साँचे और कला (कहानी) : डॉ रामकुमार वर्मा
Saanche Aur Kala : Dr. Ram Kumar Verma
दो माह बाद लौटा तो आसपास सबकुछ देख लेने की उत्कंठा ज्वार पर थी। देखा-छोटे से बागीचे में कुछ पुष्प खिल उठे हैं, कुछ नामशेष हैं। पड़ोस में अजीब सी शांति है। ठिठक गया। यह कैसा अनहोना परिवर्तन! पर तभी दृष्टि खोज में उठी तो भौंचक रह जाना पड़ा। पाया-सामने, दाएं-बाएँ सभी छतों पर नए सृजन का उत्सव मचा है। नाना रूप-रंग के खिलौने चारों ओर बिखरे पड़े हैं। और सभी नर-नारी, युवक-युवतियाँ, वृद्ध-वृद्धाएँ, बालक-बालिकाएँ एक मन होकर उनके निर्माण में लगे हैं। न है शोरशराबा, न है कलह का घोर गर्जन और न कुत्सा का भोंडा प्रदर्शन।
एक क्षण में बहुत कुछ सोच गया। निर्माण की यह तन्मयता कैसी है? यह हरिया ही तो है। मेरी ओर देखती भी नहीं और वह है उसकी बहू, वह है उसकी बेटी दुलारी और वे हैं राम, पूरण, चंपालाल, धनिया-सभी जैसे मुझे भूल गए हैं। कोई मिट्टी गूंध रहा है, कोई साँचे भरता है तो कोई साँचे के बाहर की मिट्टी को छुरा लेकर फुर्ती से साफ करता है। कैसी तेजी से उनके हाथ चलते ही और नाना आकार के इन बरतनों में रंग भरे हैं-सफेद, नीले, पीले, लाल, हरे। और ये हैं अश-कृचियाँ। ये फूहड़ लोग, जिनकी जित्वा पर अपशब्दों का अक्षय भंडार है, ये कैसे ब्रश से खिलौनों पर धीरे-धीरे रंग कर रहे हैं। कैसे उन्हें निहारते हैं, कैसे उनकी वेशभूषा ठीक करते हैं।
हरिया की बहू ताजे-ताजे खिलौनों को खडिया के रंग में डुबोकर धूप में रख रही थी और बार-बार दुलारी की ओर देख लेती थी, जो मंत्रमुग्ध सी ब्रुश लिये किसी खिलौने को चित्रित कर रही थी। दीवार से टिकी, मूर्ति को एक हाथ में लिये, बार-बार आँखों के पास लाती, दूर ले जाती, फिर धीरे से ब्रुश से छुआ भर देती। न जाने कब से ऐसे बैठी थी। शायद देर हो गई। क्योंकि माँ की आँखों की भाव-भंगिमा में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। आखिर उसके सब्र का प्याला छलक पड़ा। बोल उठी, 'अरी ओ दुलारी! ऐसे कैसे होगा छिनाल! तू सवेरे से एक खिलौने को पूरा नहीं कर पाई। देख, रामू ने अब तक बीसियों को रंग डाला।'
दुलारी ने माँ को ऐसे देखा, जैसे समझ नहीं पा रही हो। फिर ब्रश से मूर्ति के नेत्रों को जैसे छू दिया। बोली, 'माँ, मैं क्या करूँ। यह मुझे अभी तक अच्छी ही नहीं लगती।'
'क्या अच्छी नहीं लगती?'
'यही राधाकृष्ण की मूरत, माँ।'
'तू पागल हो गई है। अच्छी नहीं लगती। तेरे बाप ने सवेरे से पाँच मूर्तियाँ तैयार कर दी हैं। कैसे अच्छी नहीं लगती?'
'माँ...'
