Rekha Bhagat (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

रेखा भगत् (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

17. रेखा भगत्
काल : १८०० ई०

1. -कार्तिक की पूर्णिमा है। गंडक (नारायणी) स्नान और हरिहरनाथ के दर्शन की भीड़ है। दूर-दूर से ग्रामीण नर-नारी बड़े यत्न से बचाये पैसे और सत्तू-चावल लेकर हरिहर-क्षेत्र पहुँचे हैं। बगीचे में उस वक्त कुछ बैल-घोड़ों, हाथियों को बँधा देखकर किसे उम्मीद हो सकती थी, कि यही आगे बढ़कर संसार का सबसे बड़ा मेला बन जायेगा।

गाढ़े के अँगोछे में नमकीन सत्तू को हरी मिर्च और मूली के साथ बड़े स्वाद के साथ खाकर रेखा भगत और उनके चार साथी एक आम के पेड़ के नीचे कम्बल पर बैठे हुए हैं। रेखा की भैंस बिक गई है, और अब भी वह अपनी टेंट में उन बीस रुपयों को जब-तब देख लिया करता था। मेले के लिए मशहूर था, कि जादू से रुपये निकाल लेने वाले चोर आजकल बहुत आये हुए हैं। रेखा का हाथ फिर एक बार टेंट पर गया, और इत्मीनान के साथ उसने बात शुरू की-

"हमारी तो भैंस बिक गई। तीन महीने से, भोलू भाई ! खूब खिला-पिलाकर तैयार किया था। बीस रुपये वैसी भैंस के लिए कम दाम नहीं है। किन्तु आजकल लक्षिमी आँख से देखते-देखते उड़ जाती हैं।"

भोला-"उड़ जाती हैं, और रुपये-पैसे का चारों ओर निठाला है, रेखा भाई ! इस कम्पनी के राज्य में कोई चीज में बरक्कत नहीं। हम मिट्टी खोदते-खोदते मर जाते हैं, और एक शाम भी बाल-बच्चों को पेट भर खाने को नहीं मिलता।"

रेखा-"अभी तक तो हम हाकिम की नज़र-बेगार, अमला-फैला की घूस-रिश्वत में ही तबाह थे, किन्तु कम से कम खेत तो हमारा था।"

मौला-"सात पुश्त से जंगल काटकर हमने खेत आबाद किया था।"

सोबरन--"भौलू भाई ! बधिया का खेत है न ? वहाँ भारी जंगल था। हमारे मूरिस घिनावन बाबा को वहीं बाघ उठा ले गया, तभी से उस जगह का नाम बघिया पड़ा। जान दे-देकर हमने खेत आबाद किया था।"

इसी बीच पतली चीते की सफेद पगड़ी को नंगे काले बदन पर सँभालते भोला पंडित की ओर देखकर रेखा ने कहा-

"भोला पंडित ! तुम सतयुग तक की बात जानते हो, ऐसा तो गाढ़ प्रजा पर कभी नहीं पड़ा होगा ?"

मौला–"खेत हमने बनाया, जोतते-बोते हम हैं पंडित ? और अब हमारे गाँव के मालिक हैं रामपुर के मुंशीजी ।"

भोला पंडित-"अधर्म है अधर्म रेखा भगत ! कम्पनी ने तो रावण और कंस के जुलुम को मात कर दिया। पुराने धर्मशास्त्र में लिखा है, राजा किसान से दशांश कर ले ।"

मौला–"और पंडित ! मुझे तो अचरज है, यह रामपुर के मुंशी को हमारा मालिक-जमींदार क्यों बना दिया ?"

भोला पंडित-"सब उलटा है, मौलू ! पहले प्रजा के ऊपर एक राजा था। किसान बस एक राजा को जानता था। वह दूर अपनी राजधानी में रहता था, उसे सिर्फ दशांश से मतलब था, सो भी जब फसल हुई तब। किन्तु, अब फसल हो चाहे न हो, जमींदार को अपना हाड़-चाम बेचकर, बेटी-बहन बेचकर मालगुजारी चुकानी होगी।"

रेखा-"और मालगुजारी का भी पता नहीं, पंडित ! सालै साल बढ़ती जाती है। कोई नहीं पूछने वाला है, कि क्यों ऐसा अंधेर खाता है।"

मुंशी सदासुखलाल पटवारी आये थे हरिहर क्षेत्र स्नान करने, और सस्ता होने पर एक गाय खरीदने, किन्तु अबके साल की महँगाई को देखकर उनकी टाँग थहरा गई। उनके बदन पर एक मैली-कुचैली मिर्जई और सिर पर टोपी थी, कानों पर सरकंडे की कलम अब भी टँगी थी, जान पड़ता था, यहाँ भी उन्हें सियाही लिखना है। मसरख के जमींदार के पटवारी होने से वह सोच रहे थे, कि इस बातचीत में भाग लें या न लें, किन्तु जब गाँव की राजनीति छिड़ गई हो, उस वक्त कान-मुँह रखने वाले आदमी के लिए चुप रहना मुश्किल हो जाता है। दूसरे दयालपुर, उनके मालिक का गाँव भी था; इसलिए भी दयालपुर के किसानों की बातचीत में हिस्सा लेने में उन्हें कोई हर्ज नहीं मालूम हुआ। मुंशीजी ने कलम को अँगुली में दबाकर घुमाते हुए कहा-

"पंडित ! किसी पूछने वाले की बात करते हो ! कौन पूछेगा ? वहाँ तो अपनी-अपनी लूट है-'पर सम्पति की लूट है, लूट सकै सो लूट।' कोई राजा नहीं है। नाज़िम साहेब के दरबार में मेरी मौसेरी बहन का दामाद रहता है। उसको बहुत भेद मालूम है। कोई राजा नहीं। सौ दो-सौ फिरंगी डाकुओं ने जमात बाँध ली है, इसी जमात को कंपनी कहते हैं।"

रेखा-"मुंशीजी ! ठीक कहते हो, 'कंपनी बहादुर' 'कंपनी बहादुर सुनते-सुनते हम समझते थे, कम्पनी कोई राजा होगा, लेकिन असिल बात आज मालूम हुई।"

मौला-"तभी तो जिधर देखो, उधर लूट मची है, कोई न्याय-अन्याय की खबर लेने वाला है ? क्या रामपुर के मुंशी जी की सात पीढ़ी का भी दयालपुर से कोई वास्ता था ?"

