रहमान के जूते (कहानी) : राजिन्दर सिंह बेदी
Rehman Ke Joote (Hindi Story) : Rajinder Singh Bedi
दिन-भर काम करने के बाद, जब बूढ़ा रहमान घर पहुँचा तो भूक उसे बहुत सता रही थी। “जीना की माँ, जीना की माँ।” उसने चिल्लाते हुए कहा, “खाना निकाल दे बस झट से। बुढ़िया उस वक़्त अपने हाथ कपड़ों लत्तों में गीले किए बैठी थी और पेशतर इसके कि वो अपने हाथ पोंछ ले, रहमान ने एक दम अपने जूते खाट के नीचे उतार दिए, और खद्दर के मुल्तानी तहमद को ज़ानुओं में दबा, खाट पर चौकड़ी जमाते हुए बोला, “बिसमिल्लाह।”
बुढ़ापे में भूक जवान हो जाती है। रहमान का ‘बिसमिल्लाह’ बुढ़ापे और जवानी की इस दौड़ में रकाबी से बहुत पहले और बहुत दूर निकल गया था और अभी तक बुढ़िया ने सज्जी और नील में भिगोए हुए हाथ दुपट्टे से नहीं पोंछे थे। जीना की माँ बराबर चालीस साल से अपने हाथ दुपट्टे से पोंछती आई थी और रहमान क़रीब-क़रीब इतने ही अर्से से ख़फ़ा होता आया था, लेकिन आज यक-लख़्त वो ख़ुद भी इस वक़्त बचाने वाली आदत को सराहने लगा था। रहमान बोला, “जीना की माँ, जल्दी ज़रा...” और बुढ़िया अपनी चवालीस साला, दक़यानूसी अदा से बोली। “आए हाय, ज़रा दम तो ले बाबा तू”
सू-ए-इत्तेफ़ाक़ रहमान की निगाह अपने जूतों पर जा थमी, जो उसने जल्दी से खाट के नीचे उतार दिए थे। रहमान का एक जूता दूसरे जूते पर चढ़ गया था। ये मुस्तक़बिल क़रीब में किसी सफ़र पर जाने की अलामत थी। रहमान ने हंसते हुए कहा, “आज फिर मेरा जूता जूते पर चढ़ रहा है, जीना की माँ... अल्लाह जाने मैंने कौन से सफ़र पे जाना है।”
“जीना को मिलने जाना है और कहाँ जाना है?” बुढ़िया बोली। “यूँ ही तो नहीं तेरे गूदड़ धो रही हूँ, बुड्ढे दो पैसे डबल का तो नील ही लग गया है तुम्हारे कपड़न को। क्या तू दो पैसे रोज की कमाई भी करे है?”
“हाँ-हाँ…” बुड्ढे रहमान ने सर हिलाते हुए कहा। “कल मैंने अपनी इकलौती बच्ची को मिलने अंबाले जाना है। तभी तो ये जूता जूते से न्यारा नहीं होता।” पार साल भी जब ये जूता जूते पर चढ़ गया था, तो रहमान को पर्ची डालने के लिए ज़िला कचहरी जाना पड़ा था। उसके ज़ह्न में इस साल का सफ़र और जूतों की करतूत अच्छी तरह से महफ़ूज़ थी। ज़िले से वापसी पर उसे पैदल ही आना पड़ा था, क्योंकि होने वाले मेंबर ने तो वापसी पर उसका किराया भी नहीं दिया था। इसमें मेंबर का क़ुसूर न था, बल्कि जब रहमान पर्ची पर नीली चर्ख़ी का निशान डालने लगा था तो उसके हाथ काँप रहे थे और उसने घबरा कर पर्ची किसी दूसरे मेंबर के हक़ में दे दी थी।
