिंग खाकर खर्राटे ले रहा है और फिर मैं रात भर सुनने के लिए निश्चिन्त हूँ।"
"शंकर ! ऑक्सफोर्ड के मेरे जीवन का आधा मजा किरकिरा हो गया सिर्फ तुम्हारे न रहने से। खैर, मैं ही नहीं, भारत से बाहर सभी जगह राजनीति के विद्यार्थी मानते हैं कि पिछली सदी में और इस सदी में भी इंग्लैंड की राजनीति में जो भी परिवर्तन हुए हैं, वे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति, संसार की दूसरी राजशक्तियों की गतिविधि से मजबूर होकर; और इस परिस्थिति के कारणों पर भी विचार करें, तो वह मुख्यतः आर्थिक ही मिलेंगे। सन् १८५७ ई० की चोट के बाद हमारा मुल्क तो सो गया, या यह कहिए कि हमारे परिवर्तन की गति इतनी धीमी हो गई कि उसे हम सोना ही कह सकते हैं। किन्तु, दूसरे मुल्कों में भारी परिवर्तन हुए। हजार वर्ष पहले रोमन साम्राज्य के वक्त से टुकड़े-टुकड़े हुए। इटली सन् १८६० (ता० २ अप्रैल) में एक राष्ट्र बनने में सफल हुआ और उसने हमारे नौजवानों के लिए मेजिनी और गैरीबाल्डी जैसे आदर्श प्रदान किये। रोमन साम्राज्य को विध्वंस करने में समर्थ होकर जो जर्मन अपने को एकत्रित न कर सके, सन् १८६६ ई० में अधूरे तौर से और फ्रांस-विजय के बाद सन् १८७१ (ताo १८ जनवरी) में करीब-करीब पूरे तौर से प्रुसिया के नेतृत्व में अपना एक राष्ट्र बनाने में समर्थ हुए। सन् १८६६ ई० के इस परिवर्तन को संसार का एक भारी परिवर्तन समझिए। इसी के करने पर जर्मनी, फ्रांस की महान् शक्ति को सन् १८७० ई० में परास्त कर पेरिस और वर्साई पर अपनी विजय-ध्वजा गाड़ने में समर्थ हुआ और जिसकी वजह से इंग्लैंड, रूस की आँखें भयभीत हो बर्लिन की ओर देखने लगीं। यह तो हुआ बाहर के भय के बारे में, लेकिन इससे भी बड़ा भय हुआ पेरिस के मजदूरों के उस राज्य-पेरिस-कम्यून-से जो तारीख दो अप्रैल से डेढ़ महीने से कुछ ही ज्यादा (२ अप्रैल-२१ मई, सन् १८७१ ई०) रहा और जिसने बतला दिया कि सामन्त और बनिये ही नहीं, बल्कि मजदूर भी राज्य कर सकते है।"
"आप समझते हैं, इन सबके साथ भारत की राजनीतिक घटनाएँ सम्बद्ध हैं ?"
"राजनीतिक घटनाएँ नहीं, बल्कि हमारे शासक अँग्रेज भारत के बारे में जो भी नीति अख्तियार करते हैं, उसकी तह में उनका भारी हाथ होता है। यूरोप में जर्मनी-जैसी दुर्जेय शक्ति के पैदा होते ही फ्रांस, इंग्लैंड का प्रतिद्वन्दी नहीं रहा। अब उसे खतरा हो गया जर्मनी से। मृत पेरिस कम्यून और सन् १८६१ में आस्ट्रिया छोड़ सारी जर्मन रियासतों के एक जीवित जर्मन राष्ट्र ने हमारे पूँजीपति शासकों की नींद हराम कर दी--इसे कहने की जरूरत नहीं। साथ ही इसी वक्त और परिवर्तन होता है। सन् १६७२ ई० में अँग्रेज व्यापारी से पूँजीपति बने और कच्चे माल की खरीद से लेकर, उसे तैयार करके बेचने तक हर अवस्था में नफा उठाने के सस्ते पूँजीवाद को उन्होंने अपनाया। व्यापारवाद में सिर्फ कारीगरों के माल को इधर से उधर ले जाकर बेचने भर का नफा है, किन्तु पूँजीवाद में नफ़ा पग-पग पर है। रूई को खरीदने में नफ़ा, निकालने और गाँठ बाँधने में नफ़ा, रेल पर ढोने में नफ़ा, जहाज पर ले जाने में (किराये में) नफ़ा, मैनचेस्टर की मिल में सूत- कताई और कपड़ा-बुनाई में नफा, फिर जहाज से कपड़े के लौटाने में जहाज कम्पनी का नफा, रेल का नफा-इन सब नफों की तुलना कीजिए कारीगर के हाथ के बने माल को बेचने वाले व्यापारी के नफे से।"
"व्यापारवाद से पूँजीवाद का नफ़ा, यह इष्ट है।"
