ऋष्यमूक पर्वत के आर-पार (यात्रा संस्मरण) : डॉ. पद्मावती
Rishyamook Parvat Ke Aar-Paar (Hindi Travelogue) : Dr. Padmavathi
श्री राम राम रामेति , रमे रामे मनोरमे ।
सहस्र नाम तत्तुल्यम , श्री राम नाम वरानने ॥
प्रभु राम का नाम सभी कष्टों से तारने वाला तारक मंत्र है । यह एक अद्वितीय मंत्र सहस्र नामों के समान है । कलियुग में भवसागर से पार कराने में सक्षम केवल राम नाम का मंत्र ही है ।
सर्व सौभाग्य प्रदाता अनंत कल्याणकारी विराटरूपी, त्रिलोक नाथ आनंद दाता प्रभु श्री राम के चरण कमलों में प्रणाम कर आपके सामने प्रस्तुत है एक और यात्रा वृतांत जिसमें कर्नाटक राज्य में स्थित ऋष्यमूक पर्वत के पौराणिक स्थल उसके निकट श्री यंत्रोधारक हनुमान मंदिर के वैशिष्ट्य के साथ -साथ ‘नव वृंदावन’ और हम्पी की शब्द यात्रा कराई जाएगी । आइए पहले इस स्थल के ऐतिहासिक और पौराणिक परिदृश्य का अवगाहन किया जाए । इस बार हम चले थे कर्नाटक के सुदूर प्रांत में अनिगुंदि में स्थित नव वृंदावन” स्थल का दर्शन करने जो मध्वाचार्य संप्रदाय के नौ तीर्थंकरों की जीव समाधि का पुण्य धाम है और बीच में अनायास आ जुड़ गए थे यंत्रोद्धारक हनुमान जी , जिनका दर्शन हमारी निर्णीत यात्रा में नहीं था । वैसे हमारी कोई भी यात्रा निर्णीत नहीं होती । हवा का रुख जिधर हो हम बस चल पड़ते है । अब ये तो “उसकी” अनुकंपा है कि जो दिखाना चाहता, दिखा देता है । तो चेन्नई से निकले गाड़ी में और सीधा रुके बेल्लारी जाकर जो 575 कि मी की दूरी पर है और गम्य स्थान से लगभग साठ कि. मी दूर । अंधेरा हो गया था इसीलिए यात्रा को विराम दिया । सो रात को कर्नाटक की थाली का मजा लिया और चले निद्रा के आगोश में ।
अगली सुबह तरोताजा होकर रागी दोसा का ,जो कर्नाटक का विशेष व्यंजन माना जाता है, भोग लगाया और निकल पडे अपने गम्य स्थान की ओर- नव वृंदावन । बेलारी से हम्पी केवल साठ कि.मी की दूरी पर है और हम्पी से नव- वृंदावन लगभग बीस कि.मी की दूरी पर । तो सोचा पहले ‘नव-वृंदावन’ देख कर हम्पी में रैन बसेरा होगा । मार्ग में दृष्टिगोचर हुईं “ऋष्यमूक पर्वत श्रेणियाँ” । आइए जाने इस अज्ञात स्थल के महात्म्य को मानस के आधार पर .....
