साँप और सीढ़ी एकांकी (नाटक) : विष्णु प्रभाकर
Saamp Aur Seedhi : Vishnu Prabhakar
पात्र
कविता,
शैलेन्द्र,
अजीत,
शिप्रा,
प्रतिभा,
रणजीत,
स्वर,
उमेश बत्रा,
लेखक।
साँप और सीढ़ी एकांकी
लेखक: अक्सर आप ने देखा होगा कि आप के बच्चे ‘सांप सीढ़ी’ नाम का खेल खेलते रहते हैं। शायद आप स्वयं भी खेलते होंगे। एक रंगीन गत्ते पर चित्रित कुछ सीढ़ियाँ, कुछ सांप, कुछ नम्बर। पासा फेंकिए, लीजिए उसने आपको सीढ़ी पर चढ़ा कर आाकाश की ऊंचाइयों पर चढ़ा दिया। शायद कुछ देर तक आप ऊपर और ऊपर उठते रहेंगे, लेकिन फिर एक क्षण आएगा जब यही पासा आप को सांप के फण पर बैठा कर पाताल की गहराइयों में फेंक देगा। ज़रा सोचिये क्या यही खेल आपके और हमारे जीवन में प्रतिक्षण नहीं खेले जा रहा है। वास्तव में उत्थान और पतन का यह खेल शाश्वत और सार्वजनिक है। लेकिन कभी-कभी यही खेल बहुत पीड़ादायक हो उठता है। मैंने अपने इस नाटक में इसी खेल की एक ऐसी ही झाँकी प्रस्तुत की है। सुनिए:
(प्रारम्भिक संगीत के बाद दूर से पास आते पदचाप, फिर द्वार पर आहट। एक बार, दो बार,तीन बार, बार-बार।)
कविताः किवाड़ खोलिए। (आहट पर आहट) खोलिए न! (अन्दर से स्वर उठता है जैसे कोइ नींद में हो।)
अजित: खोलता हूँ। (द्वार खुलने का स्वर)
कविताः क्या बात है, आज अभी तक नहीं उठे?
अजित: उठा तो था फिर सो गया। (अल्प विराम) आज सवेरे बहुत सुन्दर सपना देखा।
कविताः आज देखा है? (हंसती है) मैं तो रोज़ यही सुनती हूँ.....
अजित: नहीं, कविता। आज जो सपना देखा वह अनोखा था। और सच्चा भी (अल्प विराम) सवेरे-सवेरे देखा था, चार बजे के बाद।
कविताः चार बजे के पहले देखते तो?
अजित: तो वह रात होती और सपना सच्चा नहीं होता। जैसे सवेरे और रात में अन्तर है वैसे ही सच और झूठ में अन्तर है। पाप और पुण्य, प्रकाश और अन्धकार में अन्तर है। कहीं न कहीं विभाजक रेखा खींचनी ही पड़ती है।
कविताः (शरारत से) और अगर वह रेखा मिट जाए तो?
अजित: तो समाजवाद आ जाए।(दानों ज़ोर से हंसते हैं) कहां से कहां पहुंच गए हम। सपने और समाजवाद की राशि एक ही होती है न? ‘स’ से समाजवाद और ‘स’ से सपना।
कविताः (हंसती हुई) मैं तो आज समझी समाजवाद के अर्थ। (एकदम शांत हो कर) पर यह सपना था क्या? कहीं समाजवाद ही तो नहीं आ गया था सपने में?
अजित: मिलती-जुलती ही बात थी। मैंने देखा, मैं समाजवादी मन्त्रीमंडल का मन्त्री बन गया हूँ। और वह भी अर्थ मन्त्री।
कविताः (ज़ोर से हंस कर) शेखचिल्ली कहीं के। (फिर सहसा गम्भीर होकर) अजीत!
अजित: क्या हुआ? तुम सहसा गम्भीर क्यों हो गयीं?
कविताः सच कहो, तुम उनके पास वापस नहीं लौट जाना चाहते? अर्थ यानी पैसा तो वहीं है। शायद वही तुम्हारी उपचेतना में जड़ जमा कर बैठ गया है। (तीव्र संगीत) तुम अब भी अर्थ की कामना करते हो।
अजित: (अनमना-सा) अर्थ की कामना करना बुरा नहीं है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि मैं वापस लौटना चाहता हूँ। मैंने कल प्रतिभा से कह दिया था। (संगीत)
कविताः (कांप कर) क्या? कल प्रतिभा तुम से फिर मिली थी?
अजित: हाँ, मैं तुम्हें बताना भूल गया था।
कविताः या बताना नहीं चाहते थे?
अजित: वह अब फिर आने वाली होगी। एक्स्पोर्ट-इम्पोर्ट के एक प्रसिद्ध व्यापारी जो नेता भी हैं, मेरी सेवाओं का उपयोग करना चाहते हैं।
कविताः तस्कर व्यापार में?
अजित: सच तो यही है। वैसे प्रकट में वे मुझे अपनी फर्म का मैनेजर बनाना चाहते हैं।
कविताः (अल्प विराम) तो यह कुंजी है तुम्हारे सपने की। तुम सेठ जी के अर्थ मन्त्री बनना चाहते हो। (तीव्र संगीत) सुनो अजित, मैं तुम्हें वापस नहीं जाने दूंगी। (दूर जाते स्वर। एक और स्वर पास आता है।)
प्रतिभाः अजीत कहाँ है? (अल्प विराम) कौन कुसुम, कैसी हो?
कविताः कौन प्रतिभा, तुम यहां क्यों आयी?
प्रतिभाः श.....श बाहर कार में सेठ शैलेन्द्र कुमार हैं। ना, ना , नाराज न हो कुसुम!
