रोशनी (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Roshni (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
कितनी काली रात थी वह ! रोशनी की निगाह बचा आदमी के मन के छिपे स्वार्थ की तरह अँधेरा इधर-उधर लुका-छिपा था। इस सजे हुए कक्ष का बड़ा वातायन खुला हुआ था जिसमें ऊपर से सितारे झाँकते थे और नीचे से चलते-फिरते आदमियों के कदमों की आहट आती थी। ऊपर यदि आकाश के नीले पर्दे की ओट से आरती का थाल सजा नाचती हुई कल्पना के घुँघरुओं का स्वर सुनाई देता था, तो नीचे सर्दी में ठिठुरते हुए किसी निराश्रित मानव की कराह भी। और उस कक्षवासी कवि की भावना यदि उन घुँघरूओं के स्वर सुन रस के इन्द्रधनुषी पंख लगा उस नीलम देश के पार उड़ जाती थी, तो कराह बेचैन हो उसे अपना शाल उठा नीचे तक दौड़ने के लिए भी विवश करती थी ।
रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत हो चुका था । कक्ष में खामोशी छा गई थी। एक-एक करके उस दिन का जमघट खिसक चुका था और अब रह गई थीं केवल शमादान की दो-चार मोमबत्तियाँ, जो सहमी-सहमी-सी टिमटिमा रही थीं। बजता हुआ सितार बन्द हो चुका था और उसकी एकमात्र कोई टूटी हुई मूर्च्छना वातावरण में जैसे रह-रहकर काँप - सी जाती थी । वातायन से ठण्डी हवा के बहके - बहके झोंके कभी-कभी भीतर आ जाते थे, लेकिन कवि की खोई हुई आँखों को छत की ओर बँधी हुई देख अपने ही में सिमटकर जैसे लौट से जाते थे।
“खाना और कम्बल दे दिया है मालिक,” एक नौकर ने कहा- "अच्छा।”
उसकी आँखों से लगा जैसे कितनी अनिच्छापूर्वक उसने यह काम किया है। वे सोचने लगे, 'आखिर दुनिया धन के पीछे इतनी पागल क्यों है ? परिवार के व्यक्ति, सगे-सम्बन्धी, इष्ट मित्र, देखने-सुनने वाले सभी को मुझसे क्यों यही शिकायत है कि मैं फिजूलखर्च हूँ, मैं रुपया पानी की तरह बहाता हूँ। क्या यह उचित है कि एक व्यक्ति भूखा-प्यासा मर रहा हो और मैं अपनी तिजोरी सँभाल रहा होऊँ; क्या यह उचित है, कि पेट की आग पर पानी डाल-डालकर कोई कलाकार अपने सपनों की मुरझाती हुई पंखुरियाँ जिला रहा हो और मैं चुपचाप सोने की मंजूषा को कलेजे से लगाकर देख रहा होऊँ; क्या यह उचित है कि मैं किसी की आकांक्षाओं को एक नन्हा-सा दीप दैन्य और उपेक्षा के झोंकों में सिहर सिहर कर बुझता हुआ देखता रहूँ।' उन्हें लगा जैसे इस गुलाम देश में साहित्य, कला, इंसानियत का बिना कफन का जनाजा निकालने की तैयारी की जा रही हो, हिन्दी भाषा की पनपती हुई सुकुमार लता को राजनीति के कुटिल हिंसक चरणों से रौंदा जा रहा हो, गरीबी और उपेक्षा के बादलों से आग बरसा बरसाकर इस देश की रही-सही मानवता को भी खाक करने के उपाय सोचे जा रहे हों और साथ ही साथ उनसे कहा जा रहा हो कि तुम अपनी आँखें बन्द रक्खो, अपनी मुट्ठियाँ बाँधे रक्खो, और अपने हृदय पर भारी शिलाएँ रख भावना पनपने के पहले ही कुचल डालो।
वे उठकर बैठ गए। खिड़की के बाहर कितना घना अँधेरा है, शमादान की ये नन्ही मोमबत्तियाँ कैसे इतना अँधेरा पी सकेंगी,' सोचने लगे : 'आज के युग को रोशनी की जरूरत है और यह रोशनी कहाँ से मिलेगी ? दीवार पर उनकी बड़ी काली परछाई झुकी हुई बैठी थी। उन्हें लगा, काश ! इस कक्ष की रोशनी इतनी तेज होती कि बाहर फैले हुए इस समस्त अन्धकार को निगलने में समर्थ हो सकती तो कितना अच्छा था !'
