राष्ट्र का स्वरूप (निबन्ध) : वासुदेव शरण अग्रवाल

भूमि

भूमि, भूमि पर बसने वाला जन और जन की संस्कृति इन तीनों के सम्मिलित से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।

भूमि का निर्माण देवों ने किया है वह अनंत काल से है । उसके भौतिक रूप सौंदर्य और समृद्धि के प्रति सचेत होना हमारा आपसे कर्तव्य है भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति हम जितने अधिक जागृत होंगे उतनी ही हमारी राष्ट्रीयता बलवती हो सकेगी या पृथ्वी सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचार धाराओं की जननी है जो राष्ट्रीयता पृथ्वी के साथ नहीं जो वह निर्मल होती है राष्ट्रीयता की जड़ें पृथ्वी में जितनी गहरी होगी उतना ही राष्ट्रीय भाव का अंकुर पल्लवित होगा इसलिए पृथ्वी के भौतिक स्वरूप को अशांत जानकारी प्राप्त करना उसकी सुंदरता उपयोगिता और महिमा को पहचानना आवश्यक धर्म है।

इस कर्तव्य की पूर्ति सैकड़ों हजारों प्रकार से होनी चाहिए पृथ्वी से जिस वस्तु का संबंध है चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका कुशल प्रश्न पूछने के लिए हमें कमर कसनी चाहिए पृथ्वी का सांगोपांग अध्ययन जागरण सील ने राष्ट्र के लिए बहुत ही आनंद प्रद कर्तव्य माना जाता है गांवों और नगरों में सैकड़ों केंद्रों से इस प्रकार के अध्ययन का सूत्रपात होना आवश्यक है।

उदाहरण के लिए पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने वाले मेघ जो प्रतिवर्ष समय समय पर आकर अपने अमृत जल से इसे सीखते हैं हमारे अध्ययन के परिधि के अंतर्गत आने चाहिए उनमें 1 जनों से परिवर्धित प्रत्येक 3 लता और वंश पति का सोच में परिचय प्राप्त करना ही हमारा कर्तव्य है ।

इस प्रकार जब चारों ओर से हमारे ज्ञान के कपाट खुलेंगे तब सैकड़ों वर्षो से सुनने और अंधकार से भरे हुए जीवन के क्षेत्रों में नया उजाला दिखाई देगा।

धरती माता की कोख में जो अमूल्य निधि आभारी हैं जिनके कारण व वसुंधरा का लाती है उसमें कौन परिचित ना होना चाहेगा लाखों करोड़ों वर्षों से अनेक प्रकार की धातुओं की पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है दिन-रात बहने वाली नदियों ने पहाड़ों को पीस पीस कर अगर इस प्रकार की मिट्टियों से पृथ्वी की देखो सजाया है प्रत्येक भाभी आर्थिकअभी उदय के लिए इन सब की जांच पड़ताल अत्यंत आवश्यक है पृथ्वी की गोद में जन्म लेने वाले जल पत्थर कुशल सेल प्रोसेस मारे जाने पर अत्यंत 14 के प्रतीक बन जाते हैं नाना भारती के अलीगढ़ में विंध्य की नदियों के प्रवाह में सूर्य की धूप से चिल्लाते रहते हैं उनको जब चतुर कारीगर पहलाद कटा पर लाते हैं तब उनके प्रत्येक घाट से नई शोभा और सुंदरता फूट पड़ती है वह अनमोल हो जाते हैं देश के अंदर नारियों के रूप मंडन और सौंदर्य प्रसाधन में छोटे पत्थरों का भी सदा से कितना भाग रहा है अतः हमें उनका ज्ञान होना भी आवश्यक है।

पृथ्वी और आकाश के अंतर काल में जो कुछ सामग्री भरी हैं पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए गंभीर सागर में जो जलसा एवं रत्नों की राशियां हैं उन सब के प्रति चेतना और स्वागत के नए भाव राष्ट्र में फाइल में चाहिए राष्ट्र के नवयुवकों के हृदय में उन सब के प्रति जिज्ञासा की नई कीड़े जब तक नहीं फूटने तब तक हम सोए हुए के समान हैं।

विज्ञान और उधम दोनों के मिलाकर राष्ट्र के भौतिक स्वरूप का एक नया ठाट खड़ा करना है यह कार्य प्रसंता उत्साह और अथक परिश्रम के द्वारा नियुक्ति आगे बढ़ाना चाहिए हमारा या अंधे हो कि राष्ट्र में जितने हाथ हैं उनमें से कोई भी इस कार्य में भाग दिए बिना रीता ना रहे तभी मात्रिभूमे की पुष्कर समृद्धि और समग्र रूप मंडन प्राप्त किया जा सकता है।