"और सन् १८७१ ई० में वर्साई से जब विजयी जर्मनी ने प्रुसिया के राजा विलियम प्रथम की सारी जर्मनी का कैसर(सम्राट) घोषित किया, उसके दूसरे साल (सन् १८७२ ई०) में कट्टर अँग्रेज पूँजीपतियों-टोरियों-ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री यहूदी डिस्राइली द्वारा साम्राज्यवाद की घोषणा कराई। घोषणा शब्दिक नहीं, बल्कि वस्तुस्थिति का प्राकट्य थी। फैक्टरियाँ इतनी बढ़ चुकी थीं कि उनके लिए सुरक्षित बाजार मिलने चाहिए। ऐसे बाजार, जहाँ जर्मनी और फ्रांस के बने माल की प्रतियोगिता का डर न हो, अर्थात् जहाँ के बाजार की इजारेदारी बिलकुल अपने हाथ में हो, साथ ही पूँजी भी इतनी जमा हो गई थी, कि उसको नफे पर लगाने के लिए सुरक्षित स्थान चाहिए। यह काल भी दूसरे मुल्कों को पूरी तौर से अपने हाथ में करने से ही होगा। साम्राज्य शब्द के भीतर डिस्राइली का यही अर्थ था। भारत में दोनों बातों का सुभीता था। योरप से भारत की ओर जाने वाला सबसे छोटा रास्ता था स्वेज नहर जो सन् १८६६ ई० में खुली थी। सन् १८७५ ई० में मिस्र के खदीब के १,७७,००० शेयरों को चालीस लाख पौंडों में तार द्वारा डिस्राइली ने खरीदा। साम्राज्य-घोषणा को और आगे बढ़ाने में यह दूसरा कदम था, और पहली जनवरी, सन् १८७७ ई० को दिल्ली में दरबार कर रानी विक्टोरिया को साम्राज्ञी घोषित करके डिस्राइली की सरकार ने साम्राज्यवाद को इतनी दूर तक पहुँचा दिया कि अब उदार दल के ग्लैडेस्टन के दादा भी मंत्री बनकर आयें, किन्तु डिस्राइली की नीति को बदलने का सामर्थ्य नहीं रखते थे।"
"हम तो अभी तक अपने विद्यार्थियों को यही पढा रहे थे कि महारानी विक्टोरिया ने भारत-साम्राज्ञी कैसर-हिन्द की पदवी धारण कर भारत के ऊपर भारी अनुग्रह किया।"
"और याद रखिए, छै साल पहले प्रुसिया के राजा ने भी उसी 'कैसर' की पदवी धारण की थी। कैसर का नाम कितना महँगा हो गया था। रोमन साम्राज्य के वक्त से 'परित्यक्त' शब्द की कीमत बाजार में झटपट कितनी तेज हो गई!"
"साथ ही रोमन भाषा के शब्द कैसर को सिर्फ हिन्दुस्तान में चलाना और अँग्रेजी में उसकी जगह 'इम्प्रेस’ रखना, इसमें भी कोई रहस्य तो नहीं है ?"
"हो सकता है। खैर, 'कैसर' शब्द के साथ सन् १८७१ से हम साम्राज्यवाद के युग में प्रविष्ट होते हैं। इंग्लैंड पहले आता है। पराजित प्रजातन्त्रीय फ्रांस कुछ सँभलने के बाद सन् १८८१ ई० में तूनिस (अफ्रीका) पर अधिकार जमा साम्राज्यवाद का प्रारम्भ करता है। और नई फैक्टरियों और पूँजीपतियों से लैस जर्मनी भी सन् १८८४ ई० से उपनिवेश की माँग पेशकर साम्राज्यवाद की स्थापना का प्रयत्न करता है।"
"लेकिन इसका भारत में अँग्रेजों की नीति - परिवर्तन से क्या सम्बन्ध है ?"
"नित्य नये सुधार होते यंत्रों, बढ़ते हुए कारखानों तथा उनसे होने वाले वाले पूँजी के रूप में नफे को लगाने का कोई इन्तजाम होना चाहिए । सन् १८७४-८० ई में डिस्राइली के मन्त्रिमण्डल ने उसे कर डाला। सन् १८८०-१२ तक रही न उदारदली ग्लैड्स्टन सरकार, वह डिस्राइली के बढ़ाये कदम से पीछे नहीं जा सकती थी। हाँ, पूँजी की नंगी साम्राज्यवादी दानवता को कुछ भद्र वेश देने की जरूरत थी, जिसमें साधारण जनता भड़क न उठे; इसके लिए डिस्राइली ने 'भारत-साम्राज्ञी का' नाट्य तो रच ही डाला था। अब उदार दल वालों को कुछ और उदारता दिखलाने की जरूरत थी। यह उदारता आयरलैण्ड के 'होमरूल-बिल' के रूप में आई, किन्तु आयरलैण्ड का प्रश्न आज तक वैसा ही पड़ा हुआ है। इसी उदारता से फायदा उठाकर हम हिन्दुस्तानी साहबों ने सन् १८८५ ई० में अपनी काँग्रेस खड़ी कर डाली। काँग्रेस वस्तुतः ब्रिटिश उदार दल की धर्मबेटी बनकर पृथ्वी पर आई, और एक युग तक उसने अपने धर्म को निबाहा। किन्तु सन् १८८५ से सन् १९०५ तक दस वर्षों के लिए ब्रिटेन में फिर टोरियों की सरकार आ गई, जिसने एल्गिन और कर्जन जैसे सपूत भारत भेजे, जिन्होंने साम्राज्यवाद की गांठों को और मजबूत करने कि कोशिश की, किन्तु परिणाम उल्टा हुआ !"