जीना को मिले दो साल होने को आए थे। जीना अंबाले में ब्याही हुई थी। इन दो सालों में आख़िरी चंद माह रहमान ने बड़ी मुश्किल से गुज़ारे थे। उसे यही महसूस होता था जैसे कोई धहकता हुआ उपला उसके दिल पर रखा हुआ है। जब उसे जीना को मिलने का ख़्याल आता तो उसे कुछ सुकून, कुछ इतमीनान मयस्सर होता। जब मिलने का ख़्याल ही इस क़दर तसकीन दह था तो मिलना कैसा होगा? बूढ्ढा रहमान बड़ी हैरत से सोचता था। वो अपनी लाडली बेटी को मिलेगा और फिर तिलंगों के सरदार अली मुहम्मद को। पहले तो वो रो देगा। फिर हंस देगा, फिर रो देगा और अपने नन्हे नवासे को लेकर गलियों, बाज़ारों में खिलाता फिरेगा... ये तो मैं भूल ही गया था, जीना की माँ रहमान ने खाट की एक खुली हुई रस्सी को आदतन घिसा कर काटते हुए कहा... “बुढ़ापे में याददाश्त कितनी कमजोर हो जाती है।”
अली मुहम्मद, जीना का ख़ावंद, एक वजीह जवान था। सिपाही से तरक़्क़ी करते-करते वो नायक बन गया था। तिलंगे उसे अपना सरदार कहते थे। सुलह के दिनों में अली मुहम्मद बड़े जोश-ओ-ख़रोश से हाकी खेला करता था। एन. डब्लयू. आर. पुलिस मैन, ब्रिगेड वाले, यूनीवर्सिटी वाले उसने सब हरा दिए थे। अब तो वो अपनी एमिटी के साथ बसरे जाने वाला था, क्योंकि इराक़ में रशीद अली बहुत ताक़त पकड़ चुका था... इस हॉकी की बदौलत ही अली मुहम्मद कंपनी कमांडर की निगाहों में ऊँचा उठ गया था। नायक बनने से पहले वो जीना से बहुत अच्छा सुलूक करता था, लेकिन उसके बाद वो अपनी ही नज़रों में इतना बुलंद हो गया था कि जीना उसे पाँव तले नज़र न आती थी। इसकी एक और वजह भी थी। मिसेज़ हॉल्ट, कंपनी कमांडर की बीवी ने तक़सीम-ए-इनामात के वक़्त अंग्रेज़ी में अली मुहम्मद से कुछ कहा था, जिसका तर्जुमा सूबेदार ने किया था... “मैं चाहती हूँ तुम्हारी स्टिक चूम लूँ।” अली मुहम्मद का ख़्याल था, लफ़्ज़ स्टिक नहीं होगा, कुछ और होगा। बड़ा हासिद है सूबेदार। अंग्रेज़ी भी तो बस गोहाने तक ही जानता है।
रहमान को यूँ महसूस होने लगा जैसे उसे अपने दामाद से नहीं बल्कि किसी बहुत बड़े अफ़्सर से मिलने जाना है। उसने खाट पर से झुक कर जूते पर से जूता उतार दिया, गोया वो अंबाले जाने से घबराता हो। इस अर्से में जीना की माँ खाना ले आई। आज उसने ख़िलाफ़-ए-मामूल गाय का गोश्त पका रखा था। जीना की माँ ने गोश्त बड़ी मुश्किल से क़स्बे से मंगवाया था और उसमें घी अच्छी तरह से छोड़ा था। छः माह पहले रहमान को तिल्ली की सख़्त शिकायत थी, इसलिए वो तमाम मौलदात-ए-सौदा, गुड़ , तेल, बैंगन, मसूर की दाल, गाय के गोश्त और चिकनी ग़िज़ा से परहेज़ करता था। इस छः माह के अर्से में रहमान ने शायद सेर के क़रीब नौशादर छाछ के साथ घोल कर पी लिया था, तब कहीं उसके साँस की तकलीफ़ दूर हुई थी। भूक लगने के इलावा उसके पेशाब की स्याही सपीदी में बदली थी, लेकिन उसकी गर्दन ब-दस्तूर पतली थी। आँखों में गंदलाहट और तीरगी वैसे ही नुमायाँ थी। पलकों पर की भुरभुराहट भी क़ायम थी और जिल्द का रंग स्याही माइल नीलगूं हो गया था। गाय का गोश्त देखकर रहमान ख़फ़ा हो गया। बोला... “चार पाँच रोज़ हुए तूने बैंगन पकाए थे। जब मैं चुप रहा। परसों मसूर की दाल पकाई जब भी चुप रहा। तू तो बस चाहती है कि मैं बोलूँ ही नहीं... मरी मिट्टी का हो रहूँ। सच कहता हूँ तू मुझे मारने पे तुली हुई है। जीना की माँ।”