सोबरन-"मुझे तो समझ ही में नहीं आता, मौलू भाई ! यह रामपुर का मुंशी कैसे हमारे गाँव का मालिक बन गया ? दिल्ली के बादशाह से कम्पनी ने लोहा लिया।"

मुंशी-"दिल्ली नहीं, सोबरन राउत ! मकसूदाबाद ने (मुर्शिदाबाद के) नवाब से लोहा लिया। दिल्ली के तखत से मकसूदाबाद ने हमारे मुलुक को छीन लिया था, सोबरन राउत !"

सोबरन-"हम लोगों को इतना याद नहीं रहता, मुंशीजी। हम तो दिल्ली ही जानते थे। अच्छा मकसूदाबाद के हाथ में भी जब राज आया, तब भी तो एक ही राजा न था ? हमसे जो जुटता-बनता; मालगुजारी चुकाते थे। लेकिन अब इसको दो-दो राजा कहेंगे कि क्या कहेंगे ?"

रेखा-"सोबरन भाई ! दो-दो राज हुए ही कि नहीं? एक कम्पनी का राज, दूसरे रामपुर के मुंशीजी का राज। चक्की के एक पाट में पिसने में कुछ बचने की भी आशा रहती है, भोला पंडित ! लेकिन दो-दो पाट में पड़कर बचना नहीं हो सकता। और इसे हम आँखों से देख रहे हैं। मुंशीजी ! तुम्हीं बतलाओ, हम लोग तो गँवार, मूरख, अनाड़ी हैं, तुम्हीं हमारे में सज्ञान हो-या भोला पंडित ।"

मुंशी-"रेखा भगत ! कहते तुम ठीक हो। जमींदार चक्की का दूसरा पाट है ! और वह राजा से किस बात में कम है।"

रेखा-"कम काहे को बढ़कर है, मुंशीजी । गाँव की पंचायत को अब कोई पूछता है ? रवाज है, हम लोग पाँच पंच चुनकर रख देते हैं, लेकिन वह किसी काम में हाथ लगाने पाते हैं ? सब जमींदार और उसके अमला फैसला करते हैं। झगड़ा हो तो हाथ मुद्दई-मुद्दालेह दोनों ओर से डाँड़ (जुर्माना) लेते हैं। पन्द्रह वर्ष भी तो नहीं बीता, सोबरन राउत ! कभी मर्द-औरत के झगड़े में भैंस नीलाम होते देखा था ?"

सोबरन-"अरे, उस वक्त तो सब कुछ पंचायत के हाथ में था। गाँव के पंच किसी घर को उजड़ने नहीं देते, वह खून तक में सुलह-सराकत करा देते थे, रेखा भगत ! और बाँध-खाँड़ नहीं देख रहे हो ? मालूम होता है, उनका कोई गर-गुसैयाँ नहीं है। जो पंचायत चलती रहती, तो क्या कभी ऐसा होता ?"

रेखा-"नहीं होता. सोबरन राउत ! अपने बाल-बच्चे के मुंह में जाब कौन लगाता ? पानी बेशी बरसे तो अब खाँड साफ करके नहीं रखी है कि बेशी पानी निकल जाये। पानी कम बरसे तो बाँध नहीं है कि पानी रोककर रखें जिसमें फसल सूखने न पाये।"

मुंशी-"पंचायत में आग लगाकर कम्पनी ने यह काम जमींदार को सौंप दिया।"

रेखा-"और जमींदार क्या करता है, हम उसे देख रहे हैं।"

मुंशी-"मैं भी जमींदार का नमक खाता हूँ, रेखा भगत ! जानते हो, मसरख के जमींदार का नमक खाता हूँ, रेखा भगत ! जानते हो अन्याय का जो खाता है, गल जाता है। मुझको देखो, सात बेटे थे, साँड़ से होकर सब उफर पड़े।" मुंशीजी की आँखों में आँसू देखकर सबका दिल पसीज गया-"उफर पड़े, रेखा भगत ! अब घर में एक बाघी भी नहीं है पानी देने के लिए, और मालिक की जानते ही हो, छपरा की रंडी के पीछे क्या-क्या गति हुई ? इंद्रिय कटकर गिर गई है, रेखा भगत ! गिर गई है यह जो दोनों बबुआ को देख रहे हो, यह खवास के हैं।"

रेखा-"मालिकों में अब यह बहुत चलने लगा है, मुंशीजी !"