'मैं कहती हूँ, इस चुडैल के नखरे देखो ना, मुझे यह सब पसंद नहीं। हरिया ने वहीं से धीरे से कहा, भागवान, दीवाली तक चुप रह। फिर मैं इसका सिर फोड़ दूंगा।'
'लेकिन दीवाली जब फीकी हो जाएगी तो? चंपालाल के घर में देख, टोकरे के टोकरे खिलौने भरे हैं। एक त् है, जो पीकर किसी को पूछता ही नहीं। तेरी बेटी को कुछ अच्छा ही नहीं लगता। अब मैं अकेली कहाँ तक हड्डी तोड़ूँ?'
हरिया चीख पड़ा, 'रहने दे, रहने दे राँ...'
और फिर दुलारी की ओर देखकर कहा, 'सूअर की...सवेरे से अब तक क्या कर रही है? अगर शाम तक एक सौ एक राधा-कृष्ण तैयार नहीं कर लिये तो सिर फोड़ दूँगा। समझी!'
बात कड़वी थी, पर आवाज में बुलंदी नहीं थी। जैसे ध्यान कहीं और था। जैसे पेट की फिक्र ने वाणी का तेज हर लिया हो। वैसे ही वैराग्य और प्रेम में वाणी का ओज स्थानांतरित होता रहता है। दुलारी ने कुछ नहीं कहा। एक बार माँ-बाप की ओर देख भर लिया। फिर चुपचाप उस मूर्ति को अंदर रख आई और दूसरी मूर्तियों को जल्दी-जल्दी रँगने लगी।
इन कुछ क्षणों में ही मैंने बहुत कुछ जान लिया था, जैसे पाणिनी के सूत्रों पर पातंजलि का महाभाष्य पढ़ डाला हो। मेरे घर के चारों ओर बसे ये शिल्पकार-कुम्हार दीवाली के लिए खिलौने तैयार करने में व्यस्त थे। कभी यह तिजारत खूब चलती थी, पर आज के विज्ञान के युग में मिट्टी का महत्त्व इस्पात में समा गया है। कला मशीन में सिमट गई है और शिल्पकार के हाथ भी मिट्टी में सौंदर्य और प्राण डालने में अशक्त होते जा रहे हैं। जैसे सबकुछ व्यापार हो गया हो; जैसे सबकुछ का लक्ष्य सिर्फ पैसा और पेट हो।
'पैसा और पेट क्या कम महत्त्वपूर्ण हैं? यही तो आदमी की मुख्य आवश्यकताएँ हैं।' यह बात एक दिन बिरजू ने मुझसे कही थी, 'पर व्यापार क्यों किया जाए, यह बात मेरी समझ में नहीं आती है और आज देखो भैया, सत्य-धर्म, ईमान-वचन, रूप-जवानी, साइंस-कला इन सबका व्यापार होता है।'
मैंने उत्तर दिया था, 'बिरजू, आवश्यकता और व्यापार के बीच की रेखा बड़ी पतली है, कहूँगा-छलिया है। सो आदमी छला जाता है। आवश्यकता को लेकर चलता है, पर कर बैठता है व्यापार।'
बिरजू इन्हीं में से एक है, पर इनका होकर भी इनसे अलग है। शराब नहीं पीता, गाली नहीं देता, दर्शन लेकर कॉलेज में पढ़ता था। ऐसी सुंदर ड्राइंग बनाता है कि देखनेवाले देखते ही रह जाते हैं। यही बिरजू दुलारी का गुरु था। मेरे मकान की दाहिनी ओर उसका तिमंजला मकान है। बाप ने ठेकों में टैक्स बचा-बचाकर बहुत कमाया है, पर बिरजू है कि तीसरी मंजिल के कमरे में बैठकर ड्राइंग बनाता है और अँगुलियों के इशारे से मिट्टी में प्राण डालता है। एक दिन उसने कहा था,
'मेरा बस चले तो ये सब साँचे तोड़ डालूँ।'
'क्यों?'