बुढ़िया पहले रोज़ से ही, जब उसने बैंगन पकाए थे, रहमान की तरफ़ से इस एहतिजाज की मुतवक़्क़े थी। लेकिन रहमान की ख़ामोशी से बुढ़िया ने उल्टा ही मतलब ले लिया। दरअस्ल बुढ़िया ने क़रीब-क़रीब एक निखट्टू आदमी के लिए अपना ज़ायक़ा भी तर्क कर डाला था। बुढ़िया का सोचने का ढब भी न्यारा था। जब से वो पेट बढ़े हुए इस ढाँच के साथ वाबस्ता हुई थी,उसने सुख ही क्या पाया था। भला चंगा रहमान लुधियाने में सिपाही था, लेकिन एक तरबूज़ पर से फिसल कर घुटना तोड़ बैठने से उसने पेंशन पा ली थी और घर में बैठ रहा था। बुढ़िया ने कपड़े छाँटते हुए कहा... “तो ना खा बाबा... तेरी ख़ातिर मैं तो न मरूँ, मुझे तो रोज़ दाल, रोज़ दाल में कुछ मजा नहीं दिखे।”
रहमान का जी चाहता था कि वो खाट के नीचे से जूता उठा ले और इस बुढ़िया की चन्दिया पर से रहे सहे बालों का भी सफ़ाया कर दे। सर की पुश्म के उतरते ही बुढ़िया का दाइमी नज़ला दूर हो जाएगा। लेकिन चंद ही लुक़्मे मुँह में डालने के फ़ौरन बाद ही उसे ख़्याल आया। तिल्ली होती है तो होती रहे। कितना ज़ाइक़ेदार गोश्त पकाया है मेरी जीना की माँ ने। मैं तो ना-शुक्रा हूँ पूरा पूरा, और रहमान चटख़ारे ले-ले कर तरकारी खाने लगा। सालन का तर किया हुआ लुक़मा जब उसके मुँह में जाता तो उसे ख़्याल आता, आख़िर उसने जीना की माँ को कौन सा सुख दिया है? वो चाहता था कि अब तहसील में चपरासी हो जाये और फिर उसके पुराने दिन वापिस आ जाएँ।
खाने के बाद रहमान ने अपनी उंगलियाँ पगड़ी के शिमले से पोंछीं और उठ खड़ा हुआ। किसी नीम शऊरी एहसास से उसने अपने जूते उठाए और उन्हें दालान में एक दूसरे से अच्छी तरह अलैहदा अलैहदा कर के डाल दिया।
लेकिन इस सफ़र से छुटकारा नहीं था। हरचंद कि अपनी आठ रोज़ा मक्की में नलाई लाज़िमी थी। सुबह दालान में झाड़ू देते हुए बढ़िया ने बे एहतियाती से रहमान के जूते सर का दिए और जूते की एड़ी दूसरी एड़ी पर चढ़ गई। शाम के क़रीब इरादे पस्त हो जाते हैं। सोने से पहले अंबाले जाने का ख़्याल रहमान के दिल में कच्चा-पक्का था। उसका ख़्याल था कि तराई में नलाई कर चुकने के बाद ही वो कहीं जाएगा, और नीज़ कल की मुरग्ग़न ग़िज़ा से उसके पेट में फिर कोई नक़्स वाक़े हो गया था। लेकिन सुबह जब उसने फिर जूतों की वही हालत देखी तो उसने सोचा अब अंबाले जाये बिना छुटकारा नहीं है। मैं लाख इनकार करूँ ,लेकिन मेरा दाना-पानी, मेरे जूते बड़े पुर देन हैं। वो मुझे सफ़र पे जाने के लिए मजबूर करते हैं। उस वक़्त सुब्ह के सात बजे थे और सुबह के वक़्त इरादे बुलंद हो जाते हैं। रहमान ने फिर अपना जूता सीधा किया और अपने कपड़ों की देख-भाल करने लगा।