"क्या आपका मतलब लाल (लाजपतराय) बाल (बाल गंगाधर तिलक), पाल (विपिनचन्द्र पाल) से है?"
"यह लाल, बाल, पाल उसी के बाहरी प्रतीक थे। जापान ने रूस को(८ फरवरी, सन् १६०४-सितम्बर, सन् १६०५ ई०) हराकर अपने को बड़ों की बिरादरी में शामिल कर एशिया में नई जागृति फैलाई । कर्जन से बंग-भंग और इस एशियायी विजय ने मिलकर क् काँग्रेस के मंच पर लच्छेदार भाषणों से आगे जाने के लिए भारतीय नौजवानों को प्रेरणा दी। आधी शताब्दी बाद भारतीयों ने अपने लिए मरना सीखा। इसमें आयरलैण्ड और रूस के शहीदों के उदाहरणों से हमें भारी मदद मिली। इसलिए इसकी जड़ को भी सिर्फ भारत के भीतर ही ढूँढ़ना क्या गलत न होगा ?"
"जरूर, वस्तुतः दुनिया एक दूसरे से नथी हुई है।"
"शंकर ! किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन की ताकत निर्भर करती है दो बातों पर-उसे अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति तथा उदाहरणों से कितनी प्रेरणा मिल रही है, और देश में सबसे ज्यादा क्रान्तिकारी वर्ग उसमें कहाँ तक भाग ले रहा है ? पहले शक्ति-स्रोत का कुछ उदाहरण दे चुका। दूसरी शक्ति-स्रोत है कमकर किसान जनता। क्रान्ति की लड़ाई वही लड़ सकता है, जिसके पास हारने के लिए कम से कम चीज हो। सकीना के अधर-राग, इस बँगले, और बाप की तालुकदारी के गाँवों के हाथ से निकल जाने का जिसको डर हो, वह क्रान्ति का सैनिक नहीं बन सकता। इसलिए मैं कहता हूँ कि क्रान्ति का वाहक साधारण जनता ही हो सकती है।"
"मैं सहमत हूँ।"
"अच्छा, तो आज इस जनता में जो उत्तेजना है, उसे जान रहे हो और दूसरी ओर अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति से क्या प्रेरणा मिल रही है, इसकी ओर भी ध्यान दो। पिछला महायुद्ध (सन् १९१४-१८) दुनिया में भारी आग लगा गया है। वह युद्ध था ही साम्राज्यवाद की उपज- पूँजी और तैयार माल- के लिए रक्षित बाजार को पकड़ रखने या छीनने का परिणाम । जर्मनी ने नये उपनिवेश लेने ने नये उपनिवेश लेने चाहे, और धरती बँट चुकी थी। इसलिए उन्हें लड़कर ही छीना जा सकता था। इसीलिए उपनिवेशों के मालिकों-इंग्लैण्ड और फ्रांस-से जर्मनी की ठन गई। खैर, जर्मनी उसमें असफल रहा; लेकिन साथ ही साम्राज्यवाद की नींद में जबर्दस्त खलल डालने वाला एक और दुश्मन तैयार हो गया - यानी साम्यवाद - चीजें नफ़ा के लिए नहीं, बल्कि मानव-वंश को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए पैदा की जायें। मशीन में सुधार होता है, फैक्टरी बढ़ती है, माल ज्यादा पैदा होता है और उनके लिए ज्यादा बाज़ार की जरूरत होती है। फिर उसे खरीदने के लिए हाथ में पैसे की जरूरत होती है, जिसके लिए हर खरीददार को पूरा वेतन मिलना चाहिए। जितना ही हाथ में पैसा कम रहेगा, उतना ही माल खरीदा नहीं जायेगा। उतना ही माल बाजार में या गोदाम में पड़ा रहेगा – मन्दी होगी उतना ही माल को कम पैदा करना होगा, उतने ही कारखाने बन्द रहेंगे, उतने ही मजदूर बेकार होंगे, उतना ही उनके पास माल खरीदने के लिए पैसा नहीं रहेगा, फिर माल क्या खाक खरीदेंगे; फैक्टरी क्या धूल चलेगी ? साम्यवाद कहता है, नफ़ा का ख्याल छोड़ो। अपने राष्ट्र या सारे संसार को एक परिवार मानकर उसके लिए जितनी आवश्यकताएँ हों, उन्हें पैदा करो, हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लो, हर एक को उसकी आवश्यकता के मुताबिक जीवनोपयोगी सामग्री दो। हाँ, जब तक आवश्यकता पूरी करने भर के लिए कल-कारखाने और कारीगर, इंजीनियर न हों, तब तक काम के अनुसार दो और यह तभी हो सकता है, जब कि वैयक्तिक सम्पत्ति का अधिकार ने भूमि पर रहे, न फैक्टरी पर, अर्थात् सारे उत्पादन के साधनों पर उस महापरिवार का अधिकार हो ।"