इनमें से बनी-बनाई चीजें निकलती हैं-एक जैसी। नजर थक जाता है। भला आदमी का उसमें क्या योग है? रंग पोतो और बाजार में बेचकर पेट भरो। छि:-छि:, ये गंदे खिलौने, ये गंदे पेट। तभी गाली निकलती है।
मैं हँसते-हँसते रह गया। केवल इतना ही बोला था, 'कला से पेट नहीं भरता।'
'कला का पेट से क्या संबंध? और भाई साहब, हो भी तो यह भोंडापन तो तब भी न रहेगा। अब तो वर्ष में दो-चार महीने काम करके फिर मर्द लोग शराब पीते हैं, औरतें दिन भर खाती और गाली देती हैं।'
यही सब सोचते-सोचते पुकार उठा, 'हरिया! अरे, भई सुनते नहीं, हरिया!'
तीनों ने एक साथ मेरी ओर देखा। हरिया ने हँसते हुए हाथ जोड़े। बोला, 'आ गए, बाबूजी?'
'हाँ भाई, आ गए। तुमने तो बहुत से खिलौने बना डाले।'
'क्या बताएँ जी, पेशा है और पेट पालना है। साल में एक यही मौका आता है और अब कौन खरीदे है ये खिलौने। कभी वक्त था...।'
'अभी भी वक्त है मेरे भाई, जरा तुम ध्यान दो...।'
'अजी, ध्यान दें तो भर लिया पेट। यह लौंडिया है, सवेरे से एक मूरत को लिये बैठी है। इस बिरजू ने न जाने क्या चस्का लगा दिया है।'
'अरे हाँ, बिरजू कहाँ है?'
'तिमंजिले पर बंद है। बस, दो-तीन बार बाहर आवे है। सुना है, राधा-किसन की मूरत तैयार करे है।'
'राधाकृष्ण की मूरत?'
'हाँ जी, कई दिन हो गए।'
'अच्छा, तब तो देखूँगा।'
शाम को देखने गया तो चकित रह गया-कमरा नाना रूप-रंग के मिट्टी के खिलौनों से भरा है। खिलौने भी ऐसे कि जैसे अभी जी उठेंगे। बिरजू की अंगुलियों ने जैसे जड़ मिट्टी में चेतना जगा दी हो। आकृति-अंकन के ये अद्भुत नमूने, बाह्य सजीवता के साथ आंतरिक भावों को अभिव्यक्त करनेवाली नाना भंगिमाएँ-देखकर दाँतों तले अंगुली दबा लेनी पड़ी। एक वे भी खिलौने थे, जो छतों पर भरे पड़े थे; ये भी खिलौने हैं, जो बातें करने को आतुर हैं। भावों में गूढ़ता नहीं, तरलता है, जो सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। दो क्षण स्तब्ध रहकर मैंने कुशल-क्षेम पूछी। फिर कहा, 'बिरजू, तुम तो कलाकार हो!'
बिरजू हँस पड़ा, 'क्यों लज्जित करते हो, भैया? कला बहुत ऊँचाई पर मिलती है। मैंने तो बस, साँचे तोड़े हैं और समय का उपयोग किया है।'
'ये ही दो बातें तो बड़ी मुश्किल हैं।'
'नहीं भैया, बड़ी आसान है! बस, चाहने भर की देर है। साँचे आपसे आप टूट जाते हैं और समय तो सदा सेवा में रहता ही है।'
मैं हँसा, 'कर्तव्य की विद्या बड़ी छलिया है बिरजू, हर किसी पर नहीं रीझती।'
'कौन किस पर रीझता है, भैया? वह तो रिझाया जाता है, पर रूप से नहीं, प्रेम से। प्रेम ही साधना है, प्रेम ही कला है...।'
'देखता हूँ, दर्शन पढ़ते-पढ़ते तुम तो दार्शनिक हो चले हो।'
बिरजू जोर से हँसा, 'अजी भैया जी, क्या कहते हो। जो पढ़ता हूँ, वही तो उगल देता हूँ। दार्शनिक कहाँ हुआ?' कहते-कहते सहसा रुक गया, जैसे सामने कुछ आ गया। बोला, 'बाहर कौन है?'
'मैं थी,' दुलारी ने अब अंदर प्रवेश किया।
सहसा देखने पर दुलारी का रूप और-और सा लगा। वैसे, वह सदा ही भोली लगती थी, रंग भी चिट्टा था, पर अब सलवार, कुरता और चुन्नी में पहचान न पाया। चेहरे पर अजीब सी उदासी थी। अंदर जैसे कोई घनीभूत पीड़ा हो। बिरजू ने पूछा, 'क्या बात है?'
