साढ़े सात लाख (बांग्ला कहानी) : परशुराम (राजशेखर बसु)

Saadhe Saat Lakh (Bangla Story) : Parshuram (Rajshekhar Basu)

हेमन्तपाल चौधरी कि उम्र तीस से अधिक नहीं होगी, पर वे लकड़ी के एक अच्छे तथा कुशल व्यवसायी है। रात के नौ बज रहे थे, घर पर ऑफिस के कमरे में बैठ कर हेमन्त चौधरी रुपये पैसे का हिसाब कर रहे थे। अचानक उनके दूर के सम्बन्धी भाई नितीश ने आ कर कहा -' हेमन्त, तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी है। तुम इस समय अभूत व्यस्त हो क्या?'

हेमन्त ने कहा -'नहीं, मैं अपना काम कल सबेरे कर लूँगा। बोलो क्या बात है? बहुत चिंतित और घभराये हुए मालूम पड़ते हो तुम। इस समय तो तुम लोगों का ताश का अड्डा जमता है। कोई अशुभ समाचार तो नहीं है?'

नितीश ने कहा -'अच्छा है या बुरा यह तो मुझे नहीं मालूम है। मेरा तो सिर ही चकरा गया है। मैं जो कुछ कहता हूँ, अच्छी तरह ध्यान से सुनो।'

सिर पर हाथ रखकर कुछ देर तक नितीश बैठा रहा। फिर बोला, -'भाई हेमन्त, महापाप से मेरा उद्धार करो।'

हेमन्त ने कहा -'पाप क्या है? यह भी तो सुनु? खून किया? डाका डाला? या स्त्री हरण किया? क्या किया है तुमने?'

'मैंने कुछ नहीं किया है, किया है मेरे परदादा ने। कंदर्प मोहन पाल चौधरी ने। उनका तो स्वर्गवास हो गया है।'

'उनके पाप के लिए तुम्हें क्यों सिरदर्द हो रहा है? उत्तराधिकारी के रूप में कोई और झमेला कर रहा है क्या?'

नहीं, यह सब नहीं। आज सबेरे सबेरे पुराने कागज़ पत्र निकल कर देख रहा था। जमींदारी तो चली ही गयी, अब बेकार कागजपत्र रख कर कोई लाभ नहीं, यह सोच कर कूड़ा करकट साफ़ कर रहा था। परदादे के समय कि एक लकड़ी के बॉक्स में कुछ पुरानी चिट्ठियां को देखकर तो मेरे सिर पर तो जैसे वज्रपात ही हो गया, सिर चकराने लगा । पाप, पाप, महापाप है! 'कहकर दोनों हाथों से अपने सिर पकड़ लिया, जैसे उसका सिर दर्द से फटा जा रहा हो।

'बात क्या है?'

'मेरे परदादा कंदर्प तुम्हारे परदादा के कुछ गुमस्तों को घूस देकर कुछ जाली अपीले बनवाकर और झूठी साक्षी खड़ा कर मुकदमे में जीत गए थे और तुम्हारे परदादा हार गए थे।'

'अरे, क्या कह रहे हो? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। जरूर ही तुमने देखने या समझने में गलती की होगी।'

'गलती मैंने जरा भी नहीं की है। मेरे दामाद फणिभूषण को तो जानते ही हो। बहुत बड़े वकील है। उन्हें भी कागज़ पत्र दिखाया था। मेरे परदादा के छल कपट के कारण ही तुम्हारे परदादा, फिर दादा और फिर पिता सब मुक़दमे में हार कर निर्धन हुए है।'

'अच्छा, तुम उसके लिए क्या करना चाहते हो, फणिभूषण ने क्या कहा है?'