"कल्पना सुन्दर है।"
"यह अब कल्पना ही नहीं है, शंकर ! दुनिया के छठे हिस्से-रूस पर ७ नवम्बर, सन् १६१७ ई० से साम्यवादी सरकार कायम हो चुकी है। आज भी पूँजीवादी दुनिया मानवता की उस एक मात्र आशा को मिटाना चाहती है, किन्तु पहली जबरदस्त परीक्षा में सोवियत सरकार उत्तीर्ण हो चुकी है। हाँ, फ्रांस, अमेरिका के पूँजीपतियों की मदद से हंगरी में छै मास (मार्च-अगस्त, सन् १६१६ ई०) के बाद वहाँ से सोवियत शासन को खत्म कर दिया गया। सोवियत रूस की मजदूर किसान सरकार का अस्तित्व दुनिया के लिए भारी प्रेरणा है, और जिन शक्तियों ने सोवियत शासन को कायम किया, वह हर मुल्क में काम कर रही हैं। लड़ाई बन्द होने के साथ अँग्रेजों ने रोलट-कानून पास करने की जल्दी क्यों की ? उसी विश्व की क्रान्तिकारिणी शक्ति को कुण्ठित करने के लिए। फिर सोचिए-न वह क्रान्तिकारी शक्ति दुनिया को उलटने के लिए भूमण्डल के कोने-कोने में दौड़ती, न अँग्रेज रोलट- कानून बनाते, न रोलट-कानून बनता और न गाँधी उसके विरुद्ध जनता को उठाने के लिए आवाज लगाते और न छिपा हुआ दावानल सन् १८५७ के बाद फिर आज जगता। इसीलिए मैंने कहा कि हम बिलकुल एक नये क्रान्तिकारी युग में दाखिल हो रहे हैं।“
"तो आपका ख्याल है–गाँधी क्रान्तिकारी नेता हैं ? जो गाँधी, गोखले-जैसे नर्मदली नेता को अपना गुरु मानते हैं, वह कैसे क्रान्तिकारी नेता बन सकते हैं, सफ्फू भाई ?"
"गाँधी की तमाम बातों और उनके तमाम विचारों को मैं क्रान्तिकारी नहीं मानता, शंकर ! क्रान्तिकारी शक्ति के स्रोत साधारण जनता का जो उन्होंने आह्वान किया है, मैं उतने अंश में उनके इस काम को क्रान्तिकारी कहता हूँ। उनकी धर्म की दुहाई-खिलाफ़त की खासकर-को मैं सरासर क्रान्ति-विरोधी चाल समझता हूँ। उनके कलों-मशीनों को छोड़ पीछे की ओर लौटने को भी मैं प्रतिगामिता समझता हूँ। उनके स्कूलों, कॉलेजों को बन्द करने की बात को भी मैं इसी कोटि में रखता हूँ।"
"तुम्हारा बेटा जीवे, सफ्फू भैया ! मेरी तो साँस रँगने लगी थी, जब तुम गाँधी की प्रशंसा में आगे बढ़ रहे थे। मैंने सोचा था-कहीं स्कूल, कॉलेजों को शैतान का कारखाना तुम भी तो नहीं कहने जा रहे हो?"
"शिक्षा-प्रणाली दोषपूर्ण हो सकती है, शंकर ! किन्तु आज के स्कूलों, कॉलेजों से हमें साइंस का परिचय होता है, जिसके बिना आज मनुष्य मनुष्य नहीं रह सकता। हमारी मुक्ति जब भी होगी, उसमें साइंस का खास हाथ होगा। दिन-दिन बढ़ती मानव-जाति की भविष्य की समृद्धि उसी साइंस पर निर्भर है, इसलिए साइंस को छोड़कर पीछे हटना आत्महत्या है। स्कूलों, कॉलेजों को बन्द कर चर्खे-कर्घ की पाठशालाएँ कायम करना बिलकुल अन्धकार-युग की ओर खींचने की चेष्टा है। क्रान्ति-सैनिक बनने के लिए विद्यार्थियों का आह्वान करना बुरा नहीं है, इसे तो तुम भी मानोगे, शंकर !"
"जरूर ! और दूसरे बायकाट ?"
