रोज-ब-रोज (कहानी) : शर्मिला बोहरा जालान
Roj-Ba-Roj (Hindi Story) : Sharmila Bohra Jalan
मीनाक्षी ने घड़ी की तरफ देखा, लंबी सांस लेकर बोली, ग्यारह बजे हैं। मोनू स्कूल से तीन बजे आएगी और दफ्तर गया सुधीर रात में नौ तक। पूरे दिन वह क्या करे? मन नहीं लगता, समय ही नहीं कटता। रूपा! रूपा से बात करे? नहीं, छोड़ो क्या होगा बात करके। बोर करेगी। क्या पड़ा है उसकी बातों में। बेकार की बातें। ऐसी बातें, जिनसे मीनाक्षी खुद को संभाल नहीं पाती। वह झुंझलाने लगती। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, न सुधीर, न सुधीर का घर और न ही उसके रहने-सहने का ढंग। असंतोष, सिर्फ असंतोष। ऐसी बयार चलती रूपा से, जो उसे उखाड़ फेंकना चाहती, उसके कदम डगमगाने लगते। मगर पहले रूपा ऐसी नहीं थी। कितना मजा आ रहा था दोनों को एक-दूसरे से मिलने में। दोनों रोज मिलतीं। नहीं मिलतीं तो फोन पर बात करतीं।
जब पहली बार दोनों ‘कॉफी कैफे डे’ में एक साथ कॉफी पीने गई थीं, रूपा कितनी अच्छी लग रही थी। वहां का वातावरण मोहक था। अंग्रेजी धुन, उस पर एयर कंडीशनर की ठंडक। न जाने कैसा लोक था। सब कुछ रहस्यमय-रोमांचक। सत्य या भ्रम। लगा, वह उड़ रही है। साथ में है रूपा। एक ऐसा स्वप्नलोक, जिसमें गजब का नशा-उन्माद। ऐसा मजा, जो कभी मॉल में घुसते ही पागल कर देता, तो कभी ‘कॉफी डे’ में। दिन निकलते गए। मीनाक्षी को रूपा अच्छी लग रही थी और रूपा को मीनाक्षी। कितनी बातें। बातें ही बातें। बातें खत्म ही नहीं होतीं। कभी दोनों एक-दूसरे की नेलपॉलिश का रंग देख मचल उठतीं, तो कभी लिपस्टिक का शेड देख। कभी किसी को किसी के डाइनिंग टेबल का डिजाइन भा जाता, तो कभी किसी के लिए सोफे का कवर खरीदतीं। एन्जॉय, सिर्फ एन्जॉय। दोनों को मजा आ रहा था। रूपा कहती, ‘यार, सब कुछ बदल गया है। रहने-सहने का ढंग, पहनने-ओढ़ने का ढंग, खाने-पीने का ढंग। क्या पुराने ढंग से पड़ी हो। बदलो अपने आपको।’
कुछ ही दिनों में मीनाक्षी के पहनावे में फर्क आ गया। खाने की रुचियां बदल गर्इं। इधर मोनू स्कूल जाती, उधर रूपा और मीनाक्षी घूमने निकल जातीं। मॉल ही मॉल। हर तरफ मॉल। मॉल में मजा आता। फिर हल्दीराम, तो कभी टिट-बिट्स। कभी दोसा, कभी पिज्जा के साथ गपशप। कभी मिल-जुल कर कोई व्यवसाय करने की बात, तो कभी रूपा जो व्यवसाय अकेले चला सकती है उस पर चर्चा। रूपा कभी कहती, मैं ब्यूटी पार्लर खोलूंगी, कभी कहती ‘कॉफी-डे’। वह कभी कुछ कहती, कभी कुछ। उड़ान बस उड़ान। उड़ना अच्छा लग रहा था। यह अलग बात है कि धीरे-धीरे मीनाक्षी चिड़चिड़ी होने लगी।
