रथ के पहिये : आनंद प्रकाश जैन

Rath Ke Pahiye : Anand Prakash Jain

मृत्युदंड!

सात दिन तक जीवन के सभी आमोद-प्रमोद सुलभ, और उसके बाद चरमदंड! प्रियदर्शी ने सहोदर विताशोक के लिए यही विधान निश्चित किया था। बौद्ध-धर्मावलंबियों पर उसने अनुचित लांछन लगाए थे...परम राजद्रोही की भूमिका में उसने षड्यंत्र करके पाटलिपुत्र के पवित्र राजसिंहासन पर पाँव रखा था और देवानांप्रिय प्रियदर्शी अशोक का न्याय-विधान अपने-पराए सभी के लिए समान था। अपराधी को उसके समस्त समर्थकों से विलग करके एक विशाल अट्टालिका में बंद कर दिया गया था।

यह अट्टालिका नगर की सर्वमोहिनी, सर्वश्रेष्ठ नर्तकी महामाया की मायानगरी थी। सुंदरी महामाया को प्रियदर्शी के दंड-विधान से सूचित कर दिया गया था। एक सुसज्जित रथ जब महामाया के द्वार पर खड़खड़ करता आकर रुका था, तो वह स्वयं उस अभागे राजकुमार का स्वागत करने के लिए अट्टालिका से निकल आई थी। इसके बाद उसकी चपल परिचारिकाओं ने उस विचित्र राजबंदी को हाथो-हाथ उठा लिया था। उन्होंने उसे नहलाया-धुलाया, नवीन परिधान पहनाए, बालों में सुगंधित तेल-मर्दन करके उन्हें सुव्यवथित किया और जब विताशोक अलक्ष्य के प्रति प्रार्थना से निवृत्त हो गया, तो देवी महामाया दो थालियों में उत्तम फलों का अल्पाहार लेकर स्वयं उपस्थित हुई।

विताशोक ने दृष्टि उठाकर उसे सिर से लेकर पाँव तक देखा। बालों में प्राकृतिक फूलों का गुंफन, होंठों पर सुगंधित रंगछाल से उत्पन्न की गई लाली, भौंहों में प्राकृतिक वन-विन्यास, दो जुड़वाँ मधुकलशों की एक ग्रीवा...महामाया के पार्थिव शरीर पर प्रत्येक अंग अनुपम था।

कोमल वाणी में उसने कहा, ‘‘कुमार विताशोक, प्रणाम स्वीकार करें। यह दासी का असीम सौभाग्य है कि कुमार मेरे अतिथि होकर आए हैं।’’

‘‘हाँ,’’ विताशोक ने निस्तेज मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘केवल सात दिन के लिए।’’

सुंदरी महामाया की मुसकराहट में तनिक भी अंतर नहीं पड़ा। उसने उसी मुद्रा में कुमार विताशोक की ओर देखा। गौरवर्ण, उन्नत ललाट, लंबी नासिका, मुख पर एक विचित्र भोलापन, जो होंठों के ऊपर उभरे हुए कत्थई श्मश्रुओं में तेज उत्पन्न कर रहा था; किंतु नेत्रों में एक अवसाद। महामाया हौले से हँसी। अल्पाहार के थालों को पहले से ही बिछाई हुई चौकियों पर रखकर उसने कहा, ‘‘इन सातों दिनों के लिए प्रियदर्शी ने इस दासी पर जो कृपा की है, उससे मैं जीवन भर उऋण नहीं हो पाऊँगी। मौर्यवंश में कुमार विताशोक सूर्य के समान तेजस्वी हैं, इसे कौन नहीं जानता? जिस नारी को पूरे सात दिनों तक ऐसे सूर्य का सान्निध्य मिले, वह स्वयं भी एक छोटी-मोटी तारिका में परिवर्तित हो जाए तो क्या आश्चर्य!’’

उसे खुलकर मुसकराना पड़ा। महामाया जब उसके आसन से सटे हुए पुष्प-सज्जित आसन पर बैठ गई, तो धीमे से कुमार ने मुँह को तनिक उसके निकट लाकर कहा, ‘‘अस्तोन्मुख सूर्य के अवसान के बाद निश्चय ही तारिकाओं का उदय होता है, देवी! मेरी शुभकामना है कि रात भर तुम्हारा कलेवर देदीप्यमान रहे।’’

महामाया ने एक अंगूर उठाकर कुमार की ओर बढ़ाया और बोली, ‘‘यह शुभकामना देने वाला सूर्य बड़ा छलिया होता है, कुमार।’’

अंगूर को दो उँगलियों के बीच पकड़ते हुए कुमार ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

महामाया ने एक बड़ा-सा काला अंगूर उठाया और हँसकर कहने लगी, ‘‘जानते हैं कुमार?’’