'उसकी बात छोड़ो, उसने तो पाप का रास्ता आगे बढ़ाने का उपाय बतलाया है। कहा है - चुप चाप इस बात को दबा दो। पुराने कागज़ पत्रों को जला दो। किसी को जरा भी इसका पता न लगने पाए।‘

‘इसलिए तुम मुझे जल्दी से बतलाने आये हो? फनी बाबू ने ठीक ही कहा है। पुरानी बीती हुई बातों के याद कर सिर खपाना मूर्खता ही है, और जिन लोगों के साथ यह बात घटी थी, वे लोग तो हैं भी नहीं।

अब जब हम लोग स्वर्गलोग पहुंचेंगे तब उनलोगों से भेंट होने पर पूछेंगे, तभी उसका निराकरण हो सकेगा, अभी जाने दो।'

'क्या पागलपन की बातें करते हो?' नितीश झुंझला उठा। ‘वे लोग नहीं है तो क्या हुआ? मेरे परदादा के पाप के धन का मैं किसी प्रकार उपयोग नहीं कर सकता। हिसाब लगा कर देखा, ७।। लाख रुपये का मामला है। वे रुपये मैं तुम्हें देकर सिर का बोझ, यानी पाप का बोझ हल्का करना चाहता हूं।‘

'इतने रुपये देने से तुम्हारी हालत क्या हो जायेगी यह तुमने सोचा है?'

'हाँ, अच्छी तरह! मैं निर्धन हो जाऊंगा। कौड़ी कौड़ी के लिए मोहताज हो जाऊंगा। भूखा मरूंगा, पर इन सब के लिए मैं तैयार हूं।'

'तुम्हारे पिताजी को यह सब मालूम था?'

'शायद नहीं, क्यों कि वे स्वयं जमींदारी नहीं चलते थे। दूसरे लोग ही उनका काम करते थे।'

'अपनी पत्नी से कहा है?'

'अभी नहीं, पता लगने पर रोना धोना शुरू कर देगी। ससुरजी को बता कर भयंकर अशांति पैदा कर देगी। पहले तुम्हारे रुपये का पाई पाई चुकाकर ही उसे बताऊंगा।'

'देखो नितीश, दुर्भाग्य ने कभी मेरे पास आने का सहस नहीं किया है, इसी से व्यवसाय ठीक ही चल रहा है। और बहुत अमीर होने का लोभ मुझे है ही नहीं। भाग्य से तुम्हें जो कुछ मिला गया है, अब निश्चिंत हो के तुम्ही उसका उपभोग करो। मैं मन से तुम्हें यही सलाह देता हूं। उन रुपयों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। कहो तो लिख कर दे दूं। और सुनो - उन रुपयों के मिलने पर मुझे किसि प्रकार का कष्ट नहीं होगा पर उनके दे देने से तुम्हारी क्या हालत हो जाएगी एक बार तो सोचो। हो सकता है तुम साधु पुरुष साक्षात् राजा हरिश्चंद्र हो, पर तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे बच्चे तो अनाथ हो जायेंगे। उनका क्या होगा? तुमने अपने परदादा के कुकर्मो की सूचना दी है, इससे मैं बहुत खुश हूं, और कुछ करने की जरूरत नहीं है।

सिर हिलाकर नितीश ने कहा, 'अरे बापरे! उन पाप के रुपयों का उपयोग कर मैं मर जाऊंगा, नर्क में जाऊंगा। यह नहीं हो सकता। तुम्हें अपने रुपये लेने ही होंगे।'

अच्छा नितीश, आज तुम बहुत अधीर हो रहे हो। कल आना तो दोनों जन ठण्डे दिमाग से इसपर विचार करेंगे और अपने दामाद फणिभूषण से भी एक बार सलाह ले लेना ।

दूसरे दिन शाम को नितीश फिर हेमंत के पास आया। हेमंत ने पूछा - क्यों? फणिबाबू से अपनी इच्छा व्यक्त की थी?'

'हाँ, उसने तो इस झंझट को मिटा देने के लिए ही कह दिया है।'

'कैसे मिटाया जायेगा?'

'बोला- आप दोनों ही महामूर्ख है - धर्मपूता युधिष्ठिर। दोनों जन रुपयों को आधा आधा बाँट लें तो दोनों को शांति मिलेगी।'

हेमंत ने कहा - 'बहुत अच्छा, तुम्हारी क्या राय है नितीश?'