वाल्मीकि रामायण में वर्णित ऋष्यमूक पर्वत वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट बसा हुआ है । इस पर्वत को घेरकर तुंगभद्रा नदी बहती है । इसी से कुछ दूरी पर माता अंजनी के नाम से भी एक पर्वत श्रेणी मिलती है । इसी प्रदेश में कभी पंपासर तीर्थ हुआ करता था । वर्तमान समय में यह प्रदेश कर्नाटक के पास हम्पी शहर के निकट का प्रदेश माना जाता है ।
मानस के अरण्य काण्ड में प्रसंग आता है कि प्रभु श्रीराम अपने अनुज सहित माता सीता की खोज में वन मार्ग से गुजरते है जहाँ वे मार्ग में कई राक्षसों का उद्धार करते है और फिर घूमते घूमते वे मतंग मुनि के आश्रम में पधारते है । यहाँ उनकी भेंट भक्त शिरोमणि शबरी से होती है । शबरी की तपस्या और भक्ति से प्रसन्न होकर प्रभु उस पर अपनी विशेष अनुकंपा दिखाते है और उसे नव विधा भक्ति का वरदान भी देते है । सीता वियोग में व्यथित श्री राम को माता शबरी सांत्वना देकर प्रभु को पंपासर जाकर ऋष्यमूक पर्वत पर निवास कर रहे सुग्रीव से मैत्री करने का सुझाव देती है ।
‘पंपा सरहि जाहु रघुराई ।
तहँ होईहि सुग्रीव मिताई ॥
(मानस -अरण्य काण्ड- पृ- सं ६५२ )
ऋष्यमूक पर्वत सुग्रीव का निवास स्थान था । जब दुराचारी वालि अपने बल से मदांध हो अपने भाई सुग्रीव को युद्ध में पराजित कर उनकी पत्नी और राज्य छीनकर उन्हें किष्किंधा से निष्कासित कर देता है तब सुग्रीव प्राण बचा कर भाग जाते है व मंत्रियों समेत इस पर्वत की शरण में आकर छिप जाते है । महा बली वालि से प्राण संकट की आशंका से भयभीत सुग्रीव इसी पर्वत को अपना गुप्त निवास स्थान बना लेते है । । सुग्रीव का ऋष्यमूक पर्वत को चुनने के पीछे एक और बलिष्ठ कारण भी था । वालि को मतंग मुनि से श्राप मिला था कि इस पर्वत पर आते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । उसकी कथा इस प्रकार है ।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन आता है कि ऋष्यमूक पर्वत पर महर्षि मतंग का आश्रम हुआ करता था । माना जाता है कि वालि को उसके पिता इंद्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था जिसको ब्रह्मा ने मंत्र युक्त करके उसे यह वरदान दिया था कि इस हार को पहनकर जब भी वह रणभूमि में दुश्मन का सामना करेगा तो दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और वह वालि को मिल जाएगी । इस कारण वह लगभग अजेय बन गया था और अपरिमित बल के नशे में चूर होकर उसने अपने भाई तक को नहीं छोडा था ।
वहीं दुंदुभि महिष रूपी असुर था । उस मूर्ख को भी अपनी शक्ति पर दम्भ हो आया था । कालांतर में एक बार असुर दुंदुभि ने वालि को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा । मदमस्त वालि ने उस को समझाने की बडी कोशिश की । लेकिन मंद बुद्धि वह नहीं माना । वालि युद्ध के लिए राजी हो गया और उसने बडी सरलता से दुंदुभि का वध कर डाला । तत्पश्चात वालि ने उसके निर्जीव शरीर को दोनों हाथों से उठा कर एक योजन दूर पर फेंक दिया । इस प्रकरण