‘‘नहीं, हम नहीं जानते।’’ विताशोक ने प्रश्नसूचक मुद्रा में कहा।

उसी समय अट्टालिका के द्वार पर किसी राजरथ की चर्ख-चूँ आकर रुक गई। महामाया उठकर वातायन तक गई, फिर लौटते हुए बोली, ‘‘महाराज भद्रायण हैं। क्षमा करें, मुझे जाना होगा, कुमार।’’

‘‘किंतु प्रश्न का उत्तर दिए बिना नहीं।’’ कुमार ने कहा।

महामाया फिर खिलखिलाई और हाथ में अभी तक थमा बड़ा काला अंगूर कुमार के तनिक खुले मुँह में ठूँसकर वह यह कहती हुई दौड़ गई, ‘‘रात में बिखरी हुई तारिका की रूपसुधा का पान करने के लिए भुवन-भास्कर निरंतर पंद्रह दिन तक उचक-उचककर चंद्रमा के वातायन से झाँकते रहते हैं।’’

अनिंद्य सुंदरी कक्ष की सुगंधि में हलचल उत्पन्न करती हुई चली गई और कुमार विताशोक विभ्रमित-सा बैठा रह गया। जब तक वह लौटकर नहीं आई, तब तक वह यही सोचता गया कि मृत्यु को भुलावा देनेवाला वह सौंदर्य निस्सर्ग ने किस अवकाश में गढ़ा है।

इस बार जब वह आई, तो उसकी परिचारिका के हाथों में दो पेय-पात्र थे। अल्पाहार की थालियों की ओर देखकर महामाया ने कहा, ‘‘कुमार, सोचते ही रहेंगे—थोड़ा-सा जलपान नहीं करेंगे क्या?’’

विताशोक ने कुछ नहीं कहा। जब परिचारिका चली गई, तो उसने सीधे स्वर में पूछा, ‘‘महामात्र किसलिए आए थे?’’

स्मित मुद्रा में महामाया ने उत्तर दिया, ‘‘प्रियदर्शी जानना चाहते थे कि उनके बंदी को कोई कष्ट तो नहीं है।’’

‘‘तुमने क्या उत्तर दिया?’’

‘‘मैंने महामात्र से कह दिया कि जो जन अपने अतिथेय को कष्ट देना जानते हैं, उन्हें कोई कष्ट उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता।’’ और महामाया कुमार पर फिर मायावी दृष्टि डालकर मुसकराई।

विताशोक सीधा हो गया। ‘‘क्या मैंने तुम्हें कोई कष्ट दिया है?’’

‘‘हाँ’’ नर्तकी ने कहा, ‘‘बहुत बड़ा कष्ट दिया है, कुमार! हृदय में अग्नि प्रज्वलित कर दी है!’’

‘‘ओह!’’ कुमार फिर उठंग गया, ‘‘यह अग्नि प्रीति की होगी!’’

‘‘कदाचित्...कह नहीं सकती,’’ महामाया स्वर को अत्यंत धीमा करके बोली। फिर थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा, ‘‘यह अग्नि बहुतों ने प्रज्वलित करने की चेष्टा की है, कुमार...किंतु वे स्वयं जल-जलकर चले गए हैं। किंतु कुमार बिना प्रयत्न के ही इसमें सफल हो गए हैं।’’

‘‘हूँ!’’ वितृष्णा से कुमार ने कहा, ‘‘निश्चिंत हो जाओ, देवी महामाया! यह सात दिनों की आग है, फिर बुझ जाएगी।’’

‘‘कदाचित्।’’

‘‘सुनो, महामाया,’’ कठोर किंतु अविकल स्वर में कुमार ने कहा, ‘‘तुम नगरवासी हो और तुम्हारा यह प्रेमालाप बहुत भव्य है। प्रियदर्शी तुमसे यही अपेक्षा रखते हैं। तुम प्रियदर्शी को बराबर सूचना दे सकती हो कि तुम्हारा आतिथ्य तुम्हें पर्याप्त कष्ट दे रहा है। हम उसे झुठलाएँगे नहीं। किंतु इन सात दिनों में हमें बहुत चिंतन करना है। यदि तुम निर्विरोध हमें यह चिंतन करने दोगी, तो तुम्हें इस वास्तविक सेवा का अचिंत्य पुरस्कार मिलेगा।’’

महामाया के मुख से सहसा ही समस्त हास्य-भाव लुप्त हो गया। उसका मुख एक ही क्षण में पीले उबटन का आश्रित हो गया। आश्चर्य के कारण उसकी मनोहर दंत-पंक्तियों के बीच की रेखा परिलक्षित होने लगी।

वह खड़ी हो गई। विनम्र किंतु अविचल स्वर में उसने यथासाध्य संयम रखते हुए कहा, ‘‘कुमार, सत्य कहते हैं। मैं नगरनारी हूँ और प्रियदर्शी की क्रीत दासी हूँ। उनकी आज्ञा का पालन ही मेरा कर्तव्य है। महामात्र भद्रायण ने यह शिक्षा कुमार के पदार्पण से पहले ही मुझे देने की कृपा की थी। प्रेमालाप के इस भव्य प्रदर्शन से थोड़ी-सी देर के लिए ही कुमार का मनोरंजन हो सका। इससे इस नगरनारी की कला सार्थक हुई। दासी प्रस्थान की अनुमति चाहती है। किंतु दासी को अलग करके कदाचित् ही कुमार कोई चिंतन कर पाएँ।’’

‘‘इसमें भी कदाचित्!...क्यों?’’ विताशोक ने पूछा।

‘‘इसलिए कि भय जड़ता को जन्म देता है, चिंतन को नहीं।’’

‘‘ओह!’’ विताशोक ने भौंह चढ़ाकर आश्चर्य से कहा, ‘‘देवी, हमें भयग्रस्त देख रही हैं? देवी को मनपर्यय ज्ञान मालूम होता है!’’