'डैम नॉनसेंस! चोरी के रुपये चोर लोग बाँट कर खाते हैं। पर हम तुम तो चोर नहीं हैं। ये रुपये तुम्हारे हैं। इनमें से एक पाई भी मैं लेने को तैयार नहीं हूं। अपने रुपये तुम्हें पूरे पूरे ही लेने होंगे। देखो हेमंत, इन रुपयों पर मेरा कोई अधिकार नहीं हैं। अगर तुम्हें नहीं ही लेना है तो ईश्वर ने जिन लोगों को धनहीन बनाया है, उन्हें दे देना ही ठीक होगा।'

'पर वे लोग मिलेंगे कहा? तुम रूपया दान करोगे सुनते ही लाखों में याचक तुम्हारे दरवाजे पर आकर खड़े हो जायेंगे।'

'तो फिर जन कल्याण के लिए ये रुपये खर्च किये जायें? क्या राय है तुम्हारी? '

'यह तो बड़ी अच्छी बात है।'

'पर देखो हेमंत, यह कार्यभार तुम्हें ही लेना होगा। मैं इसमें कुशल नहीं हूं।'

'नहीं नितीश, यह काम मुझसे नहीं हो सकता है। मैं दिनभर अपना काम लेकर ही रहता हूं। दान करने के लिए मेरे पास अवकाश ही कहां है? हां, एक बात और, दान कहां करेंगे? मंदिर, मठ, सेवाश्रम,

अनाथालय, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, या और कहीं?'

'यह तो सोचा नहिं है, तुम्ही बतलाओ न?'

'मेरे तो कुछ समझ में नहीं आता।‘

'हम लोगों के साथ गोसाई पंडित पढ़ते थे, याद है? उनके साले प्रेमसिन्धु खण्डारी अभी अभी यूरोप, अफ्रीका, आदि की यात्रा करके आये है। सुना है वे बड़े बुद्धिमान है। प्लेटो, कौटिल्य से शुरू करके बेन्थैम, मिल, मार्क्स, लेनिन, सभी को मात कर दिया है। सुना है चीन सिरकार ने कंसल्टेशन के लिए उन्हें बुलाया है। अगर तुम्हें आपत्ति न हो तो उन्हि कि सलाह ली जाये, जिससे तुम्हरे रुपयों का सदुपयोग हो सके।'

'अच्छी बात है। उनके साथ झट से इंगेजमेंट कर लो।'

दूसरे दिन ठीक सबेरे नौ बजे इंग्लिश टाइम से हेमंत और नितीश दोनों प्रेमसिन्धु खण्डारी के घर पर उपस्थित हो गए। प्रेमसिन्धु ने सब कुछ सुना - फिर गंभीर हो कर बोले - 'नितीश बाबू, संकल्प तो आप लोगों का बहुत ही अच्छा है। पर साढ़े सात लाख तो कुछ भी नहीं है, इससे कुछ विशेष नहीं है सकता है? '

हेमंत ने कहा -'जो कुछ हो सकता है उसी की व्यवस्था करें।'

जरा देर सोचकर डॉक्टर खण्डारी ने कहा -'जिससे अधिक से अधिक लोगों का हित हो सकता है वही करना चाहिए। पर अयोग्य लोगों के लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करना है। ऐसे कामो में इन रुपयों को लगाना होगा जिससे समाज का चिरस्थायी मंगल हो। अच्छा नितीश बाबू, पहले आपकी क्या राय है सुन लूं, फिर उस पर विचार करता हुआ मैं परामर्श दूंगा।'

'मेरी मां ईश्वरभक्त थी। उनके नाम अगर ये रुपए किसी साधु संत या मठ में दे दिए जाएँ तो कैसा रहेगा? धर्म का प्रचार होने से लोकचरित्र की उन्नति होगी।'

प्रेम सिंधु ने हंस कर कहा - 'बहुत ही पिछड़ी हुई आईडिया है आपकी। रुपये मिलने से उन साधु संतों का मंगल अवश्य ही होगा। वे लोग हलवा पूरी और मिष्ठान खाकर पुष्टि लाभ करेंगे। लेकिन समाज का मंगल नहीं होगा। फिर आपकी मां के नाम से रुपये देने से वह तो निःस्वार्थ दान नहीं होगा, क्यूंकि उन रुपयों के देने के बदले में आप चाहते है मां की स्मृति-प्रतिष्ठा।‘

लज्जित हो कर नितीश ने कहा -'अच्छा मां के नाम पर न देकर किसी सेवाश्रम में....।'

'सभी सेवाश्रमो के पास अछि पूँजी है। तेल लगे सिर पर तेल लगाने से क्या लाभ? फिर आपके साढ़े सात लाख तो बहुत ही कम है। अगर मंदिर के पुजारियों को दिया जाये?'