"कचहरियों का बायकाट ? ठीक इसके द्वारा हम अपने विदेशी शासकों को अपनी क्षमता और रोष दिखलाते हैं। विलायती माल का बायकाट भी अँग्रेजी बनियों के मुँह पर जबरदस्त चपत है, और इससे हमारे स्वदेशी उद्योग-धंधे को मदद मिलेगी।"
"तो सफ्फू भाई ! मैं देखता हूँ तुम बहुत दूर तक चले गये हो।
"अभी नहीं, अब जाना चाहता हूँ।"
"जाना चाहते हो ?’
"पहले यह बताओ, हम क्रान्ति-युग से गुजर रहे हैं कि नहीं ?" "मैंने तुमसे कितने ही सवाल पूछने ही के लिए पूछे, सफ्फू भाई ! नहीं तो, जिस दिन से रूसी क्रान्ति की खबर मुझे मिली; तब से ही मैंने ढूँढ-ढूँढकर साम्यवादी साहित्य को पढ़ना और उससे भी ज्यादा अपनी समस्याओं पर साम्यवादी दृष्टि से विचार करना शुरू किया। मैं समझता हूँ भारत और विश्व के कल्याण का यही रास्ता है। मैं अभी तक सिर्फ इस सन्देह में पड़ा हुआ था कि गाँधी का असहयोग उस महान् उद्देश्य में साधक होगा या नहीं, किन्तु जैसे ही तुमने क्रान्तिवाहक जनता की और मेरा ध्यान आकर्षित किया, वैसे ही मेरा सन्देह दूर हो गया। मैं गाँधी को क्रान्ति का योग्य वाहक नहीं समझता, सफ्फू भैया ! तुमसे साफ कहूँ, किन्तु जनता को मैं मानता हूँ। सन् १८५७ ई० में पदच्युत सामन्तों ने चर्बी, कारतूस और 'धर्म खतरे में' की झूठी दुहाई देकर जनता के जबरदस्त हिस्से को खींचा था, किन्तु अब जनता रोटी के सवाल पर खींची जा रही है। मैं समझता हूँ, दुहाई ठीक है, क्रान्ति का रव ठीक है, और गाँधी पीछे यदि अपने वास्तविक रूप में भी आयेंगे तो भी मैं समनता हूँ, क्रान्ति के चक्र को वह उलट नहीं सकेंगे।"
"इसीलिए मैं निश्चय कर रहा हूँ क्रान्ति की सेना में दाखिल होने का, असहयोगी बनने का।"
"इतनी जल्दी !"
"जल्दी करनी होती, तो मैं बहुत पहले मैदान में उतरा होता। बहुत सोचने-समझने के बाद और आज तुम्हारी राय लेकर मैं इस निश्चय को प्रकट कर रहा हूँ।"
सफ़दर के गंभीर चेहरे से जिस वक्त ये शब्द निकल रहे थे, उस वक्त शंकर की दृष्टि कुछ दूर गई हुई थी। उन्हें चुप देख सफ़दर ने फिर कहा-"अज़ीजम ! तुम सोच रहे होगे, अपनी भाभी के अधर-राग को, उसकी रेशमी साड़ी की मखमली गुर्गाबी को अथवा इस बँगले और खानसामों को। मैं सकीना पर जोर न दूंगा, वह चाहे जैसी जिन्दगी पसन्द करे, उसके पास अपनी भी जायदाद है और यह बँगला, अपने कितने गाँव तथा कुछ नकद भी हैं। मेरे लिए वह कोई आकर्षण नहीं रखत। उसकी इच्छा चाहे जिस तरह की जिन्दगी पसन्द करे ।"
"मैं भाभी और तुम्हारी ही बात नहीं सोच रहा था; सोच रहा था अपने बारे में। मेरे रास्ते में जो मानसिक रुकावट थी, वह भी दूर हो गयी ! आओ, हम दोनों भाई साथ ही क्रान्ति के पथ पर उतरें ।"
डबडबाई आँखों से सफ़दर ने कहा-"ऑक्सफोर्ड में शंकर ! तुम्हारे लिए मैं तरसता था। अब मैं फाँसी के तख्ते पर भी हँसते-हँसते चढ़ जाऊँगा !”
सकीना ने आकर खाने का पैगाम दिया, मजलिस बर्खास्त हुई।
2.