‘‘हाँ, कुमार,’’ दृढ़ता के साथ महामाया बोली, ‘‘यदि यह मनपर्यय ज्ञान न हो, तो नगरनारी एक दिन में लुट जाए। इस वाचालता के लिए कुमार क्षमा करें—और साथ ही इस कथन के लिए दासी को अनुमति प्रदान करें कि मात्र चिंतन मनुष्य को अकर्मण्यता व निराशा के गह्वर की ओर ले जाता है। चिंतन तभी सार्थक होता है, जब वह प्रयोग पर आश्रित होता है। बिना नारी के पुरुष का समस्त चिंतन प्रयोगहीन है।’’

‘‘बहुत सुंदर!’’ विताशोक खिलखिलाकर हँसा, ‘‘सभी धर्मों के अधिष्ठाता कहते हैं कि नारी नरक की खान है। मालूम होता है, नगरनारी बनकर तुमने कुछ नवीन सिद्धांत खोज निकाले हैं!’’

‘‘नरक से भय खाने वालों का चिंतन भी जड़ होता है,’’ महामाया खड़े-खड़े ही बोली, ‘‘जड़ता ही इन लोगों के दर्शन का चरम सत्य है। भिन्न-भिन्न मार्गों की इस जड़ता तक पहुँचने का उपदेश देनेवाले यह अधिष्ठाता जिस नरक की खान को पीछे छोड़ आते हैं, चेतनावाप प्रगति का सत्य वहीं अटका रह जाता है...और नगरनारी उनके जड़ चिंतन से टपका हुआ एक फल है, समाज-रचना के प्रयोग में केवल चिंतन पर बल देने का परिणाम है।’’

आश्चर्यकीलित विताशोक के मुँह से सहसा ही निकला, ‘‘देवि, तुम विदुषी हो...मुझे मालूम नहीं था!’’

‘‘केवल इतना ही मालूम था कि मैं एक नगरनारी हूँ?’’ महामाया ने कहा, ‘‘कुमार विताशोक, इन सात दिनों को शोक-संतप्त होकर बिताने से अपने नाम को सार्थक नहीं कर पाएँगे। सम्राट् अशोक ने यह सात दिन आपको इसलिए दिए हैं कि आप रोएँ, हाथ मलें, आँसू बहाएँ और इस लघु जीवन के प्रयोग के मूल को ही अलग करके आप बलवान सम्राट् के उद्देश्य की पूर्ति करेंगे। शत्रु का उद्देश्य सार्थक करनेवाला कभी विजयी नहीं होता। प्रियदर्शी इन सात दिनों में आपके सात सिर काटना चाहते हैं। प्रत्यक्ष में उन्होंने एक ही सिर काटने का दंड दिया है। ध्यान रखिए, उनके हाथ एक ही सिर लगना चाहिए...अब मुझे आज्ञा दें। मैं जाती हूँ।’’

कुमार विताशोक जड़ की भाँति बैठा रह गया। उसे स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि नगरनारी के रूप में महामाया उसे इस प्रकार झकझोर कर चली जाएगी। उसने उसका अपमान किया था, इस आशय से कि दंड देनेवाले की ओर से उसके लिए वह एक विद्रूप के रूप में आई थी, और उसका तिरस्कार करके वह वीरता के साथ अपनी मृत्यु का आह्वान करेगा। किंतु अब सुझाने पर उसे प्रतीत हुआ कि जिसे वह वीर भाव समझ रहा था, वह मात्र मृत्यु का भय था। अब उसे पता चला था कि जिस विद्रूप को सम्राट् ने उसका उपहास करने के लिए उसके ऊपर छोड़ा था, वह स्वयं सचेत व विज्ञ था। उसके भीतर लघु जीवन का एक सार्थक दर्शन था। बार-बार उसके कानों में महामाया के वे शब्द गूँजते रहे, ‘‘...प्रियदर्शी इन सात दिनों में आपके सात सिर काटना चाहते हैं। प्रत्यक्ष में उन्होंने एक ही सिर काटने का दंड दिया है। ध्यान रखिए, उनके हाथ एक ही सिर लगना चाहिए।’’

रात अपना काला आवरण संसार के ऊपर डालती जा रही थी। अट्टालिका दीपकों के प्रकाश से जगमगाने लगी थी। दो परिचारिकाएँ छाया की भाँति कक्ष के द्वार से लगी थीं। उन्हीं में से एक को बुलाकर विताशोक ने कहा, ‘‘देवी महामाया से कहो कि हम उन्हें बुलाते हैं।’’

परिचारिका चली गई। कुछ देर बाद जब वह लौटी, तो उसने देखा कि विताशोक विचारमग्न कक्ष के फर्श को ही मानो नाप रहा था। परिचारिका को देखकर उसने व्यग्रता से पूछा, ‘‘देवी ने क्या कहा?’’