कविताः मेरा नाम कविता है।
प्रतिभाः कुसुम या कविता? मेरे लिए तुम जो हो, सो हो। पर मैं तुमसे लड़ने नहीं आयी। इसलिए तुम्हें कविता कह कर ही पुकारूंगी। अजीत घर पर ही है कविता जी?
अजित: (पास आता स्वर) मैं यह हूँ, कहो!
प्रतिभाः कैसे हो अजित? सेठ शैलेन्द्र कुमार आए हैं। मिलना चाहते हैं।
अजित: लेकिन मैं नहीं मिलना चाहता।
प्रतिभाः और मैं उन्हें इसीलिए लेकर आई हूँ। बाहर कार में हैं। दो मिनट मिल लेंगे तो कुछ हानि न होगी। अन्तिम निर्णय तो तुम्हाते हाथ में है। फिर जल्दी क्यों? जल्दी का काम शैतान का होता है और आप....
अजित: (चीख कर) मैं कहता हूँ तुम और तुम्हारे सेठ दोनों....
कविताः अजित, प्रतिभा ठीक कहती है। जल्दी का काम शैतान का होता है। प्रतिभा उन्हें बुला लाओ! मैं बैठक खोलती हूँ। आओ अजित उन से बातें करेंगे। तुम्हारे अन्तर में दृढ़ता है तो यह आवेश क्यों? आवेश और पलायन दोनों का एक ही अर्थ होता है। (क्षणिक विराम। द्वार खुलने का स्वर) आइए, आइए, नमस्कार। यहाँ बैठिये!
प्रतिभाः ये हैं अजित और ये हैं कविता, अब इन की पत्नी। और अजित ये हैं...
अजित: नाम बता चुकी हो। नमस्कार शैलेन्द्र बाबू!
शैलेन्द्र: मिलकर बड़ी खुशी हुई। प्रतिभा ने मुझे सब कुछ बता दिया है। मेरी निजी सचिव है न! मेरी आवश्यकताओं को समझती है। जैसे ही मैंने कहा, मुझे एक निहायत ईमानदार और प्रतिभाशाली मैनेजर की आवश्यकता है तो इसने तुरन्त तुम्हारा नाम सुझाया। उमेश बत्रा तो सुनते ही उछल पड़ा।
अजित: क्या उमेश बत्रा भी आप के साथ हैं?
शैलेन्द्र: वह मेरा पार्टनर है। मेरा चिथड़े इम्पोर्ट करने का व्यापार है। और भी बहुत से लाइसेंस हैं। कुछ और मिलने वाले है। (हंस कर) मैं तो उमेश बत्रा और प्रतिभा जी का बहुत कृतज्ञ हूँ। लाइसेंस ले आने में प्रतिभा जी सिद्धहस्त हैं।
प्रतिभाः सेठ जी आप तो....
कविताः सेठ जी झूठ नहीं कहते। तुम्हारी शक्ति का सभी ने लोहा माना है।
शैलेन्द्र: आप ठीक कहती हैं। पहले आप भी तो उन्हीं के साथ थीं। विदेशों में काम करने के लिए मुझे जैसे व्यक्ति चाहिएं, वैसे केवल आप दोनों ही हैं।
कविताः (अल्प विराम) आप मुझे भी चाहते हैं?
शैलेन्द्र: जी हाँ।
कविताः (तलखी से) लेकिन मैं नहीं चाहती। (संगीत उभरता है)
शैलेन्द्र: आप ग़लत समझ गयीं। मैं अभी एकदम कुछ नहीं चाहता। सोच लीजिए। आप की शर्तें जो भी होंगी, मुझे स्वीकार होंगी। अजित बाबू, कोई काम जल्दी में नहीं करना चाहिए। प्रतिभा आप को सब कुछ समझा देंगी। मैं तो केवल आप से मिलने चला आया था। प्रतिभा तुम तो रूकोगी न! कार मुझे छोड़ कर लौट आएगी। अच्छा, नमस्कार अजित बाबू, नमस्कार कविता जी। फिर मिलेंगे। (नाम को लम्बा करके उच्चारण करता है। दूर जाते स्वर। फिर संगीत उभरता है।)
अजित : तो प्रतिभा, सेठ जी तुम लोगों के नये शिकार हैं।
प्रतिभा : यह शिकार बनते नहीं, शिकार करते हैं। एक महाशक्तिशाली मगरमच्छ कहिये उन्हें। ऊपर तक धाक है।
अजित : इन्हें यहाँ लाने का अर्थ?
प्रतिभा : तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली को यह भी बताना होगा क्या? जब उमेश बत्रा तुम्हारी प्रतिभा और सूझ-बूझ का वर्णन कर रहे थे तो सेठ जी समाधिस्थ हो गए थे। बत्रा ने बताया कि एक बार तुम साठ लाख का सोना ले कर आ रहे थे तो पकड़े जाने की पूरी आशंका हो गई थी, तब तुमने पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार तुरन्त अपने ही साथी को पांच लाख के साथ पकड़वा दिया और स्वयं कविता के साथ पचपन लाख का सोना लेकर शान से बाहर आ गए। सुनकर सेठ जी उछल पड़े और प्रतिज्ञा की, 'मुझे अजित और कविता को अपने साथ रखना है।'
कविता : उनकी प्रतिज्ञा का कोई अर्थ है?
प्रतिभा : होगा तभी तो आए हैं।
अजित : तुमने उन्हें बताया नहीं कि अब हम....
प्रतिभा : राई-रत्ती बता दिया। जितना बताती गई उतने ही वे अपने निर्णय पर दृढ़ होते गए।
अजित : वे कुछ भी होने को स्वतन्त्र हैं। लेकिन हम किसी भी शर्त पर उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं करेंगे। तुम जा सकती हो।
प्रतिभा : (हंस कर) इतनी जल्दी भगा दोगे? चाय तक को नहीं पूछोगे? कार आने में अभी देर है।
कविता : (अल्प विराम) कोयला नहीं, तेल नहीं, चीनी नहीं....