नील में धुले हुए कपड़े सूख कर रात ही रात में कैसे उजले हो गए थे। नीलाहट ने अपने आपको खो कर सपीदी को कितना उभार दिया था। जब कभी बुढ़िया नील के बग़ैर कपड़े धोती थी तो यूँ ही दिखाई देता था जैसे अभी उन्हें जोहड़ के पानी से निकाला गया हो और पानी की मटियाली रंगत उनमें यूँ बस गई हो जैसे पागल के दिमाग़ में वाहिमा बस जाता है।
जीना की माँ ओखली में मुतवातिर दो तीन दिन से जौ कूट कर तंदुल बना रही थी। घर में अरसे से पुराना गुड़ पड़ा था जिसे धूप में रखकर कीड़े निकाल दिए गए थे। इसके इलावा सूखी मक्की के भुट्टे थे। गोया जीना की माँ बहुत दिनों से इस सफ़र की तैयारी कर रही थी और जूते का जूते पर चढ़ना तो महज़ उसकी तसदीक़ थी। बुढ़िया का ख़्याल था कि इन तंदुलों में से रहमान का ज़ाद-ए-राह भी हो जाएगा और बेटी के लिए सौग़ात भी।
रहमान को कोई ख़्याल आया। बोला... “जीना की माँ भला क्या नाम रखा है उन्होंने अपने नन्हे का?”
बुढ़िया हंसते हुए बोली, “साहिक (इसहाक़) रखा है नाम, और क्या रखा है नाम उन्होंने अपने नन्हे का। वाह सच-मुच कितनी कमजोर है तेरी याददाश।”
इसहाक़ का नाम भला रहमान कैसे याद रख सकता था। जब वो ख़ुद भी नन्हा था तो उसके दादा को भी रहमान का नाम भूल गया था। दादा खाता पीता आदमी था, उसने चाँदी की एक तख़्ती पर अरबी लफ़्ज़ों में रहमान लिखवा कर उसे अपने पोते के गले में डाल दिया था। लेकिन पढ़ना किसे आता था। बस वो तख़्ती को देखकर हंस दिया करता था। उन दिनों तो नाम गामों शेरा, फुत्तू, फ़ज्जा वग़ैरा ही होते थे। इसहाक़, शुऐब वग़ैरा नाम तो अब कसबाती लोगों ने रखने शुरुअ कर दिए थे। रहमान सोचने लगा... साहिक अब तो डेढ़ बरस का हो चुका होगा। अब उसका सर भी नहीं झूलता होगा। वो गर्दन उठा मेरी तरफ़ टुक-टुक देखता जाएगा और अपने नन्हे से दिल में सोचेगा, अल्लाह जाने ये बाबा, चिट्टे बालों वाला बूढ़ा हमारे हाँ कहाँ से आ टपका। वो नहीं जानेगा कि उसका अपना बाबा है, अपना नाना, जिसके गोश्त-पोस्त से वो ख़ुद भी बना है। वो चुपके से अपना मुँह जीना की गोद में छिपा लेगा। मेरा जी चाहेगा जीना को भी अपनी गोदी में उठा लूँ। लेकिन जवान बेटियों को कौन गोदी में उठाता है... नाहक़ इतनी बड़ी हो गई जीना। बचपन में वो जब खेल कूद कर बाहर से आती थी तो उसे सीने से लगा लेने से कितनी ठंड पड़ जाती थी। उन दिनों ये दिल पर सुलगता हुआ उपला रखा नहीं महसूस होता था... अब वो सिर्फ़ उसे दूर से ही देख सकेगा। उसका सर प्यार से चूम लेगा... और... क्या वही तसकीन हासिल होगी।