‘‘कुमार, क्षमा करें,’’ दासी ने कहा, ‘‘देवी ने कहा है कि उनका चित्त स्वस्थ अवस्था में नहीं है, इसलिए आशा है कुमार क्षमा करेंगे।’’

‘‘हूँ!’’ विताशोक के मुँह से निकला। तिरस्कृत प्रिय जन मान का अधिकारी हो जाता है।

उस रात विताशोक की आँख नहीं लगी...और जब तीसरे पहर कुछ लगने लगी, तभी किसी राजरथ की खड़-खड़ ने उसे तिरोहित कर दिया। उसने उठकर वातायन से झाँका। अट्टालिका के निचले भाग के सामने फैले हुए मैदान की कालिमा दृष्टिगोचर हुई, और उस कालिमा में से निकलकर अट्टालिका के भीतर प्रवेश करती हुई महामात्र भद्रायण की छायाकृति या फिर उन प्रहरियों के पदचाप की ध्वनि उसे सुनाई दी, जिसे सारी सात जागकर देवी महामाया के रंगमहल में बंद उस राजकीय बंदी को वध के लिए सुरक्षित रखे रहने के लिए उत्तरदायी थी।

और उस दिन अशोक विताशोक का पहला सिर काटने में सफल नहीं हो सका, क्योंकि जो सिर काटा जानेवाला था, वह मृत्यु के स्थान पर नारी-हृदय के रहस्यों को सुलझाता रहा।

अगले दिन पाटलिपुत्र की वह जनप्रिय नगरवधू अनुपम साजसिंगार के साथ विताशोक के कक्ष में आई। आज भी उसके मुख पर वही मुसकराहट थी, वही वैभव था, वही दीप्ति थी। कुमार को प्रणाम कर उसने कहा ‘‘आज मैं कुमार से प्रेमालाप नहीं करूँगी। जानते हैं, रात के तीसरे प्रहर महामात्र भद्रायण क्या समाचार लाए थे?’’

‘‘जब तक देवी बताएँगी नहीं, तब तक कैसे जानेंगे हम?’’ विताशोक ने कहा।

‘‘यही कि प्रियदर्शी को रात भर नींद नहीं आई...और जब जागते-जागते तीसरा प्रहर होने को आया, तो उन्होंने महामात्र भद्रायण को बुलाकर यह जानने के लिए यहाँ भेजा कि कुमार विताशोक आनेवाली मृत्यु की यंत्रणा भोग रहे हैं या नहीं।’’

‘‘क्या पता लगा महामात्र को?’’ विताशोक ने उत्सुकता के साथ पूछा।

‘‘यही कि कुमार विताशोक कभी के समाप्त हो चुके हैं। उनकी जगह एक भयग्रस्त मानव का कंकाल मात्र है, जिसके लिए जीवन के समस्त सुख विडंबना के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं।’’

‘‘यह तुमने अपने कल के तिरस्कार का बदला लिया?’’ विताशोक ने दुखित भाव से कहा।

महामाया उसी आसन पर बैठ गई, जिस पर कल बैठी थी। उसी भाँति मुसकराकर उसने कहा, ‘‘कुमार, ऋण चुकाने में इतना दुःख क्यों? यही तो ऋण चुकाने का श्रेष्ठ अवसर है।’’

‘‘मुझे कोई दुःख नहीं, देवी!’’ विताशोक बोला।

‘‘तो सुनो,’’ महामाया बोली, ‘‘मैं आनेवाले शेष दिनों के लिए आपको खोना नहीं चाहती, सम्राट् इस आवास को यंत्रणागृह समझते रहें, यही मेरे लिए शुभ है। जाना ही है तो किसी का प्यार लेकर जाओ। इससे यात्रा सुगम हो जाएगी, कुमार।’’

विताशोक ने चौंककर देवी महामाया की ओर देखा, उसके नयनों में अपूर्व मादकता थी। उसके होंठ काँप रहे थे। उसकी ग्रीवा पर ग्रंथियों का उतार-चढ़ाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा था।

एक अव्यक्त आह्लाद के साथ कुमार विताशोक ने नगरनारी के अधरों पर अपने शेष जीवन की समस्त उत्तेजना अंकित कर दी।

उस रात प्रणयी के मनोरंजन के लिए प्रेयसी ने अपने जीवन का सबसे अधिक मनोयोगपूर्ण नृत्य पेश किया। देवी महामाया की अट्टालिका एक ऐसे विलास-भवन में परिवर्तित हो गई, जहाँ नववधू के भविष्य का श्रृंगार हो रहा हो...और इस प्रकार छह दिन व छह विभावरी बीत गईं। विताशोक भूल गया कि शेष रात्रि के बीत जाने पर वह स्वयं निःशेष हो जाएगा।

किंतु सातवीं रात को देवी महामाया उसका अभिनंदन करने के लिए नहीं आई। पल-पर-पल, घड़ी-पर-घड़ी बीतते चले गए। विताशोक विकल हो गया, परिचारिका से पूछने पर पता चला कि देवी किन्हीं आवश्यक कार्यों में व्यस्त हैं। दो प्रहर बीतने पर भी देवी के दर्शन नहीं हुए, तो विताशोक के मन पर अवसाद और आशंकाओं का कुहासा छाने लगा।

अर्ध-रात्रि बीत जाने पर कक्ष के द्वार पर खट-खट हुई, तो वह उछल पड़ा। झपटकर उसने द्वार खोल दिए। महामाया द्वार के बीचो-बीच खड़ी थी। उसके मुख पर सौम्यता थी, किंतु नेत्रों में गंभीरता परिलक्षित हो रही थी।

उसने भीतर आकर कक्ष के कपाट स्वयं बंद किए और हौले से बोली, ‘‘कुमार, तैयार हो जाइए। हम लोगों ने व्यवस्था कर ली है।’’