में उसके मृत शरीर के मुंह से टपकती हुई रक्त की कुछ बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम में पडी । महर्षि में दिव्य दृष्टि से देखा और कुपित होकर वालि को श्राप दे दिया कि भविष्य में जब कभी वह इस आश्रम के दायरे में आएगा तो मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । सुग्रीव इस बात से परिचित थे । इसीलिए जब वालि ने उन्हें युद्ध में हरा कर राज्य से खदेड दिया था तो उन्होंने इस ऋष्यमूक पर्वत की शरण ली थी । क्योंकि वालि इस पर्वत पर आने से डरता था और सुग्रीव उसकी तरफ से निश्चिंत होकर इस पर्वत श्रेणी में छिपकर अवसर की प्रतीक्षा में काल यापन कर रहे थे ।
इस पर्वत का एक और वैशिष्ट्य यह भी रहा है कि इसी स्थल पर भक्त हनुमान को अपने प्रभु राम के प्रथम दर्शन हुए थे ।
किष्किंधा काण्ड के आरंभ में गोस्वामी जी इस प्रदेश का संदर्भ देते है ।
आगे चले बहुरि रघुराया ।
रिष्यमूक पर्बत निअराया ॥
तँह रह सचिव सहित सुग्रीवा ।
आवत देखी अतुल बल सींवा ॥
(श्री राम चरित मानस पृ . सं ६६६)
जब प्रभु श्री राम माता सीता की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचते है तब सुग्रीव का मन उन्हें देखकर आशंकित हो उठता है । सोचते है कि जरूर वालि ने ही इन तेजस्वियों को उसे मारने के लिए भेजा है । प्रभु राम के तेज को देखकर भयाकुल सुग्रीव हनुमान को आज्ञा देते है कि ,’हे हनुमान! ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान जान पडते है । तुम विप्र वेश धर जाओ और इनका रहस्य पाकर वापस आकर मुझे बताओ’ ।
तब हनुमान ब्रह्मचारी के वेश में जाते हैं और उनका प्रभु श्री राम से मिलन होता है । अपने प्रभु का परिचय पाकर हनुमान प्रेम वश भाव विह्वल उनके कमल चरणों में गिर पडते है । वाणी साथ छोड देती है , मुख से वचन नहीं निकलते और असीम आनंद में डूब जाते है .....
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना ।
सो सुख उमा जाइ नहिं बरना ।।
पुलकित तन मुख आव न बचना ।
देखत रुचिर बेष के रचना ॥
(श्री राम चरित मानस ..
-किष्किंधा काण्ड - पृ. सं ६६७ )
यह पर्वत श्रृंखला अति पावन मानी गई है । इन्हीं पहाड़ियों पर अतुलित बल
निधान पवनपुत्र अपने प्रभु श्री राम और उनके अनुज लक्ष्मण को कंधों पर
बिठाकर वानर राज सुग्रीव के पास लेकर जाते है । यहीं पर उन दोनों की मैत्री
होती है जो प्रकारांतर से माता सीता की खोज का हेतु बनती है ।
इसी पर्वत श्रृंखला पर श्री राम सुग्रीव से रावण द्वारा सीता अपहरण की कथा
सुनते है । अत्याचारी उच्छृंखल रावण का वध करने के लिए वानर सेना के
साथ मिलकर वे यहीं बैठकर रण नीति बनाते है । यही वह बिंदू है जहाँ उनके
राजनैतिक जीवन का आरंभ होता है । । यह एक ध्यातव्य तथ्य है कि उनके इन
राजनैतिक क्रियाकलापों की शुरूवात इसी पर्वत श्रृंखला पर हुई थी । यहीं से
लंका प्रस्थान का निर्णय लिया गया था । वानरों की टोलियों को विभिन्न
दिशाओं में भेजा गया था । धर्म के अधर्म पर विजय की नींव यही पड़ी थी ।