जन

मातृभूमि पर निवास करने वाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग है पृथ्वी हो और मनुष्य ना हो तो राष्ट्र की कल्पना और संभव है पृथ्वी और जब दोनों के सम्मिलित से ही राष्ट्र का स्वरूप संपादित होता है जन्म के कारण ही पृथ्वी मातृभूमि की संज्ञा प्राप्त करती है पृथ्वी माता है और जन सच्चे अर्थों में पृथ्वी का पुत्र है-

( माता भूमि: पुत्रोड हं पृथिव्या:।)
भूमि माता है मैं उनका पुत्र हूं ।

जन के हृदय में इस सूत्र का अनुभव ही राष्ट्रीयता की कुंजी है इसी भावना से राष्ट्र निर्माण के अंकुर उत्पन्न होते हैं या भाव जब सशक्त रूप में जागता है तब राष्ट्र निर्माण के स्वर वायुमंडल में भरने लगते हैं इस भाव के द्वारा ही मनुष्य पृथ्वी के साथ अपने सच्चे संबंध को प्राप्त करते हैं जहां यह भावना ही है वहां जन्मभूमि का संबंध अचेतन और जगह बना रहता है जिस समय विजन का हृदय भूमि के साथ माता और पुत्र के संबंध को पहचानता है उसी क्षण आनंद और श्रद्धा से भरा हुआ उसका प्रणाम भाउ मातृभूमि के लिए इस प्रकार प्रकट होता है-

(नमोमात्रे पृथिव्यै। नमोमात्रे पृथिव्यै। )
माता पृथ्वी को प्रणाम है माता पृथ्वी को प्रणाम है।

यह प्रणाम भाव है भूमि और जन का देव स्पंदन है इसे देश भक्ति पर राष्ट्र का भवन तैयार किया जाता है इसे देव चट्टान पर राष्ट्र का चीर जीवन आश्रित रहता है इसी मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्य के कर्तव्य और अधिकार को का उदय होता है जो जन्म पृथ्वी के साथ माता और पुत्र के सम्मान को स्वीकार करता है उसे ही पृथ्वी के वरदान में भाग पाने का अधिकार है माता के प्रति अनुराग और सेवा भाव पुत्र का स्वभाविक कर्तव्य है इस कारण घर में स्वार्थ के लिए पुत्र का माता के प्रति प्रेम पुत्र के पतन को सूचित करता है जो जन्म मातृभूमि के साथ अपने संबंध जोड़ना चाहता है उसे अपने कर्तव्य के प्रति पहले ध्यान देना चाहिए।

माता अपने पुत्रों को समान भाव से चाहती है इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाला जन बराबर है उनमें उच्च और नीच का भाव नहीं है जो मातृभूमि के उदय के साथ जुड़ा हुआ है वह समान अधिकार का बाकी है पृथ्वी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनंत है मगर और जनपद पूरा और गांव जंगल और पर्वत नाना प्रकार के रंगों से भरे हुए हैं यह जानने प्रकार की भाषाएं बोलने वाले और अनेक धर्मों के मानने वाले हैं फिर भी यह मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका स्वभाव अखंड है सभ्यता और संस्कृति से एक दूसरे के आगे पीछे हो सकते हैं किंतु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनका जो संबंध है उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब्जियों के क्षेत्र में समन्वय के मार्ग से भरपूरप्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है कि सीजन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता है आते और राष्ट्र के प्रत्येक अंग की सुविधा में लेनी होगी राष्ट्र के शरीर के एक भाग में यदि अंधकार और निर्मलता का निवास है तो समाज और राष्ट्र का स्वास्थ्य मुख्य अंश में असमर्थ रहेगा। इस प्रकार समाज और राष्ट्र को जागरण और प्रगति की एक जैसे उदाहरण भावना को संचालित होना चाहिए।

जन का प्रवाह अनंत होता है शास्त्रों वर्षों से भूमि के साथ राष्ट्रीय जन की तादात में प्राप्त किया है जब तक सूर्य की रसिया नित्य प्रात काल सुबह को अमृत से भर देती है तब तक राष्ट्रीय जन का जीवन भी हमारे इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव पार करने के बाद भी राष्ट्र निवासी नहीं उठती लहरों से आगे बढ़ने के लिए अजर अमर है जिनका सतत वही जीवन नदी के प्रवाह की तरह है जिसमें कर्म और श्रम के द्वारा उत्थान के अन्य घाटों का निर्माण करना होता है।