सुधीर को देखते ही गुस्से से लाल हो जाती। वह कहता, रविवार है, कहीं घूमने चलें, तो मीनाक्षी खीझ कर कहती, ‘चलो। पता है तुम कहां ले जाओगे। वहीं विक्टोरिया ले जाकर बैठा दोगे। कहोगे, इस म्युजिकल फाउंटेन को तो देखो, फिर कहोगे, भेल-पूड़ी खाते हैं और यह सब मुझे देहाती-सा लगता है।’ सुधीर धीरे से कहता, ‘कोई नाटक क्यों न देखने चलें।’ मीनाक्षी उकता कर कहती, ‘कितने बोर हो तुम।’ हर रविवार इसी तरह निकल जाता। मोनू मम्मी-पापा के झगड़े को देख डर कर चुप हो जाती और सुधीर किसी दोस्त के घर यह कह कर चला जाता कि तुम्हें कुछ हो गया है। क्या हो गया था उसे? बस गुस्सा बहुत आता। वह भी सुधीर पर। न जाने कैसे उसके चेहरे पर संतोष और शांति रहती। वही चेहरा, जिसे देख वह राहत महसूस करती थी। अब झुंझलाने लगी थी। कहती, ‘सुधीर तुम्हें कुछ नहीं होता? कभी तुम्हारा मन नहीं होता कि एक गाड़ी खरीदी जाए।’ सुधीर हंस कर कहता, ‘गाड़ी, क्या होगा लेकर? जानती तो हो कि खर्च बढ़ जाएगा।’ मीनाक्षी जोर से कहती, ‘खर्च… खर्च… खर्च। तुम कभी भी मेरे बारे में नहीं सोचते।’
रूपा कैसे गाड़ी में अपने पति की बगल की सीट पर बैठ कर इतराती हुई अपनी लड़की को स्कूल छोड़ने आती है। रूपा! मीनाक्षी को हर क्षण उसी का खयाल आता। रूपा सुंदर और स्मार्ट है। उसे पहनना आता है। वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती है। वह आगे कैसे बढ़ा जाता है, जानती है। पूछ रही थी, ‘तुम किस क्लब की मेंबर हो।’ मीनाक्षी ने कहा, ‘कुछ दिनों में बनने वाले हैं।’ सुधीर से बात हो रही थी कि किस क्लब में ज्यादा सुविधाएं हैं। रूपा ने मीनाक्षी की बात सुन कर कैसा तो मुंह बनाया था। लगा, वह मीनाक्षी ने यह कैसा पुराना लाइफ स्टाइल बना रखा है।
एक दिन रूपा मीनाक्षी को ‘इमामी-मार्केट’ ले गई। बोली, ‘बहुत नई चीजें आई हैं उसी ‘करिश्मा’ में, वही दुकान जिसमें तुम मेरे साथ पहले भी जा चुकी हो। नई पर्स, कान की बालियां, कपड़े। चलो न देखेंगे, खरीदेंगे।’ रूपा दुकान में रखी विभिन्न चीजों को देख कर कहने लगी, ‘मैं तो आज पूरी दुकान उठा कर ले जाऊंगी, ले तू भी जम कर शॉपिंग कर। देख तो सही, कितनी अच्छी-अच्छी चीजें हैं एकदम नई डिजाइन।’ मीनाक्षी पर्स, चप्पल, बेल्ट, घड़ी, परफ्यूम, कपड़े वगैरह देखने लगी। क्या खरीदे, क्या न खरीदे। मीनाक्षी ने देखा, रूपा जल्दी-जल्दी कई सामान निकलवा रही है। एक चमड़े की सुनहरी बॉर्डर वाली चप्पल देख कर बोली, ‘देख मीनाक्षी सुंदर है न, धीरे से बोली, दाम भी ठीक है, अरे वाह! यहां तो पांचों रंग की चप्पलें हैं। क्यों न सब ले लूं। हां, सोचना क्या है। ये सभी रंग मुझे चाहिए। एक साथ इतने लेने से दाम थोड़े और कम हो जाएंगे।’ रूपा को एक साथ आधा दर्जन चप्पल लेते देख मीनाक्षी क्या करे, ले या न ले, सोचते-सोचते दो जोड़े चप्पल अपने लिए ले बैठी। क्या बात है- यह पर्स भी कम फैशनेबल नहीं। इस घड़ी का कितना लोगे। दाम थोड़ा ठीक करोगे तो हम दोनों सहेलियां दो ले लेंगे। यह बड़ी घेरदार स्कर्ट। सचमुच एकदम वही रंग, वही डिजाइन है, जो मैं खरीदना चाहती थी। धीरे-धीरे दोनों ने एक-एक करके अनेक चीजें पैक करवा लीं। दोनों के अलग-अलग बिल बने। पैसे देख मीनाक्षी की आंखें फैल गर्इं। उसने तुरंत अपने को संभाला, रूपा की तरफ देखा और कोशिश की कि वह भी रूपा की तरह बेफिक्र हो जाए। उसने दुकानदार को सारे पैसे दे दिए। रूपा हड़बड़ा गई। बोली, ‘हो गया। चलो चलें।’ मीनाक्षी बोल पड़ी, ‘पर तुम्हारा बिल।’ रूपा हंसते हुए बोली, ‘वह सब छोड़ो हमारा हिसाब चलता रहता है, बाद में कर दूंगी।’ तभी दुकानदार बोला, ‘आपका पहले का भी बाकी है, कुछ तो कर दीजिए।’ रूपा जोर से बोली, ‘आपको मुझ पर विश्वास नहीं है तो लीजिए, मीनाक्षी कुछ रुपए दो तो। इन लोगों का यही है, जानते हैं पुरानी ग्राहक हूं, फिर भी ऐसी बात कर जाते हैं। मैं क्या कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं हूं। अच्छे घर की हूं। खैर, कुछ दे जाती हूं।’ मीनाक्षी को कुछ भी समझ में नहीं आया। पास बचे जो भी पैसे थे उसे देने पड़े। रूपा उसे जल्दी लौटा तो देगी न? मन मार के मीनाक्षी ने अपने पैकेट उठाए और घर चल पड़ी।
घर आते ही सारे पैकेटों को उठा कर एक कोने में पटक दिया। पर्स को एक बार खोला, ध्यान से देखा और बंद कर दिया। सारे के सारे पैसे उड़ गए। सामने पूरा महीना पड़ा है। सुधीर ने पैसे यह कह कर दिए थे कि दूधवाले को दे देना, राशन और फोन का बिल भर देना। क्या कहेगी उससे। मीनाक्षी मुंह पर तकिया रख कर सो गई। दो-तीन दिन निकल गए। मीनाक्षी पूरे दिन घर में रहती, वह भी चुप। सुधीर ने एक-दो बार पूछा भी, ‘तबीयत खराब है?’ पर मीनाक्षी बार-बार यही कहती, ‘नहीं बस ऐसे ही।’ एक दिन मोनू के हाथ सारे पैकेट लग गए। वह उन्हें खोल कर चाव से देखने लगी, ‘मैं लूंगी। यह पर्स तो मैं लूंगी। इतना सामान किसका है। पापा को दिखाऊंगी।’ मीनाक्षी जोर से बोली, ‘रख दो। कुछ भी मत निकालो। फालतू चीजें हैं, एकदम बेकार। जाओ यहां से मुझे परेशान मत करो।’