प्रतिभा : इसीलिए तो कहतो हूँ....
कविता : (एक दम) मैं चाय लाती हूँ। (जाने का स्वर)
प्रतिभा : (हंस कर) यह हुई दोस्ती की बात। (अल्प विराम) सुनो अजित, मैं साफ़-साफ़ बात कहूँगी। हमें तुम लोगों की सख्त ज़रुरत है। मेरी ओर देखो, क्या मैं वही प्रतिभा हूँ जिसे तुम जानते थे? न जाने कितनी रातें मैंने तुम्हारे साथ बिताई हैं, पर बत्रा कहता है कि मेरे रूप का वह आकर्षण अब समाप्त हो गया है। मैं तुरन्त पहचान ली जाती हूँ। इसके विपरीत कुसुम या कविता का रूप अब पहले से भी निखर उठा है। उसका मोहक व्यक्तित्व चुम्बक की तरह खींचता है। उसे देखते रहने को जी करता है। और वह केवल रूपसी ही नहीं, प्रतिभाशाली भी है। और तुम....
अजित : काफी हो गया। चाय आ गयी। पीकर तुम दफ़ा हो सकती हो।
प्रतिभा : (अर्थगर्भित स्वर) इतनी घृणा है मुझसे! कभी तुम्हारी मित्र रही हूँ। तुम्हारी पर्मंकशायिनी। एक रहस्य की बात कहती हूँ। मित्र से कुछ छिपा नहीं रहता। उसकी इतनी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
अजित : क्या मतलब है तुम्हारा?
प्रतिभा : तुम सब समझते हो। जो बातें सेठ जी को बताई जा सकती हैं, वे किसी और को भी बताई जा सकती हैं। धुर ऊपर तक पहुँच है सेठ जी की। (तीव्र संगीत, प्याले गिर कर टूटने का स्वर।)
कविता : तो तुम 'ब्लेकमेल' करने आई हो!
प्रतिभा : मेरा यह मतलब नहीं है, पर तुम समझाना चाहो तो मैं क्या कर सकती हूँ।
अजित : (चीख कर) प्रतिभा (अल्प विराम) चली जाओ नहीं तो....
प्रतिभा : नहीं तो ....? (तीव्र संगीत)
अजित : (अल्प विराम) मुझे खेद है मैं संतुलन खो बैठा। तुम अब जा सकती हो।
कविता : और कुछ भी कर सकती हो। विश्वास रखो, पुलिस के आने से पर हम भागेंगे नहीं।
प्रतिभा : जा रही हूँ, पर शीघ्र ही फिर आऊँगी। आपने मुझे गलत समझा। मैं तो पुरानी मित्रता के सूत्र को फिर से जोड़ने आई थी। शायद शुभ महूर्त में नहीं चली थी। इस बार आने से पहले ज्योतिषी जी से पूछ लूंगी। (हंसती है। दूर जाते स्वर। संगीत उभरता है रहता। एक क्षण के बाद कविता बोलती है।)
कविता : क्या सोच रहे हो?
अजित : (चौक कर) कुछ नहीं। (अल्प विराम) सोच रहा हूँ, मैं क्या से क्या हो गया। तुमने मुझे क्या बना दिया। तुम्हारा सम्मोहन सचमुच नागपाश के समान है।
कविता : सच? (संगीत उभरता है)
अजित : (अल्प विराम) कविता, क्या तुम्हें वह दिन याद है जब तुम और मैं दल के आदेशानुसार हिमालय के निर्जन एकांत में अपने अड्डे बनाने की संभावना को लेकर यात्रा करते-करते बद्रीनाथ पहुँच गए थे?
कविता : याद है।
अजित : छह वर्ष हो गए।
कविता : हाँ, छह वर्ष बीत गए। कैसा पौरुष को मोह लेने वाला दिव्य सौन्दर्य था वह, कैसा गरिमामंडित रूपजाल! (सहसा संगीत उभरता है, जो मधुर होकर भी पौरुष से पूर्ण है। उसी के साथ अजित और कविता भूतकाल में पहुँच जाते हैं। संगीत वातावरण में शान्ति भर देता है। दो व्यक्तियों की पदचाप श्वास-प्रश्वास पास आते हैं।)
अजित : कहाँ लिए जा रही हो तुम मुझे, कुसुम?
कविता : बस थोड़ा और ऊपर। वह देखो वही तो जोशीमठ है, उत्तराखंड में शंकराचार्य द्वारा स्थापित व्यासपीठ। क्या थक गए हो?
अजित : नहीं थकूंगा क्यों? तुम जो साथ हो। पर शंकराचार्य को अपने ग्रन्थ लिखने के लिए क्या यही भयानक प्रदेश मिला था? कैसा उबड़-खाबड़ पथ है!
कविता : इस भयानक प्रदेश में आपको क्या कुछ भी सौन्दर्य नहीं दिखाई देता?
अजित : क्या कहा? सौन्दर्य? (हंसता है)
कविता : मैं कहती हूँ क्या तुम्हारा मन इन दृश्यों को देखने को नहीं करता?
अजित : (अल्प विराम) हाँ, कभी-कभी ऐसा जी करता है कि इन अगम्य चोटियों पर चढ़ता रहूँ। ये मुझे पुकारती प्रतीत होती हैं।
कविता : (हंस कर) ऐसा ही मायावी सौन्दर्य है इस प्रदेश का। शंकराचार्य को भी इन्हीं बहुरूपी शिखरों ने पुकारा था। लो वह रहा कीमू का वृक्ष, जहाँ बैठ कर उन्होंने ग्रन्थ लिखे थे। और वह--- ऊपर उनका आश्रम है।
अजित : और ऊपर नहीं। मैं यहीं बैठता हूँ। तुम चाहो तो जा सकती हो।
कविता : तुम्हारे बिना मैं कहीं नहीं जाऊँगी। देखो तो कितने सुन्दर मोहक पुष्प खिले हैं इस मार्ग पर।
अजित : तुम मुझ पर इतना अधिकार क्यों जताती हो कुसुम? न जाने कितने पुरुषों को तुम्हें लुभाना पड़ता है। फिर भी....