‘‘किसलिए तैयार हो जाऊँ? क्या व्यवस्था कर ली है तुम लागों ने?’’ विताशोक ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘सम्राट् अशोक इस प्रकार अपने सहोदर का वध नहीं कर सकेंगे।’’ महामाया ने कहा। उसी समय अट्टालिका के द्वार पर किसी रथ के आकर रुकने की आहट सुनाई पड़ी। महामाया उत्तेजित स्वर में बोली—

‘‘जल्दी कीजिए। महामात्र भद्रायण रथ लेकर आ गए हैं। दो घड़ी बीतते न बीतते रथ के पहिए हम दोनों को लेकर पाटलिपुत्र से दूर हो जाएँगे। सुबह सम्राट् के भटों को यहाँ विभ्रमित परिचारिकाओं का दल मिलेगा और कुछ नहीं।’’

‘‘ठहरो,’’ विताशोक ने महामाया के उस स्वरूप को जी भर निहारकर उसे वक्ष से लगाते हुए कहा, ‘‘ठहरो, महामाया! इतनी शीघ्रता करने से हमारा सारा वैभव नष्ट हो जाएगा। इतनी विदुषी होकर भी तुम भोली हो, अस्तायमान सूर्य के साथ अवसन्न होना तारिका को शोभा नहीं देता, तुमने सहसा ही यह कैसे विश्वास कर लिया कि विताशोक कायरों की भाँति पलायन कर जाएगा? तब उस चिंतन का क्या होगा, जो प्रयोग के बल पर निखरकर इन सात दिनों में सामने आया है? जिसके दर्शनों से भी लोगों के मनों में प्यार उमड़ पड़ता है। देवताओं तक को उसका स्वरूप अत्यंत प्रिय है, ऐसे प्रियदर्शी देवानांप्रिय सम्राट् अशोक को उस चिंतन की सबसे अधिक आवश्यकता है! वह मेरा सहोदर है, उसने मुझे अब तक जीवित रहने दिया, यह उसका मुझपर ऋण है। यह ऋण चुकाए बिना विताशोक किस प्रकार रथ के पहियों का आश्रय ले सकता है?’’

महामाया आशंका से छिटककर अलग हो गई। त्रस्त भाव से उसने विताशोक को मानो अपने नेत्रों में समा लेना चाहा। फिर त्वरित स्वर में बोली, ‘‘कुमार, यह समय कार्य का है, भावनाओं का नहीं। यदि तुम्हारे प्राण नहीं बच सके, तो यह अट्टालिका, यह वैभव, ये विलास-वस्तुएँ, सब मेरे लिए तुच्छ हैं। तुम्हें क्या मालूम कि इन सात दिनों के अल्प समय में भी महामाया की सारी कला, सारी श्री और समस्त प्राणों पर तुमने अधिकार कर लिया है। भावनाओं को तिरोहित करके चलो, कुमार। महामात्र भद्रायण इस महान् कार्य के लिए अपना समस्त वैभव, समस्त प्रतिष्ठा दाँव पर लगाए बैठे हैं।’’

विताशोक हँसा। महामाया के अनिंद्य रूप से दृष्टि हटाकर उसने वातायन की ओर देखकर बोला, ‘‘कहाँ ले जाओगी, महामाया? महामात्र भद्रायण से कहो कि इतिहास के विधाता ने जिस नाम को लाल स्याही से काट दिया है, उसे पुनः अंकित करने के प्रयत्न में वैभव लुटाने से कोई लाभ नहीं। इन सात दिनों में जीवन का समस्त स्नेह संचित कर जिसने अंतिम प्रेयसी के स्वागत की पूरी तैयारी कर ली है, उसे अब और कोई तैयारी करने का अवसर ही कहाँ है?’’

महामाया की बौद्धिक नारी क्षण भर में ही एक सामान्य बेकल नारी के रूप में परिवर्तित हो गई। आँसुओं को व्यर्थ ही छिपाने के प्रयत्न में उसने विताशोक के वक्ष में सिर देकर अपने हृदय का समस्त अनुरोध उँडे़ल दिया, ‘‘चलो, कुमार...मेरा हठ रख लो!’’

‘‘कहाँ रखूँ तुम्हारे हठ को, माया? कोई स्थान छोड़ा है तुमने, जहाँ तुम्हारे मानस की प्रयोगशाला स्थापित न हो? महान् अशोक को बिना उसका दर्शन कराए कहीं ठौर मिलेगी? इतिपथ से इस पथ पर हटकर भागने से कहीं इतिहास बदल सकता है। जहाँ जाओगी वहाँ अशोक मिलेगा, क्योंकि भावनाओं से सर्वथा रहित इतिहास को निर्वाचन शक्ति ने उसे बहुमत से चुन लिया है। इन सात दिनों में तुम्हारे स्नेह ने मेरे बुझते दीप को बल दिया है कि मैं घटाटोप घटनाओं के अंधकार में उस शक्ति को खोज निकालूँ। उसका आभास मुझे मिल गया है, महामाया। रथ को विदा कर दो, और इस दीप को अंतिम स्नेह-दान दो, जिससे यह अपने अंतिम समय तक संपूर्ण तेज के साथ जल सके।’’

विताशोक के वक्ष में मुँह दिए महामाया के समस्त भावी स्वप्न फफक-फफककर रो उठे। किसी अलक्ष्य लोक में विचरता विताशोक उसकी पीठ को हौले-हौले थपथपाता रहा।