सोबरन-"खेत गया, गाँव गया, सात समुन्दर पार के डाकुओं ने हमारे ऊपर घर के डकैतों को ला बैठाया। पंचायत गई; जो चार अच्छत उपजाते, वह भी आगम गया, और जो कभी ठीक से बरसा-बूंदी हुई. चार दाना घर आया, तो मालिक, जमींदार, गोड़इत-चौकीदार, पटवारी, गुमाश्ता कितनों की चोंथ से बचे।"

मुंशी--"पटवारी की लूट को मैं मानता हूँ, सोबरन राउत ! किन्तु, यह भी जानते हो न, पटवारी को जमींदार आठ आना महीना देता है। आठ आना महीने में बताओ, हमारे काषपों की जीभ भी नहीं र्भीग सकती, क्या जमींदार यह बात जानते नहीं ?"

रेखा-"जानते हैं, मुंशीजी ! सब देखते हैं, जमींदार अन्धे नहीं हैं। राजा कम्पनी बहादुर डकैत है ही, उसने जमींदार को हमारे ऊपर नया बैठाया, सो डकैत, और जमींदार ने और छोटे-छोटे एक टोकरी डकैत हमारे सिर पर बैठा दिये इस पर भी हम कैसे जी रहे हैं?"

सोबरन-"जीते हैं क्या, रेखा ! अब पेट भर अन्न, तन पर कपड़ा रखने वाला दयालपुर में कोई दिखाई पड़ता है ?"

मुंशी-"कम्पनी को क्या फिकर है सोबरन राउत ? उसने मालगुजारी बाँध दी है किस्त के दिन छपरा जा जमींदार तोड़ा डाल आते हैं। कम्पनी का दाम-दाम चुकता हो जाता है, दयालपुर के किसान मरें, चाहे जियें, जमींदार मार-मारकर धुरै उड़ा देगा, यदि उसकी मालगुजारी न बेबाक करो-पाँच रुपये तुमसे लेता है, एक रुपया कम्पनी को देता है, और चार रुपये अपने पेट में डालता है, सोबरन राउत !"

रेखा-"हे भगवान् ! तुम सो गये या उफर पड़े ! तुम काहे नहीं नियाव करते ? हम तो हार गये।"

सोबरन राउत-"हाँ हार गये, रेखा ! सुना है न ! बरई पर्गना वालों ने एका करके जमींदार को मालिक मानने से इन्कार कर दिया था। उन्होंने छपरा जा कम्पनी के साहेब से कहा-'हमारी पंचायत मालगुजारी चुकायेगी, हम जमींदार को नहीं मानेंगे।' तो साहेब ने जानते हो, क्या जवाब दिया-'सूखा-बाढ़ की मालगुजारी भी, दोगे ?' सूखा-बाढ़ में अपने ही बाल-बच्चों का प्राण जिलाना मुश्किल है, उस फिरंगी को यह कहते दैव-राजा का भी डर नहीं मालूम हुआ। और वह भी उसने ऊपरी मन से कहा था। रेखा ! उसने पीछे कहा-'तुम लोग कँगले हो, जब तुम मालगुजारी नहीं दोगे, तो कम्पनी बहादुर तुम्हारा क्या लेगा ? हम पैसे वाले इज्जतदार आदमी को जमींदार बनाते हैं, जिनमें हमारी मालगुजारी बकाया रखने में उसे घर-बार नीलाम होने, इज्जत जाने का डर हो।'"

रेखा-"तभी तो चरक (कोढ़) फूटा रहता है, सारे देह में इन फिरंगियों के, ये बड़े निर्दयी होते हैं।"

सोबरन-"बरई वालों को कोई चारा नहीं रहा, तो वह जान पर खेले। कम्पनी बहादुर होता, तो बहादुर की तरह लड़ता, लड़ने वाले से लड़ता। बरई वालों के पास पत्थरकला (बन्दूक) था, कंपनी वालों के पास तोप थी। और कहाँ-कहाँ से गोरी-काली पल्टन उतर आई थी। गाँव के गाँव को जला दिया, स्त्री-बच्चों को भी नहीं छोड़ा। बरई वाले क्या करते ?"

मौला-"खेती-बारी तो इस तरह तबाह हुई और जुलाहों के मुँह में भी जाब लगने लगा है, सोबरन राउत ! अब कम्पनी बहादुर अपना कपड़ा बिल्लाइत से लाकर बेच रहा है।"

मुंशी-"हाँ, कल पर का कता-बुना। देखो यह मेरी मिर्जई, उसी की है, सोबरन राउत ! इतना सस्ता चर्खे -कर्घे का कपड़ा नहीं मिलता, इसीलिए इज्जत के लिए लेना पड़ता है। इज्जत का ख्याल है, रेखा भगत ! मुस्कुराते क्यों हो, सरकार-दरबार में जाकर जाजिम पर बैठना हो, तब न मालूम हो।"

रेखा-"तुम्हारी इज्जत के लिए नहीं हँस रहा था, मुंशीजी ! हँस रहा था, कंपनी बहादुर राज भी करता है, और व्यापार भी। ऐसा भी राज !"

भोला पंडित-"सतयुग, त्रेता, द्वापर बीते और कलयुग के भी पाँच हजार वर्ष बीत गये। इतने काल में ऐसा राज तो नहीं सुना था।"

मुंशी-"नाज़िम के दरबार के एक मुंशी ने कम्पनी को फिरंगी डकैत बतलाया था, भोला पंडित ! और दूसरे ने कहा था कि कम्पनी फिरंगी सौदागरों की जमात है, अपने देश से वह सिर्फ व्यापार के लिए आई है। पहले यहाँ का माल वहाँ बेचती थी, अब उसने बिल्लाइत में बड़े-बड़े कारखाने खोल दिये हैं, जिसमें खुद माल तैयार करती है, और खुद ही बेचती है।"

भौला-"तो मालूम हुआ, अब कारीगरों की भी खैरियत नहीं ।"

2.