मीनाक्षी को रूपा पर गुस्सा आ रहा था। न कोई फोन आया, न घर आई। पैसे की कोई बात ही नहीं कर रही। न जाने उधार कैसे सामान लाती है। स्कूल जाना होगा। वहीं उससे मुलाकात हो पाएगी। अगले दिन मीनाक्षी मोनू को लाने स्कूल गई और उसी जगह खड़ी हो गई जहां रूपा खड़ी होती है। बहुत देर हो गई। रूपा नजर नहीं आई। रूपा की एक सहेली नलिनी दूसरी लड़की संध्या को अपने गाल पर पड़ी झुर्रियां दिखा रही थी। वह कह रही थी, ‘धीरे-धीरे ये तेजी से बढ़ेंगी। मैंने तुरंत कुछ नहीं किया तो चेहरा खराब हो जाएगा।’ ‘करना वही है, डे-नाईट क्रीम लगाना। फेशियल करवाना।’ संध्या बोली, ‘सचमुच आजकल अपने शरीर और त्वचा पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। देखो न कल घर में पूजा थी, सो मैंने बहुत सारी मिठाइयां खा लीं। अब दो-चार दिन सिर्फ सलाद पर रहना होगा, वजन कम करना है।’ मीनाक्षी का मन इस तरह की बातों में नहीं लगा। वह वहां से हट गई। तभी सामने से रूपा आती दिखाई पड़ी। वह साधारण कपड़ों में थी, बिना मेकअप के। मीनाक्षी ने उससे कहीं बाहर बैठने को कहा, पर उसने मना कर दिया, ‘आज मुझे कुछ काम है।’ मीनाक्षी ने जिद की, ‘आज तो हम लोग बैठेंगे ही, चलो न।’ रूपा ने कहा, ‘ठीक है चलो घर चलते हैं।’
दोनों अपनी बेटियों को लेकर मीनाक्षी के घर आ गर्इं। मीनाक्षी ने झिझकते हुए रूपा से कहा, ‘मुझे पता नहीं था तुम घर आओगी। सो, कुछ खास नहीं पकाया। आज मेरा और सुधीर का भी कुछ खास खाने का मन नहीं था। एकदम साधारण लंच है।’ रूपा बोली, ‘नहीं नहीं, हमारे बीच में कोई दिखावा नहीं है। जो है वही खा लूंगी और मैं कौन-सा रोज-रोज आइटम बनाती हूं।’ मीनाक्षी ने जो भी परोसा, रूपा चाव से खाने लगी। लगा, वह बहुत भूखी थी। खाते-खाते तुम दाल कैसे बनाती हो, यह आलू की सब्जी कैसे बनाई है, पूछती जा रही थी। मीनाक्षी को अजीब लगा कि रूपा यह सब क्यों पूछ रही है, जबकि वह खुद कभी नहीं पकाती। रूपा ने कहा, ‘रवि को मेरे हाथ का पकाया अच्छा लगता है, उस खाना पकाने वाली को मैंने कबका छोड़ दिया।’ मीनाक्षी ने दूसरी बात छेड़ दी। शिकायत करते हुए कहा, ‘तुम मुझे एकदम भूल गर्इं। फोन नहीं करती। मैं करती हूं तो उठाती नहीं।’ रूपा बोली, ‘नहीं वह आजकल फुरसत नहीं मिलती। तुम तो जानती हो, सुबह-सुबह हम लोगों को कितने काम करने पड़ते हैं। कपड़ों का ही ले लो, वाशिंग मशीन में धोना भी क्या समयखाऊ काम नहीं है। मशीन में कपड़े डालना, समय का ध्यान रखना, फिर रस्सी पर सूखने डालना। इस्त्री करना। रवि और सलोनी का टिफिन तैयार करना। समय कम काम ज्यादा।’ कह कर रूपा हंस दी, पर उसकी हंसी पहले जैसी खुली-खिली नहीं थी। मुरझाई हंसी। क्या हुआ? क्या बात है।