राम रावण युद्ध परियोजना के संकल्पना की रूपरेखा इसी प्रदेश में तैयार की
गई थी । सुग्रीव के राज्याभिषेक होने के पश्चात यहीं एक शिला पर बैठ कर प्रभु
ने सुग्रीव को आदर्श राजनीति की शिक्षा दी थी । लंका प्रस्थान से पहले यह
पर्वत उनका अस्थाई निवास स्थल भी माना जाता है । इसका प्रमाण मानस में
मिलता है । कहा जाता है कि देवताओं को यह भान था कि प्रभु श्रीराम इस पर्वत
पर कुछ दिन वास करेंगे इसी कारण उन्होंने यहाँ सुंदर सी गुफा पहले से ही बना
कर रख दी थी ।
‘प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेऊ रुचिर बनाई ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ’ ॥
( मानस – किष्किंधा काण्ड – पृ. सं – ६७८ )
इस दृष्टि से भी ऋष्यमूक पर्वत को रामायण में विशेष महत्वपूर्ण स्थल माना गया है ।
तुंगभद्रा नदी और उसके निकट ऋष्यमूक पर्वत के आवृत को चक्र तीर्थ कहा जाता है । यही चक्रतीर्थ रामायण में वर्णित पंपासर तीर्थ माना गया है । तुंगभद्रा नदी को पार करके कुछ गुफाएं मिलती है जिसके अंदर सप्त ऋषियों व ,सूर्य और सुग्रीव इत्यादि सभी की पत्थरों पर तराशी मूर्तियाँ पाई जाती है । उससे कुछ दूरी पर ही पर्वत की गुफाओं के बीच पंपा सरोवर है । तीर्थ यात्री प्रायः इस प्रदेश में आते है । यह प्रदेश कई मंदिरों और पावन तीर्थों का संगम स्थल है । यहाँ तुंगभद्रा नदी धनुष के आकार में बहती है । कमल सरोवर, छिटपुट पहाडियाँ जैसे किसी ने सलीके से पत्थर बिछा दिए हों और सबसे बढ़ कर – असीम शांति , मन खो गया था रामायण की चौपाइयों में । पर्यटक या कहिए भक्त न के बराबर थे । इस रोमांचक यात्रा में केवल हमारी ही गाड़ी जा रही थी जो थोड़ा बहुत संशय भी मन में उपजा रही थी । और साइन बोर्ड भी तब न के बराबर थे । पर भला हो गूगल मेप का , सही रास्ता पहचानने में अधिक परेशानी न हुई । इन पर्वत श्रेणियों को इनको पार करते ही पहुँच जाते है अनिगुंदि गाँव जो ‘नव वृंदावन’ जाने का प्रवेश द्वार है ।
इन पहाडियों को तो देखकर मन रामायण काल में चला गया और असीम आनंदानुभूति में गोते लगाने लगा था । अचानक पाया गम्य स्थान नजदीक आ पहुँचा – “नव वृंदावन” ।
पता ही न चला । दूर भद्रा नदी दृष्टिगोचर होने लगी थी । वहीं पूछ्ताछ करने पर पता चला - नव -वृंदावन तुंगभद्रा नदी के बीच एक छोटा सा टापूनुमा स्थल है जहाँ पर जाने के लिए छोटी -छोटी कश्तियों की व्यवस्था है जो बहुत ही कम दाम में आपको वहाँ पहुँचा देती है ।
यह सब दोपहर तक ही संभव है । शाम होते ही वहाँ किसी का आना- जाना नहीं होता । हमने अपनी गाडी पेड़ की छाँव में पार्क कर दी और अधिक मोल भाव न करते हुए नाव को बुला लिया । नाविक नाव लेकर आ गया । हम नाव पर सवार हो गए । दोपहर के ग्यारह/बारह बज रहे थे । पंद्रह मिनट लगे प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर उस टापू पर पहुँचने के लिए । कल-कल बहती शांत भद्रा नदी , ठंडी हवा का मंद-मंद बहना , दूर-दूर तक पानी का सैलाब । सारी थकान मिनटों में कपूर बन कर उड़ गई । मन शांत हो गया । दरअसल प्रकृति का सानिध्य दैहिक ,आधि दैविक और आध्यात्मिक तीनों तापों का शमन कर देता है ।