जाड़ों की गंगा हरी होती है, और उसकी स्वाभाविक गंभीर गति और गंभीर हो जाती है। इस वक्त नावों के मारे जाने का बहुत कम डर रहता है, इसलिए व्यापारी इसे व्यापार के लिए सुन्दर मौसम मानते हैं। इस समय गंगा के किनारे चार घन्टे बैठ जाने से सैकड़ों बडी-बडी नावें वहाँ से पार होती देखी जायेंगी। इनमें से अधिकांश पर कम्पनी का माल है। जिनमें से कितना ही विलायत से आकर ऊपर की ओर जा रहा है । और पटना, गाजीपुर, मिर्जापुर जैसे तिजारती शहरों के घाटों पर देखते, तो गंगा की सारी धार बड़ी-बड़ी नावों से ढंकी दिखाई पड़ती।

पटना से एक बजरा (बड़ी नाव) नीचे की ओर जा रहा था, जो शोरा, कालीन आदि कितनी ही चीजें विलायत ले जा रहा था। पटना से कलकत्ता पहुँचने में हफ्ते से ज्यादा लगता है, इसीलिए तिनकौड़ी दे और कोलमैन में धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ गई । यद्यपि शुरू में एक-दूसरे से मिलने में वह हिचकिचाते थे। तिनकौड़ी देने के लिए नकली जुल्फी-चोटी (ह्विग), पाँव में सटे सुत्थन, घुण्डी के फीतों में टँके बटन, काले कोट के साथ चरका (सफेद) मुँह बड़े रोब और भय की चीज थी; किन्तु, बात का प्रारंभ कोलमैन ही ने किया, इसलिए धीरे-धीरे तिनकौड़ी की हिम्मत बढ़ चली। वार्तालाप में तिनकौड़ी को मालूम हुआ, कि कोलमैन कम्पनी के साहबों से जला-भुना है, और गवर्नर से लेकर कंपनी के छोटे-बड़े एजेन्ट तक पर भी प्रहार करने में उसको कोई हिचकिचाहट नहीं है। तिनकौड़ी भी कंपनी के नौकरों से खार खाए हुआ था। बीस साल तक उसने कंपनी के बड़े-बड़े दफ्तरों में किरानी (क्लर्क) का काम किया। वह गरीब घर में पैदा हुआ था; किन्तु उन आदमियों में था जिनका लोभ परिमित और आत्म-सम्मान के अधीन होता है। तिनकौड़ी ने जिंदगी भर के खाने के लिए कमा लिया था, किसी पुराने एजेन्ट की कृपा से लूट के वक्त उसे चौबीस परगना, जिला में चार गाँव की जमींदारी मिल गई थी, जिसकी आमदनी के देखने से मालगुजारी बहुत कम थी। यह साहेब की मेहरबानी थी, किन्तु उस मेहरबानी के प्राप्त करने के लिए तिनकौड़ी ने ऐसा काम किया था, जिसका पाप, तिनकौड़ी समझता था, जन्म-जन्मान्तर में भी नहीं छुटेगा। उसने साहेब को खुश करने के लिए गाँव की एक सुन्दर तरुण ब्राह्मणी को उसके पास पहुँचाया था। साहेब लोग उस वक्त बहुत कम अपनी मेमों को लाते थे, क्योंकि छै महीने के खतरों से भरी समुद्र-यात्रा करना आसान न था। तिनकौड़ी की उम्र पैंतालीस वर्ष की थी, उसका काला गठीला बदन बहुत स्वस्थ था, किन्तु वह रोज सवेरे उठकर दर्पण में मुख देखता, और हाथ की अँगुलियों को निहारता । वह किसी दिन भी कोढ़ फूटने की प्रतीक्षा कर रहा था, ब्राह्मणी के सतीत्व-भंग का दंड, उसके विचार में, यही होने वाला था। साहेबों की झिड़कियों, गालियों, ठोकरों को सहते-सहते वह तंग आ गया था, इसीलिए अभी नौकरी करने की उम्र होने पर भी घर भर के मर जाने से नौकरी से इस्तीफा दे गाँव को लौट रहा था। बीस वर्ष तक चुपचाप बर्दाश्त किये अपमान की आग उसके दिल में भभक रही थी। जब उसने कोलमैन को अपने से भी ज्यादा कम्पनी और उसके कर्मचारियों का शत्रु देखा; तो धीरे-धीरे दोनों खुलकर बातें करने लगे। कोलमैन एक दिन कह रहा था-

"ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के लिए बनाई गई थी, किन्तु पीछे इसने लोगों को लूटना शुरू किया। देखते नहीं, जितने साहेब यहाँ आते हैं जल्दी से जल्दी लखपति बनकर देश लौट जाना चाहते हैं। छोटे-बडे की यही हालत है। क्लाइव ने ऐसा ही किया, लेकिन उसको किसी ने नहीं पकड़ा। वारेन हेस्टिग्स को अपने लोभ में चेत सिंह की रानियों के भूखे मरने तक का भी ख्याल नहीं आया, अवध की बेगमों को उसने कंगाल बनाया, किन्तु उसको हमारे देशवालों ने नहीं छोड़ा। सजा से तो बच गया, किन्तु कई वर्षों के मुकदमे में जो कुछ कमाया था, चला गया।"

"किसने मुकदमा चलाया, साहेब ?"

"पार्लामेंट ने। हमारे यहाँ राजा मनमानी नहीं कर सकता, मनमानी करने के लिए एक राजा की गर्दन को हम कुल्हाड़े से काट चुके हैं, और वह कुल्हाड़ा अब भी रखा हुआ है। पार्लामेंट पंचायत है. दे ! जिसके अधिकांश लोगों को देश के धनी-मानी लोग चुनते हैं, और कुछ बड़े-बड़े जमींदार खानदान के कारण उसमें लिये जाते हैं।"

"जमींदार कितने दिनों से होते आये हैं साहेब ?"

