रिश्वतखोर लिमिटेड (तुर्की व्यंग्य) : अजीज नेसिन
Rishvatkhor Limited (Turkish Satire in Hindi) : Aziz Nesin
जिस विभाग के कर्मचारियों को रिश्वत खाने की बीमारी लग जाए तो वे उससे कभी मुक्त नहीं होना चाहते हैं। और उसके राह में आने वाले हर रोड़े को हटाने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। तुर्की भाषा में लिखे गए प्रस्तुत व्यंग्यात्मक कथा में भी ऐसा ही कुछ होता है, जब सारे रिश्वतखोर मिलकर एक ईमानदार को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।
आप से क्या परदा । मेरी तनख्वाह तो एक हजार भी न थी, पर मकान का किराया बारह सौ मासिक दिया करता था। मेरे साथ काम करते बाकी सब लोगों का भी लगभग यही हाल था। हमारी फालतू आय का साधन क्या था- हमारे अफसर इस सत्य से अच्छी तरह अवगत थे, पर वे उसे रोकने में कभी सफल न हो सके। वास्तव में हमारे काम की प्रकृति ही कुछ ऐसी थी कि उसमें ऊपरी आय के सिवा अन्य कोई उपाय न था।
याद रहे कि हमारे काम का बेईमानी से दूर का भी वास्ता न था । हमने कभी सरकारी माल का गबन नहीं किया, न किसी देशवासी का हक मारा। एक वाक्य था, जिसके उपयोग से ठेकेदार अपने आप हमारी मुट्ठी गर्म कर दिया करते थे। वह वाक्य था 'अभी आपका बिल पास नहीं हुआ।'
इसके बावजूद हम हर ठेकेदार का बिल भी पास करा दिया करते थे। यह और बात है कि किसी का बिल फौरन पास हो जाता और किसी को कई-कई चक्कर काटने पड़ते। हमारी इस कार्यवाही से न सरकार का नुकसान होता, न ठेकेदारों का। मैं दो वर्ष से वहां काम कर रहा था, पर कभी वह न समझ सका कि मेरी मुट्ठी और जेब में रुपया कहां से आता है और कैसे आता है? मेरे साथियों का भी यही हाल था। किसी का हक मारे बिना दौलत में नहाते रहना, चमत्कार से कम नहीं था। हमारा महकमा क्या था, रुपया बनाने की खदान थी, जो महज अपने कर्मचारियों की भलाई के लिए ही बनाई गई थी।
एक और उल्लेखनीय बात यह थी कि हमारे व्यवसाय में कोई चीज चोरी छिपे व परदे के पीछे नहीं होती थी । सारा काम खुल्लम-खुल्ला किया जाता था। ठेकेदारों से रुपया भी सरेआम वसूल किया जाता। जितने पैसे आते, सबकी नजरों के सामने आते, जो फौरन भाइयों की तरह आपस में बंट जाते। आपस में हमारा संबंध किसी लिमिटेड कंपनी के हिस्सेदारों की तरह था। अंतर केवल यह था कि हमारी कंपनी किसी अधिनियम के अधीन नहीं, अपितु अपने आप अस्तित्व में आई थी, जिसके कोई लिखित या स्वीकृत सिद्धांत नहीं थे। हिस्सा बांटने में पूरे न्याय से काम लिया जाता, ताकि किसी का हिस्सा मारा न जाए। यदि हम में से कोई गैरहाजिर होता, तो अगले दिन उसकी ऊपरी आय बड़ी ईमानदारी से उसके हवाले कर दी जाती। जो लोग वार्षिक छुट्टी पर होते, उनके हिस्से की रकम नियमित रूप से जमा होती रहती। ऊपरी आय के एक-एक पैसे का बाकायदा हिसाब रखा जाता। इस आदर्श कंपनी के किसी हिस्सेदार के लिए यह संभव न था कि यह दूसरों से चोरी छिपे किसी ठेकेदार से रिश्वत ले और अकेले ही हजम कर जाए। इसका कारण यह था कि हमारे रेट गुप्त न थे। हर व्यक्ति को पता था कि एक लाख से अधिक के ठेकों में तीन प्रतिशत है। इसके अलावा ठेकेदारों का बिल जितनी जल्दी पास होता, हमारा हिस्सा दुगुना हो जाता। इसके अतिरिक्त हमारा हिस्सा ठेके की प्रकृति पर भी निर्भर होता था। जैसे ट्रांसपोर्ट के ठेके में यह अपेक्षाकृत अधिक होता। निर्माण कार्यों में यह रकम और भी बढ़ जाती। सप्लाई के कार्यों में अवसर के अनुसार, हिस्सा कभी बढ़ जाता, कभी कम हो जाता। फिर भी हमारे रेट इतने स्पष्ट कि ज्यों ही किसी ठेकेदार का बिल पास होता, साहब बहादुर से लेकर चपरासी तक प्रत्येक अपनी ऊपरी आय का हिसाब लगा लेता।