लेकिन उन्हें लगा जैसे हरिश्चन्द्र आकाश का चाँद नहीं हो पाएगा और उनके चारों ओर यह अँधेरा रेंगता ही रहेगा। तभी कमरे की मोमबत्तियाँ भी समाप्त होकर बुझ गईं। एक छोटी-सी समाप्तप्राय मोमबत्ती की लौ काँप रही थी जिससे कमरे में यथेष्ट प्रकाश तक नहीं हो रहा था। और कुछ देर बाद यह भी बुझ जाएगी और फिर अँधेरा, घना अँधेरा उन्हें लगा जैसे यह अँधेरा उन्हें निगले ले रहा है। उन्होंने तकिए के नीचे हाथ डाला। सौ-सौ के नोटों की एक गड्डी निकाली और उन्हें एक-एक करके शमादान में जलाने लगे। एक नोट भभककर जला और कमरे की अँधेरी दीवारों पर रोशनी कौंध गई। और फिर एक के बाद एक वे जलाते रहे और सोचते रहे कि नोटों की लौ से कितनी अच्छी रोशनी होती है और इस अँधेरी दुनिया को क्या चाहिए, रोशनी ही तो ! अगर संसार के सारे धन को एकत्र कर उसमें आग लगा दी जाय तो उससे जो रोशनी होगी वह अक्षय और अमर होगी। फिर अँधेरा समूल नष्ट हो जाएगा। और किसी प्रकार एक-एक करके वे बीस नोट जला गए। तभी द्वार पर खड़े नौकर ने जो यह तमाशा देख रहा था घबराकर उनका हाथ पकड़ लिया और छलछलाई हुई आँखों से उनकी ओर देखकर बोला- "यह क्या मालिक ?"
"कुछ नहीं, देख रहा हूँ आखिर कब मुझमें माया जगती है ?"
"क्यों ?"
"इसलिए कि धन का मोह आदमी को ऊँचा नहीं उठने देता। मैं धन का मोह अपने में लेशमात्र भी नहीं रहने देना चाहता। जिस समय यह माया कलाकार में जग जाती है उसकी कला का पतन हो जाता है। यह ऐसा जहर है जिसे कोई पचा नहीं सकता और जिनका यह विचार है कि वे इस जहर को पचाकर अपनी साधना जीवित रख सकते हैं, वे इतनी बड़ी गलती करते हैं कि आगे आनेवाला युग उन्हें क्षमा नहीं करेगा ! मैं जानता हूँ एक गरीब कलाकार के लिए इस माया से जूझना बहुत बड़ा संघर्ष है, इसकी चकाचौंध से आँखें फेर लेना बहुत बड़ी साधना है, फिर भी इससे दूर रहना उसका पुनीत कर्त्तव्य है । आगे आने वाले युग में जो लोग इसका ध्यान रक्खेंगे वे ही साहित्य और कला का स्वस्थ निर्माण कर सकेंगे और यदि नहीं, तो उनके इस ढोंग पर आगे आने वाली पीढ़ी उन पर सदैव थूकती रहेगी।”
बेचारा नौकर हतप्रभ सा देखता रहा। और उस रात जले हुए नोटों की रोशनी आज भी इस अँधेरे में गुमराह कलाकारों को मार्ग दिखा रही है। जो नहीं देख पाते उनका ईश्वर ही मालिक है।