रहमान को इस बात का तो यक़ीन था कि वो उन सबको देखकर बे-इख़्तियार रो देगा। वो आँसू थामने की लाख कोशिश करेगा, लेकिन वो आपी आप चले आएँगे। वो इसलिए नहीं बहेंगे कि तिलंगा उसकी बेटी को पीटता है। बल्कि ज़बान के तवील क़िस्सों की बजाय, आँखों से इस बात का इज़हार कर देगा कि जीना, मेरी बेटी, तेरे पीछे मैंने बहुत कड़े दिन देखे हैं। जब चौधरी ख़ुशहाल ने मुझे मारा था तो उस वक़्त मेरी कमर बिलकुल टूट गई थी। मैं मर ही तो चला था। फिर तू कहाँ देखती अपने अब्बे को? लेकिन बिन आई कोई नहीं मरता। शायद मैं तुम्हारे या साहके या किसी और नेक-बख़्त के पाँव की ख़ैरात, बच रहा। और क्या नन्हे का लहू जोश मारने से रह जाएगा? वो हुमक कर चला आएगा मेरे पास, और मैं कहूँगा। साहिक बेटा, देख मैं तेरे लिए लाया हूँ तंदुल, और गुड़, और खिलौने और... बहुत कुछ लाया हूँ। हाँ, गावों के लोगों का यही गरीबी दावा होता है। नन्हा मुश्किल से दाँतों में पपोल सकेगा किसी हरे भुट्टे को, और जब तिलंगे से मेरी तू-तू मैं-मैं होगी तो मैं उसे ख़ूब खरी-खरी सुनाऊँगा। बड़ा समझता है अपने आपको। कल की गिलहरी और... और... वो नाराज़ हो जाएगा। कहेगा, घर रखो अपनी बेटी को... फिर मैं उसके बेटे को उठाए फिरूंगा। गली-गली , बाज़ार-बाज़ार... और मान जाएगा तिलंगा।
रहमान ने नलाई का बंद-ओ-बस्त किया। खड़ी खेती की क़सम पर कुछ रुपय उधार लिए। सौग़ात बाँधी। ज़ाद-ए-राह भी, और इक्के पर पाँव रख दिया। बुढ़िया ने उसे अल्लाह के हवाले करते हुए कहा, “बसरे चला जाएगा अलिया चंद रोज में। मेरी जीना को साथ ही लेते आना और मेरे साहके को, कौन जाने कब दम निकल जाये!”
मलिका रानी से मानक पूर पहुँचते-पहुँचते रहमान ने इसहाक़ के लिए बहुत सी चीज़ें ख़रीद लीं। एक छोटा सा शीशा था। एक सेलो लॉयड का जापानी झुनझुना जिसमें निस्फ़-दर्जन के क़रीब घुंघरू एक दम बज उठते थे। मानक पुर से रहमान ने एक छोटा सा गडेरा भी ख़रीद लिया ताकि इसहाक़ उसे पकड़ कर चलना सीख जाये। कभी रहमान कहता अल्लाह करे, इसहाक़ के दाँत इस क़ाबिल हूँ कि वो भुट्टे खा सके। फिर एक दम उसकी ख़ाहिश होती कि वो इतना छोटा हो कि चलना भी न सीखा हो और जीना की पड़ोसनें जीना को कहें... नन्हे ने तो अपने नाना के गडेरे पर चलना सीखा है और रहमान नहीं जानता था कि वो नन्हे को बड़ा देखना चाहता है या बड़े को नन्हा। सिर्फ उसकी ख़ाहिश थी कि उसके तंदुल, उसके भुट्टे, उसका शीशा, उसका जापानी झुनझुना और बाक़ी ख़रीदी हुई चीज़ें सब सफल हों। उन्हें वो क़ुबूलीयत हासिल हो जिसका वो मुतमन्नी है। कभी वो सोचता ,क्या जीना गावों के गँवार लोगों के इन तहाइफ़ को पसंद करेगी? क्या मुम्किन वो महज़ उसका दिल रखने के लिए इन चीज़ों को पाकर बाग़-बाग़ हो जाये। लेकिन क्या वो सिर्फ़ मेरा जी रखने के लिए ही ऐसा करेगी? फिर तो मुझे बहुत दुख होगा। क्या मेरे तंदुल सच-मुच उसे पसंद नहीं आ सकते? मेरी बेटी को, मेरी अपनी जीना को। अलिया तो पराया पेट है वो तो कुछ भी नहीं पसंद करने का। वो तो नायक है। अल्लाह जाने, साहब लोगों के साथ क्या कुछ खाता होगा। वो क्यों पसंद करने लगा। गावों के तंदुल, और मानक पुर से रवाना होते हुए रहमान काँपने लगा।
रहमान पर जिस्मानी और ज़हनी थकावट की वजह से ग़ुनूदगी सी तारी हो गई। रात के गोश्त ने उसके पेट का शैतान जगा दिया था। आँखों में गंदलाहट और तीरगी तो थी ही, लेकिन कुछ सफ़र, कुछ मुरग्ग़न ग़िज़ा की वजह से आँखों में से शोले लपकने लगे। रहमान ने अपने पेट को दबाया। तली वाली जगह फिर ठस सी मालूम होती थी। जीना की माँ ने नाहक़ गाय का गोश्त पकाया। लेकिन इस वक़्त तो उसे दुपट्टे से हाथ पोंछना और गाय का गोश्त दोनों चीज़ें पसंद आई थीं।
रहमान को एक जगह पेशाब की हाजत हुई और उसने देखा कि उसका क़ारूरा स्याही माइल गदला था। रहमान को फिर वह्म हो गया। बहरहाल, उसने सोचा, मुझे परहेज़ करना चाहिए। पुराना मर्ज़ फिर ऊद कर आया है।
गाड़ी में, खिड़की की तरफ़ से, शुमाली हुआ फ़र्राटे भर्ती हुई अंदर दाख़िल हो रही थी। दरख़्तों के नज़र के सामने घूमने, कभी आँखें बंद करने और खोलने से रहमान को गाड़ी बिलकुल एक पंगूरे की तरह आगे-पीछे जाती हुई मालूम होती थी। दो-तीन स्टेशन एक ऊँघ सी में निकल गए। जब वो करनाल से एक दो स्टेशन परे ही था तो उसकी आँख खुल गई। उसकी सीट के नीचे से गठरी उठा ली गई थी। सिर्फ उसके अपने गुज़ारे के लिए तंदुल और चादर के पल्लू में बंधे हुए मक्की के भुट्टे रह गए थे, या उसके फैले हुए पाँव में गडेरा खड़ा था।
रहमान शोर मचाने लगा। उस डिब्बे में एक दो अच्छी वज़ा क़ता के आदमी अख़बार पढ़ रहे थे। बुड्ढे को यूँ सीख़ पा होता देखकर चलाए, “मत शोर मचाओ, ए बुड्ढे, मत गुल करो।” लेकिन रहमान बोलता चला गया। उसके सामने एक बटी हुई मूंछों वाला कांस्टेबल बैठा था। रहमान ने उसे पकड़ लिया और बोला “तूने ही मेरी गठड़ी उठवाई है, बेटा!” कांस्टेबल ने एक झटके से रहमान को परे फेंक दिया। इस खींचा-तानी में रहमान का दम फूल गया। बाबू फिर बोले। तू सो क्यों गया था बाबा? तू सँभाल के रखता अपनी गठड़ी को, तेरी अक़्ल चरने गई थी बाबा।
रहमान उस वक़्त सारी दुनिया के साथ लड़ने को तैयार था। उसने कांस्टेबल की वर्दी फाड़ डाली। कांस्टेबल ने गडेरे का लट्ठा खींच कर रहमान को मारा। इसी अस्ना में टिकट चैकर दाख़िल हुआ। उसने भी ख़ुशपोश लोगों की राय का पल्ला देखकर रहमान को गालियाँ देना शुरुअ किया और रहमान को हुक्म दिया कि वो करनाल पहुँच कर गाड़ी से उतर जाये। उसे रेलवे पुलिस के हवाले किया जाएगा। चैकर के साथ लड़ाई में एक लात रहमान के पेट में लगी और वो फ़र्श पर लेट गया।