सुना है, मेरे यहां नौकरी होने से पहले कुछ लोभी और स्वार्थी किस्म के लोगों ने इस प्रकार की हरकत की थी, पर ज्यों ही दूसरों को पता चला कि उनके साथी उनका हक मार रहे हैं और ऊपर ही ऊपर अपनी जेबें गरम कर रहे हैं, तो उन्होंने उन स्वार्थी व्यक्तियों के विरुद्ध ऐसा संगठित फ्रंट कायम किया कि राजनीतिक दल भी क्या फ्रंट बनाएंगे?
एकता में शक्ति होती है। ये तो सभी जानते हैं। अत: कुछ दिनों में सबने मिलकर इन गंदी मछलियों को रिश्वतखोरी के अभियोग में गिरफ्तार करा दिया, ताकि पूरा तालाब गंदा होने से बचा रहे। यहां आने से पहले मैं कहीं और डेढ़ हजार रुपए मासिक पर नौकरी कर रहा था। यहां एक हजार की नौकरी प्राप्त करने की खातिर मैंने न केवल वहां की डेढ़ हजार की नौकरी पर लात मारी, बल्कि एक गहरे मित्र को चार हजार रुपए देकर उसका उपकार भी उठाया।
यह जगह थी ही ऐसी। जो एक बार आ जाता, फिर उम्र भर यहां से जाने का नाम न लेता। जिस मित्र ने अपनी सीट मेरे हाथ बेची थी, उसे कुछ व्यक्तिगत मजबूरियों के कारण कहीं और जाना पड़ा, नहीं तो खुली आंखों ऐसी सोने की खदान चार हजार में कौन बेच सकता है? इसके अलावा उस मित्र ने मुझसे वायदा भी लिया कि अगर उसे फिर कभी इसी सीट पर वापस आने की जरूरत महसूस हुई तो मैं बिना चूं-चां किए उसके हक में इसे छोड़ दूंगा।
वैसे तो कई लोग उसके बीस हजार रुपए तक देकर इस सीट को खरीदने के लिए तैयार थे, पर वह डरता था कि कहीं कोई ऐसा अविश्वसनीय व्यक्ति उसकी कुर्सी पर अधिकार न कर ले, जो बाद में इसे छोड़ने का नाम न ले। यहां आते ही, मेरे घर और जीवन में प्रत्यक्ष परिवर्तन प्रकट होने लगा। बीवी, बच्चे दिन-प्रतिदिन मोटे होने लगे। स्वयं मेरी हालत यह हो गई कि सभी पतलून तंग होकर बेकार हो गई। सब कपड़े नए सिरे से बनवाने पड़े। हमारा जीवन स्तर इतनी तेजी से बढ़ा कि हर देखने वाले को इस परिवर्तन का अहसास होने लगा । जीवन खूब मजे से बीत रहा था कि हमारे दफ्तर में कहीं से हैदर नाम का एक व्यक्ति आ टपका । उसके आते ही सब काम चौपट हो गया। उस व्यक्ति को हमारे यहां लाने में किसका हाथ था, इसका पता किसी को न चल सका। हमारे साहब ने उसे ट्रांसपोर्ट सेक्शन में लगा दिया। हैदर एक सूखा-सड़ियल सा इंसान था। हर समय मुंह लटकाए रखता। शरीर पर मांस नाम की कोई चीज न थी। चूंकि हम सब भी शुरू-शुरू में उसी की तरह के थे, तो सोचा कि दो-चार महीने में उसके चेहरे पर भी रौनक आ जाएगी, पर साहब, हमारा ख्याल गलत निकला।
हैदर के यहां आने के अगले ही दिन, साहब ने हम सब को बुलाकर मशबिरा किया कि हैदर का हिस्सा कितना निश्चित किया जाए। लंबे वाद-विवाद के बाद तय हुआ कि हैदर को केवल छियालीस रुपए देना ही उचित होगा, क्योंकि उस दिन की आय कुछ अधिक न थी । यह रकम हैदर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरे सुपुर्द की गई। छुट्टी के समय मैं उसके पास पहुंचा, अभिवादन के बाद मैंने रुपयों का लिफाफा उसकी मेज पर रखा।
'यह क्या है?'