कविता : मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। सच अजित, तुम विश्वास करो। (अल्प विराम) क्या सोच रहे हो?
अजित : कितने विवश हैं हम? तस्कर व्यापार भी करते हैं और प्यार का दावा भी। यह पहाड़, यह निर्झर, जैसे ये सब मुझ से पूछ रहे हैं, मैं इन की भाषा तो नहीं जानता पर हृदय में अनुभव कर रहा हूँ कि....
कविता : कि क्या प्यार में भी तस्कर व्यापार चलता है? (हंसी, फिर चीख) ओह....
अजित : (घबरा कर) क्या हुआ? गिर रही थी? लो मुझे पकड़ लो। कस कर ऐसे। ( एक क्षण श्वास-प्रश्वास और चढ़ने की पगध्वनि होती रहती है।) कैसा एकांत, कैसा मौन, मोहक डरावना मौन। यह सब देख कर मुझे दर लगता है। ( एक दम ) चलो, चलो हम लौट चलें।
कविता : ठहरो, दो क्षण ठहरो। यहाँ कोई भूत नहीं है।....वह कुछ लिखा है।
अजित : कहाँ? ओह वह! (पढ़ता है) यहाँ किसी प्रकार का चढ़ावा नहीं चढ़ता। भेंट-पूजा नहीं होती। केवल कोई दुर्गुण छोड़ने की प्रतिज्ञा की जाती है। सहसा एक स्वर गूंजता है)
स्वर : पथिक, यहाँ तक आए हो तो अपना कोई दुर्गुण दान कर जाओ! यही यहाँ की दक्षिणा है।
अजित : (चीख कर) नहीं, नहीं, यह सब ढोंग है। यहाँ से चलो कुसुम, चलो!
कविता : ठहरो, ठहरो, मैं गिर जाऊँगी। (तीव्र संगीत के साथ-साथ वे फिर वर्तमान में लौट आते हैं।)
अजित : तुम्हें याद है उसकी?
कविता : हाँ, याद है। दूसरी बार हम फिर वहां गए थे, पर तब भी तुमने अपने पथ से हटने से इन्कार कर दिया था।
अजित : लेकिन फिर भी तुमने आशा नहीं छोड़ी थी।
कविता : चोरी-चोरी दूसरों की शैयाओं पर सोते-सोते मैं थक गई थी। उस लुका-छिपी से तो वेश्या का मुक्त जीवन ही बेहतर है। मैंने निश्चय कर लिया था.... मैं आत्महत्या नहीं करूंगी। मैं जैसे चाहूँ वैसे जीने का अधिकार पा कर रहूंगी। तुम्हें मालामाल करने के लिए अपने को बार-बार बेच है। अब तुम्हारा प्यार पाने को एक बार ही अपने को बेच दूँगी।
अजित : आज कह सकता हूँ, मैं जितना उस पथ से हटाने से इन्कार करता था अन्तर में उतनी ही घृणा अपने से होती थी।
कविता : इसीलिए तो मैं तुम्हें बार-बार उस रास्ते पर खींचे ले जाती थी। याद है?
अजित : हाँ याद है। (गहन संगीत के साथ फिर भूतकाल में पहुंच जाते है। प्रकृति की मोहकता और विषमता को सूचित करने वाला संगीत उभरता रहता है। और साथ ही उभरता है यात्रियों का श्वास-प्रश्वास।)
कविता : लो आ गए! यह रहा कीमू का वृक्ष और वह रहा आश्रम। इस एकांत में फूल कैसे प्यारे लगते हैं। बार-बार आने के कारण यह स्थान कितना परिचित हो गया है। मुझे तो इससे एक प्रकार का स्नेह हो गया है। हर बार इसके सौन्दर्य में एक नया निखार पाती हूँ। एक नया आकर्षण।
अजित : इसीलिए तो मैं यहाँ आकर भी बार-बार भागता हूँ। भावनाएं कितनी तरल हो जाती हैं। कैसा-कैसा हो आता है मन। यह विराट मौन। यह अनोखा सौन्दर्य। यह दिव्य शान्ति।
कविता : तुम तो कविता करने लगे अजित!
अजित : सच कुसुम। इस बार तो मन करता है कि.... ( स्वर गूंजता है)
स्वर : यहाँ किसी प्रकार का चढ़ावा नहीं चढ़ता। भेंट पूजा नहीं होती। पथिक अगर यहाँ आए हो तो अपना कोई दुर्गुण दान कर जाओ। यही यहाँ आने की दक्षिणा है।
अजित : (एक दम) कुसुम मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज से तस्कर व्यापार नहीं करूंगा। (संगीत उभरता है)
कविता : (अल्प विराम) मैं जानती थी, तुम एक दिन ऐसा करोगे। याद रखना, तुमने प्रकृति को साक्षी करके प्रतिज्ञा की है। मैं भी उस प्रकृति को साक्षी करके तुम्हें स्वीकार करती हूँ। इस क्षण से तुम मेरे साथी, मेरे सखा, मेरे प्रियतम....। ( गहन संगीत और उसके बीच में मादक श्वास-प्रश्वास।)
अजित : यह निरभ्र, नीलाकाश, ये रजतवर्णी झरने, ये क्षण-क्षण रूप बदलते हिम-शिखर, ये संगीतमयी सरिताएं, कुसुम तुम आज से मेरी कविता हुई। तुम्हें यह नाम पसंद है?