'आप पागल तो नहीं हो गए हो? वे उन रुपयों से मंदिर की पूजा के बदले पेट पूजा करके तोंद फूलायेंगे! पेपर में रोज़ ही इसका ज़िक्र मिलता है। शायद आप को अखबार पढ़ने का अवकाश नहीं है।'

'एक कॉलेज या कई स्कूलों का निर्माण कराने से कैसा रहेगा? '

'भस्म में घी डालने से जो होता है, वही होगा। स्कूल कॉलेज में आजकल कैसी शिक्षा दी जा रही है शायद इस का जरा भी ज्ञान आपको नहीं है। इससे और कुछ नहीं होगा, केवल गुंडे और शरारती लड़कों की पल्टन का निर्माण होगा।'

'तो फिर क्यों न इन रुपयों को सिरकार के ही हाथों सौंप दूं? वह लोकहित के लिए जैसा उचित समझेगी करेगी।'

अट्ठास के साथ डॉक्टर खण्डारी ने कहा - 'नितीश बाबू, आपकी बुद्धि अभी भी छोटे बालक की तरह ही है। अनुभव में बहुत ही काम है। शायद आप सोचते है की सिरकार एक अगाध बुद्धि, सर्वशक्तिमान, परमोपकारी, पुरुषोत्तम, पर ऐसा नहीं है। सिरकार का अर्थ यही पांच भूतो का झुण्ड। करोड़ करोड़ रुपये जहा खर्च होते रहते है, वहां आपके साढ़े सात लाख रुपये तो सागर में जल बिंदु के समान अपना अस्तित्वा तुरंत ही खो देंगे।

अब हेमंत ने कहा - 'मैं एक निवेदन करूंगा - सुनता हूं आजकल ईश्वर मंदिर त्याग कर लेबोरेटरी में निवास करते है । वहीँ पर उन्होंने कल्पतरु का रूप धारण किया है। कृषि और खाद के रिसर्च के लिए किसी इंस्टिट्यूट को इन रुपयों को देने से कैसा रहेगा?'

'ऐसे इंस्टिट्यूट तो देश में बहुत हैं, पर ढोलक पीटने के सिवा आपने कुछ होते देखा है?'

निराश होकर नितीश ने कहा- ‘अच्छा इन रुपयों को अगर किसी अनाथालय में दे दिया जाये? अंधे, गूंगे, बेहरे, पागल, या भीषण रोगग्रस्त लोगों की सेवा के लिए?'

फिर हंस पड़े डॉक्टर खण्डारी – ‘देखिये नितीश बाबू, यह तो सब बेकार है। आप का मन बहुत नरम है, इसलिए ऐसा सोचते हैं। यदि आपको शोक न लगे तो साफ साफ कहूं।' नितीश और हेमंत, दोनों ही साथ साथ बोल उठे - 'नहीं नहीं, शोक नहीं लगेगा। आप साफ़ साफ़ बतलाइये।'

'नितीश बाबू, जिन लोगों के लिए आपने कहा, उनलोगों को बचने से समाज को क्या लाभ होगा? मान लीजिये आपने बैंगन और भिंडी के पेड़ लगाए हैं। उसमे कीड़े लगे हुए है। क्या आप सड़े हुए पेड़ों को भी पानी और खाद दे कर उसकी सेवा करेंगे? शायद नहीं, आप उनको उठाकर फेंक देंगे जिससे अच्छे पेड़ों को हानि न पहुंच सके। वे अच्छी तरह बढ़ कर आप को अच्छा फल दें, यही आपकी कामना रहती है। इसी प्रकार पंगु और रोगग्रस्त व्यक्ति समाज के किसी काम के नहीं है, भार है, झंझट है। उन्हें बचाने की तो अभी कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। चटपट यमराज को चिठ्ठी लिखकर परलोक का रास्ता बतला दें। केवल जो धनवान, बलिष्ठ शरीरवाले, शिक्षित, सबल और बुद्धिमान है, उन्हीं लोगों की भलाई के लिए काम करिये। शायद आप को पता होगा कि २५-३० साल के बाद भारत कि जनसँख्या ४० करोड़ के स्थान पर ८० करोड़ हो जाएगी। उसके लिए भी आप क्या सोचते है?’

'आप क्या राय देते है?'