पंद्रह मिनट की इस जल यात्रा के बाद हम उस स्थल पर पहुँच गए । चारों ओर कंकरीली छिट-पुट पहाड़ियाँ, पथरीला मैदान , बेतरहा उगी कटीली झाडीयाँ और निर्जन नीरवता में मंत्र मुग्ध करने वाली निस्तब्धता । कुछ भी कहिए ,शांति मन को मोह रही थी । अंदर बड़ा सा प्रांगण , वर्तुलाकार में नौ समाधियाँ । बीचों बीच गुरुवर व्यासराय तीर्थ की समाधि जिसके चारों ओर बाकी आठ गुरुओं की समाधियाँ बनी हुईं हैं । उसी प्रांगण में छोटा सा कुटियानुमा घर है जिसमें पुजारी भोग की व्यवस्था करता है क्योंकि नित्य दोनों समय इन महात्माओं को भोग लगाने की परंपरा का पालन होता है और फिर शाम से पहले पुजारी की वापसी हो जाती है । हमने पुजारी से वार्तालाप किया तो हमें बताया गया कि ये सभी जीव-समाधियाँ हैं । यानि इन महानुभावों ने जीवित ही अपनी इच्छा से समाधि ले ली थी । सुनकर रोंगटे खड़े हो गए । अद्वैत दर्शन के सिद्धांताचार्य मध्व परंपरा के इन नौ गुरुओं के नाम इन समाधियों में खुदे हुए है । दर्शन, ज्ञान और भक्ति की संश्लिष्ट चेतना का शक्ति पुंज ये चैतन्यमयी संत आज भी भूगर्भ में अपनी साधना में निमग्न है और इसी कारण हर समाधि के चारों ओर एक पीले रंग की रेखा खींच दी गई है ताकि पर्यटक/भक्त इनकी शांति भंग न कर सके । आज भी ये समाधियाँ सांस ले रही हैं । अंदर आप उस स्पंदन को प्रत्यक्ष अनुभूत कर सकते है । एक ही स्थान पर नौ संतों का अदृश्य सानिध्य ? व्यक्ति की चेतना मोहाविष्ठ आवरणों को भेद कर अप्रयत्न ही आज्ञा चक्र में प्रवेश कर साक्षात्कार की परिधि में पहुँच सकती है । इतनी शक्ति प्रतिध्वनित रही थी वहाँ । उन संतों की उपस्थिति कण-कण में अनुभूत हो रही थी । यह उनकी अखण्ड साधना से प्रदीप्त चैतन्य प्रभा का अलौकिक तप्त तेज ही था जिसने पूरे स्थल को अपनी दिव्य तरंगों से आच्छादित कर रखा था और उस दायरे में प्रवेश मात्र से आध्यात्मिक प्रज्ञा का स्वतः उदीप्त हो जाना कोई अब कोई असंभावित घटना न रह गई थी । यह- शत प्रतिशत स्थल का ही प्रभाव था । जिन आत्माओं में परमात्मा को भी प्रतिबंधित करने का सामर्थ्य हो, उनका सानिध्य ,कुछ पलों के लिए ही सही, निःसंदेह दिव्य अनुभूति जागृत करने में सक्षम था जिसे केवल अनुभूत किया जा सकता है । शब्दों से परे , अलौकिक सम्मोहन । क्या था यह? सत्य या मतिभ्रम ... पर जो भी था किसी चमत्कार से कम न था । देखा जाए तो इस यात्रा की कोई पूर्व निर्दिष्ट तैयारी हमने न की थी । केवल कहीं किसी किताब में पढ़ा था , मन में संकल्प आया और शायद वह संकल्प इन गुरुओं तक पहुँच गया- संकल्प मात्र से कार्य सिद्धि ।आगे का दायित्व उन्होंने निभाया । हम कैसे इस अंजान मार्ग पर चल पडे संज्ञान ही न था । आज भी वह स्पंदन रीढ़ की हड्डी में शीत लहर ला देता है - विचार शून्य कर देता है । इन पुण्यात्माओं का एक बार नाम स्मरण पुनः उसी स्पंदन से हम सबको अभिभूत कर दे ,इसी उद्देश्य से इन महानुभावों के नाम यहाँ दिए जा रहे है । :