उसी रास्ते सकीना ने सफ़दर के चेहरे को ज्यादा उत्फुल्ल देखा था; किन्तु वह यही समझती थी कि वह देवर शंकर के साथ बातचीत का परिणाम है। सफ़दर के लिए सबसे मुश्किल था, अपने निश्चय को सकीना तक पहुँचाना। वैसे सफ़दर भी लाड़-प्यार में पले थे; किन्तु वह गाँव के रहने वाले थे और नंगी गरीबी को सहानुभूतिपूर्ण आँखों से देखते-देखते वह अपने में विश्वास रखते थे, कि जिस परीक्षा में वह अपने को डालने जा रहे हैं, उसमें उत्तीर्ण होंगे। किन्तु सकीना की बात दूसरी थी। वह शहर के एक रईस के घर में पली थी। उसके लिए कहा जा सकता था—"सिय न दीन्ह पग अवनि कठोरा।" इतवार को भी सफ़दर हिम्मत नहीं कर सके। सोमवार को चीफ कोर्ट में वह अपने कुछ नजदीकी दोस्तों को भी जब अपने निश्चय को सुना चुके, तो सकीना को निश्चय सुनाना उनके लिए लाजिमी हो उठा।
उस रात को उन्होंने लखनऊ में मिलने वाली सर्वश्रेष्ठ शम्पेन मॅगवाई थी। सकीना ने समझा कि आज कोई और दोस्त आवेगा, किन्तु जब उन्होंने खाने के बाद बैरा को शम्पेन खोलकर लाने को कहा, तो सकीना को कुछ कौतूहल हुआ। सफ़दर ने सकीना के ओठों में शम्पेन के प्याले को लगाते हुए कहा-"प्यारी सकीना ! मेरे लिए यह तुम्हारा अन्तिम प्रसाद होगा।"
"शराब छोड़ रहे हो, प्रियतम ?"
"हाँ, प्यारी ! और भी बहुत कुछ; किन्तु तुम्हें नहीं। अबसे तुम्हीं मेरी शराब रहोगी, तुम्हारे सौन्दर्य को पीकर ही मेरी आँखें सुर्ख हो जाया करेंगी।" सकीना के चेहरे को उदास पड़ते देख फिर कहा - 'प्यारी सकीना ! अभी हम लोग इस शम्पेन को खत्म करें, हमें और भी बातें करनी हैं ।"
सकीना को शराब में लुत्फ नहीं आयी, यद्यपि सफ़दर ने उमर खय्याम की कितनी ही रुबाइयाँ उसके प्यालों पर खर्च कीं ।
नौकर-चाकर चले गये, और अब सकीना सफ़दर के पास आकर किसी अनिष्ट की आशंका से सिकुड़ी जाती-सी लेट रही, तब सफ़दर ने अपनी जबान खोली-"प्यारी सकीना ! मैंने एक बड़ा निश्चय कर डाला है, यद्यपि मैं अपना अपराध स्वीकार करता हैं, कि ऐसे निश्चय के करने में मुझे तुम्हें भी बोलने का मौका देना चाहिए था। मैंने ऐसा अपराध क्यों किया, इसे तुम आगे की बात से समझ जाओगी। संक्षेप में वह निश्चय है-मैं अब देश की स्वतन्त्रता का सैनिक बनने जा रहा हूँ।"
सकीना के हृदय पर ये शब्द वज्र से पड़े, इसमें सन्देह नहीं, और इसीलिए वह मुँह से कुछ बोल न सकी। उसे चुप देखकर सफ़दर ने फिर कहा-"किन्तु प्यारी सकीना ! तुम्हारे लड़कपन से सुख के जीवन को देखते हुए मैं तुम्हें काँटों में घसीटना नहीं चाहता।"
सकीना को मालूम हुआ उसके हृदय पर एक और जबर्दस्त चोट लगी, जिससे पहली चोट उसे भूल गई, और उसका जागृत आत्म-सम्मान एकाएक उसके मुँह से कहला गया-"प्रियतम ! क्या तुमने सचमुच मुझे इतना आरामतलब समझा है कि तुम्हें काँटों पर घिसटते देख मैं पलँग पर बैठना चाहूँगी। सफ़दर ! यदि मैंने तुम्हें दिल से प्यार किया है, तो वह मुझे तुम्हारे साथ कहीं भी जाने में मेरी सहायता करेगा। मैंने अगरबत्तियाँ बहुत खर्च कीं; मैनें अपने समय का बहुत-सा हिस्सा बनाव-श्रृंगार में लगाया; मैंने कठोर जीवन से परिचय प्राप्त करने का कभी प्रयत्न नहीं किया; किन्तु सफ़दर ! मेरे तुम्हीं सब कुछ हो, इसलिए नहीं कि मैं तुम पर भार होऊँ; बल्कि यह इसलिए मैं कह रही हूँ कि मैं तुम्हारे साथ रहूँगी, और जैसे तुमने इस जीवन में पथ-प्रदर्शन किया, वैसे ही आने वाले जीवन में भी पथ-प्रदर्शन करना।"
सफ़दर को इतनी आशा न थी, यद्यपि वह जानते थे कि सकीना का संकल्प बहुत दृढ़ होता है। सफ़दर ने फिर कहा-"मैंने नये मुकदमें लेने बन्द कर दिये हैं। पुरानों में से भी कितनों को दूसरों के सुपुर्द करने जा रहा हूँ। मुझे आशा है, इसी हफ्ते में कचहरी से मुझे छुट्टी हो जायेगी।"
"एक बात और सुनाऊँ, सकीना ! शंकर भी मेरे साथ कूद रहे हैं।“
"शंकर!" सकीना ने विस्मय से कहा।
"शंकर रत्न है सकीना, रत्न ! मेरे साथ वह दुनिया के छोर तक जाता, ऑक्सफोर्ड में मैं बराबर उसकी याद करता रहा।"
"लेकिन सफ़दर ! शंकर की कुर्बानी तुमसे ज्यादा है।"
"उसने कुर्बानी के जीवन को स्वयं अख्तियार कर रखा है. सकीना ! जान-बूझकर वह वहाँ से टस से मस नहीं हुआ, नहीं तो वह अच्छा वकील हो सकता था, अपने महकमे में भी तरक्की कर सकता था।"
"उसके दो बच्चों के मरने पर तो मैं बहुत रोई थी; किन्तु अब समझती हूँ, चार में से दो का बोझा कम होना अच्छा ही हुआ।“
"और चम्पा शंकर के इस निश्चय को कैसे लेगी, सकीना ?"