कविता : पसंद है मेरे प्रियतम! (कविता की मादक हंसी उभरती है। जो शीघ्र ही दोनों की सम्मिलित हंसी में परिवर्तित हो जाती है। फिर संगीत के साथ दोनों वर्तमान में लौट आते हैं।)
अजित : पांच वर्ष बीत गए हैं इन बातों को, याद है?
कविता : याद है। कितनी कठिनाई हुई थी उमेश से छुट्टी पाने में?
अजित : मैंने कितना चाह कि वह भी उस अपवित्र जीवन से मुक्ति पा ले, लेकिन याद है उसने कहा था....
कविता : याद है उसने कहा था -"अजित, याद रखना एक दिन फिर, तुम यहीं लौट कर आओगे।" इस तरह के लोग ऐसे ही कह सकते हैं। लेकिन कैसा ही ऐश्वर्य हो, कितना ही वैभव-विलास हो, मैं अब पीछे मुड़ कर नहीं देखूँगी और न ही तुम्हें देखने दूँगी। (अल्प विराम) अब उठो, जल्दी से तैयार हो जाओ। कितने काम करने हैं हमें। शिप्रा का कॉलेज खुल गए हैं। प्री-मेडिकल कर ले तो एम.बी.बी.एस. में जा सकती है। और हाँ, रणजीत के लघु-उद्योग के कारखाने के बारे में बातें करने हमें उद्योग मंत्रालय भी तो जाना है। और मेरी नौकरी का प्रश्न भी है। अर्जी दी थी, पता नहीं कहाँ पहुंची है। कब लौटेगी? लगता है मुझे स्वयं जा कर लौटा लाना होगा। तो मैं चली। (जाने की पद चाप।)
अजित : (हल्की हंसी) कहाँ वह चोरों का नंदन-कानन, कहाँ यह इंसानों की बस्ती। कोई कह सकता है कि यह वही कविता है, जिसके मोहक रूप जाल में फंस कर बड़े-बड़े अधिकारियों ने आत्म समर्पण कर दिया था? विश्वास नहीं कर पाता। लेकिन नहीं, कल्पनाओं के आल-जाल अब और नहीं। अब तो क्रियाशील होना है। (अन्तराल सूचक संगीत के बाद कविता का स्वर पास आता है।)
कविता : शिप्रा, ओ शिप्रा, यहाँ तो आ! उधर कहाँ जा छिपी?
शिप्रा : आई भाभी, (पास आता स्वर) क्या कहती है?
कविता : यह तू इतनी उदास क्यों रहती है? क्या पता लगा आज? सुना है विश्वविद्यालय में प्रथम आ रही हो?
शिप्रा : मैं प्रथम नहीं आ सकती।
कविता : क्यों पर्चे खराब हो गए थे?
शिप्रा : मेरी दृष्टि में तो नहीं हुए थे।
कविता : तो फिर किसकी दृष्टि में हुए थे? (अल्प विराम) अरे बोलती क्यों नहीं? यह आँखों में पानी कैसा? क्या बात है?
शिप्रा : मत पूछो भाभी, मुझ से कुछ मत पूछो। (दूर जाते स्वर)
कविता : (पीछे जाते स्वर) शिप्रा तुझे बताना।
शिप्रा : (अल्प विराम) तो सुनो, जो विभाग के प्रमुख हैं, उनके बेटों और भतीजों में से ही कोई प्रथम आ सकता है।
कविता : (अल्प विराम) किसने कहा?
शिप्रा : (अल्प विराम) सभी कहते हैं। यह भी कहते हैं कि यदि मैं प्रथम आना चाहूँ तो....
कविता : (अल्प विराम) तो क्या? कहती क्यों नहीं?
शिप्रा : तो ....तो.... मुझे अपने शरीर का सौदा....
कविता : (चीख कर) बको मत।( तीव्र संगीत। अल्प विराम) शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी देह का सौदा होता है! (अल्प विराम) शिप्रा अभी अपने भैया से कुछ मत कहना। मैं कुछ न कुछ करूंगी। लो वे आ रहे हैं हम चले। (अजित पुकारता हुआ पास आता है।)
अजित : रणजीत, रणजीत, लगता है अभी तक नहीं आया। (अल्प विराम) लो अब आ रहे हैं जनाब! (पास आते पद चाप) क्यों रणजीत, काम हुआ?
रणजीत : हुआ पर ब्लैक में। पचास बोरी सीमेन्ट के लिए मूल्य के अतिरिक्त २५० रूपये और देने पड़े।
अजित : २५० रूपये!
रणजीत : वह तो मेरे एक मित्र ठेकेदार हैं। उन्होंने एक हज़ार बोरी सीमेन्ट पांच हज़ार रूपये अतिरिक्त देकर लिया और सात हज़ार रूपये अतिरिक्त ले कर बेच दिया। एक दिन में दो हज़ार रूपये कमा लिए। उन्हीं की सिफ़ारिश पर मुझे पचास बोरियां मिल सकी हैं, नहीं तो....।
अजित : नहीं तो छतें गिर जाती। (तीव्र हो कर) गिर जाने देते, तुम्हें ब्लैक नहीं करना चाहिए था।
रणजीत : यह ब्लैक नहीं है भैया, दस्तूरी है। इसके बिना कहीं कुछ नहीं होता। अभी चार बर्थ बुक कराने के लिए २० रूपये दे कर आया हूँ। तीन घंटे से क्यू में खड़ा था। यदि एक व्यक्ति मुझ पर तरस न खाता तो कभी बर्थ नहीं मिलती। और हम इलाहाबाद नहीं जा पाते।
अजित : मैं कहता हूँ यदि न जा पाते तो क्या आसमान टूट पड़ता?
रणजीत : आसमान कभी नहीं टूटता, पर बनाते काम बिगड़ जाते हैं।
अजित : और ईमान नहीं बिगड़ता?