पद्मनाभ तीर्थ, कविंद्र तीर्थ, वागीशा तीर्थ, रघुवर्य तीर्थ, व्यास तीर्थ, श्रीनिवास तीर्थ, राम तीर्थ, सुधींद्र तीर्थ, गोविंद वोडेयार : ।
हमने सभी समाधियों की परिक्रमा की । कुछ पल मौन भाव विह्वल होकर बिताए । मन में अनिर्वचनीय अनुभूति लिए हम चल पडे होटेल की खोज में “हम्पी” । बसेरा वहीं करना था ।
आइए कुछ और जानकारी यात्रा के लिए -
किष्किंधा और ऋष्यमूक पर्वत वर्तमान में हम्पी शहर के निकट का प्रदेश है जो बंगलूरू से तीन सौ चालीस किलोमीटर, होसपेट से तीन किलो मीटर और बल्लारी से साठ मील की दूरी पर है । भारत के किसी भी प्रदेश से बंगलूरू आसानी से पहुँचा जा सकता है । फिर वहाँ से सड़क मार्ग से हम्पी तक की यात्रा की जा सकती है । हम्पी से होसपेट तेरह मील की दूरी पर है । हम्पी और होसपेट में आवास की सभी सुविधाएं यहाँ उपलब्ध है जिससे यात्रियों को किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती । पर्यटकों के लिए यहाँ कई और भी ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल है ।
रात होने से पहले हम हम्पी पहुँच गए । आवास की कोई कठिनाई न हुई । रेस्तरां में ‘उडुपी’ स्वाद चखा और रात आराम के आगोश में । अगले दिन काफी व्यस्तता में बीता । अभी हम्पी देखना था और फिर वापसी । समय कम था तो अब स्थलों का विहंगावलोकन ही संभव था ।
पहला स्थल - विरुपाक्ष मंदिर -
यहाँ का ऐतिहासिक विरुपाक्ष मंदिर प्रख्यात आकर्षण का केंद्र है । विजयनगर साम्राज्य के संरक्षक देवता को समर्पित ७वीं शती में बनाया गया यह मंदिर अपने गौरवशाली इतिहास ,समृद्ध विरासत और अद्भुत वास्तु व शिल्प कला के कारण यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में शामिल है ।
१६ वीं शती में निर्मित द्रविड स्थापत्य शैली की उत्कृष्ट कलाकृति विजय विठ्ठळ मंदिर बहुत ही विख्यात आकर्षण का केंद्र है जिसके ५६ स्तंभों को थपथपाने से संगीत की लहरियाँ गूंजती है । इस मंदिर के मुख्य परिवेश में रखा हुआ पत्थर पर तराशा एक रथ है जो हम्पी की वास्तु कला का प्रतीक माना गया है ।
इसके अतिरिक्त लोटस मंदिर, हेमकुंड पहाडी मंदिर, मतंग मुनि की पहाडी , इत्यादि कई आकर्षण के केंद्र है जो पर्यटकों का मन मोह लेते है और हमने कुछ ही घंटों में सब का चक्कर लगा लिया । लेकिन एक मंदिर की विलक्षणता ने विशेष रूप से हमारा मन मोह लिया । आइए आपको भी परिचित करवाते है उस चमत्कारी महिमांवित मंदिर से क्योंकि जिन महानुभावों का स्पंदन हमें रोमांचित कर गया उन्हीं की साधना और तप शक्ति का जीवंत उदाहरण है यह यंत्रोद्धारक हनुमान जी का मंदिर ।
हम्पी में तुंगभद्रा नदी के किनारे छोटी सी पर्वत माला पर स्थित है भगवान हनुमान का विलक्षण दिव्य मंदिर जो ‘यंत्रोधारक हनुमान मंदिर’ के नाम से विख्यात है । इस नामकरण के पीछे एक रहस्य है ।