"हमारे यहाँ की देखा-देखी हिन्दुस्तान में जमींदारी कायम हुई है, दे ! हमारे यहाँ वह कई सौ साल से चली आती है, किन्तु उसके लिए वहाँ भी जबरदस्ती खेत से किसानों की मिल्कियत छीनी गई थी। जमींदारी कायम करने वाले गवर्नर का नाम जानते हो ?"

"हाँ, कार्नवालिस् ।"

"विलायत में वह एक नम्बर का कसाई जमींदार है। उसने, यहाँ आकर देखा, जब तक किसान खेतों के मालिक रहेंगे, तब तक सूखा-बाढ़ के कारण अथवा ज्यादा झड़ी होने के कारण मालगुजारी ठीक से वसूल नहीं हो सकेगी। उसने यह भी सोचा कि सात समुन्दर पार के अँग्रेजों को बेगाने मुल्क में दोस्त भी पैदा करना चाहिए और ऐसा दोस्त, जिसका स्वार्थ अँग्रेजों के स्वार्थ से बँधा हो। जमींदार अँग्रेजों की सृष्टि हैं। किसान के विद्रोह से अँग्रेजों के राज्य को जिस तरह का खतरा हैं, उसी तरह जमींदारों को अपनी जमींदारी, अपनी सम्पत्ति और अपनी इज्जत जाने का खतरा है। इसलिए यदि छोटे-छोटे किसानों को मालिक न मानकर बड़े-बड़े पचीस-पचास गाँवों का एक मालिक-जमींदार–बना दिया जाये, तो वह हमारी विपत्-संपत् दोनों में काम आयेंगे। इस तरह विलायत के इस कसाई जमींदार ने हिन्द के किसानों की गर्दन को रेत दिया।"

"रेत दिया, इसमें शक नहीं"-तिनकौड़ी को अपनी जमींदारी के किसान याद आ रहे थे।

"जागीरदारों के जुल्म के मारे सारी दुनिया के लोग तबाह हैं, लेकिन इनके दिन भी इने-गिने हैं, दे।"

"कैसे, साहेब ?"

"फ्रांस के राजा-रानी को कुछ ही वर्ष पहले प्रजा ने जान से मार डाला और उस क्रोधाग्नि में कितने ही जागीरदार-जमींदार भी जलकर खाक हो गये; जमींदारी प्रथा उठा दी गई। लोगों ने मनुष्य मात्र के लिए स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृभाव का सिद्धान्त घोषित किया। मैं फ्रांस में था, उस वक्त, दे ! और फ्रांस के राजा के महलों पर फ्रांसीसी प्रजातन्त्र का तिरंगा झंडा फहराते-मैंने-खुद देखा है। इंग्लैंड के राजा, जर्मीदार-जागीरदार आजकल थर-थर काँप रहे हैं और इंग्लैंड में भी फ्रांस वाली बात हुई होती, किन्तु एक और बात ने उन्हें बचा दिया. मुझे इसका अफसोस है, दे।" "किस बात ने, साहेब ?"

"देखते नहीं हो, विलायती कारखानों का कितना माल हिन्दुस्तान की बाजारों में पट रहा है ? तुम्हारे यहाँ के जुलाहे, सुतकत्तिन बेकार हो रही हैं, और हमारे यहाँ के सेठों ने अपने कारखाने खोलकर उनमें जमींदारों के अत्याचार से भूखे मरते लोगों को काम दिया, उन्हीं का बनाया माल यहाँ पहुँच रहा है। अभी तक हमारे यहाँ कल हाथ से चलती थी, किन्तु अब भाप के इंजन बन रहे हैं, जिससे चलने वाले कर्मों के कपड़े और सस्ते होते हैं। अपने यहाँ के कारीगरों को चौपट समझो, चौपट। हमारे यहाँ के कारीगर भी चौपट हो गये हैं, किन्तु अब उन्हें कारखानों में मजदूरी करके पेट पालने भर को कुछ मिल जाता है। यदि यह कारखाने न खुले होते, तो फ्रांस की ही दशा हमारे यहाँ भी हुई होती। आदमी को आदमी की तरह रहना चाहिए, दे ! दूसरे आदमी को जो पशु मानता है, उसे स्वयं और उसके बाल-बच्चों को भी पशु बनना पड़ता है।"

"यह ठीक कहा, साहेब ! मैं अपने दास और नौकर को आदमी नहीं समझता रहा, किन्तु जब वैसा ही बर्ताव साहेब लोग मुझसे करते; तो मुझे पता लगता कि आदमी के लिए अपमान कितनी कड़वी चीज है।"

"दासता के रिवाज को उठाने के लिए विलायत में बड़ा जोर दिया जा रहा है।"

"विलायत में भी दासता मानी जाती है?"

"सारी दुनिया में अभागे नर-नारियों की खरीद-बेच चल रही है, किन्तु मुझे आशा है, विलायत में जल्दी ही उनके खिलाफ कानून बन जायेगा।"

"फिर दासों के मालिक धनी लोग क्या करेंगे ?"