रणजीत : (हँसता है) ईमान तो रूपहीन वस्तु है। उसके बनाने-बिगड़ने का कोई अर्थ नहीं होता। और ईमान है क्या? यह भी तो हम ठीक-ठीक नहीं जानते।
अजित : रहने दे अपने दर्शन को। ईमान रूपहीन है। ईमान का कोई स्वरूप नहीं, कोई अर्थ नहीं....। (किसी के आने की पदचाप)
चपरासी : अजित बाबू, अजित बाबू!
अजित : चले आओ भाई, दरवाज़ा खुला है।
चपरासी : जी नमस्कार। मैं इन्कम टैक्स के आफ़िस से आया हूँ। यह आपका डिमांड नोट है।
अजित : देखूं। (अल्प विराम) यह क्या? इस बार २२० रूपया टैक्स लगा दिया। मैंने तो अभी तक दस-बीस से ज्यादा कभी टैक्स नहीं दिया। यह कैसे हुआ?
चपरासी : यह तो मैं नहीं जानता, पर इतना ही जानता हूँ कि हमारे ये आई.टी.ओ. साहब ऐसे ही हैं। आप उनसे मिल लीजिए।
अजित : मैं क्यों मिलूँ? उन्होंने जो कुछ पूछा था बता दिया था। उन्होंने मनमानी की है। मेरी आमदनी ही क्या है?
चपरासी : अच्छा साहब, आप उनसे न मिलें पर हमारे शर्मा बाबू से अवश्य मिल लें। वे क्लर्क हैं, सब ठीक करा देंगे। २२० के बीस रह जाएंगे, बस आप को....।
अजित : बस आप को १०० रूपए उन्हें देने होंगे।
चपरासी : (हंस कर) साहब ५० रूपए में भी काम हो सकता है।
अजित : (एक दम) तुम जा सकते हो।
चपरासी : मेरा ईनाम दे दीजिए, मैं चला जाऊँगा। मैं तो आप को रास्ता बता रहा था, मुझे क्या?
अजित : (चीख कर) मैं कहता हूँ, 'यू गेट आउट।'
रणजीत : रूको। लो दो रुपये, तुम जाओ! भैया, इसमें इस का क्या अपराध है। जो कुछ होता है वही तो उसने बताया है।
अजित : (संयित हो कर) मैं जानता हूँ, मुझे अफ़सोस है।
चपरासी : जी कोई बात नहीं। आप एक बार आ जाइए बस! अच्छा नमस्ते।
(पद चाप और संगीत)
अजित : (अल्प विराम) लगता है सार देश बीमार है। धरती जैसे नरक का पर्याय बन गयी है। कहीं धर्म की बोली बोलती है तो कहीं ईमान की। कहीं सोना बिकता है तो कहीं शरीर। बाहर से सब शांत है। पर भीतर हर कदम पर नकाबपोश डाकू घूमते हैं जैसे कभी मैं घूमता था। (अल्प विराम के बाद अन्तर्मुखी स्वर) कितने संघर्ष के बाद मैंने इस जीवन से मुक्ति पाई थी, पर लगता है जैसे ये शरीफजादे मुझे फिर से उसी नरक में धकेलने को कृत सकल्प हैं। लेकिन मैं तो दुर्गुणों का दान कर चुका हूँ। जो वस्तु एक बार दान में दे दी जाती है वह क्या वापस ली जाती है। (हँसता है) चाहूँ तब भी नहीं ले सकता। कविता की मर्म भेदी दृष्टि मुझे अन्तर तक तराश देती है।....(बाहर से उमेश बत्रा का स्वर उभरता है।)
बत्रा : अजित कुमार जी हैं क्या?
अजित : (काँप कर) ओह यह तो बत्रा है। दुष्टों ने ऐसा घेरा डाला है कि ....(दूर से रणजीत का स्वर )
रणजीत: इधर हैं ड्राइंगरूम में चले जाइए।
बत्रा : (पास आता स्वर) हलो अजित, देखे कितने दिन हो गए!
अजित : कैसे हो बत्रा?
बत्रा : बस जी रहा हूँ। (अल्प विराम) सुना है तुम बड़ी कठिनाइयों में फंस गए हो। पैसे की बहुत तंगी है।
अजित : नहीं तो, किसने कहा?
बत्रा : हर बात क्या कहने पर ही जानी जाती है। भगवान ने इंसान को बुद्धि दी है। नहीं दी? बोलो!
अजित : बोलने का कम तो सदा तुमने ही किया है।
बत्रा : वही तो मुसीबत है। मैं तो सदा बोलता ही रहा। काम तो तुम करते थे। (अल्प विराम) दुनियां भर के तस्करों से तुम्हारी घनिष्ठता थी। न जाने कितनों को तुमने कस्टम से सही सलामत निकलवा दिया है। शैलेन्द्र बाबू कहते हैं कि उन्हें ऐसे ही व्यक्ति चाहिएं। तुम से बड़े प्रभावित हैं।
अजित : मालूम है।
बत्रा : कविता कहाँ है?
अजित : भाभी कहो। ( पद चाप पास आते हैं।)
बत्रा : भाभी ही सही, पर वे हैं कहाँ?
कविता : यह रही, कहिए, क्या आज्ञा है।
बत्रा : ओहो मिस कुसुम! क्षमा कीजिये जबान पर यही नाम चढ़ा हुआ है। अच्छा भाभी जी, क्या चाय भी नहीं मिलेगी?
कविता : कोयल नहीं, मिट्टी का तेल नहीं, चीनी नहीं, फिर भी आप को चाय चाहिए। ख़ैर, अपने देवर के लिए कहीं से तो लानी ही पड़ेगी। (किसी के पद चाप फिर बर्तन खनकने का स्वर।)
बत्रा : यही तो आप लोगों का प्रताप है। इसीलिए शैलेन्द्र सेठ कहते हैं ....