'अच्छा सुनिए। मैं जो कुछ कहता हूं उसे सुनकर नेहरूजी भी कान में ऊँगली रख लेंगे। मैं कहता हूं - 'लीव इट टू नेचर ।'

कुछ दिनों तक अस्पतालों को बंद रखना होगा, डॉक्टरों को इंटर्न करना कोगा। पेनिसिलिन आदि आधुनिक दवाइयों का निषेध करना होगा। डी.डी.टी. के कारखानों को बंद करवाना होगा। कॉलरा, चेचक, प्लेग, टी.बी अदि प्रकृति का सेफ्टी वाल्व है। इन्हें बिन दवा के काम करने दीजिये। हम लोगों के देश के कर्णधार नेता गण कहते है कि प्राणदंड हटा दो। हमारी राय से तो चोरी, डकैती, घूसखोरी लड़ाई झगडे के लिए भी सीधे फांसी कि रस्सी बांधनी चाहिए। इससे जितने भी लोग कम होंगे उतना ही देश का भला होगा। अनाथालय, सेवाश्रम, अस्पताल, और हेल्थ सेंटर खोलने से देश का सर्वनाश हो जायेगा। प्रकृति को अपना काम करने में कभी बाधा मत डालिये। फिर देश के कूड़े करकट जब समाप्त हो जायेंगे, जन संख्या जब ४० करोड़ से १० करोड़ हो जाये, तब जनकल्याणार्थ कमर कस कर लग जाएँ।

हेमंत ने कहा - 'तब फिर नितीश के रुपयों का अभी कोई सदुपयोग नहीं हो सकेगा?'

'हो क्यों नहीं सकेगा? अवश्य ही होगा। उन रुपयों से प्रोपेगंडा कर लोकमत इकठ्ठा करना होगा। मैंने एक थीसिस लिखी है। उसकी एक लाख कॉपी करवाकर लोक सभा, राज्य सभा और विधान सभा के सदस्यों को वितरण करनी होगी। गीता में श्री कृष्ण ने जिसे 'शूद्र हृदय दौर्बल्य' कहा है, उसे दूर करना होगा।

देश के आलसी, रूग्ण, और अकर्मण्य लोगों का नाश कर शक्तिशालियों को बचाना होगा। पहले हमलोगों के देश के नेताओं को वज्रादपि कठोर होना होगा। फिर तो सब आटोमेटिक होता जायेगा।

ताली बजा कर हेमंत ने कहा, ’वाह वाह, बहुत अच्छा , बहुत सुन्दर , बहुत बहुत धन्यवाद है आपको डॉक्टर खण्डारी। आपकी इन बातों पर हम लोग अच्छी तरह से विचार करेंगे। ये २० रुपये मात्र नमस्कार के लीजिये। अच्छा जा रहे है, नमस्कार।‘

लौटते समय नितीश ने कहा - 'यह आदमी पागल है?'

हेमंत ने कहा -' तैतीस नए पैसे पागल, तैतीस कंजूस और चौतीस जन हितेषी। मनुस्मृति, भक्ति संवाद, गांधीवाद, अदि उनके लिए पुरानी आईडिया है। इसलिए डॉक्टर प्रेमसिन्धु नूतन वाणी का प्रचार कर युगावतार होने के मतलब में हैं । सुनो नितीश, तुम दान के लिए रुपये दूसरों के हाथ में मत दो। इससे तुम्हें शांति नहीं मिलेगी। लगेगा वह चुरा रहा है। अपनी खुशी से, इच्छानुसार, अपने ही हाथों से हृदय खोलकर जहाँ मन हो दान दो।'

दीर्घ स्वास छोड़कर नितीश ने कहा - ' अच्छा, ऐसा ही होगा, पर वास्तव में रुपये तो तुम्हारे ही हैं। इसलिए यह भार तुम्हें ही लेना होगा, मैं तुम्हारा सहयोगी बनूंगा।'

'तुम भी क्या हो नितीश! रुपये मानता हूँ मेरे है, पर मेरे पास समय कहां है? दान का भार तुम्हें ही लेना होगा। मैं शक्तिभर तुम्हारी सहायता करूंगा, दान तुम करो, फल तुम मुझे ही देना, क्यूंकि रुपये तो मेरे ही हैं, पितृ पक्ष का उधार मिटाकर तुम तृप्ति प्राप्त करना।'

(अनुवाद : शोभा घोष)

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