"धनी लोग तो नहीं चाहते, और हमारी पार्लामेंट पर धनिकों का ही प्रभुत्व है, किन्तु अब उनमें भी कुछ इसे बुरा मानते हैं, आखिर आदमी की खरीद-बेंच कितनी बुरी चीज है, दे ! तुम खुद ही समझ सकते हो । किन्तु कितने ही आदमी पाप-पुण्य के ख्याल से दासता उठाने के पक्षपाती नही हैं, बल्कि आजकल कारखानों में लोहे की कलें काम करती हैं, उनका दाम ज्यादा होता है, दास उनकी परवाह नहीं करेंगे। देखते न हो, बारीक काम दासों को नहीं दिया जाता। जिसकी जिन्दगी - मौत से तुम रात-दिन खेल किया करते हो, वह तो मौका मिलते ही तुम्हारा भारी नुकसान करके बदला लेना चाहेगा।"

"माँ और बछिया को अलग कर बेचने की तरह जब मैं किसी दासी को अपने बच्चों से अलग कर बिकते देखता हूँ, तो मुझे यह बहुत असह्य मालूम होता है।"

"जिसे असह्य न मालूम हो, वह आदमी नहीं, दे।"

"मैं सोच रहा था, फ्रांस में बिना राजा का राज, क्या कहते हैं उसे, साहेब ?"

"प्रजातंत्र।"

"प्रजातन्त्र क्या राजतन्त्र से अच्छा होता है ?"

"प्रजातन्त्र सबसे अच्छा राज्य है, दे ! शाहों, शाहजादों, बेगमों और शाहजादियों के ऊपर देश की कमाई का भारी खर्च हो जाता है। पंचायती राज्य को राजा से ज्यादा न्याय, ज्यादा पक्षपातहीनता और सहानुभूति रहेगी।"

"हाँ, मैंने पहले अपने गाँव के पंचायती कारोबार को देखा था, उसमें सचमुच ज्यादा न्याय होता था, और खर्च में आदमी उजड़ भी नहीं जाता था; किन्तु जब से कार्नवालिस के जमींदारों ने आकर पंचायत को दबा दिया, तब से लोग तबाह हैं।"

"यह ठीक है, दे ! किन्तु फ्रांस की जनता का उद्देश्य प्रजातन्त्र से भी ऊपर था; वह मुनष्य मात्र की समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृभाव को राज्य स्थापित करना चाहती थी।"

"हमारे देश के लिए भी ?"

"तुम मनुष्य हो कि नहीं ?"

"साहबों की नजर में तो हम मनुष्य नहीं जँचते ।"

"जब तक समानता, स्वतंत्रता, भ्रातृभाव का शासन सारी पृथ्वी पर, गोरे-काले सारे मनुष्यों में नहीं कायम होता, तब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं हो सकता, दे। कसाई कार्नवालिस् अपने गोरे किसानों को मनुष्य नहीं मानता। फ्रांस में राजा, जमींदार तो गये, किन्तु फिर बनियों ने-ईस्ट इंडिया कम्पनी के भाई-बन्दों ने-राज्य सँभाल लिया, जिससे समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृभाव का असली तिरंगा झंडा वहाँ नहीं फहरा सके।"

"तो फ्रांस में राजा-बाबुओं की जगह सेठों का राज्य हो गया ?"

"हाँ, और इंग्लैंड के सेठ भी हल्ला कर रहे हैं, कि जब हम सात समुन्दर पार हिन्दुस्तान का राज्य चला सकते हैं तो इंग्लैंड में क्यों नहीं कर सकते ? इसलिए वह राज्य-शक्ति को अपने हाथ में लेना चाहते हैं, यद्यपि राजा को हटाकर नहीं।"

"राजा के हाथ में, आपने कहा, इंग्लैंड में शासन की बागडोर है ही नहीं।"

"हाँ, और मैंने इन गोरे बनियों की करतूतें यहाँ देखीं। मुझे देश देखने की इच्छा थी, सुभीता देख मैंने कम्पनी की नौकरी कर ली, नौकरी न करता, तो बनिये मुझ पर सन्देह करते और फिर मेरा पर्यटन मुश्किल हो जाता, इसीलिए दो साल तक मैं कम्पनी की नौकरी-रूपी नर्क में रहा।"

"भले मानुष के लिए नर्क है, साहेब ! यहाँ वही निर्वाह कर सकते हैं, जो सब पाप कमा, सारा अपमान सह धन जमा करने के लिए तुले हुए हैं। कार्नवालिस् के किसी अनुचर की कृपा से पाप की कमाई मुझे चार गाँवों की जमींदारी मिली है, किन्तु मुझे फल मिल चुका; बीबी-बच्चे सब हैजे में मर गये। उस जमींदारी के नाम से दिल काँपता है। मैं भी आपकी राय से सहमत हूँ, समानता-स्वतन्त्रता-भ्रातृभाव के राज्य से ही पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है, मनुष्य अपमान से बच सकता है।"

"लेकिन यह सहमत होने या चाहने से नहीं होगा, दे । इसके लिए फ्रांस की भाँति हजारों को बलिदान होना होगा और चुपचाप बलिदान होने से भी काम नहीं चलेगा। बलिदान तो हिन्दुस्तानी सिपाही लाखों की संख्या में अंग्रेजों के लिए भी होते रहे हैं; अब बलिदान अपने लिए होना होगा, और जानते-सुनते।"

"जानते-सुनते ?"

"जानते-सुनते का मतलब है, हिन्दुस्तानियों को दुनिया का ज्ञान होना चाहिए ! साइंस मनुष्य के हाथ में भारी शक्ति दे रहा है। इसी साइंस के ज्ञान से आदमी ने बारूद और बन्दूक बनाया, अपने को सबल किया। यही साइंस तुम्हारे नगरों को बर्बाद कर इंग्लैंड में नये कल-कारखानों और नये शहरों को आबाद कर रहा है। उसी साइंस की शरण तुम्हें भी जाना होगा।"

"और ?"