कविता : जाने दीजिए सेठ को। लीजिए चाय पीजिए।
बत्रा : याद है कितने दिन हो गए तुम्हारे हाथ की चाय पीये?
कविता : मेरे हाथ से तो कुछ और भी पीया है। पर कैसे आना हुआ!
बत्रा : ऐसे ही पुराने मित्रों से मिलने चला आया था। बहुत दिन हो गए थे न?
कविता : आप हमें अब भी मित्र मानते है?
बत्रा : हम लोग खोटे हो सकते हैं, पर हमारी मित्रता खोटी नहीं है।
कविता : (खूब हंसती है) जल में रहते जैसे कमलपत्र नहीं भीगता, वैसे ही आप की मित्रता आपके अपवित्र शरीर में रहते हुए भी अपवित्र नहीं होती। (अल्प विराम) लेकिन क्या आपकी मित्रता, आप को हम से मिलाने की आज्ञा देती है?
बत्रा : (अल्प विराम) क्या आप विश्वास करेंगी कि पछतावा हमें भी होता है? न जाने भगवान हमें क्या दंड देंगे? तुम तो हमें नरक में छोड़ कर स्वर्ग में आ गए, पर हम हैं कि मुहं लगा खून छूटता ही नहीं।
कविता : लेकिन जिन का छूट गया है, उन पर तो अपना साया न डालिए।
बत्रा : मिस कुसुम!
कविता : कुसुम कभी की मर चुकी, मैं कविता हूँ।
बत्रा : कुसुम या कविता कुछ भी हो, आप की ही भाषा उधार लेकर कह सकता हूँ कि अभिमान किसी को शोभा नहीं देता। क्या कोई भी शरीफ़ और ईमानदार माना जाने वाला आदमी विश्वास के साथ कह सकता है कि वह वही है जो दिखाई देता है। (संगीत गहराता है।) बोलो!
कविता : तर्क से कोई समस्या नहीं सुलझती, लेकिन मुझे यह कहने का अधिकार है कि अब हमारा उधर लौटना असंभव है।
बत्रा : मैंने बहुत-सी असंभव बातों को संभव होते देखा है।
अजित : अब असंभव को असंभव रहते भी देख लेना।
बत्रा : देख लूँगा। (अल्प विराम) पर अजित, मैं न धमकी देने आया हूँ न तर्क करने। आया हूँ केवल प्रार्थना करने।
अजित : प्रार्थना ही करनी है तो प्रभु से करो।
बत्रा : यदि मैं कहूँ कि हमारे प्रभु तुम ही हो तो ....
अजित : तो मैं कहूँगा कि तुम जा सकते हो। भविष्य में न तुम मेरे द्वारे आओगे और न मैं तुम्हारे द्वारे आऊंगा।
बत्रा : इतना अहंकार! (अल्प विराम) जा रहा हूँ, लेकिन जल्दी ही एक दिन फिर आऊंगा। तुम दोनों को लेने के लिए! (हँसता है) यह भी हो सकता है कि तुम स्वयं मेरा द्वार खटखटाओ। नमस्ते!
कविता : तेरा द्वार खखटाने मैं फांसी लगा लूंगी। (जाने की पद चाप )
अजित : (अल्प विराम) आदमी ने अपने को क्या बना दिया। ज्ञान जितना बढ़ रहा है, सुविधाएं जीतनी सहज हो रही है, उतना ही उसका पतन हो रहा है। प्रकाश जैसे अन्धकार की ओर जाने का मार्ग दिखा रहा है।
कविता : प्रकाश कभी अन्धकार का मार्ग नहीं दिखाता। वह अन्धकार को चीर कर भविष्य के पथ को आलोकित करता है।(अन्तराल संगीत उभर कर विलय होता है और फिर रणजीत का स्वर पास आता है।)
रणजीत : हाँ, दादा मैंने बहुत प्रयत्न किया पर कुछ हो नहीं सका। मैनेजर कहते हैं कर्ज़ा मिलाने में बड़ी कठिनाई होगी। आप स्वयं तो कुछ बनाते नहीं। इधर-उधर से पुर्ज़े बनवा कर मशीन तैयार कर देते हैं। फिर भी मैं बीस हज़ार रुपये दिलवा सकता हूँ बशर्ते कि आप दो हज़ार रुपये खर्च करने को तैयार हों।
अजित : मैं जानता हूँ।
शिप्रा : (पास आता स्वर) आई यह भी जानते होंगे कि मुझे मेडिकल कॉलेज में जगह मिल सकती है बशर्ते कि आप पांच हज़ार रुपये पार्टी फंड में दें।
अजित : और शायद तुम स्वीकृति भी दे आई हो?
शिप्रा : एक बार ग़लती करके देख चुकी थी, दूसरी बार नहीं करूंगी। माँ के जो गहने मेरे पास हैं उनको बेच कर पांच हज़ार तो मिल ही सकते हैं। जो कमी होगी वह आप पूरी कर देंगे।
रणजीत : मैंने भी दो हज़ार रुपये देने का वचन दे दिया है। अपने कोआपरेटिव बैंक से कर्ज़ा ले लूँगा।
अजित : (चीख़ कर) ओह तुम लोग?
रणजीत : (शांत दृढ़ स्वर) दादा गरीबी दूर करने के लिए मुझे लघु उद्योग का विस्तार करना ही है।
शिप्रा : और बीमारी दूर करने के लिए मुझे भी डाक्टर बनना है।
अजित : (चीख़ कर) दूर हो जाओ मेरी आँखों के सामने से।
शिप्रा : आँखों के सामने से हम दूर हो सकते हैं, लेकिन व्यवस्था नहीं बदल सकती।
अजित : व्यवस्था बदल सकती है बशर्ते।
रणजीत : (हंस कर) बशर्ते हम मरना स्वीकार कर लें। क्षमा करें दादा, छोटे मुंह बड़ी बात कह रहा हूँ। मैं भविष्य के बारे में सोचनें और जीनें में विशवास करता हूँ। आपके उस सेठ जी ने, जो नेता भी हैं . इम्पोर्ट लायसेंस लेने के लिए दस हजार के नोट सक्रेटरी के मुंह पर दे मारे और शान से लायसेंस लेकर बाहर चले आए। अब वे दस लाख कमा लेंगे। देश में कोयल नहीं, तेल नहीं। कोयल नहीं होगा, तेल नहीं होगा ....