संस्कृति

राष्ट्र का तीसरा अंग जन की संस्कृति है। मनुष्यों ने युगों-युगों में जिस सभ्यता का निर्माण किया है वही उसके जीवन की श्वास-प्रश्वास है। बिना संस्कृति के जन की कल्पना निराधार मात्र है; संस्कृति ही जन का मस्तिष्क है। संस्कृति के विकास और अभ्युदय के द्वारा ही राष्ट्र की वृद्धि सम्भव है। राष्ट्र के समग्र रूप में भूमि और जन के साथ-साथ जन की संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि भूमि और जन अपनी संस्कृति से विरहित कर दिए जाएँ तो राष्ट्र का लोप समझना चाहिए। जीवन के विटप का पुष्प संस्कृति है। संस्कृति के सौन्दर्य और सौरभ में ही राष्ट्रीय जन के जीवन का सौन्दर्य और यश अन्तर्निहित है। ज्ञान और कर्म दोनों के पारस्परिक प्रकाश की संज्ञा संस्कृति है। भूमि पर बसनेवाले जन ने ज्ञान के क्षेत्र में जो सोचा है और कर्म के क्षेत्र में जो रचा है, दोनों के रूप में हमें राष्ट्रीय संस्कृति के दर्शन मिलते हैं। जीवन के विकास की युक्ति ही संस्कृति के रूप में प्रकट होती है। प्रत्येक जाति अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ इस युक्ति को निश्चित करती है और उससे प्रेरित संस्कृति का विकास करती है । इस दृष्टि से प्रत्येक जन की अपनी-अपनी भावना के अनुसार पृथक्- पृथक् संस्कृतियाँ राष्ट्र में विकसित होती हैं, परन्तु उन सबका मूल आधार पारस्परिक सहिष्णुता और समन्वय पर निर्भर है।

जंगल में जिस प्रकार अनेक लता, वृक्ष और वनस्पति अपने अदम्य भाव से उठते हुए पारस्परिक सम्मिलन से अविरोधी स्थिति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जन अपनी संस्कृतियों के द्वारा एक-दूसरे के साथ मिलकर राष्ट्र में रहते हैं। जिस प्रकार जल के अनेक प्रवाह नदियों के रूप में मिलकर समुद्र में एकरूपता प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्रीय जीवन की अनेक विधियाँ राष्ट्रीय संस्कृति में समन्वय प्राप्त करती हैं । समन्वययुक्त जीवन ही राष्ट्र का सुखदायी रूप है।

साहित्य, कला, नृत्य, गीत, आमोद-प्रमोद अनेक रूपों में राष्ट्रीय जन अपने-अपने मानसिक भावों को प्रकट करते हैं। आत्मा का जो विश्वव्यापी आनंद - भाव है वह इन विविध रूपों में साकार होता है। यद्यपि बाह्य रूप की दृष्टि से संस्कृति के ये बाहरी लक्षण अनेक दिखायी पड़ते हैं, किन्तु आंतरिक आनंद की दृष्टि से उनमें एकसूत्रता है। जो व्यक्ति सहृदय है, वह प्रत्येक संस्कृति के आनंद-पक्ष को स्वीकार करता है और उससे आनंदित होता है। इस प्रकार की उदार भावना ही विविध जनों से बने हुए राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यकर है।

गाँवों और जंगलों में स्वच्छंद जन्म लेनेवाले लोकगीतों में, तारों के नीचे विकसित लोक कथाओं में संस्कृति का अमित भंडार भरा हुआ है, जहाँ से आनंद की भरपूर मात्रा प्राप्त हो सकती है। राष्ट्रीय संस्कृति के परिचयकाल में उन सबका स्वागत करने की आवश्यकता है।

पूर्वजों ने चरित्र और धर्म-विज्ञान, साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो कुछ भी पराक्रम किया है उस सारे विस्तार को हम गौरव के साथ धारण करते हैं और उसके तेज को अपने भावी जीवन में साक्षात् देखना चाहते हैं । यही राष्ट्र संवर्द्धन का स्वाभाविक प्रकार है। जहाँ अतीत वर्तमान के लिए भाररूप नहीं है, जहाँ भूत वर्तमान को जकड़ नहीं रखना चाहता वरन् अपने वरदान से पुष्टि करके उसे आगे बढ़ाना चाहता है, उस राष्ट्र का हम स्वागत करते हैं ।

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