'यह आज की आय में से आपका हिस्सा है। '
'कैसी आय? किसका हिस्सा ?'
यह सुनकर मैं फीकी-सी हंसी हंस दिया। ऐसी स्थिति से छुटकारे का एक मात्र तरीका इसी प्रकार की हंसी होती है। हैदर ने यह कहकर रुपयों का लिफाफा जमीन पर पटक दिया कि मुझे कोई हिस्सा-विस्सा नहीं चाहिए। मैंने चुपके से लिफाफा उठाया और सीधा साहब के पास पहुंचा। उन्होंने सारा किस्सा सुनकर कहा, 'यह बेवकूफ आदमी तो ईमानदार नजर आता है।'
दफ्तर के अन्य घाघ किस्म के महाशय वहां मौजूद थे। उन्होंने राय दी, 'हो सकता है कि उसने यह रकम कम समझ कर लौटा दी हो। अपना कद बढ़वाने का यह भी एक तरीका होता है।' अत: हैदर का हिस्सा बढ़ा दिया गया। अगले दिन किसी और के हाथ उस दिन की रकम हैदर को भेजी गई। हैदर ने उस व्यक्ति को भी भगा दिया। हम सब खूब जानते थे कि अगर सारे दफ्तर में एक भी आदमी हिस्सा लेने से इनकार करता है, तो उसकी वजह से सबके लिए मुश्किल पेश आ सकती है। सबकी यही इच्छा थी कि किसी प्रकार हैदर को भी बराबर का हिस्सेदार बनाया जाए, ताकि वह दूसरों की रोजी पर लात मारने की मूर्खता न कर बैठे। हैदर के डर से हम पूरा एक सप्ताह किसी ठेकेदार से एक पैसा भी वसूल न कर सके। अब तो सभी कर्मचारियों को चिंता होने लगी कि अगर यही हाल रहा, तो सब के बीवी बच्चे नए सिरे से कमजोर होने शुरू हो जाएंगे। हैदर को सीधे रास्ते पर लाने की सब तदबीरें उलटी हो गई। वह रोज सुबह-सबेरे, लंबे डग भरता, एक भूत की तरह दफ्तर आता और शाम को उसी प्रकार वापस चला जाता।
अब हमें संदेह होने लगा कि हैदर को किसी सोची-समझी योजना के तहत यहां भेजा गया है, ताकि वह हमारी गतिविधियों से ऊपरी अफसरों को अवगत कराता रहे। उन्हीं दिनों जमील नामक एक व्यक्ति हमारे दफ्तर में आया और कहने लगा, 'अगर आप मुझे नौकरी दे दें, तो मैं इस दुष्ट हैदर से आप लोगों की जान छुड़ा सकता हूं।' जमील का प्रस्ताव फौरन मान लिया गया। काफी सौदेबाजी के बाद नौकरी की शर्तें भी तय हो गई। फैसला यह हुआ कि अगर जमील किसी प्रकार हैदर को चलता कर सके, तो उसे पचास रुपए मासिक पर चपरासी रख लिया जाएगा, पर ऊपरी आय में उसका हिस्सा उतना ही होगा, जितना हमारे साहब बहादुर स्वयं लेते हैं। कुछ दिन बाद हेडक्र्वाटर से हमारे डायरेक्टर जनरल, दो अफसरों के साथ दफ्तर के मुआयने पर आए। उन्होंने दोपहर का खाना कर्मचारियों के साथ कैंटीन में खाया। खाने के बाद कहवे का दौर चल रहा था। हैदर सब से अलग-थलग नित्य की तरह मुंह लटकाए, त्यौरी चढ़ाए, बैठा था। अचानक जमील ने अंदर प्रवेश किया और तेजी से हैदर को गले लगाकर ऊंची आवाज में चिल्लाया, 'अरे, हैदर भाई, तुम?'