शिप्रा : तो बिजली घर बंद हो जाएंगे।
रणजीत : बिजली घर बंद हो जाएंगे तो उद्योग-धंधे नष्ट हो जाएंगे।
शिप्रा : हम नष्ट हो जाएंगे।
रणजीत : ऐसी स्थिति में मैं इन लोगों को देखूं या आप के आदर्शों को?
शिप्रा : आप के आदर्शों और साधनों की पवित्रता केवल जीवन को सुखा ही सकती है, सफलता का मार्ग नहीं दिखा सकती। मैं सूखने के स्थान पर सफल हो कर समाज की अधिक सेवा कर सकती हूँ। (दूर जाते स्वर)
रणजीत : मैं लघु उद्योगों के द्वारा जीविका अर्जित करके न केवल अपने ही लिए सुख संचित कर सकता हूँ, बल्कि दूसरों के लिए भी मार्ग खोज सकता हूँ। ( दूर जाते स्वर)
अजित : (अल्प विराम) तर्क, तर्क, तर्क। तर्क क्या कभी किसी को मार्ग दिखा सका है। बुरे मार्ग से मिली सफलता का परिणाम एक नए बुरे मार्ग के निर्माण में ही हो सकता है। मैं कहता हूँ ....(सहसा शांत हो कर) शायद मैं ही ग़लती पर हूँ (व्यथित हो कर) ओह, मैं क्या करूं? क्या करूं? वहीँ हिमालय में, और तिल-तिल कर अपने को गला दूं? (चीख़ कर) नहीं तो मैं पाग़ल हो जाऊँगा। पाग़ल हो जाऊँगा मैं। (अल्प विराम) जी में आता है कि भागता हुआ जोशी मठ जाऊं कहूं, मुझे मेरे दुर्गुण वापिस कर दो। क्योंकि यहाँ शैतान को रिश्वत दी बिना कुछ नहीं हो सकता। क्योंकि यहाँ भलाई को केवल रुपयों से ही खरीदा जा सकता है। (पद चाप पास आते हैं।) कौन? ओह कविता, तुम आ गयीं?
कविता : आ गई लेकिन यह अकेले में बैठे तुम कहाँ खोए हुए हो?
अजित : कहीं नहीं, क्या हुआ तुम्हारे प्रार्थना पत्र का?
कविता : (अल्प विराम) केवल एक स्थान था और प्रार्थना पत्र थे एक हज़ार। उतने ही सिफ़ारिशी पत्र भी थे सरकारी और ग़ैर-सरकारी नेताओं, अधिकारियों और न जाने किन-किन के।
अजित : (अल्प विराम) तो?
कविता : (अल्प विराम) नियुक्ति करने वाले बड़े शिक्षित और सभ्य व्यक्ति हैं, पर थोडा रसिक हैं।
अजित : (अल्प विराम) क्या मतलब?
कविता : अल्प विराम) मतलब भी समझाना होगा? रसिक रस चाहता है। वह रस जिसमें शरीर की गंध बसी हो, जो उन की प्यास बुझा सकेगी वही अध्यापिका बनाने का नियुक्ति-पत्र पा सकेगी।(तीव्र संगीत। अल्प विराम) पूछने आई हूँ, सौदा कर लूं? इस क्षेत्र में काफी अनुभवी हूँ। (फीकी हंसी)
अजित : (पागल-सा) कविता यह तुम क्या कह रही हो? क्या इसी दिन के लिए प्रतिज्ञा की थी? क्या यही होनी थी हमारी मंज़िल? (तीव्र संगीत, मौन। फिर कविता जैसे स्वयं से बोलती है।)
कविता : सोचा था नौकरी मिल जाएगी तो सहारा मिल जाएगा। फिर मैं साहित्य-सेवा करूंगी। घूमूंगी। (पद चाप पास आते हैं) कौन आया है?
शैलेन्द्र : (पास आते स्वर) मैं हूँ शैलेन्द्र कुमार। नमस्ते अजित बाबू, नमस्ते कविता जी। मैंने उस दिन कहा था न कि सोच लीजिए। मुझे एकदम कुछ नहीं चाहिए। जल्दी का काम शैतान का होता है। आज किसी काम से इधर आया था। सोचा मिलाता चालूं। शायद कुछ निर्णय कर लिया हो आपने। अभी न भी किया हो तो मैं फिर आ सकता हूँ। (पृष्ठ भूमि में संगीत है जो सहसा तीव्र होता है और तभी अजित बोल उठता है।)
अजित : नहीं, नहीं, आप रुकिए अभी एक मिनट में बताता हूँ .... (तीव्र संगीत ऊँचा होता है, एक मिनट बीत जाता है लेकिन कोई निर्णय सामने नहीं आता। तभी लेखक का स्वर गूंजता है।)
लेखक : एक मिनिट बीत गया। निर्णय का पता नहीं। मैं पूछता हूँ कि यदि इस ओर या उस ओर निर्णय हो भी जाता है तो क्या उससे परिस्थिति में कुछ अन्तर पड़ जाता है? किसी एक अजित या किसी एक कविता के निर्णय ले लेने से तो समस्या नहीं सुलझ जाती। कैसे सुलझेगी .... यह बताने का भार मुझ पर ही क्यों रहे? आप भी सोचिए न?
(गंभीर संगीत उभर कर समाप्ति सूचक संगीत में विलीन हो जाता है।)