करनाल आ चुका था। रहमान, उसकी चादर और गडेरा प्लेटफार्म पर उतार दिए गए। गडेरे की लठ, जिस्म से अलैहदा, ख़ून में भीगी हुई एक तरफ़ पड़ी थी और मक्की के भुट्टे खुली हुई चादर से निकल कर फ़र्श पर लुढ़क रहे थे।
रहमान के पेट में बहुत चोट लगी थी। उसे स्ट्रेचर पर डाल कर करनाल के रेलवे हस्पताल में ले जाया गया।
जीना, साहका, अली मुहम्मद, जीना की माँ... एक-एक कर के रहमान की नज़रों के सामने से गुज़रने लगे। ज़िंदगी की फ़िल्म कितनी छोटी होती है। इसमें बमुशकिल तीन चार आदमी और एक दो औरतें ही आ सकती हैं। बाक़ी मर्द औरतें भी आती हैं, लेकिन उनमें से कुछ भी तो याद नहीं रहता। जीना, साहका, अली मुहम्मद और जीना की माँ... या कभी-कभार इन्ही चंद लोगों के लिए कश्मकश के वाक़ियात ज़ह्न में ताज़ा हो जाते हैं, मसलन गडेरा प्लेटफार्म पर पड़ा हुआ, और मक्की के लुढ़कते हुए भुट्टे जिन्हें ख़लासियों, वाच मैनों, सिगनल वालों के आवारा छोकरे उठा-उठा कर भाग रहे हों और उनके काले-काले चेहरों में सफ़ेद दाँत बिलकुल इसी तरह दिखाई दें, जैसे इस तारीक से पस-ए-मंज़र में उनकी हंसी, उनके क़हक़हे... या दूर कोई पुलिस मैन अपनी डायरी में चंद ज़रूरी-ओ-ग़ैर ज़रूरी तफ़ासील लिख रहा हो।
“फिर लात मारी...”
“ईं? ये नहीं हो सकता... अच्छा, फिर लात मारी”
“और फिर…”
फिर हस्पताल के सफ़ैद बिस्तरे, कफ़न की तरह मुँह खोले हुए चादरें, क़ब्रों की तरह चारपाइयाँ, इज़राईल नुमा नर्सें और डाक्टर…
रहमान ने देखा उसकी तंदुलों वाली चादर हस्पताल में उसके सिरहाने पड़ी थी। ये भी वहीं छोड़ आए होते। रहमान ने कहा। इसकी मुझे क्या ज़रूरत है? इसके इलावा रहमान के पास कुछ भी न था। डाक्टर और नर्स उसके सिरहाने खड़े हर लख़्त लट्ठे की सफ़ैद चादर को मुँह की जानिब खिसका देते थे… रहमान को क़ै की हाजत महसूस हुई। नर्स ने फ़ौरन एक चिलमची बेड के नीचे सरका दी। रहमान क़ै करने के लिए झुका और उसने देखा कि उसने अपने जूते बदस्तूर जल्दी से चारपाई के नीचे उतार दिए थे और जूते पर जूता चढ़ गया था। रहमान एक मैली सी, सुकड़ी हुई हंसी हिंसा और बोला, ”डाकदार जी मुझे सफ़र पे जाना है, आप देखते हैं मेरा जूता जूते पर कैसे चढ़ रहा है।”
डाक्टर जो अब मुस्कुरा दिया और बोला। “हाँ बाबा, तूने बड़े लंबे सफ़र पे जाना है, बाबा...” फिर रहमान के सिरहाने की चादर टटोलते हुए बोला। “लेकिन तेरा ज़ाद-ए-राह कितना नाकाफ़ी है बाबा... यही फ़क़त तंदुल और इतना लंबा सफ़र...” बस जीना, जीना की माँ, साहका और अली मुहम्मद या वो अफ़सोसनाक वाक़िया...
रहमान ने ज़ाद-ए-राह पर अपना हाथ रख दिया और एक बड़े लंबे सफ़र पे रवाना हो गया।