कुछ समय बाद प्रतीक्षा में खड़ा रथ मानो इस बीहड़ इतिपथ का तेजी से विरोध करता हुआ चर्रख-चूं, चर्रख-चूं करता लौट गया। विताशोक के कक्ष का दीप अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ रातभर जलता रहा। सुबह का प्रथम प्रहर समाप्त होते ही महामात्र भद्रायण राजकीय रथ लेकर विताशोक को प्रियदर्शी की सेवा में ले जाने के लिए पहुँचे। विताशोक मुसकरा रहा था। महामाया गंभीर थी। जब उनका रथ राजपथ को पार करता हुआ राजभवनों की ओर बढ़ रहा था, तो पाटलिपुत्र के निवासियों के ठट-के-ठट उस रथ के पीछे दौड़ रहे थे। सर्वत्र उत्तेजना थी, सर्वत्र मानसिक अशांति थी। सर्वत्र क्षोभ था।

जब विताशोक को राजसभा में उपस्थित किया गया, तो सभा खचाखच भरी हुई थी। कलाकारों की पंक्ति में महामाया सिंहासन के सबसे निकट के आसन पर प्रतिष्ठित की गई। विचारशील नेत्र ऊपर उठाकर प्रियदर्शी ने विताशोक की ओर देखकर निष्पक्ष भाव का प्रदर्शन किया।

महामंत्री खल्लातक ने उठकर पहले सम्राट् तथा सकल सभा का अभिनंदन किया। फिर कहा, ‘‘महामात्र, प्रियदर्शी, देवानांप्रिय सम्राट् अशोक, प्रतिष्ठित महामात्रगण व अधिकारी जन तथा सकल सभासद मेरी सुनो। आज से आठ दिन पूर्व अभियुक्त विताशोक ने, जो इस समय उपस्थित जनों के सम्मुख है, कतिपय षड्यंत्रकारियों के साथ अभिसंधि करके पाटलिपुत्र के इस पवित्र मौर्य सिंहासन पर दुर्नीति व दुरेच्छा से पाँव रखा। इससे पूर्व पूज्य अमिताभ, पूज्य धर्म व पूज्य संघ के प्रति कुवचन कहे। इन महान् अपराधों के कारण अभियुक्त को न्यायाधिपति प्रियदर्शी ने, अपने समस्त इहलौकिक संबंध त्यागकर, अभियुक्त को निष्पक्ष भाव से सात दिन बाद प्राणदंड देने की आज्ञा सुनाई। उदाहरणस्वरूप इन सात दिनों तक पाटलिपुत्र के सर्वाधिक आमोद-प्रमोद से पूर्ण विलास-भवन में जीवन के समस्त सुखों का उपभोग करने के लिए छोड़ दिया। अभियुक्त ने अभिधर्म-सेवियों के ऊपर लांछन लगाया था कि वे विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। इन सात दिनों में मृत्यु की प्रतीक्षा में रत अभियुक्त का विलासितापूर्ण जीवन कैसा व्यतीत हुआ, इसे देवी महामाया अभी सकल जनों के सम्मुख निवेदन करेंगी और बताएँगी कि अभिधर्म-सेवी बौद्ध-जन कैसा भयग्रस्त विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।’’ फिर महामंत्री देवी महामाया की ओर लक्ष्य करके बोले, ‘‘देवी, अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करें।’’

देवी महामाया खड़ी हुई। विताशोक ने मुसकराकर उसके मुख की ओर देखा और विनम्र वाणी में बोला, ‘‘देवी महामाया धरा के सर्वोच्च न्यायाधिपति के सम्मुख है, इसलिए निर्भीकता के साथ निवेदन करें।’’ उसी समय महामाया की दृष्टि कुमार विताशोक की तेजपूर्ण दृष्टि से टकराई। थेड़ी देर टिकी रही। फिर आँसुओं के दो बड़े-बड़े डोरे पाटलिपुत्र की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी के कपोलों पर लुढ़कते हुए चू पड़े। दोनों हाथों से अपना मुँह छिपाकर वह जहाँ-की-तहाँ धँस गई।

विताशोक ने सम्राट् सहित सकल सभा को अपनी ओर उन्मुख किया और बोला, ‘‘देवी महामाया अपना निश्छल निवेदन प्रकट कर चुकी। वह इस समय कोई राजसम्मत निवेदन प्रकट करने की स्थिति में नहीं हैं। सम्राट् स्वयं अभियुक्त को अनुमति दें, तो संभव है वह ज्ञातव्य विषय पर और अधिक प्रकाश डाल सके।’’ महामंत्री खल्लातक ने सम्राट् की ओर से यह आज्ञा प्रदान की। तब विताशोक छाती तानकर सीधा खड़ा हो गया। सकल सभा सुने, इस आशय से उच्च स्वर में उसने कहा—

‘‘कुछ समय पहले का चंडाशोक, जो आज आप लोगों का स्वयं मनोनीत प्रियदर्शी है, उदाहरण देने की कला में खूब पारंगत है। कुछ समय पहले धरती पर ही नरक का एक उदाहरण उसने उपस्थित किया था, जिसमें अपराधियों को अमानवीय व अकल्पनीय यंत्रणाएँ देकर इस लोक में नरक की यातनाओं का अनुभव कराया जाता था। उस चंडाशोक की नसों में भी जो मौर्य रक्त बह रहा है, वही अभियुक्त विताशोक की नसों में भी प्रवाहित है। यदि नरक का निर्माण करनेवाला चंडाशोक आज धर्माशोक बनकर उस सिंहासन को अपवित्र नहीं करता, तो स्वर्ग के निर्माण का दंभ भरने वाला विताशोक किस प्रकार उसे अपवित्र कर सकता था।’’