"और हिन्दुस्तान की छुआछूत, जात-पाँत; हिन्दू-मुस्लिम का अन्तर मिटाना होगा। देखते हो, हम किसी के हाथ का खाने में छुआछूत का ख्याल रखते हैं ?"

"नहीं।"

"अंग्रेजों के भीतर धनी, गरीब के सिवा और छोटी-बड़ी जात-पाँत का ख्याल है?"

"नहीं, और ?"

"सती-प्रथा बन्द करना होगा, लाखों औरतों को हर साल आग में जलाना-इसे क्या तुम समझते हो भगवान क्षमा कर देंगे।"

कोलमैन और तिनकौड़ी दे जब कलकत्ता में अलग होने लगे, तो उन्हें एक-दूसरे से बिछुड़ने का अफसोस हो रहा था। कोलमैन ने आखिर में कहा-

"मित्र ! हम उन्नीसवीं सदी में दाखिल हो गये हैं। दुनिया में उथल-पुथल हो रही है। हमें उथल-पुथल में भाग लेना चाहिए, और इसके लिए पहला काम है, छापाखाना और समाचारपत्र कायम कर जनता को विस्तृत दुनिया की हलचल का ज्ञान कराना।"

3.

अबकी साल वर्षा नहीं हुई। जेठ के सूखे ताल वैसे ही सूखे रह गये। भदई, धान, रबी एक छटाँक भी नहीं हुई। घर के घर मर गये, या उजड़कर भाग गये। धुरदेह का लम्बा झील जब सूखा, तो पचीसों कोस के लोग उसके सूखे पेट में पड़े दिखाई पड़ते थे। वह लोग कमल की जड़-भसींड़-खोदने के लिए आये थे, और कितनी ही बार उसके लिए आपस में झगड़ा हो जाता था।

दूसरे साल जब वर्षा हुई. और मँडुआ (रागी) की पहली फसल में रेखा हसुआ लगा रहा था, तो मँगरी को पास देखकर उसको अचरज होता था ! इस साल भर के भीतर उलट-पलट हो गई मालूम होती थी। घर-घर में अधिकांश लोग मर गये थे, घर-घर के लोग तितर-बितर हो गए थे। रेखा को अचरज इसलिए हो रहा था, कि कैसे वे दो प्राणी प्राण-शरीर को इकट्ठा रखते, अपने भी इकट्ठा रहे ! रेखा इसके लिए धुरदेह का बहुत कृतज्ञ था।

और भी कभी वर्षा के अभाव के कारण अकाल पड़ा होगा। किन्तु, इतना कष्ट शायद कभी रेखा के पहले के किसानों को भुगतान न पड़ा होगा। उस वक्त एक सरकार थी, जिसको लगान भी कम देना पड़ता था। अब कंपनी सरकार के नीचे जमींदारों की जबरदस्त सरकार थी, जिसके गोड़इत -प्यादों के मारे छान पर लौका भी नहीं बचने पाता था। हर फसल की कमाई डेढ़ महीने भी खाने के लिए नहीं बचती थी, फिर अकाल के लिए किसान क्या बचा रखते ?

अगहन में जब मँगरी ने एक बेटा जना, तो रेखा को और आश्चर्य हुआ। अपने पचास साल पर नहीं, क्योंकि मँगरी तीस ही साल की थी, और कई मरे बच्चों की माँ रह चुकी थी, बल्कि अकाल में जब पहले के हाड़-चाम को बचाये रखना मुश्किल था, तब मँगरी ने एक जीव को कैसे जिलाया। सूखा (अकाल) में पैदा होने के कारण रेखा ने लड़के का नाम सुखारी रखा।

माघ के महीने में रामपुर के मालिक अपने हाथी-घोड़े, सिपाही-प्यादे के साथ दयालपुर आये। रेखा ने सुना था, कि मालिक के घर एक भी बबुआ-बबुई नहीं छीजे, अकाल में भी उनके यहाँ सात वर्ष का पुराना चावल चल रहा था। दयालपुर में मालिक की कचहरी गाँव के एक छोर पर थी। उसके सामने पचीस एकड़ का आमों का एक बाग लगाया जाता था, जिसके सींचने-खोदने का काम दयालपुर वालों को बेगार में करना पड़ता था। मालिक ने पचास-पचास अमोला एक-एक घर के जिम्मे लगा दिया था, अमोला सूखने पर सवा रुपया दंड देना पड़ता। रेखा के आगे आने वाली पीढ़ी जमींदारी शान को सनातन चीज मानने जा रही थी। उसके लिए सोबरन राउत और रेखा भगत का बतलाया जमींदारी के पहले का जमाना तथा गाँव में पंचायतों का राज, कहानी होता जा रहा था।