'देखो तो, राधा-कृष्ण को क्या कर दिया चाचा ने।'
'क्या कर दिया?'
कहते-कहते बिरजू ने राधा-कृष्ण की मूरत हाथ में ले ली। फिर खुब हँसा, 'वाह जी, वाह। बस, राधा के हाथ में पिचकारी देने की देर है। अच्छी-खासी होली खिला दी है। कोई डर नहीं, छोड़ जाओ। पिचकारी हाथ में दे दूंगा, तब ठीक हो जाएगा। और हाँ, कितनी मूरतें तैयार की?'
'बस, पाँच।'
'अरे, बस क्यों। पाँच तो बहुत हैं। दिन में एक भी बनाओ तो साल में तीन सौ पैंसठ बनती हैं। बात तो काम करने की है। जा, चिंता मत कर।'
'माँ बहुत डाँटती है। बुरी-बुरी गाली देती है।' 'देती है तो तू ले मत। अच्छा ।'
दुलारी हँसी। बोली, 'बुरा लगता है।'
'जब बुरा लगे तो मूरत में ध्यान लगा लिया कर।'
'तुम्हारे पास तो हर बात का जवाब तैयार है। जैसे साँचे में ढले-ढलाए तैयार रखे हों।'
सुनकर बिरजू का रंग उतर आया। अचकचाकर दुलारी को देखता रह गया। फिर हँस पड़ा। मैं भी हँसा। दुलारी भी हँसी, पर जैसे उस हँसी में मुक्ति नहीं थी। कहीं कोई फाँस थी। बिरजू बोला,
'देखता हूँ, तुझे स्कूल से उठाना होगा।'
"जी, बड़े आए उठानेवाले। अच्छा, अच्छा, पाँचों मूरतें रख जाऊँगी। चाचा न जाने पीकर कब उन्हें बिगाड़ दे।' और यह कहकर दुलारी गायब हो गई।
कई क्षण हम दोनों मौन-मूक कुछ सोचते रहे। मैं मूर्तियाँ देखता रहा और उसकी अंगलियाँ मिट्टी से खेलती रहीं, रूप देती रहीं। तभी आँखें उठाई, जब उसकी पत्नी ने चाय के दो गिलास लाकर वहाँ रखे। उसने कहा, 'आओ, चाय पीएँ।'
मैंने पूछा, 'तुम्हारी पत्नी भी इस काम में मदद करती है?'
'करती तो है, पर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ी है।'
'समझ गया।'
वह हँस पड़ा, 'सीधी है, पर अधिकार के मामले में बड़ी सजग है।'
'हर नारी होती है।'
'अधिकार के बारे जितनी में वह सजग है, उतनी समय के उपयोग के बारे में हो, तो देश का रूप बदल जाए।' 'निस्संदेह।'
चाय पीकर चलूं कि उसने कहा, 'राधा-कृष्ण की मूर्ति तो देखी ही नहीं।'
कहते-कहते सामने की अलमारी खोल दी। क्या देखता हूँ-होंठों पर रहस्यमयी मुसकान लिये कृष्ण किसी शून्य में ताकते खड़े हैं। पीछे कंधे पर हाथ रखे रुक्मिणी है, और हदय में विराजमान है राधा। कोई उभार स्पष्ट नहीं है, पर भावों की अभिव्यंजना ने जैसे मुझे जकड़ लिया। कभी उस मिट्टी की बोलती प्रतिमा को देखता तो कभी बिरजू को।
बोला, 'बिरजू, राधा क्या है?'