"वह आँख मूँदकर स्वीकार करेगी, उसने मुझे तुम्हारा प्रेम सिखलाया, सफ्फू !"
"हमें अपने भविष्य के रहन-सहन के बारे में भी तय करना है।“
"तुमने तो अभी कहा, सोचने का अवसर कहाँ पाया? तुम्हीं बतलाओ ?"
"हमारे गाँव की दाई शरीफन और मंगर को छोड़कर बाकी सारे नौकरों को महीने की तनख्वाह इनाम में देकर विदा कर देना होगा।“
"ठीक।"
"दोनों मोटरों को बेच देना होगा।
"बिल्कुल ठीक।"
"एक-दो चारपाई और कुछ कुर्सियों के सिवाय घर के सभी सामान को बँटवा या नीलाम कर देना होगा ।"
"यह भी ठीक ।"
"लाश रोड पर जो खाला की हवेली हमें मिली है, उसी में हमें चलकर रहना होगा और इस बँगले को किराये पर लगा देना होगा।"
"बहुत अच्छा ।
"और तो कोई बात याद नहीं पड़ रही है।"
"मेरे कपड़े-विलायती कपड़े?"
"गाँधी के असहयोग में दाखिल हो रहा हूँ, इसीलिए कह रहा हूँ। मैं इन्हें जलाने के पक्ष में नहीं हूँ, खासकर जब कि विलायती कपड़ों की होली काफी जलाई जा चुकी है। लेकिन मेरा खद्दर का कुर्ता और पायजामा सिलकर परसों ही आ रहा है।"
"बड़े खुदगर्ज हो, सफफू !"
"खद्दर की भारी-भरकम साड़ी पहनोगी, सकीना ?"
"मैं तुम्हारे साथ दुनिया के अन्त तक चलूँगी।"
"और इन कपड़ों को?"
"यही समझ में नहीं आता।"
"यदि नीलाम में बिक जाते, तो उसी दाम से गरीबों के लिए कपड़े खरीदकर बाँट देती; खैर बाँट-बँट की कोशिश करूंगी।"
3.
सफ़दर जैसे उदीयमान बैरिस्टर के इस महात्याग का चारों और बखान होने लगा, यद्यपि खुद सफ़दर इसके लिए अपने से ज्यादा शंकर को मुश्तहक समझते थे। अक्टूबर और नवम्बर भर सफ़दर को घूमकर लोगों में प्रचार करने का मौका मिला था। कितनी ही बार उनके साथ सकीना और कितनी ही बार शंकर भी रहते थे। उनका मन गाँवों में ज्यादा लगता था, क्योंकि उनका विश्वास जितना गाँव के किसानों और श्रमिकों पर था, उतना शहर के पढ़े-लिखों पर नहीं । लेकिन हफ्ते के भीतर ही उन्हें पता लगा, कि उनकी फसीह उर्दू का चौथाई भी लोगों के पल्ले नहीं पड़ रहा है। शंकर ने शुरू ही से 'आइन गइन' में व्याख्यान देना शुरू किया था, जिसके असर को देख सफ़दर ने अवधी में बोलने का निश्चय किया। पहले उनकी भाषा में किताबी शब्द ज्यादा आते थे; किन्तु अपने परिश्रम और शंकर की सहायता से दो महीने बीतते-बीतते उन्हें अवधी के बहुत भूले और नये शब्द याद हो गये, और ग्रामीण जनता उनकी एक-एक बात को झूम-झूमकर सुनती।
दिसम्बर (सन्१९२० ई०) के पहले सप्ताह में अपने यहाँ के बहुत से राष्ट्रकर्मियों की भाँति शंकर के साथ सफ़दर भी साल भर की सजा पा फैजाबाद जेल में भेज दिये गये। चम्पा और सकीना उसके बाद भी काम करती रहीं, किन्तु उन्हें नहीं पकड़ा गया।
जेल में जाने पर सफ़दर नियम से एक घंटा चरखा चलाते थे। जो लोग उनके गाँधी-विरोधी राजनीतिक विचारों को जानते थे, उनके चर्खे पर कटाक्ष करते थे। सफ़दर का कहना था- "विलायती कपड़े के बायकाट को मैं एक राजनीतिक हथियार समझता हूँ, और साथ ही मैं यह भी जानता हूँ। कि हमारे देश में अभी पर्याप्त कपड़ा तैयार नहीं होता, इसलिए हमें कपड़ा भी पैदा करना चाहिए; किन्तु जिस वक्त देश में मिल पर्याप्त कपड़ा तैयार करने लगे, उस वक्त भी चर्खा चलाने का मैं पक्षपाती नहीं हूँ।"