राजसभा मौन रही। किंतु प्रश्न सभी के मानस से टकराया। महामंत्री खल्लातक ने उठकर कहा, ‘‘सम्राट् प्रियदर्शी अभियुक्त की इस धृष्टता को क्षमा करते हैं, र्क्योंकि उनके राज्य में मृत्यु की ओर बलात् जानेवाले व्यक्ति को अपना संपूर्ण अभिमत प्रकट करने का अधिकार है।’’

सभासदों के मन में धैर्य के प्रति सराहना के भाव उदित हुए। उसी समय विताशोक ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘सकल सभासद मेरी सुनें! मैं अपने उन षड्यंत्रकारी साथियों को इस सभा के बीच लाए जानेवाले की माँग करता हूँ, जिन्होंने मुझे सिंहासन पर बैठाने की अभिसंधि की थी।’’

सभा में चर्चा उठने से पहले महामंत्री ने कहा, ‘‘वे षड्यंत्रकारी नहीं पकड़े जा सके। उनके प्रकाश में आते ही उनका न्याय किया जाएगा।’’

‘‘किंतु वे अब पकड़े जा सकते हैं,’’ विताशोक ने अव्याहत स्वर से कहा, ‘‘क्योंकि वे इसी सभा के बीच मौजूद हैं और उसमें अग्रणी स्वयं महामंत्री खल्लातक हैं, जिन्हें अभियुक्त को राजसिंहासन प्राप्त करने का भुलावा देकर स्वयं सम्राट् अशोक ने राजसिंहासन का सबसे बड़ा काँटा हटाने का षड्यंत्र रचा था। इस षड्यंत्र का कारण केवल भय था, क्योंकि इससे पहले ही विताशोक अपने मन, वचन, कर्म से सम्राट् अशोक की ऐतिहासिक सत्ता को स्वीकार कर चुका था और शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहता था।’’

एक अन्य राजभक्त महामात्र ने अपने स्थान से ही कहा, ‘‘इन सात दिनों में अभियुक्त का मस्तिष्क काफी दूर-दूर तक दौड़ा है।’’ इसके बाद उसने एक ठहाका लगाया और सभा में ठहाकों का बाजार गरम हो चला। ‘‘आश्चर्य है!’’ महामंत्री खल्लातक अपनी हँसी रोकते हुए बोला, ‘‘इतने सत्यवादी निर्ग्रंथ को छोड़कर महाराज बिंदुसार की प्रजा ने धर्माशोक प्रियदर्शी जैसे महापुरुष को अपना अधिपति चुना।’’

विताशोक मानो तड़प गया। उसने उस महामंत्री की ओर घूमकर कहा, ‘‘कौन है जो इतिहास का मनमाना अर्थ लगा रहा है? क्या महानंद की प्रजा ने स्वेच्छा से महानंद को अपना अधिपति चुना था? क्या पौरव की प्रजा ने सिकंदर को अपना अधिपति चुनने के लिए आमंत्रित किया था? अभी सम्राट् धर्माशोक के महामात्रों को यह जानना शेष है कि प्रजा द्वारा नरपतियों के चुने जाने का युग धर्मशास्त्रों व पुराणों में विलीन हो चुका है। नरपति उन ऐतिहासिक शक्तियों के द्वारा चुने जाते हैं, जिनके द्वारा समस्त मानवी व्यवस्था के युग नियंत्रित होते हैं।’’

परिहास के साथ प्रहार-ग्रस्त महामात्र ने पूछा, ‘‘और प्रियदर्शी धर्माशोक को चुनने के लिए कौन सी ऐतिहासिक शक्ति उत्तरदायी है?’’

‘‘रथ के पहिए,’’ अभियुक्त विताशोक ने घोशित किया।

राजसभा में निस्तब्धता छा गई। शब्द इतने स्पष्ट थे कि अपने चारों ओर रहस्य का आवरण लपेटे हुए भी अंतस्तलों में उतरते चले गए।

उस निस्तब्धता में विताशोक ने दूसरी बार उस शक्ति का नाम लिया। उसने कहा, ‘‘रथ के पहिए...पहली बार सहोदर धर्माशोक के द्वारा विराट् संख्या में रथ के पहियों का निर्माण हुआ। पहली बार भट ने यह अनुभव किया कि भारी कवच पहने हाथियों और घोड़ों पर लड़ने की अपेक्षा चपल अश्वों से जुते हुए तीव्रगामी रथों में बैठकर वे न केवल शस्त्रों के वार को सुगमता से काट सकते हैं, बल्कि उनका संचालन भी सुगमता से कर सकते हैं। पहली बार मेरे सहोदर ने यह अनुभव किया कि महाराज बिंदुसार के विशाल साम्राज्य में दूर-दूर तक अपना आतंक फैलाए रखने के लिए रथ के पहिये सर्वव्यापी सुदर्शन चक्र की परिकल्पना को पूर्ण करेंगे ...किंतु यह ऐतिहासिक शक्ति चंडाशोक के हृदय को प्रपंच से मुक्त नहीं कर सकी और...।’’