हैदर हक्का-बक्का नजर आ रहा था। कहने लगा, 'माफ कीजिए, मैं आपको पहचान न सका।'
‘बनो मत, हैदर भाई। बनो मत।'
'भाई साहब। मैं वाकई आपको बिल्कुल पहचान नहीं सका।'
सारे कर्मचारी उन दोनों की ओर देखने लगे। जमील ने और भी ऊंची आवाज करते हुए कहा, 'मेरी जान! याद नहीं, जब अंकारा में हमारे साथ मिलकर मुंह काला करने जाया करते थे? कहो यह भी याद नहीं? फिर जब भारी भरकम खुर्द-बुर्द करने के अभियोग में तुम्हें सजा हो गई थी और मेरे एक वकील दोस्त की कोशिशों के बाद भी एक साल जेल की हवा खाने के बाद तुम्हें रिहाई नसीब हुई थी ।'
‘जी नहीं, आपको जरूर कोई गलतफहमी हुई है। आपको धोखा हो रहा है।' 'बनो मत, हैदर मियां। जरा दिमाग पर जोर डालो। तुम वही हैदर हो, जो बैंक में खजांची थे और 15000 रुपए गबन करके भाग गए थे। चलो छोड़ो, बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो।'
हैदर गुस्से से भन्ना कर बोला, 'भाई साहब, मैं आपको पहचानता ही नहीं। यह सब कुछ किसी और के साथ हुआ होगा। '
'बनो मत, जी!' जमील ने फिर वही रट लगाई, 'अच्छा, मैं तुम्हें अभी याद दिलाता हूं। याद करो, जब तुम एक नर्तकी के जाल में फंस गए थे और फिर उसे खिलाने- पिलाने के लिए तीसरी बार गबन करने पर.. ।'
'साहब! यह आप क्या कर रहे हैं?'
‘मैं सही कर रहा हूं। आपको वह घटना तो अच्छी तरह याद होनी चाहिए, जब आपको रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ लिया गया था। आपकी बेटी ने थाने जाकर.....।' ‘बकवास बंद करो जी । किसकी बेटी ? कौन-सा थाना?' हैदर ने चिल्ला कर कहा ।
जमील ने उसके गुस्से की परवाह न करते हुए मुस्कुरा कर कहा, 'भई, हद हो गई बनने की। क्या तुम्हें यह भी याद नहीं कि मैं तुमसे मुलाकात की। खातिर जेल आया करता था? गजब खुदा का ! जो आदमी तुम्हें पूरे एक साल तक अपनी जेब से सिगरेट, फल और दर्जन भर दूसरी जरूरी चीजें नियमित रूप से जेल में पहुंचाता रहा, आज तुम उसे पहचानने से इनकार कर रहे हो? ज्यादा बनने की कोशिश मत करो हैदर । '
हैदर लाल-भभूका हो उठा और फुंफकारता हुआ हाल से बाहर निकल गया। कैंटीन में मौजूद किसी व्यक्ति को विश्वास नहीं आया था कि हैदर ने यह सब कुछ किया होगा, जिसका कच्चा चिट्ठा अभी-अभी जमील खोल चुका था। इसके बावजूद सबने एक-दूसरे को अर्थपूर्ण अंदाज से देखा, मानो कह रहे हो 'क्यों जनाब ! देख ली अपने इस बेगैरत की करतूत ।' दो ही दिन बाद प्रधान कार्यालय के आदेशों के अनुसार हैदर को नौकरी से छुट्टी मिल गई। जमील को दफ्तर में चपरासी रख लिया गया। पचास रुपए मासिक तनख्वाह और ऊपरी आय में से साहब बहादुर के बराबर का हिस्सा ।
(अनुवाद : सुरजीत)