'प्रेम।'
तभी 'लो, ये रहीं मूर्तियाँ।' कहते-कहते दुलारी वहाँ आ गई। हमारी बात सुन चुकी थी। अब सकपकाकर मूर्ति को देखा। कई क्षण देखती रही। फिर न जाने क्या हुआ, एकाएक फूट पड़ी,
'मैंने तुमसे कब कहा था कि...।'
और अपने को सँभालने में असमर्थ वह वहाँ से तीर की तरह भाग गई। बिरजू ने कई बार पुकारा,
'दुलारी, दुलारी सुन।'
उत्तर में पत्नी ने कहा, 'क्या कह दिया उसे? बुरी तरह रो रही थी।' 'कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।'
*****
अचानक मकान बदलकर दूर चला गया। दीवाली के बाद हरिया एक दिन आया। बता गया, 'दुलारी के बनाए राधा-कृष्ण दस-दस रुपए में बिके हैं। लौडिया तो बड़ी चतुर निकली, बाबूजी। तभी पढ़ालिखा लौंडा हूँढ़ा है। स्कूल में पढ़ावे है। कह दिया है बेटी, हाथ का काम कभी न छोड़ना।'
'शादी कब है?'
'बस, परसों ही बरात आएगी। इसीलिए आया हूँ, गरीब के घर दर्शन देना।'
'आऊँगा। और हाँ, बिरजू कैसा है?'
'बाबूजी, उसके खिलौनों ने तो गजब कर दिया। दस से लेकर पचास तक में बिके हैं और कुछ तो
उसने बेचे ही नहीं।'
'सच! राधा-कृष्ण कितने में गया?'
'बड़ा राधा-किसन, जिसमें राधाजी दिल में विराजमान हैं, उसने नहीं बेचा।'
'बेचना भी नहीं चाहिए था। अच्छा हरिराम, आऊँगा, जरूर आऊँगा।'
वह गया तो शाम को दुलारी आ गई। मैंने हँसकर कहा, 'बधाई हो दुलारी, हरिया बता रहा था कि तेरे बनाए राधा-कृष्ण दस-दस में गए।'
दुलारी हँसी! ओह वह हँसी, जैसे नश्तर की तरह दिल में चुभती चली गई, 'जी हाँ, दस-दस में विक गए।'
कुछ ऐसे कहा कि मैं उत्तर न दे सका। कई क्षण बाद वही बोली, 'एक बात कहने आई हूँ, बुरा तो न मानोगे।'
'कहो?'
'बिरजू ने राधा-कृष्ण की जो बड़ी मूर्ति बनाई थी, वह मुझे दे दी है, पर मैं उसका क्या करूं?
यहाँ छोड़ना नहीं चाहती, वहाँ ले जा नहीं सकती।'
'तो!'
'तो उसे आप रख लें।'
'मैं....' जैसे काँप-काँप आया।
'हाँ! बस, आप ही तो उसकी सचाई को समझते हैं। उसी बहाने कभी-कभी आया करूंगी।'
पाया कि जैसे मैं बहुत ऊपर उठ गया हूँ। दृढ़ स्वर में बोला, 'रख जाओ। मैं उसे संभालकर रखूँगा, पर सुनो!'
'कुछ नहीं, कुछ नहीं। आशीर्वाद देने परसों आऊँगा।'
*****
मूर्ति अभी तक मेरे पास रखी है, पर उसके बाद न तो बिरजू उसे देखने आया, न दुलारी। एम.ए, पास करके बिरजू दूर पढ़ाने चला गया है। सुनता हूँ, खिलौने अब भी बनाता है और उसकी कला खूब चमक रही है। दुलारी को भी अपने मास्टर पति के साथ बहुत सुखी बताते हैं। पतिदेव राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ बनाने से बहुत खुश हैं। घर के बाहर ही छोटी सी दुकान खोल ली है, कला के साथ अर्थ-प्राप्ति भी हो जाती है, पर मेरे पास रखी राधा-कृष्ण की मूर्ति में कृष्ण उसी तरह शून्य में ताक रहे हैं, रुक्मिणी उसी तरह कंधे पर हाथ रखे खड़ी है। राधा उसी तरह हदय में बंद है। बस, मैंने इतना और कर दिया है कि पास में राधा-कृष्ण की एक साधारण मूरत रखकर नीचे लिख दिया है-'राधा-कृष्ण-साँचे और कला।'
(सन् १९६०)