विताशोक ने अपने तेजपूर्ण नेत्रों से चंडाशोक की आँखों में ताका। अपूर्ण वाक्य को पूर्ण करता हुआ वह बोला, ‘‘धर्माशोक जिस धर्म का अवलंब लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं, वह उनके धर्म-निरपेक्ष राज्य का सबसे बड़ा विरोधाभास बनकर खड़ा हुआ है। सबल के सम्मुख अहिंसा व निर्बल के सम्मुख हिंसा, यही प्रयोग में मतावलंबियों की चर्चा है। आध्यात्म के चिंतन में वृक्षों के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त करनेवालों का संघ उन अकर्मण्यों का संघ है, जिन्होंने अपनी आत्मा, अपने स्व के अर्थ को सामाजिक अर्थ-साधन के सम्मुख श्रेष्ठ समझा है। और वह उससे पोषण प्राप्त करते हुए भी उस पोषक शक्ति की पूर्ति के प्रति उदासीन है। इस समस्त विडंबना को लिये हुए ये रथ के पहिये उस ऐतिहासिक समयांत तक निश्चित रूप से डगमगाते दौड़ते रहेंगे, जब तक इस एकत्र होती हुई आध्यात्मवादी अकर्मण्यता का भार उनकी शक्ति के लिए असह्य नहीं हो जाएगा।...और इस बीच विताशोक ही नहीं, प्रत्येक सहृदय व कोमल प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इन पहियों के नीचे आकर कुचलती चली जाएगी। विताशोक अपनी संपूर्ण चेतना के साथ इस ऐतिहासिक प्रगति का सम्मान करता है। अशोक में यदि अब भी खुलकर हिंसा के प्रयोग का साहस हो, तो वह बधिकों को आज्ञा दे, अन्यथा अंधकार होने तक प्रतीक्षा करे। संसार उस समय सो जाता है।’’

अनेक महामात्र मुँह बाए विताशोक के उस वक्तव्य को सुनते रहे, जिसने महान् अशोक की ऐतिहासिक स्थिति का सूत्र रूप में निरावरण कर दिया था। महामंत्री खल्लातक उठे, किंतु उसी समय अपने विचारशील नेत्र ऊपर उठाए अशोक अपने सिंहासन से ऊपर उठा और बोला, ‘‘लगता है कि भोग-विलास की प्रचुरता और भावी मृत्यु के भय से अभियुक्त का मस्तिष्क विकृत हो गया है। हम यह व्यवस्था करते हैं कि विक्षिप्त व्यक्ति को कभी प्राणदंड न दिया जाए। इसलिए हम विताशोक को मुक्त करते हैं। राजधानी के निजी क्षेत्र की सीमा के बाहर वह कहीं भी अपना शेष जीवन व्यतीत कर सकता है।’’

विताशोक ने सहसा ही ठहाका लगाया और बोला, ‘‘सम्राट् ने यह नहीं बताया कि यह शेष जीवन कितने दिन तक चलने वाला है! सकल सभा सुने, इस विक्षिप्त विताशोक ने सात दिनों में इतना विलास किया है कि स्वयं विलास से उसे वितृष्णा हो गई है। सम्राट् अशोक ने अपनी उद्देश्य-पूर्ति के लिए अंधकार का आश्रय लेने का निश्चय किया है। अतः जब तक इस शरीर का अंत नहीं होता, तब तक विताशोक के लिए प्रत्येक परिग्रह का त्याग है।’’

उस समय जड़ हो गए प्रजाजनों व सभासदों ने आँखें फाड़कर देखा, विताशोक ने एक-एक वस्त्र, एक-एक आभूशण एक-के-बाद-एक शरीर से उतारकर गिराने आरंभ किए। महामाया खड़ी होकर चिल्लाई, ‘‘कुमार विताशोक!’’

विताशोक की दृष्टि उस ओर नहीं थी। केवल अशोक की दृष्टि महामाया के विकल अंगों पर पड़ी और उसकी भौं ऊपर चढ़ गई।

जब तक विताशोक निर्ग्रंथ, दिगंबर मुनि के रूप में दृष्टिगोचर हुआ, तब तक पाटलिपुत्र की प्रथम नर्तकी चेतना खो चुकी थी। देखते-ही-देखते विताशोक ने हाथ ऊपर उठाकर अशोक को आशीर्वाद दिया—‘कल्याण हो’ और पीठ मोड़कर निस्पृह भाव से लोगों के आश्चर्यचकित समूह को पार करता हुआ राजसभा से बाहर निकल गया।

कुछ ही समय में विताशोक की ख्याति चारों ओर फैल गई। सुना कि उसने अर्हत पद प्राप्त कर लिया, किंतु एक घने वन के अंधकार में एक दिन सचमुच न जाने किसने किसकी प्रेरणा से अर्हत विताशोक का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। उस सिर के नेत्र अर्द्धोन्मीलित थे और मुख पर एक विचित्र मुसकान थी, जिनसे मिलकर एक अपूर्व क्षमाशीलता के भाव की सृष्टि होती थी। केवल एक ही विचित्र बात थी, यह कांड पाटलिपुत्र से बहुत दूर हुआ—विस्ती राज्य की सीमा निकट ही थी, किंतु घटनास्थल तक एक रथ के पहियों के निशान आकर वापस पाटलिपुत्र की दिशा में लौट गए थे।

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