जेल में बैठे-ठाले लोगों की संख्या ही ज्यादा थी। ये लोग गाँधीजी के साल भर में स्वराज्य के वचन पर विश्वास कर बैठे हुए थे, और समझते थे-जेल में आ जाने के साथ ही उनका काम खतम हो गया। अभी तक गाँधीवाद ने पाखंड, धोखा और दिखलावे का ठेका नहीं लिया था, इसलिए कह सकते थे कि असहयोगी कैदियों में ईमानदार राष्ट्रकर्मियों की ही संख्या ज्यादा थी। तो भी सफ़दर और शंकर को यह देखकर क्षोभ होता था, कि उनमें अपने राजनीतिक ज्ञान के बढ़ाने की और शायद ही किसी का ध्यान हो। उनमें से कितने ही रामायण, गीता या कुरान पढ़ते; हाथ में सुमिरनी ले नाम जपते; कितने सिर्फ ताश और शतरंज में ही अपना सारा समय खतम कर देते। एक दिन गाँधीवादी राजनीतिक दिग्गज विद्वान् विनायकप्रसाद से सफ़दर की छिड़ गई। शंकर भी उस वक्त वहीं थे। विनायकप्रसाद ने कहा-"अहिंसा का राजनीति में इस्तेमाल गाँधीजी का महान् आविष्कार है, और यह अमोघ हथियार है।"
"हमारी वर्तमान स्थिति में वह उपयोगी हो सकता है; किन्तु अहिंसा; कोई अमोघ-वमोघ हथियार नहीं है। दुनिया में जितने अहिंसक पशु हैं, वही ज्यादा दूसरे के शिकार होते हैं।
"पशु में न हो, किन्तु मनुष्य में अहिंसा एक अद्भुत बल का संचार करती है।"
"राजनीतिक क्षेत्र में कोई इसका उदाहरण नहीं है।"
"नये आविष्कार का उदाहरण नहीं हुआ करता।"
"नया आविष्कार भी नहीं है." शंकर ने कहा-"बुद्ध, महावीर, आदि कितने ही धर्मोपदेशकों ने इस पर जोर दिया है।"
"किन्तु राजनीतिक क्षेत्र में नहीं।“
सफ़दर-"राजनीतिक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता जो कुछ बढ़ गई है, वह इसलिए कि आज मानवता का तल कुछ ऊँचा उठ गया है, और अखबारों में निहत्थों पर गोली चलाने को लोग बहुत बुरा समझते हैं। अँग्रेज जलियाँवाला में गोली चलाकर इसके परिणाम को देख चुके हैं।"
"तो आप समझते हैं, हमारा यह अहिंसात्मक असहयोग स्वराज्य के लिए काफी नहीं है ?"
"पहले आप स्वराज्य की व्याख्या करें ।
"आप भी तो स्वराज्य के युद्ध में आये हैं। आप क्या समझते हैं ?"
"मैं समझता हूँ, कमाने वालों का राज्य-केवल कमाने वालों का ।
"तो आपके स्वराज्य में तन-मन-धन से सहायता करने वाले, कष्ट सहकर जेल आने वाले शिक्षितों, सेठों, तालुकदारों का कोई अधिकार नहीं रहेगा ?"
"पहले तो आप देख रहे हैं कि सेठों, तालुकदारों को अमन-सभा बनाने से ही फुर्सत नहीं है, वह बेचारे जेल क्यों आने लगे ? और यदि कोई आया हो, तो उसे कमाने वाले के स्वार्थ से अपने स्वार्थ को अलग नहीं रखना चाहिए।"
शंकर और सफ़दर बराबर पुस्तकों के पढ़ने तथा देश की आर्थिक, सामाजिक समस्याओं पर मिलकर विचार किया करते थे। पहले तो दूसरे उनकी बातों को कम सुनने के लिए तैयार थे; किन्तु जब ३१ दिसम्बर (सन् १९२१ ई०) की आधी रात भी बीत गई और जेल का फाटक नहीं खुला, तो उन्हें निराशा हुई, और अब चौरीचौरा में आतंकित, उत्तेजित जनता द्वारा चन्द पुलिस के आदमियों के मारे जाने की खबर सुनकर गाँधीजी ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया, तो कितने ही लोग गम्भीरता से सोचने पर मजबूर हुए, और वे कुछ आगे चलकर सफ़दर और शंकर की इस राय से सहमत हुए--"क्रान्ति का शक्तिस्रोत सिर्फ जनता है, गाँधी का दिमाग नहीं; गाँधी ने जनता की शक्ति के प्रति अविश्वास प्रकट कर अपने को क्रान्ति-विरोधी साबित किया।"