रूपा आज पहले-सी स्मार्ट नहीं लग रही। लग रही है एकदम घरेलू। आज वह व्यापार की बात भी नहीं कर रही थी। घर में सब ठीक है न। मायके में भी सब ठीक है या नहीं। मीनाक्षी ने पूछा, ‘तुम्हारे पति की तबीयत ठीक तो है?’ रूपा बोली, ‘रवि, हां एकदम ठीक हैं। पहले से ज्यादा युवा और आकर्षण लगने लगे हैं। तुम तो उन्हें देख चुकी हो। अच्छे-खासे मोटे थे, पर अब वजन कम हो गया है। शरीर हल्का लगने लगा है।’ मीनाक्षी हंस कर बोली, ‘क्या वह भी सलाद खाते हैं?’ ‘रवि तो देख-समझ कर काम करता है। आजकल परेशान है। मैं क्या करूं? जो कर सकती हूं, कर रही हूं, घर का काम खुद करने लगी हूं। खाना पकाने से लेकर कपड़े धोना, उनमें इस्त्री करना तक।’ मीनाक्षी ने धीरे से पूछा, ‘क्या हुआ?’ रूपा गंभीर होकर बोली, ‘इतने खर्च हैं आजकल और वह हमारे फ्लैट की लोन दर भी बढ़ गई है। साउथ कोलकाता में फ्लैट है न। रवि और भी कुछ बातों से परेशान है। हमारी गाड़ी तुम्हें तो पता ही है लोन पर है।’ तभी रवि का फोन रूपा के मोबाइल पर बजा। रूपा कह रही थी, ‘हां एक घंटे में आ जाऊंगी। घर पहुंचने पर बात करती हूं। पर मैं फोन नहीं कर पाऊंगी। इसका बिल भरना बाकी है।’
रूपा चली गई। इस बार मीनाक्षी को रूपा पहले वाली रूपा नहीं लगी, पर आज मीनाक्षी बहुत कुछ पहले वाली मीनाक्षी लग रही थी। इस बार रूपा से मिलने के बाद उसके अंदर खीझ और झुंझलाहट पैदा नहीं हुई। हां, गुस्सा आ रहा था कि रूपा ने उसे किस परेशानी में डाल दिया, पैसों की कोई बात नहीं की, उसने सोचा था, जाते-जाते कुछ कहेगी। उससे भी मांगा न गया। वह क्या करे? सुधीर से कहे? कैसे? वह उसकी बात क्यों सुनेगा?
इतने दिन हो गए सुधीर से ठीक से बात किए, सुधीर की मां का देहांत हुए ज्यादा समय तो नहीं हुआ। कैसे मीनाक्षी ने सुधीर को अकेला छोड़ दिया। उस दिन मीनाक्षी ने देखा, सुधीर घर आने के बाद चुपचाप रहता है। रात को खाना खाने के बाद वह अपनी मां की तस्वीर को ध्यान से देख रहा था। मीनाक्षी पास गई तो वह वहां से उठ गया। यह क्या! कहीं यह तो नहीं सोच रहा कि मीनाक्षी फिर किसी सामान को लेकर बहस करने वाली है। वह कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं पाई, इसीलिए तो कि इन कुछ महीनों में उसने सुधीर को छोटी-छोटी बातों को लेकर कितना उदास और अकेला छोड़ दिया है। बात तो करनी होगी। पैसों की बात। सुधीर क्या नाराज होगा? होना ही चाहिए, वह एक साथ इतने रुपए कहां से लाएगा। मोनू की स्कूल की फीस भी बाकी है। सुधीर कुछ बोल नहीं रहा। शायद उसे नींद आ रही है। कल बात करूंगी। दूसरे दिन सुधीर जल्दी में था और फटाफट तैयार होकर दफ्तर चला गया। मोनू भी रोज की तरह स्कूल चली गई। मीनाक्षी ने सुबह का काम सलटाया और बैठ गई। घड़ी की तरफ देखा, ग्यारह बजे हैं। क्या करे? सुधीर से आज बात करेगी। कैसे? ओह, समय ही नहीं कटता। सुधीर कब आएगा!