षटकोणी बंध में प्रतिबंधित हनुमान की प्रतिमा १५ वीं शती में विजयनगर साम्राज्य के शासक तम्माराया द्वारा निर्मित यह मंदिर अद्भुत महिमा और शक्ति का पर्याय माना जाता है । मंदिर का क्षेत्रफल इतना विशाल तो नहीं लेकिन अपने आप में एक अपूर्व छटा को समाहित किए हुए है । पर्वत की छोटी सी चोटी पर बने हुए इस मंदिर के गर्भ गृह में श्री हनुमान की मूर्ति विलक्षण रूप से एक श्री यंत्र में प्रतिबंधित है । मूर्ति को आवृत करता है एक षटकोणीय बंध जिस पर बारह मर्कट एक दूसरे की पूँछ को पकडे हुए पीछे की ओर देखते हुए तराशे गए है । भगवान की श्री मूर्ति ग्रेनाइट पत्थर की है जिसमें वे पद्मासन में बैठे हुए दिखाई देते है । मूर्ति का दक्षिण हस्त व्याख्यान मुद्रा में और वाम हस्त ध्यान मुद्रा में निर्मित है । भगवान की मूर्ति किरीटमुक्तामणि सहित अन्य आभूषणों से सुसज्जित है ।
श्री चक्र यंत्र में प्रतिबंधित इस अद्वितीय मूर्ति की संरचना के पीछे एक रोचक कथा है ।
मध्वाचार्य सिद्धांत के अनुसार भगवान हनुमान वायु देव का ही अवतार माने गए है जो सृष्टिकर्ता श्री विष्णु के सदृश ही इस ब्रह्माण्ड की संरक्षिका शक्ति माने जाते है । इस संप्रदाय का बीज मंत्र है,
‘हरि सर्वोत्तमा, वायु जीवोत्तमा’
अर्थात श्री महा विष्णु इस सृष्टि के सर्वोच्च नियामक है और वायु देव जड चेतन के अधिष्ठाता देव है । इस वेदांत मार्ग के अनुसार श्री हनुमान वायु देव के प्रथम अवतार अधिनायक देव माने गए है । मध्व सिद्धांत के अनुयायी यह धारणा रखते है कि इस सृष्टि में श्री महा विष्णु के बाद हनुमान ही नियंता शीर्ष देव है ।
इस मंदिर के स्थल पुराण के अनुसार मध्वाचार्य के द्वैत मार्ग में दीक्षित संत व्यासराय तीर्थ महाराज भगवान हनुमान के प्रगाढ़ भक्त थे । ये विजय नगर राजाओं के आश्रय में रहते थे और इन्होंने दक्षिण में द्वैतवादी सिद्धांत के प्रचार प्रसार में अहम भूमिका निभाई थी । कहा जाता है कि उन्हें भगवान हनुमान को प्रसन्न करने की अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थी । तुंगभद्रा नदी के समीप ऋष्यमूक पर्वत पर श्री हनुमान की साधना कर रहे व्यासराय तीर्थ महाराज ने एक बार भगवान की छवि को एक बडे से पत्थर पर कोयले से चित्रित किया और फिर उस की पूजा में संलिप्त हो गए । पूजा के उपरांत उन्होंने पाया कि श्री हनुमान का चित्र अचानक विलुप्त हो गया है । वे आश्चर्य में पड गए । उनकी समझ में नहीं आया कि श्री भगवान क्यों गायब हो रहे है । यह प्रक्रिया बारह दिन तक जारी रही । वे हनुमान जी को चित्रित करते और हनुमान अदृश्य हो जाते । बारह दिनों तक पत्थर पर चित्रित हनुमान के चित्र इसी तरह अदृश्य होते रहे । श्री जी की इस लीला से व्यथित होकर व्यासराय तीर्थ महाराज ने दुखी मन उनसे प्रकट होकर दर्शन देने का आग्रह किया । भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए , दर्शन दिया और वरदान भी दिया । तदुपरांत हनुमान ने उन्हें आज्ञा दी कि उन्हें मंत्र द्वारा