मालिक के प्यादे अकाल के बाद और शोख हो गये थे। वह समझते थे, अकाल किसानों के मन को तोड़ने तथा मालिक के दबदबे को बढ़ाने के लिए आया था। अगहन में रेखा की छान पर जब लौकी की बेल में बतिया लग रही थी, तभी से मालिक के प्यादे मँडराने लगे थे। लोग कह रहे थे, अकाल के बाद रेखा चिड़चिड़ा गया है, किन्तु रेखा को ऐसी कोई बात नई मालूम होती थी। पर बात सच भी थी, वस्तुतः अकाल के बाद गाँव के दूसरे लोग जितने परिमाण में नीचे उतर गये थे, रेखा उनकी तुलना में बहुत ऊपर था, इसलिए उसका व्यवहार चिड़चिड़िया जान पड़ता था। रेखा गोड़इत-प्यादों को छान के गिर्द मँडराते देख बहुत कुढ़ता था, यद्यपि उसने उसे वचन से नहीं प्रकट किया। एक दिन गोड़इत दीवानजी (पटवारी) के लिए लौका तोड़ने के लिए छत पर चढ़ गया। उस वक्त रेखा घर के भीतर सुखारी को गोद में ले पुचकार रहा था। छान के दबने और चरचराने की आवाज सुनाई देते ही रेखा सुखारी को चटाई पर रखकर बाहर चला आया। देखा, गोड़इत छत पर चढ़ा लौका तोड़ रहा है। तीन तोड़ चुका है, चौथे पर हाथ डालने जा रहा है। रेखा के शरीर में आग लग गई। उसने आधे गाँव तक सुनाई देती आवाज में डाँटकर कहा -

"कौन है, हो ?"

"दीवानजी के लिए लौका तोड़ रहे हैं, देख नहीं रहे हो।"- गोरा-गोड़इत ने बिना सिर उठाये कहा।

रेखा ने डपटकर कहा-"हाथ-गोड़ बचाये चुपके से उतर आओ, सुनते हो कि नहीं ?"

"मालिक के गोड़इत (गाँव के चपरासी) का ख्याल है न ?"

"खूब ख्याल है। भलमनसी इसी में है, कि लौका को वहीं छोड़कर उतर आओ।"

गोड़इत चुपके से उतर आया। दीवान जी सब सुन खून की घूँट उस वक्त पी गये। उन्होंने माघ महीने में मालिक के आने के वक्त के लिए इसे छोड़ रखा।

मालिक के आने पर वही गोड़इत शाम को रेखा भगत के घर पर आकर बोला-"कल सबेरे ही मालिक के लिए दो सेर दूध पहुँचाना होगा।"

"हमारे पास भैंस-गाय नहीं है, दूध कहाँ से पहुँचायेंगे ?"

"जहाँ से हो, मालिक का हुक्म है।"

दीवान तो जानता ही था, कि रेखा के पास गाय-भैंस नहीं है, किन्तु उसे तो अब रेखा को ठीक करना था। शाम को ही मालिक के सामने उसने रेखा की सरकशी का खसरा खोल दिया, और यह भी कहा कि सारा गाँव बिगाड़ता जा रहा है। मालिक ने रात ही को तय कर लिया।

सबेरे रेखा का दूध नहीं आया। प्यादा के जाने पर रेखा ने गाय-भैंस के न होने की बात कही। मालिक ने पाँच मुसंडे प्यादों को हुक्म दिया-

"जाओ; हामजादे की औरत का दूध दुहकर लाओ।"

गाँव के कई आदमी वहाँ मौजूद थे, किन्तु उन्होंने यही समझा, कि प्यादा रेखा को पकड़कर लायेंगे। रेखा को बिना कुछ कहने-सुनने को मौका दिये प्यादों ने पकड़कर मुश्क बाँध ली। फिर दो घर में घुस मँगरी को पकड़ लाये। बेबस रेखा खून-भरी आँखों से देख रहा था, जबकि उन्होंने चिल्लाती हुई मँगरी के स्तन को पकड़ कर गिलास में सचमुच कई धार दूध की मारी । प्यादे रेखा को वैसे ही बँधे छोड़ चले गये।

मँगरी शरम के मारे वहीं मुँह छिपाये बैठी रही। रेखा ने भूली हुई जबान को कुछ देर में पाकर कहा-

"मँगरी मत लजा । आज हमारे गाँव की पंचायत जिन्दा रही होती, तो बादशाह भी ऐसा नहीं कर सकता था; किन्तु इस बेइज्जती का मजा चखाऊँगा। यदि असल अहीर के बूंद का हुआ, तो दीवान और रामपुर के मुंशी के कुल में कोई रोने वाला भी नहीं रहेगा। अपमान का न्याय यही मेरे हाथ करेंगे, मँगरी ! ओ मेरे हाथों को छुड़ा।"

मँगरी ने सावन-भादों बनी आँखों के साथ ही रेखा की मुश्कों को खोल दिया। उसने भीतर जा सुखारी को गोद में लेकर उसके मुंह को चूमा, फिर मँगरी से कहा-

"इस घर से जो निकालना हो निकाल कर तुरन्त नैहर चली जा, मैं इस घर में आग लगा रहा हूँ।"

मँगरी रेखा की आवाज पहचानती थी। उसने बच्चे और दो-तीन कपड़ों को लिया, फिर रेखा के पैरों पर पड़ गई। रेखा ने स्वर को अत्यन्त कोमल करके कहा-

"तेरी इज्जत नहीं, गाँव भर की इज्जत का बदला लेना होगा । जा, और सुखारी को बतलाना कि उसका बाप कैसा था। देर न कर, मैं चला बोरसी से आग निकालने ।"

मँगरी दूर जा तब तक घर को देखती रही, जब तक कि उसकी छान से ज्वाला नहीं निकलने लगी। लोग गाँव के छोर पर अवस्थित रेखा के घर की ओर दौड़े और रेखा नंगी तलवार लिए जमींदार की कचहरी की ओर। काल को देख प्यादे गोड़इत भाग चले। रेखा ने मालिक और दीवान को मारते वक्त कहा-"तुम्हारे पीछे रोने वाला नहीं छोड़ूँगा, पापियों !"

रेखा ने अपने वचन को सच किया और प्रतिज्ञा से और भी बड़े पैमाने पर।

कसाई कार्नवालिस् ने कितने ही रेखा पैदा किये।

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