षटकोणीय यंत्र में प्रतिबंधित कर इसी स्थल पर उनकी मूर्ति की स्थापना की जाए । उसी बंध में अदृश्य हुए बारह मर्कटों को भी मंत्रोपासना से आह्वान कर प्रतिबंधित कर दिया गया । यह ऋष्यमूक पर्वत वायु पुत्र हनुमान का अत्यंत प्रिय स्थल माना गया है क्योंकि इसी स्थल पर उन्हें उनके प्रभु श्री राम मिले थे । इसी कथा के अनुसार यह मंदिर विजयनगर के तत्कालीन शासक के द्वारा उसी स्थल पर निर्मित किया गया है । यह मंदिर इस प्रदेश में प्राणदेव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । मंदिर के परिसर में कोदण्डधारी भगवान श्री राम का भी मंदिर है जो भक्त और भगवान के मिलन को पुष्ट करता है । कहा जाता है कि श्री व्यासराय तीर्थ महाराज ने अपने जीवन काल में असंख्य हनुमान मंदिरों की स्थापना की थी लेकिन यह मंदिर एक विशेष वैशिष्ट्य से परिपूरित है ।यंत्र प्रतिबंधित ‘यंत्रोधारक हनुमान’ मंदिर ।
आश्चर्य हुआ कि प्राकृतिक सौंदर्य और महिमा से भरपूर यह पावन तीर्थ स्थल भक्तों व पर्यटकों के लिए लगभग अज्ञात और उपेक्षित क्यों रहा ? कारण कुछ भी रहा हो , लेकिन यहाँ भक्तों का आवागमन यहाँ बहुत कम ही दिखा । निर्जीव प्रांत , शांत वातावरण में बहता हुआ तुंगभद्रा का सघन जल प्रवाह , छिटपुट पहाडियों की श्रेणियाँ , चारों ओर हरितिमा से आवृत यह महिमांवित स्थल भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला अद्वितीय क्षेत्र जिसकी धरती में रामायण कण कण पर गुंजायमान मालूम पडती है । दर्शन मात्र से भक्त हृदय पुलकित हो अंतःकरण में श्री राम नाम की ज्योति प्रज्वलित हो जाती है । यह भूमि ऋषियों की यज्ञ भूमि है , तपो भूमि है । ऐसा लगा इन पर्वत श्रृंखलाओं में अद्भुत पारलौकिक सौंदर्य छिपा हुआ है । इतने महिमांवित ऋष्यमूक पर्वत का दर्शन समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाली चिंतामणि है । कलियुग में तीनों प्रकार के दुःखों , पापों और दोषों को हरण करने वाला तारण हार स्थल है । श्री राम की विशेष अनुकंपा जिस जीव पर हो जाती है उसे ही इस प्रदेश के दर्शन का लाभ मिलता है ।निःसंदेह हम पर यह अनुकंपा हुई और इसी कारण हम इस क्षेत्र से परिचित हो सके.... और भगवान तो आशुतोष है, नाम स्मरण मात्र से ही प्रसन्न हो जाते है । कलियुग में यही एक सरल उपाय है भगवान की कृपा प्राप्त करने का ..अविरल निरंतर राम नाम जप ! सत्य वचन ।
मन में असीम श्रद्धा लिए हम वापसी पर चल पडे ....अपने प्रदेश । शब्दों को यहीं अल्प विराम अगली यात्रा तक । बहुत जल्द पाठकों के समक्ष एक और यात्रा वृतांत लेकर उपस्थित हो जाएंगे । ... तब तक के लिए ...
गोस्वामी जी की पंक्तियाँ
“सहज सुंदर सुमुख सुमन,शुभ सर्वदा, शुद्ध सर्वज्ञ, स्वछंदचारी ।
सर्वकृत ,सर्वभूत, सर्वजित , सर्वहित, सत्य संकल्प कल्पांतकारी ॥
नित्य ,निर्मोह, निर्गुण , निरंजन , निजानंद, निर्वाण , निर्वाणदाता ।
निर्भरानंद , निःकंप , निःसीम , निर्मुक्त , निरुपाधि, निर्मम विधाता” ॥
शुभ्मस्तु !